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श्रीमद् राजचन्द्र
भगवान जन्म, जरा तथा मरणके दुखमे डुबकियाँ लगाया करते है, वे क्या तार सकते है ? पत्थर पत्थरको कैसे तारे ? इसलिये इसका यह उपदेश भी दृढ हृदयसे मान्य करने योग्य है ।
७. नि. स्वार्थी गुरु- जिसे किसी भी प्रकारका स्वार्थ नही है वैसा गुरु धारण करना चाहिये, यह बात इसकी एकदम सच्ची ही है । जितना स्वार्थ होता है उतना धर्म और वैराग्य कम होता है । सभी धर्मोमे मैने धर्मगुरुओका स्वार्थ देखा, केवल एक जैन धर्मके सिवा । उपाश्रयमे आते वक्त चपटी चावल या आधी अजलि ज्वार लानेका भी इन्होने बोध नही दिया और इसी तरह इन्होने किसी भी प्रकारका स्वार्थ नही चलाया । तब ऐसे धर्मगुरुओके आश्रयसे मुक्ति क्यो न मिले ? मिले ही । इनका यह उपदेश महा श्रेयस्कर है । नाव पत्थरको तारती है, इसी तरह सुगुरु उपदेश देकर अपने शिष्योको तार सकता है, इसमे
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असत्य क्या
८. कर्म -सुख और दुख, जन्म और मरण आदि सब कर्मके अधीन है । जीव अनादिकालसे जैसे कर्म करता आ रहा है वैसे फल पा रहा है । यह उपदेश भी अनुपम ही है । कुछ कहते है कि भगवान अपराध क्षमा करे तो यह हो सकता है । परन्तु नही । यह उनकी भूल है । इससे वह परमात्मा भी रागद्वेषवाला सिद्ध होता है । ओर इससे कालक्रमसे मनमाना बरताव करना होता है । इस तरह इन सभी दोषोका कारण परमेश्वर होता है। तब यह बात सत्य कैसे कही जाय ? जैनियोका सिद्धात है कि फल कर्मानुसार होता है, यही सत्य है । ऐसा ही मत उनके तीर्थकरोने भी प्रदर्शित किया है । इन्होने अपनी प्रशसा नही चाही । और यदि चाहे तो वे मानवाले ठहरें । इसलिये उन्होने सत्य प्ररूपित किया है। कीर्तिके बहाने धर्मवृद्धि नही की । तथा उन्होने किसी भी प्रकारसे अपने स्वार्थकी गन्ध तक भी नही आने दी । कर्म सभीके लिये बाधक है । मुझे भी किये हुए कर्म नही छोडते और उन्हे भोगना पडता है। ऐसे विमल वचन भगवान श्री वर्धमानने कहे है। और फिर दृष्टान्त सहित वर्णन करके उन्हे दृढ किया है । भरतेश्वरजीने भगवान श्रीऋषभदेवजीसे पूछा - 'हे भगवन् । अब अपने वशमे कोई तीर्थंकर होगा ?" तब आदि तीर्थंकर भगवानने कहा—'हाँ, यह बाहर बैठा हुआ त्रिदडी वर्तमान चौबीसीमे चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा ।' यह सुनकर भरतेश्वरजी आनंदित हुए, और विनययुक्त अभिवन्दन करके वहाँसे उठे । बाहर आकर त्रिदडीको वदन किया और सूचित किया- 'तेरा अभीका पराक्रम देखकर मै कुछ वदन नही करता; परंतु त वर्तमान चौवीसीमे "भगवान वर्धमानके नामसे अतिम तीर्थंकर होनेवाला है, उस पराक्रमके कारण वदन करता हूँ।' यह सुनकर त्रिदडीजीका मन प्रफुल्लित हुआ, और अह आ गया - 'मै तीर्थंकर होऊँ इसमे क्या आश्चर्य ? मेरा दादा कौन है ? आद्य तीर्थंकर श्रीऋपभदेवजी । मेरा पिता कौन है ? छ खण्डके राजाधिराज चक्रवर्ती भरतेश्वर । मेरा कुल कौनसा है ? इक्ष्वाकु । तब मै तीर्थंकर होऊँ इसमे क्या ?' इस प्रकार अभिमानके आवेशमे हँसे, खेले और उछले - कूदे, जिससे सत्ताईस श्रेष्ठ व अनिष्ट भव बाँधे और उन भवोको भोगनेके बाद वर्तमान चौबीसीके अतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हुए । यदि उन्होने स्वार्थ या कीर्तिके लिये धर्मप्रवर्तन किया होता तो वे इस बातको प्रगट भी करते ? परन्तु उनका धर्म स्वार्थरहित था । इसलिये सच कहने से क्यो रुकते ? देखो भाई । मुझे भी कर्म नही छोड़ते, तो आपको कैसे छोडेंगे ? इसलिये इनका यह कर्मसिद्धात भी सच्चा है । यदि उनका स्वार्थी और कीर्तिके बहाने भुलावा देनेवाला धर्म होता तो वे यह वात प्रदर्शित भी करते ? जिन्हे स्वार्थ हो वे तो ऐसी बातको केवल भूमिमे ही दफना दे, और दिखावे कि, नही नही, मुझे कर्म पीडा नही देते । मै सबको जैसे चाहूँ वैसे कर सकता हूँ, तरनतारन हूँ ऐसी शान बघारते । परंतु भगवान वर्धमान जैसे निस्वार्थी और सत्यनिष्ठको अपनी झूठी प्रशसा कहना - करना छाजे ही क्यो ? ऐसे निर्विकारी परमात्मा ही यथार्थं उपदेश दे सकते है | इसलिये इनका यह सिद्धात भी किसी भी प्रकारसे शका करने योग्य नही है ।
९. सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दृष्टि अर्थात् भली दृष्टि । निष्पक्षतासे सदसद्का विचार करना । इसका नाम