Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य राजकुमार वासुदेव कृष्ण एवं भगवान् अरिष्टनेमि के समय
में हुए।
मूलसूत्र चार हैं : १. उत्तराध्ययन, २. आवश्यक, ३. दशवैकालिक, ४. पिण्ड नियुक्ति अथवा ओघनियुक्ति । इन ग्रन्थों में श्रमण-जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश होने के कारण इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है। . भाषा, विषय आदि की दृष्टि से उत्तराध्ययन की प्राचीनता की विस्तृत चर्चा शाण्टियर, जेकोबी आदि ने की है। इस मूलसूत्र में छत्तीस अध्ययन हैं जिनमें विनय, परीषह, चतुरंग, अकाममरण, प्रव्रज्या, बहुश्रुतपूजा, उत्तमभिक्षु, ब्रह्मचर्यसमाधि, प्रवचनमाता, यज्ञ, सामाचारी, मोक्षमार्ग, सम्यक्त्वपराक्रम, तपोमार्ग, कर्मप्रकृति, लेश्या, अनगार आदि विविध विषयों पर प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ दृष्टान्तों, रूपकों, उपमाओं एवं संवादों की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है।
आवश्यक में श्रमण के नित्य के कर्तव्यों-आवश्यक अनुष्ठानों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें छः अध्ययन हैं : १. सामायिक, २. चतुविशतिस्तव, ३. वन्दन, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान । सामायिक में यावज्जीवनजीवन-भर के लिए सब प्रकार के सावद्य योग-पापकारी कृत्यों का त्याग किया जाता है। चतुर्विशतिस्तव में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है। वन्दन में गुरु का नमस्कारपूर्वक स्तवन किया जाता है। प्रतिक्रमण में व्रतों में लगे अतिचारों की आलोचना की जाती है एवं भविष्य में उन दोषों की पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा की जाती है । कायोत्सर्ग में शरीर से ममत्वभाव हटाकर उसे ध्यान के लिए स्थिर किया जाता है। प्रत्याख्यान में एक निश्चित अवधि के लिए
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