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तत्रापि यान्ति चणकादयः सूक्ष्मा यथा क्रमम् । एवं बालाग्र पूर्णेऽपि तत्रा स्पृष्टा नभोऽशका ॥११५॥
यहां कोई शंका करता है कि- इस तरह दबा कर केशाग्र भरे हों ऐसे कुएं में इन केशाग्ने को नहीं स्पर्श हुए आकाश प्रदेश संभव ही कैसे हो सकता है ? फिर उद्धार किसका हो सकता है ? इस शंका का समाधान करते हैं कि-केशाग्र के खंडों का समूह करते भी आकाश प्रदेश सूक्ष्म है, इतना ही स्पर्श करते भी आकाश प्रदेश इसमें संभव है । दृष्टान्त रूप में बीजों से भेरी पेटी में बीच-बीच में खाली जगह रहती है उसमें छोटी वस्तु समा जाती है जैसे आंवले या बेर समा जाते हैं और इसी तरह आंवले अथवा बेर से भरे बरतन में चने समा सकते हैं । (११२ से ११५)
अथवा यतो घनेऽपि स्तम्भादौ शतशोयान्ति कीलकाः । ज्ञायन्तेऽस्पृष्ट खांशानां ततरतत्रापि सम्भवः ॥११६॥ एवं बालाग्र खण्डो घेरत्यन्त निचितेऽपि हि । युक्तैव पल्ये खांशानाम स्पृष्टानां निरूपणा ॥११७॥
यहाँ दूसरा दृष्टान्त देते हैं कि-कठोर से भी कठोर मजबूत लकड़ी स्तंभ में सैंकडों कील लगाने से उसमें समा जाते हैं तो इसी तरह कुएं में स्पर्श किए बिना आकाश प्रदेश किसलिए न समा जाय ? इसलिए जो निरूपण किया है वह युक्त ही है । (११६-११७). . एतेषामथ पल्यानां दशभिः कोटि कोटिभिः ।
सूक्ष्म सूक्ष्मेक्षिभिः क्षेत्र सागरोपममीक्षितम् ॥१८॥
जिस तरह एक सौ ग्यारहवें श्लोक में 'सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम' की बात कही है वही दस कोटा कोटि हो तब एक 'सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम' होता है । (११८)
बादर क्षेत्र पल्याभ्यो निधिभ्यां सूक्ष्मके इमे ।
असंख्य गुण माने स्त: कालत: पल्य सागरे ॥१६॥
सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम का काल बादर क्षेत्र पल्योपम और बादर क्षेत्र सागरोपम के काल से असंख्य गुना है। (११६)
क्षेत्र सागर पल्याभ्यामाभ्यां प्रायः प्रयोजनम् । द्रव्य प्रमाण चिन्तायां दृष्टिवादे क्वचिद् भवेत् ॥१२०॥