Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ४५ पादन किया गया है। पाँचवाँ पिण्डषणा अध्ययन दो उद्देशों में विभक्त है । इनमें भिक्षा-सम्बन्धी विविध विधि-विधान हैं । छठे अध्ययन का नाम महाचारकथा है। इसमें चतुर्थ अध्ययनोक्त छः व्रतों एवं छः जीवनिकायों की रक्षा का विशेष विचार किया गया है। सातवाँ अध्ययन वाक्यशुद्धि से सम्बद्ध है। साधु को हमेशा निर्दोष, अकर्कश एवं असंदिग्ध भाषा बोलनी चाहिए । आठवे अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है । इसमें मन, वचन और काय से षटकाय जीवों के प्रति अहिंसक आचरण के विषय में अनेक प्रकार से विचार किया गया है। विनयसमाधि नामक नवाँ अध्ययन चार उद्देशों में विभक्त है। इसमें श्रमण के विनयगुण का विविध दृष्टियों से व्याख्यान किया गया है । सभिक्षु नामक दसवे अध्ययन में बताया गया है कि ज्ञातपुत्र महावीर के वचनों में जिसकी पूर्ण श्रद्धा है, जो षट्काय के प्राणियों को आत्मवत् समझता है, जो पाँच महावतों की आराधना एवं पाँच आस्रवों का निरोध करता है वह भिक्षु है इत्यादि । रतिवाक्य नामक प्रथम चूलिका में चंचल मन को स्थिर करने का उपाय बताते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार . लगाम से चंचल घोड़ा वश में हो जाता है, अंकुश से उन्मत्त हाथी वश में आ जाता है उसी प्रकार अठारह बातों का विचार करने से चंचल चित्त स्थिर हो जाता है इत्यादि । विविक्तचर्या नामक द्वितीय चूलिका में साधु के कुछ कर्तव्याकर्तव्यों का प्रतिपादन किया गया है।
पिण्डनियुक्ति में पिण्ड अर्थात् भोजन के सम्बन्ध में पर्याप्त विवेचन है । दशवकालिक के पाँचवे अध्ययन पिण्डैषणा की नियुक्ति के विस्तृत हो जाने के कारण उसे पिण्डनियुक्ति के नाम से एक अलग ग्रन्थ मान लिया गया। इसी प्रकार ओपनियुक्ति
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