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घुटने तक योगीजन द्वारा धारण किया वस्त्र, ध्यानस्थ योगी) हो - इस तरह विराजमान हुए हों । (१२६ से १३१)
आद्योऽनवस्थिताख्यःस्याच्छलाकाख्यो द्वितीयकः। तृतीयः प्रतिशलाकस्तुर्यो महाशलाककः ॥१३२॥
इन चार पालाओं का नाम इस तरह है - १- अनवस्थित, २- शलाका, ३- प्रतिशलाका और ४ महाशलाका । (१३२)
आवेदिकान्तं सशिखस्तत्र पल्योऽनवस्थितः । मायादेकोऽपि न यथा सर्षपैर्धियते तथा ॥१३३॥ असत्कल्पनया कश्चिद्देवस्तमनवस्थितम् ।। कृत्वा वामकरे तस्मात्सर्षपं पर पाणिंना ॥१३४॥ जम्बूद्वीपे क्षिपेदेकं द्वितीयं लवणोदधौ । .. तृतीयं घातकी खण्डे तुर्यं कालोदवारिधो ॥१३५॥ एवं द्वीपे समुद्रे वा सपल्यो. यत्र निष्ठितः । तत्समायाम विष्कम्भपरिधिः कल्प्यते पुनः ॥१३६॥ उद्वेधतोत्सेधतः प्राग्वद् म्रियते सर्षपैश्च सः । क्रमाद द्वीपे समुद्र च पूर्ववन्नयस्यते कणः ॥१३७॥
इसमें से प्रथम अनवस्थित नामक पाला (प्याला-कटोरा) है । उसकी वेदिका तक ऊपर शिखर चढ़ाकर सरसों भरना; फिर उसमें एक भी अधिक दाना नहीं समाय इस तरह कुछ कल्पना करके, उस पाले को कोई देवता बायें हाथ में उठाकर उसमें से एक कण-दाना दाहिने हाथ से जम्बूद्वीप में फैंक दे, दूसरा एक कण लवण समुद्र में, तीसरा एक दाना घातकी खण्ड में और चौथा एक कालोदधि समुद्र में फैंकता है। इस तरह फेंकते हुए जिस द्वीप अथवा समुद्र में वह प्याला खाली हो जाय, उस द्वीप या समुद्र समान फिर प्याले की कल्पना करना, उसकी गहराई
और ऊँचाई पूर्व समान कही है । ऐसे प्याले में पूर्व समान फिर सरसों भरना और पुनः उसमें का एक-एक दाना पूर्व कहे अनुसार द्वीप समुद्र में फैंकना चाहिए। (१३३ से १३७)
एवं द्वितीयवारं च रिक्तोभूतेऽनवस्थिते । मुच्यते सर्षपः साक्षी शलाका भिध पल्यके ॥१३८॥ पूर्यमाणै रिच्यमानै खं भूयोऽनवस्थितैः । शलाकाख्योऽपि स शिखं पूर्यते साक्षिसर्षपैः ॥१३६॥