________________ 316 ] (ज्ञाताधर्मकथा निउरंबभूया पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति। भगवान् उत्तर देते हैं—हे गौतम ! जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं / वे कृष्ण वर्ण वाले यावत् निकुरब (गुच्छा) रूप हैं / पत्तों वाले, फलों वाले, अपनी हरियाली के कारण मनोहर पोर श्री से अत्यन्त शोभित-शोभित होते हुए स्थित हैं। ६-जया णं दीविच्चगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तदा गं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति / अप्पेगइया दावद्दवा रूक्खा जुन्ना झोडा परिसडिय-पंडुपत्तपुप्फ-फला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणा चिट्ठति / जब द्वीप संबंधी ईषत् पुरोवात अर्थात् कुछ-कुछ स्निग्ध अथवा पूर्व दिशा सम्बन्धी वायु, पथ्यवात अर्थात सामान्यतः बनस्पति के लिए हितकारक या पछाही वाय, मन्द (धीमी-धीमी) वायू और महावात–प्रचण्ड वायु चलती है, तब बहत-से दावद्रव नामक वक्ष पत्र आदि से युक्त होकर खड़े रहते हैं / उनमें से कोई-कोई दाबद्रव वृक्ष जीर्ण जैसे हो जाते हैं, झोड़ अर्थात् सड़े पत्तों वाले हो जाते हैं, अतएव वे खिरे हुए पीले पत्तों, पुष्पों और फलों वाले हो जाते हैं और सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए खड़े रहते हैं। ७-एवामेव समणाउसो ! जे अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं सम्मं सहइ जाव खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइ, एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते समणाउसो ! इसी प्रकार हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् दीक्षित होकर बहुत-से साधुनों बहुत-सी साध्वियों, बहुत से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं के प्रतिकल वचनों को सम्यक् प्रकार से सहन करता है, यावत् विशेष रूप से सहन करता है, किन्तु बहुत-से अन्य तीथिकों के तथा गृहस्थों के दुर्वचन को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता है, यावत् विशेष रूप से सहन नहीं करता है, ऐसे पुरुष को मैंने देश-विराधक कहा है। देशाराधक ८-समणाउसो ! जया णं सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वाति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा जाव मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठति / अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उपसोभेमाणा चिट्ठति / प्रायुप्मन श्रमणो! जब समुद्र संबंधी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, मंदवात और महावात बहती है, तब बहुत-से दावद्रव वृक्ष जीर्ण-से हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, यावत् मुरझातेमुरझाते खड़े रहते हैं। किन्तु कोई-कोई दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित यावत् अत्यन्त शोभायमान होते हुए रहते हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org