________________ 240] [ ज्ञाताधर्मकथा ___ ७१–'हं भो अरहन्नगा! धन्नोऽसि णं तुम देवाणुप्पिया! जाव जोवियफले, जस्स णं तव निग्गथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए वहणं देवाणं मज्झगए महया सद्देणं आइक्खइ—'एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए अरहन्नए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नो खलु सक्का केणए देवेण वा दाणवेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव [खोभित्तए वा] विपरिणामित्तए वा। तए णं अहं देवाणुप्पिया ! सवकस्स देविंदस्स एयमझें गो सद्दहामि, नो रोययामि / तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव [चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पेगे समुप्पज्जित्था- 'गच्छामि णं अरहन्नयस्स अंतियं पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहन्नगे? कि पियधम्मे ? णो पियधम्मे ? दढधम्मे ? नो दढधम्मे ? सीलव्वयगुणे किं चालेइ जाव [नो चालेइ ? खोभेइ नो खोभेइ ? खंडेइ ? नो खंडेइ ?भंजेइ नो भंजेइ ? उज्झइ नो उज्झइ ?] परिच्चयइ ?णो परिच्चयइ ? त्ति कटु एवं संपेहेमि, संहिता ओहि पउंजामि, पउंजित्ता देवाणप्पिया ! ओहिणा आभोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं उत्तरवेउब्वियं समुग्धामि, ताए उक्किट्ठाए जाव [देवगईए] जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि। उवागच्छित्ता देवाणुप्पियाणं उसग्गं करेमि / नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा तत्था वा, तं जं णं सक्के देविदे देवराया वदइ, सच्चे णं एसमठे / तं दिठे णं देवाणुप्पियाणं इड्ढी जुई जसो बलं जाव [वीरियं पुरिसक्कार] परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए। तं खामेमि णं देवाणप्पिया! खमंतमरहंत णं देवाणप्पिया! णाइ भुज्जो भुज्जो एवं करणयाए।' त्ति कटु पंजलिउडे पायवडिए एयमठे भुज्जो भुज्जो खामेइ, खामित्ता अरहन्नयस्स दुवे कुडलजुयले दलयइ, दलइत्ता जामेव दिसि पाउवभूए तामेव पडिगए। ___हे अर्हन्नक ! तुम धन्य हो। देवानुप्रिय ! [तुम कृतार्थ हो, देवानुप्रिय ! तुम सफल लक्षण वाले हो, देवानुप्रिय! ] तुम्हारा जन्म और तुम्हारा जीवन सफल है कि जिसको अर्थात् तुम को निर्ग्रन्थप्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति (श्रद्धा) लब्ध हुई है, प्राप्त हुई है और आचरण में लाने के कारण सम्यक् प्रकार से सन्मुख आई है। हे देवानुप्रिय ! देवों के इन्द्र और देवों के राजा शक ने सौधर्म कल्प में, सौधर्मावतंसक नामक विमान में और सुधर्मा सभा में, बहुत-से देवों के मध्य में स्थित होकर महान् शब्दों से इस प्रकार कहा था—निस्सन्देह जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरत क्षेत्र में चम्पानगरी में में अहन्नक नामक श्रमणोपासक जीव-अजीव आदि तत्वों का ज्ञाता है। उसे निश्चय ही कोई देव या दानव निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान करने में यावत् सम्यक्त्व से च्युत करने में समर्थ नहीं है। तब हे देवानुप्रिय ! देवेन्द्र शक की इस बात पर मुझे श्रद्धा नहीं हुई / यह बात रुची नहीं। तब मझे इस प्रकार का विचार. [चिन्तन, अभिलाष एवं संकल्प] उत्पन्न हा कि-'मैं जाऊँ और अन्नक के समक्ष प्रकट होऊँ। पहले जान कि अन्नक को धर्म प्रिय है अथवा धर्म प्रिय नहीं है ? वह दृढ़धर्मा है अथवा दृढ़धर्मा नहीं है ? वह शीलवत और गुणव्रत आदि से चलायमान होता है, यावत् [अथवा चलायमान नहीं होता? क्षुब्ध होता है या नहीं? अपने व्रतों को खंडित करता है अथवा नहीं ? उन्हें त्यागता है या नहीं?] उनका परित्याग करता है अथवा नहीं करता ? मैंने इस प्रकार का विचार किया / विचार करके अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। उपयोग लगाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org