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( २० )
यह क्षेत्र पल्योपम और सागरोपम के द्रव्य प्रमाण सम्बन्धी चिन्तन के प्रसंग
पर दृष्टिवाद में कही कही काम आता है। (१२० )
पल्यं पल्योपम चापि ऋषिभिः परिभाषितम् ।
सारं वारिधि पर्यायं सागरं सागरोपमम् ॥१.२१ ॥
पूर्वाचार्यों ने पल्य और पल्योपम दोनों को पर्याय अर्थात् समानार्थ वाचक शब्द कहा है, वैसे ही सागरोपम के स्थान पर 'सार', 'वारिधि' और ' सागर ' शब्द का उपयोग कर चारों को पर्याय गिना है । (१२१ )
अथ संख्यातादिकानां स्वरूपं किञ्चिदुच्यते । श्रोतव्यं तत्सावधानैर्जस्तत्त्व बुभुत्सुभिः ॥१२२॥
अब संख्यात, असंख्यात और अनन्त का कुछ स्वरूपं कहतें हैं । वह तत्त्व जिज्ञासु जन एक चित्त से सुनें । (१२२)
त्रिधा संख्यातं जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भेदतः । असंख्यातानन्तयोस्तु भेदा नव नवोदिताः ॥ १२३॥ परित्तासंख्यातमाद्यं युक्तासंख्यातकं परम् । तार्तीयिककम संख्याता संख्यातं परिकीर्तितम् ॥ १२४॥
संख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इस तरह तीन भेद हैं- और असंख्यात के भी तीन भेद हैं-. १- परीत्त २- - युक्तं और ३- असंख्यात् परन्तु इन तीन में पुनः जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इस तरह तीन भेद हैं । इस प्रकार असंख्यात के ३ x ३ नौ-भेद होते हैं । (१२३ - १२४). परित्तानन्तमाद्य स्याद्युक्तानन्तं द्वितीयकम् ।
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अनन्तानन्तकं तार्तीयीकं च गदितं जिनै ॥ १२५ ॥
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अनन्त के १- परीत्त, २ - युक्त और ३- अनन्त - इस तरह तीन भेद हैं। ये तीनों भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तीन प्रकार से होते हैं अर्थात् अनन्त के भी असंख्यात् के समान नौ भेद जिनेश्वर ने कहे हैं । (१२५)
षडप्येते स्युर्जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भेदतः । अष्टादशाथ संख्यातैस्त्रिभिः सहैक विंशतिः ॥ १२६ ॥
इस तरह संख्यात के तीन, असंख्यात के नौ और अनन्त के नौ - कुल मिलाकर ३ + ई + ६ = २१ भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं - १ - जघन्य संख्यात, २- मध्यम संख्यात, ३ - उत्कृष्ट संख्यात । ये संख्यात के तीन भेद हैं । १- जघन्य परीत्त