________________ अठारहवाँ अध्ययन : सुसुमा ] [493 जैसे धन्य सार्थवाह को अपनी पुत्री के मांस-रुधिर के सेवन में लेशमात्र भी प्रासक्ति या लोलुपता नहीं थी, उसी प्रकार साधक के मन में आहार के प्रति अणुमात्र भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। उच्चतम कोटि की अनासक्ति प्रदर्शित करने के लिए योजित यह उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है—अनुरूप है / इस पर सही दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए शास्त्रकार के प्राशय को समझने का प्रयत्न करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org