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१७वें वर्षसे पहले है। इस धर्मको भला कौन ग्रहण करे ? ऐसा मानकर ही तूने इस धर्मकी ओर तनिक दृष्टि तक भी नही की। अरे । तू दृष्टि क्या कर सके ? अपने अनेक भवोके तपके कारण तू राजा हुआ। तो अब नरकमे जानेसे कैसे रुके ? 'तपेश्वरी सो राजेश्वरी और राजेश्वरी सो नरकेश्वरी' यह कहावत, तेरे हाथ यह धर्म आनेसे मिथ्या ठहरती। और तू नरकमे जानेसे रुक जाता। हे मूढात्मन् । यह सब विचार अब तुझे रह रहकर सूझते हैं । परतु अब यह सूझा हुआ किस कामका ? कुछ भी नही । प्रथमसे ही सूझा होता तो यह दशा कहाँमे होती ? होनेवाला हुआ। परतु अब अपने अत करणमे दृढ कर कि यही धर्म सच्चा है, यही धर्म पवित्र है। और अब इसके दूसरे सिद्धातोका अवलोकन कर।
२. तप-इस विपय सबंधी भी इसने जो उपदेश दिया है, वह अनुपम है। और तपके महान योगसे मैंने मालवा देशका राज्य पाया है, ऐसा कहा जाता है, यह भी सच्चा ही है। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, ये तीन इसने तपके भाग किये है। ये भी सच्चे है । ऐसा करनेसे उत्पन्न होनेवाले सभी विकार शात होते-होते कालक्रमसे विलीन हो जाते है। जिससे बँधनेवाला कर्मजाल रुक जाता है । वैराग्य सहित धर्म भी पाला जा सकता है। और अतमे यह महान सुखप्रद सिद्ध होता है। देख | इसका यह सिद्धात भो कैसा उत्कृष्ट है !
३. भाव-भावके विपयमे इसने कैसा उपदेश दिया है | यह भी सच्चा ही है। भावके बिना धर्म कैसे फलीभूत हो ? भावके बिना धर्म हो ही कहॉसे ? भाव तो धर्मका जीवन है। जब तक भाव न हो तब तक कौनसी वस्तु भली प्रतीत हो सकती थी? भावके बिना धर्मका पालन नहीं हो सकता। तब धर्मके पालनके बिना मुक्ति कहाँसे हो सकती है ? इसका यह सिद्धात भी सच्चा और अनुपम है।
४. ब्रह्मचर्य-अहो । ब्रह्मचर्य सबधी इसका सिद्धात भी कहाँ कन है ? सभी महाविकारोमे काम विकार अग्रेसर है । उसका दमन करना महा दुर्घट है। इसे दहन करनेसे फल भी महा गातिकारक होता है, इसमे अतिशयोक्ति क्या ? कुछ भी नहीं । दु साध्य विषयको सिद्ध करना तो दुर्घट ही है। इसका यह सिद्धात भी कैसा उपदेशजनक है ।
५. संसारत्याग- साधु होने सबधी इसका उपदेश कुछ लोग व्यर्थ मानते है। परंतु यह उनकी केवल मूर्खता है। वे ऐसा मत प्रदर्शित करते है कि तव स्त्रीपुरुपका जोडा उत्पन्न होनेकी क्या आवश्यकता थी ? परतु यह उनकी भ्राति है। सारी सृष्टि कही मोक्ष जानेवाली नही है, ऐसा जैनका एक वचन मैंने सुना था। तदनुसार थोडे ही जीव मोक्षवासी हो सकते है, ऐसा मेरी अल्पबुद्धिमे आता है। फिर संसारका त्याग भी थोडे ही जीव कर सकते है, यह बात कौन नही जानता ? ससारत्याग किये विना मुक्ति कहाँसे हो ? स्त्रीके शृगारमे लुब्ध हो जानेसे कितने ही विषयोमे लुब्ध हो जाना पड़ता है । सतान उत्पन्न होती है । उसका पालन-पोषण और सवर्धन करना पडता है। मेरा-तेरा करना पडता है । उदरभरणादिके लिये प्रपचसे व्यापारादिमे छलकपटका आयोजन करना पड़ता है। मनुष्योका ठगनेके लिये 'सोलह पॉचे बियासी और दो गये छुटके' ऐसे प्रपंच करने पडते है । अरे । ऐसी तो अनेक झझटोमे जुटना पडता है । तब फिर ऐसे प्रपचोमेसे मुक्तिको कौन सिद्ध कर सकनेवाला था ? और जन्म, जरा, मरणके दु खोको कहाँसे दूर करने वाला था ? प्रपचमे रहना ही बधन है। इसलिये इसका यह उपदेश भी महा मगलदायक है।
६. सुदेवभक्ति- इसका यह सिद्धात भी जैसा-तैसा नहीं है। जो केवल संसारसे विरक्त होकर, सत्य धर्मका पालन करके अखड मुक्तिमे विराजमान हुए है, उनकी भक्ति क्यो न सुखप्रद हो ? उनकी भक्तिके स्वाभाविक गुण अपने सिरसे भवबंधनके दुख दूर कर दें, यह वात कोई सशयात्मक नहीं है। ये अखड परमात्मा कुछ राग या द्वेषवाले नही है, परतु परम भक्तिका यह फल स्वत होता है। अग्निका स्वभाव जैसे उष्णता हे वैसे, ये तो रागद्वेषरहित हे परतु इनकी भक्ति न्यायदृष्टिसे गुणदायक है। परतु जो