________________ 276] [ज्ञाताधर्मकथा बनाये हुए ग्राभरणों को धारण करने वाले देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिनेन्द्र देव की शिविका वहन की। १७८-तए णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा अहाणुपुव्वीए एवं निग्गमो जहा जमालिस्स। तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब मनोरमा शिविका पर आरूढ हुए, उस समय उनके आगे आठआठ मंगल अनुक्रम से चले / भगवतीसूत्र में वर्णित जमालि के निर्गमन की तरह यहाँ मल्ली परहंत के निर्गमन का वर्णन समझ लेना चाहिए / विवेचन-सूत्र में जिन आठ मंगलों का उल्लेख है, वे इस प्रकार हैं--(१) स्वस्तिक, (2) श्रीवत्स, (3) नंदिकावर्त (नन्द्यावर्त), (4) वर्द्धमानक, (5) भद्रासन, (6) कलश, (7) मत्स्य और (8) दर्पण / तीर्थकर के वक्षस्थल में उठे हुए अवयव के आकर का विशेष प्रकार का चिह्न श्रीवत्स कहलाता है। प्रत्येक दिशा में नव कोण वाला साथिया नंदिकावर्त्त है। शराव (सिकोरे) को वर्द्धमानक कहते हैं। एक विशेष प्रकार का सुखद सिंहासन भद्रासन है। कलश, मत्स्य और दर्पण प्रासिद्ध हैं। जमालि के निष्क्रमण का वर्णन भगवतीसूत्र में है। प्रस्तुत शास्त्र में प्रथम अध्ययन में वणित मेघकुमार के निष्क्रमण से भी उसे समझा जा सकता है। १७९---तए णं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पेइगया देवा मिहिलं रायहाणि अभितर-बाहिरं आसियसंमज्जिय-संमट्ठ-सुइ-रत्यंतरावणवीहियं करेंति जाव परिधावति / तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जब दीक्षा धारण करने के लिए निकले तो किन्हीं-किन्हीं देवों ने मिथिला राजधानी में पानी सींच दिया, उसे साफ कर दिया और भीतर तथा बाहर की विधि करके यावत् चारों ओर दौड़धूप करने लगे। (यह सर्व वर्णन राजप्रश्नीय आदि सूत्रों से जाने लेना चाहिए।) १८०-तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता आभरणालंकारं ओमुयइ / तए णं पभावती हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणालंकारं पडिच्छइ / तत्पश्चात् मल्ली अरहंत जहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था और जहाँ श्रेष्ठ अशोकवक्ष था, वहाँ आये / आकर शिविका से नीचे उतरे / नीचे उतरकर समस्त प्राभरणों का त्याग किया। प्रभावती देवी ने हंस के चिह्न वाली अपनी साड़ी में वे आभरण ग्रहण किये। १८१-तए णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ / तए णं सक्के देविदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ / पडिच्छित्ता खीरोदगसमुद्दे पक्खिवइ / तए णं मल्ली अरहा 'णमोऽत्यु णं सिद्धाणं' ति कट्ट सामाइयचरित्तं पडिवज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org