________________ 374 ] [ ज्ञाताधर्मकथा कि कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध (विमुख) कर दिया जाय।' देव ने ऐसा विचार किया और कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया / ४४-तए णं तेयलिपुत्ते कल्लं व्हाए जाव [कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-] पायच्छित्ते आसखंधवरगए बहूहिं पुरिसेहि संपरिवुडे साओ गिहाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तदनन्तर तेतलिपुत्र दूसरे दिन स्नान करके, यावत् (बलिकर्म एवं अमंगल-निवारण के लिए कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त करके) श्रेष्ठ अश्व की पीठ पर सवार होकर और बहुत-से पुरुषों से परिवृत होकर अपने घर से निकला / निकल कर जहाँ कनकध्वज राजा था, उसी ओर रवाना हुअा / ४५-तए णं तेलिपुत्तं अमच्चं से जहा बहवे राईसरतलवर जाव [माडंविय-कोडुवियइन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाह-] पभिइओ पासंति, ते तहेव आढायंति, परिजाणंति, अब्भुट्ठति, अब्भुट्टित्ता अंजलिपरिग्गहं करेंति, करित्ता इट्टाहि कंताहि जाव [पियाहि मणुग्णाहिं मणामाहि] वग्गूहि आलवेमाणा संलवेमाणा य पुरतो य पिट्ठतो पासतो य मग्गतो य समणुगच्छंति / ___ तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य को (मार्ग में) जो-जो बहुत-से राजा, ईश्वर, तलवर, (माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह) प्रादि देखते, वे उसी तरह अर्थात् सदैव की भाँति उसका आदर करते, उसे हितकारक जानते और खड़े होते / खड़े होकर हाथ जोड़ते और हाथ जोडकर इष्ट, कान्त, यावत् (प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर) वाणी से बोलते और बार-बार बोलते ! वे सब उसके पागे, पीछे और अगल-बगल में अनुसरण करके चलते थे। ४६-तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव कणगज्झए तेणेव उवागच्छइ / तए णं कणगज्झए तेयलिपुत्तं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुठेइ, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे अणभुट्ठायमाणे परम्मुहे संचिट्ठइ। तए णं तेयलिपुत्ते अमच्चे कणगज्झयस्स रण्णो अंजलि करेइ / तओ य णं कणगज्झए राया अणादायमाणे अपरिजाणमाणे अणब्भुट्ठमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिट्ठइ / तए णं तेयलिपुत्ते कणगज्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए जाव [तत्थे तसिए उबिग्गे] संजायभए एवं वयासी- 'रुठे णं मम कणगज्झए राया, होणे णं मम कणगज्झए राया, अवज्झाए णं कणगज्झए राया। तं ण णज्जइणं मम केणइ कु-मारेण मारेहि त्ति कटु भीए तत्थे य जाव सणियं सणियं पच्चोसक्केइ, पच्चोसक्कित्ता तमेव आसखंधं दुरूहेइ, दुरूहित्ता तेतलिपुरं मझमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए / / तत्पश्चात् वह तेतलिपुत्र जहाँ कनकध्वज राजा था, वहाँ पाया / कनकध्वज ने तेतलिपुत्र को आते देखा, मगर देख कर उसका आदर नहीं किया, उसे हितैषी नहीं जाना, खड़ा नहीं हुआ, बल्कि आदर न करता हुग्रा, न जानता हुअा और खड़ा न होता हुआ पराङ मुख (पीठ फेर कर) बैठा रहा। तब तेतलिपुत्र ने कनकध्वज राजा को हाथ जोड़े। तब भी वह उसका आदर नहीं करता हुआ विमुख होकर बैठा ही रहा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org