Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। । चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक :१ जैन आराधना न कन्द्र महावीर कोबा. ॥ अमर्त तु विद्या श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 - - - For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत भषन्य Poolloop भाग ५ रसवैद्य नगानढासहगनलाल शाह For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदीय साहित्य में फार्माकोपिया के अभाव को ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ को परिश्रमपूर्वक तैयार किया गया था और आज भी यह ग्रन्थ उतना ही उपयोगी है जितना तब था। इसमें क्वाथ, चूर्ण, अवलेह, गुटिका, घृत, तैल, रस इत्यादि प्रकरणों में विभक्त दस सहस्र से अधिक प्राचीन एवं प्राचीन प्रयोगों का संग्रह सैकड़ों ग्रन्थों का मन्थन करके किया गया है। इस ग्रन्थ में कोश-शैली का अनुसरण किया गया है, जिससे इष्ट प्रयोग बिना किसी कठिनाई के लूं ढा जा सकता है। एक और लाभ इस शैली का यह है कि भिन्न-भिन्न ग्रन्थों और पृथक्-पृथक् अधिकारों में एक नाम के जितने प्रयोग पाए जाते हैं वे सब इसमें एक ही स्थान में आ गए हैं। उद्धरण जिन ग्रन्थों से लिए गए हैं उनके नाम एवं अधिकार भी दे दिए गए हैं। रोगानुसारिणी सूची "चिकित्सापथ-प्रदर्शिनी" नाम से अन्त में दे दी गई है, जिससे ग्रन्थ की व्यावहारिक उपयोगिता बहुत बढ़ गई है। (सम्पूर्ण ५ भागों में) मूल्य : रु० ५०० For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर पञ्चम भाग For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर पञ्चम भाग संग्रहकर्ता रसवैद्य नगीनवास छगनलाल शाह व्याख्याकार भिषग्रस्न गोपीनाथ गुप्त मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ©ऊँझा आयुर्वेदिक फार्मेसी, ऊँझा (उत्तर गुजरात) मोती लाल बना र सी दास मुख्य कार्यालय : बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली ११०००७ शाखाएं : चौक, वाराणसी २२१ ००१ अशोक राजपथ, पटना ८०० ००४ ६ अपर स्वामी कोइल स्ट्रीट, मैलापुर, मद्रास ६०० ००४ प्रथम संस्करण : ऊँझा (उत्तर गुजरात), १९२४-३७ पुनर्मुद्रण : दिल्ली, १९८५ मूल्य : रु० ५०० (पांच भागों में सम्पूर्ण) नरेन्द्र प्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ७ द्वारा प्रकाशित तथा शान्तिलाल जैन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५, फेज-१, नारायणा, नई दिल्ली २८ द्वारा मुद्रित । For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रष्टव्य इस ग्रन्थ के तीसरे, चौथे और पांचवें भाग की टीका में जल, दुग्ध, तैलादि द्रव पदार्थों का परिमाण परिभाषा के अनुसार द्विगुण करके लिखा गया है, अर्थात् जहां मूलपाठ में १ प्रस्थ है वहां टीका में २ प्रस्थ (२ सेर) लिखा है, इत्यादि। परन्तु प्रथम और द्वितीय भाग में द्विगुण करके नहीं लिखा। अतएव उन भागों में हिन्दी टीका में द्रव पदार्थों का जितना परिमाण लिखा हो परिभाषा के अनुसार उससे द्विगुण लेना चाहिए। प्रयोग-निर्माण के समय प्रथम भाग के परिशिष्ट में दिए हुए 'मान-परिभाषा' शीर्षक लेख को अवश्य पढ़ लेना चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषयानुक्रमणिका पृष्ठ विषय विषय मङ्गलाचरण पृष्ठ (पृ० २ से १७६ तक) कषाय चूर्ण गुटिका Mr mr गुग्गुलु 0 अवलेह घृत (पृष्ठ १८६ से ४३२ तक) कषाय १८६ १९६ गुटिका २१६ गुग्गुलु २२८ अवलेह २३५ घृत २४३ तैल २५७ आसवारिष्ट २७५ लेप २७८ धूप २८६ धूम्र २६० अञ्जन २६१ नस्य २६६ ३०० मिश्र ४२५ ४१ तैल عر ل » पासवारिष्ट लेप धूप अञ्जन नस्य سعد لر ا و मिश्र १७० (पृष्ठ ४३३ से ५२१ तक) कषाय ४३३ ४४० चूर्ण गुटिका ४५७ (पृष्ठ १७७ से १८६ तक) कषाय १७७ चूर्ण १७८ १७६ १८२ तैल अञ्जन १८७ रस १८७ गुग्गुलु गुग्गुलु घृत अवलेह १८४ घृत ४५६ ४५६ ४६१ ४६४ ४७० तैल आसवारिष्ट For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७१ ५२५ ५२८ ५ घृत ५३० ५३३ ५३५ ५३५ ५४५ चूर्ण ( viii ) विषय पृष्ठ विषय लेप गुटिका धूम्र ४७५ गुग्गुल अञ्जन ४७५ अवलेह नस्य रस तैल मिश्र ५१६ लेप रस मिश्र (पृष्ठ ५२२ से ५५० तक) कषाय ५२२ ज्ञ ५२३ रस चिकित्सा-पथप्रदर्शिनी को अनुक्रमणिका अधिकार पृ० १६. क्लोमरोग १. अग्निमांद्याजीर्णविसूचिका ५५५ २०. क्षयराजयक्ष्मा २. अतिसार ५५७ २१. क्षुद्ररोग ३. अपस्मारोन्माद ५५६ २२. गलगण्डगण्डमालाग्रन्थि ४. अम्लपित्त ५५६ २३. गुल्म ५. अरोचक ६० २४. ग्रहणी ६. अर्बुद ५६१ २५. ज्वरातिसार ७. अर्श २६. ज्वर ८. अश्मरिशर्करा ५६३ २७. छर्दि ६. आमवात २८. तृषा १०. उदररोग २६. दाह ११. उदावध्मिान ३०. नासारोग १२. उपदंश ३१. नेत्ररोग १३. कण्ठरोग ५६५ ३२. पाण्डु १४. कफरोग ५६५ ३३. प्रमेह १५. कर्णरोग १६. कासश्वासहिक्का ३४. बालरोग १७. कुष्ठवातरक्तविकार ५६६ ३५. भगन्दर १८. कृमिरोग ५७२ ३६. मदात्यय ५७२ ५७३ ५७४ ५७६ ५७७ ५७८ ५७८ ५८४ ५८५ ५८५ ५८८ ५८६ ५६० For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३७. मसूरिका ३८. मिश्र ३६. मुखरोग ४०. मूत्रकृच्छ्रमूताघात ४१. मूर्छा ४२. मेदरोग ४३. यकृत्प्लीहा ४४. रक्तपित्त ४५. रसायन वाजीकरण ४६. रसोपरसादिशोधनमारण ४७. वातव्याधि ४८. विद्रधि ४६. विरेचन www. kobatirth.org ( ix ) ५६१ ५०. विषविकार ५६२ ५१. विसर्प ५६३ ५२. वृद्धि ५६४ ५३. व्रण ५६४ ५४. शिरोरोग ५६५ ५५. शीतपित्त ५६५ ५६. शूल ५६६ ५७. शोथ ५६७ ५६६ ६०० ६०२ ६०२ ५८. श्लीपद ५६. स्त्रीरोग ६०. स्नायुक ६१. हृदयरोग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ६०३ ६०४ ६०४ ६०४ ६०५ ६०६ ६०७ ६१० ६११ ६१२ ६१४ ६१४ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चम भाग For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ya! ---२ • भारत-भैषज्य-रत्नाकरः COCC3. vvvvvvvvô••• • - पञ्चमो भागः ॥ श्री धन्वन्तरये नमः॥ अथ मङ्गलाचरणम् यो गोपिकावस्त्रहरोऽप्यचौरः मायाविकारोपगतोऽप्यदोषः। यो दृश्यते योगिजनेन योगे तथाप्यरूपी तमहं भजिष्ये ॥* देवेन्द्रर्महितं विकल्परहितं यत् सच्चिदानन्दितम् संसाराकलितं जगत्रयहितं कल्याणकल्पद्रुमम् । मायामारविकारमोहगलितं तद्धाम शिवं स्फुरन् नत्वाऽहं प्रविशामि भारत-भिषग-भैषज्य-रत्नाकरम् ॥ ॐगावः इन्द्रियाणि, तानि पाति रक्षतीति गोपो मनः, तस्य स्त्री गोपिका; अविद्या, तदेव वस्त्रावरणं, तदरतीति गोपिकावस्त्रहरः। द्वितीय श्लेषे तु स्पष्टमिदं अतएवाप्यचौरः-अस्तेनः । मा लक्ष्मीः, तस्यायः प्राप्तिस्तत्रापि अविकारः विकाररहितः, तमुपगतः सम्प्राप्तः। द्वितीय श्लेपे तु स्पष्टमिदं अतएवाप्यदोषः दोषरहितः । यश्च योगिनां जनः समुदायस्तेन योगे योगमार्गे दृश्यते तथाप्यरूपीत्युच्यते । तं ईश्वरं अहं भजिष्ये भजिष्यामि वा। For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भारत - भैषज्य रत्नाकरः www. kobatirth.org निर्गुण्डिकाभृङ्गमहौषधानाम् । क्षुद्रावानीसहितः कषायः अथ शकारादिकपायप्रकरणम् (७१७१) शाहादिकाथः (१) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २ ) क्वथितं तण्डुलपयसा शक्रादकटुरोहिणीसहितम् । क्वार्थं यष्टीमधुना विनाशनं पित्तज्वराणां तु ।। इन्द्रजौ, कुटकी और मुलैठी समान भाग लेकर सबको चावलोंके पानी में पका कर काथ बनावें | यह काथ पित्त ज्वरोको नष्ट करता है । (७१७२) शक्रादादिकाथ : (२) ( वृ. नि. र. । विषमज्वरा. ) शक्राददद्रुघ्नवृपामृतानां श शीतज्वरारण्य हिरण्यरेताः || इन्द्रजौ, पंमाड़, बासा, गिलोय, संभालु, भंगरा, सोंठ, कटेली और अजवायन समान भाग ले कर का बनावें । यह काथ शीतज्वरको इस प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार दावानल बनको । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि (७१७३) शङ्खपुष्पीरसयोगः ( यो. र. । छ. ) शङ्खपुष्पीरसं टङ्कद्वयं समरिचं मुहुः | सक्षौद्रं मनुजः पीत्वा छर्दिभ्यः किल मुच्यते ॥ शंखपुष्पीका रस १० माशे ले कर उसमें (१ माशा) काली मिर्चका चूर्ण और (२ तोले) शहद मिला कर पीनेसे छर्दि अवश्य नष्ट हो जाती है । (७१७४) शठयादि कल्कः ( वृ. मा. | आमवा. ; ग. नि. । आमवा. २२ ; व. से. 1 आमवाता. ) aatfaraivataei वर्षाभूक्वाथसंयुतम् । सप्तरात्रं पिवेज्जन्तुरामवातविपाचने || कचूर और सांठके कल्कको पुनर्नवा ( साठी) के काथमें मिला कर पीनेसे सात दिनमें आमवातका नाश होता है । For Private And Personal Use Only (७१७५) शय्यादिकषाय: (१) (वै. जी. | विलास १ ) I aठी शुण्ठी रेणुः सुरतरुरनन्ता च बृहती नस्तता तिक्तं खलु नवभिरेभिर्विरचितः । कषायः पीतोऽयं मधुकणविमिश्रः शमयति त्रिदोषं निश्शेषं विषममपि जीर्णज्वरमपि || Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः कचूर, सेांट, पित्तपापड़ा, देवदारु, अनन्त- गुल्म रोगमें कचूर और सेठिके काथमें संचल मूल, कटेली, मागरमोथा, कुटकी और चिरायता (काला नमक) मिलाकर पीना चाहिये । समान भाग ले कर काथ बनावें । (७१७९) शठयादिकाथः (३) इसमें शहद और पीपलका चूर्ण मिला कर पीनेसे सन्निपात, विषमज्वर और जीर्णज्वरका (भा. प्र.। म. खं. २ ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) नाश होता है। शठी निशाद्वयं दारु शुण्ठी पुष्करमूलकम् । (७१७६) शठयादिकषायः (२) एला गुडूची कटुका पर्पटश्च यवासकः ॥ शृङ्गी किराततिक्तश्च दशमूली तथैव च । ( यो. र. । कासा. ; वृ. नि. र. । कासा. ; | क्वाथमेषां पिबेकोष्णं सिन्धुचूर्णयुतं नरः ॥ वृ. यो. त. । त. ७८ ; व से. । कासो.) ज्वरान्सन्द्रुितं हन्ति नात्र कार्या विचारणा ॥ शठी हीबेर बृहती शर्करा विश्वभेषजम् । कचूर. हल्दी, दारुहल्दी, देवदारु, सोंठ, एतं क्वायं पिबेत्पूतं सघृतं पित्तकासनुत् ॥ पोसरमूल, इलायची, गिलोय, कुटकी, पित्तपापड़ा, कचूर, सुगन्धवाला, कटेली और सोंठ समान जःसा, काकड़ासांगी, चिरायता और दशमूल भाग ले कर काथ बनावें । समान भाग ले कर कार्य बनावें । इसमें खांड और घी मिलाकर पीनेसे पित्तज इसमें सेंधानमक मिला कर गर्म गर्म (मन्दोखांसी नष्ट होती है। ष्ण) पीनेसे समस्त प्रकारके ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो (७१७७) शठयादिक्काथः (१) जाते हैं। ( ग. नि. । ज्वरा. १) (७१८०) शठ्यादिकाथः (४) शठीपुष्करभार्गीभिठाकटू फलदारुभिः । पर्पटारिष्टशृङ्गीभिः पिवेत्क्वार्थ कफज्वरे ॥ ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २) कचूर, पोखरमूल, भरगी, पाठा, कायफल, शठीवचानागर कट्फलानां देवदारु, पित्तपापड़ा, नीमकी छाल और काकड़ा- वत्सादनी धन्वयवासकानाम् । सिंगो समान भाग ले कर काथ बनावें।। क्वाथो हितः सर्वभवे ज्वरे च यह काथ कफञ्चरको नष्ट करता है। सम्पाचनं स्यान्मनुजे त्रिदोषे ।। (७१७८) शठ्यादिकाथः (२) कचूर, वच, सेांट, कायफल, गिलोय और ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २९) धमासा समान भाग ले कर काथ बनावें । शठीसौवर्चलं शुण्ठी पाचनं वाथ गुल्मिने। यह क्वाथ त्रिदोषज ज्वरमें दोपोंको पचाता है। For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - भारत-भैषज्य रत्लांकरः [शकारादि (७१८१) शठ्यादिकाथः (५) एष शठ्यादिको वर्गः सभिषातज्वरापहः । (ग. नि. । ज्वरा. १; कृम्य. ६) कासहग्रहपातिश्वासे तन्द्रयां च षस्यते ॥ शव्याखुपर्गीकृमिहाविशाला कचूर, पोखरमूल, कटेली, काकड़ासिंगी, होनेरमेला सुरदारुशिः । धमासा, गिलोय, सेठि, पाठा, चिरायता और कुटकी किरातवासाकुटजोगगन्धा समान भाग ले कर काथ बनावें । निशादयं विक्तकरोहिणी च ॥ यह काथ सन्निपात, कास, इद्ग्रह, पार्श्वकषाय एषां कृमिजावरोग पोड़ा, स्वास और तन्द्राको नष्ट करता है । युक्तं त्रिदोष शमयेदुदीर्णम् ॥ (७१८४) शठ्यादिपाचनम् कचूर, मूषाकर्णी, बायबिडंग, इन्द्रायण, सुगन्धवाला, इलायची, देवदारु, सहजनेकी छाल, चिरा (हा. सं. । स्था. ३ अ. २) यता, वासा, कुड़की छाल, बच, हल्दी, दारुहल्दी सठी किरात कटुका विशाला और कुटकी समान भाग ले कर काथ बनावें। गुहूचिशृङ्गी बृहतीयं च । बहकाव कृमिरोग और ज्वरको नष्ट करता है। महौषधं पौष्करपन्वयास रास्ना मुराहं गजपिप्पली च ॥ (७१८२) शठ्यादिकायः (६) पीतं तु निःक्वाध्य हितं नराणां (यो. र. आमवाता. ; वृ. मा. । आमवा.; ग. सठधादिचातुर्दश्वकं प्रशस्तम् । नि. । आमवाता. २२, मा. प्र.। म. खं.२) हिनस्ति तन्द्राश्वसनं शिरोऽति भठी शुण्ठयमया जोमा देवाहातिविषाऽमृता। जाड्यं सर्लज्वरमाशु हन्ति ॥ कवायमामवातस्य पाचन रूसमोजिनाम् ॥ कचूर, चिरायता, कुटकी, इन्द्रायणकी जड़, कचूर, सोंठ, हर्र, बच, देवदारु, अतीस और गिलोय, काकड़ासीगी, छोटी और बड़ी कटेली, गिलोय समान माग ले कर काथ बना। सांठ, पोखरमूल, धमासा, रारना, देवदारु और गज इसे सेवन करने और रूक्षाहार करनेसे आम- | पीपल समान भाग ले कर काथ बनावें। वात रोगमें दोषोंका पाचन होता है। __इसके सेवनसे ज्वर नष्ट होता तथा तन्द्रा, (७१८३) शठ्यादिगणः । श्वास, शिरपोड़ा, जड़ता और शलादि ज्वरके उपद्रव शान्त होते हैं। .. (च. द. । ज्वरा. ; वृ. मा. । चरा. ; ग. नि.। वरा. १ ; व. से. । ज्वरा.) (७१८५) शतपुष्पादिकषायः शठी पुष्करमूलं च व्याघ्री शृद्धी दुरामा । (ग. नि. । ज्वरा. १) गुहची नागरं पाठग किरात कटुरोहिणी ॥ प्रतपुष्पा बचा कुष्ठं देवदारु हरेणुका । For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायपकरणम् ] पञ्चमो भागः कुस्तुम्बरूणि नलदं मुस्तं चैवाप्नु सापयेत् ॥ बेलछाल, तुम्बर (धनियामेद) और गिलोय क्षौद्रेण सितया वापि युक्तः क्यायो अनिला- | समान भाग ले कर सबको पानीके साथ पोसकर त्मके। कल्क (पिढीसी) बनावें। सोया, बच, कूठ, देवदारु, रेणुका, इसे धीमें मिला कर सेवन करनेसे शरीर गत कुस्तुम्बरु, जटामांसी (अथवा पोली खस), और वायु नष्ट होता है। नागरमोथा समान भाग ले कर काथ बनावें। । (मात्रा-४ माशे) इसमें शहद या मिश्री मिला कर पीनेसे वातज । (७१८८) शतावरीकल्कः (२) चर नष्ट होता है। ( भा. प्र. । म. सं. २; वृ. यो. त । त. ६४) ( कफ विशेष हो तो शहद मिलाना चाहिये । | पीत्वा शतावरीकल्वं पयसा तीराय बयेत् । और वायुके साथ पित्त हो तो मिश्री मिलानी | रक्तातिसारं पीत्वा वा तया सिदं घृतं नरः। चाहिये।) शतावरीके कल्कको दूधके साथ सेवन करने (७१८६) शतमूलीकाथ: | और दुग्धाहारपर रहनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है। (हा. सं. । स्था. ३ अ. १२.) शतावरीके साथ सिद्ध घृत सेवन करनेसे भी शतमलिकायाः क्वयितः कषायः । | रक्तातिसार नष्ट होता है। पीतः कणाचूर्णयुतः सुखोष्णः । नृणां निहन्यान्मरुतोद्भवं तु (७१८९) शतावरीकल्कः (३) ___ कासं सशूलं च विपाचनं स्यात् ॥ (यो. र. । प्रसूतरो.) शतावरके मन्दोष्ण क्वाथमें पीपलका चूर्ण शतावरी क्षीरपिष्टा पीता स्वन्यक्विदिनी । मिला कर पीनेसे वातज कास और शलका नाश | कवोष्ण कणया पीतं सारं क्षीरविक्दनम् ॥ होता है। (१) शतावरको दूधमें पोस कर पीनेसे खियोंके स्तनोंमें दूध बढ़ जाता है। (७१८७) शतावरीकल्कः (१) । ___(२) मन्दोष्ण दूधमें पीपलका चूर्ण मिला कर ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २३) पीनेसे भी स्तनोंमें दूध बढ़ जाता है। शतावरी वचा शुण्ठी रास्नाकदरशल्लकी। दशमूली बला बिल्वस्तुम्बुरु च गुइचिका ॥ नि (७१९०) शतावरीमूलयोगः एप कल्को घृतैर्युक्तो हन्ति वातं शरीरगम् ॥ (हा. स.। स्था. ३ अ. ३२) सतावर, बच, सोंठ, राना, सफेद खैर, पिवेच्छतावरीमूलं शीतपानीपचूर्णितम् । शल्लको वृक्षका गोंद (या छाल), दशमूल, खरैटी, ! अतः शर्कररोगातः शर्करासंपयोजितम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ----.--.... भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि शतावरकी जड़को ठण्डे पानीमें पीस कर, (७१९४) शतावर्यादिकाथः (१) मिश्री मिला कर पीनेसे शर्कराका नाश होता है। (यो. र. । मूत्रकृच्छ्रा .) (७१९१) शतावरीयोगः शतावर्यास्तु मूलानां निष्क्वाथः ससिः मधु । (ग. नि. । अपस्मारा. ३) मूत्रदोष निहन्त्याशु वातपित्तकफोद्भवम् ।। क्षीरानाशी शतावर्याः प्रातमूलरसं पिबेत् ।। शतावरको जड़के क्वाथमें मिश्री और शहद मिला कर पीनेसे वातज, पित्तज तथा कफज मूत्रशृतं चूर्ण तथा क्षीरमपस्मारपशान्तये ॥ दोषों (मूत्रकृच्छादि) का नाश होता है। प्रातःकाल शतावरीकी जड़का रस, या शतावरका काथ, या चूर्ण अथवा शतावरसे सिद्ध किया (७१९५) शतावर्यादिकाथः (२) हुवा दूध सेवन करनेसे अपस्मार नष्ट होता है। (वृ. मा. । शूला. ; यो. र. ; ग. नि. । शला. इस प्रयोगके सेवन कालमें केवल दूध भात २३; च. द. । शूला. २६; भै. र. । शूला.) पर रहना चाहिये। शतावरी सयष्टयाहवाट्यालकुशगोक्षुरैः। भृतशीतं पिबेत्तोयं सगुडक्षौद्रशर्करम् ॥ (७१९२) शतावरीस्वरसः (भै. र. । प्रमेहा.) पित्तामुग्दाहशूलग्नं सघो दाइज्वरापहम् ।। शतावर, मुलैठी, खरैटी, कुश और गोखरु शतावर्या रसं नीत्वा क्षीरेण सह यः पिबेत् ।। समान भाग ले कर काथ बनावें । प्रमेहा विंशतिस्तस्य क्षयं यान्ति न संशयः॥ इसे ठण्डा करके गुड़, शहद या खांड मिला शतावरके रसको दूध में मिला कर पीनेसे २० । कर पीनेसे रक्तपित्त, दाह, शूल और दाह युक्त प्रकारके प्रमेह अवश्य नष्ट हो जाते हैं। ज्वरका नाश होता है। (७१९३) शतावर्यादिकषायः (७१९६) शतावर्यादिकाथः (३) (व. से. । रक्तपित्ता. ; यो. र. ; वृ. नि. र.) (वृ. मा. । शूला. ; वृ. नि. र. । शूला. ; भै. शतावरी वरा रास्नः काश्मर्यसपरूषकम् । र. ; यो. र. । शला.) पापयेद्रक्तपित्तघ्नं सद्यः शूलहरं परम् ।। शतावरीरसं क्षौद्रयुक्त प्रातः पिबेनरः । ____ शतावर, त्रिफला, रास्ना, खम्भारीकी छाल | दाहशूलोपशान्त्यर्थ सर्वपित्तामयापहम् ॥ और फालसेकी छाल समान भाग ले कर क्वाथ । शतावरके स्वरसमें शहद मिला कर प्रातःकाल बनावें। सेवन करनेसे दाह, शल और अन्य पित्तज रोगोंका इसके सेवनसे रक्तपित्त शीघ्र ही नष्ट हो नाश होता है। जाता है। १ क्षीरं क्षौद्रमिति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] पश्चमो भागः (७१९७) शतावर्यादिक्काथः (४) शतोवर, बला (खरैटी) की जड़ और मुनक्काके (भा. प्र.; ग. नि. । मूत्रकृच्छा. : वृ. मा.। मत्र- | साथ पकाया हुवा दूध मिसरी मिला कर पीने या कृच्छ्रा.; यो. र.; व. से.; च. द.; वृ. नि. । मूत्रक) खरैटीके बीजों (बोज बन्द) का चूर्ण सेवन करनेसे भ्रम (मूर्छा) का नाश होता है । शतावरीकाशकुशश्वदंष्टा विदारिशालीक्षुकसेरुकाणाम् । ( ओषधियां २॥ तोले, दूध २० तोले, पानी क्वार्थ पिवेन्माक्षिकसम्पयुक्त ८० तोले । मिला कर पानी जलने तक पकावें।) कृच्छे सदाहे सरुजे विबन्धे ॥ (७२००) शतावर्यादियोगः शतावर, कास, कुशकी, जड़, गोखरु, विदा ( ग. नि. । रक्तपित्ता. ८) रीकन्द, शाली धान्य की जड़, ईखकी जड़, और शतावरीगोक्षुरके शृतं वा कसेरु समान भाग ले कर काथ बनावें । इसमें शहद मिलाकर पीनेसे दाह और पीड़ा __ शृतं पयो वाऽप्यथ पणिनीभिः । युक्त मूत्रकृच्छ्रका नाश होता है। रक्तं निहन्त्याशु विशेषतस्तु (७१९८) शतावर्यादिवादशाङ्गकषायः यन्मूत्रमार्गात्सरुनं प्रयाति ।।। (ग. नि. । वाता. १९) शतावर और गोखरुके साथ या शालपर्णी, पृष्टपर्णी, मुद्गपर्णी और माषपकि साथ पकाया शतावरीपुष्करमूलमुस्ता हुवा दूध पीनेसे मूत्र मार्गसे पीड़ाके साथ निकलन पथ्यामृताः सातिविषाः सरास्नाः । वाला रक्त बन्द हो जाता है। वराटरूषः सुरदारु शुण्ठी (ओषधियां २॥ तोले, दूध २० तोले, पानी दुरालभा वातहरः कषायः ।। ८० तोले । पानी जलने तक पकावें । ) शतावर, पोखरमूल, नागरमोथा, हर, गिलोय, अतीस, रास्ना, त्रिफल!, बासा, देवदार, सेांठ और (७२०१) शतावर्या दिरसः धमासा समान भाग ले कर क्वाथ बनार्वे ।। (यो. र. । अमर्य.) यह क्वाथ वातव्याधिको नष्ट करता है। शतावरीमूलरसो गव्येन पयसा समः । (७१९९) शतावर्यादिपयः पीतो निपातयत्याशु ह्यश्मरी चिरजामपि ॥ (यो. र. । मूर्छा.) शतावरके स्वरसको गोदुग्धमें गिला कर सेवन शतावरीबलामूलद्राक्षासिद्धं पयः पिबेत् । करनेसे पुरानी अश्मरी भी शीघ्र ही निकल ससितं भ्रमनाशाय बीजं वाट्यालकस्य च ॥ । जाती है। For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि (७२०२) शतावर्यादिस्वरसः (१) । इसे तिलके काथके साथ सेवन करनेसे रक्तज ( ग. नि. । ज्वरा. १) गुल्म नष्ट होता है। शतावरीगुडूचीभ्यां स्वरसो यन्त्रपीडितः । (७२०५) शम्पाकादिक्वाथः गुडप्रगाढः शमयेत्सद्यो वातात्मकं ज्वरम् ।। (भै. र. । वातरक्ता.) ___शतावर और गिलोयके स्वरसको गुड़से मीठा शम्पाकामृतवासानामेरण्डस्नेहसंयुतम् । करके पीनेसे वातज्वर शीघ्रही नष्ट हो जाता है। पीत्वा क्वाथममुखातं क्रमात् सर्वाजं जयेत् ।। (७२०३) शतावर्यादिस्वरसः (२) अमलतास, गिलोय, और वासे (अडूसे) के ( यो. र. ; वृ. नि. र. । मूत्राघाता.) काथमें अण्डीका तेल (केष्ट्रायल) मिला कर पीनेसे सर्वाङ्गगत वातरक्त शीघ्रही नष्ट हो जाता है। वरीगोक्षुरभूधात्री मूलानां स्वरसं पलम् । माषमेकं यवक्षारं सौरं माषद्वयं तथा ॥ (७२०६) शम्पाकादिगणः द्विगुझं टङ्कणक्षारं सर्वमेकत्र मेलयेत् । (र. का. धे. । प्रमेहा.) पिबेत्तत्तु विनाशाय मूत्राघाते सुदारुणे॥ शम्पाकानलनिम्बराठबदरीपाठाश्च शाष्टिका ____ शतावरकी जड़का रस, गोखरुकी जड़का रस | स्फोतापाटलिकापटोलकुटनं सैरेयपारुषकाः। और भुई आमलेकी जड़का रस समान भाग ले कर व्याघ्रः सप्तदलामृतामधुरसाः कुष्ठज्वरच्छर्दिजित् सबको एकत्र मिलावें । ५ तोले इस रसमें १ माषा | कण्डूमेहकफामयान् सहविषानारग्वधादिर्जयेत् । जवाखार, २ माशे केशर और २ रत्ती सुहागेकी अमलतास, चीता, नीमकी छाल, मैनफल खील मिला कर पीनेसे भयंकर मूत्राघात भी नष्ट बेरीकी छाल, पाठा, करञ्ज, अनन्तमूल, रक्त करहो जाता है। वीर, पटोल, कुड़ेकी छाल, पियाबांसा (कटसरैया), (७२०४) शताहादिकल्कः फालसेकी छाल, लाल अरण्डकी जड़, सतौनेकी (व. से. । गुल्मा. ; वृ. मा. ; यो. र. । गुल्मा.) | छाल, गिलोय और मूर्वा । 'शताहा चिरबिल्वत्वग्दारुभाङ्गीकणाभवः। । इनका काथ कुष्ट, ज्वर, छर्दि, खाज, प्रमेह, कल्कः पीतो जयेदगुल्य तिलक्वाथेन रक्तजमा। कफ और विषविकारोंको नष्ट करता है। सोया, करञ्ज, दालचीनी, देवदारु, भरंगी (७२०७) शरपुवादिकल्कः और पीपल समान भाग ले कर सबको एकत्र ! (यो. चि. म. । अ. ४) मिला कर पानीके साथ पीस कर कल्क (पिठीसी) | शरपुङ्गायाः कल्कः पीतस्तक्रेण नाशयत्यचिरम्। बनावें। | चिरतरकालसमुत्यं प्लीहानां रूढमवगाहः ॥ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः सरफोंकेकी जड़के कल्कको तक्रके साथ सखुवाकी छालके क्वाथमें गोमूत्र मिला कर पीनेसे बहुत पुराना तिल्ली रोग भी शीघ्रही नष्ट पीनेसे स्लीपद और मेदविकारका नाश होता है। हो जाता है । (७२११) शाखोटादियोगः (७२०८) शरपुङ्खारसयोगः (व. से. । व्रणा. ; वृ. मा. । व्रणा.) ( राजमार्त. । व्रणा. २५) कल्कः कानिकसम्पिष्टः स्निग्धः शाखोटक शस्त्रक्षते दशनचवितवाणपुजा त्वचः। मूलोद्भवं विनिदधीत रसं प्रयत्नात् । । | सुपर्ण इव नागानां वातशोथविनाशनः ।। तस्मिन्पुरीषमथवा महिषीसुतस्य सिहोड़ेकी स्निग्ध छालको कांजीमें पीस कर पाङ्गिगतं मसृणचूर्णितमाशु दद्यात् ॥ | पीनेसे वातज शोथ शीग्रही नष्ट हो जाता है। हथियारके ताजे घावमें, सरफोंकेकी जड़को (७२१२) शाईष्टादिक्काथः मुंहसे चबाकर उसका रस निकाल कर भरना चाहिये । अथवा भैसके बच्चे (कटरे) का पहिली (वृ. मा. । उदरा.) बारका किया हुवा गोबर खूब बारीक पीस कर शाङ्गेष्टानियूहः ससैन्धवस्तित्तिडीकसम्मिश्रः। भरना चाहिये। प्लीहव्युपरमयोगः पक्याम्ररसोऽथ वा समधु ।। (७२०९) शर्करादियोगः ___ मकोयके रसमें सेंधानमक और इमलीका गूदा (व. से. । उदावर्ता.) मिला कर सेवन करनेसे अथवा पके आमका रस शर्करेक्षुरसं क्षीरं द्राक्षारसमथापि वा। शहद मिला कर पीनेसे प्लीहावृद्धि नष्ट होती है। सर्वत्रैव प्रयुञ्जीत मूत्रकृच्छ्राश्मरीविधिम् ॥ (७२१३) शालिपर्यादिक्काथः (१) ईखका रस और दूध तथा खांड मिला कर (वृ. नि. र. । वातज्वरा. ; वृ. यो. त. । त. ५९) मुनक्काका रस पानस मूत्रकृच्छ् और शालिपर्णी बलाद्राक्षा गुडूची सारिखा तथा । अश्मरिका नाश होता है। आसां क्वाथं पिबेत्कोष्णं तीब्रवातज्वरच्छिदम्।। (७२१०) शाखोटककाथ: ___ शालपर्णी, खरैटी, मुनक्का, गिलोय और ( शा. सं. । खं. २ अ. २) सारिवा समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । शाखोटवल्कलक्वाथं गोमूत्रेण युतं पिबेत् । इसे मन्दोष्ण करके पीनेसे तीव्र वातज्वर श्लीपदानां विनाशाय मेदोदोषनिवृत्तये ॥ । नष्ट होता है। पीने For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ মাৰি (७२१४) शालिपर्यादिक्वाथ: (२) (७२१७) शाल्मलीयोगः ( व. से. । बालरोगा.) (बृ. यो. त. । त. १०३ ) शालिपर्णी पृश्निपी घोटात्वक् क्वथितं जलम् । शाल्मलित्वग्रसः क्षौद्ररजनीचूर्णसंयुतः । सौद्रयुक्तं त्रिदोषनं सर्वातीसारनाशनम् ॥ पीतो निहन्ति निखिलान्ममेहानल्पवासरैः। शालपर्णी, पृष्ठपी और सुपारीकी छाल समान सेंभलकी छालके रसमें शहद और हल्दीका चूर्ण मिला कर सेवन करनेसे समस्त प्रकारके प्रमेह भाग ले कर काथ बनावें । शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं। इसमें शहद मिला कर पीनेसे समस्त प्रकारके अतिसार नष्ट होते हैं। (७२१८) शिक्वाथः (१) ( ग. नि. । शूला. २३ ) (७२१५) शालिपिष्टयोगः | मातुलुङ्गरसोपेतः शिग्रुक्वाथस्तथापरः। ( रा. मा. । स्त्री रोगा. ३०) सक्षारो मधुना पीतः पार्श्वदृस्तिशूलजित् ॥ उदुम्बरीक्वाथयुतं सितादय सहजनेकी छालके काश्में बिजौ रेका रस, मुगन्धिशालिप्रभवं सितं च । जवाखार, और शहद मिलाकर पीनेसे पसली, हृदय या पिष्टमश्नाति न गर्भपात- और बस्तिका शूल नष्ट होता है। पीडागसौ विन्दति जातु नारी ॥ (७२१९) शिग्रक्वाथः (२) सुगन्धित शाली चावलोंको पीस कर उनमें | (वृ. यो. त. । त. १०५) मिश्री मिला कर कठ्मरके काथके साथ पीनेमे गर्भ: गभः शोथप्लीहोदरं हन्ति पिप्पली मरिचान्वितः । पातका भय जाता अम्लवेतससंयुक्तः शियुक्वाथः ससैन्धवः ।। (७२१६) शाल्मलीमूलकल्कः सहं जनेके काधमें सेंधा नमक, अम्लवेत, (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३) पीपल और काली मिर्चका चूर्ण मिला कर पीनेसे शोथ और प्लीहोदरका नाश होता है । शाल्मलीमूलत्वगुडदुग्धेन च पेषितं पानम् । पित्तातिसारशमनं सरक्तदाहेन शोषहरम् ।। (७२२०) शिक्वाथः (३) ___ सेभलकी जड़की छालको दूधमें पीसकर गुड़ ___(वृ. नि. र. । अश्मय.) मिलाकर पीनेसे पित्तातिसार, दाहयुक्त रक्तातिसार क्वाथो निपीतः सक्षारः शिग्रुत्वग्वरुणत्वचोः । और शोषका नाश होता है । कफजामश्मरी हन्ति शकाशनिरिव द्रुमम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमी भागः thereमकरणम् ] सहजने और बरनेकी छालका काथ जवाखार मिला कर पीने से कफज अश्मरि शीघ्रही नष्ट हो जाती है । (७२२१) शित्वगादिकषायः ( ग. नि. । कृम्य. ७ ) शिग्रुत्वक्त्रिफलाभ्यां तु कृतः क्वाथो निषेवितः। जठरस्थान क्रिमीन क्षिममुद्धरत्यविचारतः ॥ सहजनेकी छाल और त्रिफलाका काथ सेवन करने से उदरके कृमि नष्ट हो जाते हैं । (७२२२) शिग्रुमूलक्वाथः ( यो. र.; वृ. नि. र. | अश्मर्य. ; वं. से. । अश्म. ) क्वाश्च शिग्रुमूलोत्थः कदुष्णाश्मरिपातनः । क्षीरामभुम्बर्हिशिखामूळे वा तन्दुलाम्बुना ॥ सहजने की छालका मन्दोष्ण काथ पीनेसे अमर निकल जाती है । मयूरशिखाकी जड़ को चावलोंके पानीके साथ सेवन करनेसे भी अमरि नष्ट हो जाती है। पथ्य- दूध भात । (७२२३) शिग्रुमूलादिक्षारः (ग. नि. । उदरा. ३२ ) शिग्रुमूलरसो वह्निः सैन्धवं ब्रह्मक्षकः । क्षारभक्षणतोऽमीषां याति सर्वोदरं शमम् ॥ सहजनेकी जड़के रस में चीता, सेंधा और पलाशका क्षार मिला कर सेवन करने से समस्त प्रकार के उदर रोग नष्ट होते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७२२४) शिघुमूलादियोगः ( वृ. मा. व. से. । विद्रध्य.) शिग्रुमूलं जले धौतं जलपिष्टं प्रगालयेत् । तसं मधुना पीला हन्त्यन्तर्विद्रधिं नरः ॥ ११ सहजनेकी जड़को जलसे धो कर पानीके साथ पीस लें और कपड़ेसे निचोड़ कर र निकालें | इसमें शहद मिला कर पीने से अन्तर्विद्रधि नष्ट होती है । (७२२५) शिवादिकषायः (वै. जी. । विलास ४ ; वृ. नि. र. । विद्र. ) शिग्रुदीप्यवरुणद्वियामिनी कुञ्जराशनकृतः कषायकः । बोल चूर्णसहितोन्तर स्थितं विद्रधिं प्रशमयेदसंशयम् ॥ सहजनेकी छाल, अजवायन, बरनेकी छाल, दारूहल्दी और पीपलवृक्ष (अस्वस्थ ) की छाल समान भाग ले कर काथ बनावें । | हल्दी, इसमें बोलका चूर्ण मिला कर सेवन करने से अन्तर्विद्रधि अवश्य नष्ट हो जाती है। For Private And Personal Use Only (७२२६) शिरीषमूलादिकल्कः ( ग. नि. | अर्शो. ) 1 शिरीषमूलं पुष्पं च शाल्मले स्तिनिशस्य च । निर्यासश्च पलाशस्य वदर्याः ककुभस्य च ॥ रोत्रं शाल्मलिनियसः कटुङ्गस्तण्डुलीयकः । मधुकार्जुनपुष्पाणि धातकीरोधयोरपि ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२ www. kobatirth.org भारत-भैषम्य - रत्नाकरः शोभाञ्जनं शङ्खनाभी कगुकाः षष्टिकास्तथा । एषां कल्कं मधुयुतं पाययेत्तण्डुलाम्बुना ॥ अर्शोसि शमयत्येष पीतः पिचात्मकानि तु । रक्तपित्तमतीसारं रक्ताशसि च नाशयेत् ॥ सिरसकी जड़, सेंभलके फूल, तिनिशके फूल, पलाशका गोंद, बेरीका गोंद, अर्जुनका गोंद, लोष, मोचरस, अरलुकी छाल, चौलाई, मुलैटी, अर्जुनके फूल, धायके फूल, लोधके फूल, सहजनेकी छाल, शंखनाभि, कङ्गुनी और साठीके चावल समान माग ले कर सबको एकत्र मिला कर पानीके साथ पीस कर कल्क बनावें । इसमें शहद मिला कर चावलों के पानी के साथ सेवन करनेसे पित्तज अर्श, रक्तपित्त, अतिसार और रक्ताका नाश होता है । इति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समघुशर्कर एष कषायको [शकारादि जयति बालमृगाक्षि तृतीयकम् ॥ लाल चन्दन, धनिया, सोंठ, खस, पोपल और नागरमोथा समान भाग ले कर काथ बनावें । इसमें शहद और खांड मिला कर पीने से तृतीयक ज्वर नष्ट होता है । (७२२९) शीतप्रशमनो दशको महाकषायः ( च सं. 1 सू. अ. ४ ) तगरागुरुधान्यकशृङ्गवेरभूतिकवचाकण्टकारिकानिमन्य. श्योनाकपिप्पल्य इति दशे मानि शीतभशमनानि भवन्ति । तगर, अगर, धनिया, सोंठ, अजवायन, वच, कटेली, अरणी, सोनापाठा और पीपल; ये दश ओषधियां शीत प्रशमन कषायद्रव्योंमें श्रेष्ठ हैं । (७२२७) शिरोविरेचनीयो दशको महाकषायः ( च. सं. । सू. अ. ४ ) ज्योतिष्मतीक्षवकमरीचपिप्पलीविडङ्ग- (७२३०) शुक्रजननो दशको महाकषायः शिग्रसर्षपापामार्गतण्डुल श्वेतामहाश्वेता दशेमानि शिरोविरेचनोपगानि भवन्ति । मालकंगनी, नकछिकनी, काली मिर्च, पीपल, बायबिडंग, सहंजना, सरसों, अपामार्ग (चिरचिटे) के चावल, सफेद और काली कोयल । ये दश पदार्थ शिरोविरेचनमें उपयोगी हैं। (७२२८) शिशिरादिकषायः (बृ. नि. र. । विपमञ्चरा. ; वै. जी. 1 विलास १; यो. र. । ञ्चरा. ) शिशिरः सघनः समहौषधः सनलदः सकणः सपयोधरः । For Private And Personal Use Only ( च. स. । सू. अ. ४ ) पर्णी माषपर्णीमेदानृक्ष रुहाजटिलाकुलिङ्गा इति जीवकर्षभककाकोलीक्षीरकाकोलीमुद्गदशेमानि शुक्रजननानि भवन्ति । जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर काकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, मेदा, वन्दा, काकड़ासिंगी और जटामांसी; ये दश ओषधियां शुक्रजनक हैं । (७२३१) शुक्रशोधनो दशको महाकषायः ( च. स. । सू. अ. ४ ) कुष्ठैलवालुककट्फलसमुद्रफेनकदम्ब Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] पञ्चमो मागः - निर्यासेक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुरकवमुकोशीराणीति द- यह कल्क त्रिदोषज ज्वर, श्वास, भ्रम, अरुचि, शेमानि शुक्रशोधनानि भवन्ति ।। क्विन्ध और दोगको नष्ट करता है। कूल एलवालुक, कायफल, समुद्रफेन, ___ (७२३४) शुण्ठयादिकल्कः (२) कदम्बनिर्यास, ईख, काण्डेक्षु, तालमखाना, वसुक ! (वृ. नि. र. | ज्वरा.) और खस; ये दश ओषधियां शुक्र शोषक कषाय । भोजनादौ नरैर्मुक्तं शुण्ठीराज्यभयोत्थितं । द्रव्योंमें श्रेष्ठ हैं। कलं तु सहते नित्यं नानादेशोद्भवं जलम् ।। (७२३२) शुण्ठीक्वाथ: सोंठ, हर्र और राईके कल्कको हमेशा भोज(वृ यो. त.। त. ६२ ; यो. र. । ज्वरा. नके प्रारम्भमें खानेसे देश विदेशका पानी विकार वृ. नि. र. । जीर्ण ज्वरा.) नहीं करता। अरुचिमनलमान्धं पीनसश्वासकासा (मात्रा-१॥ माश।) नुदरमुदकदोषानाशु इन्यादशेषान् । (७२३५) शुण्ठयादिकल्कः (३) जनयति मतिकान्ति चित्तनेत्रप्रसादम, (भा. प्र.। म. खं.) पलपरिमितशुण्ठीलोदसिद्धः कषायः ॥ । शुभयनाजीगुडं पिष्टं पीतमुष्णेन वारिणा । ५ तोले सांठको कूट कर ४० तोले पानीमें जीमचेन वक्रेण तीब्र श्रीवज्वरं जयेत् ॥ पकावें और १० तोले शेष रहने पर छान लें। सांठ, और जीरके कल्कको गुड़में मिलाकर इसे सेवन करनेसे अरुचि, अग्निमांच, पोनस, । गरम पानी, पुराने मद्य या तक्रके साथ पीनेसे तीन श्वास, कास, उदर रोग और जलदोष नष्ट होते ! शीत घर नष्ट होता है। तथा मति और कान्तिकी वृद्धि होती है एवं चित (७२३६) शुण्ठयादिकल्कः (४) प्रसन्न रहता और नेत्र स्वच्छ होते हैं। (शा. सं. म. खं. 1 अ. ६) (७२३३) शुण्ठयादिकल्कः (१) शुद्धीतिलगुहैः कल्कं दुग्धेन सह योजयेत् । (हा. सं. । स्था. ३ अ. २) | परिणामभवं शूलमामवातं च नाशयेत् ॥ शुण्ठीघनागजकणासुरदारुषान्या सेठ, तिल और गुड़ समान भाग ले कर तिक्ताकलिन्दशमूलसमोऽपि कल्कः । कल्क बनावें । इसे दूधके साथ सेवन करनेसे परिश्रेष्ठस्त्रिदोषजनितज्वरनाशनाय णाम शूल और आमवातका नाश होता है । श्वासभ्रमारुचिविबन्धहदामयन्त्रः॥ (७२३७) शुण्ठ्यादिकषायः (१) सेठि, नागरमोथा, गजपीपल, देवदारु, (यो. र. । खीरोगा.) धनिया, कुटकी, इन्द्रजौ और दशमूल समान भाग अष्ठीविल्वकषायं तु यवसक्तुसमन्वितम् । ले कर कल्क बनावें। गर्भिणी पाययेद्वैधश्चर्यतीसारनाशनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः शकारादि सेठि और बेलके क्वाथमें जौका सत्तू मिला | रामठक्षारलवणचूर्ण दत्त्वा पिवेन्नरः । कर पिलानेसे गर्भिणीकी वमन और अतिसारका | वाताश्मरी इन्ति कृच्छमान्यमग्नेश्च तद्रजः ॥ नाश होता है। कटशूरुगुदमेदस्थं वङ्क्षणस्थं च मारुतम् ।। (७२३८) शुण्ठ यादिकषायः (२) सेठ, अरनी, पाषाणभेद, सहजने और (ग. नि. । ज्वरा. १) | वरनेकी छाल, गोखरु, हर्र और अमलतासके फलों का गूदा समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । शुण्ठीयवासकषाब्दकृतः कषायः ।। श्लेष्मोद्भवं शमयति ज्वरमाशु पीतः ॥ इसमें हींग, जवाखार और सेंधानमकका सोंठ, जवासा, बासा और नागरमोथेका काथ । | चूर्ण मिला कर सेवन करनेसे वातज अश्मरि, मूत्रसेवन करनेसे कफज ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो कृच्छ्, अग्निमांद्य, कटिस्थित वायु, उरुस्थित वायु, जाता है। तथा गुद, लिंग और वंक्षण स्थित वायुका नाश होता है। (७२३९) शुण्ठयादिक्वाथः (१) __(७२४१) शुण्ठयादिक्वाथ: (३) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४२) ( धन्व. । आमवाता. ; ग. नि. । आमवाता. : शुण्ठीकणाखदिर पाटलिकापटोली व. से. ; यो. र. ; वृ. मा. । आमवाता.) मञ्जिष्ठदारुविषविल्वयवानिकानाम् । । | शुण्ठीगोक्षुरकक्वाथः प्रातः पातनिषेवितः । वासाफलत्रिकजलेन कषायसिद्धः आमे वातकटीशूले पाचनो रुक्मणाशनः । पानानिहन्ति मनुजस्य च कुष्ठदोषम् ॥ सांठ और गोखरुका क्वाथ प्रातःकाल सेवन सेठ, पीपल, खैरसार, लाल कनेरकी छाल, करनेसे आमवात, कटिशूल और शरीर पीड़ा नष्ट पटोल, मजीठ, देवदारु, अतीस, बेलकी छाल, होती है । यह क्वाथ पाचक भी है । अजवायन, बासा और त्रिफला समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । (७२४२) शुण्ठयादिक्वाथः (४) इसके सेवनसे कुष्ठ नष्ट होता है। ( वृ. नि. र. । पित्तातीसारा.) (७२४०) शुण्ठयादिक्याथः (२) शुण्ठीसुवर्चलाहिगुरभयेन्द्रगवा मताः। ( वृ. यो. त. । त. १०२ ; वृ. मा. । अश्मयः; पित्तातिसारहत्क्वाथो निपीतो मधुना सह ॥ व. से. । अश्मर्य. यो. र.; वृ. नि. र. । अश्भर्य. सेठ, हुलहुल, होंग, हरं, और इन्द्रजौ समान ग. नि. । अश्मर्य. २९) | भाग ले कर क्वाथ बनावें । शुण्ठ यग्निमन्थपाषाणभिच्छिग्रुवरुणागोक्षुरैः। इसमें शहद मिलाकर पीनेसे पित्तातिसार नष्ट अभयारग्वधफलैः क्वाथं कृत्वा विचक्षणः॥ होता है । For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायमकरणम् ] पञ्चमो भागः (७२४३) शुण्ठयादिक्वाथः (५) । (७२४६) शुण्ठयादिक्वाथः (८) (वै. जी. । विलास २) (ग. नि. ; व. से. ; वृ. मा. । ग्रहण्य. ; यो. र.) शुण्ठीछिन्नरुहाविषाजलधरैस्तुल्यैः कषायः कृतो शुण्ठी समुस्तातिविषां गुडूची मन्दानौ ग्रहणीगदेपि सततं सामानुपन्धे हितः। पिबेज्जलेन क्यथितां समांशाम् । मन्दानलत्वे सततामतायासांठ, गिलोय, अतीस और नागरमोथा समान मामानुवन्धे ग्रहणीगदे च ॥ भाग ले कर क्वाथ बनावें। सेठ, नागरमोथा, अतीस और गिलोय समान ___ यह क्वाथ मन्दाग्नि, ग्रहणीदोष और आमको | भाग ले कर क्वाथ बनावें । नष्ट करता है। इसके सेवनसे अग्निमांद्य, पेटमें सदा आम सञ्चित होते रहना और आमयुक्त संग्रहणीका (७२४४) शुण्ठयादिक्वाथः (६) । नाश होता है। ( वृ. नि. र. । स्वासा.) ___ (७२४७) शुण्ठयादिक्वाथः (९ अयि प्राणप्रिये जातिफललोहितलोचने । (ग. नि. । ज्वरा. १) शुण्ठीभाङ्गीकृतः क्वाथः श्वासत्रासाय पाययेत् ॥ शुण्ठीमुस्तादुरालभागुडूचीक्वथितं जलम् । ___ सेट, और भरंगीका क्वाथ स्वासको नष्ट पिबेदष्टावशेष यत्तद्धि वातज्वरं हरेत् ॥ करता है। सेठ, नागरमोथा, धमासा और गिलोय स(७२४५) शुण्ठयादिक्वाथः (७) । मान भाग ले कर आठगुने पानीमें पकावें और आठवां भाग पानी शेष रहने पर छान लें । ( वृ. मा. । शोथा. ; यो. र. । शोधा. ; । इसके सेवनसे वातज ज्वर नष्ट होता है । वृ. नि. र.) (७२४८) शुण्ठयादिक्वाथः (१०) शुण्ठीपुनर्नवैरण्डपञ्चमूलभृतं जलम् । (व. से. । ज्वरा.) वातिके श्वययौ शस्तं पानाहारपरिग्रहे ॥ शुण्ठीवराब्दोशीरैश्च पिवेत्तोयं सुसाधितम् । सोंठ, पुनर्नवा (बिसखपरा), अरण्डकी जड़, दाहशीतज्वरहरं पाचनं भिषजां मतम् ॥ बेलकी जड़, श्योनाक (अरलु) की जड़, खम्भारीकी । (अरल्ल) का जड़, खम्भारीकी सांठ, त्रिफला, नागरमोथा और खस समान जड़, पाढलकी जड़ और अरणीमूल समान भाग भाग ले कर क्वाथ बनावें । ले कर कोथ बनावें । ___ यह क्वाथ दाह और शीतञ्चर नाशक तथा यह क्वाथ वातज शोथको नष्ट करता है। पाचक है । For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ www. kobatirth.org 1- भैषज्य रत्नाकरः भारत (७२४९) शुण्ठयादिक्वाथः (११) ( वैद्यामृत ) शुष्ठीदारुचठीरजोवृहति कातिक्ताकिराताम्बुदा नन्ताभिर्जनितः कषायकवरः कृष्णामधुभ्यां युतः । निःशेषं त्रितयोद्भवज्वरहरो जीर्णज्वरस्यान्तकृत् कासारिर्विषमापडोपि गदितः शुण्ठयादिकः सूरिभिः ॥ सोंठ, देवदारु, कचूर, पित्तपापड़ा, कटेली, कुटकी, चिरायता, नागरमोथा और अनन्तमूल समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । इसमें शहद और पीपलका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे तृतीयक ज्वर, जीर्णज्वर, कास और विषमज्वरका नाश होता है । (७२५० ) शुण्ठयादिक्वाथः (१२) (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३ ) शुण्ठीविषाजलधरामृतावत्सकानां तिक्ताइयं च कृतशीतलकः कषायः । पाने विधेय मधुना प्रतिसाधितस्तु ज्वरातिसारशमनाय सदा प्रदेयः || सोंठ, अतीस, नागरमोथा, गिलोय, कुडेकी छाल और कुटकी समान भाग ले कर शीतकषाय बनावें । इसमें शहद मिला कर पिलानेसे ज्वरातिसार नष्ट होता है । 1 (७२५१) शुण्ठयादिपाचनम् ( हा. सं. 1 स्था. ३ अ. ३ ) शुण्ठीबालकस्ताविल्वं पाठा विषा च धान्यानि । पाचनमरुचौ छर्दिज्वरातिसारं विनाशयति ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि सोंठ, सुगन्धवाला, नागरमोथा, बेलगिरी, पाठा, अतीस और धनिया समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । यह क्वाथ पाचन तथा अरुचि, छर्दि और ज्वरातिसार नाशक है । (७२५२) शुण्ठयादिमहाकषायः (बृ. यो. त । त. १२० ) शुण्ठीनिम्बकिराततिक्तककणाः पाठा हरिद्राद्वयं त्रायती त्रिफला मृताब्दकटुका वासा वचा वाकुची । मनिष्ठाऽतिविषा दुरालभामहानिम्बानिपहू ग्रन्थिका व्याधिना गजचिटा सकुटजा भार्गी समुस्ता यवाः ।। मूर्वा चैत्र पटोलपत्रसहिता रक्तं तथा चन्दनं श्यामा सारिवा कृमिहरा गायत्रिकासंयुता । गोमूत्रेण महाकषायमरुणोद्भूते पिवेद्यः पुमान् तस्याष्टादश यान्ति नाशमचिरात्कुष्ठानि दुष्टान्यपि ॥ सेठ, नीमकी छाल, चिरायता, पीपल, पाठा, हल्दी, दारूहल्दी, त्रायमाणा, हरें, बहेड़ा, आमला, गिलोय, नागरमोथा, कुटकी, बासा (अडूसा) बच, बावची, मजीठ, अतीस, धमासा, बकायनकी छाल, चीता, अम्बाहल्दी ( आमहरिद्रा ), अमलतास, इन्द्रायण, कुड़ेकी छाल, भरंगी, नागरमोथा, जौ, मूर्वा, पटोलपत्र, लाल चन्दन, काली निसोत, पित्त / पापड़ा, सारिवा, बायबिडंग और खैरसार समान भाग ले कर गोमूत्र में पका कर क्वाथ बनावें । 1 For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कषायमकरणम् ] इसके सेवनसे १८ प्रकारके कुष्ठ शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं । पचमी भागः (७२५३) शूलप्रशमनो दशको महाकषायः ( च. सं. । सू. अ. ४ ) पिप्पलीपिप्पलीमूल चम्पचित्रकशृङ्गवेरमरिचाजमोदा जगन्धाजाजीगण्डीराणीति द मानि शूलप्रशमनानि भवन्ति । पीपल, पीपलामूल, चब, चीता, सोंठ, काली मिर्च, अजमोदा, बन तुलसी, जोरा और सेहुंड ( थूहर ) ये दश ओषधियां शूलनाशक कषाय द्रव्योंमें श्रेष्ठ हैं । नोट ---' गण्डीर' का अर्थ कई टीकाकारांने शमठशाक भी किया है । (७२५४) शृङ्गवेरक्वाथः (बृ.नि. र. | संग्रहण्य. ) कफजे शृङ्गवेरस्य क्वाथो नित्योपयौगिकः । कफज ग्रहणीमें सोंठका क्वाथ नित्य प्रति सेवन करना अत्युपयोगी है । (७२५५) शृङ्गवेररसयोगः ( वृ. नि. र. । श्वासा. ; बृ. मा. । कासा. ) स्वरसं शृङ्गवेरस्य माक्षिकेण समन्वितम् । पायाका प्रतिश्यायकफापहम् ॥ श्वास, अदरक के रसमें शहद मिला कर चाटने से खांसी और प्रतिश्याय तथा कफका नाश 3 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७२५६) शृङ्गवेरादिकाथः (ट. मा. 1 अम्लपित्ता. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) कफपित्तवमीकण्ड्ज्वरविस्फोटदाहहा । पाचनो दीपनः क्वाथः शृङ्गवेरपटोलयोः ॥ अदरक (या सेठ) और पटोलका क्वाथ कफ, पित्त, वमन, कण्डू, ज्वर, विस्फोटक और दाहको नष्ट करनेवाला तथा दीपन पाचन है । (७२५७) शृङ्गयादिकाथः (१) ( यो. र. ; वृ. नि. र. । ज्वरा . ) शृङ्गीषन्वयवास पुष्करGeraniaठीसिंहिका । काथः पानविधानतः कफहोऽभिन्यासविध्वंसकः ॥ काकड़ासिंगी, जवासा, पोखरमूल, भरंगी, कचूर और कटेली समान भाग ले कर क्वाथ बनावें | यह क्वाथ कफ और अभिन्यास सन्निपात नाशक है। (७२५८) शृङ्गयादिकाथः (२) ( यो. र० ; वृ. नि. र. । ज्वरा . ) शृङ्गो वत्सकचेतकी घनसटी भूनिम्बभार्गी निशाः तिक्ता पुष्कर चित्रकैः समरिचैर्व्याघ्रीवृषामिश्रितैः । धात्री दारुविभीतकैश्च चविकाविश्वाकणाकट्फलैः पीतः कृन्तति कण्ठकुब्जमचिरात्कोष्णः कषायस्त्विह । For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १.८ www. kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः काकड़ासिंगी, कुड़े की छाल, चेतकीहर, नागरमोथा, कचूर, चिरायता, भरंगी, हल्दी, कुटकी, पोखरमूल, चीतामूल, काली मिर्च, कटेली, बासा, आमला, देवदारु, बहेड़ा, चव, सोंठ, पीपल और कायफल समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । यह For मन्दोण करके पीने से कण्ठकुब्ज सन्निपात शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। i ( ७२५९) शृङ्गयादिकाथ: ( ३ ) ( यो. र. ; वृ. नि. र. भा. प्र. वै. र . ) शृङ्गीभार्ग्यभयाजाजीकणा भूनिम्बपर्पटैः । देवदारुवचाकुष्ठयासकट्फलनागरैः ॥ सुस्तधान्याकतिक्ते न्द्रयवपाठाह रेणुभिः । हस्तिपिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकैः ॥ विशालारग्वधारिष्टशठीबाकुचिकाफलैः विडङ्गरजनीदावयवानीद्रयसंयुतैः ॥ anita: क्वायो डिबाईकरसान्वितः । अभिन्यास ज्वरं घोरं हन्ति तन्द्रां च तत्तणात् ॥ प्रमेहं कर्णशूलं च सभपातांस्त्रयोदश । rिai श्वासं च कासं च तथा सर्वानुपद्रवान् ॥ 3:1 काकड़ासिंगी, भरंगी, हर्र, जीरा, पीपल, चिरायता, पित्तपापड़ा, देवदारु, बच, कूठ, जवासा, कायफल, सेठ, नागरमोथा, धनिया, कुटकी, इन्द्रजौ, पाठा, रेणुका: गजपीपल, अपामार्ग (चिरचिटा ), पीपलामूल, चीता, इन्द्रायण, अमलतास, नीमकी छाल, कचूर, बाबचीके बीज, बायबिडंग, हल्दी, दारु हल्दी, अजवायन और भजमोद समान भाग लेकर काथ बनावें । [ शकारादि इसमें हींग और अदरक का रस मिला कर सेवन करने से घोर अभिन्यास ज्वर, तन्द्रा, प्रमेह, कर्ण शूल, १.३ प्रकारके सन्निपोत, हिक्का, स्वास और कास आदि उपद्रव शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं। (७२६०) शेफालिकाकाथः (.ग. नि.. । बा. रो. २० ) terronics: arat मृमिपरिपाचितः । दुर्वारं गृध्रसीरोगं पीतमात्रः प्रणाशयेत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संभालके पत्तोंका मन्दाभिपर बनाया हुवा क्वाथ कष्टसाध्य गृध्रसीको भी शीघ्र ही नष्ट कर देता हैं। (७२६१) शेफालिकादिकाथः ( वृ. नि. र. । ऊरुस्तम्भा. ) शेफालिकादलक्वार्थं कणायुक्तं पिवेन्नरः । कफनं यच्च तत्समूरुस्तम्भे प्रयोजयेत् ॥ संभालुके पत्तोंक क्वाथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पीने से ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है । उरुस्तम्भ रोगमें अन्य कफघ्न उपाय भी करने चाहियें । (७२.६२) शोधन्यादिक्काथ: ( वृ. नि. र. । अतिसारा. ) atra पाठ। विडङ्गातिविपाधनाः । क्वथिता सोषणाः पीताः शोथातीसारनाशनाः || लाल पुनर्नवा (बिसखपरा ), इन्द्रजौ, पाठा, बायबिडंग, अतीस और नागरथा समान भाग कर क्वाथ बनावें । For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः इसमें काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर पीनेसे द्राक्षा, खजूर, पियाल, (चिरौंजी), बेर, शोथातिसार नष्ट होता है। | दाडिम, कठूमरका फल, फालसा, ईख, जो और (७२६३) शोथहरो दशको महाकषायः | | मुलैठो; ये दश ओषधियां श्रमनाशक हैं । (च. सं. । सू. अ.४.) (७२६७) श्रीखण्डादि कषायः (१) . ___पाटलामिमन्यबिल्वश्योनाककाश्मर्यकण्टकारिकाचहतीशालपर्णीपृश्निपर्णी गोक्षुरका (ग. नि. । ञ्चरा.) इति दशेमानि शोथहराणि भवन्ति । श्रीखण्डयष्टीमधुकाफजङ्घाः ___पाटला, अरणी, बेल, अरलु, खम्भारी, श्रीपर्णिकापपेटमुस्तद्राक्षाः । कटेली, बड़ी कटेली, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, और खजूरकोशीरयुगान्विताश्च गोखरु; ये दश ओषधियां (दशमूल ) शोथ पित्तवरे शर्करया कपायः॥ नाशक हैं। ___चन्दन, मुलैठी, काकजंघा, गंभारी, पित्तपा(७२६४) शोभाञ्जनादिकल्कः पड़ा, नागरमोथा, द्राक्षा, खजूर और दो प्रकारको ( भा. प्र. । म. खं. २ विध्य. ; वृ. मा.) । खस समान भाग ले कर क्वाथ बनावें। शोभाअनकनिहो हिसैन्धवसंयुतः। __ . इसमें खांड मिलाकर पीनेसे पित्त ज्वर नष्ट हन्त्यन्तर्विद्रधिं शीघ्रं पातः प्रातर्विशेषतः॥ | होता है। सहजनेकी जड़के. रसमें होंग और सेंधानमक मिला कर सेवन करनेसे अन्तर्विदधि शीघही नष्ट -- (७२६८) श्रीखण्डादिकषाय: (२) हो जाती है। ( ग. नि. । कासा. १०) (७२६५) श्यामादिकषायः (व. से. । नेत्र रोगा.). श्रीखण्डयष्टीमधुशालिपी पाठापटोलेन्द्रयवा बृहत्यौ । श्यामामूलं कषायं वा मधुना व्रणशुक्रिणाम् । काली निसोतके क्वाथमें शहद मिला कर . मूर्वागुडूची कटुका कषायः पीनेसे नेत्रोंका सत्रण शुक्र नष्ट होता है। " क्षयोत्थकासे च सपिप्पलीकः ॥ (७२६६) श्रमहरो दशको महाकषायः . चन्दन, मुलैठी, शालपर्णी, पाठा, पटोल, . (च. सं. । सू. अ. ४) | इन्द्रजौ, छोटी और बड़ी कटेलो, मूर्वा, गिलोय और कुटकी समान भाग ले कर काथ बनावें। केक्षु यवयष्टिका मत दशेमानि श्रमहराणि । इसमें पीपलका चूर्ण मिला कर सेवन करनेसे भवन्ति । | क्षयकी खांसी नष्ट होती है । For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः शिकारादि (७२६९) श्रीपर्यादिक्वाथ: । (७२७२) श्रीफलादिकल्का (ग. नि. । ज्वरा. १) ( यो. र. ; वृ. मा. । ग्रहण्य. ) श्रीपर्णीचन्दनोशीरपरूपकमधूकजः । | श्रीफलशलाटुकल्को नागरचूर्णेन मिश्रितः शर्करामधुरो हन्ति कषायः पैतिकं ज्वरम् ॥ समुडः। खम्भारीकी छाल, लाल चन्दन, खस, फाल- ग्रहणीगदमत्युग्रं तक्रभुजा श्रीलितो जयति ॥ सेकी छाल और महुवेकी छाल समान भाग ले कर ___ बेलगिरीके कल्कमें सांठका चूर्ण मिला कर काथ बनावें। | उसे गुड़के साथ खानेसे उग्र ग्रहणी रोग भी नष्ट इसे खांडसे मीठा करके पीनेसे पैत्तिक ज्वर हो जाता है। नष्ट होता है। पथ्य-तक । (७२७०) श्रीपादिपाचमम् (७२७३) श्रेष्ठादिकाथ: (वृ. नि. र. । वातज्वरा.) ( यो. चि. म. | अ. ४) श्रीपतिकारी श्रीफलटिण्ट्रकपाटलामूलैः। श्रेष्ठानिम्मपटोलमुस्तरजनीत्रायन्ति पाचनमुचितं मास्तजनितन्वरहारिवारिभिः । हेमामलाकृत्वा पगुणवारिणा क्वयितैः॥ विनिहितं पष्ठांशपीतो निशि। खम्भारी, अरनी, बेलगिरी, अरलुकी छाल भूशाक्षिशिरोरुजां बहुऔर पाटला (पाढल) की जड़की छाल समान विधां कर्णस्य नासागदं भाग ले कर क्वाथ बनावें । नक्तान्धं तिमिरं च काच___ यह क्वाथ वात ज्वरमें दोषोंको पचाकर ज्व- पटल दैत्यान् यथा केशवः ॥ रको नष्ट करता है। त्रिफला, नीमकी छाल, पटोल, नागरमोथा, (७२७१) श्राफलगुडूच्यादिक्वाथः हल्दी, बायमाना, नागकेसर और गिलोय समान (वृ. मा. । छZ.) भाग ले कर ६ गुने पानीमें पकावें और छठा श्रीफलस्य गुडूच्या वा कषायो मधुसंयुतः। भाग शेष रहने पर छान लें। पेयश्छदित्रये शीतो मूर्वा वा तण्डुलाम्बुना ॥ इसे रात्रिके समय सेवन करनेसे भ्र, शंख, बेलगिरी या गिलोयके काथमें शहद मिलाकर अक्षि, शिर और कानोंकी अनेक प्रकारको पीड़ा, पीने या मूर्वा के कल्कको चावलोंके पानीके साथ नासारोग, नक्तान्ध्य, तिमिर, काच और पटलका पीनेसे तीनों दोषांसे उत्पन्न छर्दि नष्ट होती है। नाश होता है। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कषायप्रकरणम् ] पचलो भानः (७२७४) श्वदंष्ट्रादिकायः सफेद तुलसीकी जड़ और सोंठका काथ ( भै. र. । अश्मर्य.) पीनेसे अजीर्ण शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । पदंष्ट्ररण्डपत्राणि नागरं वरुणत्वचम् । (७२७८) श्वेतपुनर्नवामूलयोगः (१) एतत्क्वाथवरं प्रातः पिबेदश्मरिभेदनम् ॥ (ग. नि. । विषा. ३) गोखरु, अरण्डके पत्ते, सोंठ और बरनेकी यः पिपति पुष्यदिवसे जलपिष्टं सितपुनर्नयाछाल समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । मूलम् । इसे प्रातः काल सेवन करनेसे अश्मरि नष्ट | तत्सभिधौ न वर्ष वृश्चिकभुजगाः प्रसर्पन्ति ॥ होती है। ___ जो व्यक्ति पुष्य नक्षत्रमें सफेद पुनर्नवाकी (७२७५) श्वासहरो दशको महाकषायः जड़को पानीमें पीस कर पीता है उसे १ वर्ष तक (च. सं. । सू. अ. ४) सर्प और बिच्छूके काटनेका भय नहीं रहता। शटी पुष्करमूलाम्लवेतसैलाहिड्वगुरु- (७२७९) श्वेतपुनर्नवाभूलयोगः (२) मुरसातामलकीजीवन्ती चण्डा इति दशेमानि (रा. मा. । उदरा.) श्वासहराणि भवन्ति। मूलं समं तन्दुलभावनेन कचूर, पोखरमूल, अम्लवेत, इलायची, हींग, प्रपेषितं श्वेतपुनर्नवायाः। अगर, तुलसी, भुई आमला, जीवन्ती और चण्डा पीतं भवेत्प्लीहविनाशहेतु (चोरक) ये दश चीजें श्वास नाशक हैं। पागजठा छिन्नरुहा जटा वा ॥ (७२७६) श्वेतचन्दनादियोगः सफेद पुनर्नवाकी जड़को चावलोंके पानीमें (यो. र. । मसूरिका.) पीस कर पीनेसे अथवा पाठाकी या गिलोयकी श्वेतचन्दनकल्काढयं हिलमोचाभवं द्रवम् । जड़को पीस कर पीनेसे प्लीहा-वृद्धि नष्ट पिबेन्ममूरिकारम्भे नैम्बं वा केवलं रसमू॥ होती है। मसूरिकाके प्रारम्भमें हुलहुलके रसमें सफेद (७२८०) श्वेतवर्षाभ्वादिकाथ: चन्दनका कल्क मिला कर देना या केवल नोमका ( भा. प्र. म. खं. २ । विद्रध्य.) रस पिलाना चाहिये। । श्वेतवर्षाभुवो मूलं मूलं वा वरुणस्य च । (७२७५) श्वेतपर्णासमूलयोगः | जलेन क्वथितं पीतमन्तर्विद्रधिहत्परम् ॥ (वै. म. र. । पट. ६) सफेद पुनर्नवा ( बिसखपरा ) की या बरमेको श्वेतपर्णासमूलेन सविश्वेन शृतं जलम् । जड़का क्वाथ पीनेसे अन्तर्विदधि नष्ट हो अजीर्ण शमयेत्तूर्ण कर्णः कार्यमिवार्थिनाम् ॥ जाती है। इतिशकारादिकषायप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि - - - - . ... - - - - - अथ शकारादिचूर्णप्रकरणम् (७२८१) शठ्यादिचूर्णम् (१) कचूर, भुई आमला, सोंठ, मिर्च और पीपल (यो. र. । श्वासा. ) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। शठी भार्गी बचान्योषपध्यारुचककल्फलम् ।। इसे गुड़ और घीमें मिला कर सेवन करनेसे तेजोहा पौष्करं शा सक्षौदं श्वासकासनत ॥ घोर प्रतिश्याय, पार्श्व पीड़ा, हृदय शूल और बस्ति___ कचूर, भरंगी, बच, सांठ, मिर्च, पीपल, हर', शूलका नाश होता है । (मात्रा-चूर्ण १।। माशा.। गुड़ ६ माशे। सजी, कायफल, तेजबल, पोखरमूल और काकड़ा- . सिंगी, समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । थी ६ माशे ।) इसे शहदके साथ सेवन करनेसे श्वास और (७२८४) शठयादिचूर्णम् (४) खांसीका नाश होता है। (हा. सं. । स्था. ३ अ. १६) (मात्रा-१॥ माशा) सठी दाय॑भया शुण्ठी मागधी घृतसंयुता । । चूणे तक्रेण संयुक्तं हन्ति छदि त्रिदोषजाम् ।। १७२८२) शल्यादिचूर्णम् (२) कचूर, दारु हल्दी, हरं, सेठ और पीपल (वा. भ. । चि. भ. ४) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । शठी तामलकी भाङ्गी चण्डा दोलकपौष्करम् । इसे धीमें मिला कर तकके साथ सेवन कर. शर्कराष्टगुणं चूणे हिमाश्वासहरं परम् ॥ नेसे त्रिदोषज छर्दि नष्ट होती है । कचूर, भुई आमला, भर गी, शंखपुष्पी, सुग- याच माशा । घी ६ माशे।) न्धबाला और पोखरमूल १-१ भाग तथा खांड ८ (७२८५) शठयादिचूर्णम् (५) भाग ले कर चूर्ण बनावें। इसके - सेवमसे हिचकी और श्वासका नाश (कृ. नि. र. । ग्रहण्य.) होता है । शठी न्योपाभया क्षारौ ग्रन्थिकं बीजपूरकम् । ( मात्रा-३-४ माशा । अनुपान मधु ।) लवणाम्लाम्पुना पय श्लामक ग्रहणगिर्द ।। कचूर, सांठ, मिर्च, पीपल, हरे, जवाखार, (७२८३) शठ्यादिचूर्णम् (३) सजीखार, पीपलामूल, बिजौरे नीबूका गूदा और ( यो. र. । प्रतिश्याया. ; वृ. नि. र. । नासा.; सेंधानमक समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । वृ. यो. तं. । त. १३०; व. से. । नासा.) इसे कांजीके साथ सेवन करनेसे कफज प्रहशठीनामलकीव्योपचूर्ण सपिडान्वितम् । । णीरोग नष्ट होता है । हरेघोरं प्रतिश्यायं पारदस्तिथूलनुत् ॥ (मात्रा-१॥ माशा । ) For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चूर्ण प्रकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमो भागः . (७२८६) शठया चूर्णम् व. से. 1 श्वासा. ( वृ. यो त । त. ८० ; घृ. मा. । हिक्का श्वासा. ; ग. नि. । चूर्णा. ३; वृ.नि. र. ) शठी पुष्करजीवन्तीत्वङ्मुस्तं पुष्कराश्यम् । सुरसा तामलक्योsपि पिप्पल्यगुरुबालकम् ॥ नागरं च समं चूर्ण कृत्वा द्विगुणशर्करम्' । सर्वथा तमश्वासे किायां च प्रयोजयेत् ॥ कचूर, कमलकन्द, जीवन्सी, दालचीनी, नागरमोथा, पोखरमूल, तुलसी, भुई आमला, पीपल, अगर, सुगन्धवाला और सांठ १ - १ भाग तथा खांड सबसे दो गुनी ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें । यह चूर्ण तमक श्वास और हिचकीको नष्ट करता है । ( मात्रा - ३-४ माशे । ) ( अनुपान - मधु । ) (७२८७) शतपुष्पादि चूर्णम् ( वृ. नि. र. । अतिसारा ) शतपुष्पा च विश्वा च श्वेताजाजी हरीतकी । खाखसस्य फलं चैव पलार्द्ध तु पृथक् पृथक् ॥ सूक्ष्म चूर्ण विधायाथ घृतभ्रष्टं तु कारयेत् । सर्वार्द्धातुसिता या पलार्द्ध दधिसंयुतम् ॥ प्रातःकाले भक्षयेत्तु सर्वातीसारनाशनम् । पथ्यं कुर्यात् विशेषेण शालिभक्तं स तक्रकम् सौंफ, सोंठ, सफेद जीरा, हर्र और पोस्तका डोढा समान भाग ले कर चूर्ण बनावें तथा उसे १ अष्ट गुणशर्करमिति पाठान्तरम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ मन्दाग्नि पर धीमें सेक लें और फिर उसमें सबसे आधी मिसरी मिला लें । मात्रा - २॥ तोला | इसे दही में मिला कर प्रातः काल सेवन करनेसे समस्त प्रकारके अतिसार नष्ट होते हैं । पथ्य -- शाली चावलोंका भात और तक्र । ( व्यवहा. मात्रा ३ माशे । ) (७२८८) शतपुष्पाद्य चूर्णन् (ग. नि.. | चूर्णा, ३. आमवाता. २३; वृ. मा. । आमा . ) शतपुष्पा विडङ्गानि सैन्धवं मरिचं समम् । चूर्णमुष्णाम्बुना पीतमनिसन्दीपनं परशु || सौंफ (या सोया), बायबिडंग, सेंधा नमक और काली मिर्च समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । . इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे अग्निदीप्त होती है । मात्रा - १ - १॥ माशा ) (७२८९) शतावर्यादिचूर्णम् (१) ( शा. सं. । खं. २ अ. ७ ) शतावरी गोक्षुरश्च बीजं च कपिकच्छुजम् । गाङ्गेरुकी चातिबला बीजमिक्षुरकोद्भवम् !! चूर्णितं सर्वमेकत्र गोदुग्वेन पिबेन्निशि । न तृप्तिं याति नारीभिर्नरश्चूर्ण प्ररगदतः || ।। सतावर, गोखरू, कौंच के बीज, नागबला (गंगेरन) की जड़, अतिबला (कंधी) की जड़ और तालमखाना समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४ www. kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः इसे रात्रि के समय गोदुग्धके साथ सेवन करनेसे कामशक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि बार बार बी समागम करने पर भी तृप्ति नहीं होती । ( मात्रा -- १॥ - २ माशे । ) (७२९०) शतावर्यादिचूर्णम् (२) ( यो. र. । वाजीकरणा . ) शतावरी गोक्षुर काश्वगन्धा पुनर्नवानागबलानुसल्या । घृतेन खण्डेन तु भक्षणीयाः क्षीणा नरा नागबला भवन्ति ॥ शतावर, गोखरू, असगन्ध, पुनर्नवा ( बिसखपरा), नागबला (गंगेरन) की जड़ और मूसली समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसमें घी और खांड मिला कर सेवन करने से क्षीण पुरुष भी हाथी के समान बलवाले हो जाते हैं । (७२९१) शतावर्यादिचूर्णम् (३) ( यो. र. । वाजीकरणा ; न. मृ. । त. ३ ) शतावरीनागबलाविदारीत्रिकण्टकैरामलकी फलान्वितैः । विचूर्णितैः पञ्चभिरेकशः पृथक् प्रकल्पितैर्वा घृतमाक्षिक प्लुतैः ॥ इति प्रयोगाः षडिमे भिषग्वरैरुदीरिताः शर्करया समन्विताः । नृणां मदान्ध प्रमदोपसर्पिणां प्रधानधातोरतिरेककारणम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि शतावर, नागबला (गंगेरन), विदारीकन्द, गोखरु और आमलेका चूर्ण पृथक् पृथक् या समान भाग मिला कर खांड, घी और शहद के साथ सेवन करने से अत्यन्त वीर्यवृद्धि होती है । ( मात्रा - ३-४ माशे । ) (७२९२) शतावर्यादिचूर्णम् (४) ( व. से. । रसायना. ) शतावरी मुण्डतिका गुडूची सहस्तिकर्णा सह तालमूली । एतानि कृत्वा समभागयुक्त्या सर्पिर्मधुभ्यां सततं विलयात् ॥ जराsजामृत्युविमुक्तदेो भवेश्वरः कान्तिबालादियुक्तः । विभाति देवोपम एव नित्यं शुद्धामयो भूरिविशुद्धबुद्धिः ॥ शतावर, मुण्डी, गिलोय, हस्तिकर्णा और तालमूली समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे घी और शहद में मिला कर सेवन करसे जरा. व्याधि और (अकाल मृत्युका नाश हो कर कान्ति, बल और बुद्धि आदिकी वृद्धि होती है । (७२९३) शतावर्यादिचूर्णम् (५) ( वै. मृ. । विषय २८ ) शतावरीनागबलात्मगुणेक्षुरश्वदंष्ट्रातिलमाषचूर्णम् । यः सिताढ्य निशि तेन पेयं कान्ता शर्त यस्य गृहे विभाति ॥ For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घूर्णपकरणम् ] पचमो भागः शतावरी, नागबला (गंगेरन), कौंचके बीज, इसे शहदमें मिला कर चाटनेसे गर्भपातका तालमखाना, गोखरु, तिल और उड़द समान भाग ! भय नष्ट हो जाता है। ले कर चूर्ण बनावें। (मात्रा-६ माशेसे ९ माशे तक ।) इसे मिसरी मिले दूधके साथ रात्रिके समय (७२९६) शर्कराचं चूर्णम् सेवन करनेसे काम शक्ति इतनी अधिक बढ़ जाती। __ (ग. नि. । चूर्णा. ३) है कि मनुष्य सैकड़ों स्त्रियोंसे समागम कर शर्कराहिमरिचं सूक्ष्मचूर्णीकृतं पिबेत् । सकता है। सुखोदकेन तद्धयाशु शलनममृतोपमम् ।। (मात्रा-३-४ माषा 1 ) खांड, हींग और काली मिर्च समान भाग (७२९४) शतावर्यादिचूर्णम् (६) • ले कर चूर्ण बनावें। (यो. र. । वाजीकरणा.) इसे मन्दोष्ण जलके साथ पीनेसे शूल अत्यन्त शतावर्यश्वगन्धा च वानरी मुशली तथा। शीघ्र नष्ट हो जाता है। शूलके लिये यह अमृतके गोकण्टो शर्करा क्षीरं पिबेनष्टेन्द्रिपो नरः॥ समान गुणकारी है । शतावर, असगन्ध, कौंचके बीज, मूसली, (७२९७) शर्करासमं चूर्णम् और गोखरु समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। इसे खांड मिले हुवे दूधके साथ सेवन करनेसे (वृ. यो. त. । त. ७८ ; व. से. । कासा.; नपुंस्कता नष्ट होती है। ग. नि.; यो. र. ; वृ. नि. र. । हिकारवा.) (मात्रा-३-४ माशे ।) शुण्ठीकणामरिचनागदलत्वगेला चूर्णीकृतं क्रमविवर्धितमृर्वमन्त्याद । (७२९५) शर्करादियोगः खादेदिदं समसितं गुदनानिमान्य(रा. मा. । स्त्री रोगा. ३० ; यो. र. ; गुल्मारुचिश्वसनकण्ठहदामयेषु ॥ वैद्या. । अल. ४) इलायची १ भाग, दारचीनी २ भाग, तेजशर्कराविशतिलैः 'समांशकै- पात ३ भाग, नागकेसर ४ भाग, काली मिर्च ५ मालिकेण सह भक्षितैः स्त्रियः। भाग, पीपल ६ भाग और सेठ सात भाग तथा नास्ति गर्भपतनोद्भवं भयं खांड २८ भाग ले कर चूर्ण बनावें। पापभीतिरिव तीर्थसेवया ॥ इसके सेवनसे अर्श, अग्निमांद्य, गुल्म, खांड, विश (कमलकन्द) और तिल समान | अरुचि, श्वास, तथा कण्ठ और हृद्रोगोंका नाश भाग ले कर चूर्ण बनायें। होता है। १ शर्करायवतिलैरिति पाठभेदः ( मात्रा-३-४ माशे ।) १० For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६ प्र. सं. ६६४३ देखिये । शर्करासमं चूर्णम् (वृहत् ) www. kobatirth.org भारत-भषज्य रत्नाकरः ' वृहन्छर्करासमचूर्णम् ” (७२९८) शल्लकीत्वचादियोगः (ग. नि. । अतिसारा. २ ; वृ. मा. । अतिसारा.) शल्लकीवदरीजम्बूपियाला म्रार्जुनत्वचः । पीताः क्षीरेण मध्वाढ्याः पृथक् शोणित नाशनाः ॥ (७२९९) शाकवृक्षमूलयोगः ( ग. नि. । मूत्राघाता. २८ ) शर्कराजपयः पीता शाकक्षस्य मूलिका । मूत्ररोधं तथा दाहं नाशयत्यति वेगतः ॥ [ शकारादि हींग १ भाग, बच २ भाग, बिड नमक ३ भाग, सोठ ४ भाग, अजवायन ५ भाग और हर ६ भाग ले कर चूर्ण बनावें । शाक वृक्ष (सागोन) की जड़के चूर्ण को खांडमें मिला कर बकरीके दूधके साथ सेवन करनेसे मूत्रावरोध और दाहका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है । (७३००) शार्दूलं चूर्णम् (१) (ग. नि. । चूर्णा. ३) भागवृद्धयुत्तरं हिङ्गुवचाविड महौषधम् । यानीमभयां चैव चूर्ण मस्त्वादिभिः पिवेत् ॥ विबन्धानाहशूलाशवधर्मश्वासोदरापहम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे मस्तु आदिके साथ सेवन करने से विवन्ध ( मल मूत्रादिका अवरोध ), आनाह, शूल, अर्श, वर्म, श्वास और उदर रोगोंका नाश होता है 1 शल्लकी, बेरी, जामन, पियाल ( चिरौंजी हिग्राबिडशुण्ठयजाजीविजयावाटद्याभिधावृक्ष ), आम और अर्जुनमें से किसी भी वृक्षकी छालके चूर्णको शहद में मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है । (७३०१) शार्दूलं चूर्णम् (२) (ग. नि. | चूर्णा. ३) नामयैचूर्ण कुम्भनिकुम्भमूलसहितैर्भागोत्तरं वर्धितैः। पीत कोष्णजलेन कोष्ठकरुजागुल्मोदरादीनयं शार्दूलं प्रसभं प्रमथ्य हरति व्याधीन्मृगौघानिव ॥ हींग १ भाग, बच २ भाग, बिड नमक ३ भाग, सांठ ४ भाग, जीरा ५ भाग, भांग ६ भाग, पोखरमूल ७ भाग, कूठ ८ भाग, निसोत ९ भाग और दन्तीमूल १० भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसके सेवनसे कोष्ठरुजा, गुल्म और उदरादि रागोंका अवश्य नाश होता है । ( मात्रा - १॥ - २ माशे । ) (७३०२) शिरीषादिचूर्णम् (१) ( वृ. यो त । त. १२६ ) शिरीषोदुम्बराश्वत्यचटप्लक्षस्वचां रजः । उलनेन जयति मसूरीं क्लेदमुल्वणम् ॥ सिरसकी छाल, गूलर की छाल, पीपल वृक्षकी छाल, वटकी छाल और पिलखनकी छाल समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनायें । For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २७ इसे मसूरिकाकी क्लेद (चिपचिपाहट ) युक्त । । सिरसकी छाल, कूठ, खस और लोध समान कुंसियों पर छिड़कनेसे लाभ होता है। भाग ले कर सबको एकत्र पीस कर चूर्ण बनावें । (७३०३) शिरीषादिचूर्णम् (२) । इसे शरीरपर मलनेसे ग्रीष्म कालमें भी शरी (ग. नि. । ज्वरा. १) रसे पसीनेकी दुर्गन्ध नही आती। शिरीषो लाली कुष्ठं निम्बो देवी हरीतकी। (७३०६) शिवादिचूर्णम् मध्वाज्यभक्षितं चूर्ण विषमज्वरनाशनम् ॥ (यो. त.। त. ४३) सिरसकी छाल, लांगली (कलियारी) की जड़, | शिवा वचा हि विषा कलिङ्गं रुचकं समम् । कूल, नीमको छाल, हुल हुल और हरै समान भाग कर्षमुष्णाम्बुना पेयमनुपानं हि शूलिभिः । ले कर चूर्ण बनावें। इसे शहद और घीमें मिला कर सेवन करनेसे हरं, बच, हींग, अतीस, इन्द्रजौ और काला विषम ज्वरका नाश होता है। नमक (संचल) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे बूल (मात्रा-४-६ रत्ती।) नष्ट होता है। (७३०४) शिरीषादियोगः मात्रा-१। तोला । ( व्यवहारिक मात्रा(यो. र. वं. से. । विषा.) | १|| माशा) शिरीषपुष्यस्वरसे सप्ताह मरिच सितम्।। भावित सर्पदष्टानां पाने नस्याउने हितम् ।। (७३०७) शिवाय चूर्णम् : सिरसके फूलोंके ( या पत्तोंके ) स्वरसमें ( ग. नि. । मूत्रकृच्छ्रा ७) सहजनेके बीज ( श्वेत मिर्च ) भिगो दें और एक शिवा पिपलिका द्राक्षा बीजं धवकुरण्टयोः। सप्ताह तक भीगे रहने दें एवं तदनन्तर ( छायांमें | कर्कटयाश्च कुवेराक्ष्या बीजं पाषाणभेदतः॥ सुखाकर ) पीस लें। एषां चूर्ण समांशानां भक्षितं मधुना समम् । इसे पिलाने, इसकी नस्य देने और इसका अश्मरीं शर्करां हन्ति मूत्रकृच्छ्रे च दारुणम् । अंजन लगानेसे सर्पविष नष्ट होता है। हर, पीपल, मुनक्का, धवके बीज, कुरण्ट (७३०५) शिरीषाघुवर्तनम् (कण्टाई) के बीज, काकड़ासिंगी, करञ्जके बीज (रा. मा. । कुष्ठा. ८) और पाषाण भेद समान भाग ले कर चूर्ण शिरीषपञ्चकोशीररोधोद्वर्तितविग्रहः। | बनावें। ग्रीष्मोष्मणाऽपि नामोति दौर्गन्ध्यं जातु मानवः। इसे शहद के साथ सेवन करनेसे अश्मरी, १. पाठभेद-शिरीषपत्रस्वरसे. शर्करा और दारुण मूत्र कृच्छ्रका नाश होता है । For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि - (७३०८) शुक्रस्तम्भकरं चूर्णम् सेठ, अतीस, हींग, नागरमोथा, कुड़ेकी (र. प्र. सु. । अ. १३) छाल और चीतामूल समान भाग ले कर चूर्ण पोस्तकं पलमेकं शुण्ठी कर्षः सितोपलैकं च ।। बना - बनावें। कर्पमितं त्वक् पयसा पीतं रेतो ध्रुवं धत्ते ॥ इसे उष्ण अलके साथ सेवन करनेसे आमा पोस्त ५ तोले, सोंठ ११ तोला, मिश्री ५ तिसार नष्ट होता है। तोला और दालचीनी ११ तोला ले कर चूर्ण (मामा-१॥-२ माशा) बनावें। (७३११) शुण्ठपादिचूर्णम् (२) इसे दूधके साथ सेवन करनेसे वीर्य स्तम्भन होता है। (वृ. नि. र. । अजीर्णा.) (७३०९) शुण्ठीचूर्णम् यवक्षारान्वितं शुण्ठीचूर्ण लीढं घृतान्वितम् । (वृ. नि. र. । वातव्या.) | उष्णोदकेन वा पीतं शुण्ठीचूणे क्षुधाकरम् ॥ लघुशुण्ठीकृतं चूर्ण पलसप्तमितं बुधैः। सांठका चूर्ण और यवक्षार समान भाग ले तत्समं गोघृतं दत्वा भर्जयित्वा ततो बुधः॥ कर दोनोंको एकत्र मिला कर पीके साथ चाटने शुण्ठीसमं रसोनं च पिठा तत्र विनिक्षिपेत् । । या केवल सांठके चूर्णको उष्ण जलके साथ सेवन पक्षाघातं हनुस्तम्भं कटिभर तथैव च ॥ करनेसे क्षुधा-वृद्धि होती है। बाहुपीडां जयेनीनां वातरोगं च नाशयेत् ॥ (मात्रा-१॥-२ माशा ।) छोटी जातिकी सोंठके ३५ तोले चूर्णको ३५ (७३१२) शुण्ठयादिचूर्णम् (३) तोले गोघृतमें भून लें और फिर उसमें ३५ तोले ( वृ. नि. र. । कासा.) पिसा हुवा ल्हसन मिला कर सुरक्षित रक्खें ।। इसके सेवनसे पक्षाघात, हनुस्तम्भ, कटिभंग, | शुण्ठीदुरालभा द्राक्षा कर्चरस्तवराजकम् । तीत्र बाहु पीड़ा और वात व्याधिका नाश | वातकास । | वातकासं निहन्त्याशु तैलभुक्तं हि चूर्णकम् ॥ होता है । सेठ, धमासा, मुनक्का, कचूर और तवराज (७३१०) शुण्ठयादिचूर्णम् (१) ( यवास शर्करा-शीरखिस्त ) समान भाग ले कर (शा. सं. । खं. २ अ. ६ ; वृ. नि. र.। चूर्ण बनावें । ____ आमातिसारा.) इसे तेलमें मिलाकर चाटनेसे वातज कास शुण्ठीप्रतिविषा हि मुस्ताकुटनचित्रकैः । नष्ट होती है। चूर्णमुष्णाम्बुना पीतमामातीसारनाशनम् ॥ (मात्रा-१॥ माशा । ) For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः (७६१३) शुण्ठ्यादिचूर्णम् (४) इसे इन्हीं ओषधियोंके काथके साथ सेवन ( .. से. । ग्रहण्य.) | करनेसे समस्त वातज रोग नष्ट होते हैं । शुण्ठी मुस्तं विडङ्गश्च मुरातक्रोष्णवारिणा। (७३१६) शुण्ठयादिचूर्णम् (७) श्लैष्मिकं ग्रहणीदोषं पीतं हन्त्यग्निवर्द्धनम् ॥ (यो. र. । अतिसारा. ; वृ. नि. र.) __ सेठ, नागरमोथा और बायविडंग समान भाग सत्त्वाशुण्ठयोषणं भृङ्गीसमांशं सूक्ष्मचूर्णितम् । ले कर चूर्ण बनावें। यथासात्म्यं सेवनीयं शीततोयानुपानतः ॥ इसे सुरा, तक्र या उष्ण जलक साथ सेवन सशूलमामदोषं च नाशमायाति सत्वरम् । करनेसे कफज ग्रहणी विकार नष्ट हो कर अग्नि दीत दध्योदनं पथ्यमत्र उचितं रोगशान्तये ॥ होती है। सेठ, काली मिर्च और भांग (अथवा अतीस) ( मात्रा-२ माशा।) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । (७३१४) शुण्ठयादिचूर्णम् (५) इसे शीतल जलके साथ सेवन करनेसे शूल ( यो. र. । स्त्री.) और आमातिसार शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। शुण्ठीतिरीटयोश्चूर्ण भुक्तं सघृतशर्करम् । पथ्य-दही भात । प्रबलं प्रदरं हन्ति नार्या वा कुटजाष्टकम् ॥ (मात्रा-१॥ माशा ।) सांठ और लोध समान भाग ले कर चूर्ण (७३१७) शुण्ठचादिचूर्णम् (८) बनावें । इसमें खांड मिला कर घीके साथ सेवन करनेसे प्रबल प्रदर रोग भी नष्ट हो जाता है।। ( वृ. मा. । अजीर्णा. ; ग. नि. । अजीर्णा. ५, ( मात्रा--२ माशे।) भवेदजीर्ण प्रति यस्य शङ्का कुटजाष्टक भी प्रदरको नष्ट कर देता है। स्निग्धस्य जन्तोलिनोऽनकाले । पूर्व सशुण्ठीमभयामशको (७३१५) शुण्ठ्यादिचूर्णम् (६) भुञ्जीत सम्भाश्य हितं हिताशी ।। ( वृ. नि. र. । वातव्या.) यदि अजीर्णका सन्देह हो और रोगी बलवान शुण्ठीमरिचदारूणां चूर्ण क्वाथस्य पानतः। हो तथा उसका कोष्ठ भी स्निग्ध हो तो उसे भोजसर्वे वाता विनश्यन्ति देहोपद्रवकारिणः ॥ नके समय ( भोजनसे पूर्व ) सेठ और हर्रका सेठ, काली मिर्च और देवदारु समान भाग समान-भाग-मिश्रित चूर्ण खिलाना चाहिये । ले कर चूर्ण बनावें । (मात्रा-२ माशे ।) For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि (७३१८) शुण्ठयादियोगः सेठ, ब्राह्मी, हींग, अनारदाना और अम्लवेत ( भा. प्र. म. खं. २ । अजीर्णा. ) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । गुडेन शुण्ठीमथ चोपकुल्यां इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे श्वास पथ्यां तृतीयामथ दाडिमं वा। और हृद्रोगका नाश होता है। आमेष्वजीर्णषु गुदामयेषु (मात्रा-१ माषा ।) वर्गों विबन्धेषु च नित्यमद्यात् ॥ (७३२१) शुण्ठयाचं चूर्णम् (३) आमाजीर्ण, अर्श और मलावरोधमें नित्य प्रति (वै. जी. । विलास २; वृ. नि. र.। अतिसारा.) सेठ, पीपल और हर के समान भाग-मिश्रित कल्याणि काश्चनलसा ललिताङ्गयष्टे (२ माशे) चूर्णको अथवा अनार दानेके चूर्णको । ताम्बूलशालिवदने ललने शृणुष्व । गुड़में मिला कर खाना चाहिये। शुण्ठीमदाकुसुममोचरसाजमोदा(७३१९) शुण्ठयाद्यं चूर्णम् (१) स्तक्रान्विताः पशमयन्त्यतिसारमुग्रम् ॥ ( ग. नि. । परि. चूर्णा. ३) सांठ, धायके फूल, मोचरस और अजमोद शुण्ठी ससौवर्चलचित्रकाभयां समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । ___ सरामठां दाडिमसैन्धवान्विताम् । ___ इसे तक (मटे) के साथ सेवन करनेसे उग्र अतिसार भी नष्ट हो जाता है । खादन्ति ये मन्दहुताशना (मात्रा-३ माशे।) भुवि भवन्ति ते वाडवतुल्यवयः॥ । सेठ, संचल (काला नमक), चीतामूल, हरे, (७३२२) शुण्ठयाचं चूर्णम् (४) हींग, अनारदाना, और सेंधानमक समान भाग ले (वै. म. र. । पटल ३) कर चूर्ण बनावें। शुण्ठीकणासिताधात्रीरेणुः क्षौद्रेण मिश्रितः। इसे सेवन करनेसे अग्निमांद्यका नाश हो कर हिकां हन्ति समालीढः, सक्षौद्रं पिच्छभस्म वा ॥ जठराग्नि अत्यन्त तीव्र हो जाती है। सेठ, पीपल, मिश्री, आमला और रेणुका (मात्रा-१॥-२ माशा। समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे शहदके साथ चाटनेसे हिचकी नष्ट हो अनुपान-उष्ण जल ।) जाती है। (७३२०) शुण्ठ्याद्यं चूर्णम् (२) (मात्रा-३ माशा।) (ग. नि. । हृद्रोगा. २७) मोरपंखकी भस्म शहदमें मिलाकर चाटनेसे शुण्ठीसुवर्चलाहिङ्गुदाडिमं साम्लवेतसम् । भी हिचकीका नाश होता है । चूर्णमुष्णाम्बुना पेयं श्वासहृद्रोगमुक्तये ॥ (मात्रा-१ माशा ।) For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पूर्णमकरणम् ] पञ्चमो भागः (७३२३) शूकरशिम्बीमूलयोगः . इसे शहदमें मिला कर चटानेसे बालकों के ( भा. प्र. म. सं. २ । स्त्री रोगा.) ज्वर, खांसी और वमनका नाश होता है। शूकरशिम्बीमूलं मध्य ( मात्रा-४ रत्ती।) वा दषिफलस्य सपयस्कम् । केवल अतीसका चूर्ण चटानेसे भी बालकोंके पीत्वाथो भवलिङ्गीबीज ज्वर, खांसी और वमनका नाश हो जाता है । __ कन्यां न मूते स्त्री ॥ (७३२६) शृङ्गयादिचूर्णम् (२) यदि किसी स्त्रीके केवल कन्या ही कन्याएं (यो. र.; भै. र. ; वै. र. ; वृ. मा. ; ग. नि. ; होती हो तो उसे कौंचकी जडका चूर्ण या कैथके र. र. । हिक्का. ; वृ. यो. त.। त. ८० ; यो. गूदेका चूर्ण दूधके साथ पिलाना चाहिये अथवा चि. म. । अ. २ ; व. से. । ) शिवलिंगीके बीज सेवन कराने चाहिये । शृङ्गीकटुत्रयफलत्रयकण्टकारी(७३२४) शृङ्गवेरादियोगः ___ भार्गीसपुष्करजटालवणानि पञ्च । चूर्ण पिवेदशिशिरेण जलेन हिकां (यो. र. ; वृ. नि. र. । अश्मय.) वासोवातकसनारुचिपीनसेषु ।। शावरयवक्षारपथ्याकालीयकान्वितम् । काकड़ासिंगी, सेठ, काली मिर्च, पीपल, हर्र, माज दधि भिनत्युग्रामश्मरीमाशु पातयेत् ॥ बहेड़ा, आमला, कटेली, भरंगी, पोखरमूल और ___अदरक (सोंठ) जवाखार, हर और अगर पांचो नमक समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।। समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे हिक्का, इसे बकरीके दहीमें मिलाकर सेवन करनेसे स्वास, उर्ध्व वात, कास, अरुचि और पीनसका कठिन पथरी भी टूटकर शीघ्र ही निकल जाती है। नाश होता है। (मात्रा-२-३ माशे।) (मात्रा-२-३ माशे ।) (७३२५) शृग्यादिचूर्णम् (१) (७३२७) शृङ्गयादिचूर्णम् (३) ( शा. सं. । खं. २ अ. ६ ; वै. र. । कासा.) ( र. र. । श्वासा.) शृङ्गी प्रतिविषा कृष्णा चूर्णिता मधुना लिहेत। शृङ्गीमहौषधकणाघनपुष्कराणां शिशोः कासज्वरच्छदिशान्त्यै वा केवला विषा ॥ चूर्ण शठीमरिचयोश्च सिताविमिश्रम् । क्वाथेन पीतममृताविषपञ्चमूल्पाः काकडासिंगी, अतीस और पीपल समान भाग श्वास व्यहेण विनिहन्ति हि घोरले कर चूर्ण बनावें। रूपम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर [शकारादि काकड़ासिंगी, सोंठ, पीपल, नागरमोथा, पो- बायबिडंग, नागरमोथा और चीतामूल समान भाग खरमूल, कचूर और काली मिर्च १-१ भाग तथा ले कर चूर्ण बनावें। खांड सबके बराबर लेकर चूर्ण बनावें। इसे बेलपत्रके रसमें मिलाकर प्रातःकाल सेवन इसे गिलाय, अतीस और पंचमूल (बेल, करनेसे पाण्डु और दारुणशोथ शीघ्र ही नष्ट हो अरलु, खम्भारी, पाढल और अरणी) के काथके जाता है। साथ पीनेसे घोर श्वास भी ३ दिनमें नष्ट हो | (माधा-१॥-२ माशे।) जाता है। (७३३०) शोभाञ्जनादिचूर्णम् (७३२८) शृङ्गयादिचूर्णम् (४) (ग. नि. । कृम्य. ६) (ग. नि. । कासा. १०) चोभाञ्जनः सर्षपराजिकार्कशृङ्गीवचाकट्फलकत्तृणाब्द रसोनसिन्धृत्यकणामि विश्वाः । धान्यापयामार्यमराहविश्वम् । एतैः कृतं चूर्णमिदं निहन्ति उष्णाम्बुना हिायुतं च पीत्वा अतं कृमीणां च तुषोदकेन । बदास्यमप्याशु जहाति कासम् ।। सहजनेकी छाल, सरसों, राई, आककी जड़, काकड़ासिंगी, बच, कायफल, गन्धतृण, ना । ल्हसन, सेंधा, पीपल, चीता और सोंठ समान भाग गरमोथा, धनिया, हर्र, भरंगी, देवदारु और सोंठ लेकर चूर्ण बनावें। तथा हींग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। इसे कांजीके साथ सेवन करनेसे कृमि रोग इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे खांसी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। नष्ट होता है। (मात्रा-१५-२ माशा ।) ( मात्रा-२ माशे ।) (७३२९) शोधारिचूर्णम् (७३३१) श्यामादियोगः (ग. नि. । गुल्मा. २५) (भै. र. । शोथा.) शुष्कमूलमपामार्गस्त्रिकटुस्त्रिफला तथा । श्यामा दन्ती त्रिवृत्कुष्ठं यवक्षारो हरीतकी। दन्ती च त्रिमदश्चैव प्रत्येकच समं समम् ॥ गुग्गुलुश्चेति मूत्रेण पातव्यं गुल्मभेदनम् ।। भक्षयेत्यातरुत्याय बिल्वपत्ररसेन च । पीपल, दन्तीमूल, निसोत, कूठ, जवाखार, पाण्डुरोग निहन्त्याशु शोथश्चैव सुदारुणम् ॥ हर्र और गूगल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । ___ अपामार्ग (चिरचिटे) की सूखी जड़, सोंठ, ! इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे गुल्म नष्ट मिर्च, पीपल, हरं, वहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, होता है। For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra टिकाप्रकरणम् ] (७३३२) श्यामानुवर्त्तनम् ( रा. मा. । कुष्ठा. ८ ) श्यामात्मगुप्तामलयोद्भवानि कुष्ठं च बीजानि च मूलकस्य । समान्युपादाय कृतं नराणामुद्वर्तनं सिध्महरं वदन्ति ॥ हल्दी, कौंच, बाबची, कूठ और मूलीके बीज समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे मसलने से सिम (छीप) का नाश होता है। (७३३३) श्रीखण्डादियोगः ( ग. नि. । शिरोरोगा . १ ) श्रीखण्डकुङ्कुममुशीरकभृङ्गराज द्राक्षा प्रियङ्गुभरिचं च गुडूचिका च ! यष्टी सनागरमिदं सकलं सखण्ड दुग्धान्वितं मधुघृतेन शिरोव्यथायाम् || चन्दन, केसर, खस, भंगरा, मुनक्का, फूलप्रियंगु, काली मिर्च, गिलोय, मुलैठी और सांठ रस प्रकरण में देखिये । प्र. देखिये | शङ्करवटी ( भै. र. । हृद्रोगा. ૫ शङ्खवट रस प्रकरण में देखिये | शय्यादिकाङ्कायनवटी www. kobatirth.org पञ्चमो भागः इति शकारादि चूर्णमकरणम. अथ शकारादिगुटिका प्रकरणम् (वृ. नि. र. 1 गुल्मा. ) " सं. ७५१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समान भाग तथा खांड सबके बराबर बनावें । इसे शहद और धीमें मिला कर दूधके साथ सेवन करनेसे शिरो व्यथा नष्ट होती है । ( मात्रा - ६ माशे । ) (७३३४) श्वदंष्ट्रादिचूर्णम् ( रा. मा. । राजय. ११ ) चूर्ण श्वदंष्ट्राफलवाजिगन्धाविनिर्मितं माक्षिकसम्प्रयुक्तम् । क्षीरेण सार्धं परिपीयमानं शोषं च का च निहन्ति पुंसाम् || गोखरुके फल और असगन्ध समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे शहद में मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे शोष और कासका नाश होता है । ( मात्रा - ३-४ माशे 1 ) ३३ कर चूर्ण For Private And Personal Use Only (७३३५) शय्यादिगुटिका ( च. सं. । चि. स्था. ६ अ. ५ ) शठी पुष्कर हिम्लवेतसक्षारचित्रकान् । धान्यञ्च यवानीच विडङ्गं सैन्धवं वचाम् ॥ सचव्यपिप्पलीमूलमजगन्धां सदाडिमम् । अजाजीं चाजमोदाञ्च चूर्ण कृत्वा प्रयोजयेत् ॥ रसेन मातुलुङ्गस्य मधुशुक्तेन वा पुनः । भावि गुडिकां कृत्वा सुपिष्टां कॉलसम्मिताम् ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ३४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि गुल्मं प्लीहानमानाई श्वास कासमरोचकम् ।। (७३३६) शिग्रुत्वचादिवटिका हिका हृद्रोगमशांसि विविधान् शिरसोरुजान्॥ (ग. नि. । वाता. १९) पाण्ड्वामयं कफोक्लेशं सर्वजाच प्रवाहिकाम् । शिनत्वचा पुष्करमूलशुण्ठयौ पाहवस्तिशूलञ्च गुडिकैषा व्यपोहनि ।।! गोकण्टकः पिप्पलिका गुडूची । कचूर, पोखरमूल, हींग, अम्लबेत, : वाखार, रास्ना शठी सैन्धवचित्रको च चीतामूल, धनिया, अजवायन, बायबिडंग, सेंधा ___ सर्वाङ्गवाते गुटिका विधेया ॥ नमक, बच, चव्य, पीपलामूल, बनतुलसी, अना- सहजनेकी छाल, पोखरमूल, सेठ, गोखरु, रदाना, जीरा, और अजमोद समान भाग ले कर पीपल, गिलोय, रास्ना, कचूर, सेंधानमक और चूर्ण बनावें और उसे विजौरे नीबूके रस या मधु- चीतामूल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और शुक्तकी भावना दे कर ५-५ माशेकी गोलियां ! (उसे पानीमें घोटकर) गोलियां बना लें। बना लें। इनके सेवनसे सर्वाङ्ग वायुका नाश होता है। . इनके सेवनसे गुल्म, प्लीहा, अफारा, श्वास, ( मात्रा-१॥ माशा । अनुपान-उष्ण कास, अरुचि, हिचकी, हृद्रोग, अर्श, अनेक प्रका- जल । ) रकी शिर पीड़ा, पाण्डु, कफोक्लेश, प्रवाहिका . शिलाजतु वटिका तथा पार्श्व, बस्ति और हृदयका शूल आदि रोग रस प्रकरणमें देखिये । नष्ट होते हैं। शिवगुटिका (लघु) ( व्यवहारिक मात्रा-१॥-२ माशा ।) (ग. नि. । गुटिका. ४ ; र. का. धे. । पाण्डु. ; नोट-मधुशक्त बनानेकी विधि मकारावा. व. से. । पाण्डु. ) सवारिष्ट प्रकरणमें देखिये। प्र. सं. ६३४४ " लघुशिवगुटिका" | देखिये। शतावरीमोदकः शिवा गुटिका. ( र. र. ; धन्व.। वाजीकरणा.) ( व. से. ; च. द. । राजयक्ष्मा.) रस प्रकरणमें देखिये रस प्रकरणमें देखिये. (७३३७) शिवामोदकम्, शशिलेखावटी ( भै. र. । बालरो.) ( यो. र. । कुष्ठा. शिवा तामलकी मूर्वा शतपुष्पा निशाद्वयम् । रस प्रकरणमें देखिये । आत्मगुप्ता वला बिल्वं देवपुष्पं शतावरी ॥ For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकापकरणम् ] पञ्चमो भागः - -- मुरा मधुरिका मांसी विदारी विश्वभेषजम् ।। शुक्रमातृकावटिका. अनन्तामलकी श्यामा भार्मी करिकगा कणा ।। ( र. र. । प्रमेह.) चातुर्जातं चतुर्बीजं चन्दनं रक्तचन्दनम् । . मुशली वाजिगन्धा च वीज गोक्षुरसम्भवम् ।। | रस प्रकरणमें देखिये। सर्वाण्येतानि तुल्यानि द्राक्षा सर्वसमा मता।। (७३३८) शुक्रसञ्जीवनीयो मोदका सिता द्राक्षासमा चैवेत्येतानि मधुना सह ।।। (र. र. । रसायना. ; धन्व. । रसायना.) सम्म मोदकान कृत्वा माषकममितान् भिषक् । एकैकमेषां पयसा प्रातः प्रातः प्रयोजयेत् ।। विदारीकन्दजं चूर्ण चतुर्दशपलोन्मितम् । बालानां सर्वरोगघ्नं पुष्टिकृद् बलवर्द्धनम् । शाखोटबीज द्विपलं लाजा पलचतुष्टयम् ॥ परं वहिकरं मेध्यमायुष्यं ग्रहदोषहत् ॥ . | सिता पलशतं देयं क्षीरं दत्वा विपाचयेत् । भगवत्यै समुदितं शिवायै लोकमङ्गलम् । जातीफलं त्रिजातश्च सशटी ग्रन्थि पर्णिभिः ।। यमानिका तथा व्योषं प्रत्येकं चूर्ण शुक्तिभिः। एतन्मोदकमीशेन युगे भगवता कृते । सिद्धपाके क्षिपेत्सर्वे मोदकं शुक्रजीवनम् ॥ हरीतकी, भुईआंवला, मूर्वामूल, सोया, | समूर्दयति वीर्यश्च तेजोवलकरं परम् ।। हल्दी, दारहल्दी, कौंछके बीज, बलामूल, बेलगिरी, लौंग, शतावर, मुरामांसी, सौंफ, जटामांसी, विदा बिदारीकन्दका चूर्ण १४ पल, सिहोड़ेके बीज रीकन्द, सोंठ, अनन्तमूल,आंवला, श्यामालता, भारंगी, २. पल (१० तोले) धानकी खील ४ पल, मिश्री १०० पल और दूध १०० पल ले कर सबको गजपिप्पली, पिप्पली, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपत्र, मागकेसर, मेथीबीज, हालों के बीज, काला एकत्र मिलाकर पकावें । जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतारकर जीरो, अजयायन, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन, श्वेत उसमें २॥ २॥ तोले जायफल, दालचीनी, इलामूसली, असगन्धकी जड़, गोखरुबीज; प्रत्येक सम यची, तेजपात, कचूर, गठौना, अजवायन, सोंठ, भाग । सम्पूर्ण के समान द्राक्षा द्राक्षाके समान खांड। इन्हें एकत्र मधुसे मर्दन कर १ माशा परिमाण के मिर्च और पीपलका चूर्ण मिलाकर मोदक बनावें। मोदक बनालें । आयु आदिकी विवेचना करके एक - इनके सेवनसे बल वीर्य और तेजकी वृद्धि मोदक प्रातःकाल दूधके साथ सेवन करावें । यह / होती है । बालकोंके सम्पूर्ण रोगांको नष्ट करता है तथा पुष्टि- ( मात्रा-१ तोला ।) कारक, बलवर्द्धक, जठराग्निप्रदीपक, मेध्य एवं आयुष्य है । इसके सेवनसे ग्रहजनित दोष नष्ट शुक्रस्तम्भकरा वटकाः होते हैं। शिव ने सतयुग में पार्वती को इस मो. (र. प्र. सु.) दकका उपदेश किया था । रस प्रकरण में देखिये. For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३६ भारत - भैषज्य रत्नाकरः www. kobatirth.org (७३३९) शुक्रस्तम्भकरीव टिका (र. प्र. सु. अ. १३ ) श्रीवास मस्तकी नागकेशरं च लवङ्गकम् । कङ्को तुलसीबीजं खुरासान्यहिफेनकम् ॥ जावित्रीकाऽब्धिशोषं च करभागुरुकुङ्कुमम् । कङ्कोलकतुगाक्षीरी जातीफलसमांशकान् ॥ सर्वाण्येवं विचूर्याथ नालिकेरोदरे क्षिपेत् । दुग्धमध्ये विपाच्यैनं दिनान्येवं हि पञ्च च ॥ नालिकेर फलाग्राही पर्दयेन्मधुना सह । गुटिका कोलमात्रा हि भक्षणीया निशामुखे || वीर्यस्तम्भं करोत्युग्रं चतुर्यामावधिं तथा ॥ श्रीवेष्ट (चीरका गोंद), मस्तगी, नागकेसर, लौंग, कोल, तुलसी के बीज, खुरासानी अजवायन, अफीम, जावत्री, समन्दर सोख, गजपीपल, अगर, केसर, कंकोल, बंसलोचन और जायफल समान भाग कर चूर्ण बनावें और उसे एक नारियल के भीतर भर दें तथा नारियलके मुखको अच्छी तरह बन्द करके उसे ५ दिन तक दूधमें पकावें । तदनन्तर उसमें औषधको निकालकर थोड़ा सा शहद मिलाकर पीस लें और ५-५ माशेकी गोलियां बना लें | इनमें से सायंकालको १ गोली खाकर रात्रिको स्त्री - समागम करने से ४ पहर तक वीर्यस्तम्भन होता है । (७३४०) शुण्ठयादिगुटी ( वृ. नि. र. | अरोचका. ) शुण्ठयेकभागा द्विगुणा च कृष्णा निशोत्रपथ्या त्रिगुणा तथा च । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साकभागामी च तीक्ष्णं चतुर्गुणं सैन्धवमम्लमर्थम् ॥ शाणैकमात्रा गुटिका निषेव्या निहन्ति मन्दानलजं प्रकोपम् ॥ [शकारादि सोंठ १ भाग, पीपल २ भाग, निसोत ३ भाग, हर्र ३ भाग, आमला १|| भाग, काली मिर्च ४ भाग और सेंधा नमक ४ भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे नीबू के रस में घोटकर ५-५ माशेकी गोलियां बना लें | इनके सेवनसे अग्निमांद्यका नाश होता है । ( अनुपान - उष्ण जल । व्यवहारिक मात्रा - २-३ माशे ) (७३४१) शुण्ठचादिगुटी. ( वृ. नि. र. । मूर्छा . ) शुण्ठीकणशताहानां साभयानां पले पलम् । गुडस्य षट् पलान्येषां गुटिका भ्रमनाशिनी ॥ सोंठ, पीपल, सोया और हर ५-५ तोले लेकर चूर्ण बनावें और उसे ३० तोले गुड़ में मिलाकर (६ - ६ माशेकी) गुटिका बना लें । इनके सेवन से मूर्च्छा नष्ट हो जाती है । शूलगजकेसरीगुटिका. (वै. र. । शूला. ) रस प्रकरणमें देखिये | For Private And Personal Use Only शूलवज्रिणी वटिका. ( र. च., र. रा. सु. । शूला. ) रस प्रकरण में देखिये. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिका प्रकरणम् ] पश्चमी भागः - • शूलेभसिंहनी वटी. इनमें से १-१ गोली नित्य प्रति प्रातःकाल (र. का. थे. । शूला.) गायके दूधके साथ सेवन करनेसे १४ दिनमें दुःसाध्य सूतिका रोग भी नष्ट हो जाता है । रस प्रकरण में देखिये. पथ्य-केवल दूध भात पर रहना चाहिये श्रीखण्डवटी. और पानीसे परहेज़ करना चाहिये। प्र. सं. ६१५८ देखिये । __श्री मदनानन्दमोदकम्. (७३४२) श्रीफलकुसुमवटिका. प्र. ५४९८ मदनानन्द मोदकम् (१) देखिये । (र. चं. । स्त्री रोगा.) श्री मन्मदनमोदकः ककमानं नवकुङ्कुम च प्र. सं. ५१५९ मदनमोदकः देखिये । रेवाचिनीग्रन्धिकशौण्ठिकृष्णम् । प्रत्येक वर्षद्वयं जातिपत्रं (७३४३) श्वासकासन्नी वटी. खण्डं लवङ्ग ह्यपि जातिसस्यम् ॥ (र. र. स. । उ. अ. १३) मिशि वगाजाजि पलप्रमाणं विश्वादित्रिकनिर्गतद्रवनिशाकीरपियोत्यं दलं प्रत्येकमेतत्सकलैः समानम् । नीलग्रीवगलालयं सुरपतेस्तायनेत्राभिधम् । श्री नारिकेलीकलिकाऽतिगूढा विद्वत्पुञ्जवती कृमिप्रतिभट निर्गुण्डिका वारिणा सम्पर्ध सर्व वटि पूगतुल्या ॥ तुल्यांशाश्चणकप्रमाणवटिकाः सश्वासकासएका प्रगे गोपयसा च पीत्वा ...निकाः॥ पथ्यं च दुग्धोदनवारिवय॑म् । सेठ, मिर्च, पीपल, सूखी हल्दी, अनारके दुःसाध्यस्तीगदनाशनाय पत्ते, शुद्ध बछनाग, चीतामूल, ब्राह्मी और बायबि डंग समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे चतुर्दशाहानि भजेवटीयम् ॥ संभालूके रसमें घोट कर चनेके बराबर गोलियां नवीन केसर १॥ तोला, रेवन्दचीनी, पीपला- बना लें। मूल, पीपल और काली मिर्च २॥-२॥ तोले तथा । । इनके सेवनसे श्वास और खांसीका नाश जावत्री, खांड, लौंग, जायफल, सौंफ, दालचीनी | होता है। और जीरा ५-५ तोले एवं नारियलको बाल कलि- (७३४४) श्वित्रहरी वटी. काएं सबके बराबर ले कर सबका बारीक चूर्ण (र. चि. म. । स्त. ४) करके ( पानीसे घोटकर ) सुपारीके फलके समान अकोल्लं देवदाली च सममेतद्वयं भवेत् । गोलियां बना लें। भायः कोलसमा कार्या गुटिकास्ताः प्रयोजयेत्॥ For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकाग़दि प्रत्यहं दीयते सा च गुटिकैका सशर्करा। इनमेंसे एक एक गोली खांडके साथ खानी द्वियामे समतिकान्ते भोज्यं माषस्य खादयेत् ॥ चाहिये और दवा खानेके २ पहर पश्चात् उड़दका दिनाष्टकमियं देया श्वित्रकुष्ठं विनाशयेत् । बना हुवा आहार खाना चाहिये । अंकोल और देवदाली समान भाग ले कर इसके आठ दिनके सेवनसे श्वित्र कुष्ठ नष्ट चूर्ण बनावें और उसे ( पानीमें ) घोटकर लगभग | हो जाता है। बेरके बराबर गोलियां बना लें। । इति शफारादिगुटिकापकरणम् ॥ अथ शकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (७३४५) शतावरी गुग्गुलुः । तोयाढके तत्कथितं विधाय (र. र. स. । उ. अ. २१ ) पादावशेषे त्ववतारणीयम् ॥ शतावरी गुडूची च सारणी गोक्षुरः कणा।। एरण्डतैलं द्विपलं निधाय शताहा दीप्यका रास्ना ह्यश्वगन्धा च शशिका।। पिचुत्रयं गन्धकनामकस्य । कचोरो नागरैश्चैते चूर्णनीयाः समांशकाः ।। पचेरपुरस्यात्र पलद्वयश एतैः सर्वैः समो ग्राह्यो गुग्गुलमहिषाख्यकः ॥ . पाकावशेषे च विचूर्ण्य दद्यात् ।। खण्डयित्वा घृतेनाऽऽ, पूर्वचूर्ण विनिक्षिपेत् । रास्ना विडा मरिचं कणा च सम्पर्ध सर्पिषा गाढं कर्षाधं गुलिकां किरे ।। दन्तीजटानागरदेवदारु। .: शतावर, गिलोय, प्रसारणी, गोखरु, पीपल, प्रत्येकशः कोलमितं तथैषां सोया, अजवायन, रास्ना, असगन्ध, चोरपुष्पी, विचूर्ण्य निःक्षिप्य नियोजयेच्च ॥ कपूर और सेठि समान भाग ले कर चूर्ण बनावें आमवाते कटीशूले और सबके बराबर शुद्ध गूगल ले कर उसमें आ गृध्रसीक्रोष्टुशीर्षके। वश्यकतानुसार घी और थोड़ा थोड़ा यह चूर्ण न चान्यदस्ति भैषज्यं मिला कर खूब कूटें, यहां तक कि सब चीजें यथायं गुग्गुलुः स्मृतः। मिल कर एक जीव हो जाएं। हर, बहेड़ा और आमला २०-२० तोले यह गूगल वातव्याधिको नष्ट करता है। ले कर सबको ८ सेर पानीमें पका और २ सेर (७३४६) शिवागुग्गुलुः शेष रहने पर छान लें । तदनन्तर उसमें १० तोले (रसे. सा. सं. ; धन्व.; र. रा. सु. । आमवाता.) अण्डीका तेल, ३॥ तोले शुद्ध गंधक तथा १० शिवाविभीतामलकीफलानां तोले शुद्ध गूगल मिला कर पुनः पकावें। जब 'प्रत्येकशो मुष्टिचतुष्टया पानी जल जाय तो अग्निसे नीचे उतार कर उसमें For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ११-१। तोला रास्ना, बायबिडंग, काली मिर्च, रोगोंके लिये इससे उत्तम अन्य कोई औषध पीपल, दन्तीमूल, सेांठ और देवदारुका चूर्ण मिला- नहीं है। कर सुरक्षित रखें। इसके सेवनसे आमवात, कटिशूल, गृध्रसी | (मात्रा--३-४ माशे । अनुपान-उष्ण और क्रोष्टुशीर्ष का नाश होता है । इन ! जल ।) इति शकारादिगुग्गुलुपकरणम् - - - अथ शकाराद्यवलहप्रकरणम् (७३४७) शठ्यादिलेहः शतावर, विदारीकन्द, असगन्ध, हरं, पुन( वृ. नि. र. । कासा. ; यो. र. ; वृ. यो. नवा, सरैटीकी जड़, कंघ १ जड़, नागबला, त. । त. ७८) (गंगेरन) को जड़ और गोखरू समान भाग ले कर शठी सातिविषा मुस्ता शृङ्गी कर्कटकस्य च । चूर्ण बनावें और उसमें घी तथा शहद मिला कर अभयां शृङ्गबेरं च समान्तपदि पेपयेत् ।। चाटने योग्य बना लें। हिङ्गसैन्धवसंयुक्तं तक्रोदकपरिप्लुतम् । इसके सेवनसे क्षयका नाश होता है । श्लेष्मकासी लिहेदेवमवलेहं मुहर्मुहुः ।। ___ (७३४९) शर्करादिलेहः ___ कचूर, अतीस, नागरमोथा, काकडासिंगी, (हा. सं. । स्था. ३ अ. १२) हर, सांठ, हींग और सेंधा समान भाग ले कर शामा लान | शर्करा चैव खजूंरं द्राक्षा लाजः कणा मधु । चूर्ण बनावें और उसे छाछ (तक) के पानीमें मि । सपियुतो हितो लेहः पित्तकासनिवारणः॥ लाकर चाटने योग्य कर लें। खांड, पत्थर पर पिसी हुई मुनक्का और खजूर कफकी खांसी वालेको यह लेह बार बार तथा धानको खीलोंका चूर्ण एवं पीपलका चूर्ण चाटना चाहिये । समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर उसमें शतपत्रिकापाका थोड़ा थोड़ा शहद और घी मिला लें। इसके सेवनसे पित्तज खांसी नष्ट होती है। एस प्रकरणमें देखिये। शर्करालेहः (७३४८) शताव दिलेहः ( ग. नि. । राजयक्ष्मा. ९) रस प्रकरणमें देखिये. शतावरीविदार्यश्वगन्धाः पथ्या पुनर्नवा । ___शशाङ्कलेखादिलेहः बलात्रयं श्वदंष्ट्राऽऽज्यमधुलेहः क्षयापहः ॥ । रस प्रकरणमें देखिये, For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि लमपाक: शालमपाकः पायसं सहविष्यानं तत्कर्षेण च मिश्रितम् । रस प्रकरणमें देखिये. भक्षयेदेकविंशाहं गृध्रसीनाशनं परम् ।। (७३५०) शालूरपांचवलेहः ६। सेर शीशमकी छालको कूट कर ६४ सेर ( भा. प्र. म. खं. २ । सन्निपाता.) पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें, शालूरपर्णीमालूरमूलामयमधुप्लुता। और उसे पुनः पकाकर गाढ़ा कर लें। शनकपुष्पीसहिता सेव्या वाचां विशुद्धये ॥ इसमेंसे ११-१॥ तोला अवलेह नित्य प्रति ब्राह्मी, बेलकी जड़, शंखपुष्पी और कूठ समान । खीर या घृतयुक्त भातमें मिला कर खानेसे २० भाग ले कर चूर्ण करें और शहदमें मिला कर | दिनमें गृध्रसी नष्ट हो जाती है । चटनी बना लें। (७३५३) शुण्ठीखण्डः (१) इसे चटानेसे सन्निपातके रोगीकी वाणि शुद्ध (भै. र. । अम्लपित्ता.) हो जाती है। शुण्ठीचूर्णस्य कुडवं खण्डपस्थं समावपेत् । (७३५१) शिखिपिच्छलेहः दत्त्वा द्विकुडवं सर्पिः क्षीरप्रस्थद्वये पचेत् ।। (वृ. नि. र. । हिक्का.) लेह्येऽवतारिते दद्यात् धात्रीधान्यकमुम्तकम् । शिखिपिच्छभस्मकृष्णाचूर्ण अजाजी पिप्पली वांशी त्रिजातं कारवी शिवा।। मधुमिश्रितं मुहुर्तीढम् ।। त्रिशाणं मरिच नागं षण्माषन्तु पृथक पृथक् । हिकां हरति प्रबलां श्वासं | पलत्रयश्च मधुनः शीतीभूते प्रदापयेत् ॥ चैवातिदुस्तरां छर्दिम् ।। ततो मात्रां प्रयुञ्जीत भम्लपित्तनिवृत्तये। मोरके पंखकी भस्म और पीपलके चूर्णको शूलहृद्रोगवमनैरामवातैश्च पीडितः ॥ शहदमें मिला कर बार बार चटानेसे प्रबल हिक्का, २० तोले शुण्ठिचूर्णको १ सेर धीमे भूनें श्वास और अतिदुस्तर छर्दिका नाश होता है। और फिर उसमें ४ सेर दूध तथा १ सेर खांड (मात्रा-आधा माशा।) मिला कर मन्दाग्निपर पकावें । जब अवलेह तैयार शिलाजतुलेहः हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतारकर उसमें रस प्रकरणमें देखिये. आमला, धनिया, नागरमोथा, जीरा, पीपल, वंश लोचन, दालचीनी, इलायची, तेजपात, काला जीरा (७३५२) शिंशिपात्वगादियोगः । और हर्र का चूर्ण ११।-११ माशे तथा काली (व. से. । वातव्या.) | मिर्च और नागकेसरका चूर्ण ७॥--७॥ माशे मिला शिशिपात्वक तुलां क्षुण्णां जलद्रोणद्वये पवेत्। दें। तदनन्तर जब वह टण्डा हो जाय तो उसमें अष्टभागावशिष्टश्च पूतं लेहश्च कारयेत् ।। । १५ तोले शहद मिला दें। मिच For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] पञ्चमो भागः ४१ - - इसके सेवनसे अम्लपित्त, शूल, हृद्रोग, वमन काकड़ासिंगी, पीपल और अतीस समान और आमवातका नाश होता है। भाग ले कर चूर्ण बनाकर शहद में मिला लें । ( मात्रा-६ माशे । अनुपान-दूध । ) इसे चटानेसे बालकोंके ज्वर, कास, और शुण्ठीखण्डः (२) वमनका नाश होता है। केवल अतीसका चूर्ण शहदमें मिलाकर चटा(व. से, ; वृ. नि. र. । आमवाता. ; वृ. यो. नेसे भी बच्चोंके ज्वर, कास और वमनका नाश त.। त. ९३.) हो जाता है। प्र. सं. ३४६६ नागरायोवलेहः देखिये । (७३५५) शृङ्ग्यादिलेहः (२) शुण्ठीखण्डः (३) (वृ. नि. र. । बाला.) रस प्रकरणमें देखिये. एका शृङ्गी निहन्त्याशु मूलकस्य फलान्विता। (७३५४) शृङ्ग्यादिलेहः (१) . घृतेन मधुना लीढा कासं बालस्य दुस्तरम् ।। ( ग. नि. । बालरो. ; वृ. मा. ; च. द.) काकड़ासिंगी और मूलीके फल (सांगरी) के शृङ्गी सकृष्णातिविषां विचूर्ण्य चूर्णको घी और शहदमें मिलाकर सेवन करानेसे लेहं विदध्यान्मधुना शिशूनाम् । बालकोंकी दुस्तर कास नष्ट हो जाती है । कासज्वरच्छर्दिभिरर्दितानां श्रीसिद्धमोदकः समाक्षिकां चातिविषामथैकाम् ॥ ( भै. र. । रसायना.) १ समुस्तातिविषामिति पाठान्तरम् मिश्र प्रकरणमें देखिये। इति शकाराघवलेहपकरणम् अथ शकारादिघृतप्रकरणम् (७३५६) शव्यायं घृतम् चतुर्गुणं जलं चात्र दत्त्वा मृद्वग्निना पचेत् । (ग. नि. । घृता. १) ग्रहण्यर्थी हितं कासहिकोर पार्श्वशूलनुत् ॥ शठिर्वचाऽभया कुष्ठं पिप्पली विल्वशुण्ठिका। वातान सान्य श्वासान् सन्धिगतांश्चान्यान् इन्याद्वातकफापलांशं सैन्धवं चव्यं तेजोवत्यथ पुष्करम् ॥ __ मयान् ॥ सौवर्चलं तामलकी भूतीकं चालकसम्मितम् ।। कल्क-कचूर, बच, हरे, कठ, पीपल, हिवर्धकर्षकोपेत घृतपस्थ विपाचयेत् ॥ ] बेलकी छाल, और सोंठ ५. ५ तोले तथा सेंधा For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि नमक, चव, मालकंगनी, पोखरमूल, संचल (काला ! मांसी सकुष्ठपत्रैला रास्नाभृङ्गी च चित्रकम् । नमक), भुई आमला और अजवायन १।१। क्रिमिनमश्वगन्धा च शैलेयं कदरोहिणी ॥ तोला एवं हींग ७|| माशे ले कर सबको एकत्र सन्धर्व तगरं चैव कुटजातिविषैः समः । पानीके साथ पीस लें। एतैश्च कार्षिकैः कल्कैघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ २ सेर धीमें यह कल्क और ८ सेर पानी वृषमुण्डितिफेरण्डनिम्बपत्रभवो रसः । मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें जब पानी जल जाय कण्टकार्यास्तथा प्रस्थं क्षीरपस्थं विनिक्षिपेत् ॥ तो घीको छान लें। सिद्धमेतद् घृतं पीतमन्त्रवृद्धिं व्यपोहति । ___ इसके सेवनसे संग्रहणी, अर्श, कास, हिक्का, वातदि पित्तवृद्धिं मेदोवृदिमथापि वा ॥ उर:शूल, पाशूल, श्वास और सन्धिगत वात | मूत्रद्धिं श्लीपदश्च यकृत्प्लीहानमेव च । कफज रोग नष्ट होते है। शतपुष्पाद्यमेतद्वै घृतं हन्ति न संशयः ।। ( मात्रा-१ तोला ।) कल्क-सोया, गिलोय, देवदारु. लाल (७३१७) शाहपहपया मलम चन्दन, हल्दी, दारु हल्दी, सफेद जीरा, काला (ग. नि. । उन्मादा. २; वृ. नि. र. । उन्मादा) जीरा, बच, नागकेसर, हरे, बहे डा, आमला, गूगल, दालचीनी, जटामांसी, कृट, तेजपात, इलाशङ्खपुष्पीवचाकुष्ठैः सिद्धं ब्राह्मीरसे घृतम् । यची, रास्ना, काकडासिंगी, चीता, बायबिडंग, पुराणं हन्त्यपस्मारमुन्मादं च विशेषतः॥ ! असगन्ध, भारठरीला, कुटकी, सेंधा नमक, तगर, __ कल्क-शंखपुष्पी, बच, और कूठ ५-५ कडेकी छाल और अतीस ११-१॥ तोटा ले कर तोले ले कर सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें। सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें। ॥सेर पुराने घोमें यह कल्क और ६ सेर व पदार्थ ---बासेका रस २ सेर, मुण्डीका ग्रामीका रस मिला क कावें । जब रस जल ! रस २ सेर, अरण्डकी जड़का काथ २ सेर, नीमके जाय तो घीको छान लें। पत्तोंका रस २ सेर, छोटी कटेलीका रस या काथ यह घृत अपस्मार और विशेषतः उन्मादको २ सेर, गोदुग्ध २ सेर । नष्ट करता है। करता है। . २ सेर धीमें उपरोक्त कल्क और काथ मिला(मात्रा-१ तोला । दूधमें डालकर पियें।) (७३५८) शतपुष्पाचं घृतम् जाएं तो घृतको छान लें। ( भै. र. । वृद्धय. : र. र. : व. से.) इसके सेवनसे अन्त्र वृद्धि, वात वृदि, पित्त शतपुष्पामृता दारु चन्दनं रजनीद्वयम् । वृद्धि, मेद वृद्धि, मूत्र वृद्धि, स्लीपद, प्लीहा और जीरके द्वे वचा नागत्रिफलागुग्गुलुत्वचम् ॥ यत् वृद्धिका नाश होता है। करमन्द्र । जब द्रव दाथे जल For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमो भागः घृतपकरणम् ] (७३५९) शतावरीगुडूच्यादिघृतम् बलवर्णकरं होतदलक्ष्मीनं प्रजाकरम् । (र. र. । वातरक्ता.) शतावरीघृतमिदमश्विभ्यां परिकीर्तितम् ॥ शतावरी रसे कल्के गुडूच्याः क्वाथकल्कयो। काथ-६। सेर शतावरको ६४ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । तुल्यं क्षीरं घृतं सिद्धं वातासक्कुष्ठजित्परम् ॥ __शतावरीका रस ८ सेर, शतावरका कल्क २० कल्क-जीवनीय गणकी प्रत्येक औषध, रास्ना, तोले तथा गोदुग्ध २ सेर और गोघृत २ सेर ले गोखरु, सोया, बच, कूठ, सरलकाष्ट (चीर), पुनकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । नत्रा, सफेद चन्दन, तगर, जटामांसी, पभाक, जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें। ! लाल चन्दन, तुलसी, सोंठ, पीपल, बायबिडंग, सेठ और नीलोत्पल ११-१। तोला लेकर सबको इसके सेवनसे वातरक्त और कुष्ठका नाश | पानीके साथ एकत्र पीस लें। होता है। । २ सेर घीमें उपरोक्त क्वाथ और कल्क तथा ____ उपरोक्त विधिसे ही गिलोयके काथ और ८ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब कल्क तथा दूधके साथ सिद्ध घृतसे भी वातरक्त और जलांश शुष्क हो जाय तो घृत को छान लें । कुष्ठका नाश होता है। ___यह घृत वृष्य है और वात, फ्ति, क्षत, (मात्रा-१ तोला।) शोष, और ज्वर को नष्ट करता है। यह धृत (७३६०) शतावरीघृतम् (१) पता, अर्दित, नपुंस्कता और बंध्यत्वमें भी उप योगी है तथा बल वर्ण और प्रजा (सन्तान) की ( ग. नि. । घृता. १) वृद्धि करता है। शतावरीमूलशतं द्विद्रोणेऽपां विपाचयेत । ( मात्रा-१ तोला। अष्टभागावशेषेण घृतमस्थं विपाचयेत् ॥ अनुपान-दृध ।) जीवनीयानि सर्वाणि रास्ना गोक्षुरकं तथा। नोट-जीवनीय गण जकारादि कषाय शतपुश्पा वचा कुष्ठं सरलं सपुनर्नवम् ॥ प्रकरणमें देखिये । चन्दनं तगरं मांसी पद्यकं रक्तचन्दनम् । (७३६१) शतावरीघृतम् (२) सुरसं नागरं कृष्णा विडं नागरमुत्पलम् ॥ । (वृ, मा. ; व. से. ; च. द. । स्त्रीरागा. ) एभिरक्षसमैर्भागः क्षीरं दधाचतुर्गुणम् । शतावरीरसमस्थं क्षोदयित्वाऽवपीडयेत् । बूंदणं वातपित्तनं क्षतशोषज्वरापहम् ॥ धृतप्रस्थसमायुक्तं क्षीरद्विगुणितं भिषक ॥ पानां पृष्ठसर्पिणामर्दितानां च शस्गते । । अतः कल्कानिमान्दद्यात्स्थूलोदुम्बरसम्मितान् । पुंस्त्वोपघातिनां नृणां वच्यानां चैव योजितम्।। जीवनीयानि यान्यष्टौ यष्टीचन्दनपद्मकैः ।। For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि श्वदंष्टा चात्मगुप्ता च वला नागवला तथा। जीवनीयैः शतावर्या मृवीकाभिः परूषकैः । शालिपर्णी पृष्ठपर्णी विदारी सारिवाद्वयम् ॥ पियालैश्चाक्षकैः पिष्टैयिष्टीमधुकैः पचेत् ॥ शर्करा च समा देया काश्मर्याश्च फलानि च। सिद्धे शीते च मधुनः पिप्पल्याश्च पलाष्टकम् । सम्यक्सिद्धं च विज्ञाय तद्भुतं चावचारयेत् ॥ सिता दशपलोन्मिश्रा लियात्पाणितलं ततः ॥ रक्तपित्तविकारेषु वातपित्तकृतेषु च । योन्यमुकशुक्रदोषघ्नं वृष्यं पुंसवनं च तत् । वातरक्तं क्षयं श्वासं हिक्कां कामं च दुस्तरम् ॥ क्षतं क्षयं रक्तपित्तं कासं श्वासं हलीमकम् ।। अदा शिरोदाहं रक्तपित्तसमुदयम् । कामलां वातरक्तं च विसर्प हृच्छिरोग्रहम् । अमृग्दरं सर्वभवं मूत्रकृच्छ च दारुणम् ॥ उन्मादायामसन्यासं वातपित्तात्मकं जयेत् ।। एतात्रोगान् शमयति भास्करस्तिमिरं यथा ॥ कल्क-जीवनीय गणकी ओषधियां (देखो . २५ सेर शतावरी मूलको कूटकर रस निकालें जकारादि कषाय प्रकरणमें ). मुलैठी, सफेदचन्दन, , और फिर उसमें उसके बराबर दूध तथा ८ सेर पनाक, गोखरू, कौंचके बीज, खरैटी, नागवला घो और निम्न लिखित कल्क मिलाकर मन्दाग्नि ( गंगेश्न ), शालपणी, पृष्ठपणी, विदारीकन्द, दा पर पकावें । जब पानी शुष्क हो जाय तो घीको प्रकारकी सारिवा, खांड और खम्भारीके फल; प्रत्येक छान लें। ओषधि बड़े गूलर के समान (११-१॥ तोला) कल्क-जीवनीय गण (देखो जकारादिलेकर सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें। कषाय प्रकरणमें ) शतावर, मुनक्का, फालसा, २ सेर धीमें उपरोक्त कल्क, २ सेर शतावरका पियाल (चिरौंजीका फल ), और दो प्रकारकी रस और ४ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर । .मुलैठी ११-११ तोला लेकर सबको पानीके साथ पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो धृत को एकत्र पीस लें। छान लें। यह धृत रक्तपित्त, वात पित्त विकार, वात- जब घृत ठण्डा हो जाय ती उसमें ४०रक्त,क्षय,श्वास, हिक्का,कास,रक्तपित्त जनित अंगदाह, । ४० तोले शहद और पीपलका चूर्ण तथा ५० शिरोदाह, सर्व दोषज रक्तप्रदर और भयंकर मूत्र तोले मिश्री मिलाकर सुरक्षित रखें । कृच्छूको अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता है। मात्रा-११ तोला । (मात्रा-१ तोला।) (७३६२) शतावरीघृतम् (३) यह घृत रक्त प्रदर और शुक्रदोष नाशक, (च. सं. । चि. स्था. ६ अ. ३०: च. द. वा. वृष्य, तथा क्षत, क्षय, रक्तपित्त, कास, श्वास, भ. उ. अ. ३४ । गुह्यरो.) हलीमक, कामला, वातरक्त, विसर्प, हृदग्रह, शिरोशतावरी मूल तुलाश्चतस्त्रः संप्रपीडयेत् । ग्रह, उन्माद, आयाम और वातपित्तज सन्यासको रसेन क्षीरतुल्येन पचेत्तेन घृताढकम् ॥ नष्ट करने वाला है। For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] पञ्चमो भागः (७३६३) शतावरीघृतम् (४) (७३६५) शतावरीघृतम् (६) (व. से. । मूत्रकृच्छ्रा. ; र. र. ; ग. नि. ( भै. र. । वातरक्ता. ; वृ. मा. ; च. द. ग. नि. __मूत्रकृच्छा . २७) वातरक्ता. २०) शतावरीकासकुशश्वदंष्टा शतावरीकल्कगर्भ रसे तस्याश्चतुर्गुणे । विदारिकेक्ष्वामलकेषु सिद्धम् । क्षीरतुल्यं घृतं पक्वं वातशोणितनाशनम् ।। सर्पिः पयो वा सितया विमिश्रं शतावरका कल्क (पिट्ठी) १० तोले, घो कृच्छेषु पित्तप्रभवेषु योज्यम् ॥ । १ सेर, शतावरका रस ४ सेर, दूध १ सेर । सबको शतावर, कासकी जड़, कुशकी जड़, गोखरु- एकत्र मिलाकर पानी जलने तक पकावें । की जड़, विदारीकन्द, ईखकी जड़ और आमला; यह घृत वातरक्तको नष्ट करता है। इनके कल्क और क्वाथसे घृत सिद्ध करें। ( मात्रा-१ से २ तोले तक।) इसे दूधमें डालकर या मिश्री मिलाकर सेवन । लाकर सेवन (७३६६) शतावरीवृतम् (७) करने से पित्तज. मूत्रकृच्छ नष्ट होता है । (व. से. । वाजी. ; वृ. यो. त. । त. १४७; र. र.) (मात्रा-१ तोला ।) घृतं शतावरीगर्भ क्षीरे दशगुणे शृतम् । (कल्कार्य सब ओषधियां समान भाग रेतः शुद्धिकरं तच्च शस्तं चाप्यारीवार्तिषु ॥ मिश्रित १० तोले । घी १ सेर, शतावरका कल्क १० तोले और क्वाथार्थ- सब ओषधियां समान भाग दूध १० सेर । सबको एकत्र मिलाकर दूध जलने मिलित २ सेर, पाकार्थ जल १६ सेर शेष क्वाथ | तक पकावें । १ सेर । धी १ सेर । ) ___यह घृत शुक्रशोधक और आर्तवदोष (७३६४) शतावरीघृतम् (५) नाशक है। ( यो. र. । पानात्यय. ; वृ. नि. र. । पानात्यय.) (मात्रा-२ तोले ) शतावरीरसक्षीरयष्टीकल्कैः शृतं घृतम् । (७३६७) शतावरीघृतम् (८) पुनर्नवाक्वाथयुतं पानात्ययमपोहति ॥ ( वृ. मा. । वाजीकरणा. ; घ. से. ; च. द. ; घी २ सेर, शतावरका रस २ सेर, दूध २ यो. र.) सेर, पुनर्नवा का क्याथ २ सेर और मुलैठीका कल्क घृत शतावरीगर्भ क्षीरे दशगुणे पचेत् । २० तोले । सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब शर्करापिप्पलीक्षौद्रयुक्तं तद्वष्यमुच्यते ॥ पानी जल जाए तो घीको छान लें। १ सेर धीमें १० तोले शतावरका रस और यह घृत पानात्यय को नष्ट करता है। १० सेर दूध मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाय For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि - तो घीको छान लें । एवं उसके ठण्डा होने पर यह घृत समस्त प्रकारके मूत्रकृच्छ, मूत्रदोष उसमें (७-७ तोले ) खांड, पीपल का चूर्ण शर्करा और अश्मरि को नष्ट करता है। और शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें । (मात्रा-१ से २ तोले तक ।) यह घृत वृष्य है। (७३६९) शतावरीघृतम् (१०) (७३६८) शतावरीघृतम् (९) (वृ. यो. त. ।त. १२२; भै. र. । अम्ल( यो. र. । मूत्रकृन्छा. ; वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छा.) पित्ता.; वृ. मा.; च. द.; व. से.; यो. र.; वृ. घृतपस्थं शतावर्या रसस्यार्धाकं पचेत । नि. र. । यो. त. । त. ६५) अजाक्षीरेण संयुक्तं चतुष्पस्थान्वितेन तु ॥ शतावरीमूलकल्कं घृतमस्य पयः समम् । पचेन्मृद्वग्निना सम्यक् क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम् ॥ द्वि गोक्षुरामृतानन्ता काशकण्टकिनी रसान् । .. ' नाशयेदम्लपित्तश्च वातपित्तोद्भवान गदान् । कुडवा पृथग्दत्वा पिष्टैर्यष्टिकटुत्रयम् ॥ ___ रक्तपित्तं तृषां मूछों श्वासं सन्तापमेव च ॥ श्वदंष्ट्राफलिनी दुग्धाशिलाजत्वश्मभेदकैः। दक शतावरकी जड़ १० तोले, घी १ सेर, त्रिसुगन्धान्वितैरर्धपलांशैः सघृतं पुनः॥ पानी १ सेर और दूध ४ सेर ले कर सबको शर्करा द्विपलोपेतं क्षौदपादसमन्वितम् । एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश हन्ति कृच्छाणि सर्वाणि मूत्रदोषाश्मशर्कराः॥ शुष्क हो जाय तो धोको छान लें। सर्वकृच्छाणि हन्त्याशु एतच्छतावरीघृतम् ॥ इसे सेवन करनेसे अम्लपित्त, वातपित्तज - - घी २ सेर, शतावरका रस ४ सेर, बकरीका - रोग, रक्तपित्त, तृषा, मूर्छा, श्वास और सन्तापका दूध ८ सेर, छोटे और बड़े गोखरुका रस २०- नाश होता है २० तोले, तथा गिलोय, अनन्तमूल, कासकी जड़ (मात्रा-१ से २ तोले तक ।) और कटेलीका रस २०-२० तोले एवं निम्न (७३७०) शतावरीघृतम् (११) लिखित कल्क एकत्र मिलाकर पकावें जब पानी : (व. से. । ग्रहण्य.; वृ. नि. र.) जल जाए तो घीको छान लें। शतावरीचन्दनपत्रकोत्पलं कल्क-मुलैठी, सांठ, मिर्च, पीपल, गोखरु, मिया पाठा मगधास्थिराभिः। मेंहदी, क्षीरकाकोली, शिलाजीत्, पाषाणभेद, बिल्बाजमोशतिविषासमङ्गा दालचीनी, छोटी इलायची और तेजपात २||-२॥ जीवन्तीवह्नीन्द्रयवैः सुपिष्टः॥ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पीस लें। घृतं कषाये तु कलिकानां ___ जब घी ठण्डा हो जाय तो उसमें १० तोले पक्वं निहन्यादग्रहणी त्रिदोषाम् । खांड और आधा सेर शहद मिलाकर सुरक्षित पित्तातिसारं रुधिरप्रवाई रक्खें । तथाशो दोषसमूहबन्धम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः कल-शतावर, सफेद चन्दन, पाक, यह घृत कास, ज्वर, आनाह, विवन्ध, शूल नीलोत्पल, फूलप्रियंगु, पाठा, पीपल, शालपर्णी, और रक्तपित्तको नष्ट करता है। बेलकी छाल, अजमोद, अतीस, मजीठ, जीवन्ती, (७३७२) शतावरीघृतम् (१३) (वृहद्) चीता और इन्द्रजौ २-२ तोले लेकर सबको ( भै. र. । वाजीकरणा.; वृ. यो. त. । त. ७५; एकत्र पीस लें। ___ वृ. मा. । रक्तपित्ता.; र. र. । रक्तपित्ता.) ___ क्वाथ--४८ सेर इन्द्रजौको ४ सेर पानीमें : शतावर्यास्तु मूलानां रसास्थद्वयं मतम् । पकावें और १२ सेर शेष रहने पर छान लें। तत्समञ्च भवेक्षीरं घृतपस्थं विपाचयेत् ।। ३ सेर घी में उपरोक्त कल्क और क्वाथ जीवकर्षभको मेदा महामेदा तथैव च । मिलाकर पानी जलने तक पकावें । काकोली क्षीरकाकोली मृद्वीका मधुकं तया ।। इसके सेवनसे त्रिदोपज संग्रहणी, पितातिसार. मुद्गपर्णी माषपर्णी विदारी रक्तचन्दनम् । रुधिरस्राव और अर्शका नाश होता है। ' शर्करामधुसंयुक्तं सिद्धं विस्रावयेद् भिषक् । रक्तपिराविकारेषु वातरक्तगदेषु च । (मात्रा-१ से २ तोले तक । ) क्षीणशुक्रेषु दातव्यं वाजीकरणमुत्तमम् ॥ (७३७१) शतावरीघृतम् (१२) (लघु) अङ्गदाहं शिरोदाई ज्वरं पित्तसमुद्भवम् । (वृ. यो. त. । त. ७५; वृ. मा. । रक्तपित्ता.; योनिशूलश्च दाहश्च मूत्रकृच्छ्रश्च पैत्तिकम् ।। च. द. ; यो. र. । रक्तपित्ता.) एतान् रोगान् निहन्त्याशु छिन्नाभ्राणीव मारुतः। शतावरीदाडिमतित्तिही काकोलिमेदे मधुकं विदारीम् । शतावरीसपिरिदं बलवर्णा निवर्द्धनम् ।। पिष्वा च मूलं फलपूरकस्य स्नेहपादः स्मृतः कल्कः कल्कवन्मधुशर्करे । __ घृतं पचेक्षोरचतुर्गुणं च ।। इति वाक्यबलात् स्नेहे प्रक्षेप्यं पादिकं भवेत् ॥ कल्क-जीवक, ऋषभक, मेदा, महा मेदा, कासज्वरानाहविबन्धशूलं तद्रक्तपित्तं च घृतं निहन्ति ।। काकोली, क्षीरकाकोली, मुनक्का, मुलैठी, मुद्गपणी, माषपर्णी, विदारीकन्द और लालचन्दन, २०-२० कल्क-शतावर, अनारदाना, तिन्तड़ीक, माशे लेकर सबको एकत्र पानीके साथ पीस लें । काकोली, मेदा, मुलैठी, विदारीकन्द, और २ सेर घीमें यह कल्क, ४ सेर शतावरका बिजो रेकी जड़ ११-१॥ तोला लेकर सबको पानीके रस और ४ सेर दृध मिलाकर पकावें । जब साथ एकत्र पीस लें। जलांश शुष्क हो जाय तो धीको छान लें। और १ सेर धीमें यह कल्क और ४ सेर दूध मिला- : उसमें १०-१० सोला खांड और शहद मिलाकर कर दूध जलने तक पकावें। सुरक्षित रखें। For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८ www. kobatirth.org - भैषज्य भारत यह घृत रक्तपित्त, वातरक्त, शुक्रक्षीणता, अङ्गदाह, शिरोदाह, पित्तज ज्वर, योनिशूल, योनिदाह और पैत्तिकमूत्रकृच्छ्रको नष्ट करता है यह उत्तम वाजीकरण है । बल, वर्ण और अग्निको बढ़ाता 1 1 ( मात्रा - १ तोला ) (७३७३) शतावर्यादिघृतम् ( भा. प्र. । रक्तपित्ता. ) शतावरीमूलकल्कं कल्कात्क्षीरं चतुर्गुणम् । क्षीरतुल्यं घृतं गव्यं सितया कल्कतुल्यया ॥ घृतशेषं पचेत्तत्तु पलार्द्धं लेहयेत्सदा । रक्तपित्तं ह्यम्लपित्तं क्षयं श्वासञ्च नाशयेत् ॥ | शतावरका कल्क २० तोले, दूध २ सेर गाय का घी २ सेर और मिश्री २० तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो धीको छान लें । ( मात्रा --- २॥ तोले । ) ( मिश्री घी तैयार होने पर मिलाना उत्तम है । ) (७३७४) शतावर्यादियमकम् ( वा. भ. । उ. अ. २४ शिरो. ) वरीजीवन्तिनिय सपयोभिर्यमकं पचेत् । जीवनीयैश्च तन्नस्यं सर्वजत्रूर्ध्वरोगजित् ॥ शतावरका रस और जीवन्तीका रस तथा गोदुग्ध ४-४ सेर, घी और तिलका तेल १ ॥ - १॥ सेर एवं जीवनीय गणका कल्क ३० तोले लेकर य - रत्नाकरः [ शकारादि सबको एकत्र मिलाकर पकायें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो स्नेहको छान लें। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसकी नस्यसे समस्त ऊर्वजत्रुगत ( गले से ऊपरके ) रोग नष्ट होते हैं । ( जीवनीय गण जकारादि कषाय प्रकरण में देखिये । ) (७३७५) शरादिपञ्चमूलघृतम् ( र. र. व. से. । अश्मर्य; ग. नि. । अश्मर्य. २९; वृ. मा.; च. द.। अश्मर्य ३३, भा. प्र. म. खं. २ । अश्मर्य. ) शरादि पञ्चमूल्या वा कषायेण पचेद्घृतम् । प्रस्थं गोक्षुरकल्केन सिद्धमद्यात्सशर्करम् ॥ अश्मरीमूत्रकृच्छ्रघ्नं रेतोमार्गरुजापहम् ॥ शरादिपच्चमूल (शालीधानकी जड़, कास, शर, दाभ और ईखकी जड़ ) का क्वाथ ८ सेर, गोखरुका कल्क २० तोले और गोघृत २ सेर यह घृत रक्तपित्त, अम्लपित्त, क्षय और लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें । श्वासको नष्ट करता है । इसमें खांड मिलाकर सेवन करनेसे अश्मरी, मूत्रकृच्छ्र और शुक्रमार्गकी पीडा नष्ट होती है । ( मात्रा - २ तोले । ) (७३७६) शाल्मलीघृतम् (१) ( भै. र. । प्रमेहा. ) शाल्मलीद्रवसंयुक्तं सर्विश्छागीपयोऽन्वितम् । अश्वगन्धां व रास्नां मूशलीं विश्वभेषजम् ॥ अनन्तां मधुकं द्राक्षां दत्त्वा च पलमानतः । पवेन्मन्दाग्निना वैद्यः पात्रे मृत्परिनिर्मिते || For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] पक्षमो भाग: - - - - प्रमेहान निखिलान् हन्ति शुक्रमेहं विशेषतः। (७३७८) शिखरीवृतम् क्लैव्यं धातुक्षयं शोषं कासश्चैतदरं घृतम् ॥ ( भै. र. । विषा.). ___कल्क-असगन्ध, शतावर, रास्ना, मूसली, | शिखरिस्वरसेनैव कल्कान् दत्त्वा च दारिमम् । सोंठ, अनन्तमूल, मुलैठी और मुनक्का ५-५ तोले लेकर सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें। कुष्ठमेलाद्वयं शृङ्गी शिरीषममृतं वचाम् ॥ . ४ सेर धीमें यह कल्क और ८ सेर सेंभलकी परशू पारिभद्रश्च चन्दनं तगरं मुराम् । पचेत्सर्पिस्त्वसलिलं मन्दमन्देन वहिना ॥ छालका रस तथा ८ सेर बकरीका दूध मिलाकर मिट्टीके पात्रमें मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी घृतमेतनिहन्त्याशु निखिलान विषजान् गदान। जल जाय तो धीको छान लें। सन्निपातज्वरं घोरं ज्वरांश्च विषमांस्तथा ॥ ___ कल्क---अनारकी छाल, कूठ, छोटी इसाइसके सेवनसे समस्त प्रमेहोंका और विशेषतः यची, बड़ी इलायची, कांकड़ासिंगी, सिरसकी छाल, शुक्रमेहका नाश होता है । यह क्लीवता, धातुक्षय, बछनाग, बच, परशू ( कुदालिया, कुड़ालिया ), शोष और कासको भी नष्ट करता है। फरहदकी छाल, सफेद चन्दन, तगर और मुरा(मात्रा-२ तोले । ) मांसी समान भाग मिश्रित २० तोले। (७३७७) शाल्मलीघृतम् (२) २ सेर घीमें ८ सेर अपामार्ग (चिरचिटे.) (व. से. । स्त्री.; यो. र. । स्त्री.; वृ. यो. | का क्वाथ और यह कल्क मिलाकर मन्दाग्नि त.। त. १३४) पर पकावें। शाल्मलीपुष्पनिर्यासः प्रश्निपों तथैव च । यह घृत समस्त विषजन्य रोगोंको नष्ट काश्मय चन्दनवैषां कल्केन स्वरसेन च ॥ करता है तथा सन्निपात और विषमज्वरमें भी एभिः पचेद् घृतमस्थमवतार्य मशीतलम् ।। उपयोगी है। पिवेत्सपिरिदं नारी सर्वपदरशान्तये ॥ । (७३७९) शीतकल्याणकं घृतम् सेंभलके फूलोंकासार, पृष्ठपर्णी, खम्भारीके (व. से.; यो. र. । स्त्री रोगो.; भै. र. । स्त्री.) फल और सफेद चन्दन; इनके कल्क और रस कुमुदं पनकोशीरं गोधूमो रक्तशालयः । ( क्वाथ ) के साथ यथाविधि सिद्धघृत समस्त मुद्रपर्णी पयस्या च काश्मरी मधुयष्टिका ॥ प्रकारके प्रदरोंको नष्ट करता है। | बलातिबलयोर्मूलमुत्पलं तालमस्तकम् । ___ फल्कार्थ-प्रत्येक ओषधि २॥ तोला। विदारी शतपुष्पी च शालपर्णी सजीवका ॥ क्वाथार्थ-प्रत्येक ओषधि आधासेर, पाकार्थ | त्रिफला त्रापुसं बीजं प्रत्यग्रं कदलीफलम् । जल १६ सेर, शेष क्वाथ ४ सेर । घी १ सेर।) एषामर्धपलान्भागान् गव्यक्षीरं चतुर्गुणम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि पानीयं द्विगुणं दत्वा धृतमस्थं विपाचयेत् । क्षीरीवृक्षों (पीपलवृक्ष, गूलर, बड़ आदि) की प्रदरे रक्तगुल्मे च रक्तपित्ते हलीमके कोपलें और छाल और मुलै ठीके कल्क तथा दूधके अरोचके ज्वरेऽजीणे पाण्डुरोगे मदे भ्रमे। साथ सिद्ध घृत स्वरभंगको नष्ट करता है। तरुणी त्वल्पपुष्पा वा या च गर्भ न विन्दति ॥ | (७३८१) शुण्ठीघृतम् (१) अहन्यहनि च स्त्रीणां भवति प्रीतिवर्धनम् । ( यो. र. । ग्रह.) शीतकल्याणकं नाम परमुक्तं रसायनम् ॥ . ! क्त रसायनम् ।। . घृतं नागरकल्केन सिद्धं वातानुलोमनम् । फरक-लाल कमल, पाक, खस, गेहूं, ग्रहणीपाण्डुरोगन प्लीहकासज्वरापहम् ॥ लाल चावल, मुद्गपर्णी, क्षीरकाकोली, खम्भारीकी सेठके कल्कसे पकाया हुवा घृत वातानुछाल, मुलैठी, खरैटीकी जड़, कंधी (अतिबला)की | लोमक, और संग्रहणी, पाण्डु, तिल्ली, खांसी, तथा जड़, नीलोत्पल, तालफल, विदारीकन्द, सोया, | ज्वर नाशक है । शालपर्णी, जीवक, हर्र, बहेड़ा, आमला, खीरके ( कल्क १० तोले, घी १ सेर, पानी ४ सेर।) बीज और केलेकी कली २॥-२॥ तोले लेकर (७३८२) शुण्ठीघृतम् (२) सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें । ( यो. रे. । अशो. ) २ सेर धीमें यह कल्क, ८ सेर गायका दूध और ४ र पानी मिलाकर पकायें और पाक सिद्ध त्रिंशत्पलानि शुण्ठीनां जलद्रोणे विपाचयेत् । होने पर छान लें। तेन पादावशेषेण कल्के तासां पचेद्धृतम् ॥ | दुर्नामश्वासकासनं प्लीहपाण्ड्वामयापहम् । इसके सेवनसे प्रदर, रक्तगुल्म, रक्तपित, | विषमज्वरशान्त्यर्थं तृष्णारोचकनाशनम् ॥ हलीमक, अरुची, ज्वर, अजीर्ण, पाण्डु, मद, भ्रम, शुण्ठीधृतमिदं ख्यातं कृष्णात्रेयेण पूजितम् । ऋतुस्राव कम होना और गर्भ न रहना आदि रोग नागरेण जले पक्वं वस्तिकृक्षिगदापहम् ।। नष्ट होते हैं। १५० तोले सांठको कूटकर ३२ सेर पानी (मात्रा-१ से २ तोले तक । ) | में पका और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान (७३८०) शुङ्गाद्यघृतम् लें । तदनन्तर उसमें २ सेर घी और २० तोले (व. से. । स्वरभे.) सेठिका कल्क मिलाकर पकावें । जब पानी जल शुझांस्त्वचं क्षीरवतां द्रुमाणां जाय तो धीको छान लें। सङ्कटथ दुग्धे विपचेत्तु तेन । इसके सेवनसे अर्श, श्वास, कास, प्लीहा, कल्केन यष्टी मधुकस्य सर्पिः पाण्डु, विषम ज्वर, तृष्णा और अरुचिको नाश सिद्धं पिबेत्तन्मधुशर्कराक्तम् ॥ होता है। For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् पञ्चमो भागः सोंठके कल्क और चार गुने पानीक साथ कल्क-सूखो मूली, अदरक, पुनर्नवा, पंचसिद्धघृत बस्ति और कुक्षिके रोगोंको नष्ट। मूल ( शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरू) करता है। और अमलतासके फल समान भाग मिश्रित १० (मात्रा--१ तोला ।) तोले लेकर सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें । १ सेर घी में यह कल्क और ४ सेर पानी (७३८३) शुण्ठीधान्यकघृतम् भिलाकर पानी जलने तक पकायें। (भा. प्र. म. खं. २ । आमवाता. ) इसे पीनेसे उदावर्त अवश्य नष्ट हो जाता है। शुण्ठीनां षट्पलं पिष्टं धान्यकं द्विपलं तथा । (७३८५) शूलिघृतम् चतुर्गुणं जलं दवा घृतपस्थं विपाचयेत् ।। (वृ. यो. त. । त, ९४ ; व. से. । शूला.) वातश्लेष्मामयान्हन्यादग्निद्धिकरं परम् ।। दुर्नामश्वासकासन्नं बलवर्णाग्निवद्रनम् ॥ घृताच्चतुर्गुणो देयो मातुलुङ्ग रसो दधि। | शुष्कमूलककोलाम्लकमायो दाडिमाद्रसः॥ कल्क-३० तोले सेठ और १० तोले । विडङ्गं लवणक्षारं पञ्चकोलयवानिभिः । धनियेको पानीके साथ पीस लें। पाठामूलककल्केन सिद्धं शूलिघृतं मतम् ॥ २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर पानी हृत्पार्श्वशूलं वै श्वासकासहिकास्तथैव च । मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो घृतको | ब्रश्नगुल्मप्रमेहा वातव्याधींश्च नाशयेत् ॥ छान लें। ___ कल्क-बायबिडंग, सेंधा नमक, जवाखार, यह घृत वात कफज रोगोंको नष्ट करता है। पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सांठ, अजवायन, तथा यह अग्निवर्द्धक और अर्श, स्वास एवं कास और पाठाकी जढ़ १-१ तोला लेकर सबको नाशक और बलवर्ण वर्द्धक है। एकत्र पीस लें। (मात्रा-१ तोला ।) द्रव पदार्थ-विजौ रेका रस ४ सेर, दही १ सेर, सूखी मूलीका क्वाथ १ सेर, खट्टे बेरका (७३८४) शुष्कमूलाचं घृतम् क्वाथ १ सेर और अनारका रस १ सेर । (मै. र. ; ग. नि. । उदा. २४; च. द. ; भा. १ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और द्रव पदार्थ मिलाकर पकावें। प्र. म. खं. २ । उदावर्ता.) ___ इसके सेवनसे हृदयशूल, पार्श्वशूल, श्वास, मूलकं शुष्कमाईच वर्षाभूमूलपञ्चकम् । | कास, हिक्का, बध्न, गुल्म, प्रमेह, अर्श और वातभारेवतफलश्चापि पिष्वा तेन पचेद् घृतम् ॥ व्याधिका नाश होता है। तत्पीतमात्रं शमयेदावतमसंशयम् ॥ (मात्रा-१ से २ तोले तक ।) For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५२ www. kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः (७३८६) भृङ्गवेरायं घृतम् (१) ( व. से. | आमवाता. ) शृङ्गवेरं सारं पिप्पलीमूलपिप्पली । सचव्यं चित्र हिमाणिमन्थं तथैव च ॥ कल्कं कस्वा तु मतिमान्घृतप्रस्थं विपाचयेत् । आमालार्क दवा तत्स पिंर्जठरापहम् ॥ शूलं बिन्धमानामामवातं कटिग्रहम् । नाशयेद्ग्रहणी रोगमग्निसन्दीपनं परम् ॥ कल्क- अदरक, जवाखार, पीपलामूल, पीपल, चव, गीता, हींग और सेंधानमक २॥ -२॥ तोले लेकर सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें । २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर आरनाल मिलाकर पकावें । इसके सेवन से उदररोग, शूल, विबन्ध, आनाह, आमवात, कटिग्रह और ग्रहणी रोगका नाश होता तथा अग्नि दीप्त होती है । (७३८७) शृङ्गवेरायं घृतम् (२) ( भा. प्र. म. खं. २ । आमवाता. ) शृङ्गवेरयवक्षारपिप्पलीमूलपिप्पलीः । पिट्वा विपाचयेत्सर्पिरारनालं चतुर्गुणम् ॥ शूलं विबन्धमानाहमामवात कटिग्रहम् । नाश ग्रहणदोषमनि सन्दीपनं परम || कल्क- अदरक, जवाखार, पीपल और पीपलामूल २|| - २॥ तोले लेकर सबको एकत्र पीस ले 1 १ सेर घीमें यह कल्क और ४ सेर आरनाल मिलाकर पकावें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि यह घृत शूल, विबन्ध, आनाह, आमवात, कटि ग्रह और ग्रहणी दोषको नष्ट करता तथा वृद्धि करता है । ( ७३८८ ) शृङ्ग्याद्यं घृतम् ( ग. नि. । बालरो. २१ ) eft मधुलिका भार्गी पिप्पली देवदारुभिः । अश्वगन्धा द्विकाकोली रास्ना सर्वभजीवकैः ॥ सूर्यपर्णी विडङ्गैश्व कल्कितैः साधितं घृतम् । शिशूनामुतमाने तु शुष्यतां पुष्टिकृत्परम् ॥ कल्क - काकड़ासिंगी, अंगूर, भरंगी, पीपल, देवदारु, असगन्ध, काकोली, क्षीरकाकोली, रास्ना, ऋषभक, जीवक, माषपर्णी और बायविडंग समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर सबको पानी के साथ एकत्र पीस लें । २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर पानी मिलाकर पानी जलने तक पकावें । यदि बच्चा सूखता जाता हो तो उसक शिरपर इसकी मालिश करनी चाहिये । 1 ( ७३८९) श्यामाघृतम् ( १ ) ( व. से. । बालरो. ) श्यामाजयासतिकानां पुष्पाणां क्वाथसाधितम् । यष्टीगर्भ घृतं पीस्त्रा कासश्वासौ जयेच्छिशुः ॥ रक्तपित्तं पिपासाश्च मूर्छा निरवशेषतः ॥ काली निसोत, अरणी और कुटकी; इनके फूल समान भाग मिश्रित २ सेर लेकर १६ सेर पानी में पकायें और ४ सेर शेष रहने पर छान लें। For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] पञ्चमो भागः १ सेर घी में यह क्वाथ और १० तोले | १ सेर घीमें यह कल्क और ४ सेर दूध मुलैठीका कल्क मिलाकर पकावें । जब पानी जल मिला कर दूध जलने तक पकायें; और फिर छानजाए तो घी को छान लें। कर सुरक्षित रक्खें । यह घृत वच्चोंकी खांसी, श्वास, रक्तपित्त, इसे लगानेसे कोष्ठगत नाडीव्रण (नासुर) तक पिपासा और मूर्छाको नष्ट करता है। | भी नष्ट हो जाता है। (७३९० ) श्यामावृतम् (२) (७३९२) श्रीवासघृतम् ( व. से. । रक्तपित्ता.) (व. से. । कुष्ठा.) श्यामाऽश्वमोरटानन्ता शर्कराभिः शृतं घृतम् । श्रीवासकं सर्जरसं लोधं कम्पिल्लक तथा । सर्वदोषहरं हृथं नस्यं नासागतेऽसृजि ॥ मनःशिला यवानी च गन्धपाषाणमेव च ॥ कल्क-काली निसोत, असगन्ध, क्षीर- ) पलिकैश्चूर्णितरेतघृतपस्थं प्रयोजयेत् । मोरटा, अनन्तमूल, और खांड २-२ तोले सूर्याशुपक्वमभ्यगाद् धोरां कछु व्यपोहति ।। लेकर सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें। श्रीवास ( बिरोजा ), राल, लोध, कमीला, १ सेर घीमें यह कल्क और ४ सेर मनसिल, अजवायन और गन्धक; इनका चूर्ण पानी मिलाकर पानी जलने तक पकावें और ५-५ तोले, घी २ सेर और पानी ८ सेर ले कर छान लें। सबको एकत्र मिला कर धूपमें रख दें। जब पानी इसकी नस्य लेनेसे नासासे होने वाला सूख जाय तो घीको छान लें । रक्तस्राव बन्द होता है । यह घृत सर्वदोष नाशक इसकी मालिशसे घोर कच्छु (कुष्ठ मेद) मी हृद्य है। नष्ट हो जाता है । (७३९१) श्यामावृतम् (३) (७३९३ ) श्रेयस्यायतम् (व. से. । व्रणा.) (व. से. । दोगा.) श्यामात्रिभण्डी त्रिफलासु सिद्ध प्रेयसीशरादालाजीपायकोत्पस: हरिद्रया तिल्वकवृक्षण । बलावर्जूरकाकोलीमेदायुग्मय सापितम् ॥ घृतं सदुग्धं व्रणतर्पणेन सती मारिष सपिः पिचादोगनाशनम् । हन्याद्गति कोष्ठगतापि या स्यात् ।। क-हर, खांड, द्राक्षा (सुनका), जीवक, कल्क-काली निसोत, हर, बहेड़ा, आंबा : ऋषभक, कमल, लरेटीको जड़, खजूर, काकोली, हल्दी और लोध समान भाग मिश्रित १० मेदा और महामेदा समान भाग मिश्रित १० तोले तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। लेकर सबको एकत्र पानी के साथ पीस लें। For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८४ १ सेर भैंसके धीमें यह कल्क और ४ सेर ( भैंसका ) दूध मिला कर पकावें । जब दूध जल जाए तो घृतको छान लें । यह घृत पित्तज हृद्रोगको नष्ट करता है । (७३९४) श्वदंष्ट्रा दिघृतम् (१) (बृ. यो त । त. ७७; वृ. मा. ; च. द. हृद्रोगो. ग. नि. । घृता. १ ; र. र. ; भै. र. । हृद्रोगा. ) ; www. kobatirth.org ले - भैषज्य रत्नाकरः *वदंष्ट्रोचीरमजिष्ठा बलाकाश्मर्यकतृणम् । दर्भमूलं पृश्निपर्णी जीवकर्षभकौ' स्थिरा ॥ पालिकं साधयेतेषां रसे क्षीरचतुर्गुणे । कल्कैः स्वताजी बन्तीमेदकर्ष भजीवकैः २ ॥ शतावर्वृद्धिमुदीका धर्करा श्रावणी बिलैः । प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातपित्त नुग्राही शूलहृत् || मूत्रकृच्छ्रप्रमेहार्शः कालशोषक्षयापहः । धनुः श्रीमद्यमाराध्वखिन्नानां बलमांसदः ॥ 1 भारत-2 गोखरु, खस, मजीठ, खरैटीकी जड़, खम्भारीकी छाल, गन्ध तृण, दाभकी जड़, पृष्ठपर्णी, जीवक, ऋषभक और शालपर्णी ५--५ तोले ले कर ८ गुने पानीमें पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर छान १ पलाशर्षभकौ इति पाठभेदः । २ जीवकके स्थान पर ज़ीरा है । २ सेर घीमें यह क्वाथ, ८ सेर दूध और निम्न लिखित कल्क मिला कर पकायें। जब पानी जल जाय तो घीको छान लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि कल्क कौंच, जीवन्ती, मेदा, ऋषभक, - जीवक, शतावर, ऋद्धि, मुनक्का, खांड, गोरखमुण्डी और बिस ( कमलकन्द - भिसण्डा ) समान भाग मिश्रित १० तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें । यह घृत वातपित्तज रोग नाशक, ग्राही, शूलनाशक, तथा मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह, अर्श, कास, शोष और क्षयको नष्ट करने वाला है । जो लोग धनुष चलाने, स्त्री समागम करने मद्य पीने, भार उठाने या मार्ग चलनेसे शिथिल हो गये हों उनमें यह घृत बल और मांसकी वृद्धि करता है । (७३९५) श्वदंष्ट्रादिद्युतम् (२) ( यो. र. । यक्ष्मा. ) श्वदंष्ट्र सदुरालभां चतस्रः पर्णिनीर्बलाम् । भागान्पलोन्मितान्कृत्वा पलं पर्यटकस्य च ॥ पचे दशगुणे तोये दशभागावशेषिते । रसे पूते तु द्रव्याणामेषां कल्कान्समावपेत् ।। सटीपुष्करमूलानां पिप्पलीत्रायमाणयोः । आमलक्याः किरातानां त्रिकस्य कटुकस्य च ॥ फलानां सारिवायाश्च सुपिष्ट्वा कर्षसम्मितान् । तैः साधयेद् घृतप्रस्थं क्षीरं द्विगुणितं भिषक् ।। ज्वरं दाहं तमः श्वासं कालं पार्श्वशिरोरुजम् । तृणां छर्दिमतीसारमेतत्सर्पिर्घ्यपोहति ॥ क्वाथ - गोखरु, धमासा, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, मुद्गपर्णी, मात्रपर्णी, खरैटीकी जड़ और पित्त पापड़ा ५-५ तोले ले कर सबको २० गुने पानी में पकावें और दसवां भाग शेष रहने पर छान लें। For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः कल्क-कचूर, पोखरमूल, पीपल, वायमाना, उपरोक्त काथ मिला कर पकावें । जब पानी जल आमला, चिरायता, सोंठ, मिर्च, पीपल और सारि- | जाय तो धोको छान लें । वाके फल १०-११ तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें। यह घी ज्वरे, दाह, तमक स्वास, कास, पा. र्वपीड़ा, शिर पोड़ा, तृष्णा, छर्दि और अतिसारको २ सेर धीमें यह कल्क, ४ सेर दूध और । नष्ट करता है। इति शकारादिघृतप्रकरणम. अथ शकारादितैलप्रकरणम् (७३९६) शङ्खपुष्पीतैलम् कल्क-अनारका छिलका, देवदारु, हल्दी, ( भै. र. । बालरो.) दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, लाल चन्दन, वस, सुगन्धबाला, सफेद चन्दन, मुलैठी, नागरशपुष्पीमहानिम्बवासानामर्जुनस्य च । लोथा, श्यामालता, शैवाल (सिरवाल), हारसिंगार, स्वरसेनारनालेन लाक्षातोयेन मस्तुना ॥ लाल कमल और रसौत समान भाग मिश्रित कल्कैश्च दाडिमीदारुनिशायुगफलत्रिकैः । आधा सेर । चन्दनोशीरवालैश्च श्रीखण्डमधुकाम्बुदैः॥ ४ सेर तिलके तेल में यह कल्क और सम्पूर्ण श्यामाशैवालशेफालीरक्तोत्पलरसाधनः ।। द्रव पदार्थ मिला कर पकावें । जब जलांश शुष्क गन्धद्रव्यैश्च निखिलैः पचेत् तैलं तिलोद्भवम् । हो जाय तो तेलको छान लें। और फिर गन्ध प्रयोगादस्य नश्यन्ति बालानामखिलागदाः। | द्रव्योंके कल्क द्वारा गन्ध पाक करें । (गन्ध द्रव्य कान्तिमधा धृतिः पुष्टिवर्द्धते नात्र संशयः ॥ प्रयोग सं. १२४३-१२४४ में देखिये ।) कल्याणाय कुमाराणां कपर्दी करुणाकरः। ससर्जेदं शापुष्पीतैलं भुवनमालम् ॥ इस तेलके मर्दनसे बालकोंके समस्त रोग नष्ट होते हैं। तथा यह कान्ति, मेधा, धृति और पुष्टिकी द्रव पदार्थ-शंखपुष्पीका रस या क्वाथ । वृद्धि करता है। ४ सेर, बकायनकी छालका काथ ४ सेर, बासे (अडूसे) का रस ४ सेर, अर्जुनकी छालका काथ (७३९७) शतकप्रसारिणीतलम् ४ सेर, आरनाल (कांजी) ४ सेर, लाखका रस (व. से. । वातव्या.) ४ सेर और मस्तु ( दहीसे २ गुना पानी मिला | प्रसारिणीशतक्वाथे तैलप्रस्थं पयःसमम् । कर बनाया हुवा तक) ४ सेर । जीवकर्षभको मेदे काकोल्यौ कुष्ठचन्दने । For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि . आता दार मभिष्टां रास्नां पिष्ट्वा विपाचयेत्।। यह तैल वातरक्त और वातव्याधि नाशक बस्तिपानादिभिर्युक्तमेतन्मारुतरोगनुत् ॥ तथा रसायन, इन्द्रियाँको निर्मल करने वाला, २ सेर तेलमें २ सेर दूध और २०० सेर | जीवनशक्ति-वर्द्धक, वृंहण, स्वरके लिये हितकारी प्रसारिणीका काथ तथा निम्न लिखित कल्क मि- एवं शुक्र दोष और रक्तविकार नाशक है । लाकर पकार्थे । जब पानी जल जाय तो तेलको (७३९९) शतपाकमधुपर्णीतैलम् छान लें। । (च. सं. । चि. अ. २९ ; भा. प्र. म. ख. .. कल्क-जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, - २ । वातरक्ता. ; व. से. । राजय.) काकोली, क्षीरकाकोली, कूठ, सफेद चन्दन, सोया, देवदारु, मजीठ और रास्ना, समान भाग मिश्रित मधुपर्यापलं पिष्ट्वा तैलमस्थं चतुर्गुणे। २० तोले ले कर सबको पानीके साथ पीस लें। क्षीरे साध्यं शतकृत्वस्तदेव मधुकाच्छृतैः ॥ सिद्धं देयं त्रिदोषे स्याद्वातास्त्रश्वासकासनुत् । इस तेलकी बस्ति लेने, इसे पीने और हृत्पाण्डुरोग वीसर्पकामलादाहनाशनम् ॥ इसकी मालिश आदि करनेसे वातज रोग नष्ट ५ तोले मधुपर्णी (गिलोय) के कल्क और ८ सेर दूधके साथ २ सेर तेल पका कर छान लें (७३९८) शतपाकबलातैलम् और फिर उसे पुनः इन्हीं चीजोंके साथ पकावे । (सहस्रपाकबलातैलम् ) इसी प्रकार १०० बार पाक करें। (च.सं.। चि. अ. २९ ; भा. प्र. म. खं. २॥ वातरक्ता. ; व. से. । वातरक्ता.) तदनन्तर उसमें मुलैठीका ८ सेर काथ मिलाकर पकावें। पलाकपापकरकाभ्यां तैलं क्षीरसमं तथा । यह तेल त्रिदोषज वातरक्त, श्वास, कास, सहसवत्ता वा वातासुरवातरोगनुत् ।।। रसायन श्रेष्ठतममिन्द्रियाणां प्रसादनम् । | हृदोग, पाण्डु, वीसपै, कामला और दाहको नष्ट जीवन दहणं स्वयं शुक्रामग्दोषनाशनम् ॥ पला (खरैटी) के कल्फ और क्वाथके साथ (७४००) शतावरीतैलम् तैल सिद्ध करके छान लें। (शा. सं. । खं. २ अ. ९ ; वृ. नि. र. । वातव्य.) इसी तेलको पुनः खरैटीके काथ और कल्कके शतावरी बलायुग्मं पण्यौं गन्धर्वहस्तकः । साथ सिह करें। अश्वगन्धाश्चदंष्ट्रा च पिश्यः काशः कुरण्टकः ।। इसी प्रकार सहस्र बार या १०० बार पाक करें। १ मधुयष्टयाः इति पाठान्तरम् । | करता है। For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] पञ्चमो भागः एतान् सार्धपलान् भागान् कल्कयेच्च विपा- २ सेर तेलमें उपरोक्त काथ, द्रव पदार्थ और चयेत् । | कल्क मिला कर गायके उपलों (कण्डों) की अग्नि चतुर्गुणेन नीरेण पादशेषं शतं नयेत् ॥ पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको नियोज्य तैलपस्थे च क्षीरपस्थं विनिक्षिपेत् । । शतावरीरसमस्थं जलपस्थं च योजयेत् ॥ यह तेल अत्यन्त वृष्य और स्त्रियोंके लिये शतावरी देवदारु मांसी तगरचन्दनम्। पुत्रदाता है; तथा योनिशूल, अंगशूल, शिरशूल, शतपुष्पा बला कुष्ठमेला शैलेयमुत्पलम् ॥ कामला, पाण्डु, गरविष, गृध्रसी, प्लीहा, शोष, प्रमेह, ऋद्धिर्मेधा च मधुकं काकोली जीवकस्तथा। दण्डापतानक, दाह, वातरक्त, वातपित्तज रोग, एषां कर्षसमैः कल्कैस्तैलं गोमयवह्निना ।। रक्तप्रदर, आध्मान और रक्तपित्तको नष्ट करता है। पचेतेनैव तैलेन स्त्रीषु नित्यं वृषायते । नारी च लभते पुत्रं योनिशूलश्च नश्यति ॥ (७४०१) शतावरीतैलम् अङ्गशूलं शिरःशूलं कामलां पाण्डुतां गरम् । गृध्रसी प्लीहशोषांश्च मेहान् दण्डापतानकम् ॥ (ग. नि. । तैला. २) सदाहं वातरक्तं च वातपित्तगदार्दितम् ।। शतावरीरसप्रस्य भीरपस्थं तथैव च । अमृग्दरं तथाध्मानं रक्तपित्तं च नश्यति ॥ | शतपुष्पा देवदाह मांसी शैलेयक बला॥ शतावरीतलमिदं कृष्णाणेय भाषितम् ॥ चन्दनं तगर कुष्ठमेला सांशुपती तथा । क्वाथ-शतावर, बला (खरैटी), अतिबला एतैः कर्षसमै गैस्तैलपस्थं विपाचयेत् ।। (कंधी), शालपर्णी, पृष्टपर्णी, अरण्डकी जड़, अस. कुष्ठवामनपाना पधिरव्यङ्गकुष्ठिनाए । गन्ध, गोखरु, बेलछाल, कासकी जड़ और कटसरैया वायना भमदेहाना येऽवसीदम्ति मैथुने ॥ ७॥७॥ तोले ले कर सबको एकत्र कूटकर ८ जराजर्जरदेहाना वतिषशोषिणाम् । गुने पानीमें पकायें और चौथा भाग शेष रहने त्वग्गताश्चापि ये वाता: सिरास्नायुगताच ये ॥ पर छान लें। सस्ताभाशयत्याशु तैलं नास्त्यत्र संशयः । __अन्य द्रव पदार्थ- दूध २ सेर, शतावरका नारायणमिदं नाना विष्णुना समुदाहृतम् ॥ रस २ सेर और पानी २ सेर । ___ कल्क-शतावर, देवदारु, जटोमांसी, तगर, | दशाङ्गमिति विख्यातं न कचित्पतिहन्यते ॥ सफेद चन्दन, सोया, खरैटीकी जड़, कूठ, इलायची, शतावरका रस २ सेर, दूध २ सेर, तथा निम्न भूरि छरीला, नीलोत्पल, ऋद्धि, मेदा, मुलैठी, का- लिखित कल्क और २ सेर तैल एकत्रा मिलाकर कोली और जीवक १२-१। तोला ले कर | पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको कल्क बनावें । छान लें। For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५८ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः कल्क – सोया, देवदार, जटामांसी, छार छरीला, खरैटोकी जड़, सफेद चन्दन, तगर, कूठ, इलायची और शालपर्णी ११-११ तोला ले कर सबको एकत्र पानी के साथ पीस लें । यह तैल कुष्ठ, वानता, पता, बधिरता, व्यंग, वायु और मैथुन शक्तिको कमीको नष्ट करता है । यह वृद्धोंके क्षीण शरीरको पुष्ट करता है । वर्ध्म, मुखशोष, त्वग्गत वातविकार, एवं शिरा और स्नायु गत वायु इसके सेवनसे शीघ्र ही नष्ट जाते हैं । ( ७४०२) शतावरीतैलम् (३) (ग. नि. । तैला. २ ) शतावर्यास्तु मूलानां रसपस्थं समाहरेत् । क्षीरद्विगुणसंयुक्तं तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ शतपुष्पा देवदारु मांसी शैलेयकं वचा । मञ्जिष्ठा चन्दनं कुष्ठमेला चांशुमती बला ॥ तुरङ्गगन्धा काकोली मेदा रास्ना पुनर्नवा ॥ एतैरर्धपलैर्द्रव्यैः शनैर्मृ'द्वग्निना पचेत् । अस्य तैलस्य पक्कस्य शृणु वीर्यमतः परम् || कुब्जानां वामनानां च पशूनां पीठसर्पिणाम् || शतावरीका रस २ सेर, दूध ४ सेर, तेल २ सेर और निम्न लिखित कल्क एकत्र मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। कल्क - सोया, देवदारु, जटामांसी, छारछरीला, बच, मजीठ, सफेद चन्दन, कूठ, इलायची, शालपर्णी, खैरैटी, असगन्ध, काकोली, मेदा, रास्ना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि और पुनर्नवा २|| २|| तोले ले कर सबको पानीके साथ पीस लें। यह कुब्ज, वामन, पशु और पीठविसर्पि, आदि व्यक्तियोंके लिये अत्युपयोगी है । (७४०३) शतावरीतैलम् (४) (व. से. । वातत्र्या.) क्षीराढकं शतावर्या रसमस्थद्वयं पृथक् । शृङ्गवेरस्य तैलस्य प्रस्थं साध्यश्च कार्षिकैः ॥ शतादादा रुशैलेयमांसीचन्दनवालकैः । स्वलांशुमतीरास्नातगरैरण्डसैन्धवैः ॥ अश्वगन्धा समङ्गोग्रामूर्वामरिचनागरैः । तन्मासपीतं विधिवतैलं सिद्धार्थकं जयेत् ॥ कुब्जवामनपङ्गुत्ववातभग्रावकुञ्चनम् । सर्वाकाङ्गरोगांश्च हनुमन्या गलामयान् ॥ वातरक्तश्च कुष्ठानि कण्डूपामा विचर्चिकाः । गण्डमालाचिवक्त्रपाकोदर भगन्दरान् ॥ कुष्ठत्रणान्सविषमानारम्भान्विविधा वरान् । सन्निपातश्च शूलानि विषमूर्ध्वभ्रमामयान् ।। वातगुल्मं बहून्महानन्त्रदृद्धिश्च शर्कराम् । कामलां पाण्डुरोगञ्च शूलं नेत्रदोद्भवम् ॥ मूढगर्भाश्च भग्नांश्च योनेर्वन्ध्यामयान्बहून् । वृडानामल्पशुक्रदृक्स्मृतीनां क्षयरेतसाम् ॥ रसायनं बलारोग्यवर्ण्यग्न्यायुर्विवर्द्धनम् ॥ द्रव पदार्थ - दूध ८ सेर, शतावरीका रस ४ सेर, और अदरक का रस २ सेर | कल्क - सोया, देवदारु, छारछरीला, जटामांसी, सफेद चन्दन, सुगन्धवाला, दालचीनी, छोटी इलायची, शालपर्णी, रास्ना, तगर, अरण्डकी जड़, For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - तैलप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः सेंधा नमक, असगन्ध, मजीठ, बच, मूर्वा, काली कल्क-कूठ, देवदारु, इलायची, फूलप्रियंगु, मिर्च और सेठ ११-१॥ तोला ले कर सबको तगर, दालचीनी, तेजपात, रेणुका, नखी, जटाएकत्र पीस लें। मांसी, राल, सुगन्धबाला, सफेद चन्दन, बच, २ सेर तेलमें उपरोक्त द्रव पदार्थ और कल्क छरीला, पीली खस, मजीठ, चीरका काष्ठ, अगर, मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो ते- | नागकेसर, खरैटीकी जड़, रास्ना, असगन्ध, शतालको छान लें। | वर, पुनर्नवा, सौंफ और सेंधा नमक समान भाग ____ यह तैल कुजता, वामनता, पङ्गुता, वातभग्न | मिश्रित आधा सेर ले कर करक बनावें । किसी अंगका सिकुड़ जाना, सर्वाग और एकांग ४ सेर तेल में यह कल्क, ४ सेर गोदुग्ध वायु, ठोडीके रोग, मन्या रोग, गल रोग, वातरक्त, और ४ सेर शतावरका रस (तथा ८ सेर पानी) कुष्ट, कण्डू (खुजली), पामा, विचचिका, गण्डमाला, ! मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । अपची, मुख पाक, उदररोग, भगन्दर, कुष्ठ, व्रण, यह तेल वातज रोगोंको नष्ट करता है । विषमादि अनेक ज्वर, सन्निपात, शूल, विषविकार, शतावरी नारायणतैलम् ऊर्य जत्रुगत रोग, भ्रम, वातज गुल्म, प्रमेह, अन्त्रवृद्धि, शर्करा, कामला, पाण्डु, नेत्र रोग, मूढ प्रयोग सं. ३५०४ " नारायण तैलम्" गर्भ, भग्न, बन्ध्यत्व, शुक्रहास, दृष्टिकी कमी, स्मृ- देखिये । तिकी न्यूनता, और वीर्यक्षयादि रोगोंमें उपयोगी (७४०५) शतावर्यादितैलम् है तथा रसायन है और बल, वर्ण आरोग्य, आयु, " (वृ. मा. । कर्णरो. ; यो. त. । त. ७० ; यो. अग्नि आदिकी वृद्धि करता है । र. ; व. से. । कर्णरो. ; वृ. यो. त.।। (७४०४) शतावरीतैलम् (५) त. १२९) (यो. र. । वातव्या. ; वृ. यो. त. । त. ९० ९०, शतावरीवाजिगन्धापयस्यैरण्डबीजकैः । वृ. नि. र. । वातव्या.) तैलं विपक्वं सक्षीरं पालीनां पुष्टिकृत्परम् ॥ रुदारुद्रविडिमियजुतगरं त्वक्पत्रकौन्तीनखै कल्क-शतावर, असगन्ध, क्षीरकाकोली माँसीसर्जरसाम्बुचन्दनवचाशैलेयलामज्जकैः ॥ और अरण्डके बीज २॥२॥ तोले ले कर सबको मभिष्ठासरलागुरुद्विपबलारास्नाश्वगन्धावरीवर्षाभूमिसिसिन्धुभिश्च सकलैरेभिः पचेत्क ल्कितैः ॥ १ सेर तेल में यह कल्क और ४ सेर दूध तुल्यं गोपयसा वरीरससमं तैलं विपक्वं मृदु । मिला कर पकावें । जब दूध जल जाय तो तेलको स्याद्वातप्रमिदं नृणामिति वरीतैलं भिषक्पू छान लें। जितम् ॥ इसकी मालिशसे कर्णपाली पुष्ट होती है। For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि (७४०६) शताहादितैलम् (१) . इसकी नस्यसे वात कफज तिमिर रोग और ( भा. प्र. म. खं. २ । वातरक्ता. ; यो. र.: शिर शूलादि नष्ट होता है । वृ. नि. र. । वातरक्ता.) (७४०८) शाखोटकविल्यतैलम् क्वाथेन शतपुष्पायाः कुष्ठस्य मधुकस्य च ।। (वृ. यो. त. । त. १०८ ; भै. र. । गलगण्डा. ; एकैकं साधयेत्तैलं वातरक्तरुजापहम् ॥ व. से. । गलगण्डा.) १ सेर तेलमें सोयेका ४ सेर काथ मिलाकर | गण्डमालापहं तैलं सिदं शाखोटकत्वचा-। पकावें । जब क्वाथ जल जाय तो तेलको छान लें बिल्वाश्वमारनिर्गुण्डीसाधितं चापि नावनम् ।। और फिर उसमें कूठका ४ सर क्वाथ डाल कर ___ कल्क-सिहोड़ेकी छाल, बेल छाल, कनेपकावें । जब यह क्वाथ भी जल जाय तो मुलै- रकी छाल और मुण्डी २॥२॥ तोले ले कर ठीका ४ सेर क्वाथ मिला कर पका और इसके | कल्क बनावें । जल जाने पर तेलको छान लें। क्वाथ-उपरोक्त ओषधियां आधा आधा यह तैल वातरक्तको नष्ट करता है। सेर ले कर, कूट कर १६ सेर पानीमें पकावें और (७४०७) शताहादितैलम् (२) ४ सेर पानी रहने पर छान लें । (ग. नि. । शिरो. १ ; वृ. मा. ; वृ. नि. र. ; १ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और क्वाथ च. द. ; व. से.) मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। शताहेरण्डमूलोग्रावक्रव्याघ्रीफलैः श्रुतम् ।। इसकी नस्य लेनेसे गण्डमाला नष्ट होती है । तैलं नस्यान्मरुच्लेष्मतिमिरोर्ध्वगदापहम् ॥ कल्क-सोया, अरण्डमूल, बच, तगर और (७४०९) शारिवाद्यं तैलम कटैलीके फल २-२ तोला लेकर सबको एकत्र (र. र. । वातरक्ता.) पानीके साथ पीस लें। शारिवारिष्टकूष्माण्डपोतकीभस्मजाऽम्बुना । क्वाथ-उपरोक्त ओषधियां ३२-३२ तोले गुडूचीक्वाथदुग्धं च कर्मरगरसेन च ॥ ले कर सबको अधकुटा करके १६ सेर पानीमें पचेतैलश्च तिलनं दत्त्वैतानि भिषग्यरः । पका और ४ सेर शेष रहने पर छान लें । । काकोल्यौ जीरकं मेदे शताहा क्षीरिणी युतैः॥ १ सेर तेलमें उपरोक्त क्वाथ और कल्क जिङ्गीसिक्थामृतानन्तासर्जसैन्धवचन्दनैः । मिला कर पकावें जब पानी जल जाय तो तेलको षड्गुञ्जाधिकचतुर्मासं कर्षद्वितयसंयुतम् ।। छान लें। हन्ति वातास्रज पोरं स्फुटितं गलितन्तथा । For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् पञ्चमी भागः चर्मदलश्च पामानं त्वग्दोषश्च विपादिकाम् ॥ बीज समान भाग मिश्रित १० तोले लेकर कुष्ठान्य सि वीसपत्रणशोथभगन्दरान् । कल्क बनावें । न सोऽस्ति वातरक्तस्य विकारोयं न हन्ति च ॥ १ सेर तेलमें यह कल्क और ४ सेर पानी द्रव पदार्थ-सारिवा, नीमकी छाल, पेठा | मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको (कुम्हड़ा), और पोईका शाक; इनके क्षारका पानी छान लें। ४ सेर, गिलोयका क्याथ ४ सेर, दूध ४ सेर और यह तैल नासार्शको नष्ट करता है । कमरखका रस ४ सेर । (७४११) शिनुतैलम् (१) कल्क-काकोली, क्षीर काकोली, जीरा, (व. से. । वातव्या.) मेदा, महा मेदा, सोया, गाम्भारोकी छाल, मजीठ, मोम, गिलोय, अनन्तमूल, चीर, सेंधा नमक और शिकुष्ठशिलाऽजाजीलशुनव्योपहिअभिः । सफेद चन्दन; प्रत्येक २ तोले ११ माशे ६ रत्ती पासपून वत्समूत्रे शृतं तैलं नावनं स्यादपस्मृतौ ॥ ( लगभग ३ तोले ) ले कर कल्क बनावें । ___ कल्क-सहंजनेकी छाल, कूठ, मनसिल, • ४ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त द्रव पदार्थ | जीरा, ल्हसन, सोंठ, मिर्च, पीपल, और हींग और कल्क मिला कर पकायें, जब पानी जल जाय। १-१ तोला ले कर सबको एकत्र पानीके साथ तो तेलको छान लें। पीस लें। यह तेल स्फुटित और गलित घोर वातरक्त. ७२ तोले तेल में यह कल्क और चार गुना चमेदल, पामा, त्वदोष, विपादिका, कुष्ठ, अर्श.. गायके बछड़ेका मूत्र मिला कर पकावें । जब मूत्र वीसर्प, वण, शोथ और भगन्दरको नष्ट करता है। । जल ज जल जाय तो तेलको छान लें । ___ वातरक्तका ऐसा कोई विकार महीं जिसे | इसकी नस्य लेनेसे अपस्मार नष्ट होता है। यह नष्ट न करता हो। (७४१२) शितलम् (२) ___ (७४१०) शिखरीतैलम् (व. से. । नासा.) (वृ. मा. । नासा. ; भा. प्र. । म. खं. २ | शिकान्तावचाव्योषद्राक्षासुरससैन्धवैः। नासा. ; च. द.। नासा. ) नस्यदानाज्जयेत्सिद्धं तैलं नासागदं नृणाम् । गृहधूमकणादारुक्षारनक्ताहसैन्धवैः।। ... सहजनेकी छाल, रेणुका, बच, सेठ, मिर्च, सिद्धं शिखरिबीजैश्च तैलं नासार्शसां हितम् ॥ पीपल, मुनक्का, तुलसी और सेंधानमक १-१ तोला कल्क-घरका धुवां, पीपल, देवदारु, ज- ले कर कल्क बनावें । वाखार, फरज बीज, सेंधा नमक और चिरचिटेके ७२ तोले तेल में यह कल्क और ४ गुना For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि पानी मिला कर पकायें। जब पानी जल जाय तो छरीला, अरण्डमूल, कुश, लघु पंच मूल (शातेलको छान लें। लपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु), पुनर्नवा इसकी नस्य देनेसे नासा रोग नष्ट होते हैं। और शतावर; इनके ४ सेर काथमें १ सेर तेल मिला कर पकावें । (७४१३) शिवादितैलम् इसे दूधके साथ पिलानेसे मूत्रकृच्छ्रादि मूत्र( वृ. यो. त. । त. १३०; भा. प्र. म. खं. २। । | रोग नष्ट होते हैं। नासा. ; यो. र. ; वृ. नि. र. ; व. से.।। नासारो.) (७४१५) शुण्ठीतैलम् शिगृसिंहीनिकुम्भानां बीजैः सव्योषसैन्धवैः। (वृ. मा. ; व. से. । नासा. ; ग. नि. । नासा. बिल्वपत्ररसैः सिद्धं तैलं स्यात्पूतिनस्यनुत् ॥ ४ ; भा. प्र. म. खं. २ । नासा.) कल्क-सहजनके बीज, कटेलीके बीज, शुण्ठीकुष्ठकणाबिल्वद्राक्षा कल्ककषायवत् । जमालगोटेके बीज, सोंठ, मिर्च, पीपल और सेंधा साधितं तेलमाज्यं वा नस्य क्षवथुरोगनुत् ॥ नमक १-१ तोला ले कर सबको पानीके साथ सोंठ, कूठ, पीपल, बेलकी छाल और मुनका; एकत्र पीस लें। | इनके कल्क तथा क्वाथसे सिद्ध तेल या घीकी ५६ तोले तेलमें यह कल्क और ४ गुना नस्य लेनेसे क्षवथु रोग (अधिक छींके आना रोग) बेलपत्रका स्वरस मिला कर पकावें । जब रस जल नष्ट होता है। जाय तो तेलको छान लें। (कल्कार्थ--प्रत्येक ओषधि २ तोले । इस तेलकी नस्यसे पूतिनासा नामक रोग नष्ट | क्वाथार्थ-प्रत्येक ओषधि ३२ तोले, पानी १६ होता है। सेर, शेष ४ सेर । तेल या घी १ सेर ।) ( यह तेल अत्यः - तीक्ष्ण होगा अतः योग्य (७४१६) शुष्कमूलाचं तैलम् (१) चिकित्सकके परामर्शसे सेवन करना चाहिये ।) (भै. र. । शोथा. : वृ. यो. त. । त. १०६; (७४१४) शिलोद्भवादितैलम् ग. नि. । श्वयध्व, ३३ ; र. र. ; व. से. ; (व. से. । मूत्राघाता. ; भा. प्र. म. खं. २ । मूत्रा.) वृ. मा. ; भा. प्र. म. खं. २ । शोथा.) शिलोद्भवैरण्डकुशास्थिरादि शुष्कमूलकवर्षाभूदारास्नामहौषधैः । पुनर्नवाभीरुरसेषु सिद्धम् । पक्वमभ्यञ्जनात्तै सशूलं श्वयधुं जयेत् ।। तैलं शृतं क्षीरमथानुपानं ___ कल्क-सूखी मूली, पुनर्नवा, देवदारु, रास्ना कालेषु कृच्छादिषु सम्प्रयोज्यम् । । और सेठ २-२ तोला ले कर कल्क बनावें । For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लपकरणम् ] पश्चमी भाग - - (धन्वा प्रत्येकं प्रस्थमाहृत्य वारिण्यगणे पर काथ-उपरोक्त ओषधियां ३२-३२ तोले | (७४१८) शुष्कमूलाय तैलम् (३) (वृहद) ले कर १६ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर शेष (भैः र. । शोथा. ; धन्व; र. र. । शोथा.) रहनेपर छान लें। मूलकं दशमूलञ्च कणामूलं पुनर्नवा । (७४१७) शुष्कभूलायं तैलम् (२).. (धन्व. । कर्ण.) - Ea तेन पादावशेषेण तैलस्याढिकं पचेत् । शुष्कमूलकशुण्ठीनां क्षारो हिलनागरम् ।। दापयेत्तैलतुल्यश्च गोमूत्रं कुशलो भिषक् ।। तपुष्पी वचा कुष्ठं दारुशिरसाजनम् ॥ मूलकं चामृता शुण्ठी पटोलं चपला बला। सौवर्चलं यवक्षारं सामुद्रं सैन्ध तथा । | पाठा पुनर्णवामूलं वालोशीरश्च शिग्रुजम् ॥ अजाग्रन्थिक बिडं मुस्तं मधु चतुर्गुणम् ।। निर्गुण्डीन्द्राशनं श्यामा करजं वामकं तथा । मातुलुङ्गारसं चैव कदलीरसमेव च । कणा हरीतकी चैव वचा पुष्करमूलकम् ॥ वैलमेभिर्विपक्तव्यं कर्णशूलापहं परम् ।। रास्ना विडङ्ग चव्यश्च द्वे हरिद्रे च धान्यकम् । बाषिर्य कर्णनादश्च पूयस्रावश्चदारुणः। द्विक्षारं सैन्धवश्चैव देवदारु सपनकम् ॥ पूरणादस्य तैलस्य कृमयः कर्णयोः खिलाः॥ शटी करिकणा बिल्वं मञ्जिष्ठा च ततः क्रमात् । शिमं विनाशमायान्ति शशाङ्ककृतशेखर ॥ प्रत्येकापलञ्चैषां पेषयित्वा विनिःक्षिपेत् ॥ कल्क-सूखी मूली और सेठका क्षार, अभ्यङ्गेनास्य तैलस्य ये गुणांस्तांस्ततः शृणु । शिंगरफ (हिंगुल), सांठ, सोया, बच, कूठ, देवदारु, | नानाशोथा विनश्यन्ति वातपित्तकफोद्भवाः ॥ सहजनेकी छाल, रसौत, सञ्चल (काला नमक ), मलोद्भवाश्च ये केचिद्विशेषेण जलाश्रयाः। जवाखार, सामुद्र लवण, सेंधा नमक, नागकेसर अवश्य निर्जरा देहा भविष्यन्ति न संशयः ।। गठीवन, बिड लवण और नागरमोथा समान भाग __ क्वाथ-सूखी मूली, दशमूल, पीपलामूल मिश्रित २० तोले ले कर सबको एकत्र पानीके और पुनर्नवामूल (साठी) १-१ सेर ले कर सबको साथ पीस लें। अधकुटा करके ६४ सेर पानीमें पकावें और १६ २ सेर तेलमें यह कल्क, ८ सेर शहद, ८ । सेर शेष रहने, पर छान लें। सेर बिजौरेका रस और ८ सेर केलेका रस मिला कल्क- मूली, गिलोय, सेांट, पटोल, पीपल, कर पकाचे । जब पानी जल जाय तो तेलको बला ( खरैटी ), पाठा, पुनर्नवा (बिसखपरा) की छान लें। जड़, सुगन्धबाला, खस, सहजनेकी छाल, संभाल्छ, यह तैल कर्णशूल, बधिरता, कर्णनाद, पीप भांग, श्यामा लता, करञ्ज, अडूसा, पीपल, हरे, आना और कर्ण कृमियोंको शीघ्र ही नष्ट | बच, पोखरमूल, रास्ना, बायबिडंग, चव्य, हल्दी, करता है। । दारु हल्दी, धनिया, जवाखार, सजीखार, सेंधा For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि नमक, देवदारु, पनाक, कचूर, गजपीपल, बेलकी सेर, सम्भालका रस २ सेर, दशमूलका काथ २ छाल और मजीठ २॥-२॥ तोले ले कर कल्क सेर, पारिभद्र (फरहद) की छालका काथ २ सेर, बनावें । पुनर्नवाका काथ या रस २ सेर, करन पत्रका रस ४ सेर तेलमें उपरोक्त काथ, ४ सेर गोमूत्र २ सेर और बरनेकी छालका काथ २ सेर । और कल्क मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय कल्क-सांठ, काली मिर्च, सेंधा नमक, तो तेलको छान लें। पुनर्नवा, मकोय, लिहसोड़ेकी छाल, पीपल, गज इसकी मालिशसे वातज, पित्तज, कफज और पीपल, कायफल, पोखरमूल, काकड़ासिंगी, रास्ना, मलजनित तथा विशेषतः दुष्ट जल-विकार-जनित जवासा, काला जीरा, हल्दी, दारु हल्दा, दो प्रअनेक प्रकारके शोथका नाश होता है । कारका करंज, अनन्तमूल और श्यामा लता (७४१९) शुष्कमूलाचं तेलम् (४) (बृहद्) २॥२॥ तोले ले कर कल्क बनावें । (भै. र. । शोथा.) २ सेर तेलमें उपरोक्त समस्त द्रव पदार्थ शुष्कमूलरसमस्यं शिग्रुधुस्तूरयोस्तथा । और कल्क मिला कर पकावें जब पानी जल जाय सिन्धुवाररसप्रस्थं दशमूलरसं तथा ॥ तो तेलको छान लें। पारिभदरसमस्थं वर्षाभूप्रस्थमेव च। इसकी मालिशसे वातकफज, सन्निपातज और करस्य रसपस्थं प्रस्थं वरुणकस्य च ॥ विरुद्ध भेषजके सेवनसे उत्पन्न शोथ, उदर रोग, तैलमस्यं समादाय भिषग्यत्राद्विपाचयेत् । वास, व्रणशोथ, नेत्रशूल, कामला, पाण्डु और अन्य कल्कैर पलैरेतैः शुण्ठीमरिचसैन्धवैः ।। कफज तथा सन्निपातज रोग नष्ट होते हैं । पुनर्नवा काकमाची शेलुत्वक पिप्पलीयुगैः । (७४२०) शूलगजेन्द्रतैलम् कटफलं पौष्करं शृङ्गी रास्ना यासच कारवी॥ (भै. र. ; धन्य । शुला. ) हरिद्राद्वयपूतीकद्वयानन्तायुगैः पृथक् । एरण्डं दशमूलश्च प्रत्येक पलपञ्चकम् । तत्साधुसिद्धं विज्ञाय शुभे भाण्डे निघापयेत् ॥ जले चाष्टगुणे पक्त्वा तैलस्यादिकं पचेत् ।। वातश्लेष्मकृतं दोष समिपातभवं तथा। विश्वं जीरं यमानीश्च धान्यकं पिप्पली वचाम्। निहन्ति सर्व शोथमदरश्वासनाशनम् ॥ सैन्धवं बदरीपत्रं प्रत्येकच पलद्वयम् ॥ विरुद्धभेषजभवं शोथमाशु व्यपोहति । यवकायः पयश्चैव तैलाइयं गुणद्वयम् । व्रणशोथालिशूलघ्नं कामलापाण्डुनाशनम् ॥ तैलमेतन्महातेजो नाम्रा शूलगजेन्द्रकम् ।। ये चान्ये व्याधयः सन्ति श्लेष्मजाः सभिपातजा निहन्त्यष्टविधं शूलमुपद्रवसमन्वितम् ।। तान् सर्वानाशगत्याशु सूर्यस्तम इवोदितः ॥ अग्निमदं वमिहरं श्वासकासारुचीर्जयेत् ॥ द्रव पदार्थ-सूखी मूलीका काथ २ सेर, ज्वरघ्नं रक्तपित्तनं प्लीहगुल्मविनाशनम् । सहंजनेकी छालका काथ २ सेर, धतूरेका रस २ श्रीमद गहननाथेन निम्मितं विश्वसम्पदे ॥ For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] पञ्चमो भागः क्वाथ-(१) २५ तोले अरण्डमूल और (७४२२) शैलेयतैलम् २५-२५ तोले दशमूलकी प्रत्येक वस्तु ले कर | (च. सं.। चि. अ. १७; ग. नि. । सबको १६ गुने पानीमें पका और चौथा भाग श्ययथ्व. ३३ ; धन्य.; व. से.; वृ. मा. । शोथा.) शेष रहनेपर छान लें। शैलेयकुष्ठागुरुदारुकौन्ती(२) ४ सेर जौको १२ सेर पानीमें पकावें ___त्वपकैलाम्बुपलाशमुस्तैः । और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। मियोणेयकहेममांसीकल्क-सांठ, जीरा, अजवायन, धनिया, तालीसपत्रप्ल्वपत्रधान्यैः ।। पीपल, बच, सेंधा और बेरीके पत्ते १०-१० तोले श्रीवेष्टकध्यामकपिप्पलीभिः ले कर कल्क बनावें। स्पृकानखैश्चैव यथोपलाभम् । ४ सेर तेलमें उपरोक्त काथ और कल्क तथा वातान्वितेऽभ्यङ्गमुचन्ति तैलं ८ सेर दूध मिला कर पकावें । जब पानी जल सिदं मुपिष्टैरपि च प्रदेहम् ॥ जाय तो तेलको छान लें। भूरिछरीला, कूठ, अगर, देवदारु, रेणुका, यह तेल उपद्रवयुक्त आठ प्रकारके शूलोंको दालचीनी, पभाक, इलायची, सुगन्ध बाला, पलाश, नष्ट करता है तथा वमन, श्वास, कास, अरुचि, नागरमोथा, फूलप्रियंगु, थुनेर, जटामांसी, तालीसज्वर, रक्तपित्त, प्लीह और गुल्ममें भी उपयोगी है। पत्र, केवटीमोथा, तेजपात, धनिया, श्रीवेष्ठक, अग्निवर्द्धक है । ध्यामक, पीपल, स्पृक्का और नखी; इनमेंसे जितने | पदार्थ मिल सकें उनके क्वाथ और कल्कसे तेल (७४२१) शृङ्गाबेरादितैलम् सिद्ध कर लें। ( वृ. नि. र. । कर्ण.) यह तेल या इन औषधोंका लेप लगानेसे शृङ्गाबेररस: क्षौद्रं सैन्धवं तेलमेव च । वातज शोथ नष्ट होता है। कदूष्णं कर्णयोर्धायमेतत्स्यादिनापहम् ... __ अदरकका रस १ सेर, शहद १ सेर, सेंधा (७४२३) शोथशार्दूलतैलम् नमक ५ तोले और सरसोंका तेल ४० तोले ले कर | ( मै. र. । शोथा. ; धन्व.) सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब तेल मात्र शेष धुस्तूरो दशमूलञ्च सिन्धुवार जयन्तिका । रह जाय तो छान लें। पुनर्णका करअश्च षट्पलानि प्रगृह्य च ॥ इसे मन्दोष्ण करके कानमें डालनेसे कर्णपीड़ा | जलद्रोणे विपक्तव्यं ग्राह्यं पादावशेषितम् । नष्ट होती है। | प्रस्थश्च कटुतैलस्य कल्कान्येतानि दापयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि रास्ना पुनर्णवा दारु मूलकं नागरं कणा। तिळतैलं क्वाथपादं तैलाई माहिषं घृतम् । सिद्धं तैलवरं ह्येतनाशयत्याशु सेवनात् ॥ स्नेहशेष पचेत्तैलं नस्यैश्च मासमात्रकैः ॥ शोथं सुदारुणं घोरं वातपित्तकफोद्भवम् । बालस्त्रीबद्धनारीणां यौवनं कुरुते धुवम् ॥ असाध्यं सर्वदेहस्थं सभिपातसमुद्भवम् ॥ श्यामालता, हल्दी, खरैटीकी जड़, धानकी श्लीपदश्च ज्वरं पाण्डं कृमिदोषं विनाशयेत् । खील और सेंधा नमक १६-१६ तोले ले कर क्लिनत्रणप्रशमनं नाडीदुष्टवणापहम् ।। सबको ८ सेर पानीमें पकावें और २ सेर शेष शोयशार्दूलकं तैलं बलवर्णप्रसादनम् ।। रहने पर छान लें। __ क्वाथ-धतूरा, दशमूल, संभालु, जयन्ती, आधा सेर तिलके तेलमें यह क्वाथ और पुर्नना और करन ३०-३० तोले ले कर सबको पाव सेर भैंसका घी मिलाकर पकावें। जब पानी ३२ सेर पानी में पकावें और ८ सेर शेष रहने पर | जल जाय तो स्नेहको छान लें । छान लें। इसकी नस्यसे बालक, स्त्री और वृद्धोंका कल्क-रास्ना, पुनर्नवा, देवदारु, सूखी स्वास्थ्य स्थिर रहता है । मूली, सेठि और पीपल, समान भाग मिश्रित २० (७४२५) श्योनाकतेलम् तोले ले कर कल्क बनावें। (व. से. । कर्ण. ; वृ. नि. र. । कर्ण.) २ सेर सरसेके तेलमें यह कल्क और काथ तैलं श्योनाकमलेन मन्दानी परिसाधितम् । मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको | हरेदार त्रिदोषोत्यं कर्णशूलं प्रपूरणात् ।। छान लें। __ अरलुकी जड़की छालके कल्क और काथसे यह तेल वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज सिद्ध तैल कानमें भरनेसे त्रिदाषज कर्णशूल नष्ट सर्व देहगत भयंकरसे भयंकर शोथको भी नष्ट कर होता है । देता है । इसके अतिरिक्त यह श्लीपद, ज्वर, पाण्डु, __ (७४२६) श्रीगोपालतैलम् कृमिदोष, क्लिन्न ब्रण और दुष्ट नाड़ी ब्रणमें भी उपयोगी है । तथा बल वर्णकी वृद्धि करता है । ( भै. र. । वाजीकर.) रसादकं शतावर्याः कृष्माण्डामलयोस्तथा। (७४२४) श्यामाद्यतैलम् वाजीगन्धासहचरबलानाश्च शतं पृथक् ।। ( धन्व. ; र. र. । बालरोगा.) परिपच्याम्भसां द्रोणे पादशेषेऽवतारयेत् । श्यामा निशा बला लाजा लवणं क्वाथये- पश्चमूलं महद् व्याघी मूर्वा केतकपूतिका ।। त्समम् । पारिभद्रश्च सर्वेषां ग्राह्यं दशपलं शुभम् । तोये चतुर्गुणे पाच्य पादशेष समाहरेत् ॥ काथयित्वा जलद्रोणे तत्पादमवशेषयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] भादर तिलतैलस्य कल्कैरेतैश्व सम्पचेत् । eeier चोरyour पद्मकं कण्टकारिका ॥ बालागुरु घनं पूति शिडकागुरुचन्दनम् । चन्दर्न त्रिफला मूर्ती जीवनीयकदुत्रयम् ॥ पूतिकुङ्कुम कस्तूर्याश्वातुर्जातश्च शैलजम् । नखमुस्तघृणालान नीलोत्पलमुशीरकम् ॥ मांसी मुरा सुरतरुचा दाडिमतुम्बुरु | ऋद्धिर्बुद्धिर्दमनकं भुप्रैलार्द्धपलं पृथक् ॥ एतैलरंहन्ति पित्तकफोद्भवान् । व्याधीनशेषान् जनयेत् स्मृतिं मेधां धृतिं धियम्॥ बातरोगान् विशेषेण प्रमेहान् हन्ति विंशतिम् गर्भे संस्थापयेत्स्त्रीणां सर्व शूलं व्यपोहति ॥ मूत्रकृच्छ्रमपस्मारमुन्मादान् निखिलानपि । स्थविरोऽपि जराजीर्णस्तैलस्यास्य निषेवणात् ॥ लीलया प्रमदानाञ्च उन्मदानां शतं जयेत् ! तिष्ठेद्यस्य गृहे श्रीगोपालाभिषं शुभम् ॥ न तत्र यूताः सर्पन्ति न पिशाचा न राक्षसाः । न दारिद्रयं भवेत्तस्य विघ्नः कश्विन जायते ॥ eferri निर्मितं ह्येतद्विश्व कल्याणहेतवे ॥ । द्रव पदार्थ -- (१) शतावर का रस ८ सेर, ठेका रस ८ सेर और आमलोंका रस ८ सेर । (२) ६। सेर असगन्धको ३२ सेर पानीमें बकाकर ८ सेर शेष रक्खें । (३) झिण्टीमूल ६ | सेर लेकर ३२ सेर पानी में पकावें और ८ सेर रहने पर छान लें । पञ्चमो भागः ६७ (५) बेल छाल, अरलुकी छाल, सम्भारी छाल, पाढल छाल, अरणी, कटेलीकी जड़, मूर्वामूल, केवड़ेकी जड़, खट्टाशी ( जुन्दवेदस्तर ), और पारिभद्र (फरइद) की छाल ५०-५० तोले लेकर सबको कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें । (४) खरैटीकी जड़ ६ | सेर लेकर ३२ सेर पानी में पकायें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलक -- असगन्ध, चोरपुष्पी ( चोरहोली ), पद्मक, कटेली, खरैटी, अगर, नागरमोथा, खट्टाशी, शिलारस, अगर, सफेद चन्दन, लालचन्दन, हर्र, बहेड़ा, आमला, मूर्वा, जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जोवती, मुलैठी, सौंठ, मिर्च, पीपल, खड्डाशी, केसर कस्तूरी, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, छारछरीला, नखी, नागरमोथा, मृणाल ( कमलनाल ), नीलोत्पल, खस, जटामांसी, मुरामांसी, देवदारु, बच, अनारकी छाल, धनिया, ऋद्धि, वृद्धि, दमनक और छोटी इलायची २॥ -२॥ तोले लेकर कल्क बनावें । ८ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त सम्पूर्ण द्रव पदार्थ और कल्क मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें 1 इस तेल के मर्दन से वातज, पित्तज तथा कफज; सम्पूर्ण रोग नष्ट होते हैं एवं स्मृतिशक्ति, मेधा, धृति तथा बुद्धि बढ़ती है। इसके सेवन से वातरोग तथा विशेषतः बीसों प्रमेह नष्ट होते हैं । यह तैल गर्भस्थापक है तथा शुल, मूत्रकृच्छ्र, अपस्मार, उन्मादः प्रभृति रोगों को नष्ट करता है। इस तैल के प्रयोग से जराजीर्ण वृद्ध पुरुष भी १०० खियों से रमण करने में समर्थ होजाता है । इस For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - भारत-भैषज्य-रत्नाकरः ।शकारादि तैल की दो तीन बूद लिङ्ग पर मर्दन करने से | मुस्तकं चन्दनोदीच्यं सरलं देवदारु च । ध्वजभङ्ग नष्ट होता है । जिस गृह में श्रीगोपाल | मञ्जिष्ठां चन्दनं कुष्ठमेला तगरपादिकम् ॥ तैल हो वहां भूत, पिशाच तथा राक्षस आदि । मांसी शैलेयकं पर्व प्रियॉ शारिवां वचाम् नहीं जाते एवं दरिद्रता तथा कोई विघ्र नहीं होता। शतावरीमश्वगन्धां शतपुष्पा पुनर्नवाम् ।। अगत के कल्याण के लिये इस तेल का अश्विनी तसिद्ध स्थापयेत्कुम्भे मासमेकं मुरक्षिते । कुमारों ने निर्माण किया था। बिल्वतैलमिदं श्रेष्ठमम्लपित्तकुलान्तकृत् ॥ (७४२७) श्रीपर्णीतैलम् शूलमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यं न संशयः । ( भै. र.; च. द.; धन्व.; वृ. नि. र. । स्त्रीरोगा.) | सूतिकारोगशमनं गर्भदं शुक्रवर्द्धनम् ॥ हस्तपादशिरोदाहं दौर्बल्यं कृशता तथा । श्रीपर्णी रसफस्काभ्यां तैलं सिद्धं तिलोद्भवम्। प्राणीगुल्महिकातिरक्तपित्तज्वरं जयेत् ॥ तलं तूलकेनैव स्तनस्योपरि धारयेत् ॥ क्वाय-६। सेर कच्चे बेलके गूदेको ३२ पतिताऽस्थिती स्त्रीणां भवेयातां पयोधरौ।। सेर पानीमें पकायें और ८ सेर शेष रहने पर गजकुम्भसमाकारापुत्पनी परिमण्डलो ।। छान लें। गम्भारीकी छालके क्वाथ और कल्कसे सिद्ध अन्य पदार्थ-आमलोंका रस २ स.. तिल तैलमें रुई भिगोकर स्तनों पर रखनेसे पतित और बकरीका दूध ४ सेर । और शिथिल स्तन दृढ़ और पुष्ट हो जाते हैं। फरक-आमला, लाख, हर्र, नागरमोथा, काथार्थ-छाल २ सेर, पानी १६ सेर, सफेदचन्दन, सुगन्धवाला, चीर, देवदारु, मजीठ, शेष ४ सेर । लालचन्दन, कूठ, इलायची, तगर, जटामांसी, छार छरीला, तेजपात, फूलप्रियंगु, शारिवा, बच, कल्कार्य-छाल १० तोले। शतावर, असगन्ध, सोया और पुनर्नवा समान तिकतेल-१ सेर। भाग मिश्रित २० तोले लेकर कल्क बनावें । (७४२८) श्रीबिल्वतैलम् २ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त क्वाथ, द्रव पदार्थ और कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । ( भै. र. । अम्लपित्ता.) अब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। तत्पबालबिल्व पलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् ।। श्चात् उसे पात्रमें भरकर उसका मुख बन्द करके पादावशेषे तस्मिस्तु तैलपस्थं विपाचयेत् ॥ | रख दें और १ मास पश्चात् काममें लावें । धात्रीरसं तैलसमं विगुणं छागदुग्धकम् । यह तेल अम्लपित्त, आठ प्रकारके शूल, कल्कीकृत्य पचेद्धीमान् धात्री लाक्षां तथापयाम॥ सूतिकारोग, हाथ पैर और शिरकी दाह, दुर्बलता, For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org तैलप्रकरणम् 1 कृशता, ग्रहणीरोग, गुल्म, हिक्का, रक्तपित्त और ज्वरको नष्ट करता है तथा गर्भदाता और शुक्र वर्द्धक है । पश्चमी भागः ( ७४२९) श्लेष्मान्तकादितैलम् ( रा. मा. । शिरो.) श्लेष्मान्तकाक्षपिचुमन्दककामिनीनां कामस्य यदि वाऽपि हरीतकीनाम् । तैलं निहन्ति पलितान्युपयुक्तनस्यं गोक्षीरभोज्यनिरतस्य सदैव पुंसः ॥ ल्हिसोड़े, नीम, दारुहल्दी, गम्भारी और हर्रमेंसे किसी एकके बीजोंका तेल निकलवाकर, नित्य प्रति उसकी नस्य लेने और गोदुग्धपर रहनेसे पलित रोग नष्ट होता है । ( ७४३० ) श्वा दितैलम् ( वं. से. । वातव्या.) श्वदंष्ट्रा स्वरसं तैलं क्षीराढकसमन्वितम् । शृङ्गवेरं पलान्पञ्च विंशद्गुड पलानि च ॥ सिद्धमेकत्र तत्तैकं गृध्रस्यां पादकम्पने । पृष्ठग्रहे शोधे शस्तं वातविकारिणाम् । बन्ध्यानां गर्भजननं रेतो दोषापकर्षणम् । बस्ती पाने हितश्चैव विशेषान्मूत्रकृच्छ्रणाम् ।। कल्क - अदरक २५ सोले और गुड़ १०० तोले लेकर कल्क बनावें । ८ सेर तेलमें यह कल्क और ८ सेर गोरुका रस तथा ८ सेर दूध मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे पीने और इसकी बस्ति लेनेसे गृमसी, पादकम्पन, कटिग्रह, पृष्ठप्रह, शोथ, और अन्य वातज रोगोंका नाश होता है । यह तेल बन्ध्यत्व, वीर्यविकार और मूत्रकृच्छ्रमें विशेष उपयोगी है । t ( ७४३१) श्वित्रगजसिंहतैलम् ( र. चि. म. । स्त. ४ ) लाङ्गली मूलतोयं स्याद्दशमूलरसं पुनः । ज्वालामुखीरसो ग्राह्यो नीलिकाजलपानयेत् ॥ गिरिकर्णीरसं चैव कुमारीरसमानयेत् । तिलतैलं तथा ग्राह्यं समं तेन रसेन च ॥ कासीसं राजिकाम्पिल्लं यवक्षारश्च टङ्कणम् स्वर्जिकार्कस्य दुग्धं च सेहुण्डस्य पयस्तथा ॥ रसाअनमतिश्लक्ष्णं भृंगराजरसस्तथा । भल्लातकफलान्येव निम्नबीजानि यानि च ॥ त्रिफलाया रसः सिद्धः शुद्धं तक्रं गवामिह । लोहचूर्ण तथा शुद्धं विंशत्यंशेन योजयेत् ॥ पक्त्वा तैलं शुभं ग्राह्यं लेपनीय वपुः सदा । धर्मे स्थेयं खरे गाढं पूर्वमुक्तं च भोजनम् ॥ अवश्यं च विलीयन्ते श्वित्रकुष्ठानि सर्वया दर्भे शय्या प्रकर्तव्या मनसा निश्वलेन च ॥ ब्रह्मचर्य निषेवेत दानं देयं स्वशक्तितः । मोक्षणं वध्यसत्त्वानां दया सर्वेषु जन्तुषु ।। स्वर्णोपमा तस्य शरीरकान्तिर्धत्ते बलं मत्तगजस्य कामी । त्यक्तश्च यो वैद्यशतैः सहसैः श्वित्री भवेदेव पवित्रताङ्गः ।" 1 For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - - 'भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि चित्रेभसिंहाभिधतैलयोगानरः प्रमुच्येत सम- । (७४३२) शिवत्रहरतलम् - स्तकुष्ठात् । (र. चि. म. । स्त. ४) यावन्तो हि मया प्रोक्ता प्रयोगाः कुष्ठनाशनाः ।। त्रिफलाकायतः पायाः कर्तव्याः सूतवेदिभिः॥ मनःशिलार्कसेहुण्डपयो नीलिरसस्तथा। | गन्धकं हरितालं च कासीसं हयमारकः॥ कलियारीकी जड़का रस २ सेर, दशमूलका चित्रकं तुत्यकं मुस्तां मरिच रजनीद्वयम् । क्वाथ २ सेर, हुलहुलका रस २ सेर, नीलका स्वरस त्रिफला भृराजश्च लागली दहनस्तथा ॥ २ सेर, कोयलका स्वरस २ सेर, घीकुमारका रस २ सेर, तिलका तेल २ सेर तथा कसीस, राई, नीलोत्पलस्य कन्दं च लोहचूर्ण च बाकुची । कमोला, जवाखार, सुहागा, सज्जीखार, आककादूध, | बीजं शेफालिकायाश्च विषं क्षारत्रयं समम् ।। सेहुंड (थूहर)का दूध, रसौत, भंगरेका रस, भिलावेके | गिरिकन्या देवदाली तैलं ज्वालामुखीरसः । फल, नीमके बीज, त्रिफलाक्वाथ, गायका तक अपुन्नाटरसं दत्त्वा तैलं पाच्य प्रयत्नतः ।। और शुद्ध लोहचूर्ण समान भाग मिश्रित ८ तोले । घमें स्थित्वा च ततैलं तनौ संलेपयेत्ततः। लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें और पानी | धर्म स्येयं द्वियामं हि चित्रनाशे तदुत्तमम् ॥ जल जाने पर तेलको छान लें। शनैः शनैः खरे धर्मे चित्रं कृष्णं भविष्यति । इस तेलको श्वेतकुष्ठके स्थान पर मल कर यदि वर्षसहस्त्रस्य भवेच्छि तथापि किम् ॥ थोड़ी देर तेज़ धूपमें बैठना और कुष्ठ रोगोचित प्रणश्यत्पतिवेगेन तेलवार्ताकभक्षिणः।। पथ्य पालन करना चाहिये। माषामभोजिनः कारखेलकर्कोटकाशिनः ॥ ___ यह तेल सैंकड़ों वैद्योंसे त्यक्त भयंकर श्वेत मण्डलानि प्रणश्यन्ति तथा सिध्मानि नाशयेत् । गजचर्माणि दहूणि पामाश्चापि विनाशयेत् ॥ कुष्ठको भी पूर्णतः नष्ट कर देता है। रकसां सहसा हन्यात्परिसपं च दारुणम् । इसके प्रयोगकालमें दाभकी शय्या पर सोना नकाशन कान्तिसुतं तदने न कामदेवो मदऔर ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये । यथाशक्ति मादधाति॥ दान देना और मारने के लिये कैद किये हुवे न कुडमस्यापि चकास्ति वर्णः तत्तैलसेवी हि प्राणियोंको मुक्त कर देना चाहिये । एवं समस्त __ भवेत्सुरूपः॥ जीवोंके प्रति दया भाव रखना चाहिये। कल्क-मनसिल, आकका दूध, सेहुंड हमारे ( रसचिन्तामणिकारके ) बतलाए हुवे (थूहर)का दूध, नीलका रस, गन्धक, हरताल, कुष्ठनाशक प्रयोग त्रिफलाक्वाथके साथ सेवन | कसीस, कनेरकी जड़, चीतामूल, नीलाथोथा, कराने चाहिये। नागरमोथा, कालीमिर्च, हल्दी, दारुहल्दी, हर्र, For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] पश्चमी भागः - बहेड़ा, आमला, भंगरा, कलियारीकी जड़, भिलावा, एतैस्तैलं सिद्धं कल्कैः पादांशकैगवां मूत्रम् । नीलात्पलका कन्द, लोहचूर्ण, बाबची, हारसिंहारके | दत्त्वा तेलचतुर्गुणमभ्यङ्गात्कुष्ठकण्डूघ्नम् ।। बीज, बछनाग, जवाखार, सज्जीखार, और सुहागा कल्क-सफेद कनेरके पत्ते और मूलकी समान भाग मिश्रित ३० तोले लेकर कल्क बनावें। छाल तथा पुष्प; चीता, बायबिडंग, कूठ, आककी ३ सेर तेलमें यह कल्क और ३-३ सेर जड़, सरसों, सहजनेकी छाल और कुटकी समान कोयलका स्वरस, देवदाली (बिंडाल ) का रस भाग मिश्रित २० तोले लेकर कल्क बनावें । तथा कलियारी ( अथवा हुलहुल ) और पंमाड़का २ सेरे सरसोंके तेलमें यह कल्क और ८ सेर रस मिलाकर पकावें। जब पानी जल जाय तो गोमूत्र मिलाकर पकावें । जब गोमूत्र जल जाय तो तेलको छान लें। तेलको छान लें। ___ धूप में बैठकर श्वेतकुष्ठ पर इस तेलको मालिश | इसकी मालिशसे दुष्ठ और कण्डूका नाश करनी और दो पहर धूपमें बैठना चाहिये। होता है। ___ इस प्रकार इसे लगाकर तेज धूपमें बैठनेसे ! (७४३४) श्वेतकरवीराचं तैलम् (२) धीरे धीरे कुष्ठका रंग काला हो जाता है । (व. से. । कुष्ठा.) यदि सहस्र वर्षका पुराना कुष्ठ हो तो भी श्वेतकरवीरमूलं विषांशसाधितं गवां मृत्रे । चिन्ताकी बात नहीं है क्यों कि इस तेलसे वह भी | चर्मदलसिध्मपामाविस्फोटकिटिभजितलम् ॥ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। १०-१० तोले सफेद कनेरकी जड़ और पथ्य-तेल, बैंगन, उड़द, करेला और | बछनागका कल्क, ८ सेर गोमूत्र और २ सेर सरसोंका तेल एकत्र मिला कर पकावें । जब गोमूत्र ककोड़ा। जल जाय तो तेलको छान लें । यह तेल मण्डल कुष्ठ, सिध्म, गजचर्म, दाद, यह तेल चर्मदल, सिम्म, पामा, विस्फोटक पामा, रकसा, और वीसर्पको भी नष्ट करता है। और किटिभ कुष्ठको नष्ट करता है। इसके उपयोगसे शरीरकी कान्ति अत्यन्त सुन्दर (७४३५) श्वेतकरवीराय तलम् (३) हो जाती है। (ग. नि. । कुष्टा. ३६) (७४३३) श्वेतकरवीरादा तैलम् (१) (१) श्वेतकरवीरकरसो गोमूत्रं चित्रको विडङ्गं च । (ग. नि. । तेला. २) कुष्ठे तु तैलयोगः सिद्धोऽयं सम्मतो भिषजाम् । श्वेतकरवीरपल्लवमूलत्वपुणचित्रकविडङ्गानि। सफेद कनेरका रस ४ सेर, गोमूत्र ४ सेर, कुष्ठार्कमूलसर्षपशिग्रुत्वग्रोहिणीकटुकाः॥ सरसांका तेल २ सेर तथा चीते और बायबिडंगका For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर [शकारादि कल्क १०-१० तोले ले कर सबको एकत्र मिला- श्वेत सारिवा, बायबिडंग, दन्तीमूल और कर पकावें। सेंधानमक २॥२॥ तोले ले कर कल्क बनावें । यह तेल कुष्ठको नष्ट करता है। १ सेर तिलके तैलमें यह कल्क और इन्हीं (७४३६ ) श्वेतादितैलम् ओषधियांका ४ सेर क्वाथ मिलो कर पकावें । जब (वृ. मा. । मुखरो.) पानी जल जाय तो तेलको छान लें। श्वेताविडादन्तीषु तैलं सिद्ध ससैन्धवम् । । इसकी नस्य लेने और इसीके कवल धारण नस्यकर्मणि दातव्यं कवलश्च कफोच्छूये॥ | करनेसे कफज गलशुण्डिका रोग नष्ट होता है । इति शकारादितैलप्रकरणम् अथ शकाराणसवारिष्टप्रकरणम् (७४३७ ) शर्करासवः सबको कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर (ग. नि. । आसवा. ६ ; वृ. नि. र. । ग्रहण्य.; शेष रहने पर छान लें । तदनन्तर जब वह ठण्डा हो जाय तो उसमें ६। सेर खांड मिला दें एवं यो. र. । अर्शो.) पीपल, चव्य और फूलप्रियंगुके चूर्णमें शहद तथा दुरालभायाः प्रस्थं च चित्रकस्य वृषस्य च ॥ घी मिलाकर उसे घृतसे चिकने किये हुवे मटके में पथ्यामलकयोश्चैव पाठाया नागरस्य च ।। पोत दें और उसमें उपरोक्त औषध भर कर उसका दचाद् द्विपलिकान्भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत् ।। मुख बन्द कर दें। १५ दिन पश्चात् आसवको पादशेषे रसे पूते मुशीते शर्कराशतम् ।। निकालकर छान लें। दत्त्वा कुम्मे रढे स्थाप्यं मासाधं घृतभाजने ॥ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्श, पलिप्ते पिप्पलीचव्यपियामधुसर्पिषा ।। संग्रहणी, उदावर्त, अरुचि, मलावरोध, मूत्ररोध, तस्य मात्रां पिवेत्काले शार्करस्य यथावलम् ॥ अपानवायुका रुकना, डकारोंका बन्द होना, अग्नि अर्शीसि ग्रहणीरोगमुदावर्तमरोचकम् । मांध, हृद्रोग और पाण्डुका नाश होता है। शकुन्मत्रानिकोद्वारविचन्धाननिमार्दवम् ॥ (७४३८ ) शारिवाद्यासवः हृद्रोगं पाण्डुरोगं च सर्वमेतत्मसाधयेत् । । ( भैषज्य रत्नावलि । प्रमेहा.) ___ धमासा १ सेर और चीतामूल, बासा, हरं, शारिवा मुस्तकं लोधं न्यग्रोधं पिप्पलं शटीम् । आमला, पाठा और सांठ १०-१० तोले ले कर | अनन्ता पय बालं पाठां धात्री गुडूचिकाम् ।। For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः उशीरं चन्दनद्वन्द्वं यमानी कटुरोहिणीम्।। (७४३९) शिरीषारिष्टः पलमेलाद्वयं कुष्ठं स्वर्णपत्री हरीतकीप ।। ( भैषज्य रत्नावली । विषा.) एषां चतुःपलान् भागान् सूक्ष्मचूर्णीकृतान् | पचेत्तुलाः द्विद्रोणे शिरीषस्य जले सुधीः । शुभान । पादशेषे कषायेऽस्मिन् क्षिपेद्गुडतुलाद्वयम् ।। जलद्रोणद्वये क्षिप्त्वा दयाद् गुडतुलात्रयम् ॥ कृष्णा प्रिया कुष्ठुला नीलिनी नागकेशरम् । रजन्यो पलमानेन दद्यादत्र च नागरम् ॥ पलानि दश धातक्याः द्राक्षा षष्टिपलं भवेत् । मासं संस्थापयेद् भाण्डे संकृते मृणमये शुभे॥ मासाच जातरसं यथामात्र प्रयोजयेत । | शिरीषारिष्टमित्येतद् विषव्यापविनाशनम् ॥ शारिवाद्यासवस्यास्य पानान्मेहांश्च विंशतिः। ३ सेर १० तोले सिरसकी छालको ६४ सेर शराविकादयः सर्वाः पिडिकास्तत्कृताश्च याः।। पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। औपदंशिकरोगाश्च वातरक्तं भगन्दरम् । तदनन्तर उसमें १२॥ सेर गुड़ तथा ५-५ तोले सर्व एते शमं यान्ति व्याधयो नात्र संशयः ॥ पोपल, फूलप्रियंगु, कूठ, इलायची, नीलकी जड़, नागकेसर, हल्दी, दारुहल्दी और सोंठका चूर्ण सारिता, नागरमोथा, लोध, बरगदकी छाल, मिला कर सबको मृत्पात्रमें बन्द करके रख दें और पीपल वृक्षकी छाल, कचूर, अनन्तमूल, पनाक, | एक भास पश्चात् निकाल कर छान लें । सुगन्धबाला, पाठा, आमला, गिलोय, खस, सफेद यह अरिष्ट विषविकारोंको नष्ट करता है। चन्दन, लालचन्दन, अजवायन और कुटकी, ५-५ तोले तथा छोटी और बड़ी इलायची, कूठ, सनाय एवं (७४४०) श्रीखण्डासवः हर्र २०-२० तोले ले कर सबको एकत्र बारीक (भैषज्यरत्नावलि । पानात्यया.) कूट लें । तदनन्तर एक मटकेमें ६४ सेर पानी | श्रीखण्डं मरिचं मांसी रजन्यौ चित्रकं घनम। डालकर उसमें यह चूर्ण और १८।। सेर गुड़, ५० उशीरं तगरं द्राक्षा चन्दनं नागकेसरम् ।। तोले धायके फूल तथा ३॥ सेर मुनक्का डाल कर पाठां धात्री कणां चव्यं लवङ्गलवालुकम् । उसका मुख बन्द कर दें और १ मास पश्चात् लोध्रश्चार्धपलं तत्र गुडस्य च तुलात्रयम् ॥ निकालकर छान लें। धातकी द्वादशपलं चैकैकं परियोजयेत् । यह आसव २० प्रकारके प्रमेहों तथा शरा- | मासं संस्थाप्य मृद्भाण्डे वस्त्रपूतं रसं नयेत ॥ विकादि समस्त प्रमेहपिडिकाओंको नष्ट करता पाययेन्मात्रया वैद्यो वयोशक्त्याचपेक्षया । है। यह उपदंश, भगन्दर और वातरक्तमें भी पानात्ययं परमदं पानाजीर्णश्च नाशयेत् ॥ उपयोगी है। पानविभ्रममत्युग्रं श्रीखण्डासव आशु च ॥ For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भेषज्य-रत्नाकरः [शकारादि सफेद चन्दन, काली मिर्च, जटामांसी, हल्दी, | तोले धायके फूल मिला कर सबको मृत्पात्रमें भर दारुहल्दी, चीतामूल, नागरमोथा, खस, तगर, कर उसका मुख बन्द कर दें और १ मास मुनक्का, लाल चन्दन, नागकेसर, पाठा, आमला, | पश्चाद् निकाल कर छान लें। पीपल, चव्य, लौंग, एलवालक और लोध २॥ २॥ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे पानातोले ले कर सबको कूट लें । तदनन्तर ६४ सेर | त्यय, परमद, पानाजीर्ण तथा अत्युग्र पानविभ्रमका पानीमें यह पूर्ण और.१८॥ सेर गुड़ तथा ६० । नाश होता है। इति शकारावासवारिष्टप्रकरणम् | जाते हैं। अथ शकारादिलेपप्रकरणम् ( ७४४१ ) शङ्खचूर्णादिलेपः । दो भाग शंख चूर्ण और १ भाग पीली हर(च. द. । क्षुद्ररोगा. ; रा. मा. । शिरोरो. १) ताल ले कर दोनोंको शुक्त ( या कांजी ) में पीस कर लेप करनेसे योनि आदिके बाल गिर नवदग्धशङ्खचूर्ण काञ्जिकसिक्तं हि सीसकं धृष्ट्वा ।। (७४४२ अ) शादिलेपः (२) लेपाकचानर्कदलावबद्धान् (शा. सं. । उ. खं. अ. ११) शुभ्रान्करोति नीलतरान् ॥ शङ्खचूर्णस्य भागौ द्वौ हरितालं च भागिकम् । नवीन शंखकी भस्म और कांजीके साथ मनःशिला चार्धभागा स्वर्जिका चैकभागिका ॥ घिसा हुवा सीसा समान भाग ले कर दोनोंको लेपोऽयं वारिपिष्टस्तु केशानुत्पाटय दीयते । एकत्र कांजीमें पीस कर सफेद बालोपर लेप करें; अनया लेपयुक्त्या च सप्तवेलं प्रयुक्तया॥ और आकके पत्ते गंध दें। ( दूसरे दिन खोलकर निर्मूलं केशस्थानं स्यात् क्षमणस्य शिरो यथा ॥ आमलेके पानीसे धोकर तेल लगादें) शंखका बारीक चूर्ण २ भाग, हरताल १ भाग, मनसिल आधा भाग और सज्जी १ भाग ले इस लेपसे सफेद बाल काले हो जाते हैं। कर सबको पानीके साथ पीस लें । प्रथम बालोंको (७४४२) शङ्खादिलेपः (१) उखाड़कर उस जगह यह लेप लगा । ( जब एक बारका लेप सूख जाय तो उसे पानीसे धो ( व. से. । स्त्रीरोगा.) | डालें । और पुन: लेप लगावें। ) इस प्रकार सात शवचूर्णस्य भागों द्वौ हरितालश्च भागिकम् । | लेप करनेसे बालेकी जड़ें निकल जाती हैं और शुक्तेन सह संयुक्तं लोमशातनमुत्तमम् ॥ फिर कभी बाल नहीं निकलते । For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ___ (७४४३) शादिलेपः (३) सोया, मकोय, काले तिल और गोराचन ( वृ. मा. । गलगण्डा. ; व. से. । ग्रन्थ्य.) समान भाग ले कर सबको एक दिन हर के काथमें लेपनं शङ्खचूर्णेन सह मूलकभस्मना । | लोहेके खरलमें घोटें। कफार्बुदापहं कुर्याद्ग्रन्थ्यादिषु विशेषतः॥ बालोंपर तीन दिन इसका लेप करनेसे सफेद शंखचूर्ण और मूलीको भस्म समान भाग ले | बाल काले हो जाते हैं। कर पानीमें मिला कर लेप करनेसे कफज अर्बुद | (७४४७ ) शतपुष्पादिलेपः (२) और ग्रन्थ्यादिका नोश होता है। (७४४ ४) शणमूलादिलेपः (व. से. । आमवाता. ; वृ. यो. त. । त. ९३ ) ( यो. र. ; वृ. नि. र. ; व. से. । व्रणशोथा. ; शतपुष्पा बचा विश्वश्वदंष्ट्रा वरुणत्वचः । शा. सं. । खं. ३ अ. ११) | पुनर्नवा सदेवाहशठीमुण्डितिकाः समाः॥ शणमूलकशिगणां फलानि तिलसर्पपाः। प्रसारणी च तर्कारी फलश्च मदनस्य च । सक्तवः किण्वमतसी प्रदेहः पाचनः स्मृतः॥ शुक्तकाञ्जिकपिष्टाश्च सुखोष्णा लेपने हिता। सनके बीज, मूलीके बीज, सहजनेके बीज, सोया, बच, सोंठ, गोखरु, बरनेकी छाल, तिल, सरसों, जौका सत्तू, शराबकी गाद और पुनर्नवा (बिसखपरा), देवदारु, कचूर, मुण्डी, अलसी समान भाग ले कर पीस कर लेप लगानेसे प्रसारणी, अरनीमूल और मैनफल समान भाग ले कच्चा फोड़ा पक जाता है। कर बारीक चूर्ण बनावें। (७४४५) शतधौतसर्पिलेपः इसे कांजीमें पीस कर मन्दोष्ण करके लेप (पृ. नि. र. । विसर्प.) | करनेसे आमवात नष्ट होती है। सर्पिषा शतधौतेन कृतलेपो मुहुर्मुहुः। निहन्ति सर्ववीस पन्नगं पक्षिराडिव ॥ (७४४८) शतपुष्पादिलेपः (३) __ सौ बार धोये हुवे घृतका बार बार लेप | (ग. नि. । राजय. ९ ; यो. र.।) करनेसे सर्व प्रकारके विसर्प नष्ट हो जाते हैं। अतपुष्पा समधुकं कुष्ठं तगरचन्दने । (७४४६ ) शतपुष्पादिलेपः (१) आलेपनं स्यात्सघृतं शिरःपाश्वासशूलनुत् ।। (र. र. रसा. खं. । उप. ५) . सोया, मुलैठी, कूठ, तगर और लाल चन्दनशतपुष्पा काकमाची तिलाः कृष्णाश्च रोचनम का चूर्ण समान भाग ले कर सबको घृतमें मिला दिनं शिवाम्बुना सर्व मर्दयेल्लोहपात्रके ॥ कर लेप करनेसे शिर, पार्श्व और कंधोंका शूल वरले त्रिदिनं कुर्यास्केशानां रञ्जनं भवेत् ॥ | नष्ट होता है । For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि ( ७४४९) शतपुष्पादिलेपः घृतं विदारी च सितोपलांश्च (बृ. नि. र. । वातव्या.) युख्यात्मदेहं पवने सरक्त। शतपुष्पासुरद दिनेशपयो सोया, सौंफ, मुलैठी, खरैटीकी जड़, प्रियाल, गदरामसिन्धुभव हरति । कसेरु, विदारीकन्द और मिश्री समान भाग ले कर अपि लेपनतोऽस्थिगतं मरुतं सबको बारीक पीस कर धीमें मिलाकर लेप करनेसे कटिसन्धिभवं त्रिदिनात्सततम् ॥ वातरक्तका नाश होता है। सोया, देवदोरु, आकका दूध, कूल, हींग, (७४५२) शम्बूकयोगः और सेंधा नमक समान भाग ले कर बारीक (व. से. । वृद्धय. ; वृ. नि. र. । वृद्ध्य.) चूर्ण बनावें । शम्बूकोदरनिहितं गव्यं सप्ताहमातपे सपिः। इसे ( पानीमें पीसकर ) लेप करनेसे तीन स्थितमपहरति कुरण्डं सैन्धवचूर्णान्वितं लेपात्॥ दिनमें अस्थि, कटि, सन्धिगत वायुका नाश शंखके भीतर गायका घी भरकर उसका मुख होता है। | बन्द करके धूपमें रख दें और सात दिन पश्चात् (७४५०) शतावर्या दिलेपर निकाल कर उसमें (उसके बराबर) सेंधानमकका (वृ. मा.। शिरोरोगा.) चूर्ण मिला लें। शतावरी कृष्णतिलान्मधुकं नीलमुत्पलम् । इसका लेप करनेसे अण्डवृद्धिका नाश वीं पुनर्नवां चापि लेपं साध्ववचारयेत् ॥ होता है। शीततोयावसेकांश्च क्षीरसेकांश्च शीतलान् ॥ (७४५३ ) शरपुवादियोगः शतावर, काले तिल, मुलैठी, नीलोत्पल, दूर्वा (वृ. मा. । व्रणशोथा.) और पुनर्नवा समान भाग ले कर सबको (पानीमें) मधयुक्ता शरपुडा सर्वव्रणरोपणी कथिता ॥ पीस कर लेप करनेसे सूर्यावर्तका नाश होता है। सरफोंके के चूर्णको शहद में मिला कर लेप सूर्यावर्त में शिर पर शीतल जल और शीतल शीतल | करनेसे समस्त प्रकारके व्रण भर जाते हैं । दूध डालनेसे भी लाभ होता है । | (७४५४) शरपुडायोगः (१) (७४५१) शताहादिलेपः (वै. म. र. । पटल १७) ( व. से. । वातरक्ता. ; वृ. नि. र. । वातरक्ता.) अपच्यर्बुदयोः पूर्व रक्तं हत्वा जलौकसा । उभे शताहे मधुकं बला च शरपुत्राशिफां लिम्ज्ये ष्ठाम्भोभिः सुपेषिताम् प्रियालकश्चापि कशेरुकच। अपची और अर्बुद पर प्रथम जोंक लगवा For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org लेपप्रकरणम् ] कर रक्त निकलवानेके पश्चात् सरफोकेकी जड़को Train पानी में पीसकर लेप करना चाहिये । ( ७४५५ ) शरपुङ्खायोगः (२) ( वै. म. र. | पटल ११ ) जठरोपरि परिलिप्तं शरपुङ्खं पातयेद्धि कृमीन् । सरफोंके को पीसकर पेट पर लेप करने से कृमि निकल जाते हैं । पञ्चमो भागः ( ७४५६ ) शारिवादिलेप: (१) ( भै. र. ; धन्व. । शिरोरोगा . ) शारिवोत्पलकुष्ठानि मधुकं चाम्लपेषितम् । सर्पिस्तैलयुतो लेपः सूर्यावर्त्तार्धभेदयोः ॥ शारिवा, नीलोत्पल, कूठ और मुलैठी समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे कांजी में पीस लें । इसमें घी और तेल मिला कर मस्तक पर लेप करनेसे सूर्यावर्त और अधोवभेदका नाश होता है । ( ७४५७) शारिवादिलेप: (२) ( यो. र. १ शिरो. ) शारा मधुकवचाकृष्णोत्पलैस्तथा । लेपः काञ्जिकस्नेहः सूर्यावर्तार्धभेदयोः ॥ सारिवा, कूठ, मुलैठी, बच, पीपल और नीलोत्पल समान भाग ले कर सबको कांजीके साथ बारीक पीस कर घी या तेलमें मिला कर लेप करनेसे सूर्यावर्त और अधविभेदका नाश Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७ ( ७४५८ ) शालिपर्ण्यादिलेपः ( व. से. । स्त्रीरोगा . ) 1 मूलञ्च शालिपण्यस्तु पिष्टं वा तण्डुलाम्बुना । offeeस्तिभगापात्सुखं नारी प्रसूयते ॥ शालपर्णीक जड़को चावल के पानी के साथ पीस कर नाभि, बस्ति और योनिपर लेप करने से स्त्रीको कष्ट-रहित प्रसव हो जाता है। 1 ( ७४५९ ) शाल्मलीकण्टकादिलेपः (वृ. मा. | क्षुद्र. ) केवलान्यसा पिवा तीक्ष्णान् शाल्मलिकण्टकान आलिप्तं त्र्यहमेतेन भवेत्पद्मोपमं मुखम् ॥ के कांटांको दूधमें पीस कर लेप करनेसे २ दिनमें ही मुख कमल सदृश सुन्दर हो जाता है । शास्वणयोगः ( यो. र. । वातत्र्या. ) प्र. सं. ५७०० महा शाल्वण योग: देखिये ' ( ७४६० ) शिखरिलेपः ( वृ. मा. । कुष्ठा. ) शिखरिरसेन सुपिष्टं मूलकवीजं प्रलेपतः सिध्मम् क्षारेण कदल्या वा रजनीमिश्रेण नाशमेति ॥ For Private And Personal Use Only चिरविटे के रस में मूली के बीजोंको, अथवा केले के क्षार और हल्दीको एकत्र पीस कर लेप करनेसे सिम नष्ट हो जाता है | Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७८ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः ( ७४६१ ) शिग्रुत्वगादिलेपः (ग. नि. । श्वयध्व. २३) शिवस्वनक्तमालार्कदाय (मधमूलकैः । गोमूत्रयुक्तैः श्वयथुः प्रलेप्तव्यः कफाधिकः ॥ सइंजनेकी छाल, करञ्जकी छाल, आककी जड़, दारूहल्दी और अमलतासकी जड़ समान ले कर चूर्ण बनावें । भाग इसे गोमूत्र में पीस कर कफ प्रधान शोथ पर लेप करना हितकारी है । ( ७४६२) शिग्रुमूलादिलेप: (१) (व. से. | अर्बुदा. ) शिग्रुमूलकयोर्बीजं रक्षोघ्नं सरलं यवम् । अमारञ्च सम्पिष्य तक्रलेपोऽर्बुदादिजित् ॥ सहजने के बीज, मूली के बीज, सरसों, चीरका काष्ट, जौ और कनेरकी जड़ समान भाग चूर्ण बनावें । कर इसे तक में पीस कर लेप करनेसे अर्बुदादिका होता है। (७४६३) शिग्रुमूलादिलेपः (२) ( यो. र. । स्नायु.; यो त । त. ६७; वृ. यो त । त. १२४ ) शिग्रुमूलदलैः पिष्टेः काञ्जिकेन ससैन्धवैः । लेपः स्नायु रोगाणां शमनः परमः स्मृतः ॥ सहजनेकी छाल और पत्ते तथा सेंधा नमक [ शकारादि समान भाग ले कर सबको कांजीमें पीस कर लेप करनेसे स्नायुक (नहरने) का नाश होता है। ( ७४६४ ) शिवादिलेप: (१) ( भा. प्र. म. खं. २ । वातरक्ता . ) शिग्रुः सवरुणकरको धान्याम्नानिलार्तिजिल्लेपात् । भवति न वेति विकल्पो न विधेयः सिद्धयोगेऽस्मिन् ॥ सह जनेकी छाल और बरनेकी छालको कांजी में पीसकर लेप करनेसे वातरक्तकी पीड़ा नष्ट होती है। यह एक सिद्ध योग है । इसके विषय में सन्देह न करना चाहिये । (७४६५) शिवादि लेपः (२) ( भा. प्र. म. खं. २ | कर्णक सन्नि. ) शिराजिकयोः कल्कं कर्णमूले प्रलेपयेत् । कर्णमूलभवः शोथस्तेन लेपेन शाम्यति ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहजनेकी छाल और राईको पानी में पीस कर लेप करनेसे कर्णमूलकी सुजन नष्ट होती है । ( ७४६६) शिवादिलेप: (३) ( शो. सं. । खै. ३ अ. ११ ) शिग्रुशेफालिकैरण्डयवगोधूमसुद्गकैः । सुखोष्णो वहलो लेपः प्रयोज्यो वातविद्रधौ ॥ सहजनेकी छाल, हार सिंगारकी छाल, अरजौ, गेहूं और मूंग समान भाग ले कर ण्डमूल, चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपकरणम् ] पञ्चमो भागः ७९ इसे पानीमें पीस कर मन्दोष्ण करके गाढ़ा (७४६९) शिरीषवल्कलादिलेपः गाढ़ा लेप करनेसे वातज विद्रधि नष्ट होती है । (वृ. मा. । विस्फो.) (७४६७) शिरीषबीजादिलेपः शुफतरुनतमांसी रजनी पद्मं च तुल्यानि । (ग. नि. । अर्शो. ४) | पिष्टानि शोततोयेन स्याल्लेपः सर्वविस्फोटे ॥ शिरीषबीजसम्मिश्री लागली परिपेषिताम् । सिरसकी छाल, तगर, जटामांसी, हल्दी सम्यगालेपने दयादर्शसामुपघातिनीम् ॥ और कमल समान भाग ले कर बारीक चूर्ण सिरसके बीज और कलियारीकी जड़को बनावे । पानीके साथ पीस कर लेप करनेसे अर्श का नाश इसे ठण्डे पानी में पीस कर लेप करनेसे होता है। समस्त विस्फोटक नष्ट होते हैं। (७४६८) शिरीषवीजायं लेपत्रयम् । (७४७०) शिरीषादिलेपः (१) (ग. नि. । अर्शो. ४) ( यो. र. । विषा.) शिरीषबीजकुष्ठाकक्षीरपिप्पलिसैन्धवैः। मूलत्वपत्रपुष्पाणि बीजं चेति शिरीषतः । लालीमूलगोमूत्रस्वर्जिकादन्तिचित्रकैः॥ गवां मूत्रेण सम्पिष्टं लेपाद्विषहरं परम् ।। चरणायुधविशआनिशाकृष्णाभिरुत्तमम् । सिरसकी जड़, छाल, पत्र, पुष्प और बीजोंको लेपत्रयमिदं योज्यं शीघ्रमविनाशकृत् ॥ | गोमूत्र में पीस कर लेप करनेसे विष नष्ट (१) सिरसके बीज, कठ, आकका दूध, होता है । पीपल और सेंधा नमक समान भाग ले कर, सबको एकत्र पीस लें। ___ (७४७१) शिरीषादिलेपः (२) (२) कलियारीकी जड़, सजी, दन्तीमूल (वृ. मा. ; व. से. । विस्फोटा.) और चीता समान भाग ले कर सबको गोमूत्रके शिरीषोदम्बरी जम्बूः सेकालेपनयोहिताः। साथ पीस लें। | लेष्मातकत्वचो वाऽपि प्रलेपाश्च्योतने हिता। (३) मुरगेकी बीट (विष्टा), गुञ्जा (चौंटली) सिरसकी छाल, गूलरकी छाल और जामनकी हल्दी और पीपल समान भाग ले कर सबको पानीके छालका लेप करने तथा इनके काथका अवसेक साथ बारीक पीस कर लेप बनावें। (सिचन) करनेसे या लिहसौड़ेकी छालका लेप । ये तीनों लेप अर्शको शीघ्र ही नष्ट कर करने और उसके काथको आंखमें डालनेसे विस्फोटक में लाभ होता है। For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८० www. kobatirth.org भारत - भैषज्य - र ( ७४७२) शिरीषादिलेप: (३) (व. से. । विषा. ) शैरीषस्य च मूलं वा सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना ॥ अङ्कोटस्य वा मूलं बस्तमूत्रेण कल्कितम् । पानालेपनयोरुक्तं सर्वाखुविषनाशनम् ॥ सिसकी जड़को चावलोंके पानी में पीस कर शहद में मिला कर लेप करनेसे अथवा अङ्कोटकी जड़ को बकरेके मूत्रमें पीस कर लेप करनेसे एवं इन ही दोनों योगोंको पिलाने से हर प्रकारका आखुविष (चूहेका विष) नष्ट होता है । (७४७३) शिरीषादिलेप: (४) (बृ. ना. ; व. से. । विस्फोटा. ; ग. नि. । विस्फो. ४० ) शिरीषोशीरनागाह्ण हिंस्राभिर्लेपनाद् द्रुतम् । विसर्पविषविस्फोटा: प्रशाम्यन्ति न संशयः ॥ ( वृ. मा. | मसूरिका. ) शिरीषोदुम्बराश्वत्थशेलुन्यग्रोधवत्सकैः । प्रलेपः सघृतः शीघ्रं वणवीसर्पदाहहा || | सिरसकी छाल, खस, नागकेसर और जटामांसी समान भाग ले कर, (पानी के साथ) बारीक पीस कर लेप करनेसे विसर्प, विष विकार और विस्फोटक अवश्य शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । ( ७४७४) शिरीषादिलेप: (५) | सिसकी छाल, गूलरकी छाल, पीपल वृक्षकी छाल, हिसोड़ेको छाल, बड़की छाल और कुड़ेकी - रत्नाकरः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाल समान भाग ले कर बारीक मिला कर लेप करनेसे व्रण, वीसर्प शीघ्रही नाश हो जाता है । [ शकारादि पीस कर घीमें और दाहका (१४७५) शिरीषाष्टकः (ग. नि. । मसूरिका. ४१ ) निशाइयोशीरशिरीषमुस्तकैः सरोभद्रश्रियनागकेसरैः । संस्वेदविस्फोटविसर्पदौर्गन्ध्यरोमान्तिहरः प्रदेहः ॥ सिरसकी छाल, हल्दी, दारूहल्दी, खस, नागरमोथा, लोध, सफेद चन्दन और नागकेसर समान भाग ले कर लेप बनावें । यह लेप मसूरिका में हितकारी है और प्रस्वेद, विस्फोटक, विसर्प, कुष्ठ तथा दुर्गन्ध को नष्ट करता है । ( ७४७६) शिलापुष्पादिलेप, ( रा. मा. । शिरो. १ ) शिलाकुसुमकचूर निशाश्यामा नतैः समैः । पलितानां भवेत्कार्ण्य बहुशो गुडधूपितैः ॥ छारछरीला, कचूर, हल्दी, श्यामालता और तगर समान भाग कर सबको बारीक पीस कर बालों पर लेप करने और उन्हें बार बार गुड़की धूप (धुवा) देनेसे बाल काले हो जाते हैं । For Private And Personal Use Only (७४७७) शुष्ठयादिलेप: (१) ( वै. भ. र. । पटल १६ ) स्वरसेन काकमाच्याः पिष्टा शुण्ठी जयेत् कोठान् मुनितरुदलरसपिष्टा साच करीषस्य वा स्वरसे ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपमकरणम् पञ्चयो भागः सेठको मकोय या अगस्तिके पत्तों के अथवा मन्दोष्ण करके लेप करनेसे कफज शिर पीड़ा नष्ट गोबरके रेसमें पीस कर लेप करनेसे कोठ (चफते) | होती है। नष्ट होते हैं। (७४८१) शृङ्गवेरादिलेपः (७४७८) शुण्ठ्यादिलेपः (२) (ग. नि. । कुष्ठा. ३६) शृङ्गवेरं विडानि कुष्ठं तगरमेव च । (वै. मृ. । अलं ४) | पारपिष्टानि मृत्रेण ददुनानि प्रलेपनात् ।। शुण्ठीरुबुकमूलाभ्यां प्रलेपो भगशूलनुत् । । __अदरक (सांठ), बायबिडंग, कूठ और तगर तथा सङ्कोचनं चूर्ण मृत्स्ना मायफलोद्भवम् ॥ समान भाग ले कर सबका बारीक चूर्ण करें । सेठि और अरण्डकी जड़को (पानीमें) पीसकर इसे गोमूत्रमें पीस कर लेप करनेसे दाद नष्ट लेप करनेसे योनिशूल नष्ट होता है। होता है। माजूफल और सौराष्ट्र मृत्तिकाको पीस कर (७४८२ शैलेयादिलेप: लेप करनेसे योनि संकुचित हो जाती है । (वृ. नि. र. । त्वग्दो.) (७४७९) शुण्ठयादिलेपः (३) शैलेयकम्पिल्लकयष्टिसाह ( वै. म. र. । पटल १२ ) सौराष्ट्रिकासर्जरसोत्पलानि । सीमन्तिनीनां पयसा प्रलिम्पे शिला च चूर्णो नवनीतयुक्तः कुष्ठे स्रवत्यभ्यधिकः प्रदिष्टः॥ . च्छुण्ठी शताहां लिकुचोदकेन । ते जानुबाहुप्रभवानिलग्ने छारछरीला, कमीला, मुलैठी, सौराष्ट्री मृत्तिका, | राल, नीलोत्पल और मनसिल समान भाग ले कर ___ स्यातां क्रमव्युत्क्रमलेपिते वै ॥ | चूर्ण बनावें। सेटको स्त्री के दूधमें पीस कर या सोयेको लिकुच ( बढल ) के रसमें पीस कर लेप करनेसे / । इसे नवनीत (मक्खन) में मिलाकर लेप जानु और बाहूकी वातज पीड़ा नष्ट होती है। । " करनेसे स्राव युक्त कुष्ठ नष्ट होता है। (७४८३) शोभाजनादिलेपः (७४८०) शुण्ठयादिलेपः (४) (ग. नि. । ग्रन्थ्य. १) (यो. र. । शिरो. ; शा. सं. । खं. ३ अ. ११) शोभाञ्जनं देवदारु कालिकेन तु पेषयेत् । शुण्ठीकुष्ठमपुत्राटदेवकाष्ठैः समाहिषैः। कोष्णपलेपतो हन्यादपचीमपि निश्चयम् ।। मूत्रपिष्टैः सुखोष्णेश्च लेपः श्लेष्मशिरोतिनुत् ॥ सहजनेकी छाल और देवदारुके चूर्णको सोंठ, कूर, पंमाड़ और देवदारु समान भाग काञ्जीमें पीस कर मन्दोष्ण करके लेप करनेसे अपची ले कर सबको पीस कर भैसके मूत्रमें मिला कर, (गण्डमाला भेद) का अवश्य नाश हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि (७४८४ ) श्यामादिलेपः (१) नोलाथोथा, हरताल, कुटकी, सोंठ, (ग. नि. शिरो. १ ; व, से. । शिरो.) मिर्च, पीपल, लाल सहजनेकी छाल, आककी जड़, श्यामानागरसम्मिश्राच्छेवतस्यन्दनतत्क्षणात् । कनेरकी जड़, कूर, बाबची, भिलावा, खिरनी, नाशं याति त्रिदोषोत्या शिरोतिः संप्रलेपनात्।। सरसों और सेहुंड (सेंड) समान भाग लेकर चूर्ण ___ श्यामा (अनन्तमूल), सेठ और सफेद बनावें । कोयलको पीस कर लेप करनेसे त्रिदोषज शिर पीड़ा (२) लोध, नीमके पत्ते, पीलुके पत्ते, अमलतुरन्त शान्त हो जाती है। | तासके पत्ते, बायविडंग, कनेरके बीज, हल्दी, छोटी ... (७१८५) श्वदंष्ट्रादिलेपः | कटेली और बड़ी कटेली समान भाग लेकर (यो. २. ; वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छ्रा.) चूर्ण बनावें । पिष्टवा बदंष्टा फलमूलिका । इन दोनों में से किसीको भी पानीमें पीस कर ___विडैर्वारुबोजानि सकाधिकानि । मालिप्यमानानि समानि बस्ती लेप करनेसे श्वेत कुष्ट नष्ट होता है । मत्रस्य निष्यन्दकराणि सद्यः॥ (७४८८) श्वित्रहरलेपः गोखरुके फल, मूलीके बीज, बायबिडंग और (र. चि. म. । स्त. ४) खीरके बीज समान भाग ले कर सबको काजीमें कलिहारीजटा पृष्ठा स्निग्वं चन्दनवत्सुधीः । पीस कर बस्ति प्रदेश पर लेप करनेसे मूत्र खुल लेपनं श्वित्रकुष्ठेषु कुर्यात्स्फोटो दिनत्रये ॥ जाता है। (७४८६) श्वानविषहरो लेपः | पलाशस्य ततः पत्रं दद्याच तदनन्तरम् । (यो. चि. म. । अ. ३) मुश्चन्ति पाण्डुरं वारि स्फोटकाश्च तदाजाः।। गुडतलार्कदुग्धैश्च लेपः श्वानविपं हरेत् ।। दूरतः क्षालयेद्वारि यथा स्पर्शो न विद्यते । गुड, तेल और आरके दृधको एकत्र मिलाकर शेरेऽन्यत्र नो भूयायथा कार्य प्रयत्नतः॥ लेप करनेसे श्वान (कुत्ते)का विप नष्ट हो जाता है। .. कलियारीकी जड़को चन्दनकी तरह घिसकर (७४८७) श्वित्रनाशकलेपः सफेद कुष्ठ पर लेप करदें। इससे तीसरे दिन उस (सु. सं. । चि, अ. ९) जगह छाले पड़ जायंगे, तब उस पर ढाकका पता सुचालकदुकाव्योपसिंहाहयमारकाः। | बांध दें। इससे उन छालोंसे पीला पानी निकलने कुवावलगुजभल्लातक्षीरिणीसर्पपा:स्नुही॥ लगेगा । उस पानीको इस प्रकार साफ कर देना निखकारिएपीलूनां पत्राण्यारग्वधस्य वा। चाहिये कि जिससे अन्यत्र न लगने पावे । भी विडङ्गासहन्त्रो हरिदे बृहतीद्वयम् ॥ (छालेसे पानी निकल जानेके पश्चात् वहां भाभ्यां श्वित्राणि योगाभ्यां लेपानश्यन्त्यशेषतः पर मक्खन आदि लगा देना चाहिये ।) इति शकारादिलेपप्रकरणम. For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूपप्रकरणम् ] पश्चमो भागः अथ शकारादिधूपप्रकरणम् (७४८९) शरपुडादिधूपः तांबेकी मूसलीसे घोटें और उसे घीमें मिलालें । ( वैद्या. । वि. १०) | इसको धूप देनेसे आंखोंकी पीडा, अश्रुनाव, किर किराहट और शोथका नाश होता है। शरपुडाजटाधूपदानात्कासः पलायते ।। कान्तावक्षोजसंस्पर्शायमिनां निगमो यथा ॥ (७४९१ ) शिरीषादिधूपः सरफोंकेकी जड़ की धूप देनेसे कास इस (ग. नि. । ज्वरा. १) प्रकार नष्ट हो जाती है जिस प्रकार रमणीके शिरीषवीजजम्बाम्रकपिस्थार्जुनपल्लवैः। स्तनोंका स्पर्श करनेसे व्रतधारियोंका नियम। पुराख्यशल्लकैर्धपः सर्वज्वरग्रहापहः ।। ___ (७४९०) शिग्रुपल्लवादिधूपः । सिरसके बीज, जामनके पत्ते, आमके पत्ते, ( व. से. । नेत्ररोगा.) कैथके पत्ते, अर्जुनके पत्ते, गूगल और शल्लकी शिग्रुपल्लवनिर्यासः सुपिष्टस्ताम्रसम्पुटे। वृक्षका गोंद समान भाग लेकर सबको एकत्र घृतेन धूपितो हन्ति शोथवर्षाश्रुवेदनः ॥ मिलाकर धूप देनेसे समस्त ज्वर और ग्रहदोषोंका सहजनेके पत्तोंके रसको ताम्रपात्रमें डालकर नाश होता है । इति शकारादिधूपप्रकरणम् --------crorea अथ शकाराद्यञ्जनप्रकरणम् (७४९२) शङ्खनाभ्याद्या वतिः मूत्रमें घोटकर गोलियां बनावें और छायामें ( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) इन्हें आंखमें आंजनेसे तिमिर, पिचिट, फूला जनाभी वचा पथ्या मरिचं कुष्ठमक्ष ना। और पटल नामक नेत्ररोग नष्ट होते हैं। मज्जैताः समभागेन संपिष्वा नरवारिणा ॥ पटिकां कारयेत्तेन छायाशुष्कां तदानात् । (७४९३) शङ्खपुष्पादिवटी तिमिरं पिचिटं पुष्पं पटलं संप्रणश्यति ।। ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४८ ) शंखनाभि, बच, हर्र, कालीमिर्च, कूल और शङ्खपुष्पी तथा रो] शङ्खनाभिर्मनःशिला । बहेड़ेकी मागी; इनके समान भाग चूर्ण का मनुष्यके काचिकेन तु सम्पिप्टा छायाशुष्का भिषग्य। सुखा लें। For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि वातिक कामिकेनापि पैत्तिके पयसा हिता। सर्वमेकत्र सम्म गुटिकां कारयेत्ततः। श्लेष्मले मूत्रसंयुक्ता पुष्पस्याअनके हिता ॥ । वारिणा तिमिरं हन्ति चार्बुद हन्ति मस्तुना॥ भृजराजरसेनापि त्रिदोषशमने हिता ॥ | पिच्चटं मधुना हन्ति स्त्रीक्षीरेण तथाऽर्जुनम् । शंखपुष्पी, लोध, शंखनाभि और मनसिल; | शंखचूर्ण ४ भाग, मनसिल २ भाग, काली. इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको कांजीमें मिर्च १ भाग, और पीपल आधो भाग लेकर सबको पीस कर गोलियां बनावें और छायामें सुखा लें। पानीके साथ पीसकर गोलियां बनावें । इन्हें आंखमें लगानेसे नेत्र पुष्प (फूला) नष्ट इन्हें पानीमें घिसकर आंखमें लगानेसे तिमिर; होता है। दही के पानीमें घिसकर लगानेसे नेत्राबुंद; शहदमें ___ वातदोष हो तो इन्हें कांजीमें घिसकर, पित्तदोष घिसकर लगानेसे पिच्चट और स्त्री के दूधमें घिसकर हो तो दूधमें घिसकर, कफ हो तो गोमूत्रमें घिस- लगानेसे अर्जुन नामक नेत्ररोगका नाश होता है। कर और त्रिदोषमें भंगरेके रसमें घिसकर आंखमें (७४९६) शङ्खायञ्जनम् (१) लगाना चाहिये। (व. से. । नेत्ररोग.) (७४९४) शादिवटिका नदीजशक्षत्रिकटून्यथाअनं (धन्व. । चक्षुरो.) मनःशिला द्वे च निशे गवां शकृत् । चतुर्भागानि शङ्खस्य तदर्दैन मनःशिला। सचन्दनेयं गुटिकाय चानने . सैन्धवश्च तदर्थेन एतत्पिष्टोदकेन च ॥ प्रशस्यते रात्रिदिनेष्वपश्यताम् ।। छायाशुष्कां तु वटिकां कृत्वा नयनमधयेत् ॥ | शंख, सोंठ, मिर्च, पीपल; सुरमा, मनसिल, तिमिरं पटलं हन्ति पिञ्चटस्य महौषधम् ॥ ! हल्दी, दारुहल्दी, गायका गोबर और लालचन्दन; शंखचूर्ण ४ भाग, मनसिल २ भाग, और इनका चूर्ण समान भाग लेकर पानीमें घोटकर सेंधा नमक १ भाग लेकर सबको पानीके साथ | गोलियां बना लें। घोटकर गोलियां बनावें और छायामें सुखावें। इन्हें आंखमें आंजनेसे नक्तान्ध्य ( रतौंधा ) इन्हें आंखोंमें आंजनेसे तिमिर, और पटलका और दिवान्ध्य नामक नेत्ररोग नष्ट होते हैं। नाश होता है। (७१९७) शङ्खाद्यञ्जनम् (२) (७४९५) शङ्खादिवटी (वा. भ. । उ. अ. १३) ( यो. र.; वृ. नि. र. । नेत्ररोगा.) शङ्खप्रियङ्गनेपालीकटुत्रिकफलत्रिकैः। शङ्खस्य भागाश्चत्वारस्तदर्धेन मनःशिला। दृग्वैमल्याय विमला वतिः स्यात्कोकिला पुनः मनः शिलार्ध मरिच मरिचान पिप्पली ॥ कृष्णलोहरजो व्योषसैन्धवत्रिफलाअनः ॥ For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अअनप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः - - (१) शंख, फूलप्रियंगु, मनसिल, सांठ, शंखचूर्णको शहदमें मिला कर आंखमें मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा और आमला; इनके आंजनेसे, या निर्मलीके फल और सेंधा नमकका समान भाग चूर्णको पानीमें पीस कर वर्ति बारीक चूर्ण करके आंजनेसे अथवा समुद्र फेन बनावें । और मिश्रीका अंजन बना कर लगानेसे अर्जुन इसे आंखमें आंजनेसे नेत्र स्वच्छ हो जाते हैं। नामक नेत्र रोग नष्ट होता है। (२) लोह चूर्ण, सांठ, मिर्च, पीपल, सेंधा (७५००) शम्बकाद्यञ्जनम् (२) नमक, हरं, बहेड़ा, आमला और सुरमा; इनके (र. र. । नेत्र.) समान भाग चूर्णको पानीमें घोट कर वर्ति | शम्बूकं च वराटं वा दग्धं चैतद्विचूर्णयेत् । बनावें। अञ्जनं नवनीतेन हन्ति पुष्यं चिरन्तनम् ॥ इसको नाम — कोकिलावर्ति ' है। यह भी शंः। भस्म या कौड़ी मम्मको नवनीतमें नेत्रों को स्वच्छ करती है। | मिला कर आंखमें आंजनेसे पुतना फला नष्ट हो जाता है। (७४९८) शङ्खाद्यञ्जनम् (३) (श्यामावतिः) (व. से. । नेत्ररोगा.) (७५०१) शर्करायञ्जनम् (वृ. मा. । नेत्र.) शसस्रोतोऽअनं लाक्षा मरिचं समनःशिलाम् । सितामधककटवङ्गमस्तुक्षौद्राम्ळसैन्धवैः। यवान्युदधिजं फेनं ताम्रचूर्ण समाक्षिकम् ॥ पूरणं हन्ति लौहित्यं रक्तराजीमथार्जुनम् ॥ श्यामावर्तिलिखत्येव शुक्रकाचामेपिष्टकम् ॥ मिसरी, मुलैठी, अरलुकी छाल और सेंधा शंख चूर्ण, स्रोतोञ्जन (सुरमा), लाख, काली नमक; इनके समान भाग चूर्ण में दहीका पानी, मिर्च, मनसिल, अजवायन, समुद्र फेन और ताम्र- शहद और कांजी मिला कर आंखमें डालनेसे चूर्ण (या भस्म) समान भाग ले कर सबको शहदमें आंखोंकी लाली, लाल रेखा और अर्जुनका नाश घोट कर वर्ति बनावें। | होता है। ____ यह वर्ति फूले, काच, अर्म और पिष्टकको नष्ट - (७५०२) शशिकलावर्ती करती है। (वृ. नि. र. । नेत्र. ; र. चं. ; यो. र. । नेत्र. ; (७४९९) शम्बूकाद्यञ्जनम् (१) वृ. यो. त. । त. १३१) रसकजलजनाभिः पौरतुत्थं समांशं ( वृ. मा. । नेत्र. ; यो. र. । नेत्ररो.) वसनगलितमेतन्निम्बुनीरेण पिष्टम् । शः क्षौद्रेण संयुक्तः कतकः सन्धवेन वा। हरति शशिकलैतद्वति संयोजिताक्ष्णोसितयाऽर्णवफेनो वा पृथगअनमर्जुने॥ स्तिमिरकुसुमकण्डूसावरोगामपिल्लाम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि ____ खपरिया, शंख नाभि, गूगल और नीलाथोथा सिरसके वीज, काली मिर्च, पीपल और समान भाग ले कर अत्यन्त बारीक पीसें और उसे सेंधा नमक; इनके बारीक चूर्णको एकत्र मिलाकर नीबूके रसमें घोट कर बत्तियां बना लें। | अंजन बनावें। __इन्हें आंखोमें आंजनेसे तिमिर, फूला, इससे अथवा केवल सेंधा नमकके चूर्णसे आंखोकी खाज, पानी बहना, अर्म और पिल्ल पिल्ल आंखके फूलेको घिसना चाहिये। नानक नेत्र रोगोंका नाश होता है। (७५०३) शालिपादियोगः (७५०६) शिरीषाद्यञ्जनम् (व. से. । नेत्र रोगा.) (ग. नि. । ज्वरा. १ ; व. से. । बरा. ; वृ. ताम्रपाने गुहामृलं सिन्धूत्थं मरिचान्वितम् । यो. त. । त, ५९; भै. र. ) आरनालेन सङ्घष्टमञ्जनं पिल्लनाशनम् ॥ शिरीपबीजगोमूत्रकृष्णामरिचसैन्धवैः।। शा. पूर्णीकी जड, सेंधा नमक और मरिच; अञ्जनं स्यात्मबोधाय सरसोनशिलावचैः ॥ इनके समान भाग मिश्रित बारीक चूर्णको ताम्र सिरसके बीज, पीपल, कालीमिर्च, सेंधानमक, पात्रमें आरनालके साथ खरल करके अंजन लगानेसे पिल्लरोग नष्ट होता है। मनसिल और बचका बारीक चूर्ण तथा ल्हसन समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर गोमूत्र में ___ (७५०४) शिग्रुपत्रयोगः खरल करके अंजन बनावें । (ग. नि. । नेत्र. ३ ; व. से. । नेत्ररोगा.) वातपित्तकफसन्निपातजा इसे लगानेसे सन्निपातकी मूछो नष्ट हो नेत्रयोर्बहुविधापपि व्यथाम् । जाती है। शीघ्रमेव जयति प्रयोजितः (७५०७) शिरीषाद्य नावनाञ्जनम् शिग्रपल्लवरसः समाक्षिकः ॥ सहंजनेके पत्तोंके रसमें शहद मिला कर । ( ग. नि. । उन्मादा. २ , यो. र. । उन्मादा.) आंखमें आंजनेसे वातज, पित्तज, कफज और शिरीषो मधुकं हिङ्ग लशुनं नागरं वचा। . सन्निपातज अनेक प्रकारकी नेत्र पीड़ा शीघही नष्ट कुष्ठं च बस्तमूत्रेण पिष्टं स्यानावनाअनम् ॥ हो जाती है। सिरसके बीज, मुलैठी, हींग, ल्हसन, सांठ, (७५०५) शिरीषबीजायञ्जनम् । ___बच और कूठ समान भाग ले कर सबको बकरके (वृ. मा. । नेत्र रोगा. ; व. से. ; ग. नि. । नेत्र. ३) मूत्रमें घोट कर अंजन बनावें । शिरीषबीजमरिचपिप्पलीसैन्धवैरपि । इसकी नस्य देने तथा इसीका अनन शुक्रस्य घर्षणं कार्यमथवा सैन्धवेन च ॥ | लगानेसे उन्माद रोग नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमनप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः (७५०८) शिलाञ्जनम् सीसेको पिघला पिधला कर त्रिफलाके काथ, (यो. र. । नेत्र रोगा.) भंगरेके रेस, सेठिके काथ, शहद, घी, बकरीके दूध और गोमूत्र में सात सात बार बुझावें और फिर शिलासैन्धक्कासीसशकच्योषरसाजनैः। सक्षौद्रैः काचशुक्रामतिमिरघ्नी रसक्रिया ॥ उसकी सलाई बनवा लें। मनसिल, सेंधा नमक, कसीस, शंख, सांठ, इसे प्रातः सायं आंखमें फेरनेसे नेत्रज्योति मिर्च, पीपल और रसौत समान भाग ले कर सबका बढ़ती है । बारीक चूर्ण करके शहदमें मिला लें। (७५११) शुक्लारिषतिः इसका अंजन लगानेसे काच, शुक्र, अर्म और (र. र. स. । उ. अ. २३) तिमिरका नाश होता है। शम्बूकं पारदं नागं कांस्यचूण रसामनम् । (७५०९) शिवावतिः समं सर्वमिदं चिश्चादलद्रावेण मर्दयेत् ॥ (ग. नि. । अजीर्णा. ६) ताम्रपात्रगतां वर्ति छायाशुष्क तु कारयेत् । शुक्लाम तिमिरं पिल्लं हन्ति सा मधुनाजिता॥ भल्लातकं त्रिकटुकं भृतीक क्षवको वचा । फणिज्जो लशुनं कुष्ठं करमस्य फलानि च ॥ शंख भस्म, पारद, सीसा, कांसीका चूर्ण वर्तिमेभिः शिवां नाम वस्तमूत्रेण पेषयेत् । | और रसौत समान भाग ले कर प्रथम पारेमें सीसेको मिला कर घोटें और दोनोंके एक जीव विधूच्यामञ्जनमिदं सघो वेगं नियच्छति ॥ हो जाने पर उसमें कांसेका चूर्ण मिला कर घोटें; शुद्ध भिलावा, सेठ, मिर्च, पीपल, अजवा- जब वह भी मिल जाय तो अन्य औषधेांका चूर्ण यन, नकछिकनी, वच, बन तुलसीके पत्र, ल्हसन, मिला कर सबको ताम्रके खरलमें इमलीके पत्तोंके कूठ और करके फल समान भाग ले कर सबको रसमें घोटें और बत्तियां बना कर छायामें बकरेके मूत्रमें पीस कर वर्तियां बनावें। सुखा लें। इनका अञ्जन लगानेसे विसूचिकाका धेग | इन्हें शहदमें घिस कर आंखमें लगानेसे शीघ्रही शान्त हो जाता है। शुक्ल (फूला), अर्म, तिमिर और पिल्लका नाश (७५१०) शीशशलाकाऽञ्जनम् | होता है। (वृ. मा. । नेत्र. ; व. से.) ___(७५१२) श्रीपाद्यञ्जनम् त्रिफलाभृङ्गमहौषधमध्वाज्यच्छागपयसि ( यो. र. । नेत्र.) ____ गोमूत्रे । श्रीपर्णी पाटला धात्री धातकी तिल्वकार्जुनात् । नागं सप्तनिषिक्तं करोति गरुडोपमं चक्षुः॥ । पुष्पाण्यथ बृहत्याश्च बिम्बीलोधं च तुल्यशः॥ For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ भारत-मेषज्य-रत्नाकर [शकारादि मभिष्ठं चापि मधुना पिष्ट्वाऽपीचरसेन वा। । पठानी लोध और मजीठ; इनके समान भाग रुपिरस्यन्दशान्त्यर्थमेतदअनमिष्यते ॥ मिश्रित चूर्णको शहद या ईखके रसमें घोट शालपर्णी, पाढल छाल, आमला, धायके कर आंखमें लगानेसे रक्तज नेत्राभिष्यन्द नष्ट फूल, लोध, अर्जुन, कटेलीके फूल, कन्दूरीकी जड़, ( होता है । इति शकाराधअनमकरणम् - - अथ शकारादिनस्यप्रकरणम् (७५१३) शर्करादिनस्यम् (१) शंख प्रदेश (कनपटि)का शूल, कर्णशूल, नेत्रशूल, (वृ. मा. । हिक्का.) आधासीसी और सूर्यके साथ साथ बढ़ने वाला शर्करा वरं च गैरिकं मूत्रभावितम् । शूल (सूर्यावर्त) नष्ट होता है। गुडाकं च दातव्यं हिक्कानं नावनत्रयम् ॥ (७५१५) शालिपर्यादिनस्यम् (१) खांड और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण (व. से. । शिरो.) बनावें। शालिपयंम्भसा पिष्टा नस्यपदविभेदजित् । (२) गेरुको गोमूत्रकी भावना देकर सुखा । चक्रमर्दकबीजैर्वा लेपः कानिकपेषितः॥ (३) गुड और अदरक (सोंठ) को पीसकर शालपर्णीको पानीमें पीसकर नस्य देनेसे बारीक चूर्ण कर लें। अ‘वभेद (आधासीसी)का नाश होता है । ये तीनों नस्य हिचकीको नष्ट करती हैं। पमाड़के बीजोंको कांजीमें पीसकर लेप करनेसे (७५१४) शर्करादिनस्यम् (२) भी आधासीसीका नाश हो जाता है। (वृ. नि. र. | शिरो.; वृ. मा.) (७५१६) शिग्रुमूलाचं नस्यम् सशर्करं कुममाज्यभृष्टं (ग. नि. । ज्वरा. १; हा. सं. । स्था. ३ अ. २) नस्यं विधेयं पवनामृगुत्थे । शोभाअनकमूलस्य रसं न मुरसान्वितम् । भ्रूशकर्णाक्षिशिरोर्धशूले विसजितानां नस्यं स्याबोधनं चाशु रोगिदिनाभिवृद्धिप्रभवे च रोगे ॥ णाम् ॥ खांड और घीमें भुनी हुई केसर समान भाग सहजनेकी जड़का रस और तुलसीके पत्तोंका लेकर एकत्र खरल कर लें। रस (या चूर्ण) एकत्र मिलाकर नस्य देनेसे सन्निइसकी नस्य लेनेसे वातज तथा रक्तज भ्रशूल, पातकी मूर्छा जाती रहती है। For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्यपकरणम् ] परमो माग: v -ma.re -u ae (७५१७) शिरीषपुष्पनस्यम् (७५२०) शिरीषादियोगः (रा. मा. ( विषा. २८) (यो. र. । शिरोरागा.; वृ. मा. । शिरो.) शिरीषपुष्पैः कुलिशद्रुमस्य शिरीषमूलकफलैत्वपीडं प्रयोजयेत् । सोरेणपिष्ट कृतनावनानाम् । अवपीडो हितो वा स्याद्वचापिपलिभिः कृतः ॥ विषं विनाशं नयति क्षणेन सिरसके फूल, मूली और मैनफलको पीसकर ___ मण्डूकदंशप्रभवं नराणाम् ॥ | कपड़ेसे निचोड़कर रस निकालें । सिरसके फूलोंको थूहर (सेंड) के दूधमें घोट यह रस नाकमें टपकानेसे अर्धावभेदक (आधा कर उसकी नस्य देनेसे मण्डूक (मेंढक) का विष सीसी) का नाश होता है । तुरन्त नष्ट हो जाता है। बच और पीपलको पानीके साथ पीसकर (७५१८) शिरीषपुष्पादिनस्यम्। | कपड़ेसे निचोड़कर रस निकालें । (व. से. । ज्वरा.) इसकी नस्य लेनेसे भी आधासीसी नष्ट हो कल्कः शिरीषपुष्पस्य रजनीद्वयसेयतः। जाती है। नस्यं सर्पिः समायोगाज्वरं चातुर्थिक जयेत् ।। (७५२१) शिरोर्तिहररसः (नस्यम्) ___ सिरसके फूलोंके कल्कमें हल्दी और दारुहल्दी (र. चं. । ज्वरा.) का चूर्ण मिलाकर उसे धीमें मिलाकर नस्य लेनेसे शुण्ठीमरिचपिप्पल्याष्टकद्वयमितं पृथक् । चातुर्थिक ज्वर नष्ट होता है। विषं टङ्कमितं चैव षटङ्क भस्म कल्पयेत् ॥ (७५१९) शिरीषादिनस्यम् पिप्पलस्य त्वचः खल्वे दृढं सर्व विमर्दयेत् । गुञ्जामात्रेण नस्येन शिरोति नाशयेत्क्षणात् ॥ (ग. नि. । ज्वरा. १) सोंठ, कालीमिर्च और पीपल २-२ भाग, शिरीषनिम्बपत्राणि हि सर्पस्य कञ्चुकी। शुद्ध बछनाग १ भाग और पीपल वृक्षकी छालकी समांशचूर्णमेतेषां वारिपिष्टं हि नस्यतः ॥ राख ६ भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें । ग्रहभूतपिशाचानां शाकिनीराक्षसामपि।। इसमेंसे १ रत्ती औषध सूचनेसे शिरपीड़ा दोष हन्ति ज्वरं तीब्र तरणिस्तिमिरं यथा ॥ तुरन्त नष्ट होती है। ___ सिरसके पत्ते, नीमके पत्ते, हॉग और सांपकी कांचली बराबर बराबर लेकर चूर्ण बनावें । इसे (७५२२) शुष्कगोमयादियोगः पानीमें पीसकर नस्य लेनेसे ग्रह, भूत, पिशाच, (वै. म. र. । पटल २) शाकिनी और राक्षसोंके उपद्रव नष्ट होते हैं तथा तत्क्षणं क्षुण्णमाघातं शुष्कगोमयमस्यति । तीन ज्वर उतर जाता है। नासानुतमसक्स्रावं चन्दनस्योत्पलस्य वा ॥ ૧૨ For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९० www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः सूखे हुवे गायके गोबरकी या सफेद चन्दन की अथवा नीलोत्पलकी नस्य लेनेसे नाक से गिरता हुवा रक्त बन्द हो जाता है । (७५२४) भृङ्गादिनावनयोगः ( ग. नि. । रक्तपित्ता. ८ ) (७५२३) शृङ्गवेराद्यनस्यम् शृङ्गरिकयोः कल्कं घातक्या मधुकस्य वा । ( ग. नि. । नेत्र. ३; वृ. मा. च. द. | नेत्र. ) घ्राणसुतेऽसृजि प्रोक्तं योषित्क्षीरेण नावनम् ॥ शृङ्गवेरं भृङ्गराजं यष्टीतैलेन मर्दितम् । नस्यमेतेन दातव्यं महापटलनाशनम् ॥ सोंठ, भंगरा और मुलैटीके समान भाग मिश्रित चूर्णको तेलमें मिलाकर नस्य देनेसे पटल नष्ट होता है । (७५२५) शक्रवल्लभो रसः (भै. र. । वीर्यस्तम्भा. ) इति शकारादिनस्यप्रकरणम् अथ शकारादिरसप्रकरणम् रसगन्धकलौहाभ्ररौप्यमानि माक्षिकम् । शाणमानेन सङ्गृह्य तुगाक्षीरीश्च कार्षिकीम् ॥ पलप्रमाणां विजयावीजञ्चैकत्र मर्दयेत् । विजयावारिणा पश्चान्मारमानां वटीं चरेत् ॥ एकैका भक्षणीयैषा पेयञ्चानु पयः पलम् । श्री शक्रवल्लभो नाम रसो वाजीकरः परः ॥ वीर्यस्तम्भकरोऽत्यर्थं प्रमदादर्पनाशनः । गतो ह्यप्सरसां शक्रो वाल्लभ्यं यत्प्रसादतः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, अभ्रक भस्म, चांदी भस्म, स्वर्ण भस्म और सोनामक्खी भस्म '५-५ माशे; बंसलोचन १ तोला और भांगके बीजों का चूर्ण ५ तोले लेकर प्रथम पारे गंधककी [ शकारादि अदरक और गेरुके कल्क अथवा धायके फूलोंके कल्क या महुवेके कल्कको स्त्रीके दूध में मिलाकर नस्य देनेसे नासासे होने वाला रक्तस्राव नष्ट होता है । For Private And Personal Use Only कजली बनायें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर सबको भांग के रसमें खरल करके १- १ माशेकी गोलियां बना I ले इनमेंसे १--१ गोली दूधके साथ सेवन करनी चाहिये । यह रस अत्यन्त वाजीकरण, स्तम्भक और कामिनी मद भंजक है | ( व्यवहारिक मात्रा - ४-६ रत्ती । ) (७५२६) शङ्करलोहः 1 ( भा. प्र. म. ख. २; व. से. । अर्शो. ) प्रणम्य शङ्करं रुद्रं दण्डपाणि महेश्वरम् । जीवितारोग्यमन्त्रिच्छन्नारदोऽपृच्छदीश्वरम् ॥ सुखोपायेन हे नाथ शस्त्रक्षाराग्निभिर्विना । चिकित्सामर्शसां नृणां कारुण्याद्वक्तुमर्हसि ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] नारदस्य वचः श्रुत्वा नराणां हितकाम्यया । अर्शसां नाशनं श्रेष्ठं भैषज्यं शङ्करोऽवदत् ॥ मुण्डवज्रादिलोहानामादायान्यतमं शुभम् । कृत्वा निर्मलमादौ तु कुनया माक्षिकेण च । पत्तरमूलकल्केन लिम्पेद्रसधुतेन च । वह्नौ निक्षिप्य विधिवत्साराङ्गारेण निर्द्धमेत् ज्वाला च तस्य रोद्धव्या त्रिफलाया रसेन च। ततो विज्ञाय गलितं शङ्कमो समुच्छयेत् ॥ त्रिफलाया रसे पूते तदाकृष्य तु निर्द्धमेत् । सम्यगालि यत्तु तेनैव विधिना पुनः || anti निर्वापयेत्तस्मिल्लोहं तत्रिफलार से | यल्लोहं न मृतं तत्र पाच्यं भूयोऽपि पूर्ववत् ॥ मारणान मृतं यच्च तत्यक्तव्यमलोहवत् । ततः संशोध्य विधिवच्चूर्णयेल्लोइभाजने ॥ लोहेन च तथा पिंष्याट्टषदा सूक्ष्मचूर्णितम् । कृत्वा लोहमये पात्रे मृत्तिकालिप्रन्धके ॥ रसैः पङ्कोपमं कृत्वा तं पचेगोमयाग्निना । दानि क्रमशो दद्यात्पृथगेभिर्विधानतः ॥ त्रिफलाई भृङ्गाणां केशराजस्य बुद्धिमान् । मानकन्दकमलातीनां सूरणस्य च ॥ हस्तिकर्णपलाशस्य कुलिशस्य तथैव च । पुढे पुढे चूर्णयित्वा लोहात्पोडशिकं पलम् ॥ तन्मात्र त्रिफलायाश्च पलेनाधिकमाहरेत् । अष्टभागावशेषे तु रसे तस्याः पचेद् बुधः ॥ अष्टौ पलानि दवा च सर्पिषो लोहभाजने । ताम्रे वा लोहदय तु चालयेद्विधिपूर्वकम् || ततः पाकविधानज्ञः स्वच्छे चोर्ध्वं च सर्पिषी । मृदुमध्यादिभेदेन गृहीयात्पाकमन्यतः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ९१ आरम्भे तद्विधानज्ञः कृत कौतुकमङ्गलः । भ्रामरं घृतसंयुक्तं । वेलिह्याद्रतिकाक्रमात् ॥ द्वादशरक्तिकान्तं यथाशिवलं खादेत् । वर्द्धमानानुपानञ्च गव्य क्षीरेण संयुतम् ॥ गव्याभावे वायाच स्निग्धवृष्यादिभोजनम् । estafat reकञ्च नियच्छति ॥ हन्ति वातं तथा पित्तं कुष्ठानि विषमज्वरम् । गुल्माक्षिपाण्डुरोगांच निद्रालस्यमरोचकम् ॥ शूलञ्च परिणामञ्च प्रमेहमपत्रा हुकम् । श्वयथुं रुधिरावं दुर्नामानं विशेषतः ॥ बलकृद् वृंहणञ्चैव कान्तिदं स्त्ररबोधनम् । शरीरलाघत्रकरमारोग्यपुष्टिवर्द्धनम् ॥ आयुष्यं श्रीकरश्चैव बलतेजस्करं शुभम् । सश्रीकं पुत्रजननं बलीपलितनाशनम् ॥ दुर्नामारिरयं नाना दृष्टो वारसहस्रशः । अनेनासि दद्यन्ते यथा तुलञ्च वह्निना ॥ सौकुमार्यापायत्वान्मयसेवी यदा नरः । जीर्णमयादियुक्तादिभोजनैः सह दापयेत् ॥ वृन्तकस्य फलं शस्तं पटोले बृहतीफलम् । मलम्बा भीरुवेत्राग्रताडकं तण्डुलीयकम् ॥ वास्तुकं धान्यशाकश्च चित्रकं चक्रमर्दकम् । नालिकेरञ्च खर्जूरं दाडिमं लवलीफलम् || शृङ्गाटकच पका द्राक्षातालफलानि च । हितान्येतानि वस्तूनि लोहमेतत्समश्नताम् ॥ नानीकु कोलन्धुवदराणि च । जम्बीरं बीजपूरञ्च तिन्तिडी करमर्दकम् कूपमाण्डकञ्च कर्को क्रमुकच विशेषतः । कटुकं कालशाकञ्च कुण्डुरुः कर्कटी तथा ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः ९२ ककारादीनि सर्वाणि द्विदलानि च वर्जयेत् । शङ्करेण समाख्यातो यक्षराजानुकम्पया || जगतामुपकाराय दुर्नामारिrयं धुत्रम् । स्थानाचलति मेरु पृथ्वी पर्येति वायुना ॥ पतन्ति चन्द्रताराश्च मिथ्या चेदहमब्रुवम् । ब्रह्मना कृतघ्नाश्च क्रूरा येऽसत्यवादिनः || वर्जनीयाः सधर्मेण भिषजा गुरुनिन्दकाः । मुनिरपिष्टविडङ्गं निरसलीढं चिरस्थितं धर्मे ॥ द्रावयति लोहदोषान्वह्निर्नवनीतपिण्डमिव । काले मलप्रवृत्तिर्लाघवमुदरे विशुद्धिरुद्वारे || अङ्गेषु नावसादो मनःप्रसादोऽस्य परिपाके | क्रिमिरिपुचूर्ण लीढं सहितं स्वर सेन वङ्गसेनस्य ॥ क्षपयत्यचिरान्नियतं लोहा जीर्णोद्भवं शूलम् । readerरस्तु दुग्धं पीत्वा तु तं जयेत् । गुञ्जाद्वादशकादूर्ध्वं दृद्धिरस्य भयप्रदा ॥ 99 एक बार मुनिराज नारदने लोकहित के विचार से श्री शंकर महादेवको प्रणाम करके प्रार्थना की “ हे भगवान ! कोई ऐसा उपाय बतलाइये कि जिससे शस्त्रक्रिया तथा क्षार और अनिके बिना ही अर्श रोग नष्ट हो सके । तत्र महाराज शंकरने उन्हें निम्नलिखित औषध बतलाई थी. मुण्ड और वज्रादि लोहभेदों में से किसी एक प्रकारका लोह ले कर यथा विधि शुद्ध करें और फिर उसके बारीक पत्र करा लें । तदनन्तर उसके बराबर मनसिल, सोनामक्खी और पारदकी कज्जलि बना कर उसमें पतूर (शालिञ्ज शाक या जल पीपल की जड़का कल्क मिलायें और उक्त लोह पत्रोंपर लेप कर दें एवं उन्हें बेरी आदिके Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि कोयलकी तीव्रानिमें धमावें । यदि ज्वाला निकले तो त्रिफलाका रस छिड़क कर उसे शान्त कर देना चाहिये । इस प्रकार धमानेसे जब लोह पिघल जाय तो उसे त्रिफलेके स्वच्छ काथमें बुझा दें । तत्पश्चात् काथमेंसे बिना गले लोहको निकाल कर ( उस पर उपरोक्त औषधका लेप करके ) ऊपरकी विधिसे पकायें और त्रिफलाके काथमें बुझा दें। इसी प्रकार बार बार त्रिफलाकाथमें बुझानेसे लोहकी भस्म हो जायगी । अनेकबार त्रिफलाक्वाथमें बुझाने पर भी जो लोह कच्चा रह जाय उसे छोड़ देना चाहिये और शेष पक्क लोहको सुखा कर लोहे के खरल में डाल कर लोहेकी मूसलीसे धोटे अथवा पत्थरकी सिल पर पीस लें । अब इस लोहको त्रिफके काथमें घोट कर टिकिया बनावें और यथाविधि शरावसम्पटमें बन्द करके गजपुर में फूंक दें। इसी प्रकार अद्रक, भंगरा, काला भंगरा, मानकन्द, भिलावा, चीता, सूरण ( जिमीकन्द) हस्तिकर्णपलाश; इनके रस और थोहरके दूधमें घोट घोट कर प्रत्येककी पृथकू पृथक् पुट दें। इस प्रकार भस्म किया हुवा लोहा १६ पल (१ सेर) लें और १७ पल त्रिफलेको चार गुने पानी में पकावें तथा आठवां भाग शेष रहने पर छान कर उसमें यह भस्म और ८ पल (१ सेर) घी मिला कर लोह या ताम्रके पात्र में पकावें और लोहे की करछी से चलाते रहें। जब घी अलग हो करे ऊपर आ जाय तो कढ़ाईको नीचे उतारकर रख दें एवं शीतल हो जाने पर उसमेंसे लोहको निकाल कर सुरक्षित रक्खें । For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् पञ्चमो भाग: अपने विश्वासके अनुसार मंगलकर्म करनेके | हो तो उसे पुराने मद्य युक्त आहारादिके साथ यह पश्चात् यह लोह एक रत्ती मात्रानुसार शहद और लोह सेवन कराना चाहिये। घीमें मिला कर सेवन करना प्रारम्भ करें और पथ्य--बैंगन, परवलका - फल, कटेलीका प्रतिदिन १-१ रत्ती मात्रा बढ़ाते जायं तथा | फल, चचीडा, शतावरके पत्तोंका शाक, बेतका इसके पश्चात् १-१ रत्ती घटानी शुरू करें। अग्र भाग, विधारा, चौलाईका शाक, बथुवा, इसे १२ रत्तीसे अधिक तो कभी देना ही न | धनियेका शाक, चीता, पंवाड़के पत्तोंका शाक, चाहिये और यदि रोगी इतनी मात्रा भी सहन | नारियल (खोपरा), खजूर, अनार, लवलीफल न कर सके तो उसकी शक्ति अनुसार कम मात्रामें (हरफारेवड़ी), सिंघाड़ा, पक्का आम, तालफल । देना चाहिये। __ अपथ्य-लकुच (बढल), छोटे बड़े बेर, जम्बोरी नीबू, बिजौरा, इमली, करौंदा, पेठा, अनुपान-गायका दूध, और इसके अभाव - ककोड़ा, विशेषतः सुपारी, कड़वा पटोल, कालमें बकरीका दूध । इसके सेवन कालमें स्निग्ध शाक ( नाडीका शाक ) कुन्टरू, ककड़ी, हरऔर वृष्य भोजन करना चाहिये । इसके सेवनसे प्रकारकी दाल । शीघ्र ही अग्नि दीप्त होती और भस्मक रोग नष्ट हो चाहे पर्वत अपने स्थानसे हिल जाएं, पृथ्वी जाता है । यह लोह वात पित्त, कुष्ठ, विषमज्वर, उलट जाय, एवं चन्द्र और तारागण गिर पड़ें गुल्म, नेत्ररोग, पाण्डुरोग, निद्रा (अधिक निद्रा) परन्तु यह लोह (अर्शमें) कभी निष्फल नहीं आलस्य, अरुचि, शूल, परिणाम शूल, प्रमेह, अप होता। बाहुक, शोथ, विशेषतः रक्तस्राव और अर्श तथा जो लोग ब्रह्म घातो, कृतघ्न, कूर, असत्यबलि पलितको नष्ट करता है। वक्ता और गुरु निन्दक हों उन्हें यह औषध न यह बल वर्द्धक, वृहण, कान्तिवर्द्धक, स्वर- देनी चाहिये । शोधक, शरीरको लघु करने वाला एवं आरोग्य, यदि. लोह सेवनसे कोई विकार उत्पन्न हो पुष्टि, आयु, रूप, बल और तेज वर्द्धक तथा । य रूप. बल और तेज वर्दक तथा जाय तो चायबिडंगके चूर्णको अगस्तिके रसमें घोट पुत्रोत्पादनकी शक्ति देने वाला है। कर उसे धूपमें गरम करके चाटना चाहिये । जिस | प्रकार अग्निसे जमा हुवा नवनीत पिघल जाता है ___ इसके सेवनसे अर्श इस प्रकार नष्ट हो जाती | उसी प्रकार इससे समस्त लोहविकार नष्ट हो है जिस प्रकार अग्निसे रुईका ढेर । इसके जाते हैं। अर्शनाशक गुणकी परीक्षा सहस्रों बार हो यदि समय पर मल प्रवृत्ति हो, पेट हल्का चुकी है। हो, और डकार शुद्ध आवे तो समझना चाहिये कि यदि रोगी सुकुमार, निर्बल और मद्य सेवी लोहका ठीक ठीक पाचन हुवा है । For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ शकारादि यदि लोह सेवनसे अजीर्ण हो जाय और शल | क्वाथको १-१ भावना दे कर २-२ रत्तीकी हो तो बायबिडंगका चूर्ण अगस्तिके रसमें मिला गोलियां बना लें। कर चाटना चाहिये। । इनमेंसे एक एक गोली मन्दाष्ण जलके साथ यदि इससे अतिसार हो जाय तो ( अति- सेवन करनेसे फुफ्फुस रोग, हृदय रोग, जीर्णज्वर, सार नाशक औषधेसे सिद्ध ) गोदुग्ध ( या २० प्रकारके घोर प्रमेह, कास, श्वास, आमवात बकरीका दूध) पीनो चाहिये। और भयंकर ग्रहणी रागका नाश हाता है । इसकी १२ रत्तीसे अधिक मात्रा भयदायक ___ (७५२८) शङ्कगर्भपोटलीरसः (१) होती है अतः इससे अधिक मात्रा कभी न देनी (शङ्खनाभिरसः) चाहिये। (र. रा. सु. ; र. र. ; वृ. नि. र. ; र. का. (७५२७) शङ्करवटी धे. । राजय.) ( भै. र. । हृद्रोगा.) | शहनाभिगवां क्षीर: पेपयेन्निष्कपोडशः । तेन मूपा प्रकर्त्तव्या तन्मध्ये भस्ममूतकम् ।। रसस्य भागाश्चत्वारो बलेरष्टौ तथा मताः। निष्काई गन्धकात्रीणि चूर्णीकृत्य विनिक्षिपेत्। यो लौहस्य नागस्य द्वावित्येकत्र मर्दयेत् ॥ रुध्वा तद्वेष्टयेद्वस्त्रैर्मृत्तिका लेपयेबहिः ।। भावयेत् काकमाच्याश्च चित्रकस्याकस्य च। शोयं गजपुटे पाच्यं मृषया सह चूर्णयेत । स्वरसेन जयन्त्याश्च वासाया बिल्वपार्थयोः॥ मधुकृष्णानुपानेन गुञ्जामेकां प्रदापयेत् ।। ततो गुञ्जाद्वयमितां विदध्यात् वटिकां भिषक् । यक्ष्मरोग निहन्त्याशु मृगाङ्करसवध्रुवम् ॥ एकैका दापयेदासामीषदुष्णेन वारिणा ॥ १६ निष्क शंखनाभिको गोदुग्धमें पीस कर जयेदियं फुफ्फुसजान् रोगान हृदयसम्भवान् । उसकी मूषा बनावें और आधा निष्क पारदभस्म जीर्णज्वरं तथा घोरं प्रमेहानपि विंशतिम् ॥ तथा ३ निष्क शुद्ध गंधकको एकत्र खरल करके कासश्वासामवातांश्च ग्रहणीमपि दुस्तराम् ।। उस मूषामें डाल कर उसके मुखको अच्छी तरह बडो श्रीशङ्करमोक्ता बलपुष्टिविवर्द्धिनी ॥ बन्द कर दें और उसे कपड़े में लपेट कर ऊपर शुद्ध पारद चार भाग, शुद्ध गंधक ८ भाग, ( आधा अंगुल मोटा ) मिट्टीका लेप कर दें। लोह भस्म ३ भाग और सीसा भस्म १ भाग ले तदनन्तर उसे सुखा कर गजपुट में पकावें और कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर स्वांग शीतल होने पर निकाल कर शंखको मूषा समस्त औषधेको एकत्र मिला कर मकोयके रस | समेत खरल करके सुरक्षित रक्खें। चीतेके रस या काथ, अदरकके रस, जयन्तीके। मात्रा-१ रत्ती । रस, बासाके रस, बेलपत्रके रस और अर्जुनके अनुपान-पीपलका चूर्ण और शहद । For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् पञ्चयो भागः यह ' मृगाङ्क रस ' के समान क्षय रोगको हिङ्गु त्रिकटुकं चैव सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । शीघ्र हो नष्ट कर देता है। आमवातं यकृच्छूलं परिणामसमुद्भवम् । शागर्भपोटलीरसः (२) अन्नद्रवकृतं शूलं शूलश्चैव त्रिदोषजम् ॥ "शापोटली” (१) देखिये। शंख भस्म, सेंधा नमक, काला नमक, सामुद्र शाचूडरसः लवण, विडलवण, उद्भिद लवण, जवाखार, सुहागा, जायफल, सोया, अजवायन, भुनी हुई हींग, सोंठ, शङ्खचूलरसः देखिये। मिर्च और पीपल; इनका समान भाग चूर्ण लेकर (७५२९) शङ्खचूलरसः | सबको एकत्र खरल करें। (र. चं.; यो. र.; र. रा. सु. । हिका.) इसके सेवनसे आमवात, यकृच्छूल, परिणाम रसानहेमभस्मानि वैक्रान्तं सर्वतुल्यकम् । | शूल, अन्नद्रवशूल और त्रिदोषज शूल नष्ट होता है। सः पञ्चगुणं शकचूर्ण शुष्क विमर्दयेत् ॥ ( मात्रा-१ माषा) लेहयेन्मधुना माषचतुष्कं सानुपानकम् । (७५३१) शङ्खचूर्णम् (२) हिकां पश्चविधां हन्ति मुमूर्षोरपि तत्क्षणात् ॥ (शम्बूकचूर्णम्) पारदभस्म १ भाग, अभ्रकभस्म १ भाग, ! ' (बृ. मा. । शूला.; ग. नि. । शूला. २३; व. से.; स्वर्ण भस्म १ भाग, वैक्रान्त भस्म ३ भाग और । र.र. वे. र. । शूला., यो. चि. म. । अ. २; शंखभस्म ३० भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर र हा. सं. स्था. ३ . ७: ७. यो. त.। खरल करें। __त. ९४) मात्रा-माशे । (व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती) शङ्खचूर्ण' सलवणं सहिच्योपसंयुतम् । ___ इसे शहदके साथ देनेसे मुमूर्युकी हिचकी भी उष्णोदकेन तत्पीतं शूलं हन्ति त्रिदोषणम् ॥ तत्काल नष्ट हो जाती है। यह पांचों प्रकारको शंख भस्म, सेंधा नमक, भुनी हुई हींग, सोंठ, हिचकीको नष्ट करता है। __मिर्च और पीपल; सबके समान भाग चूर्णको एकत्र (७५३०) शाचूर्णम् (१) मिलाकर खरल करें । (भै. र. । शूला. ; रसे. सा. सं. ; र. ५.: धन्व: इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे त्रिदोषज र. रा. सु. । शूला.।) । शूल नष्ट होता है। पापूर्ण पलञ्चैव पश्चैष लवणानि च । (मात्रा-१-१॥ माशा ।) क्षारटाङ्गणकं जाती शतपुष्पा यमानिका ॥ १ शव क्षारमिति पाठान्तरम For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भेषज्य-पलाकरः [प्रकारादि (७५३२) शाद्रावकः (१) शंखचूर्ण मिलाकर सबको आतशी शीशीमें भरकर ( भै. र. । उदररो.. यो. त.। त. २४: वृ. यो. वारुणियन्त्रद्वारा अर्फ खींच लें । त.। त. ७१, र. का. धे.। उदररो.; . इसमें कौड़ी और शंख डालनेसे वे गल धन्व. । उदररो.) जाते हैं। अर्कः स्नुही तथा चिश्चा तिलारग्वधचित्रकम् । यह उदर रोगोंको नष्ट करता है। अपामार्गभस्म समं वस्त्रपूतं जलं हरेत् ॥ ( मात्रा-८-१० बूद ) मृब मिना पचेत्तत्तु यावल्लवणताङ्गतम् । (इसे ४ गुने पानीमें मिलाकर इस प्रकार पीना लवणेन समौ ग्राह्यौ द्वौ क्षारौ टाणं तथा ॥ चाहिये कि दांतोंको न लगे; नहीं तो दांत खराब समुद्रफेनं गोदन्तं काशीशं सोरकं तथा।। हो जायंगे।) द्विगुणं पश्चलवणं मातुलुङ्गरसेन च ॥ काचकूप्यान्तु सप्लाई वासयेदम्लयोगतः । (७५३३) शहद्रावः (२) (अमृतार्णयो रसः) शङ्खचूर्णपलं दत्त्वा वारुणीयन्त्रमुद्धरेत् ।। (वृ. यो. त. । त. ७१) सर्वधातन हरेच्छीघ्रं वराटीशनकादिकान। चिश्वायत्यस्मुहीमुष्कापामार्गास्य भस्मतः ॥ रोगाणासुदरादीनां सघो नाशकरः परः॥ पृथक्समद्धरेयुक्त्या लवणानि भिषग्वरः। टङ्कणं च यवक्षारं स्वर्जिकां लवणानि च । आक, स्नुही (सेंड-थूहर ), इमली, तिल, रामठं तालकं चैव लोणारं नवसागरम् । अमलतासकी छाल, चीता और अपामार्ग इनकी सोमक्षारं च गोदन्तां ताप्यं गन्धक रजः ॥ राख समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर विडं समुद्रफेनं च सौराष्ट्री सोरकं विषम । २१ गुने पानीमें मिला लें और क्षार बनानेकी शङ्खचूर्ण शङ्खनाभिचूर्ण पाषाण रजः ॥ विधिके अनुसार स्वच्छ पानी नितार लें। (भा. भै. मनःशिलां च कासीसं सममेतत्तु कारयेत् । र. प्रथम भागका परिशिष्ट देखिये ।) तदनन्तर उसे अम्लवेतसजद्रावैरातपे भावयेदिनम् ।। मन्दाग्नि पर पकाकर क्षार बनावें । सप्तधा तदभावे तु जम्बीराम्लेन तत्रिधा। यह क्षार एक भाग, तथा सज्जीखार, जवा- अतिशुष्कमिदं काचकूपिकाजठरे क्षिपेत् ॥ खार, सुहागा, समुद्रफेन, गायका दांत, कसीस | कूपीद्वयं नियोज्यान्यद्वारुणीयन्त्रमाचरेत् । और सोरा १-१ भाग एवं पांचों नमक २ भाग तत्तेजस्तु ततो ग्राह्यं भिपजा गुरुमार्गतः ।। लेकर सबको बिजौ रेके रसमें खरल करके कांचकी काचपात्रे क्षिपेदेतदिष्टमन्त्राभिमन्त्रितम् । शीशी में भरदें और उसमें विजौ रेका रस डालकर गुमेकं पणेखण्डेन गुनाद्वयमथापि वा ॥ रखदें। फिर सात दिन पश्चात् उसमें १ भाग । मक्षयेदय वा देहबलाग्न्युचितमात्रया ॥ For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः ९७ - - कासवासं क्षयाजीण ग्रहणीमुदराणि च ॥ मिला कर वारुणी यन्त्र बनावें तथा यथा विधि गुल्मारोचकमन्दानि प्लीहकच्छपिकाकृमीन् । अर्क खींच लें । अर्शीश्मरीमूत्रकृच्छमूत्राघातांच पाण्डुताम् ॥ मात्रा-१ यो २ रत्ती। आमवातं च कुष्ठानि पक्षाघातादिकागदान् ।। इसे पानमें लगाकर खाना चाहिये । अशीति संख्यान्वातोत्थालेष्मोत्यान्वि इसके सेवनसे कास, श्वास, क्षय, अजीर्ण, शति तथा ॥ ग्रहणी रोग, उदर रोग, गुल्म, अरुचि, अग्निमांद्य, शूलानि शोषान्यक्ष्माणमजीर्णानि निहन्ति च । प्लीहावृद्धि, कृमि रोग, अश्मरि, मूत्रकृच्छ, मूत्राघात, भुक्त्वा तु कण्ठपर्यन्तं रसं गुओन्मितं लिहेत् ॥ | पाण्डु, आमवात, कुष्ठ, पक्षाघातादि वातज रोग, भस्मीभवति तदभुक्तं पुनर्भोजनमिच्छति । । कफज रोग, शूल, शोष, और अजीर्ण आदि रोग यामार्थावावयत्येव शङ्खधात्वमवज्रकम् ॥ नष्ट होते हैं । मांसे दत्त्वाऽऽतपे स्थाप्यं मांस द्रवति तत्क्षणात्॥ कण्ठ पर्यन्त भोजन करके १ रत्ती यह रस इमलीका खार, अश्वत्थ* ( पीपल वृक्ष ) का खा लिया जाय तो वह सब पच जाता है और क्षार, स्नुही (सेहुंड) का क्षार, मुष्कक (मोखा वृक्ष) | पुनः भूख लगती है। का क्षार, अपामार्गका क्षार, आकका क्षार, सुहागा, ____ यह रस आधे पहरमें शंख, धातु और हीरेको जवाखार, सज्जीखार, पांचो नमक, होंग, शुद्ध गला देता है । हरताल, लोणार (सामुद्र नमक), नवसादर, सोमक्षार (सोमल ?), गोदन्तीहरताल, सोनामक्खी, यदि इसे मांस पर डाल कर धूपमें रख दिया शुद् गंधक, विड नमक, समुद्रफेन, सौराष्ट्री | जाय तो मांस पिघल जाता है । ( सोरठी माटी या फिटकी ), शोरा, शुद्ध बछनाग, (७५३४)शखद्रावः (४) शंखचूर्ण, शंखनाभि--चूर्ण, पत्थरका चूना, मन- (वैद्यामृत. । अलंका. २) सिल और कसीस; इनका चूर्ण समान भाग ले कर अर्कस्नुक्सातलाचिश्चापलाशकदलीतिलाः । सबको सात दिन तक अम्लवेतके रसकी धूपमें अपामार्गों मुष्ककश्च कपर्दः शङ्ख एव च ॥ भावना दें। यदि अम्लवेतका रस न मिले तो २१ । एतेषां भूतिमाक्षारः पारदः पटपञ्चकम् । दिन तक जम्बीरी नीबूके रसकी भावना दें ।। | पश्चक्षाराः समं सर्व विभागो गन्धकः स्मृतः।। तदनंतर उसे अत्यन्त शुष्क करके काचकी आतशी | भूरसा चैव सोरा च कासीसन्नवसादरः। शीशीमें भर दें और उसका मुख दूसरी शीशीसे । एतच्चतुष्टयं सर्वैरौषधैस्तुल्यभागिकम् ॥ .. ___ * पीपलवृक्षके स्थानमें पाठान्तरके अनुसार | सर्वेषां कजलिं कृत्वा निम्बुनीरेण मर्दयेत् । अमलतास है। प्रदधान्नलिकायन्त्रे वह्नि यामचतुष्टयम् ॥ १३ For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3D भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि दत्वा द्रवं तु गृह्णीयात्सूतिकाद्रवकारकम् ।। | एतत्सर्वं समालोडय भाव्यं जम्बीरनीरतः । एकवल्लं द्विवल्लं वा दद्यान्नलिकया रसम् ॥ सरन्धे नलिकायन्त्रे यामयुग्मं विपाचयेत् ॥ गुल्माःप्लीहमुख्यानां रोगाणामन्तक:परम् । शहद्रावो भवेदेष सर्वदोषनिकृन्तनः । शकद्रवरसो खेषाकृतकर्मा न संशयः ॥ लोहपाषाणशकानां द्रावकोयं न संशयः ॥ आकका क्षार, स्नुही (सेहुंड-सेंड) का क्षार, पांचों नमक, जवाखार, सज्जीखार और सातलाकाक्षार,इमलीकाखार, पलाशक्षार,केलेका क्षार, सुहागा ५-५ भाग; कसीस, सुहागा, नीलाथोथा, तिलका क्षारे, अपामार्गका क्षार, मुष्कक (मोखावृक्ष) | गन्धक, नीबूका रस, तिलका क्षार और अपामार्गका का क्षार, कौड़ीभस्मका क्षार, शंखभस्मका क्षार, । क्षार १-४ भाग; तथा नौसादर, फिटकी और पारद,पांचों नमक, जवाखार, सज्जीखार, पलाशक्षार, सन्जी २-२ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके तिलक्षार और मुष्ककक्षार १-१ भाग, शुद्ध गंधक | जम्बीरी नीबूके रसमें घोटें और फिर भवके ३ भाग तथा भूरसा (8), सोरा, कसीस और नौसा- (नलिकायात्र)से अर्क खींच लें। दो पहरकी अग्नि दर ६-६। भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | देनेसे सम्पूर्ण अर्क निकल आयेगा । कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे | ..यह समस्त अजीर्ण विकारोंको नष्ट करता है। मिलाकर सबको अच्छी तरह खरल करें । तदनन्तर | इसमें लोह, पत्थर और शंख गल जाता है । उसे नीबूके रसमें घोटकर नलिकायन्त्र (भभके) से (मात्रा-३-४ बूंद । पानीमें डालकर अर्क खींचें । ४ पहरमें अर्क निकल आयेगा। पीना चाहिये।) . मात्रा-३ से ६ रत्ती तक। (७५३६)शखद्राव: (६) . इसे (पानी में मिलाकर) कांचकी नलीसे पिलाना (यो. चि. म. । अ. ९) चाहिये कि जिससे दांतोंको न लगे । स्फटिका च यवक्षारं सोरोथ नवसादरम् । इसके सेवनसे गुल्म, अर्श और प्लीहादि रोग समभागैरिमाभिश्च शङ्खद्रावो रसो मतः ॥ नष्ट होते हैं। काचकूपी द्वयं नीत्वा दत्वा कर्पटमृत्तिका । (७५३५)शक्खद्रावः (५) एकस्य विवरं कृत्वा भित्वा धान्याः सदौषधीः। गजकुम्भास्य यन्त्रेण चुल्यां च खर्परोपरि। (वृ. नि. र. । अजीर्णा.) धृत्वा दत्वा च मन्दाग्नि तसं काचभाजने ॥ लवणानि तथा क्षारा: प्रत्येकं पञ्चभागिका। | गृहीत्वा स्थापयेत्सम्यक् गृहिणीयं शुभे दिने। कासीसं टङ्कणं तुत्यं गन्धकं निम्बुकद्रवम् ।। शखद्रावेति तन्मध्ये शखद्रावस्ततोमतः ॥ तिलापामार्गजं क्षारं प्रत्येकं वेदभागिकम्। । कुम्भकेन प्रमुश्चेत जिहाग्रे तालुकोपरि। नवसागर सौराष्ट्री सर्जिका नेत्रभागिका ॥ दन्ताः पतन्ति लग्नेस्मिन् शेषरोगस्य का कथा॥ For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् पञ्चमो भागः अखिलोदररोगाणां निहन्यात् गुल्मकस्य च । चुल्यां प्ररोहयेतत्त ज्वालयेखदिरेन्धनैः । कालिकं प्लीहक हन्ति हृद्रोगं ग्रहणीयकृत ॥ द्रावितं तत्समादाय तेजोरूपं जलप्रभम् ।। ऊर्धकासं कर्फ वासं आमवातं विनाशयेत् । द्रावयेदखिलान् धातून वराटांश्च न संशयः । कान्ति नीरोगतां पुष्टिं जठराग्नविवर्द्धनम् ॥ शावरसो नाम गुल्मोदरहरः परः ॥ फटकी, जवाखर, शोरा और नौसादार समान | सेंधानमक, जवाखार और नौसादार, १०-१० भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके कपरमिट्टी की तोले, शोरा २० तोले, फिटको ५ तोले और हुई आतशी शीशी में भरें और उसमें एक कांचको कसीस २॥ तोले लेकर सबको आतशी शीशीयोंके नली लगाकर उसका दूसरा सिरा अन्य शीशी में नलिकायन्त्रमें डालकर चूल्हे पर चढ़ावें और नीचे लगादें तथा औषधवाली शीशीको मिट्टीकी नांदमें खैरकी लकड़ियोंकी आग जलावें । इससे जो अर्क रखकर चूल्हे पर चढ़ा दें और नीचे धीमी आग निकले उसे शीशीमें भरकर रक्षित रक्खें । जलावें । दूसरी शीशीमें जो रस एकत्रित हो उसे । इसमें समस्त धातु और कौड़ी गल जाती हैं। सुरक्षित रखें। इसके सेवनसे गुल्मोदर नष्ट होता है । यह शंखको द्रवित कर देता है इसीसे इसे (मात्रा-३-४ बूद । पानीमें डालकर शंखदाव कहते हैं । यदि यह दांतोंको लग जाय तो दांत गिर जाते हैं। (७५३८) शङ्खद्रावः (८) ___इसके सेवनसे गुल्म, प्लीहा, यकृदादि सम्पूर्ण (वै. र. । शूला.) उदर रोग, हृद्रोग, ग्रहणी, ऊर्वकास, कफ, श्वास कासीसात्पलषट्कम्पकचतुबिल्वविचूर्णक्षिपेत्कृप्य और आमवातका नाश होकर कान्ति, आरोग्य, काचभवा द्वयोस्तु नलिका प्रोत्तोत्तरामित्युभे । पुष्टि और जठराग्निकी वृद्धि होती है। विन्यस्य ज्वलने यदुव॑नलिकाट कात्रवेत्तत्स्फुट मात्रा-५-६ बूद थोड़े पानीमें चिलाकर | शङ्खद्राव इति स्मृतंजलमिदं वल्लोन्मितं सर्पिषा॥ सेवन करना चाहिये ।) लिप्ताग्रे रसनां विधाय नलिकायन्त्रे ग्रसेनस्पृशे दन्तै रेतदुदग्रशूलविविधः प्लीहादिदुष्टोदरी। (७५३७)शवद्रावः (७) | गुल्मी तूणियुगोर्ध्ववातगुदजाजीर्णानलापाययुक्त ( वृ. नि. र.; यो. र. । गुल्मा. ) स्यादेतस्य निषेवणादचिरतो नैषां पुनर्भाजनम्॥ सैन्धवं च यवक्षारं नव्यसारं नथैव च । ___ कसोस ३० तोले और सुहागा २० तोले प्रत्येक द्विपलं ग्राह्य सुराक्षारं चतुष्पलम् ॥ लेकर दोनोंका चूर्ण करके सांचके नलिकायन्त्रमें फटकी पलमेकं च पलाध कासिसं तथा । डालकर अर्क खींचें। सवेमेकत्र संयोज्यं उमस्यन्त्रमध्यगे ।। मात्रा-३ रत्ती। For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १०० [शकारादि । इसे खाने से पूर्व जिह्नाको घी लगालेना चाहिये, तथा दवा काचकी नलीसे इस प्रकार कण्ठमें डालनी चाहिये कि जिससे वह दांतोंको न लगे । शङ्खचूर्ण यवक्षारं सर्जिकाक्षारटङ्गणम् । समञ्च पञ्चलवणं स्फटिकारी नृसादरः ॥ काचयां ततः क्षिप्त्वा वारुणीयन्त्रमुद्धरेत् । यामार्द्ध द्रावयत्येष शङ्खशुक्तिवराढकान् ॥ अशीसि नाशयेत् षट् च मूत्रकृच्छ्राश्मरीं तथा । उदराष्ट्रविधं हन्ति गुल्मप्लीहोदराणि च ॥ अजीर्ण नाशयेच्छीघ्रं ग्रहणीश्च विशुचिकाप । भुक्तशेषे च भोक्तव्यो बिन्दुमात्रो रसोत्तमः ॥ क्षणमात्राद्भवेद्भस्म पुनर्भोजनमिच्छति । प्रत्यहं भोजनान्ते च संसेव्योऽयं रसोत्तमः ॥ न रुजायां भयं कापि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् | न देयं यस्य कस्यापि सदा गोप्यश्च कारयेत् ॥ रसः शङ्खद्रवो नाम वैद्यानामुपकारकः ॥ भारत-भैषज्य - - इसके सेवनसे तीव्र शूल, प्लीहा, गुल्म, तूणी, प्रतूणी, ऊर्ध्व वात, अर्श, अजीर्ण और अग्निमांद्यका नाश होता है । (७५३९) शङ्खद्राव: ( ९ ) ( व. से. । उदरा. ) स्वर्जिक च यवक्षारः कासीसं टङ्कर्णं तथा । सौराहं सैन्धवश्चैव स्फटिकं नवसारकम् ॥ सर्वमेकत्र कर्त्तव्यं सूक्ष्मचूर्णन्तु कारयेत् । कूपिमध्ये क्षिपेत्तन्तु द्रावयेद्वावयन्त्रके ॥ गुल्मं प्लीहांस्तथानाहं रोगान्सर्वोदरांस्तथा । अशसि ग्रहणीदोषं भगन्दरवणानि च ॥ नाशयेन्नात्र सन्देहो नान्यथा शङ्करो ब्रवीत् ॥ सञ्जी, जवाखार, कसीस, सुहागा, सोरा, सेवा नमक, फिटकरी, और नौसादर समान भाग लेकर सबको एकत्र तरल करके आतशी शीशी में भरें और नलिकायन्त्र ( भपके) से अर्क खींच लें। इसके सेवन से गुल्म, प्लीहा, आनाह, समस्त उदर रोग, अर्श, ग्रहणी, भगन्दर और व्रणका नाश होता है। (७५४० ) शङ्खद्रावको रसः ( भै. र.; धन्व. । प्लीहय . ) योगिनीभैरवाभ्याञ्च बलिमादौ प्रदापयेत् । पश्चान्त्रश्च कर्तव्यमेवमाह परमेश्वरी ॥ रसः शङ्खद्रवो नाम शम्भुदेवेन भाषितः । गुह्याद्गुह्यतमं गुह्यमिदानीं कथ्यते मया ।। - रत्नाकरः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शंखद्रावक रसका आविष्कार शम्भु महादेवने किया था । इसे बनाने से पहिले योगिनी और भैरवको बली देनी चाहिये । यह एक अत्यन्त गुप्त प्रयोग है जो आज प्रकट किया जाता है । शंखचूर्ण, जवाखार, सञ्जीखार, सुहागा, पांचों नमक, फटकी और नौसादार समान भाग लेकर सबको आतशी शीशी में भरकर वारुणीयन्त्रकी विधि अर्क खींच लें। यह रस शंख, सीप और कौड़ीको आधे पहर में गला देता है । इसके सेवन से अर्श, मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, आठ प्रकार के उदर रोग, गुल्म, प्लीहा, अजीर्ण, ग्रहणी रोग और विसूचिकाका नाश होता है । भोजनोपरान्त इसकी एक बूंद खा लेनेसे आहार तुरन्त पच कर पुन: भूख लग आती है। For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः इसे भोजनके उपरान्त ( पानीमें डालकर )। नोट-औषध वाली कूपी तथा दूसरी सेवन करना चाहिये । कांचक्री शीशी पर सात कपरमिट्टी कर देनी (मात्रा-१-२ बूद) चाहिये। (७५४१) शङ्खद्रावरसः मात्रा-४ माशा । (व्यवहारिक मात्रा(र. सं. क. । उल्ला . ४) ८-१० बूंद) फिरी सादरं सोरं त्रयमेकत्र चूर्णयेत् । इसे इस प्रकार पीना चाहिये कि दांतोंको तक्षिपेन्मृण्मये कूपे नालहस्तमिते दृढे ॥ न लगे । सरन्ध्रोदरकाचोत्थे कूपे तत्सन्नियोजयेत् । । इसके सेवनसे गुल्म, यकृत, प्लीहा, प्रन्थि सप्तधा वेष्टयेत्पश्चात्कूपको वस्त्रमृत्स्नया | और शूलका नाश होता तथा बल पुष्टि की वृद्धि खर्परे वालुकापूणे तिर्यगौषधकूपकम् । . होती है । एवं भोजन शीघ्र पच जाता है। अर्ध यन्त्रे निधायाथ श्रीगुरोः संपदायतः॥ इसमें कौड़ी, लोह और शंख डाल देनेसे वे अधोमुखं, द्वितीयं तु स्थाप्यं चुल्ले पराङ्मुखे। गल जाते हैं। अधः प्रज्वालयेदग्निं हठायावद्रसः सवेत् ॥ धारयेत्काचजे पात्रे शङ्खद्रावं रसायनम् । शहद्रावरसः शाणैक सेवयेत्पश्चादन्तस्पर्शविवर्जितम् ॥ प्र. ५६९८ महाद्रावकम् देखिये । गुल्मोदरयकृप्लीह विद्रधिग्रन्थिशूलनुत् । शङ्खद्रावरसः (महा) बलपुष्टिप्रदो ह्येष भुक्तं जारयते क्षणात् ॥ प्र. सं. ५६९९ महादावकरसः देखिये । विलोक्यतामहो लोका रसमाहात्म्यमद्भतम् । (७५४२) शङ्खनाभिचूर्णम् कपर्दकाम्बुलोहानि यस्मिन् क्षिप्ते गलन्ति हि ॥ ( वृ. यो. त.। तं. १०५; यो. र. ; व. फिटकरी, नौसादर और शोरा समान भाग लेकर सबको एकत्र पीस लें और एकमिट्टीको कूपी से. । उदरा.) में भरदें । इस कूपीमें १ नाल लगादें और चूल्हे रसेन जम्बीरफलस्य शङ्खपर रेतीमें भरी हुई हांडी रख कर उसमें यह कूपी | नाभिरजः पीतमवश्यमेव । तिरछी करके रख दें। कूपोका आधा भाग रेतके कर्षप्रमाणे शमयेदशेष भीतर दबा देना चाहिये। एवं नालका दूसरा सिरा प्लीहामयं कूर्मसमानमाशु ॥ दूसरी कांचकी शीशीके मुखमें लगादे और चूल्हे में शंखनाभिके १। तोला चूर्णको जम्बीरी भग्नि जलावें। नीबूके रसके साथ सेवन करनेसे अत्यन्त प्रवृद्ध इससे जो अर्क निकले उसे सुरक्षित | प्लीहा भी ठीक हो जाती है। रखें। ( व्यवहारिक मात्रा-१ माशा ।) For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि 3 शङ्खनाभिरसः आमज्वरातिसारे च श्वासे कासे तथैव च । शङ्खगर्भपोटलीरसः प्र. सं. ७५२८ श्लेष्मपित्तामवातेषु मन्दानौ ग्रहणीषु च ॥ देखिये । अष्टादशप्रमेहेषु जीणे जीर्णबलेषु च । द्वात्रिंशन्मरिचेः साकं संवृतं वलुपश्चकम् ॥ (७५४३) शङ्खपोटलीरसः (१) । सर्वरोगेषु दातव्यं मरिच्याज्यं विना ज्वरे। ( भा. प्र. म. खं. २ । प्रवाहिका. ; र. चि. शालयो दधिदुग्धादि भोजनं मधुरं हितम् ॥ म.। स्त. ७) कदम्लक्षारतलाघान्दूरतः परिवर्जयेत् । प्रत्येक दशगयाणाः शुद्धमृतकगन्धयोः। विधिनाऽनेन कर्तव्यो रसोऽसौ शङ्खपोटली ॥ विशति त्रिदिनं खल्वे पिष्टवा कुर्याच्च कजलीम् ।। क्रमेण विनिवर्तन्ते प्रोक्तरोगा न संशयः ॥ पवादकस्य दुग्धेन पिष्ठा तां कज्जली व्यहम्। दस दस भाग शुद्ध पारे और गन्धकको ततो पत्रस्य दुग्धेन पिष्ट्वा तां कजली व्यहम् ॥ ३ दिन खरल करके कजली बनावें । तदनन्तर आर्द्रकं चित्रकं श्वेत निःसहायश्च मर्दयेत् ।। उसे ३-३ दिन आकके दूध, सेहुंड (धूहर) के पेषयेत्तद्रसैरेवं कज्जली तां दिनत्रयम् ॥ दूध तथा अद्रक, सफेद चीते और अमरबेलके पीतानाच कपर्दीनां चूर्ण गधाणविंशतिः। रसमें क्रमशः खरल करें। विंशतिः शंखचूर्णस्य चत्वारिंशच मिश्रितम् ॥ तत्पश्चात् २०-२० भाग पीली कौड़ी और त्रिदिनं मर्दयेत्खल्वे पूर्वोक्तेन क्रमेण च ।। शंखके चूर्णको एकत्र मिला कर ३-३ दिन आफ ध्यहमर्कस्य दुग्धेन बजीदुग्धेन च व्यहम् ।। और थूहरके दूधमें खरल करें और उसमें उपरोक्त तन्मध्ये कज्जली क्षिप्त्वा चित्रकारसेन तु । कजली मिला कर सबको चीतेके काथ और अदरकके रसमें खरल करके बेरके समान गोलियां खल्वे पिष्वा द्वयोः कार्या गुटयो बदरसम्मिताः॥ बना लें। इसके पश्चात उन गोलियोंको चूना लिप्त्वा दग्धाश्मचूर्णेन पककुहरिकान्तरम् । पुती हुई मिट्टीकी पक्की कुल्हिया (कुल्हड़) में रख पक्षिप्य गुटिकास्तत्र चूर्णलिप्तपिधानकम् ।। कर उस पर चूना पुता हुवा ढकना ढक दें और दत्त्वा वस्त्रं मृदा लिप्त्वा गत हस्तप्रमाणकम् । कपरमिट्टी करके सुखा लें । तदनन्तर भूमिमें १ तद्र्भ कुडरी मुक्त्वा पुटो देयश्च शाणकैः॥ हाथ गहरा गढ़ा खोद कर उसमें इस कुल्हड़को पश्चाचित्रकनीरेण स्वांगशीतञ्च पेषयेत् ।। रख कर अरने कण्डेकी पुट दें। गटिकां पूर्वरीत्यैव कृत्वा देयः पुनः पुटः ॥ जब कुल्हड़ स्वांगशीतल हो जाय तो उसमेंसे दग्धानां गुटिकानाश्च चूर्ण कृत्वाथ कूपके । गोलियोंको निकाल कर चीतेके काथमें खरल क्षेप्यं चैवं हि निष्पनो रसोऽयं शंखपोटली॥ करें और पुनः गोलियां बना कर उपरोक्त विधिसे For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भाग: चूना पुते हुवे कु-हड़में बन्द करके पुट दें एवं | प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर स्वांग शीतल होने पर निकाल कर पीस कर सुर- | उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर खरल क्षित रक्खें । | कर लें। ___ इनके सेवनसे आमातिसार, ज्वरातिसार, । मात्रा-४ माशे । (व्य. मा.-१ माशा।) श्वास, कास, कफ, पित्त, आमवात, अग्निमांद्य, इसे धीमें मिला कर सेवन करनेसे क्षयका प्रहणी रोग, १८ प्रकारके प्रमेह और निर्बलता नाश होता है। आदि रोगांका नाश होता है। मात्रा-१५ रत्ती (व्यवहारिक मात्रा-२ (७५४५) शङ्खभास्कररसः ३ रत्ती ।) (२. सं. क. । उल्ला. ४ ; र. का. धे. । शूला.) ...ज्वरके अतिरिक्त अन्य गोमें इसे ३२ | दग्धं शङ्ख वराटं च तुल्याकै नवनीतयुक् । काली मिचौके चूर्ण और घीके साथ देना | राधे भक्षयेत्सवेशूलातः शखभास्करः ॥ चाहिये। ___ शंख भस्म और कौड़ी भस्म १-१ भाग - पथ्य-शालि चावल, तथा दूध दही आदि तथा ताम्र भस्म २ भाग ले कर सबको एकत्र मधुर आहार । खल कर लें। अपथ्य-चरपरे ( मिर्च आदि) पदार्थ. मात्रा-४ माशे (व्यवहारिक मात्राखटाई, क्षारे, और तैलादिको छूना भी न २ रत्त चाहिये । इसे नवनीत (मक्खन) के साथ सेवन कर(७५४४)शङ्खपोटलीरसः (२) | नेसे समस्त प्रकारके शूल नष्ट होते हैं। (वृ. नि. र. । क्षय.) (७५४६) शवमारणम् । ( रसे. सा. सं.) रसं गन्धं कम्बोर्भसितमपि कापर्दभसितम् मरीचं भूचन्द्राम्बुधिरससहस्रांशुलविकम् । | अन्धमूषागतं शङ्खं पदमेकं विचक्षणः । रसांध्यंशं टकं सकलमपि चूर्णीकृतमिदं माषाईटणैर्मिश्रं दण्डयन्त्रेण मारयेत् ॥ क्रमाचावन्निष्कं घृतसहितमयात्क्षयहरम् ॥ | शङ्खः सर्वरुजां हन्ति विशेषादुदरामयम् । शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक १ भाग, | शूलाम्लपित्तविष्टम्भमेहहृद्वहिदीपनः ॥ शंख भस्म ४ भाग, कौड़ी भस्म ६ भाग, काली २४ भाग शंखमें १ भाग सुहागा मिला कर मिर्च १२ भाग और सुहागा चौथाई भाग ले कर ! सबको अन्धमूषामें बन्द करके गजपुटमें पकावें । For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः १०४ जब पुट स्वांगशीतल हो जाय तो शंखको निकाल कर पीस लें । भारत शंख उदर रोग, शूल, अम्लपित्त, विष्टम्भ, प्रमेह और हृद्रोगको नष्ट करता तथा अभिकी वृद्धि करता है । (७५४७) शङ्खयोग: ( वै. म. र. । पट. ११ ) शङ्खं विघृष्य सहसा प्रातः पीतं च सप्ताहात् । अपहरति कामलाति बाणो रामस्य ताटकां भीमाम् ॥ शंखको पानी के साथ घिस कर सात दिन तक प्रातःकाल पीनेसे कामलाका नाश हो जाता है । (७५४८) शङ्खवटी (१) (वृहद्) ( र. रा. सु. ; र. का. घे. ; भा. प्र. म. खं. २ । अजीर्णा. ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि ग्रन्थिकं चित्रकं चापि यवानीजीरकं तथा । जातीफलं लबङ्गं च पृथकर्षद्वयोन्मितम् ॥ रसो गन्धो विषं चापि टङ्कणं च मनःशिला । एतानि कर्षमात्राणि सर्व सवर्ण्य मिश्रयेत् ॥ सरावार्द्धन चुक्रेण सन्नीय वटिकां चरेत् । मासप्रमाणा सा वैद्यैर्ब्रहच्छडूखवटी स्मृता ॥ सर्वाजीर्ण प्रशमनी सर्वशूलनिवारिणी । विषूच्यलसकादीनां सद्यो भवति नाशिनी ॥ स्नुही ( थूहर ) का क्षार, आकका क्षार, इमलीका क्षार, अपामार्गका क्षार, केलेका क्षार, तिलका क्षार, पलाशक्षार और पांचो नमक १ - १ पल (५-५ तोले); सज्जीखार, जवाखार और सुहागा समान भाग मिश्रित ५ तोळे ले कर सबका बारीक चूर्ण बनावें और उसे १ सेर (८० तोले ) नीबू के रस में मिला दें । तदनन्तर उसमें ५ तोले शंखको तपा तपा कर सात बार बुझावें जिससे उसकी भस्म हो जाय । तत्पश्चात् उसमें १५ तोले सोंठ, १० तोले मिर्च, ५ तोले पीपल, २ ॥ तोले भुनी हुई हींग और २ || - २॥ तोले पीपलागूल, चीता, अजवायन, जीरा, जायफल और लौंगका चूर्ण तथा ११ - १| तोला शुद्र बछनाग, सुहागेकी खील और गनसिल एवं ११ - १ | तोला शुद्ध पारद और गंधककी कज्जली मिला कर घोटें और फिर २० तोले चुक डालकर खरल करें तथा १ - १ माशेकी गोलियां बना लें । स्नुगर्कचिश्चाऽपामार्गरम्भा तिलपलाशजान्। aria भिषगादद्यात्मत्येकं पलमात्रया || लवणानि पृथक् पञ्च प्रायाणि पलमात्रया । सर्जिकाच यवक्षारं टङ्कणं त्रितयं पलम् || स त्रयोदशपलं सूक्ष्मं चूर्ण विधाय तु । निम्बूफलर से प्रस्थसम्मिते तत्परिक्षिपेत् ॥ तत्र शङ्खस्य शकलं पलं वह्नौ प्रताप्य तु । वारान्निर्वापयेत्सप्त सर्व द्रवति तद्यथा ॥ नागरं त्रिपलं ग्राह्यं मरिचं च पलद्वयम् । पिप्पली पलमाना स्यात्पलार्द्ध भ्रष्टहिङ्गुकम् || अलसकादि रोगों का नाश होता है । इनके सेवन से अजीर्ण, शूल, विसूचिका और For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पश्चमो भागः - (७५४९)शसवटी (२) चिश्नाशङ्खचतुर्गुणं रसबरे लिम्पाकजाते कृतम् । (वृ. यो. त. । त. ७१) बारम्बारमिदं सुपाकरचितं लोहं क्षिपेद्धिक शझं सात दिनानि निम्बुकरसे निर्वाप्य तप्तं पल- भृष्टं वासमं सुमर्दितमिदं गुनाप्रमाणा भवेत् ।। द्वन्द तिन्तिणिभूतिका पलमिता सार्दै च सौव- ख्याता शङ्खयटी महामिजननी शूलान्तकृत् चलात् पाचनी सिन्धृत्याच्च पलं समुद्रलवणं काचादिडा कासश्वासविनाशिनी क्षयहरी मन्दाग्निसन्दीपनी चैकतो गधाणास्त्रिकटोनव द्विगणिता एतद्धिया योजयेत वातव्याधिमहोदरादिशमनी तृष्णामयोच्छेदिनी। अष्टौ रामठ गन्धयोमिलितयोगद्याणकः पारदा सर्वव्याधिविनाशिनी कृमिहरी दुष्टामयध्वंसिनी॥ च्चत्वाराऽत्र विषस्य पञ्च कथिताः कोलास्थि जवाखार, सज्जीखार, शुद्ध पारा, शुद्र गंधक, मात्रा कृता। सेंधा नमक, सांठ, मिर्च, पीपल और शुद्ध बछनाग एषा शङ्खवटी निहन्ति पवनं शूलान्यजीर्णामयं । (मीठा विष) एक एक भाग, इमलीका खार ४ मन्दामित्वमरोचकं प्रशमयेन्मूत्रस्य कृच्छ्राण्यपि भाग, तपा तपा कर नीबूके रसमें बार बार १० तोले शंखको तपा तपा कर बार बार बुझा कर भस्म किया हुवा शंख ४ भाग तथा नीबूके रसमें बुझावें । जब उसकी भस्म हो जाय उत्तम लोह भस्म, घोमें भुनी हुई हींग और बंग तो उसे नीबूके रसमें ही सात दिन तक पड़ा रहने भस्म १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धकको दें । तदनन्तर ५ तोले इमलीका क्षार, ७॥ तोले । संचल (काला नमक); ५-५ तोले सेंधानमक, | कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका समुद्र लवण, काच लवण और बिड लवण; चूर्ण मिला कर सबको (नीबूके रसमें) खरल करके चूण ३॥-३॥ तोले सेांठ, मिर्च और पीपल; २॥२॥ १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। तोले ग और शुद्ध गंधक; २॥ तोले पारद और यह वटी अत्यन्त अग्निवर्द्धक, शुलनाशिनी ३ तोले २॥ माशा शुद्ध बछनाग ले कर प्रथम और पाचनी है । इसके सेवनसे कास, श्वास, क्षय, पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अग्निमांद्य, वातव्याधि, उदरवृद्धि, तृष्णा और कृमि अन्य समस्त औषधे गिलाकर सबको नीबूके रसमें आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं। घोट कर बेरकी गुठलीके सभान गोलियां बना लें। (७५५१)शङ्खवटी (१) ___इनके सेवनसे शूल, अजीर्ण, अग्निमांद्य, अरुचि (चिश्चाशङ्खवटी) और मूत्रकृच्छका नाश होता है। (यो. २. । गुल्मा.) __(७५५०) शजवटी (३) (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; चिश्चाक्षारं स्नुहीक्षारमर्कक्षारं पलं पलम् । र. का. धे. । अग्निमांद्या.) द्विपलं शङ्कजं भस्म रामठं च पलार्धकम् ॥ द्वौ क्षारौ रसगन्धको सलवणो व्योपच लवणानि च सर्वाणिं पलमात्राणि योजयेत । तुल्यं विषं क्षारद्वयं पलार्धे च सर्वमेकत्र योजयेत् ॥ १४ For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १०६ भारत - मैषज्य रत्नाकर: टी हम्लपित्तशूलघ्नी वह्निदीपनी ॥ आर्द्रकस्य रसेनैव प्रत्येकं दिनमर्दितम् । arratoring anन्कारयेद्भिषक || एकैकं भक्षयेत्प्रातः पञ्चगुल्मान्व्यपोहति । सर्वं शुलं निहन्त्याशु अजीर्ण च विषूचिकाम् मन्दाग्निं नाशयेच्छीघ्रं पश्यं तैलाभ्लवर्जितम् । विश्वाशङ्खवटी नाम ग्रहणी रोगहत्परा ॥ जम्बीरकरसैर्मर्थमनलस्य दिनत्रयम् । भृङ्गराजस्य निर्गुण्डा मुण्डद्याचैव पृथक् द्रवैः । वह्निमान्धकृतान् रोगान् सामदोषं विनाशयेत् । शुद्ध पारा और गन्धक १॥ - १॥ कर्ष, शुद्ध मीठा विष (नाग) ३ कर्ष (३|| तोले), मिर्चका चूर्ण ६ कर्ष (७|| तोले), शंख भस्म ६ कर्ष; सेोठ, सज्जी, हींग, पीपल, सेंधानमक, सञ्चल ( काला नमक ), बिड नमक और सामुद्र नमक तथा उद्भिद लवण ५–५ कर्ष (प्रत्येक ६ । तोले) ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर सबको नीबूके रसमें घोट कर ( ४-४ रत्तीकी ) गोलियां ॥ बना लें। इमलीका क्षार, स्नुही (थूहर ) का क्षार और आकका क्षार ५–५ तोले; शंख भस्म १० तोके, हींग २॥ तोले, पांचों नमक ५-५ तोले एवं जवाखार और सज्जीखार २||२|| तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर ३ - ३ दिन नीबू के रस और चीते काथमें घोटें और फिर १-१ दिन भंगरे, संभालू, मुण्डी और अदरक के रसमें घोटकर बेरकी गुठली के समान गोलियां बना 1 इनके सेघनसे पांच प्रकारका गुल्म, समरत प्रकारके अजीर्ण, शूल, विषूचिका और अभिमांयका नाश होता है । यह बटी ग्रहणी रोगमें अत्युत्तम काम करती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७५५२) शङ्खवटी (५) 1 ( र. चं. ; रसे. सा. सं. । अजीर्णा ) सार्द्धं कर्षं रसेन्द्रस्य गन्धकस्य तथैव च । विषं कर्षत्रयं दद्यात् सर्वतुल्यं मरीचकम् ॥ दग्धश च तत्तुल्यं पञ्चकर्षाणि नागरात् । Fafter रामकणा सिन्धु सौवर्चलं विडम् सामुद्रमौद्भिदं चैव भावयेनिम्बुक द्रवैः । | [ शकारादि इनके सेवन से ग्रहणी, अम्लपित्त, शूल, अग्निhi और आमका नाश होता है। (७५५३) शंखवटी (६) । ( र. का. घे. ; यो. र. । अजीर्णा : वृ. यो. त. । त. ७९; यो त । त. २४ ) विश्वाश्वत्थस्नुहीक्षारादपामा गर्कतस्तथा । क्षाराणि पञ्च संगृह्य ततो लवणपञ्चकम् ॥ सैन्धवार्थ समादाय सर्वमेतत्पलद्वयम् । कर्षं कर्षे विषं गन्धे रसं टङ्कणमेव च ॥ इस पर तैल और खटाई रहित पथ्य देना हिङ्गुपिप्पलिशुण्ठीनां तथा मरिचजीरयोः । चाहिये । at at कर्षो पृथक्कार्यों तथा द्वौ शङ्खचूर्णतः ॥ फलत्रयाच्च कषैकं द्विकर्षे तु लवङ्गतः । एतत्सर्व समासाद्य लक्ष्णचूर्णीकृतं शुभम् ॥ मावयेदम्लयोगेन सप्तधा च प्रयत्नतः । रसः शङ्खवटी नाम्ना सेवितः सर्वरोगजित् ॥ गुञ्जामात्रमिदं खादेद्भवेद्दीपनपाचनम् । अजीर्ण वातसम्भूतं पित्तश्लेष्मभवं तथा ॥ विषूच शुलमानाहं हन्यादत्र न संशयः ॥ For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] इमलीका खार, पीपल वृक्षका क्षार, स्नुही ( थूहर ) का क्षार, अपामार्गका क्षार, आकका क्षार और पांचों नमक १० - १० तोले; शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद और सुहागेकी खील १। - १| तोला एवं हींग, पीपल, सोंठ, काली मिर्च, जीरा और शंख भस्म २ ॥ - २॥ तोले; त्रिफला १| तोला और लौंग २॥ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे का महीन चूर्ण मिलाकर सबको नीबू के रसकी सात भावना दें और १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें । " ये गोलिया दीपन पाचन हैं तथा वातज पित्तज और कफज अजीर्ण, विषूचिका, शूल और rairat अवस्य नष्ट करती हैं । ( ७५५४) शङ्खवटी (७) ; ( र. का. घे. ; भै र.; रसे. सा. सं. र. चं.; र. रा. सु. । अग्निमांद्या. ) दग्धशतस्य चूर्ण हि तथा लवणपञ्चकम् । चिञ्चिकाक्षारकञ्चैव कटुकत्रयमेव च ॥ तथैव हि ग्राह्यं विषगन्धकपारदम् । erraritr वह्नेश्व क्वाथैलिम्पाकजै रसैः ॥ भावयेत् सर्वचूर्ण तत् अम्लव गैर्विशेषतः । यावदम्लतां याति गुडिकामृत रूपिणी ॥ estafat चैत्र भस्मकं च नियच्छति । भुक्त्वा कण्ठन्तु तस्यान्ते खादेच्च गुडिका मिमाम् ।। तत्क्षणाज्जारयत्याशु सर्वाजीर्णविनाशिनी । बरं गुल्मं पाण्डुरोगं कुष्ठं शूलं प्रमेहम || वातरक्तं महाशोथं वातपित्तकफानपि । दुर्नामारियाशु दृष्टो बारसहस्रशः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०७ निर्मूलं दह्यते शीवं तुलकं वह्निन। यथा । लोहवङ्गयुता सेयं महाशङ्खवटी स्मृता ॥ प्रभाते कोष्णतोयानुपानमेव प्रशस्यते । जम्बोरबीजपूरश्च मातुलुङ्गकचुक्रकम् ॥ चाङ्गेरी तिन्तिडी चैत्र बदरी करमर्दकम् । अष्टाम्लस्य वर्गोंsi कथितो मुनिसत्तमैः ॥ शंख भस्म, पांचो नमक, इमलीका खार, सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारद समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर सबको अपामार्ग और चीते काथ तथा नीचूके रसकी १ - १ भावना दें और फिर अम्ल वर्ग में इतना घोटें कि औषध खट्टी हो जाय । तदनन्तर ( बेरकी गुठली के बराबर ) गोलियां बना 1 इनके सेवन से अग्नि प्रदीप होती और भस्मक रोग नष्ट होता है । यदि कण्ठपर्यन्त भोजन करनेके पश्चात् यह गोली खाई जाय तो वह भी तुरन्त पंच जाता है। इनके सेवन से अजीर्ण, ज्वर, गुल्म, पाण्डु, कुष्ठ, शूल, प्रमेह, वातरक्त, शोथ और अन्य बहुतसे रोग नष्ट होते हैं । यह अर्शको इस प्रकार नष्ट कर देता है। जिस प्रकार रुईके ढेरको अग्निः यह बात सहस्रों बार देखी है । यदि इसमें १ - १ भाग लोह भस्म और बंग भस्म मिलादी जाय तो इसीका नाम " महाशंखवटी " हो जाता है । For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १०८ अनुपान - मन्दोष्ण जल | सेवन काल प्रातःकाल । www. kobatirth.org अम्लवर्ग - जम्बीरी नीबू, बिजौरा, मातु'लुङ्ग, चुक, चाङ्गेरी, तिन्तडीक, खट्टा बेर और करौंदा | क. । उल्लास ५ भारत - भैषज्य रत्नाकरः (७५५५) शङ्खवटी (2) ( भा. प्र. म. खं. २ । अजीर्णा. ; भै. र. र. रा. सु. ; यो. र. ; र. का. घे. । अग्निमांद्या. ; | यो चि. म. । अ. ३, बृ. यो त । त. ७१; रसे. चि. म. । अ. ९ र. सं. > पलं चिचाक्षारं पठमितमिदं पञ्चलवणं सम्यक्पष्टं भवति लघुनिम्बूफलर सैः । ततः पिष्टे तस्मिन्पलपरिनितं शङ्खशकलं क्षिपेद्वारान्सप्त द्रवमिह च तेनैव विधिना ॥ पलप्रमाणं कटुकत्रयञ्च पलार्द्धमानं व चहिङ्गुभागः विषं पलद्वादशभागयुक्तं तावद्रसो गन्धक एप चोक्तः ॥ बंदरास्थि प्रमाणेन वटीमेतस्य कारयेत् । भक्षयेत्सेवया साम्यात्सर्वा जीर्ण प्रशान्तये ॥ सर्वोदरेषु शूलेषु विसूच्यां विविधेषु च अग्निमान्धेषु गुल्मेषु सदा शङ्खवटी हिता ॥ इमलीका खार ५ तोले और पांचों नमक ५ तोले (प्रत्येक १-१ तोला) ले कर सबको कागजी नीबू के रस में मिलावें और फिर ५ तोले शंखको खूब तपाकर उसमें बुझावें । इसी प्रकार शंखको Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि तपा तपाकर सात बार बुझावें । ( इससे उसकी भस्म हो जायगी ।) तदनन्तर उसमें ५ तोले त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) का चूर्ण, तथा २॥ - २॥ तोले बच और हींग एवं ६० तोले शुद्ध बछनाग ( मीठा विष) और ६०-६० तोले पारे गन्धककी कज्जली मिला कर (आवश्यकतानुसार नीबू का रस डाल कर ) खरल करें और बेरकी गुठली बराबर गोलियां बना ले I विसूचिका, अग्निमांय और गुल्मका नाश होता है। * इनके सेवन से समस्त अजीर्ण, उदररोग, शूल (७५५६) शङ्खवटी (९) (महा) ( भै. र. र. रा. सु.; र. का. घे. अग्निमांद्या) hणामूलं वह्निदन्ती पारदं गन्धकं कणा । त्रिक्षारं पञ्चलवणं मरिचं नागरं विषम् ॥ अजमोदामृता हिङ्गु क्षारं तिन्तिडिकाभवम् । स समभागन्तु द्विगुणं शङ्खभस्मकम् ॥ अम्लद्रवेण सम्भाव्य वटी गुञ्जाद्वयोन्मिता भक्षयेत् प्रातरुत्थाय नाम्ना शङ्खवटी शुभा । अम्लदाडिमतोयेन लिम्पाकस्वरसेन च ॥ तक्रमस्तु सुरासीधुकाक्षिकोष्णोदकेन वा ॥ * पाठान्तर के अनुसार १ वचका अभाव है । २. बचका अभाव तथा हींग एक पल ( ५ तोला ) है । ३. बचका अभाव है तथा त्रिकुटा और हींग मिलित ५ तोले हैं। एवं पारा, गंधक और विष १-१ निष्क हैं । For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमी भागः रसप्रकरणम् ] १०९ शशैणादिरसेनैव रसेन विविधेन च । द्वन्द्वमितानि हिङ्गुसहितान्येला लवङ्गानले लाई मन्दानं दीपयत्याशु बाडवाग्निसमप्रभम् ॥ पारदभस्मकोमृतमथो ताम्रं च कर्षे पृथक् ॥ अर्शास ग्रहणीरोगं कुष्ठमेहभगन्दरम् । चूर्ण माषयुगं सुशीतलजलेनासेवितं शूलनुत् लहानमश्मरीं श्वासकासं मेहोदर क्रिमीन् ॥ गुल्मलीहम जीर्णमग्निमृदुतामत्यम्लपित्तं जयेत् । हृद्रोगं पाण्डुरोगञ्च विबन्धानुदरे स्थितान् । शंख भस्म, पीली कौड़ीकी भस्म, सोंठ, तान् सर्वान्नाशयत्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ॥ मिर्च, पीपल, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, हर्र, बहेड़ा, आमला, लज्जालुकी जड़, पांचों नमक, शुद्ध गंधक, जीरा, अजवायन और हींग २॥-२॥ तोले तथा इलायची, लौंग, चीता, लोहभस्म, शुद्ध बछनाग और ताम्र भस्म ११ - १ | तोला लेकर सबको एकत्र खरल करके चूर्ण बनायें पापलामूल, चीतामूल, दन्तीमूल, शुद्धपारद, शुद्धगन्धक, पीपल, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, पांचों नमक, कालीमिर्च, सोंठ, शुद्ध बछनाग, अजमोद, गिलोय, हींग और इमलीका क्षार १ - १ भाग तथा शंख भस्म २ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको नीबूके रस में घोटकर २ - २ रत्तीकी गोलियां बना लें । 1 : अनुपान - खड्डे अनारका रस, जम्बीरीका रस, तक्र, मस्तु, मद्य, सीधु, काञ्जी, उष्ण जल अथवा शशा और हरिन आदिका मांस रस । ( जब बिना हिंसा के ही काम चल सकता है तो मांस रस लेना व्यर्थ है | ) इनके सेवनसे मन्दाग्नि शीघ्र ही बडवानलके समान दीप्त हो जाती है तथा अर्श, ग्रहणी, कुष्ठ, प्रमेह, भगन्दर, प्लीहा, अश्मरि, श्वास, कास, उदरकृमि, हृद्रोग, पाण्डुरोग और मलावरोधादिका नाश है। (७५५७) शङ्खादिचूर्णम् (१) (बृ. नि. र. । शूला. ) शङ्खः पीतवराटकत्रिकटुकं क्षारत्रयं त्रैफलं सङ्कोची लवणानि गन्धकमथोजाजी यवानी पृथक् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मात्रा - १ माशा । अनुपान - शीतल जल । इसके सेवन से शूल, गुल्म, प्लीहा, अजीर्ण, अग्निमांद्य और अम्लपित्तका नाश होता है । (७५५८) शङ्खादिचूर्णम् (२) ( वृ. नि. र. । शूला.; वै. र. । शूला. ) दग्धरा करअं च हिङ्गुत्र्यूषण सैन्धवम् । एतच्चूर्णीकृतं सर्वं पिबेच्चोष्णेन वारिणा ।। सर्वशुलहरं चूर्ण विख्यातं रविसागरे । शंख भस्म, करञ्जकी गिरी, भुनी हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण समस्त प्रकार के शूलांको नष्ट करता है । मात्रा - १ - १॥ माशा । अनुपान - -- उष्ण जल । For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भेषज्य-रत्नाकरः [शकारादि (७५५९) शङ्खादिचूर्णम् (३) शंख भस्म ४ भाग, शुद्ध अफीम १ भाग, (व. से. । बालरोगा.) तथा जायफल और सुहागेकी खील १-१ भाग | लेकर सबको एकत्र मिलाकर अत्यन्त बारीक शङ्कयष्टयानैश्चूर्ण शिशूनां गुदपाकचत । खरल करें। शंख भस्म, मुलैठी और रसौतका समान मात्रा-१ रत्ती। भाग मिश्रित चूर्ण सेवन करानेसे बच्चांका गुद इसे नवनीत (मक्खन ) के साथ मिलाकर पाकरोग नष्ट होता है। सेवन करनेसे समस्त प्रकारका अतिसार नष्ट (७५६०) शङ्केश्वररसः होता है। (७५६२)शङ्कोदररसः (२) (र. र. स. । उ. अ. १४; र. चं. । राजय.) (र. रा. सु.; वृ. नि. र. । अतिसारा.) शङ्खस्य वलयानिष्कं चतुनिष्कं वराटम् ।। सूतभस्म बलिर्लोहं विषं त्रिकटुक समम ! निष्का नीलतुत्थस्य सर्वतुल्यं तु गन्धकम् ॥ पिष्वा निम्बुजतोयेन शङ्कमेभिश्चतुर्गुणम् ।। गन्धतुल्यं मृत नागं नागतुल्यं मृतं रसम् ।। लिप्त्वा मृदंशुकैलिप्त्वा भाण्डे गजपुः पचेत् । टङ्कणं रसतुल्यं स्यान्मये पाच्यं मृगावत् ॥ शीते च माग्वद्वि क्षिप्त्वा वल्लमात्र प्रयोजयेत । राजयक्ष्महरः सोयं नाम्ना शद्धेश्वरो मतः ॥ जातीफलं च विजया मधुनातिमृतौ ददेत् । __ शंखनाभिकी भस्म १ भाग, कौड़ी भस्म ४ ग्रहण्यां चित्रकाम्बु विजया विश्वभेषजम् ।। भाग, शुद्ध नीलाथोथा ( तूतिया ) आधा भाग, पृथक देयं समधुना मरीचैश्च घृतान्त्रितम । शुद्ध गंधक ५॥ भाग, सीसाभस्म ५॥ भाग, वहिमान्यलये तद्वदरोत्थानिलामये ।। पारदभस्म ५॥ भाग, और सुहागेको खील ५॥ पथ्यं दधना च तक्रेण क्षीरशाश्च संयुतम् । भाग लेकर सबको एक... स्वरल करके मगांकरसके । पारद भस्म, शुद्ध धक, लोहभस्म, शुद्ध समान भावित और पाक करें। बछनाग, सेट, मिर्च तथा पीपल समान भाग यह रस राजयक्ष्माको नष्ट करता है। लकर सबको नीबूके रसमें खरल करें और फिर (७५६१)शङ्कोदररसः (१) उसे सबसे चार गुने शंखके भीतर भरकर उसका मुख दूधमें पिसे हुवे सुहागेसे बन्द करदें ( यो. र. । अतिसारा.) और उसे शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटमें कम्बूभस्म चतुष्कर्ष कर्षकमहिफेनकम् ।। फूंकदें तथा स्वांगशीतल होने पर सम्पुटमेंसे जातीफलं टङ्कणं च पृथकर्ष विनिक्षिपेत् ॥ शंखयुक्त औषधको निकालकर पीसलें और उसमें अतिसूक्ष्म विमर्याय नवनीतेन गुञ्जकम् । १ भाग शुद्ध बछनाग मिलाकर खरल करके रखें। रसः शङ्खोदरो नाम सर्वातीसारनाशनः ॥ मात्रा-३ रत्ती । For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भाग १११ - इसे अतिसार में जायफल और भांगके चूर्ण हाण्डीमें बन्द करके उसके नीचे ८ प्रहरं तक तथा शहदके साथ और ग्रहणी रोगमें चीते के | अग्नि जलावें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने चूर्ण, अदरकके रस और शहदके साथ या भांग पर हाण्डीमेंसे औषधयुक्त शंखको निकालकर पीसलें और सांठके चूर्ण तथा शहद के साथ, देना चाहिये। और उसमें ११ तोला शुद्ध वछनागका चूर्ण मिलाइसे काली मिर्चके चूर्ण और घीके साथ देने | कर घृतकुमार | कर घृतकुमारीके रसकी धूप में तीन भावना दें। से अग्निमांद्य, क्षय और उदरस्थ वायुका नाश मात्रा-३ रत्ती. होता है। इसे जीरे और भंगरेके चूर्ण तथा शहदके इसके सेवन कालमें दही, तक्र, दूध और | साथ सेवन करनेसे ग्रहणीविकार, श्वास, शूल, लाभदायक शाकेके साथ पथ्याहार देना चाहिये। वायु, कफजरोग, खांसी, अर्श, मलावरोध और अतिसारका नाश होता है। (७५६३) शोदररसः (३) ( र. प्र. सु. । अ. ८) (७५६४)शङ्खोदररसः (४) (र. का. धे.। क्षय.) शुद्ध सूतं गन्धकं वै समांशं चित्रोन्मतमदयेद्वासरैकम् । शुद्धमूतस्य भागैकं द्विगुणं ताम्रभरमकम् । चूर्णरेतैः शमापूरितं वै | त्रिगुणं च दैत्गमूलमायसं च त्रिभागिकम् ॥ भाण्डे स्थाप्यं मुद्रितव्यं प्रयत्नात् ॥ | वेदभागा माक्षिकस्य पश्च त्रिकटुकस्य च । तस्याधःस्तादष्टयाम प्रकुर्या | मनःशिलाया भागेकं द्वौ भागौ तालकस्य च ॥ द्वहूनि शीते कर्षमात्रं विषं हि। खपरस्य तथा त्रीणि सर्वाण्येकत्र मर्दयेत् । दत्त्वा, धर्मे त्रीणि चापि पुटानि कुमारीविजयानिम्बधत्तराईकवारिभिः ॥ दधात्तद्वत् कन्यकाया रसेन ॥ प्रत्येकं भावयेत्सप्तवारांस्तीबातपे भिषक् । वल्लं योज्यं जीरकेणाथ भृङ्गया अस्य सर्वस्य निश्छिद्रो ग्राह्यः शंखोष्टभागिका क्षौ युक्तं क्षितं च ग्रहण्याम् । तन्मध्ये निक्षिपेच्चूर्णमिष्टकापटुभूतयः । श्वासे शूले चानिले श्लेष्मजे वा विमर्थ लेपयेच्छंख युक्त्या गुरुमुखादपि ॥ मृद्वस्त्रैः सप्तभिर्वेष्ट्य वालुकायन्त्रमध्यगम् । कासेऽर्शःमु विग्रहे चातिसारे ।।। पाचयेद्यामषट्कं च मन्दमध्याग्निना दृढम् ॥ समान भाग (५-५ तोले) शुद्ध पारे और निम्बूविश्वकणाकोलैः प्रत्येकं भावयेत्रिधा। गन्धककी कन्जली बनाकर उसे १-१ दिन वारिणाऽथ कषायेण मात्रा गुआह्वया मता ॥ चित्रकमूल और धतूरेके रसमें खरल करके शंखमें | कासे श्वासे क्षयेऽजीर्ण ज्वरे क्षौद्रकणायुतः। भरदें और उसके मुखको बन्द करके उसे एक | देयो मरिचसर्पिामग्निमान्य जयेद्रुतम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि बिल्वच्छागपयोयुक्तो रक्तातीसारनाशनः । नींबूके रस तथा सेठि, पीपल और मिर्च के काथकी अतीसारसमूहानां जेता विश्वकणायुतः ॥ | ३-३ भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां जातीफलानुपानेन जयेत्तौढविसूचिकाम् । | बना लें। बाहीकविश्वरुचकैर्दघाच्छूले चतुर्विधे ।। इसे पीपलके चूर्ण और शहद के साथ सेवन ददीता विकारेषु त्रिफलागुडगुग्गुलुः । करनेसे खांसी, श्वास, क्षय, अजीर्ण और ज्वरका अजाजीविजयाविग्रहणीरोगनाशनः ॥ नाश होता है। काली मिर्चके चूर्ण और घीके गुडगुग्गुलुशु ठीभिः सर्ववावं हरेछुवम् । साथ देनेसे अग्निमांद्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। शंखोदर इति ख्यातः शम्भुना निर्मितो भुवि ॥ इसे स्क्तातिसारमें बेलगिरीके चूर्ण और बकरी शुद्ध पारद १ भाग, ताम्र भस्म २ भाग, | के दूधके साथ; अन्य प्रकारके अतिसारमें सेठ शुद्ध गन्धक ३ भाग, लोह भस्म ३ भाग, स्वर्ण और पोपलके चूर्णके साथ; प्रवृद्ध विसूचिकामें माक्षिक भस्म ४ भाग, त्रिकटुका चूर्ण (सांठ, मिर्च, जायफलके चूर्णके साथ; शूल रोगमें हींग, सेांठ पीपल) ५ भाग, शुद्ध मनसिल १ भाग, शुद्ध और काले नमकके साथ; अर्शमें त्रिफला चूर्ण, गुड़ हरताल २ भाग और खपरिया ३ भाग ले कर और गूगलके साथ; ग्रहणी विकारमें जीर, भांग प्रथम पारे गन्धककी कज्जलो बनावें और फिर और सांठके चूर्णके साथ तथा वात विकारमें गुड़, उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको घीकुमार | गूगल और सेठिके साथ देना चाहिये । (ग्वारपाठा), भांग, नीमकी छाल, धतूरे और अद्रकके रसको तेज़ धूपमें सात सात भावना दें । (७५६५)शतपत्रिकापाकः तदनन्तर सम्पूर्ण औषधके वजनसे ८ गुना वज़नी (वै. क. दु. । रक. २ राजय. ; वृ. नि. र.। एक ऐसा शंख लें कि जिसमें छिद्रादि न हों, राजय.) और उसमें वह औषध भर कर ( उसके मुखको । श्वेतपुष्पसहनं तु घृतमस्थे विपाचयेत् । पानीमें पिसे हुवे शंखनाभिके, चूर्णसे बन्द करके ) घृतपक्वीकृते तत्र निक्षिपेदौषधं भिषक् ॥ उस पर समान भाग मिश्रित लाल ईंट, सेंधानमक सितोपला चतुःप्रस्थं चातुर्जातं पलं पलम् । और अरने उपलोंकी राखके चूर्णको लेप कर दें मृद्वीका षट्पलं चैव क्षिप्त्वा मधु पलाष्टकम् ।। एवं उसके सूख जाने पर उस पर सात कपर- | पारासत्वं तवक्षीरी श्वेतजीरं पृथक् पृथक् । मिट्टी करके सुखा लें । तत्पश्चात् उसे बालुका नागं वर्ष पलादं च सर्वमेकत्र कारयेत् ।। यन्त्रमें रखकर ६ पहर मृदु, मध्यम और तीखाग्नि कर्पूर वल्लमानं च दत्त्वा स्थाप्यमुकुम्भके । दें। और फिर यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उस- भक्षयेमिष्कमा तु प्रातरेव हि पथ्यभुक् । मेंसे शंखको निकाल कर उसके ऊपरकी मिट्टी आदि जीर्णबारे नये कासे अग्निमान्धे प्रमेहके। धीरसे छुड़ा दें और फिर उसे बारीक पीसकर । दिनरामिज्वरे चैव शिरोरोगे प्रशस्यते । For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् पनमो मागः प्रदरं रक्तजान रोगान् कुष्ठाचीसि च नाशयेत् । तिल; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा लोह भस्म नेत्ररोगान् सुदुष्टांश्च तथा सन्मुिखे स्थितान् । | सबके बराबर ले कर सबको एकत्र खरल कर लें। नाशये मात्र सन्देहो मण्डलस्य च सेवनांत् ।। (मात्रा-२-३ रत्ती। . सेवतीके सफेद फूल १००० नग ले कर इसके सेवनसे तृष्णा, दाह, ज्वर, छर्दि और उन्हें २ सेर घीमें भूनें और फिर उनमें ४ सेर रक्तपित्तका नाश होता है। मिसरी; ५-५ तोले दालचीनी, इलायची, तेजपात (७५६७)शतावरीमण्डूरम् (१) (वृहद) और नागकेसरका चूर्णः ३० तोले ( पत्थर पर पिसी हुई ) मुनक्का तथा ४० तोले शहद और (भै. र. । शला. ; र. र.) २॥२॥ तोले गिलोयका सत, सवाखीर, सफेद मण्डूरस्यातितप्तस्य वराक्वाथप्लुतस्य च । जीरेका चूर्ण, वंग भस्म और नागभस्म एवं ३ रत्ती चूर्णीकृत्य पलान्यष्टौ शतावरीरसस्य च ॥ कपूर मिला कर पत्थरकी बरनी आदिमें भर कर दध्नश्च पयसवाष्टावामलक्या रसस्य च । सुरक्षित रखें। चतुःपलं घृतस्यापि शाणमा विनिःक्षिपेत् ।। मात्रा-५ माशे। सिडे प्रत्येकमेतेषामजाजीपान्यपुस्तकम् । इसके ४० दिनके सेवनसे जीर्ण ज्वर, क्षय, । त्रिजातककणा पध्या उपयुक्तं निहन्ति च ।। कास, अग्निमांथ, प्रमेह, दिनको या रात्रिको आने शूलं दोषत्रयोद्भूतमम्लपित्र दारुणम् । वाला ज्वर, शिरोरोग, प्रदर, रक्तविकार, कुष्ठ, अर्श, | अचिश्च वमिश्चैव कासश्वासच नाशयेत् ॥ नेत्ररोग और मुखरोगोंका नाश हो जाता है। तपातपा कर त्रिफलेके कोथमें नुमाया हुवा (७५६६) शतमूल्यादिलोहम् भस्मीभूत मण्डूर ४० तोले, शतावरका रस १ सेर, (भै र. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. ; धन्व. ; वही १ सेर, दूध १ सेर, आमलेका रस १ सेर और घो आधा सेर ले कर सबको एकत्र मिला कर र. रा. सु. । रक्तपित्ता.) मन्दाग्निपर पका और पाक तैयार होने पर उसमें शतमूली सिता धान्यनागकेशरचन्दनः।। जीरा, धनिया, नागरमोथा, दालचीनी, इलायची, विकत्रयतिलयुक्तं लौह सर्वगदापहम् ॥ तेजपात, पीपल और हर का ३॥-३|| माशे तृष्णादायरच्छदि रक्तपित्तहरं परम् ॥ चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें । शतावर, मिश्री, धनिया, .नागकेसर, सफेद इसके सेवनसे त्रिदोषज शूल, दारुण अम्लचन्दन, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल), त्रिफला, | पित्त, अरुचि, वमन, कास और श्वासका नाश त्रिमद ( नागरमाथा, चीता, बायबिडंग ) और ! होता है । For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्यानाकरः .. [शकारादि . (७५६८) शतावरीमण्डूरम् (२) . मण्डरका पाक करते करते जब उसकी गन्ध (ब. से. ; यो. र. ; वृ. मा. ; भै. र. ; वृ. नि. | और स्वाद ठीक हो जाय तथा उंगलीसे मलनेसे र. र. र. धन्व. र. का. धे. । शूला. ; वृ. बत्ती बनने लगे तो पाक सिद्ध समझना चाहिये। बो. त.स. ९५ ; च.द. । परिणाम शूला. (७५६९)शतावरीमोदकः - २७ ग. नि. । शूला. २३) (र. र. ; धन्व. । वाजीकरणा.) संशोध्य पणितं कृत्वा मण्डरस्य पलाष्टकम् । शतावरी चदंष्ट्रा च बला पातिवला तथा। शतावरीरसस्थाष्टौ दध्नश्च पयसस्तथा ॥ मर्कटीक्षुरबीजश्च विदारीकन्दजं रजः॥ पलान्यादाय चत्वारि तथा गन्याय सपिंपः। एतानि समभागानि पलिकानि विचूर्णयेत् । विपचेत्सर्वमेकस्यं यावपिण्डत्वमाप्नुयात् ।। चूर्णाचतुर्गुणं देयं त्रैलोक्यविजयारणः ॥ सिद्ध तु मायेन्मध्ये मान्ते भुक्तस्य चाग्रतः। | सर्वमेकीकृतं यावत्तदर्दै माहिषं पयः । चातात्मक पिराभवं शूलं च परिणामजम् ॥ तावन्मात्रेण दातव्यं शतावर्या रसन्तथा ॥ निहन्त्येष हि योगोऽयं मण्डूरस्य न संशयः। विदार्याः स्वरस प्रस्थं सितापलशतं न्यसेत् । दुग्ये निर्धापर्ण कार्य यद्वा बहुसुतारसे ॥ गोलयित्वा सितान्दत्वा पात्रे ताम्रमये हढे । अपचा बोभयोरेव लोहफिट्टस्य सप्तधा। पचेत्याकविपिसोऽपि मोदकः परयो हितः । रसो गन्धः शुभः पाके वतिः स्याधदि मर्दनाता। ञ्यूषणं त्रिफला शृंगी प्रिजातं सैन्धवं शठी ॥ तदा पा विजानीयान्मण्डरस्थ भिषग्वरः। | धान्यकं पालक मुस्तं द्विजीरं कुन्दुरुसुरा। काकोली क्षीरकाकोली द्राक्षा तुगा मृगाण्डजम् ॥ शुद्र मडूर भस्म ४० तोले, शतावरका रस जातीकोषफलं मांसी तालाङ्करकशेरुकम् । ८० तोले, दही ८० तोले, दूध ८० तोले और शतपुष्पा चवी दारु प्रन्यिकं सलबनकम् ॥ गोघृत १० तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर मन्दामि पर पकावें । जब सबका एक पिण्ड सा कुष्ठं यमानिका चात्मगुप्ता कट्फलमेथिका । हो जाय तो अग्निसे नीचे उतारकर ठण्डा करके मधुरीका च मधुकं तालीशं वरखर्जुरम् ॥ टङ्कणञ्च विचूयि प्रत्येक कोलसम्पितम् । सुरक्षित रक्खें। चूर्णा शोधितं गन्धं गन्धपादांशपारदम् ॥ . इसे भोजनके आदि; मध्य और अन्तमें सेवन कज्जलीकृत्य दत्वा तं लोडयेत्रिसुगन्धिना। करनेसे वातज और पित्तज परिणामशूल नष्ट | यथाशक्त्या मोदकं च करेणाधिवासयेत् ॥ होता है। उद्धृत्यस्निग्षमाण्डे त प्रस्थाप्य च भिषग्वरैः । इस योगमें जो मण्डूर डाला जाय वह शिवं सम्पूज्य सगणधन्वन्तरिमुनिन्तथा ॥ अग्निमें तपा तपा कर दूधमें या शतावरके रसमें या कोल प्रमाणं कर्त्तव्य क्षीरं चानु पिवेबरः। दोनों में सात बार बुझा हुवा होना चाहिये। पातौजनकाले वा सायंकालेऽपि भक्षयेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ११५ - - - - - - - -- ममदाशतं च भजते न च शुक्रक्षयो भवेत् । इन्हें यथोचित मात्रानुसार गोदुग्धके साथ नातःपरतरं किंचित्विद्यते वाजिकर्ममु॥ प्रातः या भोजनके समय अथवा सायंकाल के समय शतावरीमोदकं च वासुदेवेन निर्मितम् ।। सेवन करनेसे अनेकों स्त्रियोंसे समागम करनेकी शतावर, गोखरु, खरैटीके बीज ( या मूल | शक्ति आ जाती है । त्वक् ), अतिबला (कंघी), कौंचके बीज, तालम शम्बकचूर्णम् खाना और विदारीकन्द इनका चूर्ण ५-५ तोले, भांगका चूर्ण पूर्वोक्त समस्त चूर्णसे चार गुना __ प्र. सं. ७५३१ शङ्ख चूर्णम् (२) देखिये । (१४० तोले ), भैंसका दूध और शतावरका रेस (७५७०) शम्बूकयोगः ३५-३५ छटांक (प्रत्येक १७५ तोले ), ल। (व. से. । परिणाम शूला. ; यो. र. । शूला. ; र. विदारीकन्दका रस २ सेर और मिश्री ६। सेर ले | चं. ; वृ. मा. ; वृ. नि. र. । शूला. ; वृ. यो. कर सबको एकत्र मिलाकर ताम्र पात्रमें पका और त. । त. ९५) चाशनी तैयार हो जाने पर उसमें सेठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, काकड़ासिंगी, दाल शम्बूकजं भस्म पीतं जलेनोष्णेन तत्क्षणात् । चोनी, इलायची, तेजपात, सेंधानमक, कचूर, पक्तिजं विनिहन्त्येतच्छूलं विष्णुरिवासुरान् धनिया, सुगन्धबाला, नागरमोथा, काला और सफेद | उष्ण जलके साथ क्षुद्र शंखकी भस्म सेवन जीरा, कुन्दर गोंद, मुरामांसी; काकोली, क्षीर- करनेसे पक्तिशूल तुरन्त नष्ट हो जाता है। काकोली, मुनक्का, बंसलोचन, कस्तुरी, जावत्री, जायफल, जटामांसी, तालांकुर, कसेरु, सोया, ( मात्रा-आधा माशा ।) चव्य, देवदारु, गठिवम, लौंग, कूठ, अजवायन, .. (७५७१) शम्बूकादिवटी (१) कौंचके बीज, कायफल, मेथी, सौंफ, मुलैठी, (भै. र. । ग्रहण्य. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. ; वृ. तालीसपत्र, खजूर और सुहागेकी सील; इनका नि. र. । ग्रहण्य. ; वृ. यो. त. । त.६७ ) ७॥-७॥ माशे चूर्ण मिलायें तथा इस सम्पूर्ण चूर्णसे आधा शुद्ध गंधक और गंधकसे चौथाई शुद्ध | दग्धशम्बूकसिन्धूत्यं तुल्यं क्षौद्रेण मर्दयेत् । पारद ले कर दोनोंकी कज्जली बना कर उसमें | मायकेन निहन्त्याशु वातसङ्ग्रहणीगदम् ॥ मिला दें और छोटे छोटे मोदक बना कर उन्हें | क्षुद्र शंखकी भस्म और सेंधानमक समान दालचीनी, इलायची और तेजपातके मिश्रित चूर्णमें | भाग ले कर एकत्र खरल करें। आलोडित करें ( रौंदल लें ) और फिर मृत्पात्र या कांचकी बरनी में रख कर उसमें थोड़ासा कपूर इसे शहदमें मिलाकर खानेसे वातज संग्रहणी ( बिना पिसा ) डाल दें कि जिससे वे सुगन्धित | शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। हो जायं। मात्रा-१ माषा । For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः शिकारादि (७५७२) शम्बूकादिवटा (२) ५ तोले और खांड सबके बराबर (३५ तोले) ले (यो. र. । शूला.; वृ. यो. त. । त. ९५ : व. | कर सबको एकत्र खरल करें और शहद में मिला से. ; ग. नि. । शूला. २३ ; वृ. नि. र. । शूला.) कर (३-३ माशेके) मोदक बना में शम्बूकमूषणं चैव पश्चैव लवणानि च। इनके सेवनसे शूल, गुल्म, दोग और विशेसमांशां गुटिकां कृत्वा कलम्बुफरसेन च ॥ षतः पित्तज शूल, शोथ, पाण्डु, उदर रोग, भ्रम, प्रातर्भोजनकाले वा भक्षयेच्च यथावलम् । अर्श, कास, मूत्रकृच्छ्, प्रमेह, अश्मरि, वृद्धिरोग, लाशिमच्यते जन्तुः सहसा परिणामजात् ॥ | अग्निमांध, स्मृति नाश, पीनस और अवभेदकका क्षुप शंख भस्म, काली मिर्च (पाठान्तरके नाश होता है। अनुसार त्रिकुटा ) और पांचों नमक समान भाग (७५७४) शम्भूरसः ले कर सबको कलमी शाकके रसमें घोट कर (२. का. धे. । अग्निमांथा ) (१-१ मोशेकी) गोलियां बना लें। शुद्धसूतस्य भागैकं ककश्च बलेस्तथा । इन्हें प्रातः काल या भोजनके समय खानेसे । अभ्रकस्य च कर्ष स्यात्यैव शामस्मनः ।। परिणाम शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। विषसिन्धुजगत्कोलाः प्रत्येकं शाणसम्मिताः । (७५७३)शम्भूकाचा गुटिका एकत्र मर्दयेच्छुष्कं सर्व कज्जलसन्निभम् ॥ (ग. नि. । गु. ४) भुजगवल्लीपर्णेन गुजैको वहिमांधजित् । पलानि श्रीणि शरयूकाल्लोहचूर्णात्पलद्वयम् । अरुचौ पहिमान्ये च प्रयोक्तव्यो रसोतमः॥ रसाञ्जनात्पलं चैकं लोहकिद्वात्पुनः पलम् ।। अयं शम्भुरिति ख्यातो बहिसन्दीपनः परः। सर्वेः समां शर्करां च मधुना च परिप्लुताम् । शुद्ध पारद १ भाग (१। तोला), शुद्ध गंधक सर्वमेतत्समाहत्य मोदकान्कारयेद्भिषक् ॥ १। तोला, अभ्रक भस्म ११ तोला, शंख भस्म १। तान् भक्षयेत्प्रयत्नेन शूले गुल्मे हृदामये।। तोला तथा शुद्ध बछनाग, सेंधा नमक, सेठ और विशेषतः पित्तशूले शोफे पाण्डूदरे भ्रमे ॥ बेर ३||-||| माशे ले कर प्रथम पारे गन्धकको दुर्नाम्नि कासे कृच्छे च प्रमेहाश्मरिदिषु । कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे अग्निमान्धे स्मृतिभ्रंशे पीनसा(वभेदके । । मिलाकर अच्छी सरह खरल करें फिर पानके रसमें क्षुद्र शंखको भस्म १५ तोले, लोह भस्म घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। १० तोले, रसौत ५ तोले, लोहकिक (मण्डूरभरम) | इनके सेफ्नसे अग्निमांद्य और अजीर्णका नाश १ शम्बूकं त्र्यूषणमिति पाठान्तरम् | होता है। For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमी भागः प्रकरणम् ] (७५७५) शर्करादिलेह: ( वृ. नि. र. । विषा. ) शर्करा चूर्ण संयुक्तं चूर्ण ताप्यसुवर्णयोः । लेहः शमयत्युग्रं नानायोगकृतं विषम् ॥ खांड, स्वर्णमाक्षिक भस्म और स्वर्ण भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर सेवन करनेसे उग्र कृत्रिम विष नष्ट होता है । (७५७६) शर्करामण्डूरम् (१) ( र. का. घे. । शूला. ) विधिवच्छुद्धमण्डूर चूर्ण प्रस्थसमन्वितम् । द्विप्रस्थं शर्करायाश्च षट्पलानि घृतात्तथा ॥ वर्याश्च स्वरसार्धं तु धात्रीरसतुलार्धकम् । एकीकृत्य पचेदेतद्यावत्तत्तन्तुली भवेत् ॥ त्रिफलायाः पृथक्चूर्ण कुडवं तत्र निक्षिपेत् । व्योषं त्रिलवणं कुष्ठं तुम्बुरूणि च दीप्यकम् ॥ द्विजीरकविडङ्गानि चातुर्जातकमेव च । एषां चूर्णीकृतानां च भागं पलमितं पृथक् ॥ पलान्यष्टौ शिवाचूर्णात्कुडवं च यवाग्रजात् । पल पलं कणामूलं चव्यचित्रकमूलतः ॥ तार्य शीते माक्षीका ततस्त्रिपलसम्मितम् । खादेदग्निवलापेक्षी भोजनादौ विचक्षणः ॥ शूलं सर्वोद्भवं पक्तिशूलं हन्ति विशेषतः || यथाविधि शुद्ध मण्डूर १ सेर, खांड २ सेर, घी ६० तोले, शतावरका रस ६ | सेर और आमलेका रस ६। सेर ले कर सबको एकत्र मिलाकर पकायें और पाक तैयार होने पर उसमें निम्नलिखित प्रक्षेप मिला दें ११७ प्रक्षेप द्रव्य - हर्र, बहेड़ा, आमला २०२० तोला, सोंठ, मिर्च, पीपल, सेंधानमक, काला नमक, बिड नमक, कूठ, तुम्बरु, अजवायन, सफेद जीरा, काला जीरा, बायबिडंग, दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसर; प्रत्येकका चूर्ण ५-५ तोले; भुईआमलेका चूर्ण ४० तोले, जवाखार २० तोले तथा पीपलामूल, चव और चित्रकमूलका चूर्ण ५-५ तोले । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रक्षेप मिलानेके पश्चात् जब औषध ठण्डी हो जाय तो उसमें ३० तोले शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें । इसे भोजन आदिमें सेवन करनेसे समस्त प्रकारके शूलोंका और विशेषतः पक्तिशूलका नाश होता है । शर्करामण्डरम् (२) ( र. र. र. का. घे. । शूला. ) प्र. सं. ७५७७ "" देखिये । For Private And Personal Use Only शर्करा लौहम् (१) 19 (७५७७) शर्करा लोहम् (१) (शर्करामण्डूरम् ) ; ; ( भै. र. र. र. र. का. घे. । शूला. ) शतावरीरसप्रस्थे प्रस्थे च सुरभीजले । अजायाः पयसः प्रस्थे प्रस्थे धात्रीरसस्य च ॥ लौहमलपलान्यष्टौ शर्करापलषोडश । दरवाज्यकुडवं तत्र शनैर्मृद्वग्निना पचेत् ॥ सिद्धे शीते घनीभूते द्रव्याणीमानि दापयेत् । froङ्गत्रिफलाव्योपयमानी गजपिप्पली ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि द्विजीर घनं लौहमभ्रं कर्षद्वयं पृथक् ।। पाठान्तरके अनुसारखादेदमियलापेक्षो भोजनादौ विचक्षणः ॥ विडङ्गके स्थान पर पोपल है। शूलं सर्वभवं हन्ति पित्तशूलं विशेषतः। घो ८ पल (८० तोले) है। इच्छूले पार्षशूलश्च कुक्षिवस्तिगुदे रुजम् ।। लोह तथा अभ्रकका अभाव है । कासं वासं तया शोथं ग्रहणीदोषमेव च । __ (७५७८)शर्करालौहम् (२) यकृत्प्लीहोदरानाहराजयक्ष्मविनाशनम् ॥ (रसे. सा. सं. । शूला. ; रसे. चि. म. । अ. विष्टम्भमाम दौर्बल्यमग्निमान्यश्च यद्भवेत् । ९; र. र. ; धन्च. ; र. रा. सु.) एतान् रोगानिहन्त्याशु भास्करस्तिमिर यथा ॥ त्रिफलायास्तथा धायाश्चर्ण वा काललोडजम' . शतावरका रस २ सेर, गोमूत्र २ सेर, बकरी- शर्कराचूर्णसंयुक्तं सर्वशूलेषु योजयेत् ।। का दूध २ सेर और आमले का रस २ सेर तथा त्रिफलोका चूर्ण १ भाग, आमलेका चूर्ण १ मण्डूर भस्म ४० तोले और खांड ८० तोले एवं भाग, लोहभस्म २ भाग और खांड ४ भाग ले घी ४० तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर कर सबको एकत्र खरल कर लें। मन्दाग्नि परे पकावें और पाक तैयार हो जाने पर ___ यह चूर्ण समस्त प्रकारके शूलोंको नष्ट उसे ठण्डा करके उसमें बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, सेांठ, मिर्च, पीपल, अजवायन, गजपीपल, काला जोरा, सफेद जीरा, नागरमोथा, लोह भस्म . (मात्रा-४ से ८ रत्ती तक ।) और अभ्रक भस्म, २॥-२॥ तोले मिला कर . (७५७९)शर्कराघलोहम् सुरक्षित रक्खें । . ( रसे. सा. सं. । रक्तपित्ता. ; रसे. चि. म. । __इसके सेवनसे साधारणतः समस्त शूल और अ. ९; र. का. धे. ; धन्व.; र. रा. सु.। विशेषतः पित्तशल, हृच्छूल, पार्श्वशूल, कुक्षिशूल, रक्तपित्ता.) बस्तिशूल, गुदपीड़ा, एवं खांसी, श्वास, शोथ, शर्करातिलसंयुक्तं त्रिकाययुतन्त्वयः । ग्रहणी विकार, यकृत् , प्लीहा, उदर रोग, आनाह, रक्तपिसं निहन्त्याशु चाम्लपित्तहरं परम् ।। राजयक्ष्मा, कब्ज, आम, निर्बलता और अग्निमांधका - त्रिकुटा (सांठ, मिर्च, पीपल), त्रिफला (हरं, इस प्रकार नाश हो जाता है जिस प्रकार सूर्योदयसे बहेड़ा, आमला), त्रिमद ( नागरमोथा, चीता, अन्धकार । बायबिडंग ), तिल और खांड १-१ भाग तथा इसे भोजनके आरम्भमें खाना चाहिये ।। लोह भस्म सबके बराबर ले कर सबको एकत्र ( मात्रा-६ माशे ।) खरल करें। करता है। For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भाग: - इसके सेवनसे रक्तपित्त और अम्लपित्तका | (७५८१) शशाङ्करसा (२). . नाश होता है। (र. र. स. । उ. अ. २७) (मात्रा-२-३ रत्ती।) सलीकदलीकन्दवाजिगन्धाकसेरुकैः । (७५८०) शशाङ्करसः (१) मदितं हेमस्तानं मृषास्थं पुटपाचित । ' (र. का. धे । कुष्ठा.) | शाल्मलीचूर्णसंयुक्तं वासराण्येकविंशतिः । दसूतं द्विधा गन्धं जीर्यदिष्टाख्ययन्त्रके। भायित्वा चतुर्मार्ष गव्यं क्षीरं पिवेदनु उद्धृत्य तुल्यगन्धेन जम्बीरैर्दयेद्दिनम् ॥ सर्वानोद्वर्तनं कुर्यात्सयचैः शाल्मलीरसै भृाचाकुचिकोरण्टा अपामार्गापराजिताः। | अन्नई मधुराहारः सहस्रं रमते स्त्रियः ।। साक्ष्याश्च द्रवैर्य प्रतिद्रवं दिनं दिनम् ॥ शशाङ्कोऽयं रसः प्रोक्तो वाजीकरणपूर्वकः । तद्गोलं बन्धयेद्वस्त्रे मल्लिप्तं स्वेदयेल्लघु । स्वर्ण भस्म, पारद भस्म और अभ्रक भस्म द्वियाम वालुकायन्त्रे स्वादशीतं समुद्धरेत् ॥ समान भाग ले कर तीनोंको एकत्र खरल करके अष्टगुआमितं खादेशाङ्क: श्वेतकुष्ठजित् । । मूसली, केलेकी जड़, असगन्ध और कसेरुके रसमें १ भाग शुद्ध पारदमें इष्टिका यन्त्र द्वारा २ / १-१ दिन घोटें । तदनन्तर उसका एक गोल्म भाग शुद्ध गन्धक जारण करें और फिर उसके | बन कर उसे मूषामें बन्द करके (लघु) पुटमें बराबर शुद्धगन्धक मिला कर कज्जली बनावें । तदन- | पकावें। न्तर उसे १-१ दिन जम्बीरी नीबू , भंगरा, बाबची, इसमें (समान भाग) सेंभलकी मूसलीका चूर्ण पियोबांसा, अपामार्ग, कोयल और साक्षीके | मिला कर २१ दिन तक गोदुग्धके साथ सेवन रसमें खरल करके एक गोला बनावें और उसे | करनेसे काम शक्ति अत्यन्त प्रबल हो जाती है। -कपड़ेमें लपेट कर उसपर मिट्टीका लेप कर दें। इसके सेवन कालमें शरीर पर नित्य प्रति एवं उसे बालुका यन्त्रमें रख कर २ पहर तक / सेभलके रसमें मिले हुवे यवचूर्णका मर्दन करना मृदग्नि पर स्वेदित करें और फिर स्वांगशीतल ! और मधुराहार करना चाहिये। होने पर निकाल कर पीस लें। मात्रा-४ माशे। मात्रा-८ रत्ती। (व्यवहारिक मात्रा-३-४ रत्तो ।) इसके सेवनसे श्वेतकुष्ठ नष्ट होता है। (७५८२) शशाङ्कलेखादिलेहः (नोट-८ रत्ती मात्रा अधिक है परन्तु | ( यो. र. । कुष्ठा.; वृ. यो. त. । त. १२०; कुष्ठ रोगमें कुछ अधिक मात्रा ही दी जाती है __ वृ. मा. । कुष्ठो.) • अतः मात्राका निर्णय वैधको अपने अनुभवके शाइलेखा सविडङ्गसारा आधार पर करना चाहिये ।) सपिप्पलीका सहुताशमूला। For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः १२० सायमा सामलका सतैला सर्वाणि कुष्ठानि निहन्ति लीढा ॥ बावची, बायबिडंगकी गिरी, पीपल, चीतामूल, मण्डूर भस्म, आमला और तेल समान भाग केकर सबको एकत्र मिला लें । इसके सेवन से समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं । (७५८३) शशिलेखावटी (शशिलेखकरसः) ( यो. र. । कुष्टा.; वृ. यो. त. । त. १२० ; रसे. चि. म. । अ. ९; र का. धे. ) शुद्ध समं गन्धं तुल्यं च मृतताम्रकम् । मर्दितं वाचीक्वाथैर्दिनैकं वटकीकृतम् ॥ निष्क मात्र सदा खादेविघ्नीं शशिलेखिकाम् बाहुचीलक बैंक सक्षौद्रमनुपाययेत् ॥ शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक १-१ भाग तथा ताम्र भस्म २ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें और उसे १ दिन बाबची के क्वाथमें घोटकर १-१ निष्ककी गोलियां बना लें। इसके सेवन से श्वित्र नष्ट होता है । औषध खानेके पश्चात् १। तोला बाबचीका वेल शहद मिलाकर पीना चाहिये । (७५८४) शशिशेखररस: (भै. र. । वृद्धच. ) लौहम सिन्दूरं मर्दयेत्कन्यकाम्बुना । rta रक्तिमितं दद्यादन्त्र रोगनिवृत्तये ॥ [ शकारादि लोहभस्म, अभ्रक भस्म और रससिन्दूर समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें और घृतकुमारीके रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां लें बना 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनके सेवन से अन्त्ररोग नष्ट होता है। (७५८५) शाङ्करी ज्वराङ्कुशः ( २. रा. सु. । ज्वरा. ) हरिद्रा च सुधाक्षारं सिन्दूरं जातिकाफलम् । एतानि पलमात्राणि गृहीयात्तु सुधी नरः ॥ हरितालं च भल्लातं पृथक् पलचतुष्टयम् । एषां कृत्वा सूक्ष्मचूर्ण भावये श्रिः पृथक् पृथक् काकमाची भृङ्गराजसूरणस्य रसैः क्रमात् । अर्कदुग्वैः स्नुहोक्षीरैस्तद्वद्देयं पुरत्रयम् ॥ शुष्कं तु इण्डिकामध्ये कृत्वा देयं शरावकम् । ai सन्धि संरोध गुडलवणक्षारकैः ॥ efochi भस्मनापूर्य परण्योपलजैर्नवैः । तस्या मुखं मुद्रयित्वा मृद्भिः पटयुतैर्भुवम् ॥ पश्चाच्चूलां समादाय हठाग्निं तु दिनार्थकम् स्वाङ्गशीतलमुत्तार्य तोलयेत् सिद्धमौषधम् ॥ तस्य सिद्धस्य षष्ठांशं मरिचं दीयते बुधैः । सूक्ष्मचूर्ण विधायाथ मात्रा गुञ्जायै ददेत् ॥ पर्णपत्रेण मतिमान् सशीतज्वरसङ्गकम् । दाहयुक्तं तु विषमज्वरान्सर्वान् व्यपोहति ।। सत्यमुक्तं शङ्करेण सर्वलोकस्य श्रेयसे || For Private And Personal Use Only ' हल्दी, सेहुंड ( थूहर ) का क्षार, रस सिन्दूर, और जायफल ५-५ सोले तथा शुभ हरताल और भिलावा २० - २० तोले लेकर सबका Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः - बारीक चूर्ण करके उसे मकोय, भंगरे और सूरण (७५८७) शिखिवाडवरसः । (ज़िमीकन्द ) के रस तथा आक और थूहरके . (र. का. धे. । गुल्मा.) । दूधकी ३-३ भावना देकर सुखा लें और फिर मारित मूतताम्राभं गन्धक माक्षिकं समम् । कपरमिट्टी की हुई हांडी में भरकर उस पर (औषध मर्दयेभिम्बुकद्रावैर्यवक्षारयुतं दिनम् ॥ पर) शराव ढकदें और सन्धिको गुड़, सेंधानमक त्रिगुनं भक्षयेनित्यं नागवल्लीदलेन च । तथा सुहागेके मिश्रणसे बन्द करके हाण्डीके शेष वातगुल्महरः ख्यातो रसोऽयं शिखिवाडवः ।। भागमें नवीन अरने उपलोंकी राख भरदें और पारद भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध उसके मुख पर शराव ढककर मजबूत कपडमिट्टी | गन्धक और स्वर्ण माक्षिक भस्म तथा जवाखार करदें । तदनन्तर उसे चूल्हे पर चढ़ाकर ४ पहर १-१ भाग ले कर सबको १ दिन नीबूके रेसमें तीवाग्नि पर पकावें और फिर हाण्डीके स्वांगशीतल खरल करें। मात्रा-३ रत्ती। होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर तोल लें इसे पानमें रख कर खाना चाहिये । और उसका छठा भाग काली मिर्चका चूर्ण मिला इसके सेवनसे वातज गुल्म नष्ट होता है। कर बारीक चूर्ण करके रक्खें। (७५८८) शिरोरोगारिरसः मात्रा-२ रत्ती । (र. र. स. । उ. अ. २४) इसे पानमें रखकर खिलाना चाहिये। मृतसूताभ्रकं तीक्ष्णं कान्तं तानं मृतं समम् । इसके सेवनसे शीत चर (म्लेरिया) और स्नुहोक्षारदिन मध पिण्डं तन्माषमात्रकम् ॥ | सप्ताहात्सूर्यवर्तादीन् शिरोरोगान्विनाशयेत् ॥ दाहयुक्त विषम ज्वरका नाश होता है। पारद भस्म, अभ्रक भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, (७५८६) शिखिपिच्छभस्मयोगः कान्त लोह भस्म और ताम्र भस्म समान भाग (यो. र. । हिक्का. ; यो. त. । त. २९ : वृ. ले कर सबको १ दिन सेहुंड (थूहर) के दूधमें यो. त. । त. ७९) घोट कर उड़दके समान गोलियां बना लें। इनके सेवनसे १ सप्ताहमें सूर्यावर्तादि शिरो शिखिपिच्छभस्म कृष्णाचूर्ण मधुमिश्रितं मुहु- रोग नष्ट हो जाते हैं । लीटम् । (७५८९) शिरोवारसः हिकां हरति प्रवलां वासं चैवातिदुस्तरं छर्दिम (शिरःशूलाद्रिवज्ररसः) मोरपंखकी भस्म और पीपलका चूर्ण समान ! (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु.। भाग ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर शहदके शिरोरोगा.) साथ बार बार चाटनेसे प्रबल हिचकी, श्वास और पलं मूतं पलं गन्धं पलं लौह पलं रखे। दुग्साध्य छर्दिका नाश होता है। | गुग्गुलोः पलचत्वारि तदई पिफलारजः॥ For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - भारत-भैषज्य-रत्नाकर [शकारादि यष्टिमधु कणा शुण्ठी गोक्षुरक्रिमिनाशनम् । रसमें घोटें और फिर एकत्र मिलाकर थोडासा घी तोलकं दशमूलश्च प्रत्येकं परिकल्पयेत् ॥ | डालकर घोटें तथा अन्त में शहदके साथ घोट काथेन दशमूल्याश्च यथास्वं परिभावयेत् । कर सुरक्षित रक्खें।। घृतयोगेन कर्त्तव्या माषकमिता वटी॥ मात्रा-२ रत्ती । छागीदुग्धेन वा सेव्या मधुना पयसाथ वा। | इसे उचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे वातिकं पैत्तिकश्चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् ॥ . " अर्श और अग्निमांद्यका नाश होता तथा वायु अनुशिरोत्ति नाशयत्याशु वज्रमुक्तमिवासुरम् । . लोम होता है। शिरोवज्ररसो नाम चन्द्रनाथेन भाषितः ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म और इसे कुष्टादि से पीड़ित रोगियोंको न देना ताम्र भस्म ५-५ तोले; शुद्ध गूगल २० तोले. चाहय । त्रिफलाका चूर्ण १० तोले तथा मुलैठी, पीपल, (७५९१) शिलाजतुचूर्णम् सेठि, गोखरु, बायबिडंग और दशमूल आधा आधा ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ९) कर्ष ( प्रत्येक ७॥ माशे ) ले कर प्रथम पारे गन्धककी कम्जली बनावें और फिर उसमें अन्य द्वे पले मार्कवं धातुमाक्षिकं च पुनर्नवा । औषधोंका चूर्ण मिला कर दशमूलके काथमें घोटें | तुगा स्पृका शालिपर्णी वासकं च दुरालभा। और घीका हाथ लगा कर ११-१॥ माशेकी चूर्णान समं योज्यं त्रिगन्धं मरिचानि च । गालियां बना लें। तालीसं मगधा चैव तदर्धेन शिलोद्भवम् ॥ शिलाभेदं तदर्धन सर्व चैकत्र मिश्रयेत। इन्हें बकरीके दूध, शहद या गोदुग्धके साथ सेवन करनेसे वातज, पित्तज और कफज तथा समेन तिलचूर्ण तु शर्करा समभागिकम् ॥ सन्निपातज, शिर पीड़ा शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। भुक्त्वा पश्चात् क्षीरपानं शस्यते धृतसंयुतम् । तेन क्षयो राजयक्ष्मा कामला च विनश्यति ॥ (७५९.०) शिलागन्धकवटी अपस्मारं जयल्याशु बलवीर्याधिको भवेत् । ( रसे. सा. सं.; र. चं. । अझै. ) । । शाम्यन्ति च महारोगाः शुक्राढयो जायते नरः।। शिलागन्धकयोश्चूर्ण पृथग्भृङ्गरसाप्लुतम् ।। ___काला भंगरा, म्वर्णमाक्षिक भस्म, पुनर्नवा, सप्ताहं भावयेत्सर्पिर्मधुभ्याञ्च विमर्दयेत् ॥ बंसलोचन, ब्राह्मी, शालपर्णी, बासा और जवासा अर्शसश्चानुलोम्याथै हतामिवलवर्द्धनम् । १०-१० तोले; दालचीनी, इलायची, तेजपात, रक्तिकाद्वितयं खादेत्कुष्ठादिरहितो नरः ।। काली मिर्च, तालीसपत्र और पीपल समान भाग शुद्ध मनसिल और शुद्ध गन्धक समान भाग मिश्रित ४० तोले, शुद्ध शिलाजीत २० तोले और लेकर दोनों को पृथक् पृथक ७-७ दिन भंगोके ! पाषाणभेद १० तोले तथा इन सबके बराबर For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः १२३ काले तिल और तिलोंसे दो गुनी खांड लेकर यथा | दुग्धाहार करनेसे क्षयका शीघ्र ही नाश हो विधि चूर्ण बनावें। जाता है। इसे धृतयुक्त दूधके साथ सेवन करनेसे क्षय, (मात्रा-६ रत्ती ।) राजयक्ष्मा, कामला और अपस्मारका शीघ ही | हो (७५९४) शिलाजतुयोगः (३) नाश होकर बलवीर्यको वृद्धि होती है। (वृ. यो. त. । त. ९१) (मात्रा-६ माशे ।) | छिन्नोद्भवा कषायेण सेव्यं शुद्धं शिलाजतु । (७५९२) शिलाजतुयोगः (१) पञ्चकर्मविशुद्धेन वातरक्तप्रशान्तये ।। ( न. मृ. । त. ७ ; यो. त.। त. ५१; वृ. पञ्चकर्म द्वारा शरीर शुद्धिके पश्चात् गिलोयके नि. र.। प्रमेहा.; यो. र.) | काथके साथ शुद्ध शिलाजीत सेवन करनेसे शिलाजतुरसं पीत्वा प्रातः क्षीरसितायुतम् । वातरक्तका नाश होता है । मुच्यते सर्वमेहेभ्यस्त्रिसप्तदिवसैनरः ॥ (७५९५) शिलाजतुयोगः (४) प्रातः काल मिश्री युक्त दूधके साथ शिला- (र. का. धे। शोथा ) जीत सेवन करनेसे ३ सप्ताहमें समस्त प्रकारके | " शिलाहयं वा त्रिफलारसेन प्रमेह नष्ट होते हैं। हन्यात् त्रिदोषं श्वयधुं प्रसह्य । ( मात्रा--४ रत्ती।) त्रिफलाके काथके साथ शिलाजीत सेवन (७५९३) शिलाजतुयोगः (२) | करनेसे त्रिदोषज शोथ नष्ट होता है। ( यो. र. । यत्मा. ; ग. नि. । राजय. ९ ; रे. __ (७५९६) शिलाजतुयोगः (५) चं. ; भै. र. ; र. रा. सु. ; र. का. धे. । क्षय. ; रसे. चि. म. | अ. ९) | ( यो. चि. म. । अ. १; र. र. । राजय. ; वा. भ.। उ. अ. ३९ ; ग. नि. । राजय. ९ ; शिलाजतु मधु व्योष ताप्यलोहरजांसि च । र. र. स. । उ. अ. २६; यो. र. । क्षीरमुग्लेढि तस्याशु क्षयः क्षयमवाप्नुयात् ।। पाण्डु. ; र. चं. । वाजी.) शिलाजीत, सांठ, मिर्च, पीपल, स्वर्ण माक्षिक शिलाजतुक्षौद्रविडङ्गसर्पिभस्म और लोह भस्म समान भाग ले कर चूर्ण | " लॊहाभयापारदताप्यभक्षः ! बनावें । | आपूर्यते दुर्बलदेहधातुइसे शहद में मिला कर सेवन करने और स्त्रिपश्चरात्रेण यथा शशाङ्कः ॥ For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org त-भैषज्य रत्नाकरः १२४ शिलाजीत, बायबिडंग, लोह भस्म, हर्र, पारद भस्म ( या रस सिन्दूर ) और स्वर्ण माक्षिक भस्म समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । भारत इसे शहद और घी में मिला कर सेवन करने से १५ दिनमें ही दुर्बल देह और क्षीणधातु व्यक्तिका शरीर पुष्ट हो जाता है । (७५९९) शिलाजतुयोगः (८) ( च. सं. । चि. स्था. ६ अ. ५ ) पञ्चमूलकषायेण सक्षीरेण शिलाजतु । पिवेत्तस्य प्रयोगेग बातगुल्मात् प्रमुच्यते ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि पञ्चमूल के क्वाथ और दूध के साथ शिलाजीत सेवन करने से वातज गुल्म नष्ट होता है । (७६००) शिलाजतुयोगः ( ९ ) ( यो. र. । अश्मर्या; वृ. नि. र. 1 अश्मर्य. ) अश्मय चाश्मरी कृच्छ्रे शिलाजतु समाक्षिकम् । यवक्षारं गोक्षुरं च खादेद्वा चाश्मरीहरम् || ( ७५९७) शिलाजतुयोगः (६) ( वृ. मा. । वातरक्ता. ) युक्पञ्चमूलपयसा लघुपञ्चमूल्या क्वाथेन वाऽमृतलता क्वथनेन वाऽपि । वाटचालकस्य सलिलेन युतं मृतेन पीतं शिलाजतु समीरणशोणितघ्नम् ॥ दशमूलसे सिद्ध दूध के साथ या लघु पंचमूलके काथके साथ अथवा गिलोय या पीले फूलको खरैटीके काथके साथ शिलाजीत सेवन करने से वातरक्त नष्ट होता है । (७५९८) शिलाजतुयोगः (७) ( यो. र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छ्रा.; वृ. यो. त. । त. १०१ ) सशर्करं च ससिर्त लीढं सिद्धं शिलाजतु । निहन्ति मूत्रजठरं मूत्रातीतं च देहिनः ॥ एकत्र मिला कर सेवन करनेसे मूत्रजटर और मूत्राका नाश होता है । खांड, चांदी भस्म और शुद्ध शिलाजीत | पटोलत्रिफलातिक्तागवाक्षिक्वाथसंयुतम् । शिलाजतुं प्रयुञ्जीत जीर्णे क्षीरौदनाशनः ॥ शहद के साथ शिलाजीत सेवन करने या यवक्षार और गोखरुका चूर्ण सेवन करनेसे अश्मरी और उससे होनेवाला मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता है । (७६०१) शिलाजतुयोगः (१०) ( यो. र. ; वृ. मा. ; व. से. ; वृ. नि. र. । उरुस्तम्भा. ; धन्व. ; रसे. सा. सं. ) शिलाजतुं गुग्गुलुं वा पिप्पलीमथ नागरम् । ऊरुस्तम्मे पिवेन्मूत्रैर्दशमूलीरसेन वा ॥ शुद्ध शिलाजीत या गूगल अथवा पीपल या सेठ गोमूत्र के साथ या दशमूलके काथके साथ सेवन करनेसे ऊरुस्तम्भ नष्ट होता है । (७६०२) शिलाजतुयोगः (११) (ग. नि. । उदरा. ३२ ) पटोल, त्रिफला, कुटकी और इन्द्रायणकी जड़ के काथ साथ शिलाजीत सेवन करने से पित्तोदर नष्ट होता है । पथ्य -- औषध पचनेके पश्चात् दूध भात खाना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः १२५ (७६०३) शिलाजतुयोगः (१२) शिलाजीत में (सोलहवां भाग) शुद्ध गन्धक, (र. का. घे. । क्षया.) मनसिल और हरताल मिलाकर नीबूके रसमें घोट कर शरावसंपुट में बन्द करके आठ अरने उपलोंमें फलत्रिक क्वाथ विशुद्धमादी फूंक देनेसे उसकी भस्म हो जाती है। शुद्धं गुहच्या दशमूलशुद्धम् । स्थिरादिकाकोलियुगादिशुदं शिलाजीत ज्वर, पाण्डु, शोथ, प्रमेह, अग्निशिलाजतु स्यात्क्षयिषु प्रशस्तम् ॥ | मांध, मेद, क्षय, शूल, गुल्म, प्लीहा, जठरशल, त्रिफला, गिलोय, दशमूल, लघु पंचमूल और हृच्छूल और समस्त त्वरोगनाशक तथा देहको काकोली तथा क्षीरकाकोलीके काथमें क्रमश: दृढ करनेवाला है। पृथक् पृथक् शुद्ध किया हुवा शिलाजीत सेवन (७६०६) शिलाजतुरसायनम् करनेसे क्षयरोग नष्ट होता है। ( र. र. स.। पू. खं. अ.२) (७६०४) शिलाजतुयोग:(१३) (च. द. । प्रमेहा. ३४; धन्व.) | भस्मीभूतशिलोद्भवं समतुलं कान्तं च वैक्रा न्तकं युक्तं शालसारादितोयेन पावितं यच्छिलाजतु ।। च त्रिफलाकटुत्रिकं घृतैर्वल्लेन तुल्यं भजेत् । पिबेत्तेनैव संशुद्धदेहः पिठं यथावलम् ॥ पाण्डौ यक्ष्मगदे तथाग्निसदने मेहेषु मूलामये शालसारादि गणके क्वाथसे भावित शिला- गुल्मप्लीहमहोदरे बहुविधे शूले च योन्यामये।। जीत उसीके क्वाथके साथ, देहशुद्धिके पश्चात् / सेवेत यदि षण्मासं रसायनविधानतः । सेवन करनेसे प्रमेह नष्ट होता है। | वलीपलितनिर्मुक्तो जीवेद्वर्षशतं सुखी ॥ (७६०५) शिलाजतुमारणम् शिलाजीतकी भस्म, कान्त लोह भस्म, | वैक्रान्त भस्म, हर, बहेड़ा, आमला, सांठ, मिर्च (र. र. स. । पू. खं. अ. २) तथा पीपल समान भाग ले कर सबको एकत्र शिलया गन्धतालाभ्यां मातुलारसेन च । मिलाकर खरल करें। पुटितं शिलाधातुम्रियतेऽष्टगिरीण्डकः ॥ मात्रा-३ रत्ती। नूनं सज्वरपाण्डुशोफशमनं मेहामिमान्यापह इसे घीके साथ सेवन करनेसे पाण्डु, यक्ष्मा, मेदच्छेदकरं च यक्ष्मशमनं शूलामयोन्मसनम्। अग्निमांद्य, प्रमेह, अर्थ, गुल्म, प्लीहा, महोदर, गुल्मप्लीहविनाशनं जठरहच्छलामयोन्मुलनं अनेक प्रकारका शूल और योनिरोगोंका नाश सर्वत्वग्गदनाशनं किमपरं देहे च लोहे हितम् ॥ होता है। For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः १२६ यदि इसे ६ मास तक रसायन विधिसे सेवन किया जाय तो बलि पलित रहित सौ वर्षकी सुखपूर्ण आयु प्राप्त होती है । (७६०७) शिलाजतुलेहः ( र. र. । प्रमेहा. ) शिलाजतु पलान्यष्टौ सितायाश्र पलाष्टकम् । बृहत्यास्तु फलं मूलं शृङ्गी घात्री कणा तुगा । पृथगेषां पञ्चातुर्जातस्य मिलितं पलम् । सञ्चूर्ण्य मिलितं कृत्वा निहन्ति मधुना लिहन् प्रमेहशुक्रदोषाश्वासकासक्षयाश्मरीम् । मूत्राघातानिमान्द्यामगुल्मप्लीहाग्निमारुतम् || जीर्णज्वरारुचि हरो लेह एष शिलाजतोः । । शिलाजीत ४० तोले, खांड ४० तोले तथा कटेलीके फल, कटेलीकी जड़, काकड़ासिंगी, आमला, पीपल और बंसलोचनका चूर्ण ५-५ तोले एवं दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसरका चूर्ण १ - १ | तोला ले कर सबको एकत्र मिला कर रक्खें । इसे शहदके साथ सेवन करने से प्रमेह, शुकदोष, रक्तविकार, श्वास, कास, क्षय, अश्मरी, मूत्राघात, अग्निमांद्य, गुल्म, प्लीहा, वातविकार, जीर्णज्वर और अरुचिका नाश होता है । ( मात्रा - २ - ३ माशा ) (७६०८) शिलाजतुवटिका ( भै. र.; स्त्रीरोगा . ) शुद्धमूर्त समं गन्धं रक्तोत्पलदलद्रवैः । कौटजेनाम्भसा चापि मर्दयेद्दिवसद्वयम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा । त्वक्क्षीरी पिप्पली धात्री कर्कटाख्या पलोन्मिता ॥ निदिग्याफलमूलाभ्यां पलं युडयात्रिजातकम् । मधुन: पलसंयुक्तं कुर्यान्मासमान गुडान् ॥ दाडिमाम्बुपयः क्षीररसतोयसुरासवान् । तां भक्षयित्वा पिवेन्नरन्नो भुक्त एव वा ॥ पाण्डुकुष्ठज्वरप्लीहतमकार्शो भगन्दरान् । पूतिविण्मूत्र शुक्रादिदोषमेहमहोदर५ ॥ कातपित्तश्च प्रदरं रक्तसम्भवम् । तान् सर्वान् सुतरां हन्ति सर्वदोषहरा शिवा ।। ง शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक ५- ५ तोले लेकर कजली बनायें और उसे २-२ दिन लाल कमलके पत्तोंके रस और कुड़ेकी छालके क्वाथ में घोटकर सुखा लें। तदनन्तर उसमें ४० तोले शिलाजीत, ४० तोले सफेद खांड, तथा ५-५ तोले बंसलोचन, पोपल, आमला, काकड़ासिंगी, कटेलीकी जड़, कटेली के फल, दालचीनी, इलायची और तेजपातका चूर्ण मिला कर खरल करें और फिर ५ तोले शहद डाल कर घोट कर उड़दके समान गोलियां बना लें । ( मात्रा -- १ माशा 1 ) अनुपान - अनारका रस, दूध, पानी, सुरा अथवा आसव | इन गोलियों को खाली पेट अथवा भोजनान्तमें खाना चाहिये । For Private And Personal Use Only मांस रस, इनके सेवन से पाण्डु, कुष्ठ, ज्वर, प्लीहा, तमक श्वास, अर्श, भगन्दर, शुक्रदोष, मेह, महोदर, कास, रक्तपित्त, और रक्तप्रदरका नाश होता है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः १२७ मलकर कपड़े से छान लें तथा उस छने हुवे पानीको मिट्टीकी नांद आदि में भर कर धूप में रख दें । इस पानी पर जो मलाई जमे उसे निकाल कर अन्य कांचादिके पात्रमें सुरक्षित खर्खे । इसी प्रकार ज्योंय मलाई जमती जाय उसे निकालते रहें और अन्तमें जो गाद रह जाय उसमें और पानी दें और इसी प्रकार उससे भी शिलाजीत निकाल लें । रसप्रकरणम् ] ( यो. र. ; (७६०९) शिलाजतुशोधनम् यो. चि. म. । अ. ९ शा. सं. । सं. २ अ. ११ ) हेमाद्याः सूर्यसन्तापात् द्रवन्ति गिरिधातवः ॥ जत्वाभं मृदुमृत्स्नाभं तद्भवेच्च शिलाजतु । शिलाजतु समानीय ग्रीष्म तप्ता शिलाच्युतप ॥ गोदुग्धैखिफलकाचे द्रावैध मर्दयेत् । आतपे दिनमेकैकं तच्छुष्कं शुद्धतां व्रजेत् ॥ + + + मुख्य शिलाजतुशिलां सूक्ष्मखण्डप्रकल्पिताम् । निक्षिप्यात्युष्ण पानीयैर्यामैकं स्थापयेत्सुधीः ॥ मर्दयित्वा ततो नीरं गृह्णीयात्रगालितम् । स्थापयित्वा च मृत्पात्रे धारयेदातपे बुधः ॥ उपरिस्थं घनं यत्स्यात् तत्क्षिपेदन्यपात्रके । धारयेदातपे धीमानुपरिस्थं घनं नयेत् ॥ एवं पुनः पुनर्नोत्वाद्विमासाभ्यां शिलाजतु । aaratai at क्षिप्तं लिङ्गोपमं भवेत् ॥ निर्धूमं च ततः शुद्धं सर्वकर्मसु योजयेत् । अधःस्थितं च यच्छेषं तस्मिन्नीरं विनिक्षिपेत् विमर्थ धारयेद्धर्मे पूर्ववचैव तन्नयेत् । । स्वर्णादि धातुओं वाले पर्वतोंसे सूर्य संतापसे पिघलकर जो लाख या कोमल मिट्टीके समान द्रव पदार्थ निकलता है उसे शिलाजीत कहते हैं । इस प्रकार पत्थर से निकले हुवे शिलाजीतको १-१ दिन गोदुग्ध, त्रिफला काथ और भंगरेके रसमें घोट कर धूप में सुखा लेने से वह शुद्ध हो जाता है। X X X शिलाजीतके उत्तम पत्थरको कूट कर अत्युष्ण पानी में डाल दें और एक पहर पश्चात् अच्छी तरह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७६१०) शिलाजत्वा दियोगत्रयम् ( ग. नि. । पाण्डु. ७ ) गोमूत्रेण पिबेत् कुम्भकामलायां शिलाजतु । मा माक्षिकातुं वा किटं वाऽथ हिरण्यनम् ॥ गोमूत्र के साथ शिलाजतु या स्वर्णमाक्षिक भस्म अथवा स्वर्णकिट्ट सेवन करने से १ मासमें कुम्भ कामला नष्ट हो जाती है । (७६११) शिलाजत्वादिलौहम् (र. रा. सु. । यक्ष्मा. ; वृ. नि. र. ) शिलाजतुयुतं लोहं वलं तु विधिमारितम् । पथ्याशी सेवते यस्तु यक्ष्माणं व्यपोहति ॥ विधिवत् निर्मित लोह भस्म और शिलाजीतएकत्र मिला कर सेवन करने और पथ्य. पूर्वक रहने से यक्ष्माका नाश होता है । (७६१२) शिलाजत्वादिवटी (भै. र. । प्रमेहा. ) शिलाजत्वभ्र हेमानि लौहगुग्गुलुङ्गणम् । केशराजस्य तोयेन मयेदिवसद्वयम् ॥ वलमानां वटीं कृत्वा शैवालसलिलेन च । प्रातः प्रातः प्रयुञ्जीत शुक्रमेहनिवृत्तये ॥ For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ भारत-भैषज्य-रत्नाकर [शकारादि शिलाजीत, अभ्रक भस्म, स्वर्ण भस्म, लोह (७६१४) शिलादिपानकम् भस्म, शुद्ध गूगल और सुहागेको खील समान भाग (वृ. नि. र. । विषा.) ले कर दो दिन भंगरेके रसमें खरल करें और शिलातालककुष्ठानि पिडा निर्गुण्डिजद्रवैः । ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें। पानं मूषकदष्टानां दत्वा तीव्रविषं हरेत् ॥ इनमेंसे १-१ गोली प्रातः काल शैवालके मनसिल, हरताल और कूठ समान भाग ले रसके साथ सेवन करनेसे शुक्रमेहका नाश होता है। | कर संभालुके रसमें पीस कर पीनेसे चूहेका तीब्र विष भी नष्ट हो जाता है। (७६१३) शिलातालो रसः _(श्वासकासारिरसः) (७६१५) शिलाचवलेहः (१) (वृ. नि. र. । श्वासा.) ( र. रा. सु. । कासा. ; र. सं. क. । उ. ४ ) शिला व्योषभयाहिङ्गमणिमन्थविडङ्गकैः । त्रिकण्टकरसैर्भाव्यं तालमेकं चतुशिला। लेहः साज्यमधुः कासहिकाश्वासेषु शस्यते ॥ दिनं वासारसैः पिष्ट्वा वालुकायन्त्रपाचितम् ॥ शुद्ध मनसिल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, हींग, द्वियामान्ते समुद्धत्य तत्तुल्यं कटुकत्रयम् । सेंधा नमक और बायबिडंग समान भाग ले कर निर्गुण्डीमूलचूर्णश्च व्योषतुल्यं विमिश्रयेत् ॥ चूर्ण बनावें ।। शिलातालोरसोनाम्नामाषेकं श्वासकासजित्॥ इसे घी और शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे १ भाग शुद्ध हरताल और ४ भाग शुद्ध कास, हिक्का और श्वासका नाश होता है । मनसिलको एकत्र मिला कर गोखरु ( पाठान्तरके (मात्रा-१ माशा ।) अनुसार त्रिकुटा) तथा बासाके रसमें १-१ दिन | (७६१६) शिलाधवलेहः (२) घोट कर गोला बनावें और उसे शरावसम्पुटमें (वृ. नि. र । श्वासा.) बन्द करके २ पहर .बालुका यन्त्रमें पकावें। शिलाहि विडङ्गं च मरिचं कुष्ठसैन्धवम । ( अथवा आतशी शीशीमें डाल कर बालुका यन्त्रमें | मध्वाज्यां लिहेत्कर्ष श्वासकासकफापहम् ॥ पकावें । ) तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर शुद्ध मनसिल, हींग, बायबिडंग, काली मिर्च, औषधको निकालकर उसमें उसके बराबर त्रिकुटेका | कूठ और सेंधा नमक समान भाग ले कर चूर्ण चूर्ण और उतना ही संभालुकी जड़का चूर्ण मिला | बनावें। कर खरल करें। . इसे शहद और घीमें मिला कर सेवन करनेसे श्वास, कास और कफका नाश होता है। इसके सेवनसे श्वास कासका नाश होता है। मात्रा--११ तोला. मात्रा-१ माशा। (व्यवहारिक मात्रा-१ माशा १) For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पत्रमो भागः १२९ - - (७६१७) शिलापूतरसः | खरल करें और फिर उसका गोला बनाकर मूषामें __(र. चं.। हिक्का. ) बन्द करके उसे थोड़ी देर मन्दाधिमें रख कर चर्ण पाठेन्टवायोटे तलाशी धमावें । तदनन्तर मूषाके स्वांग शीतल होने पर तत्पृष्ठे शुद्धमूतं च कुनटयशं प्रदापयेत् ॥ | उसमेंसे रसको निकाल लें। मृताधै कुनटीचूर्ण तस्यार्धे पूर्वमूलिकाः । मात्रा-१ रती चूणे दत्वा पचेच्चुल्यां यामाष्टं मृदुवह्निना ॥ यह रस पित्त शूलको नष्ट करता है। शिलापूतो रसो नाम हन्ति हिक्कां त्रिगुञ्जकः। अनुपान-हींग १ भाग, हर्र १०० भाग, कपडमिट्टी की हुई हाण्डीमें पाठा और इन्द्रा- सेठ ३ भाग और सज्जीखार २ भाग ले कर चूर्ण यगको जड़का समान भाग मिश्रित चूर्ण रख कर बनावे । उपरोक्त रस खानेके बाद । तोला (व्यव. उसके ऊपर उसके बगवर शुद्ध मनसिलका चूर्ण मा. ३-४ माशे ) यह चूर्ण (पानीके साथ) बिछा दें और फिर उस पर मनसिलके बराबर शुद्ध खाना चाहिये। पारद स्वखें, पारदके ऊपर उससे आधा मनसिलका (७६१९) शिलावीररसः चूर्ण बिछावें और इसके ऊपर इससे आधा पाठा (र. र. रसा. । उप. २) और इन्द्रायणकी जड़का चूर्ण बिछा दें । तदनन्तर रसभस्म समं गन्धं शिलाजत्वम्लवेवसम् । उसके मुखको बन्द करके आठ पहर मन्दाग्नि पर यामैकं मर्दयेत्सर्वे मधुसर्पिर्युतं लिहेत् ॥ पकावें और फिर स्वांगशीतल होने पर तैयार निष्कैकैक वर्षमात्र शिलावीरो महारसः । रसको निकाल लें। जराकालं निहन्त्याशु जीवेद्वर्षशतत्रयम् ॥ यह रस हिचकीको नष्ट करता है। पलाधै मशलीचूर्ण भृराजरसैः पिवेत् । मात्रा-३ रत्ती। धात्रीफलरसर्वाऽथ कामकं बनुपानकम् ॥ (७६१८) शिलाबद्धरसः ___ पारद भस्म, शुद्ध गन्धक, शिलाजीत और (र. र..। शूला.) अम्लवेत समान भाग ले कर १ पहर खरल करके मृतमतस्य भागैकं भागेकं शोधितां शिलाम। रखें । दिनं जम्बीरजैविमेघे रुद्धवा धमेल्लघु ॥ इसमेंसे १-१ निष्क रस शहद और पीके शिलाबद्धो रसो नाम गुजै पित्तशलजित | साथ निरन्तर १ वर्ष तक सेवन करनेसे वृद्धावस्था एक हि शतं पथ्या त्रिशुण्ठी दि सुवर्चला॥ रहित ३०० वर्षकी आयु प्राप्त होती है । एतच्चूर्ण ककमनुस्याच्छलशान्तये। अनुपान-औषध खानेके पश्चात् २॥ १-१ भाग पारद भस्म और शुद्ध मनसि- तोले मूसलीका चूर्ण भंगरेके रस या आमलेके रसके लको एकत्र घोटकर १ दिन जम्बीरी नीबूके रसमें साथ पीना चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि (७६२०) शिवरसः काकोल्यो द्वे मेदे ( र. रा. सु. । अर्थी. ) विदारियुग्मं शतावरी द्राक्षा । सूतवैक्रान्तशुल्बा_ कान्तभस्मसगन्धकम् । ऋद्धियुगर्षभवीरातुल्यांश मर्दयेच्चादौ दाडिमोत्यै रसैस्तथा ॥ मुण्डितिकाजीरकें शुमत्यौ च ॥ रास्नापुष्करचित्रकभक्षयेन्माषमेकन्तु हन्त्यासि शिवो रसः । दन्तीभकणाकलिङ्गचव्याब्दाः । पारद भस्म, वैक्रान्त भस्म, ताम्र भस्म, कटुकाशृङ्गीपाठा अभ्रक भस्म, कान्तलोह भस्म और शुद्र गन्धक एतानि पलांशिकानि कार्याणि ॥ समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें और ! अन्द्रोणे साधितानां फिर अनारके रसमें घोटकर सुरक्षित रक्खें । रसेन पादांशिकेन भाव्यानि । मात्रा-१ माषा । गिरिजस्यैवं भाक्ति( व्यहारिक मात्रा--१-२ रती) शुद्धस्य पलानि दश पट च ॥ इसके सेवनसे अर्शका नाश होता है। द्विपलं च विश्वधात्री (७६२१) शिवागुटिका मागधिकायाश्च मरिचानाम् । (व. से. । वातरक्ता. ; च. द. । रसा. ६५; चूर्ण पलं विदार्याग. नि. गु. ४ ; यो. र. । राजय. ; __ स्तालीसपलानि चत्वारि ॥ ___ वृ. यो. त. । त. ७६ ) षोडश सितोपलानि काले तु रवितापाढये चत्वारि घृतस्य माक्षिकस्याष्टौ । जायस शिलाजतु प्रवरम् । तिलतैलस्य द्विपलं त्रिफलारससंयुक्त __ चूर्णाधपलानि पश्चानाम् ।। व्यहश्च शुष्कं पुनः शुष्कम् ॥ वक्षीरीपत्रत्वक दशमूलस्य गुडूच्या नागैलानां च मिश्रयित्वा तु । रसे बलायास्तथा पटोलस्य । गिरिजस्य पोडशपलैमधुकरसैर्गोमूत्रे गुडिकाः कार्यास्ततोऽक्षसमाः॥ व्यहं व्यहं भावयेत्क्रमशः ॥ ताः शुष्का नवकुम्भे एकाहं क्षीरेण तु जातीपुष्पाधिवासिते स्थाप्याः । तच पुनर्भावयेच्छुष्कम् । तासामेका काले भक्ष्या पेयापि वा सततम् ।। सप्ताहं भाव्यं स्यात् क्षीररसदाडिमरसाः क्वाथेनैषां यथालाभम् ।। सुरासवं मधु च शिशिरतोयानि । For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः - - - आलोडनानि तासा पापालभम्या चेयं __ मनुपाने वा प्रशस्यन्ते ॥ शमयेद्गुडिका शिवा नाम्ना ॥ जीर्ण लध्यन्नपयो जाङ्ग बल्या वृष्या धन्या लिनियूहयुषभोजी स्यात् । कान्तियशः मजाकरी चेयम् । सप्ताहं यावदतः परं दद्यान्नृपवल्लभतां जयं __ भवेत्सोपि सामान्य ॥ विवादे मुखस्था च ॥ भुक्त्वापि भक्षितेयं श्रीमान्प्रकृष्टमेधः ___ यदृच्छया नावहेद्भयं किश्चित् । स्मृतिबुद्धिबलान्वितोऽतुलशरीरः । निरुपद्रया प्रयुक्ता पुष्टयौजोवणेन्द्रिय सुकुमारैः कामिभिश्चैक ॥ - तेजोवलसम्पदादिसदुपेतः ॥ सम्वत्सरप्रयुक्ता वलिपलितरोगरहितो हन्त्येप। वातशोणितं प्रबलम् । जीवेच्छरदां शतद्वयं पुरुषः। बहुवापिकमपि गाई सम्वत्सरप्रयोगाद् यक्ष्माणं चावयवातं च ॥ द्वाभ्यां शतानि चत्वारि ॥ ज्वरयोनिशुक्रदोषप्लीहार्श:पाण्डुग्रहणीरोगान् । सर्वाश्यजित्कथित धनवमिगुल्मपीनस ___ मुनिगणभक्ष्यं रसायनरहस्यम् । हिकाकासारुचिश्वासान् ॥ समुद्धभूवामृतमन्थनोत्थः जठरं श्वित्रं कुप्ठं पाण्डय क्लव्यं मदं क्षयं शोषम् । ___ स्वेदः शिलाभ्योऽमृतवगिरेः माक् ॥ उन्मादापस्मारौ वदनाक्षिशिरोगदान्सर्वान् ॥ यो मन्दरस्यात्मभुवा हिताय आनाहमतीसारं न्यस्तश्च शैलेषु शिलाजरूपी । सामग्दरं कामलाप्रमेहांश्च । शिवागुडिकेति रसायनयकृदर्बुदानि विधि मुक्तं गिरीशेन गणपतये ॥ भगन्दरं रक्तपित्तं च ।। शिववदनविनिर्गता यस्माअतिकायमतिस्थौल्यं नाम्ना तस्माच्छिवागुडि केति ॥ स्वेदमथ श्लीपदं च विनिहन्ति । प्रीष्म कालमें कृष्ण लोह जनित उत्तम शिलादंष्ट्राविषं समौलं जीतको त्रिफलाके काथकी १ भावना दें और सूख गराणि च पहुपकाराणि ॥ जाने पर पुनः त्रिफला काथकी भावना दें । इसी मन्त्रीपधियोगादीन प्रकार धूप में सुखा सुखा कर त्रिफला क्वाथकी ३ विपयुतान्भौतिकान्भावान् । । भावना दें और फिर इसी प्रकार दशमूलके काथ, For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org -भैषज्य रत्नाकरः १३२ गिलोयके काथ, खरैटीके काथ, पटोलके काय और मुलैठीके काथ तथा गो मूत्रकी ३-३ और गोदुग्धकी १ भावना दे कर सुखा लें । तदनन्तर निम्न लिखित काकोल्यादि गणके काथकी सात भावना दें- भारत काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, विदारीकन्द, क्षीरविदारी, शतावर, द्राक्षा, ऋद्धि, वृद्धि, ऋषभक, महा शतावर, मुण्डी, जीरा, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, रास्ना, पोखरमूल, चीता, दन्तीमूल, गजपी पल, इन्द्रजौ चव्य, नागरमोथा, कुटकी, काकड़ासिंगी और पाठा, ५-५ तोले इनमेंसे जितनी औषधे मिलें उन सबको कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर छान लें। ( कोई ओषधि न मिले तो उसके स्थान में उसके नाम वाली, पूर्व या पश्चात् की ओषधि लेनी (हिये | ) इस प्रकार भावना दे कर सुखाया हुवा शिलाजीत ८० तोले, सांठ, आमला, पीपल और काली मिर्चका चूर्ण १०-१० तोले, विदारीकन्दका चूर्ण ५ तोळे, तालीस पत्रका चूर्ण २० तोले, मिसरी ८० तोले, घी ४० तोले, शहद ८० तोले, तिलका तेल २० तोले तथा बंसलोचन, तेजपात, दालचीनी, नागकेसर और इलायचीका चूर्ण २॥ -२|| तोले ले कर सबको एकत्र घोटकर ११-११ तोलेकी गुटिका बना लें और उन्हें सुखाकर चमेली के फूलोंसे बसाए हुवे सुगन्धित घटमें सुरक्षित रक्खें । ( मात्रा - ३-४ माशा । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि रस, इनमेंसे नित्य प्रति १-१ गुटिका दूध, मांस अनार के रस, सुरा, आसव, मधु या शीतल जल में घोलकर पीनी चाहिये या गुटिका खाकर इनमें से कोई एक द्रव अनुपान रूपसे पीना चाहिये । औषध पच जाने पर लघु अन्न, दूध या मूंग आदिके यूपके साथ खाना चाहिये। जो लोग मांसाहारी हैं वे मांस रसके साथ भी लघु अन्न खा सकते हैं। एक सप्ताह तक इस प्रकार पथ्य पालन करनेके पश्चात् साधारण पध्याहार किया जा सकता है । यह गुटिका भोजन करनेके पश्चात् भी खाई जाय तब भी किसी प्रकारकी हानिका भय नहीं है । इसे सुकुमार प्रकृतिके कामी पुरुष भी निर्भय हो कर सेवन कर सकते हैं । इसे १ वर्ष तक सेवन करने से बहुत वर्षोंका पुराना प्रबल और कठिन वातरक्त भी नष्ट हो जाता है । इसके अतिरिक्त यह गुटिका यक्ष्मा, आढवात, ज्वर, योनिदोष, शुक्र दोष, प्लीहा, अर्थ, पाण्डु, ग्रहणी, ब्रन, वमन, गुल्म, पीनस, हिचकी, कास, अरुचि, श्वास, जठर, श्वित्र कुष्ठ, नपुंस्कता, मद, शोष, उन्माद, अपस्मार, मुखरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग, आनाह, अतीसार,.. रक्तप्रदर, कामला, प्रमेह, यकृत्, अर्बुद, विद्रधि, भगन्दर, रक्तपित्त अति कृशता, अति स्थूलता, स्वेद, क्लीपत्र, दंष्ट्रा विष, मूल विष और अनेक प्रकार के संयोगज विषको भी नष्ट करती है । For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः - - इसके प्रयोगसे शत्रुवों द्वारा प्रयुक्त हुवे मन्त्र (७६२३) शीघ्रप्रभावरसः औषधादिके दुष्ट प्रभाव नष्ट होते हैं तथा पाप (र. र. स. । उ. अ. १६) (गनोविकार) और अलक्ष्मी (प्रभाव शून्यता) का पारदं गन्धकं व्योम तीक्ष्णं तालं मनःशिला । नाश होता है। यह गुटिका बल और कामशक्ति वर्द्धक, सौवीरमअनं शुद्धं विमलं च समांशकम् ॥ प्रशंसनीय तथा कान्ति, यश, और सन्तानकी वृद्धि। एभिः कज्जलिकां कृत्वा स्वल्पतैलेन भर्जयेत । करने वाली है । इसे मुखमें धारण करनेसे विवाद में ग्रन्थिकं जीरकं चित्रं दीप्यकं मुस्तकं विषम् ॥ जय और राजसभामें आदर प्राप्त होता है। बालानं बालबिल्वं च मोचसारं समांशकम् । विचूर्ण्य पूर्ववत्कल्क तदर्धेन विनिक्षिपेत् ।। इसके सेवनसे शरीरकी कान्ति, मेधा, स्मृति, पुनर्विमर्दयेद्यत्नादेकरूपं भवेद्यथा । बुद्धि और बल बढ़ता है; शरीर अनुपमेय हो जाता . भावयेत्सप्तवाराणि पश्चकोलकषायतः ।। है; पुष्टि, और ओजकी वृद्धि होती है; इन्द्रियां अरलुत्वग्रसेनापि दशवाराणि भावयेत् । निर्मल हो जाती हैं; तेज बढ़ता है। प्रोक्तेन क्रमयोगेन रतो निष्पधते ह्ययम् ॥ इसे एक वर्ष तक सेवन करते रहनेसे दोसौ . जग्धो विश्वधनाम्बुना स हि रसः शीघ्रमवर्षकी बलि पलिन और रोग रहित आयु प्राप्त भावाभियो। होती है । दो वर्ष तक सेवन करनेसे ४ सौ वर्षकी निष्कापमितो महाग्रहणिकारोगेऽतिसारामये।। आयु प्राप्त होती है यह मुनियोंके सेवन करने योग्य आध्माने ग्रहणीभवे रुचिहते वाते च मन्दानले। रसायन है। मुक्ते चापि मले पुनश्चलामलंशङ्कामु हिक्कासु च ।। (७६२२) शीघ्रज्वरारिरसः (१) शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, (र. सं. क. । उल्ला. ४) तीक्ष्ण लोह भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध मनसिल, रसहिङ्गालनेपाला वृद्ध या दन्त्यम्बुमदिताः। शुद्ध सौवीराजन, और विमल भस्म समान भाग द्वौ यामौ ज्वरनाशाय गुञ्जका सितया सह ॥ ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और रस सिन्दूर १ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर अच्छी तरह और शुद्ध जमालगोटा ३ भाग ले कर सबको २ खरल करें । तदनन्तर उसमें थोड़ासा तेल मिलापहर दन्तीमूलके काथमें घोट कर १-१ रत्तीकी कर मन्दाग्नि पर भूनें । गोलियां बना लें। (२) पीपलामूल, जीरा, चीता, अजवायन, इनमेंसे १-१ गोली मिश्रीके साथ खिलानेसे नागरमोथा, शुद्ध बछनाग, अमचूर, बेलगिरी और (विरचन हो कर ) वर नष्ट हो जाता है। मोचरस समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इस (यह वटी नवीन ज्वर में विशेष उपयोगी है।) चूर्णको भी उपरोक्त विधिसे तेलमें भून लें। For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः १३४ (३) २ भाग नं. १ की औषधमें १ भाग नं. २ की औषध मिला कर अच्छी तरह खरल करें और फिर उसे पंचकोल (पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सांठ) के काथकी सात भावना, तथा अलुके काथकी दस भावना दे कर आधा आधा निष्क (२ ॥ -२ ॥ माशे) की गोलियां बना लें I ( व्यवहारिक मात्रा - २ - ३ रत्ती । ) अनुपान - सांठ और नागरमोथेका काथ । इसके सेवन से भयंकर ग्रहणी, अतिसार, आध्मान, अरुचि, वायु, अग्निमांध, और हिचकीका नाश होता है । मलत्याग करनेके पश्चात् भी दस्तक हाजत बनी रहती हो तो उसके लिये यह रस उपयोगी है । (७६२४) शीतकेसरी रसः ( भा. प्र. म. खं. २; र. रा. सु. । ज्वरा. ) पारदं गन्धकञ्चैव तुत्थञ्च दरदं विषम् । विषादष्टगुणं योज्यं मरिचं विश्वभेषजम् ॥ अश्वगन्धाथ विजया कासमर्दः कठिल्लकः । चतुर्णाश्च रसैरेतैश्चूर्णान्येतानि मर्दयेत् ॥ तुलस्यास्तु दलैः सार्धं भक्षितो रक्तिकामितः। हन्ति शीतज्वरं घोरं नाम्नायं शीतकेसरी | शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध तूतिया, शुद्ध हिंगुल और शुद्ध बचनाग १ - १ भाग तथा मिर्च और सोंठका चूर्ण ८-८ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर असगन्ध, भांग, कसौंदी और करेले के रसकी १-१ भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें । [ शकारादि इसे तुलसी दलके साथ सेवन करनेसे घोर शीतज्वर नष्ट होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७६२५) शीतज्वरहररसः ( रसे. सा. सं. ; र. चं. । ज्वरा. ) सूतमाक्षिकगन्धानां भागश्चारुष्करस्य च । तथाष्टौ तालकाच्चूर्णाद्रविदुग्धस्य पोडश || स्नुही क्षीरस्य चैवाष्टौ स मृद्रग्निना पचेत् । स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य ततः खल्ले विमर्दयेत् ॥ शीतज्वरहरी नाम्ना रसोयं परिकीर्तितः ॥ शुद्ध पारद, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध गन्धक और शुद्ध भिलावा १-१ भाग तथा शुद्ध हरताल ८ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर खरल करें । तदनन्तर उसमें १६ भाग आकका दूध और ८ भाग थूहर (सेहुंड) का दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें और गाढ़ा होने पर ठंडा करके खरल में घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें । इनके सेवन से शीतज्वर नष्ट होता है । शीतज्वराङ्कुशो रसः प्र. सं. ५५८० महाशीतज्वराङ्कुशो रसः देखिये । शीतज्वरारिरसः (१) (शीतारिरसः) ; (शा. सं. । खं. २ अ. १२ ; र. का. घे. र. रा. सु. । ज्वरा. प्र. सं. २५५७ " तरुणज्वरारिरसः (१) " देखिये । For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पश्चमो भागः १३५ (७६२६) शीतज्वरारिरसः (२) इसे पानमें रख कर खानेसे घोर शीतञ्चर ( र. चि. म. । स्त. ९) नष्ट होता है। पथ्य---तक भात । षट्पल तालकं शुद्धं बीजं भल्लातकोद्भवम् ।। ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती ।) सये भावयेद्गाद भृङ्गराजस्य वारिणा ॥ शुक्लायाश्चापि कृष्णाया काकमाच्या रसेन च। (७६२७) शीतज्वरारिरसः (३) अर्कसेहुण्डदुग्धेन दातव्या भावनाः क्रमात् ॥ ( शा. सं. । खं. २ अ. १२) तत्कल्क रोटिकाकारं स्थाल्यामारोप्य यत्नतः। न यत्नतः । तालकं तुत्थकं तानं रसं गन्धं मनःशिलाम् । संशुष्कं च पुनर्धार्थ शरावे शुभलक्षणे ॥ कर्ष कर्प प्रयोक्तव्यं मर्दयेत्रिफलाम्बुभिः ॥ तच्च वसमृदा लिप्त्वा सन्धि रुद्धवा विशोपयेत्। गोलं न्यसेत्सम्पुटके पुटं दद्यात प्रयत्नतः । ततश्च वालुकायन्त्रे धार्य तच्च प्रयत्नतः ॥ ततो नीत्वादग्वेन वन्त्रीदुग्धेन सप्तथा ।। चुल्ल्यामारोप्य दातव्यो वहिमित्र क्रमात् । काथेन हन्त्याः श्यामाया भावयेत्सप्तधा पुनः। स्वागशीतं गृहीत्वा तद्गोलं सञ्चूर्णयेदृढम् ।। मापमात्र रसं दिव्यं पञ्चाशन्मरिचयुतम् ॥ तस्मिन्मरिचचूर्णस्य द्विपलं चाथ मेलयेत् । गुडगद्या कं चैव तुलसीदलयुग्मकम् । नागवल्लीदलेनायं माषमात्रश्च भक्षितः ॥ भक्षयेत्रि देन भक्त्या शीतारिं दुर्लभं परम् ।। हन्ति शीतज्वरं घोरं धुवं तक्रौदनाशिनः । पथ्यं दुग्धोदनं देयं विषमं शीतपूर्वकम् । रसः शीतज्वरारिहिं वैद्यन्दैः सुभाषितः॥ दाहपूर्व हरत्याशु तृतीयकचतुर्थकौ ॥ ___ शुद्ध हरताल और भिलावे ३०-३० तोले द्वयाहिकं सततं चैव वैवयं च विनश्यति ॥ ले कर दोनोंको बारीक पीस कर १-१ दिन शुद्ध हरताल, शुद्ध तृतिया, ताम्र भस्म, शुद्ध भंगरेके रस, सफेद और काली मकोयके रस, तथा : पारद, शुद्ध गंधक, और शुद्ध मनसिल ११-१॥ आक और सेहुंडके दूध खरल करके उसकी एक तोला ले कर प्रथम पारे गन्धकी कजली बनावें रोटीसो बनावें और उसे उल्टी हाण्डी पर रख दें। और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको जब वह सूख जाय तो उसे शरावसम्पुट में बन्द त्रिफलाके काथमें खरल करके गोला बनावें और करके उस पर ३-४ कपड़मिट्टी कर दें और उसे शरावसम्पुट में बन्द करके (लघुपुटमें ) फूंक बालकायन्त्रमें रख कर ३ प्रहर अग्नि दें। तद- दें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होनेपर औषधनन्तर जब वह स्वांगशीतल हो जाय तो औषध- को निकाल कर आक और थूहर (सेहंड) के को निकाल कर उसमें १० तोळे काली मिर्चका दृध तथा दन्तीमूल और काली निसोतके काथकी चूर्ण मिलाकर भली भांति खरल करके रखें । सात सात भावना दे कर उडदके समान गोलियां मात्रा-१ माशा। बना लें। For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि इनमेंसे १ गोली ५० काली मिचौंके चूर्णमें अहोरात्रं पुनः शीतं कुम्भाधः सिकतान्तरे । मिलावें और उसमें ६ माशे गुड़ तथा २ तुलसी दत्तः पथ्यं तु तक्रण भक्तं क्षीरेण वा पुनः ॥ पत्र मिलाकर रोगीको खिला दें। इसी प्रकार ३ लवणेन विना सर्वान्नाशयेद्विषमज्वरान् ॥ दिन देनेसे शीत पूर्व और दाह पूर्व विषमञ्चर, शुद्ध पारद, हिगुल, हरताल, नीलाथोथा तृतीय ज्वर, चातुर्थिक, द्वयाहिक और सतन दर और क्षुद्रशंख (घोंघों ) का चूर्ण समान भाग ले तथा विवर्णताका नाश होता है। कर सबको एकत्र खरल करके घृत कुमारोके रसकी पथ्य-दूध भात । सात भावना दें और फिर उसे शरावसम्पुटमें (७६२८) शीतज्वरारिरसः (४) बन्द करके १ दिन रात बालुका यन्त्रमें पकावें । (भा. प्र. म. खं. २ । चरा. ; रे. रा. सु.) तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर औषधको मृतकं गन्धकश्चैव हरितालं मन:शिला। निकाल कर पीस लें। एकनिष्क द्विनिष्कञ्च चतुनिष्कं तथैव च ॥ ( मात्रा-२ रत्ती) पञ्चनिष्कं रसैः कारवेल्ल्याः सम्यक्प्रकल्पयेत् । इसके सेवनसे समस्त विषमज्वर नष्ट होते हैं। ताम्रपत्राणि तुल्यानि तेन कल्केन लेपयेत् ।। शरावसम्पुटे तानि कृत्वा तेषामुपर्यपि । . पथ्य-तक भात या दूध भात । लवणसे दद्यातां पिटिकां पश्चापटपाकेन पाचयेत॥ परहज कर। ततः सचूर्णयेदेवं रसः क्षौद्रेण भक्षितः। व (७६३०) शीतभञ्जीरसः (२) यवैकमात्रया हन्ति घोरं शीतज्वरं ध्रुवम् ॥ (र. का. धे. । ज्वरा.) शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, रसगन्धं शिलातालो माक्षीकं विषतुत्थके। शुद्ध हरताल ४ भाग और शुद्ध मनसिल ५ भाग तुल्यं स्नुक्क्षीरपुटितं सघृतं कर्मपाचितम् ॥ ले कर सबको एकत्र खरल करके कजली बनावें शीतभञ्जी रसो हन्ति द्विगुनो विषमज्वरान् । और उसे करेलेके रसमें घोट कर १२ भाग शुद्ध शुद्ध पारद, गन्धक, मनसिल, हरताल, स्वर्ण ताम्र पत्रोंपर लेप कर दें और उन्हें शराव सम्पुटमें माक्षिक भस्म, शुद्ध बछनाग और नीलाथोथा बन्द करके पुट लगा दें। समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली __ मात्रा-१ यवके बराबर । | बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर इसे शहदके साथ खानेसे शीतज्वर नष्ट सबको सेहुंड (थूहर) के दूधर्म घोट कर कूर्मपुटमें होता है। (७६२९) शीतभञ्जीरसः (१) पकावें । (र. का. धे. । ज्वरा.) मात्रा-२ रत्ती। रसहिलतालानि तुत्यं शम्बूकजं रजः। इसे घीके साथ देनेसे विषमज्वर नष्ट कन्याद्भिः सप्तधा भान्यं पाचितव्यं शरावके ॥ होता है । For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम्] पचमो भाग: (७६३१) शीतभञ्जीरसः (३) (७६३३) शीतभञ्जीरसः (५) (र. का. धे.। ज्वरा.) (भै. र. । ज्वरा.) रङ्गौ तालं सोममलं हारिद्रं शुक्तिचूर्णकम् ।। तुत्थशम्बूकतालानां द्विगुणानां यथोचरम् । तुत्यं वल्लीरसपुटैः शीतभनी रसः परः॥ चूर्ण कुमारिकाद्रावैः पिष्ट्वा गोलं प्रकल्पयेत् ।। बङ्ग भस्म, नागभस्म, शुद्ध हरताल, शद्ध शरावसम्पुट कृत्वा पचेद्गजपुटेन । संखिया, हारिद्र विष, सोपका चूर्ण और शुद्ध * स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य चूर्णयित्वा निषापयेत् ॥ नीलाथोथा समान भाग ले कर सबको एकत्र गुमाधै च सितायुक्तं खादेश सर्वज्वरोपहम् । खरल करके केवटो मोथेके काथमें घोटकर पुटमें पथ्यं क्षीरोदनं देयं निहन्ति विषमज्वरम् ।। पकावें। शुद्ध नीलाथोथा (तूतिया) १ भाग, क्षुद्र इसके सेवनसे शीतञ्चर नष्ट होता है। शंख (धोंघे) २ भाग, और शुद्ध हरताल ४ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें और फिर धृत( मात्रा-२-३ चावल भर ) .. कुमारीके रसमें घोटकर गोला बना लें। इसे शराव. नोट-यह औषध विषैली है अतः योग्य चिकि- सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें पकावें और फिर त्सकके परामर्शके बिना सेवन न करनी चाहिये।। स्वांग शीतल होने पर औषधको निकाल कर खरल (७६३२) शीतभञ्जीरसः (४) करके रक्खें । मात्रा-आधी रत्ती। (र. का. धे.। चरा.) इसे मिश्रीके साथ खानेसे समस्त विषमज्वर द्विपञ्चपञ्चपश्चैव रङ्गालनवसारकम् । ___ नष्ट होते हैं। काकमाची कन्यकाद्भिर्मदितं च दिनं दिनम् ।। पथ्य-दूध भात | मूर्ययामैः शरावेण पकोयं तु रसः परः। (७६३४) शीतभन्नीरसः (६) शीतभञ्जी द्विगुञ्जस्तु निहन्ति विषमज्वरान् ॥ (र. र. स. । उ. अ. १२ ; र. रा. सु. ) बङ्ग भस्म १० भाग तथा शुद्ध हरताल और सूततालशिलास्तुल्या मर्दयेन्मर्कटोरसे ।। नवसादर ५-५ भाग ले कर सबको एकत्र खरल ताम्रपात्रे विनिक्षिप्य तत्कल्क कज्जलीकृतम् ॥ करके मकोय और घृतकुमारीके रसमें १-१ दिन विपवेद्वालुकायन्त्रे यथोक्तविधिना ततः । खरल करके शरावसम्पुटमें बन्द करें और १२ दद्यान्मरिचचूर्णेन माषमात्रं भिषग्वरः ॥ पहर बालुकायन्त्रमें पकावें। प्रपिवेदष्णतोयस्य चुलुकं शीतकज्वरे । मात्रा-२ रत्ती। शीतभञ्जीरसः सोयं शीतज्वरनिवारणः॥ इसके सेवनसे विषमज्वर नष्ट होता है। १ कर्कटी रसे' इति पाठभेदः For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३८ www. kobatirth.org - भैषज्य रत्नाकरः भारत- रस सिन्दूर, शुद्ध हरताल, और शुद्ध मंसिल समान भाग ले कर सबको चिरचिटे (अपामार्ग ) के काथमें घोट कर गोला बनावें और उसे ताम्रके सम्पुट में बन्द करके बालुकायन्त्रमें पकायें । मात्रा - १ माषा ( व्य. मा. २ रत्ती । ) इसे काली मिर्चके चूर्ण के साथ खा कर १ चुल्लू उष्ण जल पीना चाहिये । इसके सेवन से शीतज्वर नष्ट होता है । (७६३५) शीतभञ्जीरसः (७) ( भा. प्र. म. खं. २ । ज्वरा. ) तालकं शुक्तिका चूर्ण तुल्यं तत्रोभयोरपि । नवमांशञ्च तुत्थं स्यान्मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः ॥ तत्तु संशुष्कमुपर्वन्यैर्गजपुटे पचेत् । शीतं तच्चूर्णयेदर्द्धगुआमात्रं सितायुतम् ॥ प्रभाते भक्षयेत्तेन याति शीतज्वरः क्षयम् । वान्तिर्भवति कस्यापि कस्यचिन्न भवत्यपि ॥ शुद्ध हरताल और सीपका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध तूतिया दोनोंका नवमांश लेकर तीनों को घृतकुमारीके रस में खरल करके गोला बनावें और उसे सुखाकर शरावसम्पटमें बन्द करके गजपुटमें पकायें | मात्रा - आधी रती । इसे प्रातःकाल मिसरीके साथ खानेसे शीतज्वर नष्ट होता है । इसे खाने के पश्चात् किसीको वमन हो जाती हैं और किसीको नहीं होती । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि (७६३६) शीतभञ्जीरस: (८) ( र. म. 1 अ. ६; भै. र. । ज्वरा. ; धन्व. ; र. का. . । ज्वरा. ; वै. कल्प. । स्क. २; वृ. यो त । त. ५९ रसे. चिं. ; म. । अ. ९ ) रसं हिङ्गुलगन्धञ्च जैपालं समं समम् । दन्तक्वाथेन सम्मर्थ रसो ज्वरहरः परः ॥ आर्द्रकस्वर सेनाथ दापयेद्रक्तिकामितम् । नवज्वरं महाघोरं नाशयेद्याममात्रतः ॥ शीततोयं पिबेच्चानु इक्षुमुद्गरसो हितः । शीतभी रसो नाम्ना सर्वज्वरकुलान्तकृत् ॥ शुद्ध पारद, हिंगुल, गन्धक और जमालगोटा समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनायें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर सबको दन्तीमूलके काथमें खरल करें । मात्रा - १ रती | इसे अदरक के रसके साथ देने से महा घोर नवीन वर १ पहर में नष्ट हो जाता है । अनुपान - शीतल जल या ईखका रस अथवा मूंगका यूप । शीतभञ्जीरस: (९) For Private And Personal Use Only ; ( रसे. चि. म. । अ. ९; भै. र. र. रा. सु. ; र. का. धे. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. । ज्वरा. ; र. र. स. । उ. अ. १२ ; र. मं. ६ ; र. स. क. । उ. ४ ; भा. म. खं. २ । ज्वरा. ) I अ. प्र. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः १३९ - प्र. सं. २१७० ज्वरारि रसः (१) देखिये ।* गुञ्जकं तसतोयेन वातश्लेष्मज्वरापहः । (७६३७) शीताङ्कुशरस: रसः शीतारिनामायं शीतज्वरहरः परः । ( यो. र. । ज्वरा. ) . शुद् पारद, गन्धक और सुहागेकी खील तत्थं टङ्कणसूतखर्परविषं स्याद्गन्धकं तालकं १-१ भाग; शुद्ध जमालगोटा २ भाग तथा सर्व खल्लतले विमर्थ घटिकां तत्कारवल्लीरसैः। सेंधानमक, कालीमिर्च, इमलीकी छालकी भस्म और गुजैका गुटिका सुशर्करयुता सज्जीरकेणाथवा खांड १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी एकद्वित्रिचतुर्थशीतहरणः शीताकुशो नामतः॥ कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका ___ शुद्ध तूतिया, सुहागेको खील, शुद्ध पारद, चूर्ण मिलाकर सबको जम्बीरी नीबू के रसमें खरल खपरिया, शुद्ध बछनाग और शुद्ध गन्धक तथा करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। हरताल समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी। इनमें से १-१ गोली उष्ण जलके साथ कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे बनी देनेसे वातकफज ज्वर नष्ट होता है । मिलाकर सबको १ घड़ी करेलेके रसमें घोटकर (७६३९) शीतारिरसः (२) १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें । इनमेंसे एक एक गोली खांड या जीरेके (वृ. यो. त. । त. ५९) चूर्णके साथ देनेसे एकाहिक आदि शीत ज्वर ! सितमल्लमनःशिलाहिफेन नष्ट होते हैं। रसकाम्भोधिजताप्यतुल्यभागैः। (७६३८) शीतारिरसः (१) सुषवीरसमर्दितै खिवारं ( रसे. चि. म. । अ. ९; भै. र. । ज्वरा. ; र. चं. भजशीतारिमिमं सितार्धगुञ्जम् ।। र. रा सु. ; रसे. सा. सं.; र. म. । अ. ६) सेवनाद्धरते तीब्र ज्वरं शीतं महोलणम् । पारदं गन्धकं टङ्ग शुद्ध चूर्ण समं समम् । मात्रात्रयेण निःशेष पथ्यं मुद्गौदनं स्मृतम् ॥ पारदाद्विगुणं देयं जैपालं तुषवर्जितम् ॥ शुद्ध सफेद संखिया, शुद्ध मनसिल, शुद्ध सैन्धवं मरिचं चिश्चात्वग्भस्म शर्करापि च । । अफीम, खपरिया, शंख भस्म और स्वर्णमाक्षिक प्रत्येक सूततुल्यं स्याज्जम्बीरैमैदेयेदिनम् ॥ भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके * भा. प्र. में. खपरियाके स्थान पर ताम्र है। करलेके रसकी ३ भावना देकर आधी आधी रत्तीकी और र. सं. क. में तुत्थका अभाव है । र. का. धे. गोलियां बना लें। में एक दूसरा "शीत भंजीरस" भी है जिसमें । इनमें से १-१ गोली खांडके साथ देनेसे ताम्र, स्वर्णमाक्षिक और विष अधिक है शेष प्रयोग ३ मात्रामें तीन शीतञ्चर (मेलेरिया) अवश्य नष्ट इसी प्र. सं. २१७० के समान है। हो जाता है। १ शुल्बमिति पाठान्तरम् पथ्य-मूंगका यूष और भात । For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि (७६४०) शीतारिरसः (३) शुद्ध हरताल ८ तोले, शुद्ध हिंगुलोत्थ (वै. जी. । वि. ५) पारद ४ तोले, शुद्र गंधक २ तोले और शुद्ध मनसिल १ तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली शुल्वं टङ्कणगन्धको च गरलं तुत्थं रसं खरं बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर तालं तुल्यमिदं विमर्थ घटिकामानं सुषव्यारसैः। करेलेके रसमें घोटें। तदनन्तर १५ तोले शुद्ध सूतः स्यात्रिपुराारणा विराचतः शातारत्य ताम्रकी कटोरीके भीतर इस कल्कका लेप करदें स्मृतो और उसे एक हांडीमें उलटा करके रखदें तथा अजाजी शकरया युतः प्रशमयेदेकाहिकादि उसके ( कटोरीके ) ऊपर मिट्टीका प्याला ढककर ज्वरम् ॥ दोनोंकी सन्धिको गुड़ चूने आदिसे बन्द कर दें ताम्र भस्म, सुहागेकी खील, शुद्ध गन्धक, | और हाण्डीके शेष भागको बालसे भर कर उसे शुद्ध बछनाग, शुद्ध तूतिया, शुद्ध पारद, खपरिया चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे १ दिन तीब्राग्नि जलावें । और शुद्ध हरताल समान भाग लेकर प्रथम पारे । तत्पश्चात् उसके स्वांगशीतल होने पर औषधयुक्त गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ताम्रकी कटोरीको निकाल कर पीस लें। औषधे मिलाकर करेलेके रसमें घोटकर (१-१ रत्तीको ) गोलियां बना लें। मात्रा-आधी रत्ती। ___ इसे जीरके चूर्ण और खांडके साथ सेवन इसमें काली मिचौंका चूर्ण मिलाकर पानमें रखकर खानेसे दाहपूर्व और शीतपूर्व समस्त विषम करनेसे एकाहिक आदि ज्वर नष्ट होते हैं। ज्वर नष्ट होते हैं। " (७६४१) शीतारिरसः (४) पथ्य-शाली चावलोंका भात और दूध । (मा. प्र. म. खं. २; भै. र. ; र. चं. ; रसे. सा. सं. (७६४२) शीतारिरसः (५) (स्पर्शवातारिरसः) र. का. धे. । चरा.) (२. चं. । वातरोगा. ; र. प्र. सु. । अ. ८; तालकं दरदोजूतः पारदो गन्धकः शिला । र. र. स.। उ. अ. २१, र. रा. सु.; क्रमाद्भागार्द्धरहितं कारवेल्ल्यम्बुमर्दितम् ॥ वृ. नि. र. ; धन्व. ; रस. सा. सं. । इदमस्य प्रमाणेन ताम्रपत्रीं प्रलेपयेत् । अधोमुखी दृढे भाण्डे तां निरुध्याथ पूरयेत् ॥ वातव्या.) चुल्ल्यां वालुकया घसमेकं प्रज्वाळयेद् दृढम् ।। रसेन गन्ध द्विगुणं प्रगृह्य शीते सये गुञ्जानॊ नागवल्लीदले स्थितः ॥ पुनर्नवामिस्वरसैविभाव्य । भक्षितो मरिचैः साढ़े समस्तान् विषमज्वरान् । पक्वार्कपत्रस्य रसेन पश्चादाहशीतादिकं हन्यात् पथ्यं शाल्योदनं पयः ॥ द्विपाचयेदष्टगुणेन यत्नात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४१ - - - - रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः रसार्धभागं च विषं च दत्वा तद्वालुकापूर्णघटे विदध्याच्छनैः पचेद तावदुपविपाचयेदग्निजले क्षणं तत् । यमुप्य । शीतारिसमस्य रसायनस्य ब्रीहिर्विवर्णत्वमुपैति यावत्ततस्तु शीतं विदधीत् ॥ वल्लं च सार्ध मरिचाकेण ।। | सिद्धं तच्च समाददीत तुलसीतोयेन गुमोन्मितं । मरीचचूर्णेन घृतप्लुतेन पश्चात् क्षौद्रकणासिताज्यपयसा कृत्वानुपानं गदी सेवेत मासं च घृतं च पथ्यम् ॥ | भुनीताथ पयोऽन्नमुद्गसहितं साज्यश्च इन्यान्नृणां शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध गंधक २ भाग तापं कालरसेन सञ्चितमयं शीतारि नामा रसः॥ लेकर दोनोंकी कज्जली बनावें । तदनन्तर उसे पेठेके क्षारके पानी, चूनेके पानी और तिलपुनर्नवा (बिसखपरा) और चीतेके स्वरसकी १-१ क्षारके पानी में दोलायन्त्र विधिसे पृथक् पृथक् भावना दें और फिर उसमें २४ भाग आकके पके पकाई हुई हरताल १ भोग और शुद्ध पारद १ भाग हुवे पत्तोंका रस मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। लेकर दोनोंको एकत्र खरेल करके ३ दिन करेलेके जब रस सूख जाय तो १२ भाग शुद्ध बछनाग रसमें घोटें । तदनन्तर उसे मजबूत शरावमें रखकर मिलाकर थोड़ासा चीतेका रस मिलाकर पुनः पकावें शुद्ध ताम्रकी कटोरी से ढकदें और सन्धिको चूना, और सूख जाने पर खरल करके रक्खें । हर्रका चूर्ण, गुड़, सेंधानमकका चूर्ण और खिड़िया मात्रा-२-३ रत्ती । मिट्टीके मिश्रणसे बन्द कर दें । तथा उसके ऊपर इसे काली मिचौंके चूर्ण और अदरकके रसके । कपडामा करके सुखा ल और उस बालकासाथ अथवा मिचोंके चूर्ण और घीके साथ सेवन यन्त्रमें रखकर पकावें । जब रेतके ऊपर डाले हुवे धान फूटने लगें तो अग्नि देनी बन्द कर दें और करनेसे वातव्याधि नष्ट होती है। फिर हारडीके स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे (७६४३) शीतारिरसः (६) औषधको निकालकर पीस लें। ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा.) मात्रा-१ रत्ती । कूष्माण्डक्षारचूर्णोदकतिलजे पृथक् पाचितं इसे तुलसीपत्रके रसके साथ खिलाने के | पश्चात् शहद, पोपलका चूर्ण, मिश्री, घी, और दूध तुल्यं सूतेन पिष्ट्वा त्रिदिवसमसकृत् कारवेल एकत्र मिलाकर पिलाना चाहिये। द्रवेण । क्षिप्त्वा तत्सर्परान्तर्दिनपतिपिहितं रन्ध्रमध्य पथ्य-दूध, भात, मूंगका यूष, घी । इसके सेवनसे पुराना ज्वर नष्ट होता है। नीरन्धं चूर्णपथ्यागुडलवणखटीमृद्भिरप्यन्त शीतारिरसः (७) रालम् ॥ शीतज्वरारिरसः (१) देखिये। शुद्धताल न्धयेत्तं For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि (७६४४) शुक्तिक्षारादियोगः (१) प्रत्येकापलं दत्त्वा गुग्गुलोः कार्षिकन्तथा । (यो. र. ; व. से. ; वृ. नि. र. । उदररोगा.; रसाभ्रलौहगन्धानां प्रत्येकञ्च पलं क्षिपेत् ॥ __ यो. त. । त. ५३ ) सर्वमेकीकृतं वैद्यो दण्डयन्त्रैविमर्दयेत् । पातव्यो युक्तितः क्षारः क्षीरेणोदधिशुक्तिनः। घृतभाण्डे तु संस्थाप्य मासमेकन्तु खादयेत् ॥ पयसा वा प्रयोक्तव्याः पिप्पल्यः प्लीहशान्तये।। दाडिमस्वरसेनैव छागीदुग्धे वाम्भसा। समुद्रकी सीपका क्षार या पीपल, दूधके साथ | चन्द्रनाथेन गदिता वटिका शुक्रमातृका ॥ सेवन करनेसे प्लीहावृद्धि नष्ट होती है । विशमेहान्निहन्त्याशु वातपित्तसमुद्भवान् । (७६४५) शुक्तिक्षारादियोगः (२) द्वन्द्वजान्सन्निपातोत्थान्मूत्रकृच्छ्राश्मरीगदान् ॥ (यो. र. । उदरा.) बलवणोंनिजननी ज्वरदोषनिषूदनी ॥ सामुद्रशुक्तिकाक्षारों यवक्षारः ससैन्धवः । ___गोखरु, त्रिफला, तेजपात, इलायची, रसौत, गोदध्ना सम्प्रयुज्येत सर्वोदर विनाशनः ।। धनिया, चव, जीरा, तालीस पत्र, सुहागेकी खील समुद्रकी सीपका क्षार, जवाखार और सेंधा- । और अनारदाना २॥२॥ तोले; शुद्ध गूगल १। नमक समान भाग लेकर एकत्र मिला। तोला; शुद्ध पारद, अभ्रकभस्म, लोहभस्म और शुद्ध इसे गायकी दहीके साथ सेवन करनेसे गन्धक ५-५ तोले लेकर प्रथम पारे गन्धककी समस्त प्रकारके उदररोग नष्ट होत हैं। | कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका ( मात्रा-१ माशा । ) चूर्ण मिलाकर सबको खरल करके सुरक्षित रक्खें । (७६४६) शुक्तिशोधनम् ( या पानीसे घोट कर गोलियां बना लें । ) ( आ. वे. प्र. ! अ. १०) ___इन्हें अनारके स्वरस, बकरीके दूध या पानीके शुक्तिस्तु शिशिरा पित्तरक्तज्वरविनाशिनी। साथ सेवन करनेसे २० प्रकारके प्रमेह, मूत्रकृच्छ , शोधनं शङ्खवत्तस्य शनिः प्रोक्ता कपर्दवत ॥ अश्मरि और ज्वरका नाश होता तथा बल वर्ण शुक्ति (सीप ) शीतल तथा रक्तपित्त और और अग्नि की वृद्धि होती है। ज्वरनाशक है। (मात्रा-2-२ माशा ।) शुक्तिका शोधन शंखके समान और मारण (७६४८) शुक्रस्तम्भकरा वटका: कौड़ीके समान होता है। (र. प्र. सु. । अ. १३ ) "(७६४७) शुक्रमातृकावटिका जातीफलार्ककरहाटलवङ्गशुण्ठी ( र. र. । प्रमेहा., भै. र. । प्रमेहा.) कङ्कोलकेशरकणाहरिचन्दनानि । गोक्षरबीजं त्रिफलापत्रमेला रसाधनम् । एतैः समानमहिफेनमनेन चाभ्रधन्याकञ्चविका जीरं तालीशे टङ्कदाडिौ ॥ श्वेतं निधाय मधुना वटकान् विदध्यात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , रसप्रकरणम् ] पश्चमो भागः मासमयोन्मितममुं निशि भक्षयित्वा पुनः पकावें । जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें मृष्टं पयस्तदनु माहिषमाशु पीत्वा । निम्न लिखित प्रक्षेप मिलाकर सुरक्षित रखें । कुर्वन्तु कामिकजनाः प्रतिरुद्धपाता प्रक्षेप-सेठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, श्वेतांसि तानि चकितानि कलावतीनाम् ॥ इलायची, तेजपात, केसर, पीपलामूल, भगर, जायफल, आककी जड़की छाल, अकरकरा, जावत्री, जायफल, चोरक, पाषाण भेद; ताम्र भस्म, लौंग, सोंठ, कंकोल, केसर, पीपल, और सफेद बङ्ग भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, अभ्रक भस्म, मलियागिरी चन्दन, १-१ भाग तथा अफीम मुण्ड लोह भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म और कान्त लोह सबके बराबर और इन सबके बराबर सफेद अभ्रक भस्म ५-५ तोले । भस्म लेकर सबको शहदमें घोट कर उड़दके यह लेह आमवात नाशक, बल वर्ण-वर्द्धक, समोन गोलियां बना लें। आयु बर्द्धक और बलि पलित नाशक है। इसे रातको खाकर ऊपरसे मिश्री मिला: (मात्रा-६ माशे।) भैसका दूध पीनेसे स्त्री समागमके समय अत्यन्त स्तम्भन होता है। (७६५०) शुल्वतालेश्वरः मात्रा-२ गोली। ( र. रा. सु. । श्वासा.) (७६४९) शुण्ठीखण्डः । शुद्धं तानं दशपलं चतुर्थीशं तु पारदम् । ( वृ. नि. र. । आमवाता.) जम्बीरनीरैः सम्मथै यावदेकर मेलितम् ।। नागरस्य तुलामेकां घृतस्य पलविंशतिः। शुद्धतालपलं पञ्च किश्चित् देयन्तु गन्धकम् । क्षीरद्रोण्यर्धके पक्त्वा खण्डम्या शतं क्षिपेत् ॥ मृद्भाण्डे सन्निरुध्यैव अग्निं सञ्चालयेदधः ।। व्योपं त्रिजातकं चैव केसरं पिप्पली जटा। दशगामन्तु मन्दाग्निं पश्चादुत्तारयेत्तु तम् । जोङ्गक जातिपत्रीकं जातीफलकचोरकम् ॥ स्वाङ्गशीतलसङ्ग्राह्यं देयं गुञ्जाद्वयं मृतम् ।। अश्मभेदस्ताम्रभस्म वङ्गमस्म तथैव च। ताम्बृलीदलसंयुक्तं कासे श्वासे ज्वरेषु च । स्वर्णमाक्षिकमभ्रं च तथा लोहत्रय क्षिपेत् ॥ पीनसे स्वरभेदे च भण्डले रक्तसम्भये ।। मन्दानलविपक्वं तु लेहतं साधु साधयेत् । शूलं चाष्टविध हन्ति कफक्षयसमुद्भवम् । बल्यं वयं तथायुष्यं वलीपलितनाशनम् ।। कृमिपाण्ड्वामयं प्लीहं ज्वरेषु विपमेषु च ॥ आमवात प्रशमनं सौभाग्यकरमुत्तमम् ॥ एकाहिकं द्वाहिकश्च व्याहिकं च चतुर्थकम् । ६। सेर सोंठके चूर्णको २॥ सेर धीमें भूनें। शुल्वतालेश्वरो होष रसः परमदुर्लभः ॥ और उसके भली भांति भुन जाने पर उसमें १६ ५० तोले शुद्ध ताम्र और १२॥ तोले शुद्ध सेर दूध तथा ३ सेर १० तोले खांड मिलाकर पारदको एकत्र मिलाकर जम्बीरी नीबूका रस For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ भारत-भेषज्य-रत्नाकरः [शकारादि - डाल डाल कर इतना खरल करें कि दोनों मिल लगा दें। इसके पश्चात् पुटके स्वांग शीतल होने कर एक जीव हो जाएं। तदनन्तर उसमें २५, पर उसमेंसे औषधको निकाल कर उसमें उसका तोले शुद्ध हरताल और ११ तोला शुद्ध गन्धक सोलहवां भाग शुद् बछनागका चूर्ण मिला कर मिलाकर पुनः खरल करें और सबके मिल जानेपर | धतूरे, अरण्डमूल, चित्रकमूल और त्रिकुटेके काथकी उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके बालुकायन्त्रमें १-१ भावना दे कर सुखा कर बारीक चूर्ण १० पहर मन्दाग्नि पर पका और स्वांगशीतल | करके रक्खें । होने पर निकालकर खरल करके सुरक्षित रखें। मात्रा-२ रत्ती । मात्रा-२ रत्ती । इसके सेवनसे वातज और कफज पक्तिशूल ___ इसे पानमें रख कर खाना चाहिये। शीघ्र ही शान्त हो जाता है । इसके सेवनसे कास, श्वास, ज्वर, पीनस, | ( अनुपान-शहद और घीके साथ मिला स्वरभेद, रक्तदोषज मण्डल, आठ प्रकारका शूल. | कर औषध खानेके पश्चात सेंधा नमक, जीरे और कृमि रोग, पाण्डु, प्लीहा तथा एकाहिक, द्वयाहिक, होंगका चूर्ण शहद और धीमें मिला कर चाटना ध्याहिक और चातुर्थिक विषमञ्चर नष्ट होता है। चाहिये ।) (७६५१) शुल्वसुन्दररसः (७६५२) शूलकुठाररसः (र. का. धे । शूला.) (वृ. नि. र. । शूला.) समं ताम्रदलं पिष्ट्वा रसेन्द्रेण द्विगन्धकम् । टङ्कणं पारदं गन्धं त्रिफलान्योषतालकम् । पृद्वस्त्रेण समावेष्टय पटुयन्त्रे पुटं ददेत् ॥ विषं तानं च जेपालं भृङ्गस्वरसमर्दितम् ।। सञ्चूर्ण्य हेमवातारिचित्रकव्योषजद्रवैः। । द्विगुञ्जमात्रा वटिका मरिचेनाईकेण वा । षोडशांशं विषं दत्वा चूर्णयित्वाऽस्य वल्लम् ॥ सर्वशूलकुठारोयं विष्णुचक्रमिवासुरान् ॥ मागुक्तैरनुपानेश्च सयो वातसमुद्भवम् । सुहागेकी खील, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कफजं पक्तिशूलं च हन्याच्छ्रीगिरीशाज्ञया ॥ हर, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध शुद्ध ताम्रके कण्टक वेधी पत्र और पारद हरताल, शुद्ध बछनाग, ताम्र भस्म और शुद्ध १-१ भाग तथा गन्धक २ भाग ले कर प्रथम जमाल गोटा समान भाग ले कर प्रथम पारे ताम्र और पारदको एकत्र खरल करें और जब गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ताम्र पारदमें मिल जाय तो उसमें गन्धक मिला- औषधांका चूर्ण मिला कर भगरेके रसमें घोट कर कर घोटें और फिर उसका गोला बना कर उसे | २-२ रत्तोकी गोलियां बना लें। कपड़ेमें लपेट कर उस पर मिट्टीका लेप कर दें। इसे मरिचके चूर्ण या अदरकके रसके साथ तदनन्तर उसे सुखा कर लवण यन्त्रमें रखकर पुट सेवन करनेसे समस्त प्रकारके शूल नष्ट होते हैं। For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः शूलकेसरी रसः सम्पुटं चूर्णयेच्लक्ष्णं पर्णखण्डे द्विगुञ्जकम् । ( र. र. स. । उ. अ. १८; र. र. । शूला. ) भक्षयेत्सर्वशूलातों हि शुण्ठी च जीरकम् ॥ " शूलगजकेसरी रस" सं. ७६५४ देखिये । वचामरिच चूर्ण कर्षमुष्णजलैः पिबेत् । (७६५३) शूलगजकेसरीगुटिका असाध्यं नाशयेच्छूलं श्रीशूलगजकेशरी ॥* । शुद्ध पारद १ भाग, और शुद्ध गन्धक २ ( वै. र. । शूला.) भाग ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसे पथ्याटङ्कणविश्वहिङ्गु मारचे वाहविड गन्धक ३ भाग शुद्ध ताम्रके सम्पुट में बन्द करके उसे तुल्यं सैन्धवसंयुतं तु कुचिलं सर्वैः समं सम्मतम्। मिट्टी के पात्रमें, ऊपर नीचे सेंधा नमकका चूर्ण शूलाध्मानविबन्धगुल्मकसनश्लेष्मामवातापहा । भरकर बन्द करें और उस पर कपरमिट्टी करके तूर्णाल्पाग्न्युदरारुचिज्वरहरी शूलद्विपघ्नी गुटी॥ गजपुट में पकावें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल हरे, सुहागेकी खील, सेठ, हींग, काली होने पर उसमेंसे ताम्रके सम्पुटको निकाल कर मिर्च, चीतामूल, बिड नमक, शुद्ध गन्धक और पीस लें । सेंधा नमक १-१ भाग तथा शुद्ध कुचला सबके मात्रा-२ रत्ती । बराबर ले कर सबको (पानीके साथ) खरल करके इसे पानमें रखकर खाना और ऊपरसे हींग, (मूंगके बराबर) गोलियां बना लें। सेठ, जीरा, बच और काली मिर्चका ११ तोला इनके सेवनसे शूल, आध्मान, विबन्ध, गुल्म, (व्यव. मा. १॥ माशा ) चूर्ण मन्दोग जलसे कास, श्लेष्मा, आमवात, अग्निमांद्य, उदररोग, पीना चाहिये । अरुचि और ज्वरका नाश होता है । इसके सेवनसे असाध्य शूल भी नष्ट हो जाता है। (७६५४) शूलगजकेसरीरसः (१) ___ (७६५५) शूलगजकेसरीरसः (२) (श्रीशूलगजकेशरि ) (यो. र. । शूला.; यो. त. । त. ४३ ; वृ. यो. ( रसे. सा. सं. ; र. चं.; र. रा. सु. ; भै. र. ; त.। त. ९४.) । र. का. धे. । शूला , र. प्र. सु. । अ. ८; रसविषगन्धकपर्दक्षारेण सिन्धुपिप्पलीविश्वः । रसे. चि. म. । अ. ९ ; वृ. यो. त.। अहिवल्ल्यम्बुविघृष्टः शूलेभहरिदिगुञोऽयम् ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक, शुद्धमूतं द्विधा गन्धं यामै मर्दयेदहदम ।। कोड़ी भस्म, जवाखार, सेंधा नमक, पीपल और द्वयोस्तुल्ये शुद्धताम्रसम्पुटे सन्निवेशयेत् ॥ *इसमें और चित्रविभाण्डक रसमें बहुत ऊवाधो लवणं दवा मृद्भाण्डे स्थापयेद्भिषक। थोड़ा अन्तर है। ततो गजपुटं दद्यात्स्वांगशीतं समुद्धरेत् ॥ १ पाठान्तरके अनुसार गन्धक १ भाग है। १४ For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि - - सोंठ समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी | करञ्जकी गिरी और जीरा ५-५ तोले ले कर कुजली बना और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका | सबको एकत्र खरल करें। चूर्ण मिला कर पानके रसमें घोटकर २-२ रत्तीकी मात्रा-११ तोला । गोलियां बना लें। .इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे समस्त ___ इनके सेवनसे शल नष्ट होता है। उपद्रो युक्त शूल नष्ट होता है । - (७६५६) शूलगजकेसरीरसः (३). ( व्यवहारिक मात्रा-२ माशे ।) (र. का. धे. । शूला.) | (७६५८) शूलगजकेसरीरसः (५) द्विक्षारं पश्चलवणं त्र्यूषणं रसगन्धको । ( र. र. स. । अ. १८) पृथक् समं सर्वतुल्यं दन्तीबोजानि पेषयेत् ॥ पलप्रमाणसूतेन बलिना द्विगुणेन च । बोजपूररसैः सप्तभावनान्ते रसो भवेत् । शुद्धत्रिपलतालेन कृत्वा कज्जलिकां व्यहम् ॥ पर्णपत्रोदकाभ्यां तु स्याच्छूलगजकेसरी ॥ | पलमानेन कर्तव्यं शुद्धताम्रस्य सम्पुटम् । ___ जवाखार, सज्जीखार, पांचो नमक, सोंठ, पिधानपात्रसंग्रस्ततलपात्रास्यवत्खलु ॥ काली मिर्च, पीपल, शुद्ध पारा और शुद्ध गंधक | कजली सम्पुटस्यान्तनिदध्यात्तदनन्तरम् । १-१ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा सबके बराबर अधस्तादुपरिष्टाच्च सम्पुटस्याऽऽक्षिपेत्खलु ॥ ले कर प्रथम पारे गंधकको कज्जली बनावें और आकण्ठं पटुचूर्णे तु निधाय च निरुध्य च । फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर विशोष्य गजसंज्ञेन पुटेन पुटयेत्ततः ॥ बिजोरेके रसको सात भावना दें और (१-१ | पटचर्ण विधायाथ सिन्धुमध्येविनिक्षिपेत् । रत्तीको ) गोलियां बना लें। पथ्याकरसोपेतो वल्लमानेन सेवितः ॥ इनमेंसे १ गोली पानके रसमें खानेसे शूल | रसो निःशेषशूलघ्नः स्थाच्छूलगजकेसरी॥ नष्ट होता है। ... ५ तोले शुद्ध पारद, १० तोले शुद्ध गंधक (७६५७) शूलगजकेसरीरसः (४) और १५ तोले शुद्ध हरतालको कज्जली बनावें और (र. चं.। शला.) उसे ५ तोले शुद्ध ताम्रकी डिबियामें बन्द कर दें। मृततानं पलैकं तु चिनासारं पलाष्टकम् । यह डिबिया ऐसी होनी चाहिये कि जिसका ऊपर हि हरीतकी व्योपं करअवीजजीरकम् ॥ वाला ढकना नीचेके भाग पर अन्छी तरह जम प्रत्येकं पलमात्र तु चूर्ण कोष्णोदके पिबेत् । | जाए । तदनन्तर उस पर ३-४ कपरौटी करके करेकं शूलशान्त्यर्थं सर्वोपद्रवसंयुतम् ॥ सुखा लें और फिर उसे एक हाण्डीमें सेंधा नमकके ताम्र भस्म ५ तोले, इमलीका क्षारे ४० | चूर्णके बीचमें रखकर हांडीका मुख शरावसे ढककर तोले; तथा भुनी हुई हींग, हर्र, सांठ, मिर्च, पीपल, । उस पर ३-४ कपड़मिट्टी कर दें। नमक हाण्डीमें For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] गले तक भरा हुवा होना चाहिये और औधवाला सम्पुट उसमें बीचोंबीच दबाना चाहिये । इस हाण्डीको गजपुटकी अग्नि दे कर, स्वांगशीतल होने पर निकाल लें और उसमेंसे ताम्रकी डिबियाको निकाल कर पीस लें । इसमेंसे ३ रत्ती चूर्ण हर्र के चूर्ण और अदरकके रसके साथ खानेसे समस्त प्रकारके शूल नष्ट होते हैं। ( व्यवहारिक मात्रा --- १ - १ ॥ रत्ती | ) (७६५९) शूलदावानलः ( वै. र. ; र. का. घे. ; यो. र.; बृ. नि. रं. ; र. चं. । शूला. ; यो त । त. ४४ ) शुद्धं सूतं विषं गन्धं प्रत्येकं पलमात्रकम् । मरिचं पिप्पली शुण्ठी हिङ्गु चैव पलद्वयम || पलाष्टं पञ्चवर्ण चिञ्चाक्षारं पलाष्टकम् । सप्तवारं दग्धशर्ङ्गं जम्बीराम्लेन सेचयेत् ॥ पलाष्टकं च संयोज्यं तत्सर्वं निम्बुकद्रवैः । दिनं मी कोलमात्रं भक्षयेत्सर्वशूलनुत् || शूलदावानलो नाम्ना शूलरोगनिकृन्तनः ॥ शुद्ध पारा, बचनाग और गन्धक ५-५ तोले; काली मिर्च, सोंठ, पीपल, और मुँनी हुई हींग १०-१० तोले तथा पांचो नमक (मिलित) और इमलीका क्षार ४०-४० तोले एवं तपा तपा कर ७ बार जम्बीरीके रसमें बुझाया हुवा शंख ४० तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको १ दिन नीबू के रसमें घोट कर जंगली बेर के समान गोलियां बना लें । १४७ इनके सेवन से समस्त प्रकारके शूल नष्ट होते हैं 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुनाशिनी वटी शृलहरणयोगः प्र. सं. ७६६४ देखिये । (शूलभञ्जीरसः) प्र. सं. ४४१४ "पीडाभन्ञ्जीरस:" देखिये | (७६६०) शूलराजलोहम् ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; धन्व. । शूला. ) कर्नैकं कान्तलौहस्य शुद्धाभ्रस्य पलन्तथा । सितायाश्च पञ्चैकं मधुसर्पिस्तथैव च ॥ सर्वमेकीकृतं पात्रे लौहदण्डेन मर्दयेत् । feng त्रिफला मुतं विडङ्गं चव्यचित्रकम् ॥ प्रत्येकं तोलकं मानं चूर्णितं तत्र दापयेत् । भक्षयेत्प्रातरुत्थाय शिशिराम्ब्वनुपानतः ॥ सर्वदोषभ शूलं कुक्षिशूलञ्च यद्भवेत् । हृच्छूलं कुपार्श्वशूलञ्च अम्लपित्तञ्च नाशयेत् ॥ अशसि ग्रहणदोषं प्रमेहांश्च विसूचिकाम् । शूलराजमिदं लौहं हरेण परिनिर्मितम् ।। कान्त लोह भस्म १ । तोला, अभ्रक भस्म ५ तोले, मिश्री ५ तोले, शहद ५ तोले और धी ५ तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर लोहे के खरल में घोटें और फिर उसमें ७ || - ७॥ माशे सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, बायबिडंग, चत्र और चीता - इनका चूर्ण मिला कर घोटकर रक्खें । For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ भारत-भषज्य-रत्नाकरः [शकारादि इसके सेवनसे सर्व दोषज कुक्षिशूल, हृदय- शुद्ध पारद, गन्धक और लोह भस्म २|शूल, पार्श्व शूल, अम्लपित्त, अर्श, ग्रहणी दोष, २॥ तोले तथा हरं, बहेड़ा, आमला, भुनी हुई प्रमेह और विसूचिकाका नाश होता है । हींग, ताम्र भस्म, सांठ, मिर्च, पीपल, कचूर, सुहा(मात्रा-६ रत्ती।) गेकी खील, तेजपात, दालचीनी, इलायची, तालीस पत्र, जायफल, लौंग, अजवायन, जीरा और धनिया अनुपान-- शीतल जल । ७)-७|| माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये। | कज्जली बना और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका (७६६१) शूलवज्रिणी वटिका. | चूर्ण मिला कर बकरीके दूधमें घोट कर ११-१। माशेकी गोलियां बना लें। (र. च. ; र. रा. सु. ; रसे. सा. सं. ; भै. र. ; इनके सेवनसे आठ प्रकारके शूल, प्लीहा, __धन्व. । शूला.) ) गुल्म, उदर रोग, अग्लपित्त, आमवात, कामला, रसगन्धकलौहानां पलार्धन समन्वितम् ।। पाण्डु, शोथ, गलग्रह, वृद्धि रोग, स्लीपद, भगन्दर, त्रिफला रामठं शुल्ब त्रिकटु शठिटङ्कणम् ॥ । कास, श्वास, अण, कुष्ठ, कृमि, हिचकी, अरुचि, पत्रं त्वगेलातालीसजातीफललवङ्गकम् । अर्श, ग्रहणी रोग, समस्त प्रकारके अतिसार, यवानी जीरकं धान्यं प्रत्येकं तोलकं मतम् ॥ विसचिका, कण्डू, अग्निमांद्य, पिपासा, पीनस और माङ्गका वटिका कार्या छागीदुग्धेन वा पुनः। अन्य बहुतसे वातज, पित्तज तथा कफज रोग नष्ट एकैका भक्षिता चेयं वटिका शूलबज्रिणी ॥ होते तथा बुद्धि, कान्ति और आयुकी वृद्धि शुलमष्टविधं हन्ति प्लीहगुल्मोदरं तथा। होती है। अम्लपित्तामवातं च पाण्डुत्वं कामलां तथा ॥ शोथं गलग्रहं वृद्धिं श्लीपदं च भगन्दरम् । . (७६६२) शूलसिंहरसः कासं श्वासं व्रणं कुष्ठं कृमिहिकामरोचकम् ॥ (र. चं. । शूला. ; र. र. । शूला.) अर्कासि ग्रहणी दुष्टां सर्वातिसारनाशनम् । विष कर्ष वचा कर्ष त्रिकटु त्रिफला च पद । विधूची कण्डं मन्दाग्निं पिपासां पीनसं गदम् ॥ भागी मुस्ताविडङ्गानां प्रतिकर्ष च चूर्णपेत् ॥ एक द्वन्द्वजं वाऽपि दोषत्रयसमुद्भवम् । गुडेन सर्वतुल्येन गुटिका चणमानिका । बुद्धिकान्तिपदा नित्यं सेविता च चिरायुषी ॥ शूलसिंहप्रयोगोऽयं कफरोगहरो भवेत् ॥ गुरुणा चन्द्रनाथेन मह्यमेषाप्रकीर्तिता। एरण्डतैलशुण्ठीभ्यां हिङ्गसौवर्चलान्वितः । संसारलोकरक्षार्थ विचिन्त्य परिनिर्मिता ॥ उष्णोदके पिबेच्चानु रसो वाऽऽनन्दभैरवः ॥ १ किसी किसी ग्रन्थमें "शुल्व" के स्था-पर शुद्ध बछनाग १ तोला, बच १ तोला, एवं "शुण्ठी" पाठ है। सेठ, मिर्च, पीपल, हरं, बहेड़ा तथा आमला For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः १४९ - - २॥२॥ तोले और भरंगी, नागरमोथा तथा लघुकोलप्रमाणान्तु शस्यते प्रातरेव हि । बायबिडंग ११-११ तोला ले कर सबको एकत्र एकका वटिका ग्राह्या गुल्मशूलविनाशिनी ।। मिला कर घोटें और फिर उसमें सबके बराबर ग्रहण्यामतिसारे च साजीणे मन्दपावके । गुड़ मिलाकर चनेके बराबर गोलियां बना लें। योजयेदुष्णपयसा सुखमाप्नोति निश्चितः।। इनके सेवनसे कफज शूल नष्ट होता है। सुवर्णश्च भवेदेहं सदोत्साहयुतं नृणाम् ।। अनुपान-शुण्ठी चूर्णयुक्त, अरण्डीका तेल, हर, सांठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध कुचला, भुनी हींग और काला नमक अथवा उष्ण जल। हींग, सेंधा नमक और शुद्ध गंधक समान भाग इसी अनुपानके साथ " आनन्द भैरव " ले कर सबको एकत्र (पानीसे) खरल करके छोटे रस देनेसे भी शूल नष्ट होता है । बेरके समान गोलियां बना लें । (७६६३) शूलहरक्षारः इनके सेवनसे गुल्म, शूल, ग्रहणी रोग, अति( र. र. स. । उ. अ. १८) सार, अजीर्ण और अग्निमांद्यका नाश होता है तथा वन्ध्यालाङ्गलिकामूलं शतु द्विगुणं तयोः। । देह सुवर्ण सदृश शुद्ध हो जाती और उत्साह त्रयाणां भावयेच्चूर्ण त्र्यहं जम्बीरजद्वैः ॥ : बढ़ता है। रुध्याद् गजपुटे पच्यात्तत्क्षारं मरिचैतैः।। कर्षमात्रं पिबेच्छूली तत्क्षणात्सुखमाप्नुयात् ॥ ___अनुपान-उमा दूध । ___ बांझ ककोड़े और लांगली (कलियारी) की इन्हें प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । जड़ १-१ भाग तथा शंख ४ भाग ले कर चूर्ण शूलहररसः (महा) बनावें और उसे ३ दिन तक जम्बीरीके रसमें खरल करके शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटमें पकावें । " ( महेश्वर रसः ) इसमें काली मिचका च मिला कर पीके (वृ. नि. र. । शूला.) साथ सेवन करनेसे शूल तत्काल नष्ट हो । प्र. सं. ५५८७ महेश्वर रस (१) देखिये । जाता है। (७६६५) शूलान्तकरसः मात्रा-१। तोला। ( व्यवहा. मा.--१ माशा ।) (र. र. स. । उ. अ. १८ ; र. चं. । शूला.) (७६६४)शूलहरणयोगः (शुलनाशिनीवटी) भस्म सूतस्य खस्यापि पलमेकं पृथक् पृथक । ( भै. र. ; धन्य. ; र. चं. : र. रा. सु. । शूला.: ताम्रभस्म पले द्वे तु गन्धकस्य पलत्रयम् ।। रसे. सा. सं. । शृला. ; वै. २. । शूला. हरितालस्य कर्भाशं विमलं हेममाक्षिकम् । ___. चि. म. । स्त. ९) पलार्थ हलिनीकन्दं नागवौ पलार्धको । हरीतकी त्रिकटुकं कुचिला हिङ्ग सैन्धवम् । चतुष्पलं तु त्रिवृतमेतत्सर्व विचूर्णयेत् । गन्धकञ्च समं सर्वं वटीं कुर्यात्सुखावहाम् ॥ भूधात्रीस्वरसेनैव भावयेत्सप्तधा भिषक् ॥ For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ शकारादि तथा दन्तीद्रवैवल्लं दद्यादाकवारिणा। निहन्ति परिणामोत्थमम्लपित्तं वमिं तथा । तेन कोष्ठे विशुद्ध तु दधिभक्तं तु भोजयेत् ॥ | अन्नद्रवभवं शूलं सनिपातसमुद्भवम् ॥ सर्वाणि शूलानि हरेद्रसः शूलान्तको मतः ॥ सर्वशूलानिहन्त्याशु शुष्कदावनलो यथा ॥ 'पारद भस्म और अभ्रक भस्म ५-५ तोले सेठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, ताम्र भस्म १० तोले, शुद्ध गंधक १५ तोले, हरि- नागरमोथा, निसोत और चीतामूल १-१ तोला, ताल भस्म ( या शुद्र हरताल ) १. तोला, रौप्य समान भाग पारद गंधककी कज्जली १ तोला तथा माक्षिक भस्म १। तोला, स्वर्ण माक्षिक भस्म श लोह भस्म, अभ्रक भस्म और बायबिडंग २-२ तोला, कलियारीकी जड़ २॥ तोले, सीसा भस्म तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर त्रिफलाके २॥ तोले, वंगभस्म २॥ तोले और निसोतका काथमें खरल करें और (३-३ रत्तीकी) गोलियां चूर्ण २० तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर बना लें । भुई आमलेके स्वरस और दन्तीमूलके काथकी इनमेंसे १-१ गोली प्रातःकाल कांजीके साथ सात सात भावना दे कर ३-३ रत्तीकी गोलियां सेवन करनेसे परिणाम शूल, अम्लपित्त, वमन, अन्न बना लें। द्रवशूल और सन्निपातज शूलादि समस्त प्रकारके इनमेंसे एक गोली अदरकके रसके साथ शूल नष्ट होते हैं। देनेसे विरेचन हो कर समस्त प्रकारके शूल नष्ट शूलारिरसः होते हैं। (र. का. धे, । शूला.) विरेचन होनेके पश्चात् दही भात खाना प्र. सं. ५५९२ महोदधिरसः (वृहत् ) चाहिये। (४) देखिये। (७६६६) शूलान्तको रसः (७६६७) शूलेभसिंहिनी गुटिका (भै. र. ; धन्व. । शृला. ; र. चि. म. । स्त. ११) (र. का. धे. । शूला.) त्र्यूषणत्रिफलामुस्तं त्रिवृता चित्रकं तथा । बलेः शुद्धस्य भागाध भागाध पारदस्य च । एकैकशः समो भागस्तदधै रसगन्धयोः ॥ विषस्य भागो विज्ञेयो मरिचस्य त्रयः स्मृताः ॥ लौहाभ्रकविडङ्गानां भागस्तु द्विगुणो भवेत् । भागेकं पिप्पलीशुण्ठयोः सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । एतत्सर्वं समादाय चूर्णयित्वा विचक्षणः ॥ भावयेच्ङ्गवेरस्य रसेनैव त्रिवासरम् ॥ त्रिफलायाः कषायेण गुडिकाः कारयेद्भिषक् । रुघुपत्ररसेनैव भावनात्रितयं तथा । तदेका भक्षयेत्मातर्भक्तवारि पिवेदनु ॥ पश्चात्संशोध्य चणकमात्रा कार्या वटी बुधैः ॥ For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमी भागः रसमकरणम् ] तप्तोदकेन दातव्या सर्वशूलनिवारिणी । अच्छीतनीरेण नेत्रस्रावं विनाशयेत् ॥ शूले सिंहिनी ख्याता न देया यस्यकस्यचित् शङ्करेण स्वयं प्रोक्ता गोपालपुरतः पुरा ॥ | शुद्ध गन्धक आधा भाग, शुद्ध पारद आधा भाग, शुद्ध बछनाग १ भाग, काली मिर्चका चूर्ण ३ भाग तथा पीपल और सांठका चूर्ण १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर अदरक तथा अरण्डके पत्तोंके रसकी ३-३ भावना दें और चनेके समान गोलियां बनाकर सुखा ले 1 इन्हें गरम पानी के साथ सेवन करनेसे शल नष्ट होता है और शीतल जल में घिसकर आंखमें लगाने से नेत्रस्राव बन्द होता है । १५१ हृच्छूलं पार्श्वशूलं च शिरःशुलं विशेषतः । स्वरामयं तथा कुष्ठं श्लेष्माणं वातशोणितम् ॥ । रक्तपित्तं च कासं च नाशयेन्नात्र संशयः । मुसलीघृतक्षौद्रैश्च वाजीकर णमुत्तमम् (७६६८) शृङ्गाराभ्रम् (१) (वृहद् ) ( न. मृ. । त. ५; रसे. सा. सं. ; रा. सु. 1 कासा. पारदं गन्धकं चैव टङ्कणं नागकेसरम् । कर्पूरं जातिकोषं च लवङ्गं तेजपत्रकम् ॥ एतेषां कर्षभागानि सुवर्ण तत्समं भवेत् । शुद्धकृष्णाभ्रभस्मापि चतुष्कं पिचुभागिकम् ॥ तालीश धनकुष्ठं च मांसी पुष्पवराङ्गकम् । एलाबीजं त्रिकटुकं त्रिफला गजपिप्पली ॥ एषां कर्षद्वयं चैव पिप्पलीरसभावितम् । अनुपानं प्रयोक्तव्यं चोचं क्षौद्रसमायुतम् ॥ नानारोगप्रशमनं विशेषात्कासरोगनुत् । रातिकं पैत्तिकं चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् ||| धन्व. ; र. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध पारद, गन्धक, सुहागेकी खील, नागकेसर, कपूर, जावत्री, लौंग और तेजपात १/- १ | तोला, स्वर्ण भस्म १ | तोला ; कृष्णाभ्रक भस्म ५ तोले; तालीस पत्र, नागरमोथा, कूठ, जटामांसी, धायके फूल, दालचीनी, इलायचीके बीज, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला और गजपीपल २- २॥ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको पीपलके काथके साथ खरल करके 1 ( १ - १ माशेकी ) गोलियां बना लें इनके सेवन से अनेक रोग और विशेषतः काका नाश होता है । यह रस हृच्छूल, पार्श्वशूल, शिरशूल, स्वरभेद, कुट, कफ, वातरक्त और रक्तपित्तको नष्ट करता है । अनुपान – दालचीनी का चूर्ण और शहद । यदि इसे मूसलीके चूर्ण, घृत और शहदके साथ सेवन किया जाय तो कामशक्ति बढ़ती है । (७६६९) शृङ्गाराभ्रम् (२) ( र. चं. । कासा. ; धन्व. ; र. र. । वाजीकरणा. ; रसे. सा. सं.; भै. र.; र. रा. सु. । कासा . ) शुद्धं कृष्णाभ्रचूर्ण द्विपलपरिमितं शाणमानं यदन्यत् । कर्पूरं जातिकोषं सजलमिभकणा For Private And Personal Use Only तेजपत्रं लवङ्गम् ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ भारत-भैषज्य-रलाकरः [शकारादि मांसीतालीसमोचं गजकुसुमगदं शृङ्गाराभ्रेण कामी युवतिजनशता धातकी चेति तुल्यम् । भोगयोगादतुष्टः पथ्या धात्री विभीतं त्रिकटुरथ पृथक् वज्य शाकाम्ळमादौ दिनकतिचिदथ वर्धशाणं दिशाणम् ॥ स्वेच्छया भोज्यमन्यत ॥ एलाजातीफलाख्यं क्षितितलविधिना शुद्धगंधस्य कोलम् । क्रीडामोदप्रमुग्धः सपदि शुभवया योगराज निषेव्य । कोलाधै पारदस्य प्रतिपदविहित पिष्टमेकत्र मिश्रम् ॥ गच्छेद्भूयोऽथ भूयः किमपरमधिकं भेषजं नास्त्यतोऽन्यत् ॥ पानीयेनैव कार्याः परिणतचणकस्विनतुल्याच क्टयः। कृष्णाभ्रक भस्म १० तोले तथा कपूर, प्रात: खागाच्चतस्रस्तदनु च कियत् जावित्री, सुगन्धबाला, गजपीपल, तेजपात, लौंग, शृङ्गवेरं सपर्णम् ॥ जटामांसी, तालीसपत्र, मोचरस, नागकेसर, कूठ और धायके फूल ३||-३।माशे एवं हर, आमला, पानीयं पीतमन्ते ध्रुवमपहरति बहेड़ा, सोंठ, मिर्च और पीपल १५-१५ रत्ती; क्षिप्रमेतान्विकारान् । इलायचीके बीज और जायफल ७॥-७॥ माशे; कोष्ठे दुष्टाग्निजातान् ज्वरमुदररुनो शुद्ध गन्धक ७॥ माशे और पारा ३।। माशे लेकर राजयक्ष्म क्षयं च ॥ प्रथम पारे गन्धककी कन्जली बनावें और फिर कास श्वासं सशोथं नयनपरिभवं उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर पानीके मेहमेदोविकारान् । साथ घोट कर उबले हुवे चनोंके बराबर गोलियां छदि शूलाम्लपित्तं गरगरलगदान बना लें। पीनसं प्लीहरोगान ॥ मात्रा-४ गोली। हन्यादामाशयोत्थान् कफपवनकृतान् पित्तरोगानशेषान् । इसे प्रातःकाल अद्रकके रस और पानके साथ बल्यो वृष्यश्च योगस्तरुणतरकरः खा कर ऊपरसे थोड़ा पानी पीना चाहिये । सर्वरोगेषु शस्तः ॥ इसके सेवनसे अग्निमांद्य, ज्वर, उदररोग, रापथ्यं मासैश्च यूपैः घृतपरिललितैः जयक्ष्मा, क्षय, कास, स्वास, शोथ, नेत्ररोग, प्रमेह, ___गव्यदुग्धैश्च भूयः। मेदो विकार, छर्दि, शूल, अम्लपित्त, विष, पीनस, भोज्यं मिष्टं यथेच्छ ललितललनया प्लीहा, आमाशयके रोग, कफ और वायुके रोग दीयमानं मुदा यत् ॥ और पित्त रोग नष्ट होते हैं। For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः १५३ यह रस बल्य, वृष्य, यौवनदाता और सर्व कर ( पानीके सा : करके ) १-१ रत्तीकी रोग नाशक है। इसे सेवन करने वाले कामी । गोलियां बना है । पुरुषोंकी लोसम्भोग-शक्ति शान्त नहीं होती। इनमेंसे १--' गोली प्रातःकाल तालमखानेके ___ इसके सेवन काल में घृतयुक्त पथ्याहार, रसके साथ खानेसे आठ प्रकारके ज्वर, कास, गोदुग्ध, मुद्गयूष और (मांसाहारियों के लिये) मांस श्वास, शोथ, दुस्साध्य प्लीहा, प्रमेह, अग्निमांद्य, रसके साथ खाना चाहिये। तथा इच्छानुसार शूल और संग्रहणीका नाश होता है । यह रस मिष्टान्न खाना चाहिये । कुछ दिनों तक शाक शोथको अवश्य नष्ट करता है। और अम्ल पदार्थीको छोड़कर इसी प्रकार पथ्य (७६७१) शोथभस्मलौहम् पालन करना चाहिये और फिर इच्छानुसार आहार ( भै. र. । शोथा.) करना चाहिये। त्रिकटु त्रिफला द्राक्षा पौष्करं सजलं शटी। (७६७०) शोथकालानलो रसः लौहं वचा लवश्व शृङ्गी त्वक्शतपुष्पिका ।। ( भै. र. । शोथा.) विभीतकं विडङ्गश्च धातकीपुष्पमेव च । चित्रं कुटजबोजश्च श्रेयसी सैन्धवं तथा। एतानि समभागानि क्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥ पिप्पली देवपुष्पश्च जातीफलसरङ्गणम् ॥ सर्वद्रव्यसमश्चात्र सुमृतं लौहकिकम् । लौहमभ्रं तथा गन्धं पारदे व मिश्रितम् । कुटजस्य रसेनापि म्रक्षयेत्परियत्नतः ॥ एतेषां कर्षमात्रेण वटी गुआमितां शुभाम् || वेष्टितं जम्बृपत्रेण पङ्केन परिलेपयेत् । भक्षयेत्यातरुत्थाय कोकिलाक्षरसेन तु । ततो लघुपुटे पक्त्वा स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ॥ ज्वरमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा ॥ प्रातःकाले शुचिर्भूत्वा सेवितं गुञ्जकद्वयम् । कासं श्वास तथा शोथं प्लीहानं हन्ति दुस्तरम् निहन्ति सर्व शोथं ग्रहणीश्च विशेषतः ॥ मेहं मन्दानलं शूलं सङ्ग्रहग्रहणीं तथा ॥ उदरेषु च सर्वेषु शोथेषु च विधानतः । अवश्यं नाशयेच्छोथं कर्दमं भास्करो यथा। विविधा व्याधयश्चान्ये सेविता यान्ति साध्यताम् शोथकालानलो नाम रोगानीकविनाशनः ॥ सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चीतामूल, इन्द्रजौ, गजपीपल, सेंधा नमक, द्राक्षा, पोखरमूल, सुगन्धबाला, कचूर, लोह भस्म, पीपल, लौंग, जायफल, सुहागेकी खील, लोहभस्म बच, लौंग, काकडासिंगी, दालचीनी, सौंफ, बहेड़ा, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारद समान बायबिडंग और धायके फूल १-१ भाग तथा भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें मण्डूर भस्म सबके बराबर ले कर सबको एकत्र और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला- खरल करके कुड़ेकी छालके स्वरसमें घोट कर For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २ रती १५४ ! गोला बनावें और उसे जामनके पत्तोंमें लपेटकर उस पर मिट्टीका ( १ अंगुल मोख ) लेप करके सुखा ले बदनन्तर उसे लघु पुटमें पकावें और फिर उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकालकर पीस लें । मात्रा --- www. kobatirth.org त- भैषज्य रत्नाकरः भारत (७६७२) शोधाङ्कुशो रसः ( भै. र. । शोथा. ) इसे सेवन करने से उदरशोथ और समस्त शरीरगत शोथ विशेषतः (शोध युक्त) संग्रहणीका नाश होता है । रसेन्द्रगन्धं मृत लौहताम्रं नागं तथाभ्रं समसङ्ख्यकञ्च । निर्गुण्डिकास्फोतकपित्थनिश्चा पुनर्णवाश्रीफलकेशराजम् ॥ एषां रसैर्भावितमेशश्च गुञ्जाप्रमाणा वटिका विधेया । शोथज्वरारोचकपाण्डुरोगं सर्वाङ्गशोथं विनिवारयेच्च ॥ पित्तान्वितान् वातभवान कफोत्थान शोथाङ्कुशो नाम निहन्ति रोगान् ॥ शुद्ध पारद, गन्धक, लोह भस्म, ताम्र भस्म सीसा भस्म और अभ्रक भस्न समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको संभालु, आस्फोता, कैथकी छाल, इमलीकी छाल, पुनर्नवा - मूल, बेलगिरी और भंगरा : इनके रस की ( या Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि काथकी ) १ - १ भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना है । इनके सेवन से वातज, पित्तज और कफज शोध तथा सर्वांग शोथ और ज्वर, अरुचि तथा पाण्डुका नाश होता है । (७६७३) शोथारिमण्डूरम् ( भै. र. । शोधा. ) गोमूत्रशुद्धमण्डूरं निर्गुण्डीरसभावितपू । मान काककन्दानां रसेष्वपि च भावयेत् ॥ त्रिफलाव्योषचव्यानां चूर्ण कर्षद्वयं पृथक् । चूर्णाद् द्विगुणमण्डूरं गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् ॥ सिद्धे चूर्ण क्षिपेच्छीते मधुनच पलद्वयम् । निहन्ति सर्वजं शोधं सर्वाङ्गोत्थं न संशयः ।। गोमूत्र में शुद्ध करके भस्म किये हुवे मण्डूर को संभालु, मानकन्द और अदरक के रसकी १ - १ भावना दे कर सुखा लें । तदनन्तर ३५ तो यह मण्डूर ले कर उसे ८ गुने (१६ गुने) गोमूत्र में पकावें और अवलेहके समान गाढ़ा हो जाने पर उसमें २॥ -२ तोले हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल और चवका चूर्ण मिला दें तथा ठण्डा होने पर २० तोले शहद मिलाकर सुरक्षित रखें । इसके सेवन से सर्व दोषज सर्वांग शोथ नष्ट होता है । ( मात्रा - 2 रत्ती । ) (७६७४) शोधारिरसः (१) (भै. र. । शोथा. ) श्वेतद्वरसैर्भाव्यो हिङ्गुलोत्थो रसो बुधैः । तं रसं मूषिकायान्तु कृत्वा तस्योपरि क्षिपेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः श्वेत यमान्योश्च चूर्ण पूर्णाशयं पुनः ।। (७६७५) शोथारिरसः (२) पिधानिकां ततो दचा नीरन्त्रां मूषिकां कुरु ॥ (र. चं. ; वृ. नि. र. ; यो. र. । शोथा.) ततो लघुपुटे पाकं विधानेन प्रदापयेत् । हिङ्गलं जयपालं च मरिचं टङ्कणं कणाम् । पुनस्तन्तु रसं नीत्वा गन्धकेन समेन च ॥ सम्मी वल्लः सघृतः सर्वशोफहरः परः ।। कज्जलीं कारयेद्धीरः पुनस्तां मिश्रयेत्समः । शुद्र हिंगुल और जमालगोटा तथा काली चतुःसमं तथा कुर्यादेभिव्यैः सुशोधितः ॥ मिर्च, सुहागेकी खोल और पीपलका चूर्ण, समान विषताम्रकरड्रैश्च तच्चूर्ण स्थापयेत्पुनः। भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके रक्खें । खटिकाये गृहीतं तच्चूर्ण जिहोपरि क्षिपेत् ॥ मात्रा-२ रत्ती । गिलनार्थ चतुकर्षप्रमाणायाः प्रपानकम् । इसे धीके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारके शर्करायाः पिबेच्चानु सर्वशोथे महौषधम् ॥ शोथ नष्ट होते हैं । भूरि प्रस्रुत्य प्रसत्य महाशोथाद्विमुच्यते ॥ (७६७६) शोथारिलौहम् __ हिंगुलोत्थ पारदको श्वेत दूर्वा (दूब) के ( भै. र. । शोधा.) रसकी भावना दे कर एक मूषामें डालें और उसके अयोरजस्यूपणयावशूकं ऊपर सफेद दूब ( श्वेत दूर्वा ) और अजवायनका चूर्णश्च पीतं त्रिफलारसेन । चूर्ण इतना डालें कि मूषा भर जाए । तदनन्तर शोथं निहन्यात्सहसा नरस्य उस पर ढकना लगा कर सन्धि बन्द कर दें और यथाशनिक्षमुदप्रवेगः॥ फिर ४-५ कपडमिट्टी करके सुखा लें और उसे : सांठ, मिर्च, पीपलका चूर्ण तथा जवाखार लघुपट में पकावें । तत्पश्चात् मूषाके स्वाग शीतल १-१ भाग और लोह भस्म ४ भाग ले कर होने पर उसमेंसे पारदको निकाल कर उसके बरा- सबको एकत्र मिला कर खरल करें। बर गन्धक मिलाकर कज्जली बनावें और फिर इसे त्रिफला काथके साथ सेवन करनेसे शोथ उसमें शुद्ध बछनाग, ताम्र भस्म, और वङ्ग भस्म अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है। (प्रत्येक कज्जलोकी बराबर ) मिला कर (मात्रा-२-३ रत्ती ।) खरल करें। (७६७७) शोथोदरारिलौहम् ___ इसमेंसे (आधी रत्ती) औषध जिह्वापर रखकर (भै. र. : ब. से. ; र. र. । उदरा. ; 2. का. ५ तोले खांडके शर्बतसे निगल जाएं। धे. । शोथा. ) इसके सेवन से मूत्र विरेचन हो कर शोथ | पुनर्णवामृतावह्निगवाक्षीमानशिग्रवः । नष्ट हो जाता है । सूर्यावर्किमूलश्च पृथगष्टपलं जले ॥ For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि - पादशेषे शृतं द्रोणे सुपूते वस्त्रगालिते।। अभ्रक भस्म, कंकुष्ट, चीतामूल, जिमीकन्द (सूरण) लौहभस्माष्टपलकं पचेदाज्यसम भिषक् ।। शरपुंखा, घण्टाकर्ण, पलाशके बीज, क्षीरकञ्चुकी, अर्कस्य द्विपलं क्षीरं स्नुहीक्षीरं चतुःपलम् । | मूसली ( तालमूली), हर, बहेड़ा, आमला, बायपलद्वयं कौशिकस्य गन्धकस्य पलं तथा ॥ बिडंग, निसोत, दन्तीमूल, हुलहुल, इन्द्रायणकी पला पारदं सिद्धे वक्ष्यमाणन्तु निक्षिपेत । जड़, पुनर्नवा और वज्रवल्ली (हड़जोड़ी); इनका जयपालं ताम्रमभ्रं शुद्धमत्र प्रदापयेत् ॥ समान भाग मिश्रित चूर्ण ४० तोले मिला कर । स्निग्ध पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें । कंकुष्ठवदिकन्दानां शराख्यात् घण्टकर्णकात् । इसे यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ पलाशस्य च वीजानि कञ्चुकी तालमूलिका ॥ देनेसे समस्त प्रकारके शोथ अवश्य नष्ट हो जाते त्रिफलायाः क्रिमिरिपोस्विदन्तिभवं तथा । हैं। जो शोथ पुराने और कष्ट साध्य हों वे भी सूर्यावर्तगवाक्ष्योश्च वर्षाभूर्वज्रवल्लिका | इससे शीघ्र ही नष्ट हो सकते हैं । शोथोदरके एषां लौहसमां मात्रां स्निग्ये भाण्डे निधापयेत लिये तो इससे उत्तम कोई औषध ही नहीं है। अतोऽस्य भक्षयेन्मात्रामनुपानश्च युक्तितः॥। इसके अतिरिक्त यह रस समस्त उदर रोग, पाण्डु, हन्ति सर्वोदरं सिद्धं नात्र कार्या विचारणा। कामला, हलीमक, अर्श, भगन्दर, कुष्ठ, ज्वर और ये च शोथाः मुर्वा राश्चिरकालानुबन्धिनः। | गुल्मको भी नष्ट करता है। ते सर्वे नाशमायान्ति तमः सूर्योदये यथा। (मात्रा-२-३ रत्ती । ) (७६७८) श्रीडामरानन्दाभ्रम् नातः परतरं किश्चिच्छोथोदरविनाशनम् ॥ ( भै. र. । कासा.) उदराणि पाण्डुरोगं कामलाच हलीमकम् ।। म् अभ्रस्यामलमारितस्य तु पलं क्षुद्राटरूपस्थिरा। भर्शो भगन्दरं कुष्ठ ज्वरं गुल्मश्च नाशयेत् liबिल्लश्योणाकपाटलाकलसिकाः सब्रह्मयष्टयाईकाः पुनर्नवा (बिसखपरा-साठी), गिलोय, चित्रग्रन्थिकगोक्षुरं सचविकं मार्गात्मगुप्तान्वितम्। चीता, इन्द्रायणकी जड़, मानकन्द, सहजनेकी छाल, सत्वैर्मर्दितमेकशश्च पलिकैर्गुञ्जार्द्धकं भक्षितम् ॥ हुलहुल और आककी जर ४०-४० तोले ले | कासं पञ्चविधं स्वरामयमुरोघातं च हिक्कां ज्वरम्। कर सबको ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर श्वासं पीनसमेहगुल्ममरुचिं यक्ष्माम्लपित्तक्षयम्।। रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें लोहभस्म दाहं मोहमशेषदोषजनितं शूलं बलास क्रिमिम् । ४० तोले, घी १ सेर, आकका दूध २० तोले, छर्दि पाण्डहलीमकंगलगदं विस्फोटकं कामलोम्।। थूहर (स्नुही) का दूध ४० तोले, शुद्ध गूगल १० मन्दाग्निं ग्रहणीक्षयश्च यकृतं प्लीहानमर्शासि तोले और ५ तोले गन्धक तथा २।। तोले पारदकी कजली मिला कर पुनः पकावें । जब पाक तैयार हन्यादामकफोद्भवानपि गदान श्री डामरान. हो जाय तो उसमें शुद्ध जमालगोटा, ताम्र भस्म, । न्दाभ्रकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम्] पञ्चमो भागः १५७ - बल्यं वृष्यमशेषदोपहरणं धातुमदं कासिनाम् । श्रीमृत्युञ्जयो रसः मेध्यं हृघरसायनं हरमुखाज्ज्ञात्वा मया भाषितम्। मृत्युञ्जयरसः (२) देखिये। छोटी कटेली, बासा, शालपर्णी, बेलछाल, | (७६७९) श्रीरसराजः अरलुछाल, पाढल, पृश्निपर्णी, भरंगी, अद्रक, चीतामूल, पीपलामूल, गोखर, चव्य, अपामार्ग ( भै. र. । ज्वरा.) और कौंचकी जड़; इनके १०-१० तोले स्वरस । भागैकं रसराजस्य भागश्च हेममाक्षिकात् । ( या काथ ) में ५ तोले अभ्रक भस्मको पृथक् भागव्यं शिलायाश्च गन्धकस्य त्रयो मताः । पृथक मर्दन करके सुरक्षित रक्खें । तालकाष्टादशभागः शुल्वं स्याद्भागपञ्चकम् । मात्रा-आधी रत्तो। भल्लातकात् त्रयो भागाः सर्वमेकत्र चूर्णयेत् ॥ यह रस ५ प्रकारकी खांसी, स्वरभेद, उरः- वज्रीक्षीरप्लुतं कृत्वा दृढे मृण्मयभाजने । क्षत, हिचकी, ज्वर, श्वास, पीनस, प्रमेह, गुल्म, विधाय सुदृढां मुद्रां पचेद्यामचतुष्टयम् ॥ अरुचि, क्षय. राजयक्ष्मा, अम्लपित्त, दाह, मोह, स्वाङ्गशीतं समुद्धत्य खल्लयेव सुदृढं पुनः सर्वदोषज शूल, कफ, कृमि, छर्दि, पाण्डु, हली गुआद्वयमितश्चास्य पर्णखण्डेन दापयेत् । मक, गलरोग, विस्फोटक, कामला, अग्निमांद्य, ग्र रसराजः प्रसिद्धोऽयं ज्वरमष्टविधं जयेत् ॥ हणी, यकृत् , प्लीहा, अर्श तथा आम और कफ जनित रोगोंको नष्ट करता है। शुद्ध पारद १ भाग, स्वर्ण माक्षिक भस्म १ भाग, शुद्ध मनसिल २ भाग, शुद्ध गन्धक ३ भाग, यह बल्य, वृष्य, धातुवर्द्धक, मेध्य, हृद्य शुद्ध हरताल १८ भाग, ताम्र भस्म ५ भाग और और रसायन है। शुद्ध भिलावे ३ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी श्रीजयमङ्गलो रसः कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका प्र. सं. २१०३ जयमङ्गलो रसः (१) चूर्ण मिला कर सबको सेहुंड ( थूहर ) के दूधमें देखिये। घोट कर दृढ मृत्पात्रमें भर दें और उसके मुखपर श्रीनृपतिवल्लभरसः शराव ढककर सन्धि बन्द कर दें एवं उस पर ३-४ कपड़मिट्टी करके सुखा लें और चूल्हेपर (भै. र. । रसायना.) चढ़ाकर ४ पहरकी अग्नि दें । तदनन्तर जब वह प्र. सं. ३६६४ नृपतिवल्लभरसः देखिये। । स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषधको श्रीमन्मथरसः निकालकर पीस लें। (रसं. सा. सं. । रसा. वाजी. ) इसमेंसे २ रत्ती रस पानमें रखकर खिलानेसै प्र. सं. ५५२० मन्मयानरसः देखिये। आठ प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं। For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १५८ देखिये । श्रीरामरसः प्र. सं. ६१५० रामरस: ( श्रीरामरसः ) www. kobatirth.org श्रीवेतालो रसः प्र. सं. ७११८ वेतालो रसः देखिये । (७६८०) श्रीवेष्टादिचूर्णम् (उडूलनम्) (र. चं । ज्वरा. ; वृ. नि. र. | सन्निपाता. ) श्रीवेष्टफलसम्भूतभस्मभागाष्टकं शुभम् । मरीचस्य च चत्वारो रसस्यैको विषस्य च ॥ सूक्ष्मचूर्ण ततः कृत्वा मर्दयेदतियत्नतः । असाध्येsपि हि शीताङ्गे स्वेदो याति हि निश्चितम् || भारत - भैषज्य - सरल वृक्ष (चीर) के फलोंकी भस्म ८ भाग, काली मिर्च का चूर्ण ४ भाग तथा शुद्ध पारद और बछनाग १ - १ भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर भली भांति खरल करें । $6 'शूलगज केशरिरसः " इसे रोगीके शरीर पर मर्दन करनेसे असाध्य शीताङ्ग भी अवश्य नष्ट हो जाता है । श्री शूलगजकेशरिरसः देखिये । प्र. सं. ७६५४ (७६८१) श्लीपदगजकेशरीरसः (भै. र. 1 इलीपदा. ; धन्व. । स्लीपदा. ) व्योषामृतयमानी च सुतोऽग्निर्गन्धकं शिला । सौभाग्यं जयपालच चूर्णमेकत्र कारयेत् ॥ [शकारादि भृङ्गगोक्षुरजवीर कितोयैर्विमर्दयेत् । अस्य गुञ्जामितं खादेदुष्णतोयानुपानतः ॥ श्लीपदं दुस्तरं हन्ति प्लीहानं हन्ति सेवितः सोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध बछनाग, अजवायन, शुद्ध पारद, चीतामूल, शुद्र गंधक, शुद्ध मनसिल, सुहागेकी खील और शुद्ध जमालगोटा समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर भंगरे, गोखरु, जम्बीरी नीबू और अदरकके रसकी १-१ भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें । - रत्नाकरः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कष्ट - साध्य श्लीपद और प्लीहा वृद्धिका नाश होता है । (७६८२) श्रीपदारिलौह: ( भै. र. र. र. । स्लीपदा. ) हरातक्या बिभीतस्य धायाश्चूर्ण सुचूर्णितम् पट्तोलकप्रमाणेन ग्राह्यं तेषां गुणैषिणा ।। तोलद्वयं कान्तलौह चूर्ण तावच्छिलाजतु । | कृत्वैकत्र समस्तेषु त्रिफलाक्वाथभावना || पदाद्यदध्वंसी सर्वव्याधिविनाशनः । पदारिति ख्यातो लौहो मुनिभिरचितः ॥ हर, बहेड़े और आमले का चूर्ण ६-६ तोले एवं कान्त लोह भस्म और शुद्ध शिलाजीत २-२ तोले ले कर सबको एकत्र मिलाकर त्रिफला काथकी भावना दें। इसके सेवन से श्लीपदादि रोग नष्ट होते हैं । ( मात्रा - २ माशे । अनुपान - त्रिफला काथ | ) For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २५९ (७६८३) श्लेष्मकालानलो रसः (१) । (७६८४) श्लेष्मकालानलो रसः (२) (रसे. सा. सं. ; र. रा. मु. | कफा. ; रसे. ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा.) चि. म. । अ. ९) हिङ्गलसम्भवं मूतं गन्धकं मृतताम्रकम् । रसस्य द्विगुणं गन्धं गन्धका द्विगुणं विषम् । तुत्थं मनोहा तालश्च कट्फलं धूर्तबीजकम् ॥ विषात्त द्विगुणं देयं चूर्ण त्रिकटुसम्भवम् ॥ हिमु समाक्षिकं कुष्ठं त्रिवृदन्तीकदुत्रिकम् । रसतुल्या प्रदातव्या चाभया सविभीतकी । व्यापिघातफलं वर्ष दङ्गणं समभागिकम् ॥ धात्रीपुष्करमूलन चाजमोदानगन्धिका ॥ स्नुहीक्षीरेण वटिकां कारयेत् कुशलो भिषक् । विडॉ कट्फलं चव्यं पञ्चैव लवणानि च । विज्ञाय कोष्ठं कालश्च योजयेद्रक्तिकां कमात् ॥ लवङ्गं त्रिता दन्ती सर्वमेकत्र चूर्णयेत् ॥ भावयेत्सप्तधा रौद्रे स्वरसैः सुरसोद्भवः । बातश्लष्पणि मन्दाग्नौ पित्तश्माधिकेऽपि च। इन्ति सर्व कफोदभूतं व्याधि कालानलो रसः॥ जीर्णज्वरे च श्वययौ सन्निपाते कफोल्वणे ॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, बलासप्रबलं त्यक्त्वा धातुं वातात्मकं नयेत् । | शुद्ध बछनाग ४ भाग, त्रिकुटा ( मिलित ) का सेक्नात्सर्वरोगघ्नः श्लेष्मकालानलो रसः॥ चूर्ण ८ भाग, तथा हरं, बहेड़ा, आमला, पोखर | मूल, अजमोद, बनतुलसी, बायबिडंग, कायफल, हिङ्गलोत्थ पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, चव्य, पांचो नमक, लौंग, निसोत और दन्तीमूल शुद्ध तूतिया, शुद्ध मनसिल, शुद्र हरताल, काय । १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली फल, धतूरेके बीज, हींग, सोनामक्खीभस्म, , बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण कूठ, निसोत, दन्तीमूल, सोंट, मिर्च, पीपल, अम मिलाकर तुलसीके रसकी धूपमें सात भावना दें। लतासको मज्जा, बङ्ग भस्म और सुहागा समान इसके सेवनसे समस्त कफज रोग नष्ट भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें होते हैं। और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर (मात्रा-४-६ रत्ती।) थूहर (सेहुंड) के दूधमें घोट कर १-१ रत्तीकी श्लेष्मकालानलोरसः (३) गोलियां बना लें। प्र. सं. ५५८१ “महा श्लेष्मकालानल रोगीके कोष्ठ और कालका विचार करके इसे रस" देखिये । यथोचित मात्रानुसार सेवन करानेसे वातकफज (७६८५) श्लेष्मकुठाररस: विकार, अग्निमांध, पित्तकफज विकार, जीर्ण- (र. चं. । कफरोगा. ; र. प्र. सु. । अ. ८) ज्वर, शोथ और कफोल्वण सन्निपातका नाश पारदं च मृतशुल्वगन्धक होता है। नागबल्लिजरसेन पेषितम् । For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६० पाचितं च मृदुवह्निना घटीयुग्ममेतदखिलं विचूर्णितम् ॥ भक्षितं च गुडमिश्रमाकैः श्लेष्मदोषविनिवृत्तिदायकम् ॥ भारत - भैषज्य रत्नाकरः www. kobatirth.org शुद्ध पारद, ताम्र भस्म और शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर कज्जली बनावें और उसे पानके रसमें खरल करके २ घड़ी मन्दाग्नि पर पकावें । तदनन्तर बारीक पीस कर रक्खें । इसे गुड़ और अदरक के रसके साथ सेवन करने से कफविकार शान्त होते हैं । ( मात्रा - १ - १॥ रत्ती । ) (७६८६) श्लेष्मशैलेन्द्ररसः ( भै. र. 1 ज्वरा. ) गन्धकं पारदं चाभ्रं त्र्यूषणं जीरकद्वयम् । शटी शृङ्गी यमानीं च पुष्करं रामठं तथा ॥ सैन्धवं यावशुकञ्चटङ्गणं गजपिप्पली । जातीकोषाजमोदे च लौहं या लवङ्गकम् ।। धुस्तूरबीजं जैपालं कट्फलं चित्रकन्तथा । प्रत्येकं कार्षिकं चैषां श्लक्ष्णचूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ पाषाणे विमले पात्रे घृष्टं पाषाणमुद्गरैः । बिल्वमूलरसं दत्त्वा चार्कचित्रकदन्तिकाः ॥ शिखरी काञ्जिका वासा निर्गुण्डी गणिकारिका धुस्तूर कृष्णजीरश्च पारिभद्रक पिप्पली ॥ कण्टकार्याईयोश्चैव मूलान्येतानि दापयेत् । एषां मूलरसं दत्त्वा घृष्टमातपशोपितम् ॥ गुञ्जाप्रमाणां वटिकां कारयेत्कुशलो भिषक् । चतुर्विधवटीं खादेन्नित्यमाद्वैकवारिणा ॥ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि उष्णतोयानुपानेन श्लेष्मव्याधिं व्यपोहति । विंशतिं श्लैष्मिांश्चैव शिरोरोगांव दारुणान् || प्रमेहान् विंशतिं चैत्र पञ्चगुल्मनिषूदनः । उदराण्यन्त्रवृद्धिश्चाप्यामवातविनाशनः ॥ पञ्च पाण्ड्वायान् हन्ति क्रिमिस्थौल्यामयापहः। सोदावर्त्त ज्वरं कुष्ठं गात्रकण्ड्वामयापहः ॥ यथा शुन्धनैस्तथा वह्निविवर्धनः । श्लेष्मामये कृपा हेतो रसेन्द्रो मुनिभाषितः || श्लेष्मशैलेन्द्रको नाम रसेन्द्र गुटिकास्मृता ॥ शुद्ध गन्धक, पारद, अभ्रक भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, सफेद जीरा, काला जीरा, कचूर, काकड़ासिंगी, अजवायन, पोखरमूल, हींग, सेंधा नमक, जवाखार, सुहागेकी खील, गजपोपल, जावत्री, अजमोद, लोहभस्म, जवासा, लौंग, शुद्ध धतूरेके बीज, शुद्ध जमालगोटा, कायफल और चीता ११ - १ तोला ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनायें और फिर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिला कर पत्थर के खरल में डाल कर dont rड़की छाल, आकी जड़की छाल, चीतामूल, दन्तीमूल, अपामार्ग, जीवन्ती, बासा, संभालु, अरणी, धतूरा, काला जीरा, फरहद, पीपल, कटेली और अदरक इनकी जड़के रसकी धूप में १-१ भावना दे कर ११ रत्तीकी गोलियां बनावें । मात्रा - ४ गोली | अनुपान - अदरक का रस या उष्ण जल । इसके सेवन से समस्त कफज रोग, शिरो रोग, २० प्रकारके प्रमेह, ५ प्रकारके गुल्म, उदर रोग, अन्न्रवृद्धि, आमवात, पांच प्रकारका पाण्डु, कृमि For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भाग: रोग, स्थूलता, उदावर्त, ज्वर, कुष्ठ और गात्र गोखरु, सेंधा नमक, सोंठ, देवदारु, बायकण्डू (खुजली) का नाश होता तथा अग्नि दीप्त | बिडंग और पाषाणभेद; इनका चूर्ण १-१ भाग होती है। तथा लोह भस्म सबके बराबर ले कर सबको एकत्र (७६८७) श्लेष्मान्तकरसः खरल करें। इसे घीके साथ सेवन करनेसे वातज वर्म (र. चं. । कफ.) रोग नष्ट हाता है। अभ्रक रससिन्दूर शङ्खनस्म च मौक्तिकम् । (मात्रा-२-३ रत्ती।) एकभागो द्वित्रिभागा खर्धभागं च मौक्तिकम्॥ करं मौक्तिकाधै स्यात् त्रिफला कर्षसम्मिता। (७६८९) श्वदंष्ट्रादिलोहम् । सर्व मुखल्वे सम्म दिनं सिंहास्यतोयतः ।। (श्वदंष्ट्रादिचूर्णम् ) छायाशुष्कां वर्टि कृत्वा रक्तिकार्षप्रमाणतः । (वं. से.; र. र. । प्रमेहा. ; ग. नि.। आर्द्रकस्य रसेनैव मधुना सह लेहयेत् ॥ प्रमेहा. ३०) लेष्योल्बणं वह्निमान्धं शूलं सपरिणामजम् । श्वदंशा त्रिफला मुस्ता गुडूची फल्गुपल्लवान् । श्लेष्मान्तको रसो नाम विनिहन्त्यनुपानतः ॥ दर्भ कुशश्च मधिष्ठां रोहिषस्य च पल्लवान् ॥ अभ्रक भस्म १ भाग, रससिन्दूर २ भाग, | बला पुनर्नवा श्यामा शारिवे देवदार। शंख भस्म ३ भाग, मोती भस्म आधा भाग, पिप्पली नागरश्चैव विडामरिचानि च ॥ कचूर चौथाई भाग और त्रिफला १ भाग ले कर | पाठा कम्पिल्लफ भार्गी द्वे दरिद्रे निदिग्धिकाम्। सबको एकत्र मिलाकर बासेके रसमें खरल करके एरण्डमूल दन्ती च चित्रकं कटुरोहिणीम् ।। आधी आधी रत्तीकी गोलियां बना कर छायामें एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । सुखा लें। द्विगुणं सर्वचूर्णेभ्यो लौहचूर्ण पदापयेत् ॥ इन्हें अदरकके रस और मधुके साथ मिला माषकत्रितयं तस्माच्चतुष्टयमयापि वा। कर चाटनेसे कफज अग्निमांध और परिणाम शूल पिबेदुष्णेन तोयेन मधेनापि च मधपः ॥ नष्ट होता है। मेहशूलोदरं प्लीहशोथार्शः पाण्डुरोगमुन् । गोमूत्रपिष्टरेतैश्च वटिकास्तद्गदापहाः ॥ (७६८८) श्वदंष्ट्रादिचूर्णम् । गोखरू, त्रिफला, नागरमोथा, गिलोय, कळू(वृ. नि. र. । वृद्धय.) मर (गूलर भेद) के पत्ते, कुश, दाभ, मजीठ, श्वर्दष्टासिन्धुविश्वाहदारुकृमिहराश्मभित । | रोहिष ( मिर्चिया गन्ध ) तृणके पत्ते, खरैटी, सोहचूर्ण घृतेनाधाद्वातवमहरं परम् ॥ | पुनर्नवा, काली निसोत. कृष्ण सारिवा, सफेद For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [पकारादि सारिवा, देवदारु, पीपल, सांठ बायबिडंग, काली . इसे (गोमूत्रके साथ) सेवन करनेसे शोथोदर मिर्च, पाठा. कमीला, भारंगी, हल्दी, दारुहल्दी, ! नष्ट होता है । कटैली, एरण्डकी जड़, दन्तीमूल, चीता और (मात्रा-१ माशा ।) कुटकी समान भाग ले कर चूर्ण बना लीजिए | और फिर उसमें इससे दूनी लोह भस्म मिला (७६९१).श्वासकालेश्वररसा लीजिए। इसे ३-४ माघेकी मात्रानुसार मद्य या (वृ. नि. र. । श्वासा.) गर्म पानीके साथ सेवन करनेसे बीस प्रकारके मृतं वर्ष मृतं लोहं मृताफै मृतमभ्रकम् । प्रमेह, शल, उदर रोग, प्लीहा, शोथ, अश और शुद्धसूतं तथा गन्धं मालिकं हिल विषम् ॥ पाण्डका नाश होता है। जातीफलं लवकं घ त्वगेला नागकेशरम् । उपरोक्त चूर्णको गोमूत्रमें मिला कर गोलियां | उन्मत्तकस्य बीजानि जैपालं रात्रिदुर्लभम् ॥ भी बनाई जा सकती हैं। एतानि समभागानि मरिचं च त्रिभागिकम् । (व्यवहारिक मात्रा–२-३ रत्ती ।) सर्वमेतत्सित्खल्वे लोहदण्डेन मर्दयेत् ॥ पागन्तरके अनुसार-त्रिफलाके स्थानमें | तावत्सम्मर्दयेयत्नाधावत्सूतो न दृश्यते । पीपलं होनी चाहिये। शक्रासनस्य स्वरसैर्भावना एकविंशतिः ॥ (७६९०) श्वयथुघातीरसा द्विगुञ्जा उत्तमा मात्रा आईकस्वरसैयुता । तदर्धे बालवृद्धेषु पथ्यं देयं तदुच्यते ॥ (यो. र. ; वृ. नि. र. । शोथा. ; वृ. यो. | पञ्च श्वासान् क्षयं कासं राजयक्ष्मनिवारणम् । त.। त. १०६) श्वासकालेश्वरो नाम लोकानामपि दुर्लभः ॥ रसगन्धकलोहकणात्रितामरिचामरदारुनि ___ बंग भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक शाजाला | भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण माक्षिक शात्रिफलाः। दलितं मृदुगोसलिलेन पिवेदनुरूपममुं श्वय थूदरहरम् ॥ दालचीनी, इलायची, नागकेसर, शुद्ध धतूरेके बीज, शुद्ध पारद, गन्धक, लोह भस्म, पीपल, शुद्ध जमालगोटा, हल्दी और जवासा १-१ भाग निसोत काली मिर्च, देवदारु, हल्दी और हरं, तथा काली मिर्च ३ भाग ले कर प्रथम पारे बहेड़ा तथा मामला समान भाग ले कर प्रथम गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें । ओषधियोंका चर्ण मिलाकर सबको लोहखरलमें अन्य भोषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको गोमूत्रमें | अच्छी तरह घोटें और फिर इन्द्रजौके काथकी २१ घोट कर सुखा कर रखें। भावना देकर सुखा कर बारीक चर्ण करें। भस्म, डूबछना For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः मात्रा-२ रत्ती। वृद्धों और बालकोंके | गोलेको निकाल कर उसके बराबर शुद्ध गंधक लिये १ रत्ती। मिला कर खरल करें और उसे बासेके रस तथा त्रिकुटेके काथकी १-१ भावना दे कर ३-३ अनुपान-अदरकका रस । . रत्तीकी गोलियां बना लें। इसके सेवनसे पांच प्रकारके श्वास, क्षय, कास, और राजयक्ष्माका नाश होता है। ____ इसके सेवनसे श्वास कास नष्ट होते हैं। (७६९२) श्वासकासकरिकेसरीरसः (७६९३) श्वासकासचिन्तामणिरसः (श्वासगजकेशरीरसा) (रसे सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं. ; धन्व. । श्वासा.) (र. च. ; र. रा. सु. । श्वासा. ; र. र. स.। उ. अ. १३) पारदं माक्षिकं स्वर्ण समांत परिकल्पयेत् । तारताम्ररसपिष्टिकाशिला पारदाई मौक्तिकश्च मूताद्विगुणगन्धकम् ॥ गन्धतालसमभागिक रसैः। अभ्रश्चैव तथा योज्यं व्योन्नो द्विगुणलौहकम् । कण्टकारीरसेनैव छागीदुग्धेन च पृथक् ॥ आटरूषसुरसाईसम्भवैमैर्दय प्रकुरु गोलकं ततः ॥ यष्टिमधुरसेनैव पर्णपरसेन च। . भावयेत्सप्तवारश्च द्विगुजां वटिकां भजे ॥ मृतस्नया च परिवेष्टय गोलक पिप्पलीमधुसंयुक्तां श्वासकासविमदिनीम् । ____ यामयुग्ममथ भूधरे पचेत् । गन्धकेन कुरु तत्समं तत __शुद्ध पारद, स्वर्ण माक्षिक भस्म और स्वर्ण श्वाटरूषकटुफैश्च भावयेत् ॥ भस्म १--१ भाग, मोती भस्म आधा भाग, श्वासकासकरिकेशरीरसो शुद्ध गंधक २ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग और वल्लमस्य परिसेवयेद्बुधः। लोह भस्म ४ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चांदी भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध । चूर्ण मिला कर कटेलीके रस, बकरीके दूध, मुलैमंसिल, शुद्ध गंधक और शुद्ध हरताल समान भाग ले | | ठीके काथ और पानके रसकी ७-७ भावना दे कर कर सबको एकत्र खरल करके बासे, तुलसी और | २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। अदरकके रसकी १-१ भावना दें । तदनन्तर उसका एक गोला बना कर ( उसे अरण्ड या बड़के इन्हे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन पत्तोंमें लपेट कर ) उस पर १ अंगुल मोटा मि- करनेस श्वास कासका नाश होता है। हीका लेप करके सुखा लें और भूधरयन्त्रमें २ (यदि इसी रसमें स्वर्ण आधा भाग डाला पहर पकावें । तत्पश्चात् उसके ठंडा होने पर जाए और पानके स्थानमें अदरक के रसकी भावना For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [शकारादि दी बाब तो इसीका नाम "श्वास चिन्तामणि" | चूर्णको एकत्र मिलाकर १-१ मिर्च डालकर खरल हो जाता है।) किया जाय तो गुण अधिक होता है । ) हवासकासारिरसः (पाठान्तरके अनुसार-मिर्च ५ तोले और त्रिकुटा ३।। तोले (प्रत्येक १। तोला) प्र. सं. ७६१३ " शिलातालो रसः ” देखिये। होना चाहिये ।) :(७६९४) श्वासकुठाररसः (१) (७६९५) श्वासकुठाररसः (२) ( भा. प्र. म. ख. २ । श्वासा. , ज्वरा. ; वृ. यो. (र. चं. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; भै. त.। त. ८० ; भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. धन्व. । श्वासा.) धन्व. । हिक्कावा. ; वै. र. ; र. का. धे.; रण पारदं गन्धं विषं शिला कटुत्रिकम् । र. चं. ; वृ. नि. र. ; र. रा. सु.। निष्पिष्य वटिका कार्या वाणगुआममाणतः ॥ ____ श्वासा.; यो. त. । त. ३० उष्णोदकं पिबेच्चानु क्षुद्राक्वाथमथापि वा। यो. चि. म. । अ. ७) कासं पञ्चविधं हन्ति श्वास श्लेष्मसमुद्भवम् ॥ रसो गन्धो विषशापि उडून मनःशिला। शिरोरोग निहन्त्या वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ एवानि कर्षमात्राणि मरिच चाट कर्षकम् ॥ | सुहागेकी खील, शुद्ध पारद, गन्धक, बछनाग, कटुभयं कर्षयुग्मं पृषगव विनिक्षिपेत् । | मनसिल, सोठ, मिर्च' और पीपल १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और रसः वासकारोऽयं सर्वश्वासनिवारणः॥ | फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर - शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध वछनाग, पानीके साथ घोट कर ५-५ रत्तीकी गोलियां सुहागेकी खील और शुद्ध मनसिल ११-१। तोला, काली मिर्च १० तोले तथा सेठ, मिर्च और अनुपान-उष्ण जल या कटेलीका काथ । पीपल २॥-२| तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी इनको सेवन करनेसे पांच प्रकारकी खांसी, कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका कफज श्वास और शिरोरोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करें। हो जाते हैं। ___ यह रस समस्त प्रकारके श्वासको नष्ट | श्वासगजकेशरिरसः करता है। स्वासकासकरिकेसरी रसः प्र. सं. ७६९२ (मात्रा-४-५ रत्ती ।) देखिये। (नोट-मिर्चके अतिरिक्त सब चीजोंके १. पाठान्तरके अनुसार मिर्च २ भाग हैं। ले । For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंसप्रकरणम् पञ्चमो भागः श्वासचिन्तामणिः (७६९७) श्वासहेमाद्रिरसः ( भै. र. । श्वासा) ( र. चं. । कासा. ; वृ. नि. र. । श्रासा.) प्र. सं. ७६९३ " वासकासचिन्तामणि आच्छादितशिलां ताम्रद्विगुणां बालुकाइये । रसः" देखिये । | पक्खा सञ्चूये गन्धेशौ दिनाधे तां पुन:पचेत॥ इवासभैरवो रसः श्वासहेमाद्रिनामाऽयं महाश्वासविनाशनः । वर्णद्धिकरो ह्येष सुवर्ण्यस्तु न संशयः॥ (र. च. ; भै. र. । हिक्काश्वा.) १ भाग शुद्ध ताम्र पत्र भौर २ भाग शुद्ध प्रयोग. सं. ४९६८ " भैरवरसः " | मनसिलका चूर्ण ले कर एक शरावमें नीचे मंसिदेखिये। लका आधा चूर्ण बिछा कर उस पर ताम्र पत्र (७६९६) श्वासहरवटका रखें और उस पर शेष मनसिल बिछा कर दूसरा (र. र. स. । उ. अ. १३ र. चं. । श्वासा.) | शराव ढककर सम्पुट बनावें और उस पर कपरपारदं गन्धकं चैव पलमेकं पृथक पृथक् । मिट्टी करके सुखा लें तथा (१ दिन) बालकापलत्रयं त्रिकटुक बङ्गमेकपलं क्षिपेत् ॥ यन्त्रमें पकावें और उसके स्वांगशीतल होने पर सर्वमेका संयोज्य दिनानि त्रीणि मर्दयेत् । औषधको निकालकर पीस लें । तदनन्तर उसमें गोमत्रेण तथा त्रीणि दिनानि परिमर्दयेत ॥ ( उसके बराबर ) समान भाग पारद गन्धककी अक्षप्रमाणवटकं छायाशुष्कं तु कारयेत् ।। कजली मिला कर ( घीकुमारके रसमें घोट कर नित्यमेकं तु पटक दिनानि त्रिंशदेव च ॥ टिकिया बना लें और फिर ) शरावसम्पुटमें बन्द श्वासकासज्वरहरमनिमान्द्याऽरुचिपणुत् ।। करके आधे दिन बालुका यन्त्रमें पकावें। तत्पशुद्ध पारद, गन्धक, सोंठ, मिर्च, पीपल और | | श्चात् उसके स्वांगशीतल होने पर पीस कर वंग भस्म ५-५ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी सुरक्षित रक्खें। कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका (मात्रा-१ रत्ती।) चूर्ण मिला कर ३ दिन खरल करें । तदनन्तर इसके सेवनसे महा श्वास नष्ट होता और ३ दिन गोमूत्र में खरल करके १-१॥ तोलेके | वर्ण वृद्धि होती है। मोदक. बना लें और छायामें सुखा लें। (७६९८) श्वासान्तकरसः इनमेंसे १-१ मोदक ३० दिन तक सेवन (र. र. स. । उ. अ. १३; र. चं. । श्वासा.) करनेसे श्वास, कास, ज्वर, अग्निमांध और अरुचिको मृतः षोडस तत्समो दिनकरस्तस्यापभागो बलिः नाश होता है। | सिन्धुस्तस्य समः सुसूक्ष्ममादितः पपिप्पली( व्यवहारिक मात्रा-१-५ रत्ती।) । पर्णितः। For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः १६६ जम्बीरस्वरसेन मर्दितमिदं तप्तं सुपक्त्रं भवेत् कासश्वाससगुल्म शूलजठरं पाण्डं लिहन्नाशयेत् ॥ शुद्ध पारद और ताम्र भस्म १६ - १६ भाग, शुद्ध गन्धक ८ भाग, सेंधा नमक ८ भाग और पीपल ६ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजल बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर जम्बीरी नीबू के रसमें घोट कर ( गोला बना कर, अरण्डके पत्तोंमें लपेट कर पुटपाक विधि ) पाक करें । ( मात्रा - २ रत्ती । ) (७६९९) श्वासारिरसः (र. रा. सु. । श्वासा. ) पारदो वत्सनाभश्च गन्धकं टङ्कणं कणा । समांशं द्विगुणं शुण्ठी मरिचं पञ्चभागिकम् || सूक्ष्मचूर्णमिदं कृत्वा वल्लमात्रं प्रदापयेत् । श्वासारि सञ्ज्ञिको ह्येष सद्यः श्वासहरः परः ॥ शुद्ध पारद, बछनाग, गन्धक, सुहागेकी खील और पीपल १–१ भाग, सोंठ २ भाग और मिर्च ५ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करें । मात्रा - २ - ३ रत्ती । यह रस श्वासको शीघ्र ही नष्ट कर देता है । श्वासारिलौहम् (महा ) (र. रा. सु.; भै. र । श्वासा. ) प्र. सं. ५५८२ महाश्वासारि लौहम् देखिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि (७७००) विकुष्ठारिरसः ( र. र. स. । उ. अ. २० ) रसगन्धकतुत्थार्कबाकुचीक्वाथमदितम् । सेवितं सोमतैलेन श्वित्रकुष्ठं नियच्छति ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, तुत्थ भस्म और आककी जड़ की छाल समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें और उसे बाबचीके काथमें घोटकर सुखा ले I इसके सेवन से कास, श्वास, गुल्म, शूल, श्वित्रकुट नष्ट हो जाता है । उदररोग और पाण्डुका नाश होता है । इसे बाबचीके तेल के साथ सेवन करने से (७७०१) श्वित्रारियोगः (१) ( र. चि. म. । स्त. २ ) गन्धकं त्रिफलf भृङ्गं भल्लातकफलानि च । कटुनिम्बस्य बीजानि भृङ्गराजद्रवेण वै ।। भावयेच्छोषयेच्चैतत्सम्यक् तद्दिवसत्रयम् । श्वेतारिर्नामगोगोयं मिषग्भिः प्रतिपादितः ।। वल्लमात्रममुं दद्याच्छ के राष्घृतमिश्रितम् । भोजयेद्वै प्रयत्नेन रजन्यां च विशेषतः ॥ सूरणं क्षीरवार्ताकं मत्स्यमांसं विशेषतः । वर्जयेदम्लशाकानि श्वित्रनाशो हि तत्क्षणात् ॥ शुद्ध गन्धक, हर्र, बहेड़ा, आमला, भंगरा, शुद्ध भिलावे और कड़वे नीमके बीज (निबौली); इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र करके ३ दिन भंगरेके रसमें खरल करें और फिर सुखा कर सुरक्षित रक्खे । मात्रा - ३ रत्ती । इसे खांड और घी में मिला कर सेवन करने से वित्र कुष्ठ नष्ट होता है । For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः इसके सेवन कालमें रात्रिके समय पथ्य आ-| और उसे तुलसीके रसमें घोट कर गोला बनार्वे हार करना और सूरण, दूध, बैंगन, मत्स्य, मांस | तथा उसे चांगेरी (चूके) के कल्कके बीचमें रखकर तथा अम्ल शाकोंसे परहेज करना चाहिये । शरावसम्पुटमें बन्द करें और गजपुट में पकाकर (७७०२) शिवत्रारियोगः (२) ठंडा होने पर पीस लें। (र. चि. म. । स्त. २) - इसे ७ या १० चावलकी मात्रासे सेवन असनखदिरयू वितां सोमराजी करना आरम्भ करें और थोड़ी थोड़ी मात्रा बढ़ाते मधुघृतशिखिपथ्यालोहचूर्णैरुपेताम् । हुवे ६५ चावल भरकी मात्रा तक बढ़ाएं। शरदमवलिहाना कुष्ठजन्यान्विकारां ___ अनुपान-शहद और घी, या दही और स्त्यजति हितमिताशी दारुणान्दुःखरूपान् ॥ । घी अथवा नवनीत, या आमले और अदरकका रस बाबचीके चूर्णको असना वृक्ष और खैरकी | अथवा तेंदु और केलेका फल । छालके काथकी (बहुतसी) भावनाएं दे कर सुखा इसके सेवनसे श्वित्र कुष्ठ नष्ट होता है। लें और फिर उसमें शहद, घी, चित्रकमूलका चूर्ण, (७७०४) श्वित्रेभसिंहो रसः हर्रका चूर्ण और लोह भस्म (प्रत्येक उसके बरा (वृ. यो. त. । त. १२०) बर ) मिला कर खरल करके रखें। ___ इसे सेवन करने और हित तथा परिमित | शुदसतवलिकज्जलं शुभं बल्लयुग्ममवलिय सर्पिषा। भोजन करनेसे कुष्ठ जन्य दारुण विकार नष्ट वायसीशशिकलाविभीतक होते हैं। क्षौद्रमक्षमितमैक्षवान्वितम् ॥ (७७०३) शिवत्रारिरसः शीलयेदनु पयः पिबेदिमं (र. र. स. । उ. अ. २० र. च. । कुष्ठा.) चित्रदन्तिहरिरीरितो रसः । कासीसरसगन्धानि मर्दयेत्सुरसारसैः । समान भाग शुद्ध पारे और गंधककी कज्जली सम्पुटे पुटयेद्दत्वा शारीमधरोत्तराम् ॥ बनाकर ६ रत्ती मात्रानुसार घीके साथ मिला कर सर्वेमेतच्च सञ्चूर्ण्य तण्डुलान्दश सप्त वा। चाटें। इसके पश्चात् मकोय ( या काकजंग ), आरभ्य वर्धयेद्यावत्पश्चषष्टिक्रमेण हि बाबची और बहेड़े सम भाग मिश्रित चूर्णको अनुपानाय मध्वाज्यं दध्याज्यं नवनीतकम् । शहदके साथ मिलाकर ईखके रसमें घोलकर पीना पाच्याकरसैश्चैव सिन्दुकं कदलीफलम् ॥ चाहिये और उसके बाद दूध पीना चाहिये। इस श्वित्रारि सञ्जितो होष श्वित्रकुष्ठनिषूदनः ॥ | चूर्णकी मात्रा १। तोला है। शुद्ध कसीस, पारद और गन्धक समान भाग | इस विधिसे इसे सेवन करनेसे श्वित्र नष्ट ले कर तीनोंको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें | होता है । For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - भारत-भैषज्यमलाकरः [शकारादि . (७७०५) श्वेतकुष्ठारिरसः बाबचीके छिलके रहित बीस पल (१०० (र. सं. क. ।उल्ला. १: र. का. घे.। कुष्ठा.) | तोले ) बीजोंको गोमूत्रमें भिगो दें और २१ दिन निस्तुपीकृत्य बाकुच्या बीजानां पलविंशतिम । पश्चात् उनमें १०-१० तोले लोह भस्म तथा गोजलस्यं त्रिसप्ताह लोहं पथ्या पलद्वयम् ॥ हर का चूर्ण मिला कर पुनः गोमूत्र डालें और गृहीत्वा गोजले शोष्यं सूर्यतापेऽति निष्ठुर। उसे कड़ी धूपमें सुखा लें। (गोमूत्र प्रतिदिन काकोदुम्बरिकाद्रोणत्वां क्वाथे त्रिसप्तकम् ॥ नवीन लेना चाहिये और इतना ही डालना चाहिये भावयेत्तस्य चूर्णस्य गन्धसूतं समं कृतम्। । कि जितना एक दिनमें सूख जाए।) अम्लेन कज्जलीं कृत्वा सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ तदनन्तर १६ सेर कठूमरको छालके काथकी शिगुमूलरसेनापि नागवल्लीदलेन च । उसे २१ दिन तक भावना दें। (प्रति दिन तीन भावनां त्रिदिनं दत्त्वा कर्षाधीशां गुटौं कुरु ॥ | पावके लगभग छालको कूट कर ६ सेर पानीमें एकैकां भक्षयेत्मातः श्वेतकुष्ठोपशान्तये ।। पकावें और १॥ सेर पानी रहने पर छान कर वह चित्रकाशित्वचाचूर्ण रात्रौ गोदुग्धके वरम् ।। | पानी उक्त औषधमें डालकर रख दें । इसी प्रकार क्षिपेइषि विलोडयाय ग्राहयेत्तक्रमुत्तमम् ।। २१ दिन तक नित्य नवीन क्वाथ बनाकर डालते तत्ताडवं चैक मध्येऽष्टवल्लगन्धकम् ॥ | रहें । ) और फिर सुखाकर चूर्ण कर लें । पक्षिप्य गुटिकां पश्चात मपिवेदद्वित्रिसंख्यकाम। तत्पश्चात् उक्त चूर्णके बराबर शुद्ध पारद नवनीतेन चाभ्यङ्ग कार्यः स्पेयमातपे॥ | और गन्धक ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और सर्वश्वित्रे प्रजायन्ते स्फोटकाश्चामिदग्धवत । | इसे १ दिन नीबूके रस या किसी अन्य अम्ल प्रथमे सप्तके, पाको जायतेऽय द्वितीयके ॥ द्रवमें सरल करके उक्त चूर्णमें मिला दें । इसके रोहणं च तृतीये हि कुर्वन्ति च न संशयः । पश्चात् उसे सहजनेकी जड़की छाल और पानके निम्नुकस्य रसोपेतं कुडमालेपनं हितम् ॥ रसकी ३-३ भावना दे कर आधा आधा कर्षकी सतका गुटिका वापि रसस्यालेपने हिता। गोलियां बना लें। विषाणां रोहण रम्यं वर्णदं जायते भृशम् ॥ सेवन विधि-रात्रिके समय गोदुग्धमें त्रिवेलं. तक्रभक्तं च पूर्व देयं च सप्तके। चीतामूलकी छाल का चूर्ण मिला कर उसका दही मष्ठा अपि सक्षाश्च देया जाते द्विसप्तके ॥ | जमा दें और प्रातः काल उसे मथकर तक बनावें। तृतीते सप्तके देया मकुष्ठात्रिफलाघृतम् । ४० तोले इस तक्रमें ३ माशे शुद्ध गन्धक और घृतमल्पं प्रदातव्यं श्वित्रकुष्ठी वरो भवेत् ॥ २ या ३ उपरोक्त वटी मिला कर रोगीको पिला चम्पकाम परं देह कान्तियुक्तं च नीरुजम् । दें। ( मात्रा बहुत अधिक है, चिकित्सकको माप्नुयायीयुतः सम्यक्ष्मनुजो भूमिमण्डले॥ रोगीका बलाबल देख कर मात्राका निर्णय करना रसराणमभाषेण सत्यं सत्यं च नान्यथा ॥ । चाहिये ।) For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरण पञ्चमो भागः . - इस औषधके सेवन कालमें नित्य प्रति शरीर समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली पर मक्खनकी मालिश करके थोड़ी देर धूपमें बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण बैठना चाहिये। मिला कर उसे भंगरेके रसकी २१ भावना दें । __इसे इस विधिसे सेवन करनेसे प्रथम सप्ताहमें | ( रसमें खरल करके हरबार सुखा लेना चाहिये ।) श्वित्रके स्थान पर अग्निदग्ध वत् फफोले (छाले) मात्रा-१ माशा । उठेगे, दूसरे सप्ताहमें उनके स्थानमें घाव हो इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे श्वेत जायंगे और तीसरे सप्ताहमें घाव भरकर कुष्ठ नष्ट | कुष्ठ नष्ट होता है। हो जायगा। (७७०७) श्वेतारिरसः (२) घाव भर जानेके पश्चात् उनके निशानों पर (वृ. यो. त.। त. १२०) नीबूके रसमें केसर घोट कर या उक्त गुटिका तक्रमें शुद्धमूतसमं गन्धं त्रिफलां भृगराजकम् । घिस कर लगानी चाहिये ।। • पथ्य-प्रथम सप्ताहमें दिनमें तीन बार गुआं भल्लातकं कृष्णां निम्बबीज समं पृथक ॥ तक भात और दूसरे सप्ताहमें घृत रहित मौठकी मदयेभृगजद्रावैदिनमेकं निरन्तरम् । दालका यूष और भात देना चाहिये तथा तीसरे | वायसी त्वग्रसदेंया भावनाश्चैकविंशतिः॥ बाकुचीबीजनियू हैस्तावत्तिस्राः प्रकल्पयेत् । समाहमें मौठकी दालका यूष, भात और थोड़ा 'त्रिफला घृत देना चाहिये। ततः सिद्धो भवेदेष श्वेतारिन मतो रसः ॥ . इस प्रयोगसे श्वित्र कुष्ठ नष्ट हो कर शरीर | मध्वाज्यनिष्कमात्रं तं खादेच्छित्रविनाशनम् ॥ कान्तिमान हो जाता है। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, हरी, बहेडा, आ___ (७७०६) श्वेतारिरसः (१) मला, भंगरा, शुद्ध गुञ्जा, शुद्ध भिलावा, पीपल और ( भै. र. । कुष्टा. ; र. का. थे. । कुष्ठा. ; रसे. | नीमके बीज समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धचि. म. । अ. ९) ककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषशुद्धमूतं समं गन्धं त्रिफलाभृङ्गबागुजी।। धियों का बारीक चूर्ण मिला कर उसे १ भावना भल्लातकं तिलं कृष्णं निम्बबीजं समं समम् ॥ भंगरे के रसकी, २१ भावना काकजंघा ( या मदयद् भृजद्रावः शाष्य प्रष्य पुनः पुनः। | मकोय ) के रसकी और ३ भावना बाबचीके इत्यं कुर्युत्रिसप्ताहं रसः श्वेतारिको भवेत् ॥ | बीजोंके काथकी दे कर सुखा लें। . मध्वाज्यैषिमात्रन्तु खादेच्छेतं विनाशयेत् ॥ मात्रा-१ निष्क । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, त्रिफला, भंगरा, I इसे शहद और धीके साथ सेवन करनेसे बाबची, भिलावा, काले तिल और नीमके बीज ) श्वेत कुष्ठ नष्ट होता है । इति सकारादिरसप्रकरणम् - For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० भारत-भैषज्य-रत्नाकर [शकारादि अथ शकारादिमिश्रप्रकरणम् (७७०८) शङ्करस्वेदः (७७०९) शणषीजादियोगः ( भै. र. ; धन्व. । आमवाता.) (यो. र. । स्नायुका.) शणवीजचूर्ण भागमेकं, गोधूमपिष्टं भागमेक, कार्पासास्थिकुलत्यिकातिल द्वयमेकीकृत्य घृतेन पक्तव्यं गुडेन भक्षयेत् । यवैरेरण्डमूलातसी एवं त्रिदिनं कार्य स्नायुको नश्यति ॥ वर्षाभूशणवीजकानिक ____सनके बीजोंका चूर्ण और गेहूंका आटा युतैरेकीकृतैर्वा पृथक् । १-१ भाग ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर स्वेदः स्यादिति कूपरोदर ( पानीमें घोल कर ) घीमें पकावें । इसमें गुड़ शिरःस्फिपाणिपादाङ्गुली- मिला कर ३ दिन सेवन करनेसे स्नायुक (नहरवा) गुल्फस्कन्धकटीरुजो नष्ट हो जाता है। विजयते सामाः समीरानुगाः ॥ (७७१०) शरपुङ्खामूलयोगः कपासके बीज ( बिनौले ), कुलथी, तिल, (रा. मा. । स्त्रीरोगा.) जौ, अरण्डकी जड़, अलसी, पुनर्नवा और सनके मृलेन वा चिकुरमध्यगतेन बाणबीज; ये सब चीजें मिला कर अथवा इनमेंसे कोई | पुलोद्भवेन सुखमेव भवेत्प्रसूतिः ॥ एक या अधिक ले कर, पीस कर चूर्ण बनावें। शिर पर (बालोंमें) सरफोंकेकी जड़ रखनेसे और उसे कांजीमें भिगोकर उसकी दो पोटलियां । । सुख पूर्वक प्रसव हो जाता है। बनावें । तदनन्तर एक हांडीमें कांजी भरकर उसे | (७७११) शरादिक्षीरम् अग्निपर चढ़ाकर उसके मुख पर चलनी ढक दें (वृ. नि. र. । कासा.) और उसपर उपरोक्त पोटलियां रक्खें । जब कां. शरादिपञ्चमूलस्य पिप्पलीद्राक्षयोस्तथा । जीकी भाफसे पोटलियां गर्म हो जाएं तो उनमेंसे कषायेण धृतं क्षीरं पिबेत्समधुशर्करम् ।। एक पोटलीसे पीड़ा वाले स्थानको सेकें और उसके ' शर ( सरकण्डे ) की जड़, कासकी जड़, ठंडा होने पर दूसरी पोटलीसे सेकें। इसी प्रकार पोटलियोंको बदलते रहें। दाभकी जड़, ईखको जड़ और शालिमूल तथा पीपल और द्राक्षा; समान भाग ले कर काथ बनावें । इस प्रकार सेक करनेसे कूपर, उदर, शिर, इसके साथ दूध सिद्ध करके उसमें शहद और स्फिक, हाथ, पैर, उंगली, गुल्फ, स्कन्ध और खांड मिला कर पीनेसे कासका नाश होता है। कमरकी आमवातज पीड़ा नष्ट होती है। (यह योग पित्तज कासमें उपयोगी है।) For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मिश्रप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः १७१ (७७१२) शार्दूलकाभिकम् शालपर्णी, खरैटो, बेल और पृष्टपर्णी समान ( भै. र. । अग्निमांद्या.) भाग ले कर इनके पानीसे पेया बना कर उसमें पिप्पली शृङ्गवेरश्च देवदारु सचित्रकम् । । अनारका रस मिला कर खिलाना कफपित्तातिचविकां बिल्वपेशीश्च अजमोदां हरीतकीम् ॥ | सारमें उपयोगी है। महौषधं यमानीश्च धान्यकं मरिचं तथा । (७७१४) शालिपादियोगः जीरकश्चापि हिजुश्च कालिकं साधयेद् भिषक। (वृ. मा. । अतिसारा. ; हा. सं.। स्था. एष शार्दूलको नाम कालिकोऽग्निबलपदः ।। ३ अ. ३) सिद्धार्थतेलसम्भृष्टो दशरोगान् व्यपोहति ॥ शालिपर्णी पृश्निपर्णी बृहती कण्टकारिका । कासं श्वासमतीसारं पाण्डुरोगं सकामलम् | | बलाश्वदंष्ट्राबिल्वानि पाठा नागरधान्यकम् ॥ आमं च गुह्यरोगश्च वातशूलं सवेदनम् ॥ | एतदाहारसंयोगे हितं सर्वातिसारिणाम् ॥ अर्शीसि श्वयथुश्चैव भुक्ते पीतं च सात्म्यतः । शालपर्णी, पृष्टपर्णी, बड़ी कटेली, छोटी क्षीरपाफविधानेन काञ्जिकस्यापि साधनम् ॥ कटेली, खरैटी, गोखरु, बेल, पाठा, सांठ भौर ____ पिप्पली, सांठ, देवदारु, चित्रक, चन्य; धनिया। बिल्वमज्जा, अजमोदा, हरड़, सेठ, अजवाइन, इनके पानीसे आहार (पेया, यूष आदि) सिद्ध धनिया, काली मिर्च, जीरा तथा हींग प्रत्येकका चूर्ण सम भाग । सम्पूर्ण चूर्णसे ८ गुनी काली, | (७७१५) शाल्मलीपुष्पयोगः काजीसे चौगुना जल । इन सबको एकत्र पाक (वृ. यो. त. । १०५ त. ; यो. र. । प्लीहा.) करें । जब जल उड़ जाय और काजीमात्र शेष मुस्विन्नं शाल्मलीपुष्पं निशापर्युषितं नरः। रहे तब उतार लें। यह शार्दूलकाजिक अग्नि | राजिकाचूर्णसंयुक्तमद्यात्प्लीहोपशान्तये ॥ तथा बलको बढ़ाता है । इसे श्वेत सरसेकि तेलमें संभलके फूलोंको शममके वक्त सिजा कर छौंक करके यथायोग्य मात्रामें सेवन करावें । ( स्विन्न करके ) रख दें और प्रातः काल उसमें इसके सेवनसे कास, श्वास, अतीसार, पाण्डु, का- | राईका चूर्ण मिलाकर खावें। मला, आमदोष, गुह्यरोग, वातशूल, अर्श तथा इसके सेवनसे प्लीहा वृद्धिका नाश होता है । श्वयथु आदि रोग नष्ट होते हैं। काजीका पाक (७७१६) शिग्रुपत्ररसाइच्योतनम् मी क्षीरपाकके समान ही होता है । (रा. मा.। नेत्ररोगा.) (७७१३) शालिपादिपेया । क्षौद्रान्वितः शिग्रुदलोद्भवो वा (प. से. । अतिसारा.) रसोऽक्षिण दत्तोऽनिरुजं क्षिणोति । चालिपी बला बिल्वैः पृथकपर्णी च साधिता। सइंजनेके पत्तोंके रसमें शहद मिला कर दारिमाम्लयुता पेया श्लेष्मपिसातिसारिणाम ॥ | आंखमें डालनेसे नेत्रपीड़ा शान्त होती है। For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १७२ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः (७७१७) शिग्रुपत्रादिपिण्डी ( यो. र. | नेत्ररोगा . ) शिग्रु पत्रकृता पिण्डी श्लेष्माभिष्यन्दहारिणी । सहजने के पत्तों को पीस कर टिकिया बना कर आंखपर बांधने से कफज नेत्राभिष्यन्द नष्ट होता है । (७७१८) शिरीषपुष्पादियोगः ( यो. त. । त. ७८; वृ. नि. र. । विषा. ) शिरीषपुष्पस्वर से सप्ताहं मरिचं सितम् । भावितं सर्पदष्टानां पाननस्याञ्जने हितम् ॥ सिरस के फूलों के रस में सात दिन तक सफेद मिचको भिगोए रेक्खें और फिर बारीक चूर्ण कर लें। यह चूर्ण पिलाने तथा इसकी नस्य देने और इसका अंजन लगाने से सर्पविष नष्ट हो जाता है । ( सफेद मिर्च = सजने के बीज ) (७७१९) शिरीषादिकवलग्रहः ( ग. नि. । विस्फोटका ४० ) शिरीपपूग मञ्जिष्ठादामलकयष्टिकैः सजातीपक्षौद्रैर्विस्फोटे कवलग्रहः ॥ सिरेसकी छाल, सुपारी, मजीठ, दारूहल्दी, आमला, मुलैठी और चमेली के पत्ते समान भाग लेकर कल्क बनावें । इसमें शहद मिला कर कवल धारण करने से विस्फोटक में लाभ पहुंचता है । (७७२०) शिशिरजलयोगः ( रा. मा. । रक्तपित्ता. १० ) पिबति शिशिरमम्भो यः प्रभाते निशायां तदनु च शयनीयाधिष्ठितो याति निद्राम् । [ शकारादि ध्रुवमतिविषमोऽपि क्षीयतेऽस्य त्रिरात्रादधिगतपरिपाकः पीनसः स्निग्धभोक्तुः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रातः काल ( कुछ रात्रि शेष रहने पर ) शीतल जल पान करके सो जानेसे तीन दिनमें कठिन और पक पीनस रोग भी अवश्य नष्ट हो है। पथ्य में स्निग्धाहार करना चाहिये । (७७२१) शीतजलकुम्भधारणम् ( रा. मा. । क्षुद्र रोगा. ३०) आरोपिते मूर्धनि शीतवारि कुम्भे शर्म गच्छति तत्क्षणेन । असृक्प्रवाह: मदरामयोत्थः स्त्रीणां नदीस्रोत इवावरोधात् ॥ शिर पर ठण्डे पानीसे भरा हुवा घड़ा रखसे स्त्रियोंके रक्त प्रदरका रक्तस्राव तुरन्त बन्द हो जाता है । (७७२२) शीतलजलधार (योगः ( भा. प्र. म. खं. २ । ज्वरा. ) उत्तानसुप्तस्य गभीरताम्र कांस्यादिपात्रे निहिते च नाभौ । शीताम्बुधारा बहुला पतन्ती निहन्ति दाहं त्वरितं ज्वरश्च ॥ वरमें दाह अधिक हो तो रोगीको पीठके बल लिटा कर उसकी नाभि पर ताम्र या कांसीका गहरा पात्र रख कर उसमें शीतल जलकी धारा छोड़नी चाहिये। इससे दाह शीघ्र ही शान्त हो जाती है । For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७३ मिश्रप्रकरणम् पञ्चमो भागः (७७२३) शीतजलपानयोगः (७७२६) शुण्ठीपुटपाका (वृ. मा.। मदात्यया.) (व. से. । अतिसारा.) छर्दिमातिसारं च मदं पूगफलोद्भवम् । शुण्ठीमल्पधृतान्वितां परिवृतां गोधूमपिष्टैस्ततः। | सद्यो गोमयवेष्टितान्तु विपचेन्मन्दाग्निनाचातुरः।। सद्यस्तच्छमयेत्पीतमातृप्तवारिशीतलम् ॥ | शीतीकृत्य सितासमां प्रतिदिनं भक्षेन्नरः पेट भर शीतल पानी पीनेसे छर्दि, मूर्छा, पथ्यभुक् । अतिसार और सुपारीका नशा शीघ्र ही नष्ट सर्वोपद्रवसंयुतानपि जयेद्दीर्घातिसारामयान्॥ हो जाता है। ___ सेठको थोड़ा घी लगा कर पानीमें भीगे (७७२४) शीताम्बुयोगः हुवे गेहूंके आटेमें लपेटकर गोला बनावें और (ग. नि. । अजीर्णा. ५) उसके ऊपर गायके ताजे गोबरका १ अंगुल मोटा लेप करके मन्दाग्निमें पकावें । जब गोलेका रंग अन्नं विदग्धं हि नरस्य शीघ्र लाल हो जाय तो उसे निकालकर ठंडा करलें । शीताम्बुना वै परिपाकमेति । तदनन्तर सोंठको निकालकर पीस लें और उसमें तवस्य शैत्येन निहन्ति पित्त समान भाग मिश्री मिलाकर रखें। माक्लेदिभावाच्च नयत्यधस्तात् ॥ इसे सेवन करने और पथ्यपूर्वक रहनेसे उपविदग्धाजीर्णमें ठण्डा पानी पीनेसे शीतलताके ! द्रवयुक्त पुराना अतिसार भी नष्ट हो जाता है। कारण पिस शान्त हो कर अन्न पच जाता है (७७२७) शुण्ठयादिपायसः और द्रवताके कारण वह पचा हुवा आहार नीचेको (ग. नि. । वाता. १९; वृ. मा. । वातव्या.; उत्तर जाता है। व. से. । वातव्या.) . (७७२५) शीतोदकादियोगः । शुण्ठीगन्धर्वबीजाभ्यां पिष्टाभ्यां पायसः कृतः। (ग. नि. । सा. रसा. १) भक्षितस्तु कटीशूलं गृध्रसी इन्त्यसंशयम् ॥ ___ सोंठ और अण्डीके तुष रहित बीजोंकी दूधमें शीतोदकं पयः क्षौद्रं सपिरित्येकशो द्विशः। खीर बनाकर खानेसे कटिशूल और गृध्रसीका विशः समस्तमथवा प्राक्पीतं स्थापयेद्वयः ॥ | अवश्य नाश हो जाता है। प्रातःकाल ( उषःकालमें ) शीतल जल, दूध, । (७७२८) शुण्ठधादिपिण्डी शहद और घीमेंसे कोई एक पदार्थ, अथवा दो | (वं. से.; वृ. मा. । नेत्ररोगा.; र. र. । नेत्ररो.) या तीन, अथवा चारों पदार्थ पीनेसे आयु स्थिर | शुण्ठीनिम्बदलैः पिण्ड:मुखोष्णः स्वल्पसैन्धवैः होती है। | धार्यश्चक्षुषि संक्षेपाच्छोफकण्डूव्यथापहः॥ For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः ( मात्रा - ३ - ४ माशे । दिनमें २-३ बार उष्णजलसे दें | ) १७४ सोंठ और नीमके पत्तोंको पीसकर उसमें थोड़ा सेंधानमक मिलाकर जरा गर्म करलें और उसकी टिकिया बनाकर आंखपर बांधें । इससे आंखोंकी सूजन, खुजली और पीड़ा नष्ट होती है । (७७२९) शुण्ठयादिपुटपाकः (१) ( वै. मृ. । विषय २; शा. सं. । खं. २ अ. २) किश्चित् घृताक्तौषधचूर्णमेतदेरण्डपत्रावृतमग्निपक्वम् । सिता समं हन्ति तनोति चैतदामातिसारं जठरानलं च ॥ सेठको थोड़ा घी लगाकर अरण्डके पत्तों में लपेटकर गोला बनावें और उसपर मिट्टीका लेप करके पुटपाक करें । इसे मिश्री के साथ सेवन ( वृ. मा. । उदावर्ता; वं. से.; यो. र. । उदाकरनेसे आमातिसार नष्ट होता और अग्नि दीप्त होती है। वर्ता.; ग. नि. । उदावर्ता. २४) (७७३०) शुण्ठयादिपुटपाकः (२) (शा. सं. । खं. २ अ. २; भा. प्र. | म. खं. २) एरण्डरससम्पिष्टं पक्वमामञ्च नागरम् । आमातीसारशूलघ्नं पाचनं दीपनं परम् || . कच्ची अथवा पुटपाक विधि पकाई हुई सेठको अरण्डकी जड़के रसमें पीसकर सेवन करनेसे आमातिसार और शूलका नाश होता है । यह योग अत्यन्त दीपन और पाचन है । ( मात्रा - १-२ मारो | गुड़में मिलाकर उष्ण जलके साथ सेवन करें । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शकारादि (७७३१) शेफालिका मूलयोगः ( ग. नि. । मुखरोगा. ५ ) शेफालिका मूलमुशन्ति कण्ठशालूकहन्तु प्रविचर्वितं सत् । रोगं निहन्यादुपजिह्विकाख्यं नासान्तरप्रस्रुतरक्तधाराम् || शेफालिका ( हारसिहार) की जड़को चबाने से कण्ठशालूक, उपजिह्वा और नासासे होनेवाला रक्तस्राव नष्ट होता है । ( नासासे रक्तस्राव होने की दशामें पीसकर रस निचोड़कर उसकी नस्य लेनी चाहिये । ) (७७३२) श्यामादिगणः ૧ श्यामा दन्ती द्रवन्तीत्व महाश्यामा स्नुही त्रिवृत् । सप्तला शङ्खिनी श्वेता राजवृक्षः सतिल्वकः ' ॥ कम्पिलकः करञ्जश्च हेमक्षीरीत्ययं गणः । सर्पिस्तैलरजःक्काथकल्केष्वन्यतमेन तु ॥ उदावर्तोदरानाहविषगुल्म विनाशनः ॥ काली निसोत, दन्ती, द्रवन्तीकी छाल, विधारा, सेंड (थूहर ), निसोत, सप्तला, शंखिनी, सफेद कोयल, अमलतास, तिल्वक, कमीला, करञ्ज और स्वर्णी । इनसे सिद्ध घृत, तेल या इनका चूर्ण, काथ और कल्क उदावर्त, उदर, आनाह, विष और है 1 गुल्मको नष्ट करता १ "सबिल्वकः" इति पाठभेदः For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रपकरणम् ] पञ्चमो भागः - (७७३३) श्यामादिवतिः कामरूपोद्भवां ग्राह्यां गुडस्यादतुलां तथा । (च. सं. | चि. अ. २६) सर्वमेकत्र सम्म सषष्टित्रिशतं शुभम् ॥ श्यामात्रिवृन्मागधिकामिचूर्ण । मोदकं कारयेद्धीमान समभागेन यवतः । गोमूत्रपीतं दशभागमाषम् ॥ प्रत्यहं प्रातरेवैतत्यानीयेनैव भक्षयेत् ॥ सनीलिकं द्विलवणं गुडेन । एवं निरन्तर कार्य सम्बतसरमतन्द्रितः । वधि कराङ्गष्ठनिभां विदध्यात् ॥ प्रथमे मासि वाग्युक्तो द्वितीये बलवर्णवान् ॥ काली निसोत, पीपल, चीता और नीलकी तृतीये नाशयेत्कुष्ठं श्वासकासौ तुरीयके । जड़ इनका चूर्ण १०-१० माशे तथा सेंधानमक | पञ्चमे स्त्रीमियत्वं च षष्ठे च पलितक्षयः॥ २० माशे लेकर सबको गोमूत्र में खरल करें और सप्तमे कान्तियुक्तश्च अष्टमे बलवान् भवेत् । फिर गुड़में मिलाकर रोगीके अंगूठेके समान बत्तियां | नवमे च शतायुः स्यादशमे च स्वरान्वितः ॥ बना लें। महाबलस्त्वेकादशे अदृश्यो द्वादशे भवेत् । __इनमें से एक बत्तीको घी लगाकर रोगीके | इच्छाहारविहारी स्यात्ततो दैत्यरिपोः समः। मलमार्गमें रखनेसे उदावर्त रोग नष्ट होता है। पडतिरहितो देही प्रामोति कल्पजीवितम् । (७७३४) श्योनाकादि योगः युवा निरन्तरं तिष्ठेद् यावत्कालश्च जीवति ।। (व. से. । अतिसारा.) भवन्ति सिद्धयोऽस्याष्टौ याचापि परिकीर्तिताः। श्री सिद्धमोदको ह्येष सिद्धादिषु निषेवितः ।। अरलत्वक् मियश्चि मधुकं दाडिमाङ्कुरान । सांठ. 'मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और अवाप्य पिष्टवा विपचेघवागं दधितां पिबेत् ॥ आमला; इनका चूर्ण ५-५ तोले तथा गिलोय, एषा सर्वानतीसारान् हन्ति पकानसंशयः ॥ | बायबिडंग, पीपलामूल, गठीवन और लाल चीतेकी __ अरलुकी छाल, फूलप्रियंगु, मुलैठी और जड़; इनका चूर्ण १०-१० तोले एवं आसाम अनारकी कॉपलेसे यवागू सिद्ध करके उसमें दही | देशका गुड़ ३ सेर १० तोले ले कर सबको मिलाकर खानेसे समस्त प्रकारके पक्कातिसार नष्ट | एकत्र मिला कर मर्दन करें और ३६० मोदक होते हैं। | बना कर सुरक्षित रखें। (७७३५) श्री सिद्धमोदकः इनमेंसे १-१ मोदक प्रतिदिन प्रातःकाल (भै. र. । रसायना.) जलके साथ सेवन करें । इसी प्रकार इन्हें निरन्तर त्रिकटोस्त्रिपलं चूर्ण त्रिफलाया: पलत्रयम् । १ वर्ष तक सेवन करना चाहिये । गुडूच्याश्च विडङ्गानां ग्रन्थिकान्थिपर्णयोः॥ इसके सेवनसे मनुष्य प्रथम मासमें वाग्मी रक्तचित्राजि चूर्ण ग्राह्यश्चापि पृथक् पृथक् ।। और दूसरे महीने में बल वर्ण युक्त हो जाता है। प्रत्येक द्विपलश्वेषां गृहीयान्मतिमानरः॥ तीसरे मासमें कुष्ठ और चौथेमें श्वास कासका For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [शकारादि - नाश हो जाता है । इसे ५ मास तक सेवन कर- सफेद कनेरकी कोंपलोंको मल कर रस निनेसे काम शक्ति बढ़ती है और ६ मास तक सेवन काल कर आंखमें डालनेसे तुरन्तकी दुखने आई करनेसे पलित ( बालोंका श्वेत होना ) रोग नष्ट हुई आंखको आराम हो जाता है। हो जाता है । यदि सात मास तक यह औषध (५७३७) श्वेतगिरिकांदियोगः सेवन की जाय तो शरीर कान्तिमान हो जाता है; (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) आठ मासमें बल बढ़ जाता है । ९ मास तक श्वेताद्रिकाः सेवन करने वाला मनुष्य १०० वर्ष तक जीवित सपुनर्नवाया रहता है । इसे निरन्तर १० मास सेवन करनेसे मूलैः मुपिष्टैर्यवचूर्णयुक्तैः। विलोचनं पूरितमम्बुयुक्तैमनुष्यका स्वर अति श्रेष्ठ हो जाता है। ११ मासमें शरीरका बल अत्यधिक बढ़ जाता है और विमुच्यते पुष्पकृतोपसर्गात् ।। पूरे १ वर्ष तक सेवन करने वाला तो अदृश्य हो सफेद कोयलकी जड़, पुनर्नवा (बिसखपरे)की जाता है (१) जड़ और जौके चूर्णको पानीके साथ बारीक पीस १ वर्ष तक इसे सेवन करनेके पश्चात् इच्छा कर कपड़ेसे छान लें। नुसार आहार विहार किया जा सकता है। इसे इसे आंखमें डालनेसे फूली नष्ट होती है । सेवन करते रहनेसे मनुष्य समस्त पीड़ाओंसे मुक्त (७७३८) श्वेतापराजितामूलयोगः हो कर कल्प पर्यन्त जीवित रहता है तथा उसे ___ (रा. मा. । मुखरोगो. ६) कभी वृद्धावस्था नहीं आती। पुष्ये गृहीतं गिरिकणिकाया इसे सेवन करने वाले मनुष्यको आठों सि मूल सिताया गलके निबद्धम् । द्रियां प्राप्त हो जाती हैं। गव्येन लीढं यदि वा घृतेन (७७३६) श्वेतकरवीररस-योगः । निहन्ति घोरामपचीं तदेव ॥ ( रा. मा. । अ. ३) सफेद कोयलकी जड़को गलेगें बांधने तथा श्वेत करवीराकसलयविच्छेदरसेन पूरिताक्षस्य । गोघृतमें मिला कर चाटनेसे घोर अपची भी नष्ट तत्कालसमुत्पनो नयनप्रकोपः शमं याति ॥ । हो जाती है। इति शकारादिमिश्रमकरणम् For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम् ] पश्चमी भागः १७७ अथ षकारादिकषायप्रकरणम् (७७३९) षडङ्गक्वाथ ___ खस, लाल चन्दन, सुगन्धबाला, द्राक्षा (यो. चि. । का. ; भा. प्र. । शिरो. ; (मुनक्का), आमला और पित्तपापड़ा समान भाग ले कर इनसे पानी सिद्ध करें। वृ. नि. र. | शिरो.) यह पानी दाह, पिपासा और ज्वरको शान्त पथ्याक्षधात्रीभूनिम्बैनिशानिम्बामृतायुतैः। करता है। कृतः क्वाथः षडङ्गोयं सगुडः शीर्षशूलहा ॥ (समस्त ओषधियां समान भाग मिश्रित १॥ भ्रशङ्ककर्णशूलानि तथाशिरसोरुजम् । | तोला, पानी १ सेर, शेष आधा सेर । ठंडा होने सूर्यावर्त शङ्ख च दन्तपातञ्च तद्रुजः ॥ नक्तान्ध्यं पटलं शुक्र चक्षुःपीडां व्यपोहति । षडङ्गपानीयम् (२) हर्र, आमला, चिरायता, हल्दी, नीमकी (भै. र. । ज्वरा. ; च, द. । ज्वरा.) छाल और गिलोय समान भाग ले कर काथ प्र. सं. ५०७८ देखिये । बनावें । ___(७७४१) षोडशाङ्गः (र. र. । ज्वरा.) ___ इसमें गुड़ मिला कर सेवन करनेसे शिर त्र्यूषणं दशमूलं शठी शृङ्गी भार्गी छिन्नोद्भवः शूल, भ्रशूल, शंखक शूल, कर्ण शूल, अर्धावभेद, | क्वाथः। सूर्यावर्त, शंखक, दन्तपात, दन्त पीड़ा, नक्तान्ध्य, । पटल, शुक्र और चक्षुपीडाका नाश होता है। '| पीतः शमयति सहसा ज्वरं चोग्रं सन्निपात भवम् ॥ (७७४०) षडङ्गपानीयम् (१) सोंठ, मिर्च, पीपल, दशमूलकी प्रत्येक _ ( भा. प्र. । म. खं. २ सन्निपाता.) । औषधि, कचूर, काकडासिंगी, भरंगी और गिलोय उशीरचन्दनोदीच्यद्राक्षामलकपर्पटैः। समान भाग ले कर काथ बनावें । शृतं शीतं जलं दद्याद्दाहतृड्ज्वरशान्तये ॥ यह काथ उग्र सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है। इति षकारादिकषायपकरणम् -HD 23 For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [पकारादि - - अथ षकारादिचूर्णप्रकरणम् (७७४२) षड्धरणयोगः (षट्चरणयोगः) | धान्यसौवर्चलाजाजीत्वगेलाश्चार्धकार्षिकाः । ( भा. प्र. म. खं. २ ; वृ. नि. र. : वृ. मा.। | कोलदारिमवृक्षाम्लयवान्यश्चाम्लवेतसः । वातव्या. ; यो. चि. म. । अ. २ | कार्षिकांपूर्णयेत्सर्वान् हृद्यं त्वन्नमरोचकम् । ग. नि. । वाता. १९; व. प्लीहग्रहणीदोषपञ्चकासनिबर्हणम् ॥ से. । वातव्या.) पीपल १०० नग, काली मिर्च २०० नग, चित्रकेन्द्रयवौ पाग कटुकातिविषाऽभया । मिश्री २० तोले, सेठ २॥ तोले तथा धनिया, आमाशयोत्यवातघ्नं चूर्ण पेयं सुखाम्बुना ।। सञ्चल, जीरा, दालचीनी और इलायची आधा योगेऽस्मिन्भिषजाग्राह्याः षण्णांषधरणापृथक् । आधा कर्ष (प्रत्येक ७॥ माशे ) एवं बेर, अ नारदाना, तिन्तड़ीक, अजवायन और अम्लबेत दिनेषु षट्स दातव्यास्तेन षड्धरणः स्मृतः॥ ११-१। तोला ले कर यथा विधि चूर्ण चीता, इन्द्रजौ, पाठा, कुटकी, अतीस और बनावें। हरं १-१ धरण (४-५ माशे) ले कर चूर्ण यह चूर्ण हृय, रोचक तथा प्लीहा, ग्रहणीबनावें । इसमेंसे नित्य १ धरण चूर्ण मन्दोष्ण दोष, और पांच प्रकारकी कासको नष्ट करने जलके साथ सेवन करनेसे आमाशयगत वायुका वाला है। नाश होता है। ( मात्रा--२-३ माशे । ) _इस योगमें ६ ओषधियां हैं और प्रत्येक (७७४४) षाडवं चूर्णम् (२) ओषधि १-१ धरण ली जाती है अर्थात् सम्पूर्ण | (च. सं. । चि. अ. १६) योगका भार ६ धरण होता है और ६ दिन तक एका षोडशिका धान्यावे द्वेऽजाज्यजमोदयोः। १-१ धरण चूर्ण सेवन किया जाता है इसी लिये | ताभ्यां दाडिमक्षाम्लाविर्द्विः सौवर्चलात्पलम् ॥ इसे “ षडधरण" कहते हैं (इस योगमें ६ चरण | शुण्ठया कर्ष दधित्थस्य मध्यात्पश्चपलानि च। अर्थात् अङ्ग हैं इससे इसे 'षट्चरण ' भी | तच्चूणे षोडशपले शकराया विमिश्रयेत् ॥ कहते हैं।) पाडवोऽयं प्रदेयः स्यादनपानेषु पूर्ववत् । (७७४३) षाडवं चूर्णम्(१) मन्दानले शकुद्रेदे यक्ष्मिणामग्निवर्द्धनः ॥ धनिया ५ तोले; जीरा और अजवायन (ग. नि. | चूर्णा. ३ ) | १०-१० तोले, अनारदाना और तिन्तडीक पिप्पलीनां शतं चैक द्वे शते मरिचस्य च। ४०-४० तोले, काला नमक ५ तोले, सेठ १। सिता पलचतुष्कं च नागरार्धपलं तथा ॥ तोला और कैथका गूदा २५ तोले ले कर यथा For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुपकरणम् ] पश्चमो भागः १७९ विधि चूर्ण बनावें । तदनन्तर उसमें ८० तोले । इसके सेवनसे ज्वर और शूलका नाश खांड मिला कर सुरक्षित रक्खें । होता है। इसे अन्न पानादिमें प्रयुक्त करना चाहिये। ( मात्रा-१॥-२ माशा । ) यह चूर्ण यस्मा रोगमें अग्निमांद्य और मलभे- ___(७७४६) षोडशाङ्गपूर्णम् (२) दकी दशामें उपयोगी है । यह, रोचक, बल्य और (वृ. नि. र. । ज्वरा.) दोपन है तथा श्वास, कास और पार्श्वपीडाको | भूनिम्बपथ्याघनकण्टकारी नष्ट करता है। प्रायन्तिकानागरयासतिता। (७७४५) षोडशाङ्गचूर्णम् (१) वाटचालकचूंरकणापटोली (यो. चि. म. । अ. २) । क्षुद्राजलग्रन्थिकपपैठाव ॥ किरातं तितकं तिक्ता गुड्ची चाभया धनम् । एषां ततो षोडशकाचूर्ण धन्वयासकवायत्री क्षुद्रा शृङ्गी महौषधी ॥ । ज्वरान् समस्तान्विषमाभिहन्ति । पटं च प्रियङ्ग च पटोलं मगधी षटी। । चिरायता, हर्र, नागरमोथा, कटेली, वायषोडशामिति प्रोक्तं ज्वरशूलविनाशनम् ॥ माना, सांठ, धमासा, कुटकी, खरैटी, कचर, पीपल, चिरायता, नीमकी छाल, कुटकी, गिलोय, हरे, पटोल, कटेली, सुगन्धवाला, पीपलामूल और पित्तनागरमोथा, धमासा, बायमाणा, कटेली, काकड़ा- पापड़ा समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। सिंगी, सेठ, पित्तपापड़ा, फूलप्रियंगु, पटोल, यह चूर्ण समस्त विषम ज्वरोंको नष्ट पीपल और कचूर समान भाग ले कर चूर्ण करता है । बनावें। (मात्रा-२-३ माशा ।) इति षकारादिचूर्णप्रकरणम् अथ षकारादिगुग्गुलु-प्रकरणम् (७७४७) षडङ्गगुग्गुलुः (१) रास्ना, गिलोय, देवदारु, सोंठ और अरण्ड | मूल; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल (र. र. स.। उ. अ. २१) ६ भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर थोड़ा सा रास्नामृतादेवदारुशुण्ठीवातारितुल्यकम् । | घी मिलाकर करें। गुग्गुलं सर्वतुल्यांशं कुट्टयेद् घृतवासितम् ॥ मात्रा-११ तोला । (व्यवहारिक मात्रा-१ कपोशं भक्षयेच्चानु ख्यातः षडागुग्गुलु:॥ | माशा ) (इसके सेवनसे वातव्याधि नष्ट होती है।) For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १८० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [षकारादि (७७४८) षडङ्गगुग्गुलुः (२) जातीपत्रीफलैलं च केशरं त्वकिरातकम् । (षडाघृतगुग्गुलुः) कुङ्कुम देवकुसुमं विशाला निशिसैन्धवम् ॥ (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३; च. द. । नेत्र. ५८: । मन्दारमूलं कृमिजिद्धेमदुग्धा रविपिया। भै. र. । नेत्ररोगा.) गजपिपल्यपामार्गों वानरी नक्तमालकः ॥ विभीतकशिवाधात्री पटोलारिष्टवासकैः।। एतै रारना समा चामा द्विगुणा तैः पुरः समः । सूतं गन्धं हिङ्गलं च टङ्कणं लोहमभ्रकम् ॥ क्वायो गुग्गुलुना पेयः शोथाक्षिपाकशूलहा ।। पिल्लं च सत्रणं शुक्रं रोगादींश्च विनाशयेत् । "| शुल्वं वङ्गं सूतभरम नागं ताप्यमयोरजः । एतैरेव घृतं पक्वं रोगांस्तांस्ताञ्जयेदभृशम् ॥ | मिलितं पुरपादं च सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ पचेञ्चतुर्गुणे काथे पुरं पटकटुजे पुरा । बहेड़ा, हर्र, आमला, पटोल, नीमकी छाल, | और बासा समान भाग लेकर काथ बनावें । तुर्याशशेषिते काथे पूते चात्र विनिक्षिपेत् ।। इसमें गूगल मिलाकर पीनेसे आंखोंकी सूजन, चूर्णानि पुरमुख्यानि पाचयेन्मृदुवह्निना। अक्षिपाक, नेत्रशूल, पिल्ल और सबण शुक्रादि नेत्र यावद्धनतरं तावद्गुटिकाः कारयेत्ततः ॥ रोगांका नाश होता है। स्वर्णप्रमाणाः सेव्यास्ता मधुसर्पिःसमन्विताः। | सप्तधातुगतान्बाताग्छिरास्नायवस्थिसन्धिगान् ।। इन्हीं ओषधियोंसे सिद्ध घृत भी उपरोक्त रोगों सामाभिरामान्संसृष्टाञ्छ्रेष्मजान्नन्ति केवलान् । को नष्ट करता है। यक्ष्माणमग्निमान्यं च ज्वरं धातुगतं तथा ॥ (घी १ सेर । काथ-समस्त ओषधियां गुल्फजानूरुकटयूरूदर हृत्कुक्षिकक्षगान् । समान भाग मिलित २ सेर, पानी १६ सेर, शेष अंसमन्याहनुश्रोत्रभूललाराक्षिशङ्खगान् ॥ ४ सेर | कल्क-शुद्ध गूगल १० तोले । ) | प्रमेहं मूत्रकृच्छ्रे च शूलमाध्मानमश्मरीम् । (७७४९) षडशीतिगुग्गुळुः किं पुनमैदकान्वातान्प्रत्यङ्गस्थानयत्यलम् ।। (यो. र. वातव्या.) गुग्गुलुः षडशीति: नाना भोजेन कीर्तितः। सैर्ययासविषादारुच्याघ्रीयुकच विकापम् ।। क्षीयमाणेन शिष्येण प्रार्थितेन पुनः पुनः ।। कृष्णान्दोग्राघनाभीरुवाटयालं मिशिवेल्लरी॥ स एष राजयोगोऽयं न देयो यस्य कस्यचित् । पथ्या शुण्ठी छिनरुहा शठ्यारग्वधगोक्षुरम् । वत्सरेणास्य योगेन पण्डोऽपि प्रमदामियः ॥ विशाखामोदकी तिक्ता ग्रन्थिमार्गी विदारिका॥ वाजीकरणमन्यच्च परं नास्माद्विशेषतः । अलम्बुषा इस्तिकर्णी बस्तगन्धा विषाणिका । गुणोऽस्य सेवनान्नित्यं यः स्यात्सस्थाब्रवीमिकिम् शिवाक्षं मुशलीकौन्तोकाकोलीदीप्ययुग्मकम् ॥ एष नो परिहार्यस्तु पानभोजनमैथुनैः । त्रिवृदन्ती शिखी शृङ्गी कोकिलाक्षो दुरालभा। कटसरैया, जवासा, अतीस, देवदारु, छोटी पञ्चमूलं महद्वीरतरुः कुष्ठं च जोरकम् ॥ बड़ी केटली, चव, बासा, पीपल, नागरमोथा, बच, For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुपकरणम् ] पञ्चमो भागः १८१ - धनिया, शतावर, खरैटी, सोया, काला विधारा, हरं, इन्हें शहद और घीके साथ मिला कर सेवन सोंठ, गिलोय, कचूर, अमलतासके फलकी मज्जा, | करनेसे समस्त धातुगत वायु, शिर, स्नायु, सन्धि गोखरु, पुनर्नवामूल, मूर्वा, कुटकी, पीपलामूल, | और अस्थिगत वायु; आमवात, निराम वायु, कफभरंगी, विदारीकन्द, मुण्डी, हस्तिकर्णी (कासाल), युक्त वायु, क्षय, अग्निमांद्य, धातुगत ज्वर; गुल्फ, अजमोद, काकड़ासिंगी, रुद्राक्ष, मूसली, रेणुका, | जानु, उरु, कटि, उदर, हृदय, कुक्षि, कक्षा, काकोली, जीरा, काला जीरा, निसोत, दन्तीमूल, स्कन्ध, मन्या, हनु, श्रोत्र, भ्र, ललाट, नेत्र और चित्रकमूल, अतीस, तालमखाना, धमासा, वृहत्पंच- शंख प्रदेश (कनपटी), इनकी वायु; प्रमेह, मूत्रमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और अरनी; कृच्छ, शूल, आध्मान, अश्मरी और मेद वायुका इनकी जड़की छाल ), अर्जुनछाल, कूठ, अगर, | नाश होता है। जावत्री, जायफल, इलायची, नागकेसर, दालचीनी, दिनों दिन क्षीण होते हुवे एक शिष्यके चिरायता, केसर, लौंग, इन्द्रायणकी जड़, सेंधानमक, 3 बार बार प्रार्थना करने पर भोजराजने यह प्रयोग हल्दी, सफेदआकको जड़, बायविडंग, सत्यानासी बतलाया था। ( स्वर्णक्षीरो की जड़, हुलहुल, गजपीपल, अपा- इसे एक वर्ष तक सेवन करनेसे नपुंसक भी मार्ग (चिरचिटा), कौंचके वीज और करन मूल कामिनी-वल्लभ हो जाता है। १-१ भाग, रास्ना इन सबके बराबर और इसके सेवन कालमें खान पान और मैथु कीकरकी फली दो गुनी तथा कीकरकी फली नादिमें विशेष परहेज की आवश्यकता नहीं है। समेत सम्पूर्ण ओषधियों के बराबर शुद्ध गूगल (षट् कटु गूगलसे २ गुना ले कर उसे एवं पारद, गन्धक, हिंगुल, सुहागेकी खील, १६ गुने पानीमें पका कर चौथा भाग रहने पर लोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, वंग | छान कर उसमें गूगल मिला कर पकाना चाहिये। भस्म, पारद भस्म, सीसा भस्म और लोह भस्म; यदि शुद्ध गूगल डाला जाय तो पुनः छाननेकी ये सब औषधे समान भाग मिलित गूगलसे चतु आवश्यकता नहीं रहती । व्यवहारिक मात्रा-१ थांश ले कर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें माशा ।) और फिर गूगलको षटकटु ( पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठ तथा काली मिर्च ) के ४ गुने (७७५०) षडूषणगुग्गुलु: ( आठ गुने ) काथमें पकावें । जब चथुर्थाश काथ। ( यो. र. । मेद.; वृ. यो. त.। त. १०७ ; शेष रह जाय तो उसे छान कर उसमें उपरोक्त - वृ. नि. र. । वृद्धय.) सम्पूर्ण काष्ठादि ओषधियों का चूर्ण और भस्में षडूषणं क्षौद्रसमं गुग्गुलुं गव्यसर्पिषा। मिला कर पुनः मन्दाग्नि पर पकायें। जब गाढ़ा प्रयुक्तं कुट्टय भुजीत यथामि दिवसानने ॥ हो जाय तो ११-११ तोलेकी गोलियां बना लें। | कटुतिक्तकषायाशी मेदोवृद्रिमणाशनम् । For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १८२ षडूषण ( पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, और कालीमिर्च ) का चूर्ण, शहद, शुद्ध गूगल और गायका घी समान भाग लेकर सबको एकत्र कूटकर रक्खें । भारत - भैषज्य रत्नाकरः (७७५१) षटूपलघृतम् (१) ( वृ. मा.; व. से.; वृ. नि. र. । विषमज्वरा; व. से. । उदरा ; ग. नि. । घृता. १; सु. सं. । चि. अ. १४ उदरा. ) पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः । ससैन्धवैश्च पलिकै घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ क्षीरं चतुर्गुणं दद्यात्तद् घृतं प्लीहनाशनम् । विषमज्वर मन्दाग्निहरं रुचिकरं परम् ॥ कल्क — पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ और सेंधानमक; इनका चूर्ण ५-५ तोले लेकर सबको पानी से पीस लें । इति षकारादिगुग्गुलुमकरणम 腰不好冬 अथ षकारादिघृतप्रकरणम् २ सेर घी में यह कल्क और ८ सेर दूध मिलाकर दूध जलने तक पकावें और फिर छान लें। यह घृत प्लीहा, विषमज्वर और अग्निमांद्यको नष्ट करता है तथा रोचक है । कुर्यादर्धपलांशापर्पटकं त्रायमाणां च ॥ (७७५२) षट्पलघृतम् (२) (यो. र. । कुष्ठा.) निम्बं पटोलदाय दुरालभां तिक्तरोहिणीं त्रिफलाम् । [ चकारादि इसे प्रातः काल यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे मेदी वृद्धि नष्ट होती है । पथ्य में कटु, तिक्त और कषाय रसयुक्त पदार्थ देने चाहियें । ( मात्रा --- १-१ ॥ माशा ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सलिलाढक सिद्धानां रसेष्टभागस्थिते पूते । चन्दन किराततिक्तकमागधिका त्रायमाणां च ॥ मुस्तं वत्सsati कल्की कृत्यार्थ का र्षिकान्भा - गान् । नवसर्पिषश्च षट्पलमेतत्सिद्धं घृतं पेयम् ॥ कुठवर गुल्माशग्रहणीपाण्ड्वामयान्हन्ति । पाम विसर्प पिटिका कण्डूगण्डत्रणान्सिद्धम् ॥ क्वाथ - नीमकी छाल, पटोल पत्र, दारुहल्दी, धमासा, कुटकी, हर्र, बहेड़ा, आमला, पित्तपापड़ा, और त्रायमाणा २॥ २॥ तोले ले कर ८ सेर पानी में पकावें और १ सेर रहने पर छान लें। कल्क - सफेद चन्दन, चिरायता, पीपल, त्रायमाणा, नागरमोथा और इन्द्रजौ ७॥ ७॥ माशे लेकर सबको पानी के साथ पीस लें । ६० तोले ताजे घोमें उपरोक्त कल्क और काथ ( तथा २ सेर पानी ) मिला कर पकावें । और जलांश शुष्क होने पर घीको छान लें । इसे सेवन करनेसे कुछ, ज्वर, गुल्म, अर्श, ग्रहणी, पाण्डु, पामा, विसर्प, पिडिका, कण्डू, गण्ड और का नाश होता है । For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] पञ्चमो भामः १८३ (७७५३) षडङ्गघृतम् (१) इसे राजयक्ष्मामें स्रोतोंको शुद्ध करनेके लिये देना चाहिये। (वृ. मा, । अतिसारा. ; व. से. । अतिसारा. ; वृ. यो. त.। त. ६४; च. द.। (७७५५) षविन्दुघृतम् (१) ___ अतिसारा. ४) (वृ. यो. त. । त. १३२ ; वै. र. । शिरो रोगा. ; व. से. । शिरो.) वत्सकस्य च बीजानि दाव्यांश्च त्वच उत्तमाः। मधकमधकबिड सभाराजनागपत सिद्धम् । पिप्पलीशृङ्गवेरं च लाक्षा कटुकरोहिणी ॥ षड्विन्दुनस्यदानादेतच्छीर्षामयं हन्ति ।। षड्भिरेतैघृतं सिद्धं पेयामण्डावचारितम् ।। मुलैठी, महुवेकी छाल, बायबिडंग, भंगरा अतिसारं जयेच्छीघ्र त्रिदोषमपि दारुणम् ॥ । और सांठ समान भाग ले कर इनके कल्क और इन्द्रजौ, दारुहन्दीकी छाल, पीपल, सेठि, काथसे घृत सिद्ध करें। लाख और कुटकी ५-५ तोले ले कर सबको इसकी नित्य प्रति ६ बूंद नाकमें डालनेसे एकत्र पीस लें। शिर शूलादि शिरोरोग नष्ट होते हैं। ३ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और १२ सेर (फल्कार्थ-प्रत्येक ओषधि ४ तोले । पानी मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो क्वाथार्थ-प्रत्येक ओषधि ६४ तोले । पानी घीको छान लें। ३२ सेर । शेष ८ सेर । घी--२ सेर।) इसे पेया या मण्डादिके साथ खिलानेसे (७७५६) षड्विन्दुघृतम् (२) दारुण त्रिदोषज अतिसार भी नष्ट हो जाता है। (यो. र. । पीनसा.) (७७५४) षडङ्गघृतम् (२) भृङ्ग लवङ्गं मधुकं च कुष्ठं ___ सनागरं गोघृतमिश्रितं च । (वृ, मा. । राजयक्ष्मा. ; व. से.) षबिन्दु नासास्थिगदं च पीनसं पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। शिरोगतं रोगशतं च हन्ति ॥ सयावशूकैः सक्षीरैः स्रोतसां शोधनं घृतम् ।। । भंगरा, लौंग, मुलैठी, कूठ और सांठ; इनका पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेांठ और महीन चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको ४० भाग जवाखार ५-५ तोले ले कर कल्क बनावें। धीमें मिलावें । ३ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और १२ सेर इसकी नस्य लेनेसे नासास्थिके रोग, पोनस दूध मिला कर पकावें । जब दूध जल जाय तो | और शिरके सैकड़ों रोग नष्ट हो जाते हैं। घीको छान लें। मात्रा-६ बूंद । इति षकारादिधृतपकरणम् For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [षकारादि - अथ षकारादितैलप्रकरणम् (७७५७) षट्कवरतैलम् (महा) ४ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त द्रव पदार्थ ___ (भै. र. । ज्वरा.) और कल्क मिला कर पकावें । जब द्रव पदार्थ, शुक्तारनालैर्दषिमस्तुतः शुष्क हो जाएं तो तेलको छान लें। फलाम्पुभागेन समं हि तैलम् । इसकी मालिशसे वात कफज ज्वर, इकतरा, कुष्णादिकल्कैर्मुदुबहिसिद्ध तिजारी और चातुर्थिक तथा १५-१५ दिन, या मभ्यननं वातकफज्वराणाम् ॥ १-१ अथवा २-२ महीने बाद आने वाला ज्वर ऐकाहिकद्वित्रिचतुर्थकानां नष्ट होता है। __ मासार्द्धमासद्वयमासिकानाम् । निवारणं तद्विषमज्वराणां ___ (७७५८) षड्गुणतक्रतैलम् तैलन्तु पटकटवरकं महत्स्यात् ॥ (षट्तक्रतैलम्; षट्कटवरतलम् ) कल्क: कृष्णादिगणो यथा (च. द. । ज्वरा. २ ; वृ. यो. त. । त. ५९ ; कृष्णाचित्रकषडग्रन्था वासकं विकसा धनम् । भा. प्र. म. खं. २ । विषम ज्वरा. ; धन्व. ; प्रन्यिकैले चातिविषा रेणुकश्च कटुत्रयम् ॥ । ६. मा. ; वृ. नि. र. ; व. से. ; यो. र.; यमानी गोस्तनी व्याघ्री भूनिम्बं बिल्वचन्दनम्। ___वै. र.। ज्वरा. ; व. से. । ज्वरा. ; भार्गी श्यामा शिवा धात्री स्थिरा मूळ सजीरका।। ग. नि. । तैला.) सर्षपं शि कटुकी विडङ्गं च समांशकम् । सुवनिकानागरकुष्ठमूर्वा एष कृष्णादिको नाम गणो ज्वरविनाशनः ॥ लाक्षा निशा लोहितयष्टिकाभिः । द्रव पदार्थ-शुक्त ४ सेर, कांजी ४ सेर, . तैलं ज्वरे षड्गुणतक्रसिद्धदहीका पानी ४ सेर, तक्र ४ सेर और नीबूका मभ्यअनाच्छीतविदाहनुत्स्यात् ॥ रस ४ सेर । कल्क-सज्जी, सोंठ, कूट, मूर्वा, लाख, . कल्क-पीपल, चीतामूल, बच, बासा | हल्दी और मजीठ समान भाग मिलित आधा ( अडूसेकी जड़की छाल ), मजीठ, नागरमोथा, सेर ।x पीपलामूल, इलायची, अतीस, रेणुका, सेठ, मिर्च, ४ सेर तेलमें यह कल्क तथा २४ सेर तक पीपल, अजवायन, मुनक्का, कटेली, चिरायता, बेल मिला कर पकावें । जब तक जल जाए तो तेलको छाल, सफेद चन्दन, भरंगी, श्यामालता, हर्र, मामला, शालपर्णी, मूर्वा, जीरा, सरसों, हींग, छान लें। कुटकी और बायबिडंग समान भाग मिलित आधा . x कुछ प्रन्थोमें चन्दन अधिक है । कुछमें सेर ले कर कल्क बनावें। | कूठका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् पञ्चमो भागः - -- इसकी मालिशसे दाह और शीतको नाश द्रवपदार्थ-भंगरेका रस १ सेर, काजी होता है। २ सेर, सहजनेका रस ३ सेर, बेरवृक्षकी छालका (७७५९) षट्चरणतैलम् क्वाथ ५ सेर और कड़वी तूंबीका रस ६ सेर । (वृ. यो. त. । तं. ५९ ; यो. त. । त. २० । कल्क-सोंठ, सेंधा, इमली, पटोल, बासा, यो. र. । ज्वरो. ; वृ. नि. र. । विषम ज्वरा. | आमला, हर और तुलसी समान भाग मिलित ४० व. से. । ज्वरा.) तोले लेकर कल्क बनावें। लाक्षामधुकमनिष्ठा मूर्वाचन्दनसारिवाः । ४ सेर तेलमें यह कल्क और उपरोक्त द्रव तैलं षट्चरणं नाम त्वभ्यङ्गाज्ज्वरनाशनम् ।। | पदार्थ मिलाकर पकावें । जब द्रव पदार्थ जल जाएं तो तेलको छान लें। कल्क-लाख, मुलैठी, मजीठ, मूर्वा, सफेद चन्दन और सारिवा समान भाग मिलित आधा __इसकी नस्यद्वारा ६ बूद सूधने तथा मस्तक सेर ले कर कल्क बनावें। पर मालिश करनेसे एवं कानमें डालनेसे वातविकार नष्ट होते हैं। ४ सेर तेलमें यह कल्क और इन्हीं ओषधियोंका काथ मिला कर पकावें । जब काथ जल यह तेल क्रिमिजन्य शिरोरोगमें विशेष जाए तो तेलको छान लें। उपयोगी है। इसकी मालिशसे ज्वर नष्ट होता है। (७७६१) षड्विन्दुतैलम् (२) (क्याथार्थ-सम्पूर्ण ओषधियां मिलित ८ ( मै. र. । कुष्टा.) सेर । पानी ६४ सेर । शेष १६ सेर ।) सिन्दूरामृततालगैरिकहलाजाजीगदत्र्यूषणैः । (७७६०) षड्विन्दुतैलम् (१) हृत्पाषाणरसोनवाणदहनस्नुह्यर्कदुग्यैर्निशा ॥ ( हा सं. । स्थान ३ अ. ४३ ) राजीगन्धकहिङ्गभिः परिमितैः शुक्त्या पचेभृजराजरसं चैकं द्विभागं काधिकेन च । सार्षपं । शोभाअनं भागत्रयं रसं तत्र विनिक्षिपेत् ॥ नैलं प्रस्थमितं घृतस्य कुडवं पात्रं तथाौद्रसम्।। सौवीरकरसं पश्च षड्भागं तुम्बिकारसम् । गोमूत्रञ्च तथा विलीय सकलं पूतं शृतं रोगिणे। शुण्ठी सैन्धवमम्लीका पटोलं वासकं शिवा॥ दद्यात्कुष्ठविचर्चिकादिषु भिषङ् नाम्ना तु षड्अभया सुरसा चैव तैलं च चतुरंशकम् ।। विन्दुकम् ॥ पाचितं तत्तु नस्येन योजयेच्च षविन्दुकम्॥ कल्क-सिन्दूर, बछनाग, हरताल, गेरू, तथैव मस्तकाभ्यो हितं स्यात् कर्णपूरके। लांगली (कलिहारी), जीरा, कूट, सोंठ, मिर्च, पीपल, हितं वातादिजे रोगे शिरोऽतौं क्रिमिजे तथा| मनसिल, ल्हसन, सरफोंका, चीता, सेहुंड (थूहर)का For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [षकारादि दूध, आकका दूध, हल्दी, राई, गन्धक और हींग पविन्दवो नासिकया प्रयुक्ता २॥२॥ तोले ले कर कल्क बनावें।। निघ्नन्ति सर्वाठिछरसो विकारान् ॥ २ सेर तैल, आधासेर घी, ८ सेर आकके | च्युतांश्च केशान्पतितांश्च दन्ता. पत्तोंका रस, ८ सेर गोमूत्र और उपरोक्त कल्क नाबद्धमूलांश्च दृढी करोति । एकत्र मिलाकर पकावें । जब द्रव पदार्थ जल जाएं | सुपर्णदृष्टिपतिमं च चक्षुतो तेलको छान लें। बोहोर्बलं चाभ्यधिकं करोति ॥ यह तैल कुष्ठ, विचर्चिका आदिको नष्ट करता है। ___ कल्क-अरण्डकी जड़, तगर, सोया, (७७६२) षविन्दुतैलम् (३) सविल । जीवन्ती, रास्ना, सेंधानमक, भंगरा, बायबिडंग, (ग. नि. । तैला. २ ; र. र. ; वृ. भा. । शिरो.; मुलैठी, और सोंठ समान भाग मिश्रित १ सेर लेकर यो. चि. म. । अ. ६ ; वै. र. ; धन्व. । कल्क बनावें। शिरो. ; वृ.यो. त.। त. १३२; यो. त.। ___काले तिलोंके ८ सेर तेलमें यह कल्क, ८ सेर त. ७३ ; च. द. । शिरो. ५९ ; भै. बकरीका दूध और ३२ सेर भंगरेका रस मिलाकर र. व. से. ; भा. प्र. म. खं. २ . पकावें । जब द्रव पदार्थ जल जाएं तो तेलको शिरो रोगा.) छान लें। एरण्डमूलं तगरं शताहा जीवन्ती रास्ना लवणोत्तमच। इसकी ६ बूंद नित्य प्रति नासिकामें डालनेसे भृशं विडॉ मधुयष्टिका च समरत शिरोरोग नष्ट होते हैं। बालोंका गिरना विश्वौषधं कृष्णतिलस्य तैलम् ॥ बन्द होकर उनकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं और आज पयस्तैलविमिश्रितं च दांत दृढ हो जाते हैं। दृष्टि तीब हो जाती है चतुर्गुणे भृङ्गरसे विपक्वम् । और बाहुबोका बल बढ़ता है। इति षकारादितैलपकरणम् For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् पञ्चमो भागः १८५ - अथ षकाराद्यञ्जनप्रकरणम् (७७६३) षडङ्गी वर्तिः लाल चन्दन, हर्र, बहेड़ा, आमला, सुपारी | और पलाश (ढाक) के वृक्षका गोंद; इनका बारीक (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) चूर्ण समान भाग लेकर पानीमें पीसकर वर्ति चन्दनत्रिफलापूगपलाशतरुशोणितैः । बनावें। जलपिष्टैः षडङ्गीति वतिस्तिमिरनाशिनी ॥ इसे आंखमें लगानेसे तिमिर नष्ट होता है । इति षकारायञ्जनप्रकरणम् अथ षकारादिरसप्रकरणम् (७७६४) षडाननगुटिका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करें एवं अन्तमें ( रसे. सा. सं. ; र. च. ; र. रा. सु. । कुष्ठा. ; आवश्यकतानुसार पुराना गुड़ मिला कर घोटें और रसे. चि. म. | अ. ९) (३-३ रत्तीकी ) गोलियां बना लें। ये गोलियां विरेचनी, लध्वी, दीपनी और विषोषणं टङ्कणपारदश्च | पाचनी हैं । इनके सेवनसे कुष्ठ, आमाशयका तीन सगन्धचूर्णश्च समांशयुक्तम् । शूल और अश्मरिका नाश होता है। इसे शीतल नेपालचूर्ण द्विगुणं गुहाक्तं जलसे देनेसे विरेचन होता है और उष्ण जल देनेसे सम्मर्थ सर्व गुटिका विधेया ॥ दस्त बन्द हो जाते हैं। विरेचनी सर्वविकारहन्त्री लवी हिता दीपनी पाचनीयम् । | (७७६५) षडाननरसा (१) कुष्ठे हिता तीव्रतरे हि शूले (र. चं. । अर्शी. ; रसे. चि. म. । अ. ९ ; रे. चामाशये चाश्मगते विकारे । | का. धे. ; वृ. नि. र ; र. रा. सु. । अर्शो.) संशोधनी शीतजलेन सम्यक वैकान्त ताम्राभ्रकगन्धकानां साहिणी चोष्णजलेन युक्ता । रसस्य कान्तस्य समानभागः। शुद्ध बछनाग, कालीमिर्च, सुहागेकी खील, चूर्ण भवेत्तेन षडाननोऽयं शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग और अर्थो विनाशाय च वल्लमात्रः॥ शुद्ध जमालगोटा २ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धकको वैक्रान्त भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्र कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका , गंधक, कान्तलोह भस्म और शुद्ध पारद समान For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [षकारादि भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह | द्वयहं पक्वं कूप्यां भवति सिकतायन्त्रजुषित खरल करें। स्तलस्थः षण्ढत्वप्रलयकृदयं षण्मुखरसः ।। मात्रा-३ रत्ती । शुद्ध पारद १६ भाग, ताम्र भस्म १ भाग, यह रस अर्शको नष्ट करता है। लोह भस्म २ भाग, बंग भस्म ४ भाग, अभ्रक मस्म (७७६६) षडाननरसः (२) आधा भाग और शुद्ध गन्धक ३० भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य (भै. र. । ज्वरा. ; र. रा. सु. । ज्वरा.) औषधे मिलाकर सबको भली भांति खरल करके, आरं कांस्यं मृतं तानं दरदं पिप्पली विषम् । कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भरकर २ दिन तुल्यांशं मर्दयेत् खल्ले यामश्च गुडूचीरसैः॥ बालुकायन्त्रमें पकायें और फिर उसके स्वांग शीतल गुमामात्रं रसं देयं गुञ्जामात्र लिहेत्सदा। होने पर शीशीकी तलीमें पड़े हुवे रसको ज्वरे मन्दानले चैव वातपित्तज्वरेषु च ॥ निकाल लें। ज्वरे वैषम्यतरुणे ज्वरे जीर्णे विशेषतः । इसके सेवनसे नपुंस्कता नष्ट होती है। मुद्गानं मुद्यूषं वा तक्रभक्तश्च केवलम् ।। ( मात्रा-१ रत्ती।) नारिकेलोदकं देयं मुद्गं पथ्यं विशेषतः । षडाननो रसो नाम सर्वज्वरकुलान्तकृत् ॥ (७७६८) षण्मुखो रसः (२) - पीतल भस्म, कांसी भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध (र. र. । शूला.) हिंगुल, पीपल और शुद्ध बछनाग समान भाग | सूतं गन्धं समं शुद्धं सूतांशं मृतताम्रकम् । लेकर सबको एकत्र खरल करें और फिर १ पहर सौवर्चलश्च सूतांशं जम्बीरैदिनसप्तकम् ॥ तक गिलोयके रसमें खरल करके १-१ रत्तीकी मर्दयेदातपे तीक्ष्णे रुद्ध्वा लघुपुटेत्त्रयम् । गोलियां बना लें। दत्त्वादाय तु तच्चूर्ण समं त्रिकटुकं पचेत् ।। इनके सेवनले अग्निमांद्य, वातपित्त ज्वर, विषम षण्मुखोऽयं रसो नाम त्रिगुञ्जेनामशूलजित् । ज्वर, तरुण ज्वर और जीर्णज्वरका नाश होता है । एरण्डतैलषड्भागं लशुनस्य दशाष्टकम् ॥ पथ्य-मूंग भात, मूंगका यूप, तक्रभात और एक हिङ्ग त्रिसिन्धुत्थं सर्वमेकत्र कारयेत् । नारियलका पानी । मूंग विशेष पथ्य है । | त्रिनिष्कं भक्षयेच्चानु आमशूलपशान्तये ॥ (७७६७) षण्मुखो रसः (१) _ शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, ताम्र भस्म और (वृ. यो. त. । त. १४७) संचल (काला नमक) समान भाग लेकर प्रथम पारे हरार्कायोवगाभ्रकबलिकलैकद्विजलधि गन्धकको कजली बनावें और फिर उसमें अन्य द्विपादास्त्रिंशद्भिर्मिलितमनलेऽशैर्मदि पुनः ! ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको सातदिन जम्बीरी For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायप्रकरणम्] पञ्चमो भागः नीबूके रस में तीक्ष्णधूपमें खरल करें और फिर शरा- अनुपान- अण्डीका तेल ६ भाग, ल्हसन वसम्पुट में बन्द करके लघुपुट में पकावें । इसी प्रकार ( पिसा हुवा ) १८ भाग, हींग १ भाग और (७-७ दिन नीबूके रसमें घोटकर ) ३ पुट दें | सेंधा नमक ३ भाग लेकर सबको एकत्र मिलावें । और फिर उसे पीसकर उसमें समान भाग त्रिकुटेका उपरोक्त रसमेंसे ३ रत्ती खानेके पश्चात् १२ रत्ती चूर्ण मिलाकर सुरक्षित रक्खें । यह मिश्रण खाना चाहिये। मात्रा-३ रत्ती । इसके सेवनसे आमशूल नष्ट होता है। इति षकारादिरसप्रकरणम् -- - अथ सकारादिकषायप्रकरणम् (७७६९) सप्तच्छदादिक्वाथ: (१) । (७७७०) सप्तच्छदादिक्वाथः (२) (वृ. नि. र. ; ग. नि. । मुख. ५ ; यो. त.। (भै. र. । ज्वरा. ; ग. नि. । ज्वरा. १; त. ६९ ; भा. प्र. । म. खं. २ मुख. ; व. व. से. | ज्वरा.) से. । मुख. ; वृ. यो. त. 1 त. १२८ ; सप्तच्छदं गुडचीच निम्बं खजूरमेव च ।। वृ. मा. । मुखरोगा. ; वा. भ. । क्याथयित्वा पिवेत्क्वाथं सक्षौद्रं कफजे ज्वरे ।। उ. अ. २२) सतौनेकी छाल, गिलोय, नीमकी छाल और सप्तच्छदोशीरपटोलमुस्त खजूर समान भाग मिश्रित ५ तोले ले कर ४० हरीतकीतिक्तकरोहिणीभिः । तोले पानीमें पकायें और १० तोले शेष रहने पर यष्टयाराजगुमचन्दनैश्च छान लें। क्वाथं पिबेत्पाकहरं मुखस्य ॥ सतौनेकी छाल, खस, पटोल, नागरमोथा, __इसमें (२ तोले) शहद मिलाकर पीनेसे कफ हरं, कुटकी, मुलैठी, अमलतास और लाल चन्दन। ज्वर नष्ट होता है। इनका काथ मुखपाकको नष्ट करता है। For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः (सकारादि (७७७१) सप्तच्छदादिक्वाथः (३) सप्तमुष्टिक इत्येष सनिपातज्वरं जयेत् । (व. से. । मूत्रकृच्छा .) आमवातहरः कण्ठहद्वक्त्राणां विशोधनः ॥ सप्तच्छदारवधकेतकैलाः कुलथी, जौ, बेर, मूंग, मूलीके टुकड़े, सोंठ निम्बः करमः कुटजो गुडूची। और धनिया । साध्या जले तेन पचेयवागू इनका काथ कफ, वायु, सन्निपात ज्वर सिद्धं कषायं मधुसंयुतं वा ॥ सतौनेकी छाल, अमलतास, केतकी, इला और आमवातको नष्ट तथा कण्ठ, हृदय और यची, नीमकी छाल, करञ्ज, कुटकी और गिलोय। मुखको शुद्ध करता है। इनके काथमें शहद मिलाकर सेवन करनेसे (७७७४) समङ्गादिकल्का अश्मरि-जन्य मूत्रकृच्छ नष्ट होता है। इन्ही ओषधियोंके जलसे यवागू बनाकर (हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) खिलानेसे भी अश्मरि-जन्य मूत्रकृच्छ्रमें लाभ समझा शाल्मलीपुष्पं चन्दनं ककुभत्वचम् । होता है। नीलोत्पलमजाक्षीरं पिष्ट्वा पानमसृगदान् ।। ( यवागू बनानेके लिये समस्त ओषधियां लज्जालुकी जड़, सेंभलके फूल, लाल चन्दन, समान भाग मिलित ११ तोला । पानी २ सेर ।। अर्जुनकी छाल और नीलोत्पल समान भाग मिश्रित शेष १ सेर ।) | (१ तोला) ले कर बकरीके दूधमें पीस कर पीनेसे (७७७२) सप्तपर्णयोगः रक्तप्रदर नष्ट होता है। ( रसे. चि. म. । अ. ९) सप्तपर्णशिफाकल्कपानाद्वा लेपनात्तथा । (७७७५) समङ्गादिक्वाथः (१) मुपलीमूलपानात्त तन्तुकाख्यो विनश्यति ॥ (वृ. यो. त. । त. ६४ : यो. र. । अतिसारा.) सतौनेकी जड़का कल्क पीने तथा उसीका समझातिविषा मुस्ता विश्वहीबेरघातकी । लेप करनेसे या मूसलीको (पानीके साथ) पीस कर कुटनत्वग्दलैबिखैः क्वाथः सर्वातिसारनुत् ॥ पीनेसे नहरुवा नष्ट हो जाता है। (७७७३) सप्तमुष्टिकयूषः लज्जालुकी जड़, अतीस नागरमोथा, सोंठ, ( शा. सं. । खं. २ अ. २ ; व. से. ; यो.. सुगन्धबाला, धायके फूल, कुड़ेकी छाल और बेलके पत्ते । र. । ज्वरा. ; यो. त.। त. १८) कुलित्थयवकोलैश्च मुर्मूलकशुण्ठिकैः । इनका काथ समस्त प्रकारके अतिसारोको शुण्ठीधान्याकयुक्तैश्च यूषः श्लेष्माऽनिलापहः।। नष्ट करता है । For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कषायप्रकरणम् ] (७७७६) समङ्गादिक्वाथः (२) (बृ. यो. त. 1 त. ६४ ; वृ. नि. र. । अतिसा. ) समङ्गाधातकीबिल्वमानास्थ्यम्भोज केसरम् । बिल्वं मोचरसं लोध्रं कुटजस्य फलत्वचौ || पिबेतण्डुलतोयेन कषायं कल्कमेव च । श्लेष्मपित्तातिसारनं रक्तं वाथ नियच्छति ।। पञ्चमो भागः लज्जा की जड़, धायके फूल, बेलगिरी, आम की गुठली, कमलकेसर, बेलगिरी, मोचरस, लोध, कुकी छाल और इन्द्रजौ । इन्हें चावलों के धोवन ( तण्डुलोदक ) में पका कर अथवा पीसकर कल्क बनाकर पीनेसे कफपित्तातिसार तथा रक्तातिसारका नाश होता है । (७७७७) समङ्गादिक्वाथः (३) ( .यो. र. । बालातिसा. ; भा. प्र. म. खं. २ | बाला.; वृ. मा. बालरो. ) समङ्गाधातकीलोधसारिवाभिः मृतं जलम् । दुर्धरेऽपि शिशोर्देयमतीसारे समाक्षिकम् ॥ लज्जालुकी जड़, धायके फूल, लोध और सारिवा इनके काथमें शहद मिलाकर पिलानेसे बालकेांका भयंकर अतिसार भी नष्ट होता है । (७७७८) समङ्गादिक्षीरम् ( व. से. । अर्शो. ; भा. प्र. म. खं. २ अर्शो. ; वृ. मा. । अर्शो. ) समङ्गोत्पलमो चाह तिरीटतिलचन्दनैः । छागीक्षीरे प्रयोक्तव्यं गुदजे शोणितापहम् ॥ लज्जालुकी जड़, नीलोत्पल, मोचरस, लोध, तिल और लाल चन्दन । १९१ इनसे बकरीका दूध सिद्ध करके पिलाने से अर्शका रक्त बन्द होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ओषधियां समान भाग मिलित २॥ तोले, दूध २० तोले, पानी १ सेर । पानी जलने तक पावें । ) (७७७९) समीरदावानलक्वाथः ( यो. र. । वातव्या . ) भल्लातकानां शकलानि कृत्वा त्रिकोलमानं परिगृह्य वैद्यः । चतुष्पलं तोयसमन्वितोऽयं क्वाथश्चतुर्थांशक एष सम्यक् ॥ सिताघृतं गोपयमिश्रितेन काळं पला पलमेकयुक्तम् । क्रमेण पीतः खलु इन्ति वातान् समीरदावानलनामधेयः ॥ २२ ॥ माशे शुद्ध भिलावेके टुकड़ोंको ४० पानी में पकावें और १० तोले शेष रहने पर छान लें। तो इसमें १ तोला मिश्री, २॥ तोले घी और १० तोले गायका दूध मिला कर पीनेसे समस्त वातव्याधियां नष्ट होती हैं । ( जिन्हें भिलावा अनुकूल न आता हो उन्हें यह काथ न पीना चाहिये । ) (७७८०) सरलादिकल्कः ( वृ. मा. । वृद्धच. ) सरला गुरुकुष्ठानि देवदारु महौषधम् । मूत्रारनालसम्पिष्टं शोफ कफवातजित् ॥ For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि सरल वृक्ष (चीर) का काष्ठ, अगर, कूठ, झिण्टीमूलके मन्दोष्ण काथमें कत्था और देवदारु और सेठ, समान भाग मिलित् (१ तोला) शहद मिला कर वह काथ बार बार मुंहमें भरनेसे ले कर गोमूत्र या कांजोमें पीस कर पीनेसे कफ- | दन्तपीडा, मसूढोंकी सूजन और दातविधिका वातज शोय नष्ट होता है।। नाश होता है। (७७८१) सहचरादिक्वाथः (१) । (७७८४) सहचरादिक्वाथः (४) (भै. र. । स्त्री. ; ग. नि. । सूतिका. ; वृ. यो. (र. र. । स्त्रीरोगा. ; भै. र । स्त्री.) त.। त. १४२; यो. र. । स्त्री.) सहचरमुस्तगुडूचीभद्रो. सहचरपुष्करवेतसमूलं स्कटबिल्ववालको क्वथितम् । विकतदारुकुलत्यसमम् । पेयमिदं मघुमिश्र सयो जलमत्र ससैन्धव हिचुतं ज्वरशूलनुत्सत्यम् ॥ __ सद्यो ज्वरसूतिकाशूलहरम् ।। झिण्टीमूल, नागरमोथा, गिलोय, प्रसारिणी, झिण्टीमूल, पोखरमूल, अम्लबेतकी जड़, | बेलछाल और सुगन्धवाला समान भाग ले कर कण्टाई, देवदारु और कुलथी समान भाग ले कर काथ बनावें । इसमें शहद मिला कर पीनेसे प्रसूताका ज्वर इसमें सेंधा नमक और हींग मिला कर पीनेसे | और शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । सूतिका ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। | (७७८५) सहचरादिक्वाथः (५) (७७८२) सहचरादिक्वाथ: (२) (र. र. । स्त्री. ; भै. र.) (यो. र. । वातव्या. ; वृ. यो. त. । त. ९०) सहाचरकुन: क्वाथः पिप्पलीचूर्ण मिश्रितः । सहचरामरदारुसनागरं दीपनो ज्वरदोषामसूतिकारोगनाशनः ।। क्यथितमम्भसि तैलविमिश्रितम् ।। झिण्टीमूलके क्वाथमें (१ रत्ती) पीपलका पवनपीडितदेहगतिः पिबन् चूर्ण मिला कर पिलानेसे प्रसूताकी अग्नि दीप्त होती द्रुतविलम्बितगो भवतीच्छया ॥ तथा आम और ज्वरका नाश होता है। झिण्टीमूल, देवदारु और सेठ समान भाग (७७८६) सारिवादिक्वाथः (१) ले कर काथ बनावें । इसमें तिलका तेल मिलाकर (ग. नि. । विसा.) पीनेसे वातव्याधि नष्ट होती है । सारिवामुस्तकोशीरधात्रीभिः परिसाधितम् । (७७८३) सहचरादिक्वाथः (३) कषायं च पिवेदाशु सर्ववीसर्पनाशनम् ॥ (वृ. यो. त. । त. १२८) सारिवा, नागरमोथा, खस और आमला; कोष्णं सहचरक्वार्थ खदिरौद्रसंयुतम् । इनका काथ सर्व प्रकारके विसर्प रोगको शीघ्रही धृत्वाऽऽस्येन मुहुर्हन्ति तद्व्यथाशोथविद्रधीन् । नष्ट कर देता है । For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] पचमो भागः . १९३ (७७८७) सारिवादिक्वाथः (२) (७७९०) सारिवादिक्वाथः (५) ( यो. र. । बाल रोगा, ; व. से. । बाल. ; भा. | (ग. नि. । छर्य. १४) . प्र. । म. खं. २ बाल.) | सारिवोशीरमधुकं कुस्तुम्वरुफलानि च । सारिवातिललोध्राणां कषायो मधुकस्य च । युक्त्या क्वाथ्य जलं पेयं मधुना छर्दिनाशनम् ॥ संसाविणी मुखे शस्तो धावनार्थ शिशो सदा॥ सारिवा, खस, मुलैठी और कुस्तुम्बरु समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । - सारिवा, तिल, लोध और मुलैठी समान - इसमें शहद मिला कर पिलानेसे छदि नष्ट भाग ले कर क्वाथ बनावें। होती है। बच्चे के मुंहसे लार बहती हो तो इस काथसे (७७९१) सारिवादिगणः (१) उसका मुख धोना चाहिये ।। (वा. भ. । सू. अ. १५) (७७८८) सारिवादिक्वाथः (३) | सारिवोशीरकाश्मयमधूकशिशिरद्वयम् । (वृ. नि. र. । बालरोगा.) यष्टीपरूपकं हन्ति दाहपित्तास्रतृड्ज्वरान् ॥ . सारिवोत्पलकाश्मच्छिमापयकपर्पटैः।। सारिवा, खस, खम्भारी, महुवेकी छाल, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मुलैठो और फालसा क्वाथः पीतो निहन्त्या शिशूनां पैतिक ज्वरम् ।। | समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । सारिवा, कमल, खम्भारीकी छाल, गिलोय, ___ यह क्वाथ दाह, रक्तपित्त, पिपासा और पनाक और. पितपापड़ा समान भाग ले कर काथ ज्वरको नष्ट करता है। बनावें । (७७९२) सारिवादिगणः (२) यह काथ बच्चों के पित्त ज्वरको नष्ट (सु. सं. । सू. अ. ३८) करता है। सारिवामधुकचन्दनकुचन्दनपद्मककाश्मरीफल(७७८९) सारिवादिक्वाथः (४) । मधूकपुष्पाण्युशीरश्चेति । (ग. नि. । ज्वरा. १) सारिवादिः पिपासानो रक्तपित्तहरो गणः। सारिवाति विषाकुष्ठसुराख्यैः सदुरालभैः।। पित्तज्वरप्रशमनो विशेषादाहनाशनः । सारिवा, मुलैठी, लाल चन्दन, पतंग, पाख, मुस्तया च कृतः क्वाथो हन्यात्कफकृतं ज्वरम् ॥ खम्भारीके फल, महुवेके फूल और खस । इन सारिवा, अतीस, कूठ, देवदारु, धमासा और ओषधियोंके समूहको सारिवादिगण कहते हैं। नागरमोथा समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । । सारिवादि गण, पिपासा, रक्तपित्त, पितज्वर यह क्याथ कफ-ज्वरको नष्ट करता है। और विशेषतः दाहको नष्ट करता है। ૨૫ For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [सकारादि (७७९३) सारिवादियोगः । (७७९५). सितादिक्वाथः (यो. र. । दन्तरोगा.) (वृ नि. र. । ज्वरा.) | ससितो निशिपर्युषितःभातर्धान्याकतण्डुलक्यायः पिष्टवा च सारिवापण दृढ दन्तषु धारयत्। पीतः शमयत्यचिरादन्तर्दाहं ज्वरं पैत्तम् ॥ पतन्ति दन्तकीटाश्च चाश्चल्यं हरति क्षणात् ।। धनिये और चावलोंका काथ बना कर उसे __ सारिवाके पत्तोंको बारीक पीस कर दांतके मिट्टीके पात्रमें भर कर रात्रिको ढक कर रख दें। नीचे रखनेसे दन्तकृमि निकल कर दांत हिलना। इसमें प्रातःकाल मिश्री मिला कर पीनेसे अन्तर्दाह बन्द हो जाता है। और पित्तज्वर शीघ्र नष्ट होता है। (७७९४) सालसारादिगणः (७७९६) सिन्धुवारक्वाथ: ( भा. प्र. ; व. से. । ज्वरा. ; भै. र. । ज्वरा.) (सु. सं. । सू. अ. ३८) सिन्धुवारदलक्वार्थ कणाढयxकफजे ज्वरे । सालसाराजकर्णखदिरकदरकालस्कन्धक्रमुक- जवयोश्च बले क्षीणे कर्णे च पिहिते पिबेत् ।। भूर्जमेषशृङ्गीतिनिशचन्दनकुचन्दनशिशपाशि- संभालुके पत्तोंके काथमें पीपलका चूर्ण रीषासनधवार्जुनतालशाकनक्तमालपूतीकाश्व- | मिला कर पीनेसे कफ ज्वर नष्ट होता है। जंघाका कर्णागुरूणि कालीयकश्चेति । बल क्षीण होने और कानोंके बन्द होनेमें यह काथ सालसारादिरित्येष उपयोगी है। गणः कुष्ठविनाशनः । __ (७७९७) सिंहास्यादिकषायः मेहपाण्ड्वामयहरः ( व. से. । ज्वरा.) कफमेदोविशोषणः ॥ 'सिंहास्य पर्पटारिष्टं यष्टिधान्यकनागरम् । सालसार ( साल भेद ), अजकर्ण (असन), दारूग्रगन्धेन्द्रयवाः श्वदंष्ट्रा ग्रन्थिकं तथा ॥ खैर, कदर (खैर भेद), तेन्दु वृक्ष, सुपारी, भूर्ज, । एषां कषायमहनि सन्निपातज्वरे पिबेत् । मेढासिंगी, तिनिश ( तिरिच्छ वृक्ष ), लाल चन्दन, श्वासातिसारघ्नं शूलारुचिहरं परम् ॥ पतंग, शीसम, सिरस, असन, धध, अर्जुन, ताड़, बासा (अडूसा), पित्तपापडा, नीमकी छाल, सागोन, करञ्ज, पूतिकरञ्ज, शाल, अगर और मुलैठी, धनिया, सेठ, देवदारु, बघ, इन्द्रजौ, दारुहल्दी। गोखरु और पीपलामूल समान भाग ले कर काथ यह सालसारादिगण कुष्ठ प्रमेह और बनावे । पाण्डुको नष्ट करता है तथा कफ और मेदको | x सोषणमिति पाठान्तरम् (पाठान्तरके सुखाता है। अनुसार पीपलके स्थानमें मिर्च है।) For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पायप्रकरणम् पश्चमो भागः १९५ यह काथ सन्निपात चर, श्वास, अतिसार. | कटेलीके क्वाथमें पीपलका चूर्ण मिला कर शूल और अरुचिको नष्ट करता है। पीनेसे कासका नाश होता है। (७७९८) सिंहास्यादिक्वाथः (१) (७८०२) सिंह्यादिकषायः ( वृ. नि. र. । कासा. ; यो. र । कासा.) (वृ. नि. र. । ज्वरा.) सिंहास्यामृतसिंहीनां क्वाथं मधुयुतं पिवेत् । । सिंही व्याघ्री ताम्रमूली पटोली पिबेत्सपित्तकफजे कासे श्वासे ज्वरे क्षये ॥ शृङ्गी भाी पुष्करं रोहिणी च । बासा (अडूसा), गिलोय और कटेलीके साकं शव्या शैलमल्याश्च बीजं क्वाथमें शहद मिला कर पोनेसे पित्तकफज ज्वर, वासं हन्यात्सनिपाते दशाङ्गः ॥ खांसी, श्वास, ज्वर और क्षयका नाश होता है । छाटी कटेली; बड़ी कटेली, लज्जालुकी जड़, (७७९९) सिंहास्यादिक्वाथः (२) पटोल, काकडासिंगी, भरंगी, पोखरमूल, कुटकी, ( व. से. । शोथा ; भै. र. ; वृ. मा. । शोथा. | कचूर और कुरैयाके बीज समान भाग ले कर वृ. मा.। अम्लपित्ता. ; वृ. नि. र. । शोथा.) क्वाथ बनावें । सिंहास्यामृतभण्टाकीक्वाथं कृत्वा समाक्षिकम् । यह क्वाथ सन्निपात ज्वरमें होने वाले श्वास पीत्वा शोथं जयेज्जन्तुः कासं श्वास ज्वरं वमिम् ॥ को नष्ट करता है। बासे (अडूसे), गिलोय और कटेलीके काथमें शहद मिला कर पीनेसे शोथ, कास, श्वास और (७८०३) सिंघादिक्वाथः (१) ज्वरका नाश होता है। (व. नि. र. । श्वासा.) (७८००) सिंहिकादिकषायः सिंहीनिशासिंहमुखीगुडूची (वृ. नि. र. । ज्वरा.) विश्वोपकुल्याभृगुजाघनानाम् । सिंहीयवानीछिन्नानां क्वाथश्चपलया युतः।। कृष्णामरीचैर्गिलितः कषायः कफवातज्वरश्वासशूलपीनसकासजित ॥ श्वासाठवीदाहपयोद एषः॥ __ कटेली, अजवायन और गिलोयके क्वाथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनेसे कफवातज ज्वर, कटेली, हल्दी, बासा (अडूसा), गिलोय, श्वास, शूल, पीनस और कासका नाश होता है। सांठ, दन्तीमूल, भरंगी और नागरमोथेके क्वाथमें | पीपल और काली मिर्च का चूर्ण मिला कर पीनेसे (७८०१) सिंहीकषायः (वृ. नि. र.। कासा.) वास नष्ट होता है। अयि रत्नकले नीलनलिनच्छदनेक्षणे। यह क्वाथ श्वासरूपी दावानलके लिये मेघके सिंहीकषायः सकणः कासग्रासकरः क्षणाद ॥ समान है । For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि (७८०४) सिंह्यादिक्वाथः (२) (७८०७) सुरभ्यादिकषायः ( वृ. नि. र. ; यो. र. । ज्वरा. ) (यो. र. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) सिंहीनागरपुष्करैः सकटुकै रास्नायडूचीयुतै र्भागीकर्कटङ्गिकाशठिसमैदःस्पर्शवासानैः। सुरभिसलिलयुक्तः सिंहिकाश्रीफलाभ्यां पीतं जिसकहारि वारि भवति ब्राह्मीवचामिश्रितैः प्रवरलवणयासाविश्वपाषाणभेदैः। भोक्तं वैधवरेण वन्धमुनिभिनिम्बमिश्रं शृतम॥ पवनरिपूजयामिः संयुतः क्याथ एष कटेली, सेठ, पोखरमूल, कुटको, रास्ना, | प्रतिदिनमपि पीतो हन्त्यमिन्यासशूलम् ॥ गिलोय, भरंगी, काकड़ासिंगी, कचूर, धमासा, कटेलो, बेलकी छाल, धमासा, सांठ, अरण्डबासा, नागरमोथा, ब्राह्मी, बच और चिरायता समान | | मूल और पाषाणभेद समान भाग मिलित ५ तोले भाग ले कर काथ बनावें। लेकर ४० तोले गोमूत्रमें पकावें और १० तोले यह क्वाथ जिद्दक सन्निपातको नष्ट रहने पर छान लें। करता है । इसमेंसे ५ तोले क्वाथमें १ माशा सेंधा(७८०५) सुदर्शनामूलयोगः नमक मिलाकर पीनेसे अभिन्यास सन्निपात और (रा. मा. ; स्त्रीरोगा. ३०) शूल नष्ट होता है। होणामजस्रं प्रदरामयस्य (७८०८) सुरसादिक्वाथः प्रवृत्तिमेतच्छममेति सद्यः। (ग. नि. । ज्वरा. १) मुश्लक्ष्णपिष्टेन पयोन्वितेन सुरसादारुपिप्पल्यो धान्यकः सदुरालभः । पीतेन मूलेन सुदर्शनायाः ॥ पाक्यं सलवणस्नेहं सोष्णं वातज्वरापहम् ।। सुदर्शनाकी जड़का दूधके साथ अत्यन्त ___ तुलसी, देवदारु, पीपल, धनिया और धमासा; गारीक पीस कर पीनेसे स्त्रियोंको प्रदर रोग शीघ्र ही इनके मन्दोष्ण क्वाथमें सञ्चल. (काला नमक), नष्ट हो जाता है। सेंधा और घृत मिला कर पीनेसे वातज्वर नष्ट (७८०६) सुनिषण्णादिकषायः होता है। (वै. म. र. । पटल १) (७८०९) सुरसादिगणः मनिषण्णवेणुपत्रशुण्ठोमुस्ताभृतः क्याथः। (यो. र.। अपस्मारा. ; धन्व. । बाल. ) हन्याबरमतिवेगं दोषसमूहोद्भवं त्रिदिनात् ॥ सरसा श्वेतसरसा पाठा फनी फणिज्जकः । सुनिषण्णक, बांसके पत्ते, सेांठ और नागर- सौगन्धिकं भूस्तृणकं राजिका श्वेतावरी ॥ मोथा; इनका क्वाथ अनेक दोषोंसे उत्पन्न तीन कट्फलं खरपुष्पा च कासमर्दश्च शल्लकी । ज्वरको भी ३ दिनमें नष्ट कर देता है। विडामय निर्गुण्डी कर्णिकार उदुम्बरः ॥ For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कषायमकरणम् ] बला च काकमाची च तथा च विषमुष्टिका । कफक्रिमिहरः ख्यातः सुरसादिरयं गणः ॥ अत्रे विपक्वं च तैलमभ्यञ्जने हितम् || तुलसी, सफेद तुलसी, पाठा, भरंगी, फणिज्जक [ छोटे पत्तेवाली तुलसी ], लाल कमल, रोहिष तृण, राई, सफेद तुलसी, कायफल, मरुवा, कसौंदी, शल्लकी, बायबिडंग, संभालु, कनेर, गूलर, स्वरैटी, मकोय और बकायनकी छाल । इनका क्वाथ कफ और कृमिको नष्ट करता है । पञ्चमो भागा ओषधियां कल्क और आठों मूत्रोंके साथ तैल पका कर उसकी मालिश करना बच्चोंके लिये हितकारी है । (७८११) सूतिकादशमूलम् (भैर. । स्त्री. ) (७८१०) सुषव्यादिस्वरसः ( वृ. मा. । मसूरिका. ; भा. प्र. म. खं. २ | मसूरिका. ) सुषत्रीपत्र निर्यासं हरिद्राचूर्णसंयुतम् । रोमान्ती ज्वर विस्फोटमसूरीशान्तये पिवेत् ॥ करेली के पत्तोंके रसमें हल्दीका चूर्ण मिला कर सेवन करनेसे ज्वर, विस्फोटक और मसूरिका शान्त होती है। शालपर्णी पृश्निपर्णी बृहतीद्वयगोक्षुरम् । दासी प्रसारणी विश्वा गुडूची मुस्तकं तथा ॥ निहन्ति सूतिकारोगं ज्वरं दाहसमन्वितम् ॥ शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, झिण्टीमूल, प्रसारणी, सांठ, गिलोय और नागरमोथा इनका क्वाथ ज्वर और दाहयुक्त सूतिका रोगको नष्ट करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९७ (७८१२) सुरणपुटपाकः ( शा. सं. । म. खं. अ. १ ) सौरणं कन्दमादाय पुटपाकेन पाचयेत् । सतैललवणस्तस्य रसश्चार्थी विकारनुत् ॥ सूरणकन्द ( जिमिकन्द ) को पुटपाक विधिसे पका कर ( उस पर आधा अंगुल मोटा और जब वह लाल हो जाय तो उसे निकाल कर मिट्टीका लेप करके सुखा कर अंगारोंमें पकावें उसके ऊपर की मिट्टी छुड़ा कर ) कूटकर उसका रस निकालें । इसमें तेल और लवण ( सेंधा नमक ) मिला कर पीनेसे अर्शका नाश होता है । (७८१३) सौभाञ्जनकषायः ( हृ. मा. । विद्रध्य.; वृं. नि. र. । विद्रध्य.) सौभाञ्जनक निर्यूहो सैन्धवसंयुतः । अचिराद्विद्रधिं हन्ति प्रातः प्रातर्निषेवितः ॥ सजनेकी छाल के क्वाथमें होंग और सेंधानमक मिला कर प्रातः काल सेवन करने से विद्रधि शीघ्रही नष्ट हो जाती है । For Private And Personal Use Only (७८१४) सौभाञ्जनस्वरसयोगः ( वृ. मा. । कर्ण. ) सौभाञ्जनस्य निर्यासस्तिलतैलेन संयुतः । व्यक्तोष्णः पूरण: कर्णे कर्णशुलोपशान्तये ॥ सहजनेके ( पत्तों या छालके ) स्वरसमें तिलका तेल मिला कर उष्ण करके कानमें डालनेसे कर्णशूल नष्ट होता है । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १९८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [संकारादि (७८१५) सौराष्ट्रिकादिक्वाथः । ये दस ओषधियां स्तन्यशोधक कषाय-द्रव्यों में ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४) मुख्य हैं । सौराष्ट्रिकासीसमहौषधानि ( इनका क्वाथ पीनेसे बच्चेकी मांका. दूध दुरालभाजाजिप्रवालकं च । दोष-रहित हो जाता है।) दावी यांनी ककुभं समझा (७८१८) स्थलपनकल्क: ___ क्वाथः ससर्पिर्यकृदा हन्ति ॥ ।. (वृ. मा. । शोथा.) सोरठी माटी, कसीस, सेांठ, धमासा, जीरा, | स्थलपनमयं कल्क पयसाऽऽलोडय पाययेत् । प्लीहामयहरं चैव सर्वाकाङ्गशोथजित ।। जीवशाक, दारुहल्दी, अजवायन, अर्जुन और ___स्थलपमके कल्कको दूधमें मिलाकर पीनेसे मजीठ समान भाग ले कर क्वाथ बनावें।। प्लीहा और सींग तथा एकांग शोथका नाश इसमें घी मिला कर पीनेसे यकृद् रोग शीघ्रही होता है। मष्ट हो जाता है। (७८१९) स्थिरादिक्वाथः (७८१६)स्तन्यजननोदशको महाकषायः (वृ. नि. र. । ज्वरा.) (च. सं. । सूत्र. १ अ. ४ ) स्थिरासामलकादारुश्रीष्टकमहौषधेः । वीरणशालिपष्टिकेक्षुबालिकादर्भशकाशगुन्द्रे- भृतं शीतं जलं दधासितामधुविमिश्रितम् ॥ स्फटकतृणमूलानीति दशेमानि स्तन्यजननानि चातुर्थिके ज्वरे तीब्रे मन्दे चैवाथ पावके । भवन्ति । शालपर्णी, आमला, देवदारु, चीरका काष्ठ " खस, शालिधान, षष्टिक (साठा), इक्षु बा- और सेठ समान भाग ले कर काथ बनावें। लिका (इक्षुभेद), दाभ, कुश, काश, गिलोय, इत्कट | इसे ठंडा करके उसमें मिश्री और शहद मिला और रोहिष तृण; इनको जड़ । ये दश ओषधियां कर पीनेसे तीब्र चातुर्थिक ज्वर और अग्निमांद्यका स्तन्यजनक हैं। | नाश होता है। (७८१७) स्तन्यशोधनो दशको महाकषायः (७८२०) स्थौल्यहरयोगः (च. सं. । सूत्र. १ अ. ४) (वै. म. र. । पटल १२) पाठामहौषधसुरदारुमुस्तमूर्वागुडूचीवत्सक- अतिस्थूलशरीरो यस्तिलतैलं मगे पिबेत् । फलकिराततिक्तकटुरोहिणीसारिवा इति पिवेदसनसारस्य क्वायं वा मधुसंयुतम् ॥ दशेमानि स्तन्यशोधनानि भवन्ति । प्रातःकाल तिलका तेल या असना वृक्षके पाठा, सांठ, देवदारु, नागरमोथा, मूर्वा, सारका क्वाथ शहद मिला कर पीनेसे शरीरकी गिलोय, इन्द्रजौ, चिरायता, कुटकी और सारिवा; स्थूलता नष्ट हो जाती है। For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः, .. (७८२१) स्नेहोपगदशको महाकषाय: । (७८२२) स्वेदोपगदशको महाकषायः (च. सं. । सू. अ. ४) . मृद्वीकामधुकमधुपर्णीमेदा विदारोकाकोली (च. सं. । सूत्र १ अ. ४ ) क्षीरकाकोलीजीवकजीवन्तीशालपर्ण्य . इति दशेमानि स्नेहोपयोगानि भवन्ति । शोभाञ्जनकैरण्डार्कवृश्चीरपुनर्नवायवतिलकुल___ मुनक्का, मुलैठी, गिलोय, मेदा, विदारीकन्द, त्यमाषबदराणीति दशेमानि स्वेदोपगानि काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, जीवन्ती और शाल भवन्ति । पर्णी; ये दश ओषधियां स्नेहोपयोगी हैं । स्वल्पभाग्यांदिक्वाथः सहजना, अरण्ड, अर्क (आक), सफेद - (भै. र. । ज्वरा.) पुनर्नवा, पुनर्नवा, जौ, तिल, कुलथी, उड़द और प्र. सं. १७९१ भार्यादि क्वाथः (६) देखिये । | बेर; ये दश ओषधियां स्नेहोपयोगी हैं। इति सकारादिकषायप्रकरणम् अथ सकारादिचूर्णप्रकरणम् (७८२३) सदाभद्रादिचूर्णम् । (७८२४) सप्तसमयोगः ( यो. र. । मूत्राघाता.) (वृ. मा. । कुष्ठा.) सदाभद्राश्मभिन्मूलं. शतावर्याश्च चित्रकम् । रोहिणी कोकिलाक्षौ च क्रौश्वस्थूलं त्रिकण्टकम् ॥ तिलाज्यत्रिफलाक्षौद्रव्योषभल्लातशर्कराः ।। श्लक्ष्णपिष्टाः सुरापीता मूत्राघातप्रवन्धनाः ॥ वृष्यः सप्तसमो मेध्यः कुष्ठहा कामचारिणः ॥ ___ खम्भारीकी छाल, पाषाणभेद, शतावर, तिल, त्रिफला (हर, बहेड़ा, आमला), त्रिचीतामूल, कुटकी, तालमखाना, कमलबीज (कम | कुटा (सांठ, मिर्च, पीपल), शुद्ध भिलावा और लगट्टा), ईखकी जड़ और गोखरु; ये सब ओष. खांड; ये पांचों ओषधियां १-१ भाग ले कर धियां समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। चूर्ण बनावें और फिर उसमें १-१ भाग शहद इसे मद्यके साथ पीनेसे मूत्राघात नष्ट और घी मिला लें। होता है। (मात्रा-३-४ माशे ।) यह योग वृष्य, मेध्य और कुष्टनाशक है। For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - २०० भारत-मेषज्य रत्नाकर [ सकारादि - ६५८२५) समङ्गादिपूर्णम् (१) भानास्थिमध्य लोख्रश्च विल्यमध्यं प्रिया च । ( यो. र. । अतिसारा. ; वृ. नि. र. : व. | मधुकं ावेरा दीर्घवन्तत्वगेव च ॥ से. । पित्तातिसा.) चत्वार एते योगाः स्युः पित्तातीसारनाशनाः । समझ पातकीपुष्पं बिल्वं सौवर्चलं विडम । उता य उपयोज्यास्तु सक्षौद्रास्तण्डुलाम्पुना ॥ सक्षौ दाडिमं चैव पीतं तण्डुलवारिणा ॥ (१) लम्जालकी जड़, धायके फूल, मजीठ चूर्षे पिचातिसारघ्नं शूलं चाऽऽशुपनिहरेत । और लोध समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। लज्जालुको जड़, धायके फूल, बेलगिरी, | (२) मोचरस, लोध और अनारके वृक्षको छाल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । संचल (काला नमक), बिड लवण और अनार (३) आमकी गुठलीकी मज्जा (गिरी), लोध, दाना समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। बेलगिरी और फूलप्रियंगु समान भाग ले कर इसे शहद में मिला कर चावलोंके धोवनके। | चूर्ण बनावें । साथ सेवन करनेसे पित्तातिसार और शूल शीघ्र ही | (४) मुलैठी, सोंठ और पीला लोध समान नष्ट हो जाता है। भाग ले कर चूर्ण बनावें। (मात्रा-२-३ माशे ।) ये चारों चूर्ण पित्तातिसारको नष्ट करते हैं। (७८२६) समङ्गादिचूर्णम् (२) इन्हें शहदमें मिलाकर चाटना चाहिये । (व. से. । अतिसा.) . अमुपान-चावलोंका धोवन । समझा धातकीपुष्पं केशरं नीलमुत्पलम् । (मात्रा-२-३ माशे ।) तण्डुलोदकसंयुक्तं ज्वरातीसारनाशनम् ॥ (७८२८) समशर्करचूर्णम् (१) लज्जालकी जड़, धायके फूल, नागकेसर (वृ. नि. र. । अजीर्णा.) और नीलोत्पल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। विश्वकणोपणनागदलैश्च इसे चावलोंके धोवनके साथ सेवन करनेसे त्वक्त्रुटिभिर्विहित क्रमद्धम् । ज्वरातिसार नष्ट होता है। चूर्णमिदं समखण्डमरोच(मामा-२-३ मारे ।) श्वासगुदोद्भवगुल्मवमीषु ।। (७८२७) समादियोगचतुष्टयम् सेठ १ भाग, पीपल २ भाग, काली मिर्च (व. से. । अतिसारा. ; भा. प्र. । म. खं. २ । ३ भाग, नागकेसर ४ भाग, तेजपात ५ भाग, अतिसा.) दालचीनी ६ भाग और छोटी इलायची ७ भाग समाधातकीपुष्पं मभिष्ठा लोध्रमेव च।। के कर चूर्ण बनावें और फिर उसमें उसके बरावर शामलीपेट लोक्षदाडिमयोस्त्वचौ ॥ ) खांड मिला लें । For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - चूर्णप्रकरणम् ] - पश्चमो भागः यह चूर्ण अरुचि, श्वास, अर्श, गुल्म और चूर्ण बनावें और फिर उसमें १ भाग शहद वमनको नष्ट करता है। मिला लें। ___ (मात्रा-३-४ माशे ।) इसे घीमें मिला कर चाटनेसे आमवात, ग्रहणी . समशर्करचूर्णम् (२) विकार, कास, अवसाद, ज्वर, अम्लपित्त, शोथ, (वृ. मा. । कासा. ; च. द. । कासा. ११) पाण्डु, अरुचि, उग्र प्रमेह, परिणाम शूल और कफ प्र. सं. ६६४३ " वृहच्छर्करासमचूर्णम् " पित्तज रोग नष्ट होते हैं । यह चूर्ण रसायन, देखिये । अग्निदीपक, बलकारक और अर्श नाशक है। समशर्करचूर्णम् (३) अनुपान-दूध । (भै. र. ; यो. र. । अ#. ; वृ. मा. । अर्शो. ; पथ्यमें-स्निग्धाहार देना चाहिये । च. द. । अर्शों. ५ ; यो. त. । त. २३ । | ( मात्रा-२-३ माशे । ) भा. प्र. म. खं. २ । अजीर्णा., अर्शी.) (७८३०) समुद्रफेनचूर्णम् प्र. सं. ७२९७ “ शर्करासमं चूर्णम् " (यो. र. । कर्ण. ; वृ. यो. त । त. १२९) देखिये। समुद्रफेनचूर्ण तु न्यस्तं श्रवणसंश्रये। (७८२९) समसप्तकं चूर्णम् पूयस्त्रावं व्रणं सान्द्रं हन्ति ध्वान्तमिवांशुमान् ॥ ( र. र. । अम्लपित्ता.) . समुद्रफेनके बारीक चूर्णको कानमें डालनेसे जुगामृताश्वेतपुनर्नवानां पीप बहना और कानका घाव नष्ट हो जाता है। शक्राशनस्यापि च मार्कवस्य । (रुईको बत्तीको शहदमें भिगो कर उसे चूर्ण सिता क्षौद्रयुतं घृतेन समुद्रफेनके चूर्णमें आलोडित करके कानमें रखलोढा पयः पेयमतन्द्रितेन ॥ नेसे अत्यन्त लाभ होता है।) सामश्च वायुं ग्रहणों पदुष्टां सरस्वतीचूर्णम् (महा) कासावसादं ज्वरमम्लपित्तम् । प्र. सं. ५१२४ “ महा सरस्वतीचूर्णम् " शोथं तथा पाण्डुमरोचकञ्च देखिये। प्रमेहमुग्रं परिणामशूलम् ॥ (७८३१) सर्जस्वक्चूर्णम् स्निग्धानभोक्तः पुरुषस्य शीघ्र (बृ. मा. । कर्ण. ; व. से. ; वृ. नि. र. । कर्ण.) निहन्ति सर्व कफपित्तरोगम् । स त्वक्चूर्णसंयुक्तः कर्पासीफलजो रसः । रसायनोलिपदश्च मधुना संयुतः साधुः कर्णनावे प्रशस्यते । दुर्णामहन्ता समसप्तकोयम् ॥ कपासके बीज (बिनौले) के रस (काथ) में विधारा, गिलोय, सफेद पुनर्नवाकी जड़, शाल वृक्षकी छालका चूर्ण मिला और फिर उसमें इन्द्रजौ, भंगरा और खांड समान भाग ले कर | शहद मिला लें। For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जाता है । २०२ इसे कान में डालने से कर्णस्राव बन्द हो ( कपास के बीजोंका रस १ तोला, चूर्ण १॥ माशा, शहद १ तोला । ) ( भा. प्र. म. खं. २ संग्रहण्य. त. । त. ६७ ) (७८३२) सर्जरसचूर्णम् www. kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः ; श्वेतो वा यदि वा रक्तः सुपक्वो ग्रहणीगदः । गुडेनाधिकसर्जेन भक्षितेनाशु नश्यति || देखिये । वृ. यो. रालके चूर्णको गुड़में मिला कर सेवन करनेसे रक्त रहित और रक्त सहित पक ग्रहणी रोग नष्ट हो जाता है । ( लिका चूर्ण १ माशा | गुड़ ६ माशे । ) (७८३३) सर्वकुष्ठाङ्कुशचूर्णम् ( र. र. स. । उ. अ. २० ) शली बाकुची बीजं निर्गुण्डीमूलतुल्यकम् । मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्षमिदं स्यात्सर्वकुष्ठनुत् || मूसली, बाबची और संभालकी जड़ समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । 16 इसे १। तोलेकी मात्रानुसार शहद और घी में मिला कर सेवन करने से समस्त प्रकारके कुछ नष्ट होते हैं । सर्वेश्वरवर्णम् प्र. सं. १७२५ 'चित्रकादिचूर्णम् " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७८३४) सर्षपादिचूर्णम् ( वृ. यो. त. । त. १२० ; यो. र. । कुष्ठा. ; बृ. नि. र. । त्वग्दोषा. ) [ सकारादि सर्षपकर रजनीदारुनिशादारुमञ्जिष्ठाः । त्रिफलाटी पटीरश्वेतामू मियकुकाश्चापि ॥ त्रिकटुत्रिगन्धके सरलाक्षाश्चैषां कृतं रजः श्लक्ष्णम् । उद्बलनेन रक्तपित्तज वातोत्थितं वाऽपि ॥ निस्तोदभेदपिटिकं कुठं स्फुटनं विनाशयति ॥ सरसों, करञ्ज, हल्दी, दारूहल्दी, देवदारु, मजीठ, हर्र, बहेड़ा, आमला, कचूर, खैरसार, श्वेत सारिवा, मूर्वा, फूलप्रियंगु, सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर और लाख समान भाग ले कर अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण बनावें । इसे स्फुटित कुष्ठके व्रणोंपर छिड़कने से तोद भेदादि पीड़ाएं शान्त होती हैं । (७८३५) सामुद्राचं चूर्णम् (१) ( ग. नि. । चूर्णा. ३ ; यो. र. । उदरा. ; च. द. । उदरा. ३६ ; धृ. यो. त. । त. १०५ ; भै. र. व. से. ; वृ. मा. ; र. र. । उदरा. ; यो. चि. म. । अ. २ ) ; सामुद्रसौवर्चल सैन्धवानि For Private And Personal Use Only क्षारो यवानीमजमोदभागः । सपिप्पली चित्रकशृङ्गवेरं हि विडङ्गं च समानि कुर्यात् ॥ एतानि चूर्णानि घृतप्लुतानि भुञ्जीत पूर्व कवलं प्रशस्तम् । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २०३ - - - बातोदरं गुल्ममजीर्णभुक्तं माङ्गल्यपुष्पी च समान्यमूनि वातप्रकोपं ग्रहणीं च दुष्टाम् ।। सर्वैः समानाञ्च वचा विचूर्ण्य ॥ अशीसि दुष्टानि च पाण्डुरोगं ब्राह्मीरसेनाखिलमेव भाव्यं भगन्दरं चापि निहन्ति सद्यः॥ वारत्रयं शुष्कमिदं हि चूर्णम् । सामुद्र लवण, सञ्चल ( काला नमक ), सेंधा अक्षप्रमाणं मधुना घृतेन नमक, जवाखार, अजवायन, अजमोद, पीपल, लिह्यान्नरः सप्तदिनानि चूर्णम् ॥ चीतामूल, सेठ, हींग और बायबिडंग समान भाग सारस्वतमिदं चूर्ण ब्रह्मणा निर्मितं पुरा । ले कर चूर्ण बनावें। हिताय सर्वलोकानां दुर्मेधानाम् विचेतसाम् । इसे घुतमें मिलाकर भोजनके समय प्रथम एतस्याभ्यासतः पुंसां बुद्धिर्मेधा धृतिः स्मृतिः। प्रासमें खानेसे वातोदर, गुल्म, अजीर्ण, वात प्र- सम्पत्तिः कविताशक्तिः प्रवर्द्धचोत्तरोत्तरम् ॥ कोप, ग्रहणीविकार, अर्श, पाण्डु और भगन्दरका कठ, असगन्ध, सेंधा नमक, अजमोद, सफेद नाश होता है। और काला जीरा, सोंठ मिर्च, पीपल, पाठा और ( मात्रा-२ माशे।) शंखपुष्पी १-१ भाग तथा बच सबके बराबर ले सामुद्राय चूर्ण (२) कर चूर्ण बनावें और ब्राह्मीके रसकी ३ भावना दे रस प्रकरणमें देखिये। (७८३६) सामुद्राद्ययोगः कर सुखा लें। (ग. नि. । राजयक्ष्मा. ९) मात्रा-११ तोला । (व्यवहारिक मात्रा ३ माशे।) सामुद्रकं च सय भानुदुग्वेन भावितम् । इसे घी और शहदमें मिला कर सेवन पाययेद्गव्यदुग्धेन मले मलविशुद्धये ॥ - करनेसे बुद्धि, मेधा, धृति, स्मृति और कविता सामुद्र लवणको आकके दूधकी भावना दे । शक्तिकी वृद्धि होती है। कर रक्खें । ___ इसे राजयक्ष्मामें मल शुद्धिके लिये गोदुग्धके (७८३८) सिताञ्जनादिचूर्णम् साथ खिलाना चाहिये । (वृ. मा. । अतिसारा.) (७८३७) सारस्वतचूर्णम् (वृहत) सिताअनकणालाजमधुर्फ नीलमुत्पलम् । ( भा. प्र. । म. ख. २ उन्मादा. ; व. से.। पित्तज्वरातिसारनं मलीदं मधुना सह ॥ उन्मादा. ; ग. नि. चूर्णा, ३ ; वृ. यो. सफेद सुरमा, पीपल, धानकी खोल, मुलैठी त. । ते. ८८ ; यो. चि म.। अ.२) और नीलोत्पल समान भाग ले कर चर्ण बनावें। कुष्ठाश्वगन्धे लवणाजमोदे - इसे शहदके साथ सेवन करनेसे पित्तथर द्वे जीरके त्रीणि कटूनि पाठा। और अतिसारका नाश होता है । १ कुछ ग्रन्थों में चित्रकके स्थानपर हरीतकी है।। (मात्रा-३ माशे।) For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि (७८३९) सितासितादिचूर्णम् । इसे शहद और घीमें मिला कर सेवन कर(वै. म. र. । पटल ५) नेसे श्वास, खांसी, क्षय, हाथ पैरों और शरीरकी । दाह, अग्निमांध, . जिहाकी सुप्तता, पार्श्व शूल, सितासिताविश्वभवौ चूणौँ पथ्यारजः समौ । अरुचि, ज्वर और उर्ध्वगत रक्त पित्तका शीघ्र ही गुडावली ढौ गुदजान् हतः श्लेष्ममरुद्भवान् ॥ नाश होता है। बाबची, सेठि और हरै समान भाग ले कर (मात्रा-२ माशे ।) चूर्ण बनावें । (७८४१) सिन्ध्वादिचूर्णम् - इसे गुड़में मिला कर सेवन करनेसे वातकफज | (यो. र. । प्लीहा. ; वृ. नि. र. । उदरा.) मर्शका नाश होता है। सिन्धुमगधाग्निचूर्ण शिग्रुशालिजाजिकासमं (मात्रा-२ माशे।) निपीतम् । प्रबलमपि योगराजः प्लीहानं नाशयत्याशु ।। (७८४०) सितोपलादिचूर्णम् सेंधा नमक, पीपल, चीतामूल, सहजनेकी (सितोपलादिलेहः) छाल, काला जीरा और सफेद जीरा समान भाग (शा. सं. । खं २ अ. ६ ; ग. नि. । चूर्णा, ३ ले कर चूर्ण बनावें । यो. र. । ज्वरा., क्षया. ; भै. र. ; वृ. मा.। यह चूर्ण प्रबल प्लीहा वृद्धिको भी शीघ्र ही राजयक्ष्मा. ; वृ. नि. र. । विषम ज्वरा. ; यो. नष्ट कर देता है। त. । त. २० , २७ ; वृ. यो. त. । त. (मात्रा-२-३ माशे। अनुपान-उष्ण जल) ५९, ६७ ; च. सं. चि. अ. ८) ___ (७८४२) सिंहचूर्णम् (१) सितोपला षोडश स्यादष्टौ स्याद्वंशरोचना। (ग. नि. । चूर्णा, ३) मौवचलं सैन्धवं च सामुद्रं मरिचं तथा। पिप्पली स्याच्चतुष्कर्षा स्यादेला च द्विकार्षिकी दाडिमसारकं चाम्लवेतसं समभागकम् ।। एकः कर्षस्त्वचः कार्यश्चूर्णयेत्सर्वमेकतः । नागरं त्रिगुणं चैव जीरकं च चतुर्गुणम् । सितोपलादिकं चूणे मधुसपियुतं लिहेत ॥ | सिंहणं चूर्णमेतच्च मन्दाग्निविनिवारणम् ॥ श्वासकासक्षयहरं हस्तपादाङ्गदाहजित् । । सञ्चल ( काला नमक ), सेंधा नमक, सामुद्र मन्दानिं सुप्तजिहत्वं पार्श्वशूलमरोचकम् ॥ | लवण, काली मिर्च, अनारका सत और अम्लबेत ज्वरमूर्ध्वगतं रक्तं पित्तमाशु व्यपोहति ॥ १-१ भाग, सेठ ३ भाग और जीरा ४ भाग ले मिश्री १६ भाग, बंसलोचन ८ भाग, पीपल | कर चूर्ण बनावें । ४ भाग, इलायची २ भाग और दालचीनी १ यह चूर्ण अग्निमांद्यको नष्ट करता है । भाग ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें । (मात्रा-२ माशे । अनुपान उष्ण जल।) For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] पञ्चमो भागः २०५ (७८४३) सिंहचूर्णम् (२) श्री सिंहन राजा-कृत. यह चूर्ण गुल्म, ( ग. नि. | चूर्णा. ३) अफारो, विचूंचिका, अर्श, श्वास और वायुको अधै हिडपलं पलं मुश्मिलं सौवर्चल व पले नष्ट करता है। प्रत्येकं मरिचाम्लदीप्यलवणाम्भोराशिजाता- (मात्रा-२ माशे।) अनुपान-तक्र । न क्षिपेत् । शुण्ठयाश्च त्रिपलं चतुष्पलमपि स्याहाडिमं (७८४५) सिंहराजचूर्णम् जीरकम् । (हा. सं. । स्था. ३ अ. ६ ; वृ. नि. र. । श्रीमत्सिंहणभूमिपालकथितं सेव्यं सदेदं बुधैः ।। ग्रहण्य.) हींग २॥ तोले, संचल ( काला नमक ) ५ एकः प्रदेयो रुचकस्य भागो तोले, तथा मिर्च, अम्लवेत, अजवायन और समुद्र ह्य|जमोदस्य च सैन्धवस्य । लवण १०-१० तोले एवं सेठ १५ तोले, अना शुण्ठयास्त्रयो द्वौ मरिचस्य भागौ रदाना २० तोले और जीरा २० तोले ले कर चूर्णं चतुर्थ सितजोरकस्य ॥ चर्ण बनावें । तक्रेण पानात्कफवातरोगां___ श्रीमान् सिंहणराज-कथित यह चूर्ण अग्नि स्तद्भोजनान्ते खलु दीपनाय। मांथको नष्ट करता है। श्रीसिंहराज्ञा कथितं तु चूर्ण ( मात्रा-२ माशे । अनुपान-गर्म पानी ) ___ प्लीहोदराजीर्णविसूचिकायाम् ॥ (७८४४) सिंहनपुरीचूर्णम् संचल (काला नमक) १ भाग, अजमोद (वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) आधा भाग, सेंधा नमक आधा भाग, सेठ ३ भाग, एकांशो रुचकादुभौ मरिचतः काली मिर्च २ भाग तथा सफेद जीरा ४ भाग ले शुण्ठयास्त्रयो जीरतश्चत्वारोळ्युतः। कर चूर्ण बनावें । समुद्रलवणो भागस्तथा सैन्धवः इसे भोजनके अन्तमें तक्रके साथ पीना चूर्ण सिंहनभूभुजा हि कथितं ॥ चाहिये । तक्रेण संसेवितं गुल्मानाहविचिकागुदरुजः श्वासानिलान्नाशयेत्। श्री सिंहराज-कथित यह चूर्ण अग्निदीपक, तथा प्लीहा, उदर, अजीर्ण और विसूचिका काला नमक (संचल) १ भाग, मिर्च २ भाग नाशक है। सेठ ३ भाग, जीरा ४॥ भाग तथा समुद्र लवण और सेंधा नमक १-१ भाग ले कर चूर्ण बनावें। (मात्रा-२-३ माशे ।) . For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ भारत-भैषज्यं-रत्नाकरः [ सकारादि (७८१६) सुदर्शनचूर्णम् (१) | पीपलाभूल, मूर्वा, गिलोय, धमासा, कुटकी, पित्त पापड़ा, नागरमोथा, त्रायमाना, सुगन्धवाला, नीमकी (शा. सं. । खं. २ अ. ६ ; यो. त. । त. छाल, पोखरमूल, मुटैठी, कुड़ेकी छाल, अजवायन, २० ; यो.चि. म. । चूर्णा. २; वृ. नि. र.। इन्द्रजौ, भरंगी, सहजनेके बीज, सोरठी मिट्टी, बच, ____ ज्वरा. ; यो. र..। चरा.) दालचीनी, पनाक, खस, चन्दन, अतीस, खरैटीकी त्रिफलारजनीयुग्मं कण्टकारियुगं सटी। जड़, शालपर्णी, पृष्टपणी, बायबिडंग, तगर, चीतात्रिकटु ग्रन्थिकं मूर्वा गुडूची धन्वयासकः॥ मूल, देवदारु, चव, पटोलपत्र, जीवक. ऋषभक, कटुका पर्पटी मुस्तं त्रायमाणा च वालकम् । लौंग, वंशलोचन, कमल, काकोली, तेजपात; निम्बः पुष्करमूलं च मधुयष्टी च वत्सकम् ॥ चमेलीके पत्ते और तालीस पत्र १-१ भाग तथा यवानीन्द्रयवो भार्गी शिग्रुवीज सुराष्ट्रजा। चिरायता सबसे आधा ले कर चूर्ण बनावें । वचात्वपझकोशीरचन्दनातिविषाबलाः ॥ यह चूर्ण निस्सन्देह समस्त ज्वरोको नष्ट शालिपर्णी पृष्ठिपर्णी विडङ्गं तगरं तथा । करता है। इसके सेवनसे एकदोषज, द्वन्द्वज, चित्रको देवकाष्ठं च चव्यं पत्रं पटोलजम् ।। त्रिदोषज, आगन्तुज और विषम ज्वर एवं सन्निजीवकर्षभको चैव लवङ्ग वंशलोचना । पात ज्वर, मानस ज्वर, एकाहिक आदि शीत ज्वर पुण्डरीकं च काकोली पत्रकं जातिपत्रकम् ॥ । (मेलेरिया), मोह, तन्द्रा, भ्रम, तृषा, श्वास, कास, बालीसपत्रं च तथा समभागानि चूर्ण येत् । पाण्डु, कामला, हृद्रोग, त्रिकशूल, कटिशूल, पा. सर्वचूर्णस्य चाधाशं कैरातं प्रक्षिपेत्सुधीः ॥ । शूल और जानु शूलादि रोग नष्ट होते हैं। एतत्सुदर्शनं नाम चूर्ण दोषत्रयापहम् ।। अनुपान-शीतल जल । ज्वरांश्च निखिलान हन्यान्नात्र कार्या विचारणा।। (मात्रा-३-४ माशे ।) पृथकद्वन्द्वागन्तुजांश्च पातुस्थान् विषमज्वरान् । सन्निपातोद्भवांश्चापि मानसानपि नाशयेत् ॥ जिस प्रकार सुदर्शन चक्र दैत्योंको नष्ट कर । ज्वरोंका शीतज्वरैकाहिकादीन् मोहं तन्द्रां भ्रमं पाम् । श्वासं कासं पाण्डुतां च हृद्रोगं हन्ति कामलाम ॥ विध्वंस करता है । त्रिकपृष्ठकटीजानुपार्श्वशूलनिवारणम् । (७८४७) सुदर्शनचूर्णम् (२) शीताम्घुना पिबेद्धीमान् सर्वज्वरनिवृत्तये ॥ ( भै. र. । ज्वरा. ; र. र. । ज्वरा.) सदर्शनं यथा चक्रं दानवानां विनाशनम् । कालीयकन्तु रजनी देवदारु वचा धनम् । तज्ज्वराणां सर्वेषामिदं चूर्ण विनाशनम् ॥ अभया धन्वयासश्च शृङ्गी शुद्रा महौषधम् ॥ ____ हर, बहेड़ा, आमला, हल्दी, दारुहल्दी, त्रायन्ती पर्पटें निम्बं ग्रन्थिकं वालकं शटी । कटेली, बड़ी कटेली, कचूर, सेांठ, मिर्च, पीपल, । पौष्करं मागधी मूर्वा कुटजं मधुयष्टिका ॥ प्रकार For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] शिशूद्भवं सेन्द्रयवं वरी दार्वी कुचन्दनम् । पसरलोशीरं त्वचं सौराष्ट्रका स्थिरा ॥ मान्यतिविषा बिल्वं मरिचं गन्धपत्रकम् । धात्री गुडूची कटुकं सचित्रकपटोलकम् ॥ कलसी चैव सर्वाणि समभागानि कारयेत् । सर्वद्रव्यस्य चार्द्धन्तु कैरातं सम्प्रकल्पयेत् ॥ एतत् सुदर्शनं नाम ज्वरान् हन्ति न संशयः । पृथग्दोषांश्च विविधान् समस्तान विषमज्वरान् ॥ प्राकृतं वैकृषञ्चापि सौम्यं तीक्ष्णमथापि वा । अन्तर्गतं बहिःस्थञ्च निरामं साममेव च ॥ ज्वरमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा । नानादोषोद्भवश्चैव वारिदोषभवन्तथा ॥ विरुद्ध भेषजभवं ज्वरमा व्यपोहति । प्लीहानं यकृतं गुल्मं हन्त्यवश्यं न संशयः ॥ यथा सुदर्शनं चक्रं दानवानां निषूदनम् । तथा ज्वराणां सर्वेषामिदमेव निगद्यते || पञ्चमो भागः दारूहल्दी, हल्दी, देवदारु, बच, नागरमोथा, हर्र, धमासा, काकड़ासिंगी, कटेली, सोंठ, त्रायमाणा, पित्तपापड़ा, : नीमकी छाल, पीपलामूल, सुगन्धवाला, कचूर, पोखरमूल, पीपल, मूर्वा, कुड़ेकी छाल, मुलैठी, सहंजनेकी छाल, इन्द्रजौ शतावर, दारूहल्दी, पतङ्ग, पद्माक, चीरका काष्ठ, खस, दालचीनी, सोरठी मोटी, शालपर्णी, अजवायन, अतीस, बेलकी छाल, काली मिर्च, तेजपात, आमला, गिलोय, कुटकी, चीतामूल, पटोल और पृश्निपर्णी १ - १ भाग तथा चिरायता सबसे आधा ले कर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण पृथक् पृथक् तथा समस्त दोषोंसे उत्पन्न ज्वर, विषम ज्वर, प्राकृत् ज्वर, बैकृत् ज्वर, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०७ मृदु ज्वर, तीव्र ज्वर, अन्तर्गत ज्वर, बहिःस्थ ज्वर, निराम और साम ज्वर, नाना देशोंके जलवायुके विकारसे उत्पन्न ज्वर, विरुद्धभेषज जनित ज्वर, प्लीहा, यकृत् और गुल्मको नष्ट करता है । ( मात्रा - ३ माशे । ) (७८४८) सुदर्शनचूर्णम् (३) ( यो. र. ; वृ. नि. र. । ज्वरा. ) तालीस त्रिफला तृटी त्रिकटुकं स्वक्त्रायमाणाि सूर्वाग्रन्थि निशायुतं शठिवला रुकण्टकारी युगम् । सुस्ता पनि पुष्कर जटाभार्गीयवानी हिमं चव्यं चित्रकपुण्डरीकतगरं सेव्यं विडङ्गं वचा ॥ यासो वत्सककुण्डलीन्द्रयवकं देवद्रुमं वाळकं atri fari पटोलकटुकापद्मादपत्रं विषा । काकोलीमधुकुङ्कुमं च सतवक्षीरीलवङ्गं पृथक् पर्णोशैलजशालिपर्णिसहितं शामन्तकीपुष्पकम् ॥ सर्व समं चूर्ण तदर्धभाग कैरातकं श्रेष्ठतमं हि चूर्णम् । सुदर्शनं नाम मरुवलासामयोद्भवान्हन्ति पृथक्कृतान्ज्वरान् ॥ संसर्गजान् सकलजान्विषमाभिहन्या दातूद्भवान्विषकृतानभिघातजांश्च । सामान्समानसकृताना तानतिदाहयुक्ता-. छीतस्तृतीयक चतुर्थविपर्ययांश्च ॥ ऐकाहिकान्याहिकसन्निपाता नानाविधान्पाक्षिकमासजातान् । दाहमोह भ्रमदैन्यतन्द्रासश्वासकासारुचिपाण्डुरोगान् ॥ For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ - - भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ सकारादि हलीमकं कामलपार्श्वशृलं ज्वर, शीतज्वर, तृतीयक, चातुर्थिक तथा इनके पृष्ठोद्भवं जानुभवं तथैव । विपर्यय ज्वर, एकाहिक और द्वयाहिक ज्वर, त्रिकाहं वातविकारजातं सन्निपातज ज्वर, पाक्षिक और मासिक ज्वर, तृषा, विनाशयत्येव शिरोग्रहं च ॥ दाह, मोह, भ्रम, दैन्य, तन्द्रा, श्वास, कास, अरुचि, नानापदेशोद्भववारिदोषान् पाण्डु, हलीमक, कामला, पार्श्वशूल, पृष्ठशूल, दृषी विषादिमभवान्विकारान् । | जानुशूल, त्रिकग्रह, वातव्याधि, शिरोग्रह, नाना स्त्रीणां रजोदोषसमुद्भवांश्च देशोंके जलदोषसे उत्पन्न ज्वर, दूषी विषजनित विनाशयेदुष्णजलेन पीतम् ॥ ज्वर एवं रजोदोषसे उत्पन्न ज्वरादि रोग इसके शीताम्बुना पित्तभवान्विकारा- सेवनसे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । भानामुनीन्द्रैर्गदितं जगद्धितम् । __ अनुपान-उष्ण जल । मुदर्शनं दानवनाशनं यथा इसे पित्तज रोगोंमें शीतल जलके साथ मुदर्शनं रोगविनाशनं तथा। देना चाहिये। तालीस पत्र, हर्र, बहेड़ा, आमला, छोटी इलायची, सोंठ, मिर्च, पीपल, दालाचीनी, त्राय ( मात्रा-२-३ माशे।) माणा, निसोत, मूर्वा, पीपलामूल, हल्दा, दारुहल्दी, सुदर्शनचूर्णम् (४) (लघु, कचूर, खरैटी, कूठ, छोटो और बड़ी कटेली, नागर- (यो. र. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) मोथा, पित्तपापड़ा, नीमकी छाल, पोखरमूल, भरगी, प्र. सं. ६२१७ “ लघु सुदर्शनचूर्णम् " अजवायन, चन्दन, चव, चीतामूल, कमल, तगर, देखिये । खस, वायबिडंग, बच, धमासा, कुड़े की छाल, गिलोय, इन्द्रजौ, देवदारु, सुगन्धबाला, संहजनेके (७८४९) सुरसादियोगः (१) बीज, पटोल, कुटकी, पभाख, तेजपात्, अतीस, ( व. से. | चरा.) काकोली, मुलहठी, केसर, वंसलोचन, लौंग, पृष्ठपर्णी, छारछरीला, शालपर्णी, शामन्तकी पुष्प ) मुरसार्जकनिर्यासः समधुव्योषसैन्धवः ।। १-१ भाग तथा चिरायता सबसे आधा ले कर महाश्लेष्मानिलोद्रेकसझानाशविमोक्षणः ॥ चूर्ण बनावें। ___ तुलसी और बनतुलसीके रसमें शहद और यह चूर्ण वायु और कफके रोगोंको नष्ट | त्रिकुटे (सांठ, मिर्च, पीपल), तथा सेंधा नमकका करता है। एकदोषज; द्विदोषज और सन्निपातज- चूर्ण मिलाकर सेवन करानेसे सन्निपात ज्वरकी ज्वर, विषम ज्वर, धातुगत ज्वर, विषजनित ज्वर | बेहोशी तथा अत्यन्त कफवृद्धि और वायुके प्रकोअभिघातज ज्वर, साम ज्वर, मानसञ्चर, दाह- पका नाश होता है । For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०९ चूर्णभकरणम् ] . पश्चमो भागः (७८५०) सुरसादियोगः (२) | भार्गीतामलकी जीवा वृक्षाम्लश्चेति चूर्णितम् । (वै. म. र. । पट. ११) हिक्कावासविबन्धाःकासहत्पार्श्वशूलनुद ॥ तुषाम्भसा तालशिफां सशुण्ठी ___ तुलसीकी जड़, चोरपुष्पी, काकड़ासिंगी, नाभी कवोष्णां प्रदिहेत् कृमिघ्राम् । | छोटी इलायची, पोखरमूल, कचूर, पीपल, दालप्रातः पिबेद्वा सुरसस्य मूलं चीनी, बिड लवण, जवाखार, सोंठ, हींग, अमरसनागरं कोष्णजलेन वापि ॥ बेत, भरंगी, भुई आमला, जीवक और तिन्तडीक तालकी जड़ और सेठको कांजीमें पीस कर समान भाग ले कर चर्ण बनावें। मन्दोषण करके नाभिपर लेप करनेसे कृमि नष्ट होते | ___ इसके सेवनसे हिचकी, श्वास, विबन्ध, अर्श, हैं । अथवा तुलसीकी जड़ और सेठको मन्दोष्ण कास और पार्श्व-शूलका नाश होता है। जलमें पीस कर प्रातःकाल पीनेसे भी कृमि नष्ट (मात्रा-१॥-२ माशे । अनुपान शहद।) हो जाते हैं। (७८५३) सुवर्गलादिचूर्णम् (७८५१) सुरसादियोगः (३) (वृ. नि. र. । अतिसारा.) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ५) सुवर्चलं वचा हिङ्गु हैमज्योति विषा समम् । सुरसा सुरदारु मागधी वातातीसारहृत्पोक्तं सकटुत्रयमम्भसा ।। बिडकम्पिल्लविडादन्तिनी। संचल ( काला नमक ), बच, हींग, चिरात्रिता त्रिफला रसोनकं यता, चीतामूल, अतीस, सेांठ, मिर्च और पोपल कृमिहद्वै सलिलेन सेवितम् ॥ | समान भाग ले कर चर्ण बनावें । तुलसीकी जड़, देवदारु, पीपल, बिड लवण, इसे जलके साथ सेवन करनेसे वातातिसार कमीला, बायबिडंग, दन्तीमूल, निसोत, हरी, बहेड़ा, आमला और ल्हसन समान भाग ले कर (मात्रा-१५-२ माशा ।) चूर्ण बनावें । (७८५४) सुवर्चलादियोगः (१) इसे पानीके साथ सेवन करनेसे कृमि रोग | (ग. नि. । शूला. २३ ; वृ. नि. र. । शूला.) नष्ट होता है। सुवर्चलाजीरकमम्लवेतसं (मात्रा-१॥ माशा।) समं त्रयं द्वयंशमरीचचूर्णकम् । (७८५२) सुरसाचं चूर्णम् सुपक्वपूरस्य रसेन भावितं (ग. नि.। चूर्णा. ३) __ जलेन पीतं खलु वातशूलहृत् ॥ सुरसा चोरकं शृङ्गी सूक्ष्मैला पुष्करं सठी।। काला नमक (संचल), जीरा और अम्लबेत पिप्पलीत्वबिडक्षारशुण्ठी हिज्बम्लवेतसम् ॥ १-१ भाग तथा काली मिर्चका चूर्ण २ भाग ले २७ For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि कर चूर्ण बनावें और उसे पक्के जम्बीरी नीबूके (७८५७) सुवर्णसमकं चूर्णम् रसमें खरल करके सुखा लें। (ग. नि. । चूर्णा. ३) इसे जलके साथ पीनेसे वातज शूल नष्ट पञ्चकोलं समरिचं द्वौ क्षारौ त्रिफला वचा । होता है। | यवानी कुचिका हिङ्ग तिन्तिडीकाम्लवेतसौ ॥ ( मात्रा--१||-२ माशे ।) धान्याजगन्धा त्रायन्तीदाडिमं सयवाग्रजम् । (७८५५) सुवर्चलादियोगः (२) कटुका कौटजं बीजं सैन्धवं च समान् पृथक् ।। (ग. नि. । शूला. २३ ; वृ. नि. र. । शूला.) त्रिवृता सप्तला दन्ती कम्पिल्लो नीलिकाऽभया। स्वर्णक्षीरी च द्विगुणा सर्वमेका चूर्णयेत् ॥ सुवर्चलाभया हिङ्गरजमोदा च सैन्धवम् ।। उष्टमूत्रे तथा गव्ये सप्ताहं परिभावयेत् । स्वर्जीयवोद्भवः क्षारः पयो भुक्तं च शूलहृत् ॥ द्विगुणां शर्करां चात्र दापयेत्तत्पिबेत्यहम् ।। ___ संचल (काला नमक), हर्र, होग, अजमोद, सेंधा नमक, सज्जीखार और जवाखार समान भाग गोमूत्रत्रिफलाक्षाररसैर्मधेः मुखाम्बुना । सुवर्णसमकं चूर्ण सर्वरोगार्तिभेषजम् ।। ले कर चूर्ण बनावें । __इसे पानीके साथ सेवन करनेसे शूल नष्ट | उदरप्लीहशमनं गुल्महृद्रोगनाशनम् । * वाताष्ठीलामथानाहं श्वयधुं सर्वगात्रजम् ।। होता है। । हलीमकामलापाण्डुपमेहज्वरनाशनम् ।। (मात्रा-१-१॥ माशा।) पीपल, पोपलामूल, चव, चीतामूल, सेट, (७८५६) सुवचिकाय चूर्णम् काली मिर्च, जवाखार, सजीखार, हर, बहेड़ा, ( ग. नि. । कृम्य. ६ ; यो. र. । कृम्य.) आमला, बच, अजवायन, मेथी, हींग, तिन्तडीक, सुवर्चिका रामठपत्रिकाहा अम्लबेत, धनिया, अजमोद, त्रायमाना, अनारदाना, विडङ्गवाहीककणाग्निविश्वाः। जवाखार, कुटकी, इन्द्रजौ और सेंधा नमक १--१ यकानिका ग्रन्धिकमद्रमुस्ता- | भाग तथा निसोत, सप्तला, दन्तीमूल, कमीला, स्तकेणचूर्ण कृमिकोटिहारि ॥ नीलिका, हर और स्वर्णक्षीरी ( सत्यानाशो ) की संचल (काला नमक), हींग, जावत्री, बाय- जड़ २-२ भाग ले कर चूर्ण बनावें । तदनन्तर बिडंग, केसर, पीपल, चीता, सेठ, अजवायन, उसे सात सात दिन ऊंटनी और गायके मूत्रकी पीपलामूल और नागरमोथा समान भाग ले कर भावना दे कर सुखा लें। इसके पश्चात् उसमें चूर्ण बनावें। उससे दो गुनी खांड मिलाकर सुरक्षित रक्खें । ___ इसे तक्रके साथ सेवन करनेसे कृमि रोग नष्ट इसे गोमूत्र, त्रिफलाके काथ, क्षारजल, मांसहोता है। रस, मद्य अथवा उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे (मात्रा-१-१॥ माशा । ) उदर रोग, प्लीहा, गुल्म, हृद्रोग, वातापीला, अफारा, For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] सर्व शरीरगत शोथ, हलीमक, कामला, पाण्डु, प्रमेह और ज्वरका नाश होता है । ( मात्रा - २ माशे । ) (७८५८) सूक्ष्मैलादि चूर्णम् (१) ( वृ. नि. र. | हृद्रोगा. ) सूक्ष्मैला मागधीमूलं प्रलीढं सर्पिषा सह । नाशयेदाशु हृद्रोगं कफर्ज सपरिग्रहम् ॥ छोटी इलायची और पीपलामूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे घी के साथ सेवन करने से कफज हृद्रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ( मात्रा -३ माशे । ) पञ्चमो भागः सूक्ष्मैलादिचूर्णम् (२) (बृ. मा. | अरोचका. ; ग. नि. । चूर्णा. ३; व. से. । अरोचका. ) प्र. सं. ५५९ " एलादि चूर्णम् " देखिये । पाठान्तर के अनुसार मुनक्काका अभाव तथा असगन्धके स्थानमें बनतुलसी और कौंच के स्थान में कैथ होना चाहिये । (७८५९) सूरणादिक्षारः ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४ ) कृत्वा तु गर्भविवरं पृथुसूरणस्य सस्नुक्पयोलशुनहिङ्गुकटुत्रिकाशिः । सिन्धुद्भवादिलवणैः परिपूर्य दग्धं खादन् दहत्युपचितानपि सर्वगुल्मान् ॥ सूरण (जिमीकन्द) की मोटीसी एक गांठ ले कर उसमें टांकी लगाकर अन्दर छेद करें और भीतरसे थोड़ासा गूदा निकाल कर उस खाली Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थान में १-२ भाग सेहुंड (थूहर ) का दूध, ल्हसन, होंग, सोंठ, मिर्च, पीपल, चीतामूल, सेंधा नमक, काला नमक (संचल), विड लवण, सामुद्र लवण और उद्भिद लवणका चूर्ण भरके उसके मुखको उपरोक्त कटी हुई टांकीसे बन्द कर दें तथा ( उसे हांडी में बन्द करके ) फूंक लें और स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पीस I इसे सेवन करने से प्रवृद्ध गुल्म नष्ट होता है। ( मात्रा - ६ माशे । अनुपान - उष्ण जल ।) (७८६०) सूरणादिचूर्णम् ( रा. मा. । अर्शो. १८ ) अर्शासि नाशयति सुरणचूर्णमिश्रं तकं नृणां कुटजवल्कयुतं निपीतम् ॥ सूरण (जिमीकन्द) और कुड़ेकी छाल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे तक में मिला कर पीने से अर्शका नाश होता है । ( मात्रा - ६ माशे । (७८६१) सूरणादियोग : (१) ( र. र. रसा. । उप. ७ ) सूरणं तुलसीमूलं ताम्बूलैः सह भक्षयेत् । न मुञ्चति नरो वीर्यै कर्नैकेन पृथक्पृथक् ॥ सूरण (जिमिकन्द) या तुलसीकी जड़का चूर्ण पानमें रख कर खाने से वीर्यस्तम्भन होता है । मात्रा - १ तोला । ( व्यवहारिक मात्रा ३ माशे । ) For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [सकारादि (७८६२) मूरणादियोगः (२) हन्यादीसि शूलं च गुल्मप्लीहोदरकुमीन् । (वै. म. र. । पटल. ५) | भुक्तं भुक्तं पचत्याशु शान्तमग्निं च दीपयेत् ।। मासमेकमननाशी सूरणं भक्षयेत्सुखम् । सेठ १ भाग, काली मिर्च २ भाग, जवाखार नकानुपानमाश्व र्शो निर्मूलनोत्सुकः ।। ४ भाग, चीतामूल ८ भाग और सूरण (जिमीकन्द) १ मास तक अन्न बन्द करके केवल तक्रके १६ भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे जवाखारके साथ सूरण (जिमिकन्द ) खानेसे अर्श निर्मूल हो पानी, नीबूके रस और अद्रकके रसको १-१ जाता है। भावना दे कर सुखा लें। (७८६३) मूरणादियोगः (३) __इसके सेवनसे अर्श, शूल, गुल्म, प्लीहा और ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११ ; ग. नि. कृमि रोगका नाश होता एवं अग्नि दीप्त हो कर अों. ४ ; वृ. मा. । अर्शो.) बार बार भूख लगती है। सूरणकन्दकमर्कदलैस्तु (मात्रा-३-४ माशे ।) वेष्टितमेव हि कर्दमलिप्तम्। भ्रष्टमतोऽनलवर्णसमानं (७८६५) सैन्धवादिचूर्णम् (१) तं च ससैन्धवतैलबिमिश्रम् ॥ (वै. म. र. । पटल ८) भक्षति चार्शविनाशनहेतो | सैन्धवं स्नुहिमध्यस्थं दग्धमारवहिना । तिविकारहितोऽपि नर। सलिलेन कवोष्णेन पिबेच्छ्लनिपीडितः ॥ सूरणकन्द ( जिमीकन्द ) को आकके पत्तोंमें | सेंधा नमकके चूर्णको स्नुही (सेंड) के डंडेके पेट कर ऊपरसे मिट्टीका (१ अंगुल मोटा) भीतर भर कर उस पर कपर मिट्टी करके अंगारोंकी लेप करके कण्डोंकी अग्निमें पकावें । जब ऊपरवाली अग्निमें जलावें और ठंडा हो जाने पर उसे (थूहरमेट्टी आगके समान लाल हो जाय तो ठंडा करके सेंड समेत) पीस लें। सूरणको निकाल कर पीस लें। इसे मन्दोष्ण जलसे पीनेसे शूल नष्ट होता है। इसमें ( स्वाद योग्य ) सेंधा नमक मिलाकर (मात्रा-१-१॥ माषा । ) तिल के तेल के साथ सेवन करनेसे अर्श और वात । (७८६६) सैन्धवादिचूर्णम् (२) विकारोंका नाश होता है। (मात्रा-६ माशेसे १ तोलो तक ।) (वृ. मा. | बालरोगा.) (७८६४) सूरणाय चूर्णम् घृतेन सिन्धुविश्वलाहिङ्गभारिजो लिहन् । ( ग. नि. । परि. चूर्गा. ३) आनाई वातिक शूलं जयेत्तोयेन वा शिशुः ॥ दूरणं दहनं क्षारो मरिच नागरं क्रमात । । सेंधा नमक, सांठ, इलायची, हींग और अधिकमिदं चूर्ण क्षाराम्लाकभावितम् ॥ भरंगी समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः इसे धृतमें मिला कर बालकको चटानेसे ! सेंधा नमक, हींग, संचल ( काला नमक ), अफारा और वातज शूल शीघ्रही नष्ट हो अजवायन, हर्र और जवाखार समान भाग ले कर | चूर्ण बनावें। ( मात्रा-४ रत्तीसे १ माशा तक ।) इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे वातज शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है। (७८६७) सैन्धवादिचूर्णम् (३) .. (मात्रा-२-३ माशे ।) (च. सं. । चि. अ. १६ ; वा. भ. । चि. अ. ३) (७८६९) सैन्धवादिचूर्णम् (५) पलिकं सैन्धवं शुण्ठी द्वे च सौवर्चलात्पले । ( रा. मा. । अर्शी. १८) कुडवांशानि क्षाम्लं दाडिमं पत्रसर्जकात् ।। यः सैन्धवं मागधिकां शिवां च एकैकं मरिचाजाज्योर्धान्यकावे चतुर्थिके। सञ्चूर्ण्य वह्नि च समानभागम् । शर्करायाः पलान्यत्र दश द्वे च प्रदापयेत् ॥ मातः पिबत्युष्णजलेन तस्य कृत्वा चूर्णमतो मात्रामनपाने प्रयोजयेत् । ___ क्षुत्क्रोडमांसैरपि नैति शान्तिम् ॥ रोचनं दीपनं बल्यं पाश्र्वार्तिश्वासकासनुत् ॥ सेंधा नमक, पीपल, आमला और चीक सेंधा नमक ५ तोले, सोंठ ५ तोले, संचल | समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । ( काला नमक ) १० तोले, तिन्तड़ीक २० तोले इसे प्रातःकाल उष्ण जलके साथ सेवन कर तथा अनारदाना, और असनावृक्षके पत्ते ५-५ तोले, नेसे जठराग्नि अत्यन्त तीक्ष्ण हो जाती है। मिर्च, जीरा और धनिया १०-१० तोले एवं (मात्रा-३ माशे । ) खांड ६० तोले ले कर चूर्ण बनावें। सैन्धवादिचूर्णम् (६) ___ यह चूर्ण रोचक, दीपक, बल्य, एवं पसलीकी (यो. र. । अजीर्णा, ; वृ. मा. । अण पीडा, श्वास और कास नाशक है। र. र. । अग्निमांद्या. ; ग. नि. । अजीर्णा. ५%, इसे अन्नादिके साथ खिला सकते हैं । प्र. सं. ६२१६ " लघु वैश्वानरचूर्णम् ” देखिये। ( मात्रा--६ माशे) (७८७०) सैन्धवादिप्रतिसारणम् (ग. नि. । अशो. १) (७८६८) सैन्धवादिचूर्णम् (४) प्रतिसारणेन सैन्धवनिशायुगाङ्गारधूमकासीसै. (हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) श्रवणगलनाभिनासामेहनगुदजानि शातयति । सिन्धूत्थ हिङ्गुरुचकं यवानी सेंधा नमक, हल्दी, दारुहल्दी, घरका ।। पथ्या यवक्षारसमं विचूर्णम्। और कसीस समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । देयं सुखोष्णेन निहन्तिशूलं - इसे मस्से पर मलनेसे कान, गले, बार वातात्मकं वाप्यचिरेण शुलम् ॥ नासा, लिंग और गुदाके मस्से नष्ट हो जाते है। For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैपज्य-रत्नाकरः [सकारादि (७८७१) सैन्धवादियोगः (१) (७८७४) सैन्धवाचं चूर्णम् (१) (वै. म. र. । पटल ८ ) ___ (ग. नि. । चूर्णा. ३) सैन्धवपादेन युतं नागरचूर्ण सहौदनं घृतं चापि। सिन्धुसौवर्चलव्योषपथ्याजीरकचित्रकैः । भुजानः पञ्चदिनं प्रहरति गुल्म क्षणे नैव ॥ विडङ्गयावशूकाढपाक्यप्रन्थिकरोमकैः ॥ ४ भाग सेंधा नमक और १ भाग साँठका तृवृच्चव्ययुतैश्चूर्ण तक्रेणाम्लाम्बुना पिबेत् । चूर्ण एकत्र मिला कर रखें। कल्पितं वह्निदीप्त्यर्थ प्रातरुत्थाय मानवः ॥ इसे घृतयुक्त भातमें डाल कर सेवन करनेसे सेंधा नमक, संचल (काला नमक), सांठ, ५ दिनमें गुल्म नष्ट हो जाता है । मिर्च, पीपल, हरं, जोरा, चीतामूल, बायबिडंग, जवाखार, पांशु लवण, पीपलामूल, रोमक लवण, ( मात्रा-१॥-२ मा ।) निसोत और चव समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । (७८७२) सैन्धवादियोगः (२) इसे तक्र या कांजीके साथ सेवन करनेसे ( ग. नि. । छर्य. १४) | अग्नि दीप्त होती है। सैन्धवं सर्पिषा पीतं वातच्छर्दिविनाशनम् । (मात्रा-१॥ माशा ।) किंवा यवानिका चूर्ण भक्षितं तां विनाशयेत् ॥ (७८७५) सैन्धवाचं चूर्णम् (२) सेंधा नमकके चूर्णको धीके साथ पीनेसे या (भै. र. । अग्निमां.) अजवायनका चूर्ण सेवन करनेसे वातज दि नष्ट, सैन्धवं चित्रकं पथ्या लवङ्गं मरिचं कणा। होती है। । दङ्गणं नागरं चव्यं यमानी मधुरी चचा । (मात्रा--१॥-२ माशे।) द्रव्याणि द्वादशैतानि समभागानि चूर्णयेत् । (७८७३) सैन्धवादियोगः (३) भावयेन्निम्बुकद्रावैस्त्रिसप्ताहं प्रयत्नतः ।। ( ग. नि. । विषा. ३ ) ततो मापद्वयं चूर्ण वारिणोष्णेन पाययेत् । । ससैन्धवेन तक्रेण मस्तुना काञ्जिकेन ना ॥ मरिचैस्तुल्यं निम्बबीजं तयोःसमम् । सैन्धवाद्यमिदं चूर्ण सद्यो वह्नि प्रदीपयेत् ॥ घृतमध्वायुतो हन्ति विपं स्थावरजङ्गमम् ॥ सेंधा नमक, चीतामूल, हर्र, लोग, मिर्च, सेंधा नमक और काली मिर्चका चूर्ण १-१ पीपल, मुहागेकी खील, सेठ, चव्य, अंजवायन. भाग तथा नीमके बीज (निम्बौली) २ भाग ले कर सौंफ और वन समान भाग ले कर चूर्ण बनार्वे । चूर्ण बना। तदनन्तर उसे नीबूके रसकी २१ भावना दें और इसे घृत और शहद में मिला कर खिलानेसे सुखाकर रख लें। स्थावर और जङ्गम विष नष्ट होता है। मात्रा-२ माशे। For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पञ्चमो मागः - अनुपान-उष्ण जल । सेंधा नमक मिला चूर्ण कर लें । १ भाग यह चूर्ण, १ भाग पंवाडके हुवा तक्र । मस्तु या कांजी। बीजोंका चूर्ण और १-१ भाग बायबिडंग, चीता इसके सेवन से शीघही अग्नि दीप्त हो जाती है। और शुद्ध भिलोवा ले कर चूर्ण बनावें । (७८७६) सैन्धवाचं चूर्णम् (३) इसे गोमूत्रके साथ सेवन करने और हित (वा. भ. । चि. अ. १४) तथा परिमित आहार करनेसे श्वेत कुष्ठ शीघ्रही सिन्धृत्थपथ्याकणदीप्यकानां नष्ट हो जाता है। चूर्णानि तोयैः पिबतां कवोष्णैः। (७८७८) सोमराजी रसायनम् प्रयाति नाशं कफवातजन्मा ( वृ. मा. । रसायना. ; ग. नि. । ओषधि नाराचनिर्भिन्न इवामयौघः ॥ कल्पा . २) सेंधा नमक, हरं, पीपल और अजवायन । तीब्रेण कुष्ठेन परीतदेहो समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। ___ यः सोमराजी नियमेन खादेत् । इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कफ सम्वत्सरं कृष्णतिल द्वितीयां वातज रोग नष्ट होते हैं। ससोमराजी वपुषाऽतिशेते ॥ सैन्धवाद्यं चूर्णम् (४) ___ बाबची और काले तिल समान भाग ले कर ( ग. नि. । अर्शों. ४ ; वा. भ. । चि. अ. चूर्ण बनावें । ८; व. से. | अर्शी.) इसे १ वर्ष तक नियम पूर्वक सेवन करनेसे प्र. सं. ६२३२ " लवणोत्तमादि चूर्णम् " तोत्र कुष्ठ भी नष्ट हो जाता है । देखिये। (७८७९) सोमराज्याधुबर्तनम् (७८७७) सोमराजी योगः . ( भा. प्र. । म. खं. २ कुष्ठा.) ( ग. नि. । ओषधिकल्पा. २) सोमराजीभवं चूर्ण शृङ्गवेरसमन्वितम् । गोमूत्र सप्तरात्रं शशिकलपलं वासितं मोचयित्वा उद्वर्तनमिदं हन्ति कुष्ठमुग्रं कृतास्पदम् ॥ कुर्याच्छायाविशुष्कां पृथगिति च मापुनाट । बाबची और सेटि समान भाग ले कर चूर्ण सुपिष्टम् । बनावें । अंशस्ताभ्यां तथांशः कृमिरिपुदहनस्फोट इसे मर्दन करनेसे उग्र कुष्ठ भी नष्ट हो कृद्भयः स पूर्णो | जाता है । गोमूत्रेणोपयुक्तः प्रमितहितभुजः श्वित्रमाश्वेव | (७८८०) सौवर्चलादिचूर्णम् (१) हन्ति ॥ (ग. नि. । तृष्णा. १४) । _५ तोले बाबचीके बीजोंको सात दिन तक सौवर्चल विडङ्गानि सैन्धवं कटुकत्रयम् । गोमूत्रमें भिगोए रक्खें और फिर छायामें सुखाकर वातच्छर्दिहरं चूर्णमेतेषां मधुनाऽशितम् ।। For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ सकारादि संचल ( काला नमक ), बायबिडंग, सेंधा । नोट--ग. नि. वात रोगा. १९ में इसी नमक, सोंठ, काली मिर्च और पीपल समान भाग । चर्णको अपतन्त्रक नाशक लिखा है। ले कर चूर्ण बनावें । (७८८३) सौवर्चलाधं चूर्णम् (१) इसे शहद में मिलाकर चाटनेसे वातज छर्दि | (ग. नि. । परि. चूर्णा. ३ ) नष्ट होती है। सौवर्चलं कणा शुण्ठी रामठं जोरकद्वयम् । (मात्रा-१ माशा। थोड़ी थोड़ी देर बाद | अजमोदा च मरिचमम्लवेतसमेव ।। चाटना चाहिये।) समभागमिदं चूर्ण मन्दाग्निविनिवारणम् ॥ (७८८१) सौवर्चलादिचूर्णम् (२) । संचल (काला नमक), पीपल, सेठ, हींग, (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३ ; ग. नि. । | सफेद और काला जीरा, अजमोद, काली मिर्च और ' अम्लवेत समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । भतिसारा. २) । यह चूर्ण अग्निमांधको नष्ट करता है। सौवर्चलं प्रतिविषा हिङ्गु पथ्या कलिकः ।। - (मात्रा--१॥ माशा ।) शुण्ठी चामातिसारनं शूलनं ग्राहिपाचनम् ॥ । 1. (७८८४) सौवर्चलायं चूर्णम् (२) संचल (काला नमक), अतीस, हींग, हरे, (वृ. नि. र. । शूला.) इन्द्रजौ और सेठ समान भाग ले कर चर्णे | सौवचनाम्लदेतस विडलवणयुतससैन्धवाबनावें। तिविषा । ___ यह चूर्ण आमातिसार नाशक, शूलन, माही विकटक वीजपुररसान्वितमशितं गुरुगुल्मशूऔर पाचक है। . लहरम् ।। (७८८२) सौवर्चलादिचूर्णम् (३) संचल (काला नमक), अम्लबेत, बिडलवण, (ग. नि. । हृदोगा. २६) | सेंधा नमक, अतीस, सांठ, मिर्च और पीपल समान सौवचलं शृङ्गवेरं दाडिमं साम्लवेतसम् ।। भाग ले कर चूर्ण बनावें । श्वासहद्रोगशमनमिदं स्यादिङ्गपश्चमम् ॥ । इसे बिओ रेके रसमें मिलाकर सेवन करनेसे संचल (काला नमक), सेठ, अनारदाना, गुल्म और शूलका नाश होता है । अम्लबेत और हींग समान भाग ले कर चूर्ण ___(मात्रा-२ माशे।) बनावें । ___ (७८८५) स्तम्भकचूर्णम् ___इसे सेवन करनेसे श्वास और हृद्रोगका नाश | (यो. त. । त. ८०) होता है। | खसतिलपलमेकं शुण्ठीकर्ष सितापलद्वन्द्वम् । (मात्रा-५-६ रत्ती । अनुपान- | एतच्चूर्ण पयसा पीतं रेतोरयं ध्रुवं पत्ते॥ उष्ण जल ।) खसखास (पोस्त) ५ तोले, सोंठ ११ तोला For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चूर्ण प्रकरणम् ] और मिसरी १० तोला ले कर चूर्ण बनावें । इसे दूध के साथ सेवन करनेसे वीर्यस्तम्भन होता है । पञ्चमो भागः (७८८६) स्नुक्क्षारभावित पिप्पलिः (व. से. । शोथा. ) स्नु क्षारभाविताः कृष्णाः पथ्या मूत्रेण वा युताः । योजिताः शमयन्त्याशु शोथं श्लेष्मभवं नृणाम् ॥ पीपलको स्नुक ( सेहुंड - थूहर ) के क्षारके पानीकी कई भावना दे कर सुखा लें । 1 इनके सेवन से कफजशोथ नष्ट होता है इसी प्रकार हरौको गोमूत्र की भावना दे कर सेवन करने से भी कफज शोथ नष्ट हो जाता है । (७८८७) स्नुहोयोगः ( व. से. । उदरा. ) Fast पयो भावितानां पिप्पलीनां पयोशनः । सहखमुपयुञ्जीत शक्तितो जठरामयी || पीपलोंको स्नुही ( सेंड - थूहर ) के दूधकी भावना दे कर सुखा लें । ( नित्य प्रति २, ५, ७ या अधिक पीपलोको दूधमें पका कर दूध पीना चाहिये और वे पीपल भी खा लेनी चाहियें । भूख प्यासमें केवल दूध ही पीना चाहिये । शक्ति अनुसार पीपलांकी संख्या बढ़ाते जाना चाहिये । कुल मिलाकर १००० पीपल सेवन करनी चाहियें ।) ૨૫ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ; ( वृ. मा. ग. नि. । वाजीकरणा; न मृ. । त. ३; व. से. । वाजीकर. ; सु. सं. । चि. अ. २६ ) स्वयं गुप्तेक्षुरकयो बजचूर्ण सशर्करम् । इनके साथ दूध पकाकर पीने से उदर रोग धारोष्णेन नरः पीत्वा पयसा न क्षयं व्रजेत् ॥ होता है। कौंच बीज और तालमखाना १-१ भाग तथा खांड २ भाग ले कर चूर्ण बनावें । २१७ (७८८८) स्वगुप्तादिचूर्णम् (ग. नि. । वाजीकरणा . ) स्वगुप्ता क्षीरकाकोली विदारी जीरकद्वयम् । तिलाः सुलुश्चिता भृष्टाः शर्कराज्यमधुप्लुतम् ॥ तच्चूर्ण प्रसृतिं लीवा गच्छति प्रमदाशतम् । कौंच के बीज, क्षीरकाकोली, बिदारीकन्द, सफेद जीरा, काला जीरा तथा छिलके रहित भुने हुवे तिल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसमें उसके बराबर खांड मिला लें । इसे घी और शहद में करने से सौ स्त्रियोंसे रमण जाती है । मिला कर सेवन करनेकी शक्ति आ मात्रा- २ पल । ( व्यवहारिक मात्रा --- २ तोले । ) (७८८९) स्वयंगुप्तादिचूर्णम् For Private And Personal Use Only इसे धारोष्ण दूधके साथ सेवन करने से शुक्र क्षीण नहीं होता । ( मात्रा-६ माशेसे १ तोला तक 1 ) पाठान्तर के अनुसार तालमखाने के स्थानपर Faster है | Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - २१८ भारत-भैषज्य-रत्नाकर [ सकारादि . (७८९०) स्वर्जिकादिक्षारयोगः । सोनागेरुका चूर्ण शहद में मिलाकर चटानेसे (वृ. मा. । गुल्मा.) | बालककी छर्दि (वमन) नष्ट हो जाती है। स्वर्जिकाकुष्ठसहितः क्षारः केतकिजोऽपि वा। स्वल्पनायिकाचूर्णम् तैलेन पीतः शमयेद् गुल्मं पवनसम्भवम् ॥ ( रसे. चि. म. । अ. ९) सज्जीक्षार, कूठ और केतकी वृक्षका क्षार | प्र. सं. ६३५९ " लाई चूर्णम् (५) लघु " समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । देखिये। इसे तेलमें मिलाकर पीनेसे वातज गुल्म नष्ट होता है। स्वल्पलवडाचं चूर्णम् (मात्रा-१ माशा ।) (भै. र. । ग्रहण्य.) (७८९१) स्वर्जिक्षारादियोगः । प्र. सं. ६२२२ " लवङ्गादि चूर्णम् (२)" देखिये। ( ग. नि. । उदरा. ३२ ) · सर्जिः सयवक्षारा नीली च त्रिकटु पञ्च लवणानि (७८९३) स्वेदशोषकपूर्णम् चित्रकसहितं चूर्ण सघृतं सर्वोदरं हन्ति ॥ (वृ. नि. र. । ज्वरा.) सज्जीखार, जवाखार, नीलवृक्ष, सेांठ, मिर्च, । स्वेदोद्गमे भ्रष्टकुलित्यचूर्ण पीपल, सेंधानमक, संचल (काला नमक), विड निर्यातनं शस्तमिति ब्रुवन्ति । लवण, सामुद्र लवण, उद्भिद लवण और चीतामूल जीर्ण शकुद्गो लवणस्य भाजनं समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। सञ्चणितं स्वेदहरं सुधूलनात् ॥ इसे घीके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारके उदर रोग नष्ट होते है। यदि सन्निपात ज्वरमें अधिक पसीना आने लगे तो भुनी हुई कुलथीको पीस कर शरीर पर (मात्रा-१॥-२ माशे।) उसकी मालिश करनी चाहिये । अथवा गायका (७८९२) स्वर्णगैरिकयोगः सूखा हुवा गोबर और नमक रखनेका मिट्टीका (व. से. । बालरोगा.) पात्र समान भाग ले कर दोनोंको बारीक पीसकर मुवर्णगैरिकस्यापि चूर्णानि मधुना सह । एकत्र मिला कर शरीर पर उसकी मालिश करनी लीवा मुखमवामोति सिमं हि छर्दितः शिवः॥ चाहिये । इति सकारादिचूर्णप्रकरणम् --HD For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गुटिकाप्रकरणम् ] सञ्जीवनी वटी पञ्चमी भागः अथ सकारादिगुटिकाप्रकरणम् (ETT. ST.) प्रकरण में देखिये । www. kobatirth.org सन्धिवातारिगुटिका (र. चं. । शूला. ) प्रकरण में देखिये | (७८९४) सप्तलाद्यो मोदकः ( ग. नि. । गुटिका. ४ ) सप्तला पिप्पलीमूलं श्यामा दन्ती पृथक् पृथक् । समं दशपलैर्भागैर्दशमूली तुला समा ॥ हरीतक्यक्षधात्रीणां प्रस्थं प्रस्थं समावपेत् । जलद्रोणद्वये पक्वं पूतं पादावशेषितम् ॥ faei aai sini शङ्खिनीं मालतीमपि । त्रिवृव्योषयुतं ह्येतत्कृत्वा चूर्ण रसे क्षिपेत् ॥ टकान मात्रांस्तु वातश्लेष्मकृते जरे । शूले पक्वाशयस्थे च शुद्धयर्थे भक्षयेदिमान् ॥ सतला, पीपलामूल, काली निसोत, और दन्तीमूल ५०-५० तोले तथा दशमूल ६ । सेर और हर्र, बहेड़ा तथा आमला १-१ सेर ले कर सबको कूट कर ६४ सेर पानी में पकायें और १६ सेर शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें बायविडंग, नागरमोथा, काली निसोत, शंखिनी, चमेलोके फूल, निसोत, सोंठ, मिर्च और पीपलका समान भाग मिलित ( २ सेर ) चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें और गाढ़ा हो जानेपर १ - १ | तो मोदक बना लें | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनमें से १-१ मोदक (उष्ण जलके साथ) खानेसे विरेचन हो कर वातकफज ज्वर और Satara नष्ट होता है । सप्तशालिटी ( भा. प्र.; धन्व. ) प्रकरण में देखिये | (७८९५) सप्तसमावदी ( वा. भ. । चि. अ. १९ ) त्रिकटूत्तमा तिलारुष्कराज्य माक्षिक सितोपला विहिता । गुलिका रसायनं स्यात्कुष्ठ जिश्च वृष्या च सप्तसमा ॥ त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) त्रिफला (हरे, बहेड़ा, आमला), तिल, शुद्ध भिलावा और मिश्री समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसमें १-१ भाग घी तथा शहद मिला कर ( ६-६ माशेकी ) गुटिका बना ले I ये गोलियां रसायन, कुछ-नाशक और वृष्य हैं। सप्तामृतगुटी ( यो. चि. म. । अ. ३ प्रकरण में देखिये । २१९ सप्तामृतावदी ( र. र. स.) प्रकरण में देखिये | For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - सप्तोत्तरावटी तो काथको छान कर उसमें ५० तोले खांड और ( र. र. स.) ५ तोले बाबचीका चूर्ण, ५० तोले शुद्ध गूगल रसप्रकरणमें देखिये एवं खैरसार, नीमकी छाल, मजीठ, असना वृक्षकी सम्प्रसारिणीगुटिका छाल, इन्द्रायणकी जड़, चीता, हल्दी, दारुहल्दी, (वै. र.) देवदारु, हरे, भरगी और बच; इनका २॥-२॥ रसप्रकरणमें देखिये। तोले चूर्ण मिला कर पुनः पकावें और गाढ़ा होने सर्वज्वरहरवटी पर बेरके समान गोलियां बना लें। ( भा. प्र. । म. ख. २) ___ इनमेंसे १-१ गोली नित्य प्रति प्रातःकाल रसप्रकरणमें देखिये। सेवन करनेसे उग्र कुष्ठ भी शीघ्र ही नष्ट हो सर्वज्वराङ्कुशवटी जाता है। (भै. र. ; र. रा. मु.) रसप्रकरणमें देखिये । (७८९७) सर्वातिसारहारिणीगुटिका सर्वरोगान्तकवटी (वै. र. । अतिसारा.) ( र. र. स. । उ. अ. १६ ; र. चं. । अजीर्णा.) शृङ्गवेरमतिविषाविल्वमोचरसेन च । रसप्रकरणमें देखिये। भुजागुडसंयुक्ता सर्वांतीसारनाशिनी ॥ (७८९६) सर्वाङ्गसुन्दरी गुटिका ( यो. र. । कुष्टा. ; वृ. यो. त. । त. १२० ) . सांठ असीस, बेलगिरी, मोचरस और पान; भल्लातकसहस्रैकं त्रिफलावारिणि क्षिपेत् । इनका चूर्ण १-१ भाग तथा गुड़ सबके बराबर द्रोणमात्रे पचेतावद्यावत्पादावशेषितम् ॥ ले कर सबको एकत्र मिला कर (३-३ माशेकी) शर्कराया दशपलान्येकं बाकुचिका पलम् । गोलियां बना लें। तथैवात्रैव देयानि पलानि दश गुग्गुलोः॥ ____ इनके सेवनसे समस्त प्रकारके अतिसार नष्ट खदिरारिष्टमञ्जिष्ठा बीजकं चेन्द्रवारुणी। होते हैं। चित्रकं द्वे हरिद्रे च देवदारु हरीतकी॥ (७८९८) सहकारगुटिका भागी वचेति सर्वेषां प्रत्येकं च पलार्धकम् ।। प्रक्षिप्य गुटिका कार्या नाम्ना सर्वाजसन्दरी। (च. द. 1 मुखरोगा. ५५ ; र. र. । मुखरोगा.) प्रत्यहं भक्षयेत्कुष्ठी त्वेतां बदरमात्रया । एलालतालवनिकाफलशीतकोषसर्वाण्येवोग्रकुष्ठानि शीघ्रमेव व्यपोहति ॥ कोळद्विकानि खदिरस्य कृते कषाये । १ हजार शुद्ध भिलावोंको त्रिफलाके १६ / तुल्यांशकानि दशभागमिते निधाय सेर काथमें पकावें । जब ४ सेर पानी रह जाय। मोद्भिन्नकैतकपुटे पुटवद्विपाच्य ॥ For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः गुटिकाप्रकरणम् ] मार्गशतुल्यशशिनाभितदेकसङ्गम् पिष्ट्रा नवेन सहकाररसेन हस्तौ । लिवा यथाभिलषितां गुटिकां विदध्यात् । स्त्रीपुंसयोर्वदनसौरभ बन्धुभूताम् । , छोटी इलायची, लताकस्तूरी, लवनिका ( लौंग ? ), जायफल, कपूर, जावत्री, कंकोल और अगर इनका चूर्ण १-१ भाग ले कर ८० भाग खदिर छालके काथमें मिलायें और फिर उसे केतकी (a) की विकसित कुकड़ी (पुष्प) की पत्तियों में रख कर उसपर मिट्टीका लेप कर दें और उसे अंगारोंकी मृदु अग्निमें पकावें ( स्वेदित करें ) । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल लें और उसमें १-१ भाग कपूर तथा कस्तूरीका चूर्ण मिलावें । तत्पश्चात् हार्थोको आ. मी नवीन कोंपलों (या बौर) का रस मलकर छोटी छोटी गोलियां बना लें । इन्हें मुखमें रखनेसे मुख अत्यन्त सुगन्धित | हो जाता है (और मुखपाकादि रोग नष्ट होते हैं ।) (७८९९) सहकारवटी ( भै. र. । मुखरोगा . ) सहकारस्य निम्बस्य खदिरस्याशनस्य च । तुलां पृथग् विनिःक्वाथ्य द्रोणमानेन चाम्बुना ॥ एकीकृत्य कषायांश्च पादशिष्टान् पुनःपचेद् । तत्र क्षिपेन्मलयजं वालकं रक्तचन्दनम् ॥ गैरिकं देवपुष्पञ्च घातक रजनीद्वयम् । लोधं जातीफलं श्यामां चातुर्जातं फलत्रयम् ॥ षटमरोहमनिष्ठामांसीरम्बुधरं विदम् । कदुत्रयमयश्चन्द्रं प्रसृत्यर्द्धप्रमाणतः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२१ ततः कलायसदृशीर्विदध्याद् गुटिका भिषक् । रोगान् कण्ठौष्ठरसनादन्ततालुसमुद्भवान् ॥ सहकारवटी हन्यादाश्वेव वदने धृता । जनयेन्मुखसौरभ्यं सुरुचि स्थिरदन्तताम् || आमकी छाल ६ | सेर लेकर कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें । इसी प्रकार नीमकी छाल, खरकी छाल, और असन वृक्षकी छालका काथ बनावें और फिर सबको एकत्र मिलाकर पुनः मन्दाग्नि पर पकावें । जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्नलिखित प्रक्षेप मिलाकर मटरके समान गोलियां बनालें । प्रक्षेप - श्वेतचन्दन, सुगन्धवाला, लालचन्दन, गेरु, लौंग, धायके फूल, हल्दी, दारूहल्दी, लोध, जायफल, श्यामलता, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, हर्र, बहेड़ा, आमला, बढ़के अंकुर, मजीठ, जटामांसी, नागरमोथा, विङनमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, लोहभस्म और कपूर ५-५ तोले लेकर बारीक चूर्ण बनावें । ये गोलिय कण्ठ, ओठ, जिह्वा, दांत और ताल के रोगोंको नष्ट करती तथा मुखको सुगन्धित और दांतोंको दृढ़ करती हैं। इन्हें मुखमें रखना चाहिये । सारिवादिवटी (भै. र. । कर्ण. ) रसप्रकरण में देखिये | सावित्रवटकः (व. से. । पाण्डु. ) रसप्रकरण में देखिये | For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि सितमल्लगुटिका अर्कमूल ४० तोले और चीतामूल १० तोले लेकर (वृ. यो. त. । त. ८०) सबको हाण्डीमें बन्द करके जलावें और फिर रसप्रकरणमें देखिये। बारीक चूर्ण करके उसे कटेलीके रसमें घोट कर (७९००) सितादिगुटिका गोलियां बना लें। (३. नि. र. । अरुचि.) इन्हें भोजनके पश्चात् खानेसे आहार शीघ्र सिताव्योषकपित्थानां चूर्ण क्षौद्रेण तद्वटी।। पच जाता है । इसके अतिरिक्त ये कास, श्वास, सर्वारोचकशान्त्यर्थ धारयेद्वदनाम्बुजे ॥ अर्श, विषूचिका, प्रतिश्याय और हृद्रोगको भी नष्ट __ मिश्री, सोंठ, मिर्च, पीपल और कैथका गूदा करती है। समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । उसे शहद में मिला (मात्रा-१ माशा) कर गोलियां बना लें। सुरसुन्दरीगुटिका इन्हें मुखमें रखनेसे अरुचि नष्ट होती है । (र. चं.; र. र.) सिद्धवटी रसप्रकरण में देखिये। (वृ. नि. र. ) सुरसुन्दरीगुटिका रसप्रकरणमें देखिये। (र. र. रसा. । उप. ३) सिन्दूरादिवटी रसप्रकरणमें देखिये । ( धन्च. । वाजी.) (७९०२) सुवर्चलादिगुटिका पप्रकरणमें देखिये। (च. द. । शूला. २६; वृ. नि. र. । शूला. सुकुमारमोदकम् भै. र. । शूला.; वै. र.; ग. नि. । शूला. २३) सप्रकरणमें देखिये। सौवर्चलाम्लिकाजाजीमरिचैर्द्विगुणोत्तरः। (७९०१) सुधावटी | मातुलारसैः पिछा गुडिकानिलशूलनुत् ।। ( वा. भ. । चि. अ. १० ग्रहण्य.) संचल (काला नमक) १ भाग, इमली २ चतुष्पलं सुधाकाण्डात्रिपलं लवणत्रयात् । भाग, जीरा ४ भाग, और मिर्च ८ भाग लेकर चूर्ण वार्ताककुडवं चाकदिष्टौ द्वे चित्रकात्यले ॥ योग्य चीजोंका चूर्ण बनावें और इमलीको पत्थर दग्ध्वा रसेन वार्ताकादगुटिका भोजनोत्तराः। पर बारीक पीसकर उसमें वह चूर्ण मिलाकर भुक्तमन्न पचन्त्याशु कासश्वासार्शसां हिताः॥ सबको बिजौरे नीबूके रसमें खरल करके (१-१ विचिकापतिश्यायहृद्रोगशमनाश्च ताः॥ माशेको) गोलियां बनावें । सेहुंड (सेंड थूहर ) का काण्ड (डंडा) २० इनके सेवनसे वातज शूल नष्ट होता है। तोला, सेंधानमक ५ तोले, संचल (कालानमक) | (मात्रा-१ से ३ गोली तक। अनुपान५ तोले, विडनमक ५ तोले, कटेली २० तोले, | उष्ण जल) For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुटिकाप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २२३ सूतादिगुटिका शूलं सङ्ग्रहणीगदं त्वतिमृतिं दुष्टां प्रवाहीजयेद् (यो. र.; र. च.) दीप्ताग्निं कुरुते बलं क्तिनुते गुल्ममणाशं तथा । रसप्रकरणमें देखिये। अशांस्युद्धतमारुतामयहरो बाले च वृद्ध हितो सूतादिवटी (१) गर्भिण्यां च न शस्यते न निपुणैनों रक्तपित्ते (र. च. । उपदंशा.) ऽपि च ॥ रसप्रकरणमें देखिये। सांठ, मिर्च, पीपल, चीतामूल, हर्र, बहेड़ा, सूतादिवटी (२) आमला, जीरा, हींग, अजवायन और अजमोद (र. रा. सु.; वृ. नि. र. । अतिसारा.) १-१ भाग एवं सूखा हुवा सूरण (जिमोकन्द) प्र. सं. १८९२ " चन्द्रप्रभावटी (३)" सबसे आधा लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसमें देखिये। उससे (चूर्णसे) चतुर्थांश सेंधा नमकका चूर्ण मि. पाठान्तरके अनुसार लाकर सबको १ दिन जम्बीरी नींबूके रसमें घोट अभ्रकके स्थानपर ताम्र भस्म है। कर (३-३ माशेके) मोदक बनालें । ये मोदक शूल, संग्रहणी, अतिसार, दुष्ट सूतादिवटी (३) प्रवाहिका, गुल्म, अर्श और प्रबल वातव्याधिको (र. रा. सु.; वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) नष्ट और अग्निको दीत करते हैं। ये बलवर्धक प्र. सं. ७०२३ "विजयवटी” देखिये । एवं वृद्धों तथा बालकां तकके लिये हितकारी हैं इसमें (सूतादिवटीमें) अभ्रकके स्थान पर तेजपात परन्तु गर्भिणी स्त्री और रक्तपित्त रोगीको न देने है तथा एक भाग जयपाल अधिक है। शेष चाहिये। प्रयोग विजयवटीके समान है। (७९०४) सूरणमोदकः (२) (वृहद्) सूतिकातनाशिनीवटी (भै. र.; वै. र.; वृ. मा.; यो. र. । अशो.; ग. नि. । गुटिका ४; र. चि. म. । स्त. ९; रसप्रकरणमें देखिये। च. द. | अशो. ५) (७९०३) सूरणमोदकः (१) मुरण षोडशभागा बहेरष्टौ महौषधस्यातः । (यो. र.; वृ. नि. र. । अशो.) अर्दैन भागयुक्तिमरिचस्य ततोऽपि चार्दैन । शुष्कात्सूरणकन्दतोऽर्धमिलितं व्योष तथा चित्रकं त्रिकला कणा समूला तालीशारुष्करक्रिमिश्रेष्ठाजीरकरामठं समलवं दीप्याजमोदान्वितम् । नानाम् । सर्वस्यारम्रिकसिन्धुजं परिभवेनिम्बुद्रवैर्वासरं भागा महौषधसमा दहनांशा तालमूली च ॥ सिद्धः सूरणमोदको गदहरः श्रेष्ठो भागः शूरणतुल्यो दातव्यो वृद्धदारकस्यापि । भषेत्माणिनाम् ॥ भृोले मरिचांशे सर्वाण्येकत्र सञ्चूर्ण्य ॥ For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि द्विगुणेन गुडेन युतः सेव्योऽयं मोदकामकामधन श्वास, कास, राजयक्ष्मा, प्रमेह तथा प्लीहा आदि गुरुकृष्यभोज्यरहितेष्वितरेषूपद्रवं कुर्यात् ।। रोगों को नष्ट करता है । यह बुद्धिवर्धक, वृष्य भस्मकमनेन जनितं पूर्वमगस्त्यस्य प्रयोगराजेन। तथा रसायन है । भीमस्य मारुतेरपि येन तौ महाशनौ जातौ ॥ सूरणमोदकः (३) (लघु) अमिबलवृद्धिहेतुर्न केवलं शूरणो महावीर्यः। प्र. सं. ६२४५ " लघुसूरणमोदकः " (१) प्रभवति शस्त्रक्षारामिभिर्विनाप्यसामेषः ॥ | देखिये । श्वयश्लीपदगरजिद् ग्रहणोश्च तथा हिक्काम- (७९०५) सूरणवटकः (१) (लघु) निलजाम् । ( शा. सं. । खं. २ अ. ७) नाशयति वलीपलितं मेधां कुरुते दृषत्वश्च ॥ शुष्क मुरणचूर्णस्य भागान् द्वात्रिंशदाहरेत् । हिकां श्वासं कासं सराजयक्ष्मप्रमेहांश्च। भागान् षोडश चित्रस्य शुण्ठचा भागचतुष्टयम् ।। प्लीहानश्चाथोग्रं हन्तीति रसायनं पुंसाम् ॥ द्वौ भागौ मरिचस्यापि सर्वाण्येकत्र कारयेत । जिमीकन्द १६ भाग, चित्रक ८ भाग, शुण्ठी | गुडेन पिण्डिकां कुर्यादर्शसां नाशिनी पराम् ॥ चूर्ण ४ माग, कालीमिर्च २ भाग, त्रिफला, पिप्पली, सूखे सूरण ( जिमिकन्द ) का चूर्ण ३२ पिप्पलीमूल, तालीशपत्र, भिलावा, बायबिडङ्ग; भाग, चीतामूलका चूर्ण १६ भाग, सांठका चूर्ण प्रत्येक ४ भाग, मूसली ८ भाग, विधारा बीज | ४ भाग और काली मिर्चका चूर्ण २ भाग ले कर १६ भाग, दारचीनी २ भाग, छोटी इलायची २ | सबको एकत्र मिला लें और उसे सबके बराबर भाग । इन्हें एकत्र मिश्रित करके चूर्ण बनावें। गुड़में मिला कर गुटिका बनावें ।। और उससे दो गुने गुड़में मिलाकर मोदक बनावें । __ इनके सेवनसे अर्श नष्ट होता है। मात्रा-१ तोला । इसके सेवनकाल में गुरु तथा (मात्रा-१ तोला । अनुपान उष्ण जल ।) वृष्य भोजन का सेवन कराना चाहिये । यदि गुरु (७९०६) सूरणवटका (२) (बृहद्) तथा वृष्य भोजनका सेवन न करावेंगे तो उपद्रव (शा. सं. । खं. २ अ. ७) हो सकते हैं । यथा इसके प्रयोगसे अगस्त्य को | मरणो वृद्धदारुश्च भागैः षोडशभिः पृथक् । भस्मक हो गया था । इसी प्रकार भीम तथा हनु- मुसलीचित्रको ज्ञेयावष्टभागमितौ पृथक् ॥ मानको भी भस्मक होगया था जिससे कि वे शिवाविभीतको धात्री विडङ्गं नागरं कणा। महाशन (बहुत खाने वाले) हो गये थे। महा- भल्लातः पिप्पलीमूलं तालोसं च पृथक् पृथक् ॥ वीर्य शूरण न केवल अग्निदीपक ही है अपितु, चतुर्भागप्रमाणानि वगेलापरिचं तथा। शस्त्र, क्षार तथा अग्नि के बिना भी अर्श का द्विभागमात्राणि पृथक् ततस्त्वेकर चूर्णयेत् ॥ नाश करता है । यह मोदक शोथ, श्लीपद, गर | द्विगुणेन गुडेनाथ वटकान् कारयेद् बुधः । (संयोगजविष), ग्रहणी, वातज हिका, वलीपलित, । प्रबलाग्निकरा एते तथार्शोनाशनाः परम् ।। For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकाप्रकरणम् ] पश्चमो भागा २२६ . - ग्रहणीं वातकफजां वासं कासं क्षयामयम् । । (७९०७) सैन्धवादिगुटिका प्लीहानं श्लीपदं शोफ हिको मेहं भगन्दरम् ॥ (वृ. मा. । अजीर्णा.; ग. नि.। अजीर्णा, ५) निहन्युः पलितं वृष्यास्तथा मेध्या रसायनाः ॥ सूखा हुवा सुरण (जिमिकन्द) और विधारा- सिन्धूत्यहिङ्गुत्रिफलायवानीमूल १६-१६ भाग, मूसली और चीतामूल ८-८ व्योषैर्गुडाशैर्गुटिकां प्रकुर्यात् । भाग, हरं, बहेड़ा, आमला; बायबिडंग, सांठ, तो भक्षयेत्तृप्तिमवाप्नुवन्ना पीपल, शुद्ध भिलावा, पीपलामूल और तालीस- . भुजीत मन्दाग्निरपि प्रभूतम् ॥ पत्र ४-४ भाग एवं दालचीनी, इलायची और __सेंधा नमक, हींग, हर, बहेड़ा, आमला, काली मिर्च २-२ भाग ले कर चूर्ण बनावें और अजवायन, सेठ, काली मिर्च और पीपल समान उसे सबसे दो गुने गुड़में मिला कर ( १-१ तो- भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे सबके बराबर लेके ) मोदक बना लें। गुड़में मिला कर (६-६ माशेको) गुटिका यह मोदक अत्यन्त अनिवर्द्धक और उत्तम | ना लें। अर्शनाशक है । इसके सेवनसे वातकफज ग्रहणी, | इनके सेवनसे पाचनशक्ति अत्यन्त प्रबल श्वास, कास, क्षय, प्लीहा, श्लीपद, शोथ, हिका, | हो जाती है। प्रमेह, भगन्दर और पलितका नाश होता है । यह (७९०८) सैन्धवादिगुटो वृष्य, मेधावईक और रसायन है। सूरणवटिका (लघु) (वै. म. र. । पट. ८) (ग. नि. । गुटिका. ८) सैन्धवामलकरजोनवनीतगुटीर्जयेत् । प्र. सं. ५१६३ " मरिचादिमोदक: " पित्तगुल्मविकाराणां दोषाणां संहति भृशम् ।। देखिये। सेंधा नमक और आमला समान भाग ले कर सूर्यचन्द्रप्रभा गुटिका चूर्ण बनावें और नवनीत (मक्खन) में घोट कर ( ग. नि. । गुटिका. ४) गोली बना लें। रसप्रकरणमें देखिये। इसके सेवनसे पित्तज गुल्म नष्ट होता है । सूर्यप्रभा गुटिका (मात्रा-४ माशे।) रसप्रकरणमें देखिये। सैन्धवादिवटी सूर्यसन्निभा गुटी ( र. र. । अध्न.) (र. का. थे. । उदरा,) रसप्रकरणमें देखिये। रसप्रकरणमें देखिये. २९ For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि (७९०९) सोरगुटिका कस्तूरी १ भाग, केसर १ भाग; जायफल (र. का. धे. । उदरा.) और लौंगको चूर्ण २-२ भाग, अफीम ४ भाग और भांग २ भाग ले कर सबको एकत्र खरल लवङ्गमरिचैल्वालुटणं समसोरकम । करके (पानीके साथ घोट कर ) चनेके समान कन्यारसै सप्तपिष्टं गोमूत्रण यकृद्गदे ।। गोलियां बना लें। लौंग, काली मिर्च, एलबालुक और सुहागेकी इनमेंसे १ गोली शहदके साथ मिलाकर खील १-१ भाग तथा सोरा सबके बराबर ले | रात्रिके प्रथम पहरमें खा कर ऊपर मिश्री और घी कर सबका चूर्ण बना कर घृतकुमारीके रसमें युक्त दूध पीना चाहिये। सात दिन खरल करके (१-१ माशेकी ) गोलियां इसके सेवनसे वीर्यस्तम्भन होता है । बना लें। (७९११) स्तम्भनवटिका (२) इन्हें गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे यकृद रोग नष्ट होता है। (वै. र. । वाजीकरणा. ; धन्व. । वाजीकरणा.) सौगतवटी समुद्रशोपवीजानि भागैकं धूर्तबीजकम् । (सौरतगुटिका) भागत्रयं जातिपत्री भागमेकं च तत्फलम् ॥ यवानी म्लेच्छदेशस्था भागत्रयसमन्विता । ( वृ. यो. त. ; यो. त.) भागार्धमहिफेनं च महिषीक्षीरशोधितम् ॥ रसप्रकरणमें देखिये। विजयाखसफलक्वाथैर्दशवारं विभावयेत् । सौभाग्यशुण्ठिपाकः धत्तूरबीजतैलेन मर्दयेत्तदनन्तरम् ॥ (सौभाग्यशुण्ठीमोदकः ) बदरास्थिप्रमाणेन वटिकाः सम्प्रकल्पयेत् । रस तथा अवलेह प्रकरणमें देखिये. | मदनान्दजननी वीर्यस्तम्भकरी परम् ॥ (७९१०) स्तम्भनवटिका (१) उन्मत्तानां नत्ते कीनामतिगर्वहरा कलौ ॥ ( न. मृ. । त. ५ ; वै. र. । वाजीकरणा. ; समुद्रशोषके बीज और धतूरेके बीज १-१ धन्व. । वाजीकरणा.) भाग, जावत्री ३ भाग, जायफल १ भाग, खुराभागैकं मृगनाभिं तथा काश्मीरसम्भवम् ।। सानी अजवायन ३ भाग और भैंसके दूधमें शुद्ध जातीफलं लवङ्गं च प्रत्येकं भागयुग्मकम् ।। की हुई अफीम आधा भाग ले कर सबको एकत्र चतुर्भागाहिफेनं च विजया भागयुग्मकम् । खरल करके भांग और पोस्तके डोढेके काथकी चणकाभा वटी कार्या वीर्यस्तम्भकरी मता ॥ १०-१० भावना दें और फिर धतूरेके बीजोंके भक्षयेन्मधुना सा कामी नित्यं निशामुखे। तेलमें घोट कर बेरकी गुठलीके समान गोलियां ससितं सर्पिषा युक्तं दुग्धं चैव पिबेदनु ॥ । बना लें । For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकापकरणम् ] पञ्चमो भागः २२७ इन्हें सेवन करनेसे वीर्यस्तम्भन होता है। सपियालरसक्षौद्रा प्रस्था) नवसर्पिषः । इन्हें सेवन करने वाला पुरुष यौवनमद-मत्त तरु- सितोपला तुलापादं कुर्यात्तन्मोदकांस्ततः ॥ णियों और नर्तकियोंका गर्व चूर्ण कर देता है। मोदकं भक्षयित्वैकं षष्टिं व्रजति योषिताम् । (रात्रिके प्रथम पहरमें १ गोली मिश्रीयुक्त ___कौंचकी २० तोले जड़को ८ सेर पानीमें दूधके साथ खानी चाहिये ।) पकावें और २ सेर पानी रहने पर छान लें । तद(७९१२) स्तम्भनवटिका (३) नन्तर उसमें २०-२० तोले कौंचकी जड़का चूर्ण, गेहूंका आटा, उड़दका आटा, तालमखानेका (धन्व. । वाजीकरणा.) चूर्ण, पीपलका चूर्ण, पियाल [ चिरौंजीके फल ] जातीफलं लवङ्गं च जातीपत्रं सकुङ्कमम् ।। का रस, शहद एवं १ सेर घी तथा १२५ तोले सूक्ष्मैला चाहिफेनं च त्वाकारकरभं तथा ।। खांड मिलाकर पुनः पकावें और गाढ़ा हो जानेपर प्रत्येकं कर्षमात्राणि कपूर शाणमात्रकम् ।। (तोला तोला भरके) मोदक बना लें। नागवल्लीदलरसैबटी चणकसन्निभा ॥ इनके सेवनसे साठ स्त्रियोंसे रमण करनेकी वीर्यस्तम्भनी ह्येषा बलवर्णाग्निदीपनी ॥ शक्ति प्राप्त होती है। ____ जायफल, लौंग, जावत्री, केसर, छोटी इला स्वर्णादिगुटिका यची, अफीम और अकरकरा ११-१। तोला तथा रसप्रकरणमें देखिये। कपूर ५ माशे ले कर सबको पानके रसमें घोटकर (७९१४) स्वर्जिकावटी चनेके समान गोलियां बनावें । ये गोलियां वीर्यस्तम्भनी तथा बल, वर्ण और (वृ. नि. र. । गुल्मा.) स्वर्जिका शाणमाना स्यात्तावदेव गुडो भवेत् । अग्निको बढ़ानेवाली हैं। उभयोर्वटिकां खादेद्गुल्मामयविनाशिनीम् ॥ (मात्रा-१ गोली। अनुपान-मिश्री ५ माशे सज्जीको ५ माशे गुड़में मिलाकर युक्त दूध । ) गोली बनावें। स्पर्शवातान्तकृद्धटी इसे खानेसे गुल्म नष्ट होता है। रसप्रकरणमें देखिये। (मात्रा-२ माशा ।) (७९१३) स्वयंगुप्तादिमोदकः (७९१५) स्वल्पखदिरवटिका (ग. नि. । वाजीकरणा.) ( भै. र. । मुखरोगा. ; वृ. मा. ; व. से. ; जलाढके स्वयंगुप्तामूलं पश्चपलं पचेत् ॥ च. द. ; र. र. । मुखरोगा.) पादशेषे तु सर्प्य कुडवांशान् पृथक् क्षिपेत् । खदिरस्य तुलां सम्यक् जलद्रोणे विपाचयेत् । स्वगुप्तामूलगोधूममाषेचरकपिप्पलीः॥ शेषेऽष्टभागे तत्रैव प्रतिवापं प्रदापयेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - जातीकर्पूरपूगानि ककोलकफलानि च। और तालुके रोग नष्ट होते तथा मुख सुगन्धित इत्येषा गुडिका कार्या मुखसौभाग्यवर्धिनी॥ हो जाता है। दन्तौष्ठमुखरोगेषु जिह्वाताल्वामयेषु च ॥ स्वल्परसोनपिण्डः खैरकी ६। सेर छालको कूटकर ३२ सेर (भै. र. । वातव्या.) पानीमें पका और ४ सेर पानी रहने पर छान लें। प्र. सं. ५८६० “रसोनसमकम् ” देखिये । तदनन्तर उसे पुनः पकाकर गाढ़ा करें और फिर | स्वल्पसूरणमोदकः उसमें जावत्री, कपूर, सुपारी, कंकोल और जाय. ( शा. सं. । खं. २ । अ. ७ ; भै. र. । अशों. ; फलका समान भाग मिलित चूर्ण ४० तोले मिला- च. द. । अशों. ५ : व. से. । अशो.) कर गोलियां बना लें। प्र. सं. ५१६३ “ मरिचादिमोदकः " इन्हें मुखमें रखनेसे दन्त, ओष्ठ, मुख, जिह्वा | देखिये । इति सकारादि-गुटिकामकरणम् - - अथ सकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (७९१६) सप्तचत्वारिंशतिका गुग्गुलुगुटिका कासं श्वास तथा शोफमस्यिय भगन्दरम् । हृत्पृष्ठपार्थशूलं च हन्ति मन्दाग्नितामपि । (ग. नि. । गुटिका.) आमवातमुदावर्तमेदोवृद्धिगुदकृमीन् । त्रिकटुत्रिफलामुस्तं कुटजं गजपिप्पलीम् । | आनाहं च तथोन्मादं कुष्ठपाण्डूदरामयान् ।। स्वगेलापत्रहपुषाग्रन्थिकं जीरकद्वयम् ॥ नाडीदुष्टत्रणान् सर्वान्ममेहश्लीपदानपि । विडङ्गं चित्रकं पाठां त्रायमाणां दुरालभाम् । पटोलेन्द्रयवान् दारु पश्चैव लवणानि च ॥ सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, कुड़ेकी छाल, गजपीपल, यवानी वाष्पिकां भार्गी हरिद्रे सारिवाद्वयम् । दालचीनी, इलायची, तेजपात, हपुषा, पीपलामूल, दाडिमं पौष्करं धान्यं वचां क्षारद्वयं तथा ॥ सफेद जीरा, काला जीरा, बायबिडंग, चीतामूल, हरेणुकाजमोदं च तिन्तिडीकाम्लवेतसौ।। पाठा, त्रायमाणा, धमासा, पटोल, इन्द्रजौ, देवदारु, सतुम्बरूणि सर्वाणि कार्पिकाण्युपकल्पयेत् ॥ पांचो नमक, अजवायन, काला जीरा, भरंगी, हल्दी, गुग्गुलुश्च समो देयो हविषा सह योजयेत् । दारुहल्दी, दो प्रकारकी सारिवा, अनारकी छाल, अक्षमात्रां तु गुटिकां भक्षयेन्मधुना सह ॥ पोखरमूल, धनिया, बच, जवाखार, सज्जीखार, For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः गुग्गुलुप्रकरणम् ] रेणुका, अजमोद, तिन्तड़ीक, अम्लवेत और तुम्बरु ११- १ तोला तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर ले कर गूगल में समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर आवश्यकतानुसार थोड़ा थोड़ा घी डालकर भली भांति कूटें । जब सब ओषधियां मिलकर एक जीव हो जाएं तो ११-१॥ तोलेके मोदक बना लें ( व्यवहारिक मात्रा - १॥ - २ माशे । ) 1 इन्हें शहद में मिलाकर सेवन करनेसे कास, श्वास, शोथ, अर्श, भगन्दर, हृदयशूल, पृष्टशूल, पार्श्वशूल, अग्निमांद्य, आगवात, उदावर्त, मेदोवृद्धि, गुदकृमि, आनाह, उन्माद, कुछ, पाण्डु, उदररोग, नाण, प्रमेह और स्लीपदका नाश होता है। (७९१७) सप्तविंशतिको गुग्गुलुः (१) ( भै. र. ; वृ. नि. र.; यो. र. । भगन्दरा. वृ. नि. र. ; यो. र. 1 त्रणा. ; व. से. | अग्निदग्धत्रणा ; वृ यो त । त. ११२ ) त्रिकटुत्रिफला मुस्ताङ्गामृतचित्रकम् । शटयेला 'पिप्पलीमूलं बुषा सुरदारु च ॥ तुम्बुरु पुष्करं नव्यं विशाला रजनीद्वयम् । fasata क्षारौ सैन्धवं गजपिप्पली || यावन्त्येतानि चूर्णानि तावद्विगुणगुग्गुलुः । कोप्रमाणां गुडिकां भक्षयेन्मधुना सह || ari श्वासं तथा शोथमशसि च भगन्दरम् । हृच्छूलं पार्श्वशूलञ्च कुक्षिवस्तिगुदे रुजम् ॥ अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रञ्च अन्त्रवृद्धि तथा क्रिमीन चिरज्वरोपसृष्टानां क्षयोपहतचेतसाम् ॥ आनाहश्च तथोन्मादं कुष्ठानि चोदराणि च । नाडीदुष्टवान् सर्वान् प्रमेहं श्लीपदं तथा । सप्तविंशतिको हन्ति सर्वरोगनिसूदनः || " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१९ त्रिकटु, त्रिफला, मोथा, बायबिड़ङ्ग, गिलोय, चित्रकमूल, कचूर, ( पाठान्तर के अनुसार पटोल ), छोटी इलायची, पिप्पलीमूल, हाउबेर, देवदारु, धनियां, पोहकरमूल, चव्य, इन्द्रायणकी जड़, हल्दी, दारुहल्दी, बिड नमक, काला नमक, यवक्षार, सर्जिक्षार, सेन्धा नमक और गजपिप्पली; प्रत्येकका चूर्ण १ तोला, शुद्ध गुग्गुलु ५४ तोले । गुग्गुलुको किञ्चित् घृत संयुक्त कर चूर्णको मिश्रित करें और छोटे बेरके परिमाणकी गोली बनावें । अनुपान - मधु | इसे सेवन करने से कास, श्वास, शोथ, अर्श, भगन्दर, हृच्छूल, पार्श्वशूल, कुक्षिशूल, वस्तिशूल, गुदाशूल, अश्मरी, मूत्रकृच्छ्र, अन्त्रवृद्धि, कृमिरोग, जीर्णज्वर, क्षय, आनाह, उन्माद, कुष्ठ, उदररोग, नाडीव्रण, दुष्टत्रण, प्रमेह और श्लीपद आदि रोग नष्ट होते हैं । (७९१८) सप्तविंशतिको गुग्गुलुः (२) ( वृ० नि. र. । शूलरोगा . ) क्षारद्वयं त्रिकटुकं त्रिफला हरिद्रा रुद्राक्ष मुस्तलव णत्रयतुम्बरूणि । सग्रन्थिकाग्नित्रुटि चित्रकचव्यकुष्ठमाक्षी पुष्कर विडङ्गविषायुतानि ॥ यावन्त्यमूनि गजपिप्पलिसंयुतानि तावत्प्रमाणमिति गुग्गुलुसंयुतानि । कृत्वा घृतेन गुटिका मनुजैः प्रयोज्या वातं च दुग्धजलकाञ्जिकमुद्गयूषैः ॥ हृत्पार्श्व पृष्ठ कटिवंक्षणकुक्षिकक्षा शूलानि नाशयति कुष्ठकिला सरोगान् । पाण्ड्वामयं क्षयमपस्मृतिमूर्ध्ववातमुन्मादमामपवनं श्वयथुं प्रमेहम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि जवाखार, सजीखार, सांठ, मिर्च, पीपल, हरं, । सप्ताङ्गगुग्गुलुः (२) बहेड़ा, आमला, हल्दी, रुद्राक्ष, नागरमोथा, सेंधा ( भै. र. । व्रणशोथा.) लवण, काला नमक, बिड नमक, तुम्बरु, पीपला प्र. सं. ६६९० " विडङ्गादिवटिकागुग्गुलुः" मूल, शुद्ध भिलावा, छोटी इलायची, चीतामूल, । देखिये। चव्य, कूठ, सोनामक्खी भस्म, पोखरमूल, बाय (७९२०)समशर्करागुग्गुलुः बिडंग, अतीस और गजपीपल; इनका चूर्ण १-१ भाग और शुद्ध गगल २६ भाग ले कर सबको ( भा. प्र. म. ख. २ । वातरक्ता.) एकत्र मिलाकर थोड़ा घी डालकर कूटें और सबके | साटासमेत एकजीव हो जाने पर (२-२ माशेकी) मुस्तकत्रुटिवचायवानिकाः । गोलियां बना लें। व्योषदीप्यकानिशाफलत्रिक अनुपान-दूध, जल, कांजी या मूंगका यूष । जीरकद्वयविडङ्गचित्रकम् ।। यह गूगल हुन्छूल, पार्श्वशल, कटिशूल, कार्षिकं मुममृणं मुयोजितं वंक्षणशूल, कुक्षिशूल, कक्षाशूल, कुष्ठ, किलास, संयुतं पुरपलैश्च पंचमिः । पाण्डु, क्षय, अपस्मार, ऊर्ववात, उन्माद, आमवात, | शर्करां पुरसमां सुपेषयेशोथ और प्रमेहको नष्ट करता है । तासपिपि विनिक्षिपेत्ततः ॥ (७९१९) सप्ताङ्गगुग्गुलुः (१) । वातरक्तमुदरं भगन्दरं ( भै. र. ; वृ. मा. । नाडीव्रणा. ; यो. त. । त. पीहयक्ष्मविषमज्वरं गरम्। ६०; वै. र. । भगा; भा. प्र. म. खं. २ । वित्रकुष्ठमखिलव्रणानयं नाडीव्रणा. ; ग. नि. । नाडीव्रणा. ६) चित्तविभ्रममदांश्च दारुणान् ॥ | गृध्रसीं च गुदजानिमन्दतां गुग्गुलुत्रिफलाध्योपैः समर्शिराज्ययोजितः । _हन्ति कोष्ठजनितं महागदम् । नाडीदुष्टत्रणशूलभगन्दरविनाशनः ॥ वज्रमिन्द्रसुकरादिवच्युतं हर, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च और गुप्तशैलकुलमुत्तमं द्रुतम् ।। पीपल; इनका चूर्ण तथा शुद्ध गूगल समान भाग | अन्नपानपरिहारवर्जितं ले कर सबको एकत्र मिला कर थोड़ा घी डालकर ___ सर्वकालमुखदं निरत्ययम् । कूटें और एकजीव हो जाने पर (२-२ माशेकी) | सेव्यमानमिदमचिनिर्मित गोलियां बनावें। गुग्गुलोहि वटिकारसायनम् ॥ इसके सेवनसे नाड़ीत्रण, शूल और भगन्दरका चत्वारो माषकाहीने मध्यमेऽष्टौ च माषकाः । नाश होता है। श्रेष्ठा द्वादशकाःप्रोक्ताःकोष्ठं विज्ञाय पाययेत ।। For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुग्गुलुप्रकरणम् ] पश्चमो भागः २३१ - - - जवाखार, देवदारु, सेंधा नमक, नागरमोथा, सुचूर्णितैस्त्र्यूषणजन्तुहन्त्री छोटी इलायची, बच, अजवायन, सेठ, काली मिर्च, छिन्नोभवादाय॑भयात्रिजातैः। पोपल, अजमोद, हल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, त्रित्समैरक्षमितैर्विचूर्ण्य सफेद और काला जीरा, बायबिडंग और चीतामूल; निधाय गुप्तं यवधान्यपूते ॥ इनका चूर्ण ११-१॥ तोला, शुद्ध गूगल २५ तोले और खांड २५ तोले ले कर प्रथम गूगल और मासे स्थितं पाश्य शुभेहि सिद्धः खांडको एकत्र मिला कर थोड़ा घी डालकर कूटें प्रयान्निरोग रुजतां मनुष्यः । और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर शोफोदरौ प्लीहरुजां विकारा अच्छी तरह कूट कर सबको एकजीव कर लें। नाडीव्रणा ग्रहणीपदोपैः॥ इसके सेवनसे वातरक्त, उदररोग, भगन्दर, सवातरक्तैः सकलैश्च कुठेप्लीहा, क्षय, विषमज्वर, गरविष, श्वित्रकुष्ट, वण, विमुच्यते पाण्डुगदैश्चघोरैः। चित्तभ्रम, दारुण मद, गृध्रसी, अर्श, अग्निमांध प्रभानो रोगमहातरूणां और भयंकर उदर रोग नष्ट होते हैं। विवर्धनो वर्णवलायुषां च ॥ यह गुग्गुलु रसायन है और सब ऋतुओंमें सेवन किया जा सकता है। नासाध्यमस्तीति विकारजातं इसकी उत्तम मात्रा १२ माशे, मध्यम ८ ख्यातस्तु एषो सुवि सिंहनादः ॥ माशे और हीन मात्रा ( वर्तमान कालोचित ) हर्र, बहेड़ा, आमला, खस, बायबिडंग, ४ माशे है। दन्तीमूल, पुनर्नवा, नागरमोथा, चीतामूल, सेठ, (७९२१) सिंहनादगुग्गुलुः (१) | रास्ना, गिलोय, शतावर, देवदारु, दारुहल्दी, | पीपलामूल, इलायची और गजपीपल ५-५ तोले ( यो. चि. म. । अ. ७) ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें फलत्रिकोशीरविडङ्गदन्ती पकावें और आधा शेष रहने पर छान कर उसमें पुनर्नवाम्भोधरवहिविश्वा । ९० तोले शुद्ध गूगल मिला कर पुनः पकावें । रास्नामृता भीरु सुराहदा: जब गाढ़ी हो जाय तो उसमें सेांठ, मिर्च, पीपल, सग्रन्थिकैले भकणा पलांशैः॥ बायबिडंग, गिलोय, दारुहल्दी, हरी, दालचीनी, द्रोणाम्भसा गुग्गुलुतुल्यभागे- इलायची, तेजपात और निसोत; इनका ११-१ रदधृतैः सूक्ष्मपटान्तपूतैः । तोला चूर्ण मिला कर मिट्टीके पात्रमें भर कर उसका भूय शृतैरकुलिधेयरूपो मुख बन्द करके अनाजके ढेरमें दबा दें । और लेहः सुशीतो भुवि भाजनस्थम् ॥ एक मास पश्चात् निकाल कर सेवन करें। For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org २३२ इसके सेवनसे शोथ, उदर, प्लीहा, नाडीव्रण, अर्थ, ग्रहणीदोष, वातरक्त, कुष्ठ और पाण्डुका नाश तथा बल वर्ण और आयुकी वृद्धि होती है । ( मात्रा - १॥ - २ माशे । ) (७९२२) सिंहनादगुग्गुलुः (२) (बृ. यो. त. । त. ९३ ) प्रत्येकं प्रस्थमेकं पुर त्रिफलमपां पाचयेत्सार्धराशौ तुर्याशे तत्र पूते पुनरमरवराव्योष छोग्रामानकारि शव डित्रि भारत - भैषज्य रत्नाकरः मुस्तानिवेलैः । साहसैर्दन्तिबीजैः कटुजवसुपलैः वृत्स्मृतगन्धैः पलार्धैः सिंहनादो ऽनिलामे || १॥ द्रोण (४८ सेर) पानी में १ सेर त्रिफला और कपड़े में बंधा हुवा १ सेर शुद्ध गूगल डालकर पकावें । जब १२ सेर पानी शेष रह जाय तो थको छान । ( यदि पोटली में गूगल रह गया हो तो उसे निकाल कर इस छने हुवे काथमें मिला लेना चाहिये | ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि चूर्ण मिला कर सबको अच्छी तरह मर्दन करके एक जीव करें। यह गगल आमवातको नष्ट करता है । (७९२३) सिंहनादगुग्गुलुः (३) ( भै. र. । आमवाता. ; च. द. । आमवा. २५ ; र. र. ; वृ. नि. र. । आमवाता. भा. प्र. । म. खं. २ वातरक्ता. ) 55 | पळत्रयं कषायस्य त्रिफलायाः सुचूर्णितम् । सौगन्धिकपलञ्चैकं कौशिकस्य पलन्तथा ॥ asi चित्रतैलस्य सर्वमादाय यत्नतः । पाचयेत् पाकविद्वैधः पात्रे लोहमये ह || हन्ति वार्त तथा पित्तं श्लेष्माणं खअपङ्गुताम् । श्वासं सुदुर्जयं हन्ति कासं पञ्चविधन्तथा ॥ कुष्ठानि वातरक्तानि गुल्मशूलोदराणि च । आमवातं जयेदेतदपि वैद्यविवज्जितम् ॥ एतदभ्यासयोगेन जरापलितनाशनम् । सर्पिस्तैलव सोपेतमश्नीयाच्छालिषष्टिकम् ।। सिंहनाद इति ख्यातो रोगवारणदर्पहा । वह्निवृद्धिकरः पुंसां भाषितो दण्डपाणिना ।। लोह पात्र में २० तोले अण्डीका तेल डालकर उसमें ५ तोले शुद्ध गूगल डालकर आगपर रक्खें । जब गूगल तेलमें मिल जाए तो उसमें त्रिफलाका १५ तोले काथ मिला कर पकायें | जब अवलेह के समान गाढ़ा हो जाए तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर ५ तोले शुद्र गन्धकका चूर्ण मिला दें । तदनन्तर उसे पुन: पका कर गाढ़ा करें और फिर उसमें देवदारु, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, नागरमोथा, चीतामूल, बायबिडंग, गिलोय, बच, मानकन्द, शूरण (जिमी - कन्द), शबडि (?) और निसोत; इनका चूर्ण २॥ - २॥ तोले, तथा २॥ - २॥ तोले शुद्ध पारद और गन्धककी कज्जली, एवं १००० शुद्ध जमालगोटेके बीजों का चूर्ण और ४० तोले कुटकीका | दुर्जय श्वास, ५ प्रकारका कास, कुष्ठ, वातरक्त, इसके सेवन से वात, पित्त, कफ, खञ्जता, पङ्गुता, For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुग्मुलुपकरणम् ] पञ्चमो भागः २३३ गुल्म, उदरशूल और कष्टसाध्य आमवातका नाश | शोथान्त्रद्धिशूलानि गुदजानि विनाशयेत् । होता है। इसे दीर्घकाल तक निरन्तर सेवन कर- | मेदःकफामसङ्घातं व्याधिवारण दर्पहा ॥ नेसे जरा और पलितका नाश होता है । यह अग्नि सिंहनाद इति ख्यातो योगोऽयममृतोपमः ॥ वर्द्धक भी है। ४० तोले शुद्ध गूगलको कपड़े की पोटली में पथ्य-घी, तैल और ( मांसाहारियांके बांध लें फिर एक कढ़ाईमें २-२ सेर हर, बहेड़े लिये ) बसा युक्त साठी तथा शाली चावलोंका और आमलेका चूर्ण तथा ४८ सेर पानी डाल कर उसमें यह पोटली डाल दें और मन्दाग्निपर पकावें। भात । जब १२ सेर पानी रह जाय तो उसे छान लें (७९२४) सिंहनादगुग्गुलुः (४) (वृहद्) और पोटलीमें जो गुग्गुलु बचा हो उसे १ सेर ( भै. र. ; धन्व. । आमवाता. ; र. र. , वृ. सरसेके तेलमें मिला कर घोट लें । तदनन्तर यह कोथ और तेलमें घुटा हुवा गूगल एकत्र मिलाकर नि. र. । आमवाता. ; यो. त. । त. ४२ ; पुनः मन्दाग्नि पर पकायें और गाढ़ा हो जाने पर भा. प्र.। वातरक्ता.) उसमें सेांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, पिट्टितां गुग्गुलोर्माणी कटुतैलपलाष्टकम् ।। नागरमोथा, बायबिडंग, देवदारु, ( पाटान्तरके प्रत्येक त्रिफलामस्थौ सार्द्धद्रोणे जले पचेत ॥ अनुसार आमला ), गिलोय, चीतामूल, निसोत. पादशेषश्च पूतश्च पुनरेतद्विमिश्रयेत् । दन्तीमूल, चव (पाठान्तरके अनुसार बच ), सूरण त्रिकटुत्रिफलामुस्तविडङ्गामरदारुकम् ॥ (जिमीकन्द) और मानकन्द; इनका चूर्ण २॥२॥ गुडूच्यग्नित्रिवृदन्ती चवी श्रणमाणकम् । तोले तथा २॥२॥ तोले शुद्ध पारद और गन्धककी पारदं गन्धकश्चैव प्रत्येकं शुक्तिसम्मितम् ॥ कजली एवं १ हजार शुद्ध जमालगोटोंका चूर्ण सहस्रं कानकफलं सिद्धे सञ्चूयं निक्षिपेत् । ( पाठान्तरके अनुसार २॥ तोले कस्तूरी भी) ततो रक्तिद्वयं जगवा पिवेत्तप्तजलादिकम् ॥ मिला कर सबको एकजीव करके सुरक्षित रक्खें । अनिश्च कुरुते दीप्तं बडवानलसभिभम् ।। मात्रा-२ रत्ती । अनुपान- उष्ण धातुद्धि वयोवृद्धिं बलं सुविपुलं तथा ॥ जलादि। आमवात शिरोवातं सन्धिवातं सुदारुणम् । __इसके सेवनसे अग्नि दीत तथा धातु, बल और जानुजङ्घाश्रितं वातं सकटीग्रहमेव च ॥ आयुकी वृद्धि होती है । यह गूगल आमवात, अश्मरी मूत्रकृच्छञ्च भग्नश्च तिमिरोदरे । शिरोगत वायु, दारुण सन्धिवात, जानु और जंघागत अम्लपित्तं तथा कुष्ठं प्रमेहं गुदनिर्गमम् ॥ वायु, कटिग्रह, अश्मरि, मूत्रकृच्छ, भन्नरोग, तिमिर, कासं पञ्चविधं श्वास क्षयश्च विषमज्वरम् ।। उदर रोग, अम्लपित्त, कुष्ट, प्रमेह, गुदभ्रंश (कांच प्लीहानं श्लीपदं गुल्मं पाण्डुरोगं सकामलम् ॥' निकलना), ५ प्रकारके कास, स्वास, क्षय, विषम 3 . For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [सकारादि - - ज्वर, प्लीहा, श्लीपद, गुल्म, पाण्डु, कामला, शोथ, | ताप्यस्य पलत्रितयं वे लोहाएअन्त्रवृद्धि, शूल, अर्श, मेदवृद्धि, कफवृद्धि और । वणिकायाश्च ॥ आमसंचयको नष्ट करता है। त्रिफलकरअपल्लवखदिरगुडूचीवचाविहन्ती। (७९२५) स्वायम्भुवगुग्गुलु वटी मुस्ताविडङ्गरजनीचतुरङ्गुलवहिकुटजैश्च ।। पलिकैश्चूर्णमेतन्मूत्रेण गवां पिबेन्नरः प्रातः। (व. से. । वातव्या, ) | कुष्ठी घृतमधुमिश्रं जयत्यमृग्वासमचिरेण ॥ व्योपं सग्रन्थिकं पथ्यां चित्रकं जीरकद्वयम् । श्वित्राणि कुष्ठकोठौ विषगरगुल्मोदरममेहांश्च । अजमोदा यवानी च क्या चव्यमवरगुजम् ॥ उन्मादभगन्दरमपस्मृतिश्लीपदकृमिश्वासान् । लवणत्रितयं क्षारौ समभागानि कारयेत् ।। जयति वलीपलितानि च योगः यावन्त्येतानि चूर्णानि तावन्तं गुग्गुलं शुभम् ॥ स्वायम्भुवः प्रोक्तः । पादा सम्मित चात्र योजयेदम्लवेतसम् । बाबची २५ तोले, शुद्ध शिलाजीत २५ तोले, गुटिकैपा हिता वाते सामे सन्ध्यस्थिमज्जगे॥ शुद्ध गूगल ५० तोले, स्वर्णमाक्षिकभस्म १५ दृढी करोति भग्नश्च जठरानलदीपनी। तोले, लोह भस्म १० तोले और गोरख मुण्डीका पूजिता देवदेवेन कालपाशेन शम्भुना॥ | चूर्ण १० तोले एवं हर्र, बहेड़ा, आमला, करलके सेठ, मिर्च, पीपल, पीपलाभूल, हर्र, चीता, पत्ते, खैरसार, गिलोय, बच ( पाठान्तरके अनुसार सफेद और काला जीरा, अजमोद, अजवायन, | नीमकी छाल ), निसोत, दन्तीमूल, नागरमोथा, बच, चव्य, बाबची, सेंधानमक, बिड नमक, बायबिडंग, हल्दी, अमलतासकी छाल, चीता और संचल नमक, जवाखार और सज्जीखार १-१ भाग कुड़ेकी छाल; इनका चूर्ण ५-५ तोले ले कर तथा शुद्ध गूगल १८ भाग और अम्लवेतका चूर्ण सबको एकत्र मिलाकर भली भांति करें और ४॥ भाग ले कर सबको एकत्रमिलाकर (थोड़ा घी सबके एकजीव हो जाने पर सुरक्षित रक्खें। डाल कर) कटें और सबके एवजीव हो जाने पर ( मात्रा-१॥ माशा ।) (३-३ माशेकी) गोलियां बना लें। इसे धी और शहदके माथ चाटकर ऊपरसे इनके सेवनसे आमवात, सन्धिगत वायु तथा गोमूत्र पीना चाहिये। अस्थि और मज्जागत वायुका नाश एवं भग्नस्थान इसके सेवनसे वातरक्त, श्वित्रकुष्ठ, कोठ, दृढ़ होता और अग्नि दीप्त होती है। गरविष, गुल्म, प्रमेह, उन्माद, भगन्दर, अपस्मार, श्लीपद, कृमिरोग, श्वास और बलिपलितका नाश (७९२६) स्वायम्भुवो गुग्गुलुः (१) । होता है। ( ग. नि. । गुटिका. ४ ; भा. प्र. । कुष्ठा.) (नोट-गोरखमुण्डीसे आगेकी ओषधियां शशिरेपा पञ्चपलं तावगिरिजश्च अनुपान प्रतीत होती हैं, परन्तु पाठमें इसका गुग्गुलोर्दश च । स्पष्ट उल्लेख नहीं है।) For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अवलेहमकरणम् ] (७९२७) स्वायम्भुवो गुग्गुलुः (२) (बृहद्) (ग. नि. 1 गुटिका. ४ ; र. र. । वातरक्ता. ) अलम्बुषा लोह चूर्णमनयां पले पले । पलत्रयं च ताप्युत्थाद्वाकुची पलपञ्चकम् ॥ शिलाजतु तयोस्तुल्यं पलानि दश गुग्गुलोः । सर्वाण्येकत्र सञ्चूर्ण्य गुटिकां कारयेद्बुधः ॥ शाणं कर्षार्धक वा ततः खादेत्प्रयत्नतः । वातरक्तं च कुष्ठानि श्वित्राणि विविधानि च ॥ भगन्दरान् क्षुद्ररोगानशसि ग्रहणीगदान । aftatioछुक्रदोषांश्च पाण्डुतामुदराणि च ।। www. kobatirth.org तोले; पञ्चमो भागः - गोरखमुण्डीका चूर्ण और लोहभस्म १० -१० स्वर्णमाक्षिक भस्म १५ तोले, बाबचीका | होता है । २३५ चूर्ण २५ तोले और शुद्ध शिलाजीत ४० ते एवं शुद्ध गगल ५० ताले ले कर सबको एकत्र मिला कर अच्छी तरह कूदें और सबके एकजीव हेने पर ५-५ माशेकी गोलियां बना लें । (७९२८) समङ्गाद्यवलेहः (बृ. यो. त. । १४४ त. ) समङ्गोत्पलमखिष्ठा तिरीटतिलचन्दनम् । छागीक्षीरेण सक्षौद्रं रक्तातीसारनाशनम् ॥ लज्जालुकी जड़, नीलोत्पल, मजीठ, लोध, तिल और सफेद चन्दन; इनका समान भाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र मिला लें। तथा उसे शहद में मिला कर अवलेह ( चटनी ) बना लें । मात्रा - ५ माशे, ७॥ माशे या १। तोला । ( व्यवहारिक मात्रा - ३ - ४ रत्ती । ) इति सकारादिगुग्गुलुप्रकरणम इसे चाटकर ऊपरसे बकरीका दूध पीना चाहिये । इसके सेवन से रक्तातिसार नष्ट होता है । ( मात्रा -६ माशे । ) इसके सेवन से वातरक्त, कुष्ट, श्वेत कुष्ट, भगन्दर, क्षुद्र रोग, अर्श, ग्रहणी रोग, बस्तिके रेग, शुक्रदोष, पाण्डु और उदर रोगोंका नाश >< Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ सकाराद्यवलेह प्रकरणम् (७९२९) सप्तमोऽवलेहः (ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ) त्रिफलान्योपभल्लात तिलाज्यक्षौद्रशर्कराः । वृष्यः सप्तमो मेध्यः कुष्ठहा कामचारिणः ॥ त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, ओमला), त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), शुद्ध भिलावा, और तिल; इनका चूर्ण तथा घी, शहद और खांड समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें । यह लेह वृष्य, मेध्य और कुष्टनाशक है । ( मात्रा - ६ माशे । ) For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि (७९३०) सपिण्डः (१) (७९३१) सर्पिर्गुडः (२) (सपिटिका) (सपिटिका) (ग. नि. । परि. गुटिका. ४. ; व. से. । राजयक्ष्मा.) (ग. नि । गुटिका. ४ ; च. सं.। चि. त्वक्षीरी श्रावणीद्राक्षामूर्षिभकजीवकैः । क्षतक्षीणा. ; वृ. मा. ; च. द. । राजयक्ष्मा. वीरर्धिक्षीरकाकोलीबृहतीकपिकच्छुभिः॥ व. से. । क्षतक्षया.) खजूरफलमेदाभिः क्षीरपिष्टैः पलोन्मितः।। बला विदारी स्वा च पश्चमूली पुनर्नवा । धात्री विदारीक्षुरसमस्थेः प्रस्थं घृतात्पचेत् ।। । पश्चानां क्षीरवृक्षाणां शुङ्गा मुष्टयंशका अपि ॥ शर्कराऽष्टपलं शीते क्षौदार्धप्रस्थमेव च । एषां कषाये दिक्षीरे विदार्या स्वरसांशके। दत्त्वा सर्पिगुंडान् कासहिकाज्वरापहान् ॥ जीवनीयैः पचेत् कल्कैरक्षयात्रघृताढकम् ॥ यक्ष्माणं तमकं श्वास रक्तपित्तं हलीमकम् । सितापलानि पूतेऽस्मिञ्छीते द्वात्रिंशदावपेत् । शुक्रनिद्राक्षयं तृष्णां हन्युः साश्मय सकामलम्।। गोधूमपिप्पली वांशी चूर्ण शृङ्गाटकस्य च ॥ सक्षौद्रं कुडवं शीतं तत्सर्व खजमूरिछतम् । बंसलोचन, गोरखमुण्डी, द्राक्षा ( मुनक्का ), स्त्यानं सर्पिर्गुडान् कृत्वा भूर्जपत्रेण वेष्टयेत् ॥ मूर्वा, ऋषभक, जीवक, शतावर, ऋद्वि, क्षीरकाकोली, ताजग्ध्वा पलिकान्क्षीरं मद्यं चानुपिबेत्कफे । कटेली, कौंच के बीज, खजूर के फल, और मेदा; शोषे कासे क्षतक्षीणे श्रमस्त्रीभारकर्षिते ।। इनका ५-५ तोले चूर्ण लेकर सबको दूध के साथ रक्तनिधीने तापे पीनसे चोरसि स्थिते । पीस लें । तदनन्तर आमले, विदारीकन्द और ईखके शस्ता पार्श्वशिरःशूले भेदे च हस्तपादयोः॥ २-२ सेर रस. तथा २ सेर घीको एकत्र मिला कर खरैटी, विदारीकन्द, पञ्चमूल (शालपर्णी, उसमें उपरोक्त पिसी हुई औषधे तथा ४० तोले | पृष्ठपर्णी, कटेली, बड़ी कटेली, गोखरु ), पुनर्नवा, खांड मिला कर पकावे और सब अवलेह तैयार बड़की कोंपल, पीपलवृक्षकी कोंपल, पिलखनकी हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर, ठंडा कोंपल, गूलरकी कोपल और सिरसकी कोंपल ५-५तोले लेकर सबको एकत्र कूटकर ३२ सेर करके उसमें १ सेर शहद मिला लें। पानीमें पकावें और चौथा भाग शेष रहने इसके सेवनसे कास, हिचकी, ज्वर, यक्ष्मा, पर छान लें। तमकश्वास, रक्तपित्त, हलीमक, शुक्रक्षय, निद्राक्षय, . ८ सेर गोघृतमें यह क्वाथ, ८-८ सेर गाय तृषा, अश्मरी और कामलाका नाश होता है । और बकरी का दूध तथा ८ सेर विदारीकन्दका (मात्रा-१ से २ तोले तक ।) रस एवं ११-१। तोला जीवनीय गणकी ओषधियों For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमौ भांगः २३७ अवलेहप्रकरणम् ] का कल्क मिला कर पकावें और जब जलांश सूतोत्थविकृतिवापि सन्देहो नात्र कश्च न । शुष्क हो जाय तो घी को छान लें। मुक्तश्च सर्वरोगेभ्यो बलवर्णाग्निसंयुतः ॥ मानवः सिद्धकामोऽस्माच्छीघ्रं भवति निश्चितम् ।। ६ | सेर सारिवाको कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें गिलोय, शतावर, विदारीकन्द, जीवक, निसोत, मुण्डी, हर्र, बहेड़ा, आमला, छोटी इलायची और चोप चीनी; इनका २|| - २॥ तोले चूर्ण मिला. अनुपान - दूध । यदि रोग कफप्रधान हो कर पुनः मंदाग्नि पर पकायें और गाढ़ा हो जाने पर आगसे नीचे उतार कर ठंडा होने पर उसमें १ सेर शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें । तो मद्य । तत्पश्चात् उसमें २ सेर खांड तथा २०-२० तोले गेहूं का आटा (भुना हुवा ), पीपलका चूर्ण, बंसलोचनका चूर्ण, सिंघाड़े का चूर्ण और ४० तोले शहद मिलाकर मथनी से मथें । जब घी गाढ़ा हो जाय तो ५ - ५ तोलेके मोदक बनाकर उन्हें भोजपत्र में लपेटकर रख दें । इनके सेवन से शोष, कास, क्षतक्षीणता, श्रमजनित दुर्बलता तथा स्त्री सहवास और अधिक बोझ उठाने से उत्पन्न हुई क्षीणतो, रक्तनिष्ठीवन, ताप, पीनस, उरःक्षत, पार्श्वशूल, शिरशूल और हाथ पैका टूटना आदि विकार नष्ट होते हैं । ( जीवनीय गण- - जीवक, ऋषभक, मेदा, मदामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, मापर्णी, मुलैठी और जीवन्ती । ) (७९३२) सारिवाद्यवलेहः (भै. र. । उपदंशा ). सारिवाया: पलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् । तस्मिन् पादावशेषे तु गुडूची शतमूलिका ॥ विदारी जीवनी त्रिमुण्डी च त्रिफला तथा । क्षुद्रेला चोपचीनी च प्रत्येकार्द्धपलं मतम् || सुपिष्टं निक्षिपेत्तत्र शीते मधु पलाष्टकम् । क्षीरानुपानयोगेन पित्रेसोलकसम्मितम् ॥ प्रमेहांश्चोपदेशांश्च मूत्रकृच्छ्रञ्च पीडकाः । नश्यन्ति त्वपरे रोगा रक्तदुष्ट्या भवन्ति ये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मात्रा - १ तोला । अनुपान - दूध । इसके सेवन से प्रमेह, उपदंश, मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह - पिडिका, रक्तदोष जनित अन्य रोग और पारद के समस्त विकार शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । इससे समस्त ( रक्तदोषज ) रोग शीघ्र ही नष्ट हो कर बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती हैं । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। नोट - इसमें सारिवा क्वाथको गाढ़ा करके प्रक्षेपयोंका चूर्ण मिलाना अच्छा है । (७९३३) सितादिलेह : (१) ( वा. भ. । चि. अ. १९ कुष्टा. ) सितातैलकृमिघ्नानि धान्यामलकपिप्पलीः । लिहानः सर्वकुष्ठानि जयत्यतिगुरूण्यपि ॥ मिश्री, तिलका तेल, बायबिडंगका चूर्ण और पीपलका चूर्ण १-१ भाग तथा आमले का चूर्ण २ भाग लेकर सबको एकत्र मिलावें । इसे सेवन करनेसे कष्टसाध्य कुठ भी नष्ट हो जाते हैं । For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २८ www. kobatirth.org भारत-यैषज्य रत्नाकरः (७९३४) सितादिलेह: (२) ( वृ. नि. र. | श्वासा. ) सिताद्राक्षाकणाचूर्ण समांशं तैलपाचितम् । भक्षितं दारुणं श्वासं निवर्तयति वेगतः ॥ मिश्री, मुनक्का और पीपल का चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर तिलके तेल में पका लें। इसे सेवन करने से भयंकर श्वास भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ( मात्रा --- ३-४ माशे । ) (७९३५) सितादिलेह : (३) ( वं. से. । छर्दि . ) सिताचन्दनमध्वाक्तं लिहेद्वा मक्षिकाशकृत् । सोपद्रवा पित्तभवा छर्दिरेतेन शाम्यति ।। मिश्री और सफेद चन्दन या मक्खीकी विष्ठा शहद में मिलाकर चाटनेसे उपद्रव युक्त पित्तज छर्दि नष्ट होती है । (७९३६) सितादिवृष्ययोगः ( न. मृ. । त. २ ) शर्करायास्तुलैका स्यादेका गव्यस्य सर्पिषः । मस्थं विदार्याश्चूर्णस्य पिप्पल्या प्रस्थ एव च ।। अर्धाढकं तुगाक्षीर्याः क्षौद्रस्याभिनवस्य च । तत्सर्वं मिश्रितं तिष्ठेन्मार्त्तिके घृतभाजने ॥ मात्राग्निसमां तस्य प्रातःकाले प्रयोजयेत् । एष वृष्यः परो योगः कण्ठ्यो बृंहण एव च ॥ - [सकारादि खांड ६ । सेर, गोघृत ६ । सेर, विदारीकन्दका चूर्ण १ सेर, पीपलका चूर्ण १ सेर, बंसलोचनका चूर्ण २ सेर और नवीन मधु ४ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मिट्टीके चिकने पात्रमें भरकर रख दें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे प्रातः काल यथोचित मात्रानुसार सेवन करना चाहिये । ( मात्रा - १॥ तोलेसे २ तोले तक ) यह योग अत्यन्त वृष्य, वृंहण ( बल वीर्य वर्द्धक तथा कामोत्तेजक और पौष्टिक ) एवं कण्ठ शोधक है । (७९३७) सिताद्यवलेहः (व. से. 1 पाण्डु.; वृ. नि. र. । कामला. ) सिताविक्तावलायष्टि त्रिफलारजनीयुगैः । लेहं लिह्यात्समध्वाज्यं हलीम कमशान्तये ॥ मिश्री, कुटकी, खरैटीकी जड़, मुलैठी, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी और दारूहल्दी; इनका समान भाग चूर्ण एकत्र मिलाकर घी और शहदके साथ सेवन करने से हलीमक रोग नष्ट होता है । ( मात्रा - चूर्ण - २ - ३ माशे, घी ६ माशे, मधु २ तोले । ) सितोपलाचवलेहः ( भा. प्र. म. खं. २ | क्षयरो. ) 66 सितोपलादिचूर्ण " देखिये । सुकुमार कुमारकावलेह : "सुकुमारकुमारकघृतम् " देखिये । For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेह प्रकरणम् ] पञ्चमो भागः सुपारीपाका (७९४०) सैन्धवाद्यवलेहः (२) (वै. र. । वाजीकरणा.) ( भा. प्र. म. खं. २ । बालरोगा. ; ग. नि. । पकारादि अवलेह प्रकरणमें “ पूगखण्डः" बालरोगा. ११) तथा " पूगपाकः" एवं रकारादि रस प्रकरणमें | घृतेन सिन्धविश्वैलाहिङ्गभामरजो लिहन् । प्र. सं. ६०३९ “रतिवल्लभ-पूगपाकः" देखिये। आनाहं वातिकं शूलं हन्यात्तोयेन वा शिशुः।। __ (७९३८) सुवर्णगैरिकादिलेहः सेंधा नमक, सांठ, इलायची, हींग और भर'गी; (ग. नि. । हिक्का. १२) इनका चूर्ण समान भाग ले कर घीमें मिला कर सुवर्णगैरिफ भार्गी शालिलाना निदिग्धिका । चटानेसे या गरम पानीके साथ देनेसे बालकका हिक्कानुदेष वै लेहो घृतमाक्षिकसंयुतः ॥ अफारा और वात्ज शूल नष्ट होता है । सोनागेरु, भरंगी, शालीधानकी खील और (मात्रा-२-३ रत्ती ।) कटेली; इनका समान भाग चूर्ण ले कर सबको (७९४१) सौभाग्यशुण्ठीपाकः (१) एकत्र मिला कर घी और शहद के साथ सेवन करनेसे हिका (हिचकी) का नाश होता है। ( नागरखण्डः) (चूर्णे ६ माशे, घी १ तोला, शहद २ ( यो. र. । सूतिका. ; वृ. यो. त. । त. १४२ ; तोले । सबको मिला कर थोड़ा थोड़ा बार बार | भा. प्र. म. खं. २ । सूतिका.) चटावें ।) आज्यस्याञ्जलियुग्ममत्र पयसः प्रस्थद्वयं खण्डत (७९३९) सैन्धवाद्यवलेहः (१) । पञ्चाशत्पलमत्र चूर्णितमय प्रतिप्यते नागरम् । (व. से. । अर्शो.) प्रस्थाधं गुडवद्विपाच्य विधिना मुष्टित्रयं धान्य: सैन्धवं नागरं पाठा दाडिमस्य रस गुडम् । सतकलवणं दद्याद्वातवर्होनुलोमनम् ॥ मिस्याः पञ्चपलं पलं कृमिरिपोः साजाजिजी रादपि ।। सेंधा नमक, सांठ और पाठा; इनका चूर्ण, व्योपाम्भोददलोरगेन्द्रसुमनः सद्राविडीनां पलं अनारका रस और गुड़ समान भाग ले कर एकत्र पक्वं नागरखण्डसज्ञकमिदं सौभाग्यदं योषिताम् मिलावें। तृछर्दिज्वरदाहशोषशमनं सश्वासकासापहं इसे लवण ( सेंधा नमक ) युक्त तक्रके प्लीहव्याधिविनाशनं कृमिहरं मन्दाग्निसन्दीसाथ सेवन करनेसे वायु और मल स्वमार्गगामी पनम् ॥ हो जाते हैं। घी १ सेर, दूध ४ सेर, खांड ३ सेर १० (मात्रा-६ माशे ।) | तोले और सेठिका चूर्ण ४० तोले ले कर प्रथम कान् For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि -... - बना लें। सेोठको धीमें मन्दाग्नि पर भूनें और फिर उसमें दूध | पियालबीजममृता कपूरं चन्दनद्वयम् । और खांड मिला कर पकावें । जब अवलेह तैयार कर्षप्रमाणान्येतेषां श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥ होनेके निकट आ जाए तो उसमें निम्नलिखित नागरस्य च चूर्णस्य प्रस्थद्वयमितं क्षिपेत् । प्रक्षेप मिला दें और पाक बन जाने पर आमसे हढे च मृण्मये पात्रे पाचयेन्मृदुनाग्निना ॥ नीचे उतार कर ठंडा कर लें। यत्नतः पाकविद्वैधो गुडिकां कारयेत्ततः । - प्रक्षेप-धनिया १५ तोले, सौंफ २५ तोले | घृतमष्टपलं दधात् क्षीरप्रस्थं द्वयं तथा ॥ तथा बायबिडंग, सफेद और काला जीरा, सांठ, साईप्रस्थद्वयं चात्र शर्करायास्ततः क्षिपेत् । मिर्च, पीपल, नागरमोथा, तेजपात, नागकेसर और भक्षयेत्यातरुत्थाय अजाक्षीरं पिबेदनु । छोटी इलायची ५-५ तोले । इनका बारीक चूर्ण आमवात निहन्न्याशु कासं श्वासं सपीनसम् ग्रहणीमम्लपित्तश्च रक्तपित्तं क्षतक्षयम् ॥ यह पाक स्त्रियोंके लिये अत्यन्त हितकारी | स्त्रीरोग विंशतिं चैव तत्क्षणादेव नाशयेत् । है। तृषा, छर्दि, ज्वर, दाह, शोष, श्वास, कास, अहन्यहनि च स्त्रीणां स्तनदाढर्थकरं परम् ॥ प्लोहा और कृमि रोगको नष्ट करता है । इसके । | सौभाग्यजननं स्त्रीणां पुष्टिदं धातुवर्धनम् ॥ सेवनसे अग्नि दीप्त होती है। सांठके २ सेर बारीक चूर्णको १ सेर धीमें (मात्रा-१ तोलेसे २ तोले तक ।) भूनें और जब उसका रंग लाल होने लगे तो उसे ४ सेर दूधमें मिला कर उसमें २॥ सेर खांड रसरत्नसमुच्चयमें "मूतिकामृत " नामसे मिलावें और मिट्टीके दृढ़ पात्रमें मन्दाग्निपर पकावें ! • एक प्रयोग दिया है जो लगभग इसीके समान जब पाक तैयार होनेके निकट आ जाय तो उसमें है। उसमें घीके स्थानमें पानी तथा नागरमोथा, निम्नलिखित प्रक्षेप मिला दें और खूब गाढ़ा हो नांगकेसर और तेजपातके स्थानमें कटेली, दाल- जाने पर अग्निसे नीचे उतारकर ठंडा कर लें। चीनी, लौंग और बोल है । दूध ८ सेर है।) प्रक्षेप-सेांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, - (७९४२) सौभाग्यशुण्ठी (२) । आमला, जीरा, दाल चीनी, छोटी इलायची, तेज पात, नागकेसर, नागरमोथा, जावत्री, जायफल, ( भै. र. । स्त्री.) धनिया, लौंग, सोया, नलिका, मैनफल, अजवायन, त्रिकटुत्रिफलाजाजी चातुतिकमुस्तकम् । | अजमोद, धायके फूल, शतावर, तालमूली, लोध, जातीकोषफलं धान्यं लवङ्गं शतपुष्पिका ॥ गजपीपल, चिरौंजी, गिलोय, कपूर, सफेद चन्दन नलिका मादनफलं यमानीद्वयधातकी।। और लाल चन्दन १३-१४ तोला ले कर बारीक शतावरी तालमूली लोधं वारणपिप्पली॥ | चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहमकरणम् । पचमो भागः ( कपूरको थोड़े घीके साथ घोटकर मिलाना | शुद्ध भाण्डे निधायाथ खादेन्नित्यं यथावलम् । चाहिये ।) वीक्ष्याग्निवलकोष्ठश्च नारीणाश्च विशेषतः ॥ ( मात्रा-१ से २ तोले तक।) क्षौद्रानुपानतः प्रातः गुरुदेवान् समाचरेत् । अनुपान-बकरीका दूध। | तद्वय बल्यमायुष्यं वलीपलितनाशनम् ।। वयसः स्थापनं प्रोक्तमग्निदीप्तिकरं परम् । यह पाक आमवात, कास, श्वास, पीनस, | वृष्याणामतिवृष्यश्च रसायनमिदं शुभम् ॥ ग्रहणी रोग, अम्लपित्त, रक्तपित्त, क्षतक्षय और विशेषात् स्त्रीगदे प्रोक्तं प्रसूतानां यथामृतम् । स्त्री रोगांको अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता है। इसके सेवनसे स्त्रियोंके स्तन दृढ़ होते तथा सौभाग्यकी विंशतिप्पदो योनेः प्रदरं पश्चधाऽपि च ॥ वृद्धि होती है । यह पाक पौष्टिक और धातु- योनिदोपहरं स्त्रीणां रजोदोषहरन्तथा । वर्द्धक है। पापसंसर्गनं दोषं नाशयेन्नात्र संशयः ॥ आमवातहरश्चैव शिरःशूलनिवारणम् । (७९४३) सौभाग्यशुण्ठी (३) (बृहत्) सर्वशूलहरश्चैव विशेषात् कटिशूलनुत् ॥ (भै. र. । स्त्रीरो.) वीर्यवृद्धिकरं पुंसां मूतिकातङ्कनाशनम् । महौषधं समादाय चूर्णयित्वा विधानतः । वातपिसकफोदभूतान् द्वन्दजान् सन्निपातजान्॥ पलपोडशिकां नीत्वा क्षीरे दशगुणे पचेत् ॥ हन्ति सर्वगदानेपा शुण्ठी सौभाग्यदायिनी । क्रमेण पाकशुद्धिः स्याद् घृतपस्थे च भर्जयेत् । सौभाग्यदायिनी स्त्रीणामतः सौभाग्यशुण्ठिका ॥ १ सेर शुण्ठी चूर्णको २० सेर दूधमें पकावें। लघुपाकः प्रकर्त्तव्यो न खरो मोदकेष्वपि ॥ शतावरी विदारी च मृपली गोक्षुरो बला । जब खोयेकी तरह गाढ़ा हो जाय तो उसे २ सेर धीमें भून लें। पश्चात् २१५ तोले खांडकी छिन्नासत्त्वं शताहा च जीरको व्योपचित्रको । चाशनीमें पकावें । जब पाक हो जाय तब शतावर, त्रिसुगन्धि यमानी च तालीचं कारवी मिशिः। विदारीकन्द, मूसली, गोखरू, बला, गिलोयका सत, रास्ना पुष्करमूलं च वांशी दारु शताहयम् ॥ सेाया, श्वेत जीरा, काला जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, शटी मांसी वचा मोचत्वक् पत्रं नागकेशरम् । चित्रक, दारचीनी, छोटी इलायची, तेजपत्र, अजजीवन्ती मेयिका यष्टी चन्दनं रक्तचन्दनम् ॥ वाइन, तालीशपत्र, कारवी ( अजमोदा ), सौंफ, क्रिमिघ्नं तोयसिंहास्यधन्याकं कट्फलं धनम् ।। राना, पुष्करमूल, वंशलोचन, देवदारु, साया, कर्षद्वयमितं भागं प्रत्येकं पट्टयर्षितम् ।। कचूर, जटामांसी, वच, मोचरस, दारचीनी, तेजपत्र, सर्वचूर्णाद् द्विगुणिता प्रदेया सितशर्करा। नांगकेसर, जीवन्ती, मेथीबोज, मुलहठी, श्वेतयुक्त्या पाकविधानज्ञो मोदकं परिकल्पयेत् ॥ | चन्दन, लाल चन्दन, बायबिडङ्ग, सुगन्धबाला, For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org २४२. अडूसाछाल, धनिया, कटूफल और मोथा; प्रत्येकका चूर्ण २॥ तो इनका प्रक्षेप दें और अच्छी प्रकार मिला नीचे उतार लें | इसमें पाक मृदु करना चाहिये । मोदक आदिके पाकमें खरपाक निषिद्ध है । पाक करनेके पश्चात् मोदक बना लें और शुद्ध पात्र में रक्खें । ( मात्रा - आधे तोलेसे २ तोले तक । ) गुरु और देवताओंकी पूजा करके उपर्युक्त मात्रा में शहद के साथ इसे सेवन करावें । यह वर्ण्य, बल्य, आयुष्कर, वृष्य, वयःस्थापक तथा अग्निप्रदीपक है । यह विशेषतः सूतिका रोगमें अत्यन्त हितकर है। इसके सेवन से योनिरोग, प्रदर, योनिदोष, आर्तवदोष, आमवात, शिरोवेदना, सम्पूर्णशूल, कटिशूल (कमर दर्द ) प्रभृति रोग नष्ट होते हैं । सम्पूर्ण वातज, पित्तज, कफज, द्वन्द्वज तथ। सन्निपातज रोगोंको शान्त करता है । यह बृहत्सौभाग्यशुण्ठी स्त्रियां सौभाग्यको बढ़ाती है । सोभाग्यशुण्ठचवलेहः भारत -भज्य - रत्नाकरः सौभाग्यशुण्ठी (४) (वृ. नि. र.; वै. र. | आमवाता. ) प्र. सं. ३४६६ नागराद्योवलेह : देखिये । रसप्रकरण में देखिये | (७९४४) सौवर्चलावलेह : ( वृ. मा. । छर्थ. ) सौवर्चलमजाजी च शर्करा मरिचानि च । युक्तोऽयं मधुना लेहः श्रेष्ठछर्दिनिबर्हणः || [ सकारादि संचल ( काला नमक ), जीरा, खांड और काली मिर्च इनका समान भाग मिलित चूर्ण शहदके साथ चाटने से छर्दि नष्ट हो जाती है। यह एक उत्तम योग है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( मात्रा - ३ माशे t ) (७९४५) स्तम्भनावलेह: ( र. र. । वाजीकरणा, धन्व । वाजीकरणा ) आफिङ्गजाती फलयोः प्रत्येकं रक्तिका त्रयम् । कर्पूरस्थ च रत्येका सप्तच्छदसुमस्य च ।। पञ्चरक्ति प्रमाणन्तु ग्राह्यमिन्द्राशनस्य च । मासकश्च चतुर्ग्राह्यं मधुना लेह उत्तमः ॥ धार्य कदापि नो वीर्य रमेत्स्त्रीणां शतानि च ॥ अफीम और जायफल ३-३ रत्ती, कपूर १ रत्ती, सतौनेके फूल ५ रत्ती और भांग ४ माशे लेकर सबको एकत्र खरल करें और शहद में मिला लें । इसे खाने से वीर्य - स्तम्भन होता है और सौ स्त्रियोंके साथ रमण करने पर भी वीर्यपात नहीं होता । ( यह एक मात्रा है । ) इति सकाराद्यवलेहमकरणम् For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra घृतप्रकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमी भागः अथ सकारादिघृतप्रकरणम् (७९४६) सप्तप्रस्थघृतम् ( च. द. | रक्तपित्ता. ९ ) शतावरी पयो द्राक्षाविदारीक्ष्वामले रसैः । सर्पिषा सह संयुक्तैः सप्तमस्थं पचेद्धतम् ॥ शर्करापादसंयुक्तं रक्तपित्तहरं पिवेत् । उरःक्षते पित्तशुले योनिवातेऽप्यसृग्दरे ॥ बल्यमूर्जस्करं वृष्यं सुधाहृद्रोगनाशनम् ॥ १ सेर घी और १-१ सेर शतावर का रस, दूध, मुनक्काका क्वाथ (या अंगूर का रस ), बिदारीकन्दका रस, ईखका रस और आमलेका रस लेकर सबको एकत्र मिला कर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाए तो उसे छान लें; और फिर उसमें पाव सेर ( २० तोले ) खांड मिला कर सुरक्षित रक्खें । | यह घृत रक्तपित्त, उरःक्षत, पित्तशूल, योनिगत वायु, रक्तप्रदर और हृद्रोगको नष्ट करता तथा बलवीर्य और ओज एवं क्षुधाकी वृद्धि करता है । ( मात्रा - १ तोला । ) (७९४७) सप्ताङ्गघृतम् ( ग. नि. । घृता. १ ) शङ्खपुष्पीगुडूच्युग्राशतावर्यवल्लिकाः । मलपूं ब्रह्मसोमां च कल्कीकृत्य घृतं पचेत् ॥ दुग्धं चतुर्गुणं दत्रा वातश्लेष्महरं च तद् । मेधाकरं तथायुष्यं सप्ताङ्गमिति कीर्तितम् ॥ कल्क -- शंखपुष्पी, गिलोय, बच, शतावर, हुलहुल, कठूमरकी छाल और ब्राह्मी । सब Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४३ समान भाग मिलित ४० तोले ले कर बारीक पीस लें । ४ सेर घी में यह कल्क और १६ सेर दूध मिला कर पकायें। जब दूध जल जाए तो घृतको छान लें। यह घृत वातकफ-नाशक, बुद्धिवर्द्धक और आयुवर्द्धक है । (७९४८) समङ्गादिघृतम् (ग. नि. । बालरो. ११ ; वा. भ. । उ. अ. २) समङ्गाधातकीरोत्रकुट नटवलाहयैः । महासहाक्षुद्रसहा मुद्ग बिल्बशलादुभिः || सकार्पासीफलैस्तोये साधितैः साधितं घृतम् । क्षीरमस्तुयुनं हन्ति शीघ्रदन्तोद्भवान् गदान् ॥ विविधानामयानेतान्वृद्धकाश्यपनिर्मितम् ॥ कल्क - लज्जालुकी जड़ ( या मजोठ ); धायके फूल, लोध, नागरमोथा, खरैटीकी जड़, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, मूंग और बेलगिरी समान भाग मिलित ४० तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें । क्वाथ - लाल कपासके फल ८ सेर ले कर ६४ सेर पानीमें पकायें और १६ सेर रहने पर 'छान लें। For Private And Personal Use Only ४ सेर घीमें उपरोक्त कल्क, काथ तथा ४-४ सेर दूध और मस्तु मिला कर पकायें। जब जलांश शुष्क हो जाए तो घृतको छान लें। यह घृत बच्चोंके दांत निकलने के समय होने वाले समस्त रोगोंका नष्ट करता है । ( मात्रा - १॥ से ३ माशे तक । ) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि (७९४९) सर्जादिघृतम् काथ १२॥ सेर (३) इसी प्रकार बना हुवा सिर(यो. र. । नासा. ; व. से. । नासा. : वृ. यो. | सकी छालका काथ १२॥ सेर । त.। त. १३०) कल्क-पञ्चकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, सर्जार्जुनोदुम्बरवत्सकानां चीता, सोंठ ), बायबिडंग, पांचों नमक, जवाखार, त्वचा कषायैः परिधावनेन । सज्जी, सुहागा, बिछाटीकी जड़, सिन्दूर और गेरु; कषायकल्कैरपि चैभिरेव सबका समान भाग मिलित चूर्ण २० तोले । सिद्धं घृतं घ्राणविपाकनाशि ॥ २ सेर धीमें उपरोक्त तीनों काथ तथा कल्क मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो घृतको शालकी छाल, अर्जुन वृक्षकी छाल, गूलरकी छोन लें । छाल और · कुड़ेकी छाल समान भाग ले कर इसे मलनेसे न्यच्छ, नीलिका, तिल, कालक, सबको एकत्र कूट कर आठ गुने पानीमें पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर छान लें। अंगुलीवेष्ट और पाददारी (बिवाई) तथा मुख इस काथसे धोनेसे . या इन्हीं ओषधियोंके दूषिका ( मुहासों ) का नाश होता है । कल्क और क्वाथसे सिद्ध घृत लगानेसे नासापाकको | (७९५१) सारस्वातघृतम् (१) आराम होता है। (व. से. । उन्मादा. ; वृ. नि. र. । उन्मादा.) ( उपरोक्त काथ ४ सेर, धी १ सेर, उपरोक्त | त्रिफला लक्ष्मणाऽनन्ता समका शारिवाऽमृता । ओषधियोंका कल्क १० तोले ।) | ब्राह्मी पाठा द्विबृहती द्विस्थिरा द्विपुनर्नवा ॥ (७९५०) सहाचरघृतम् सहदेवी सूर्यवल्ली वयस्था गिरिकर्णिका । | तोयकुम्भे पचेदेतत्पलांशं पादशेषिते ॥ (भै. र. । क्षुद्ररोगा. ) नतं कौन्ती वचा कुष्ठं कृष्णसर्षपसैन्धवैः । सहाचरतुलाक्वाथे क्वाथे च दशमूलजे। । निरुक्सवर्णवत्सायाः संसिद्धं पयसा च गोः॥ शिरीषस्य कषाये च घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ पुष्ययोगे घृतपस्यं मुहेमकलशे स्थितम् । कल्कान् दत्वा पञ्चकोलं कृमिघ्नं पटुपश्चकम् ।। पानाभ्यञ्जनतो मेधास्मृत्यायुःपुष्टिवर्धनम् ।। क्षारत्रयं दृश्चिकाली सिन्दूरमपि गैरिकम् ॥ रक्षोनश्च विषघ्नश्च सारस्वतमिदं घृतम् । हन्यादेतद् घृतं न्यच्छं नीलिकां तिलकालकम् ।। काथ-हर, बहेड़ा, आमला, लक्ष्मणा, अङ्गुलीवेष्टकं पाददारीश्च मुखदूषिकाम् ॥ अनन्तमूल, लज्जालकी जड़, सारिवा, गिलोय, क्वाथ-(१) ६। सेर पियाबांसेको कूट कर ब्राह्मी, पाठा, छोटी और बड़ी कटेली, शालपर्णी, ५० सेर पानीमें पकावें और १२॥ सेर रहने पर पृष्ठपर्णी, सफेद और लाल पुनर्नवा, सहदेवी, क्षीरछान लें । (२) इसी प्रकार बना हुवा दशमूलका | काकोली, काकोली और कोयल ५-५ तोले लेकर For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org घृतप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः सबको एकत्र कूट कर ६४ सेर पानी में पकावें | नमक; इनका ५-५ तोले चूर्ण और १६ सेर रहने पर छान लें । एकत्र पीस लें । कल्क - तगर, रेणुका, बच, कूठ, काली सरसे और सेंधा नमक; इनका समान भाग मिलित चूर्ण २० तोले ले कर पानी के साथ पीस लें । अपनेही समान वर्णके बछड़े वाली स्वस्थ गायके २ सेर घी में उपरोक्त काथ, कल्क और २ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें। जब जलांश शुष्क हो जाय तो घीको छान लें और स्वर्ण कलशमें भर कर रख दें । इसे पीने और इसकी मालिश करने से मेधा, स्मृति, आयु और पुष्टिकी वृद्धि होती है । यह घृत राक्षसों और विषको भी नष्ट करता है । ( मात्रा - १ तोला । अनुपान - दूध ) (७९५२) सारस्वतघृतम् (२) ( व. से. । रसायना. ; वा. भ. । उत्तर. अ. १ ) आज पयः शृङ्गवेरं वचा शिशुहरीतकी । पिप्पल्यो मरिचं पाठा सैन्धवं दशमं घृतम् ॥ शृङ्गवेरादयो भागा लवणान्ताः पलाष्टकम् । चतुर्गुणेन पयसा घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ एतत् माशितमात्रेण किन्नरैः सह गीयते । जगदमूकलं पानादेव प्रशाम्यति || नष्टञ्च स्मरते ग्रन्थं श्रुतिश्चाप्युपजायते । एतत्सारस्वतं नाम स्मृतिमेधाविवर्द्धनम् ॥ कल्क --- अदरक; बच, सहजनेकी छाल, हरे, पीपल, काली मिर्च, पाठा और सेंधा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४५ कर सबको २ सेर गोघृत में उपरोक्त कल्क और ८ सेर बकरीका दूध मिला कर पकावें । जब दूध जल जाए तो घीको छान लें । इसे सेवन करने से स्वर किन्नरोंके समान मधुर हो जाता है । यह घृत जड़ता, गद्गद् स्वर ( हकलाना ) और मूकता ( गूंगेपन ) को नष्ट करता है । इसके सेवन से भूले हुवे ग्रन्थ याद हो जाते हैं और बुद्धि बढ़ती है तथा श्रुतियोंका ज्ञान हो जाता है । 1 ( मात्रा - १ तोला । अनुपान - दूध । ) (७९५३) सारस्वतघृतम् (३) ( व. से. । वातव्या ; वृ. नि. र. । वातव्या . ) प्रस्थं घृतस्य पलिकैः शिवचाघातकीलोधलवणैः । आजे पयसि सपाठैः सिद्धं सारस्वतं नाम्ना ॥ विधिवदुपयुज्यमानं जडगगदमूकतां क्षणाजि त्वा स्मृतिमतिमेधाप्रतिभा: कुर्य्यात् सम्यगिष्टवा - भवति ॥ कल्क – सहजनेकी छाल, बच, धायके फूल, लोध, सेंधा नमक और पाठा ५-५ तोले । For Private And Personal Use Only २ सेर घी में यह कल्क और ८ सेर बकरीका दूध मिला कर पकायें । जब दूध जल जाय तो घीको छान लें। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ सकारादि इसके सेवनसे जड़ता गद्गद शब्द (हकलाना) (७९५५) सितादिघृतम् और मूकता (गूगेपन) का नाश हो कर स्मृति, मति (व. से. । मुखरोगा.) मेघा और प्रतिभाकी वृद्धि होती है। सितातमालपत्राभ्यां मरिचं द्विगुणं न्यसेत् । (मात्रा-१ तोला । अनुपान दूध ।) तेन सर्पिविपक्वन्तु नस्यादन्यागलग्रहान् ।। ___ मिश्री और तेजपात १-१ भाग तथा काली सारस्वतघृतम् (४) . मिर्च २ भाग ले कर सबको पानीके साथ पीस (व. से. । रसायना. ; भै. र. । स्वरमेदा.) लें। तदनन्तर इस कल्कमें इससे 6 गुना घी और . प्र. सं. ४६७७ " ब्राह्मीधृतम् " (४) घीसे ४ गुना इन्हीं ओषधियोंका क्वाथ मिलादेखिये। | कर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें। उक्त ग्रन्थोंके अनुसार "मालती" के स्थानमें इसकी नस्य लेनेसे गलग्रह नष्ट होता है। "आमला" होना चाहिये। __ (७९५६) सिंहामृतघृतम् (७९५४) सारिवादिघृतम् (व. से. । कासा.) (वा. भ. । उ. अ. २) सर्गुिडूचीकृषकण्टकारी सारिवासुरभीग्रामीशतिनीकृष्णसर्षपैः। क्वान करकेन च सिद्धमेतत् । वचाश्वगन्धासुरसायुक्तैः सपिर्विपाचयेत ॥ पेय पुराणज्वरकासशूलतन्नाशयेद्ग्रहान्सर्वान्पानेनाभ्यअनेन च ।। श्वासाग्निमान्यां ग्रहणीगदे च ॥ कल्क-गिलोय, बासेकी जड़की छाल और कल्क-सारिवा, गूगल, ब्राह्मी, शंखाहोली, कटेली समान भाग मिलित २० तोले ले कर काली सरसों, बच, असगन्ध और तुलसी समान बारीक पीस लें। भाग मिलित ४० तोले । ____ क्वाथ-उपरोक्त ओषधियां समान भाग क्वाथ-उपरोक्त ओषधियां समान भाग मिलित ४ सैर ले कर ३२ सेर पानीमें पकावें और मिलित ८ सेर ले कर ६४ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर रहने पर छान लें। १६ सेर रहने पर छान लें। २ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और काथ मिला४ सेर धीमें उपरोक्त कल्क और काथ | कर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो घोको | छान लें। छान लें। इसे पीनेसे जीर्ण ज्वर, कास, शूल, श्वास, ' इसे पिलाने और इसकी मालिश करनेसे सम- अग्निमांद्य और ग्रहणी रोगका नाश होता है । स्त ग्रह विकार दूर होते हैं। (मात्रा-१ तोला ।) For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् ] पश्चमो भागः (७९५७) सिंहामृतघृतम् (सिंह यमृतघृतम्) इसे शालि चावलोंके भात या दूधादिके साथ (यो. र. ; व. से । प्रमेहा. ; न. मृ.। त. ७: प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । ३. नि. र.। प्रमेहा. : वृ. यो. त. । त. इसके सेवनसे प्रमेह, मधुमेह, मूत्रकृच्छ, १०३ ; भा. प्र. म. खं. २। प्रमेहा. | भगन्दर, आलस्य, अन्त्रवृद्धि, कुष्ठ और क्षयका च. द. । प्रमेहा.) नाश होता है। . कण्टकार्या गडच्याश्च संहरे शतं शतम् । । (मात्रा-१ तोला ।) - सलटयोलूखले विद्वांश्चतुद्रोणेअम्भसः पचेत् ।। (७९५८) सुकुमारकुमारकघृतम् (१) वेन पादावशेषेण घृतमस्थं विपाचयेत् । (सुकुमारकुमारकावलेहः) त्रिकटु त्रिफला रास्ना विडङ्गान्यथ चित्रकम् ॥ (भा. प्र.। मूत्रकृच्छा . म. खं. २ ; र. र. , काश्मर्याणां च मुलानि पूतिकस्य त्वचस्य च। च. द. । मूत्रकृच्छ्रा.) कलिग इति सर्वाणि सूक्ष्मपिष्टानि कारयेत् ॥ अस्य मात्रां पिबेत्रातः शालिभिः पयसा हितैः। पुनर्नवामूलतुलां दर्भमूलं शतावरीम् । प्रमेहं मधुमेहं च मूत्रकृच्छं भगन्दरम् ॥ बा तुरङ्गगन्धा च तृणमूलं त्रिकण्टकम् ॥ आलस्यं चान्त्रवृद्धिं च कुष्ठरोग विशेषतः। । f दारि कन्दनागाह गुडूच्यातिबलास्तथा। क्षयं चापि निहन्त्येतनाम सहामृतं घृतम् ॥ पृ दशपलान्भागानपां द्रोणे विपाचयेत् ।। ते पादावशेषेण घृतस्यादिकं पचेत् । __ क्वाथ--१००-१०० पल (६।-६। सेर) मधुकं शृङ्गवेरञ्च द्राक्षां सैन्धवपिप्पलीम् ॥ कटेली और गिलोयको एकत्र कूटकर १२८ सेर द्विपलांशान्पृथग्दस्या यवान्याः कुडवं तथा। पानीमें पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय त्रिंशद्गुडपलान्यत्र तैलस्यैरण्डजस्य च ॥ तो छान लें। प्रस्थं दत्वा समालोडय सम्यङ्मृमिना पचेत् । __ कल्क-सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, | एतदीश्वरपुत्राणां प्राग्भोजनमनिन्दितम् ।। आमला, रास्ना', बायबिडंग, चीतामूल, खम्भारीकी राज्ञां राजसभानानां बहस्त्रीपतयश्च ये। . जड़की छाल, पूतिक करन की छाल, दालचीनी | मूत्रकृच्छे कटिसस्ते तथा गाढपुरीषिणाम् ॥ और इन्द्रजौ समान भाग मिश्रित २० तोले । मेढूवंक्षणशूले च योनिशूले च शस्यते । सबको बारीक पीस लें। यथोक्तानाश्च गुल्मानां वातशोणितनिश्चये ॥ २ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क | वल्यं रसायनं श्रीदं मुकुमारकुमारकम् ॥ मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो घीको क्वाथ--(१) ६। सेर पुनर्नवामूलको कूटछान लें। कर ३२ सेर पानीमें पकायें और ८ सेर शेष रहने १ चक्रदत्तमें रास्नाका अभाव है। पर छान लें। For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ भारत-भैषज्य-रत्नाकर [ सकारादि - (२) दाभकी जड़, शतावर, खरैटोकी जड़, | प्रस्थमेरण्डतैलस्य द्वौ घृतात्पयसस्तथा । असगन्ध, सुगन्धतृणकी जड़ ( मिरचियागन्ध ), | आवपेद्विपलांशं च कृष्णा तन्मूलसैन्धवम् ॥ गोखरु, विदारीकन्द, नागकेसर, गिलोय और अति- यष्टीमधुकमृद्वीकायवानी नागराणि च । बला (कंधी) की जड़ ५०-५० तोले ले कर तत्सिद्धं सुकुमाराख्यं सुकुमारं रसायनम् ।। सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पका और वातातपाध्वयानादिपरिहार्येष्वयन्त्रणम् । ८ सेर शेष रहने पर छान लें । प्रयोज्यं सुकुमाराणामीश्वराणां सुखात्मनाम् ।। ४ सेर धीमें उपरोक्त दोनों क्वाथ, २ सेर नृणां स्त्रीवृन्दभर्तृणामलक्ष्मीकलिनाशनम् । अण्डीका तेल और निम्नलिखित कल्क मिला | सर्वकालोपयोगेन कान्तिलावण्यपुष्टिदम् ।। कर पकावें । जब पानी जल जाए तो घीको व विद्रधिगुल्माशेयोनिमेढानिलार्तिषु । छान लें। शोफोदरखुडप्लीहविड्बिन्धेषु चोत्तमम् ॥ कल्क--मुलैठी, अदरक, मुनक्का, सेंधा नमक क्वाथ-पुनर्नवामूल ६। सेर तथा दशमूलकी और पीपल; हनका चूर्ण १०-१० तोले तथा प्रत्येक वस्तु, क्षीरकाकोली, अगर, अरण्डमूल, शतावर, अजवायनका चूर्ण २० तोले और गुड़ १५० | दो प्रकारकी दाभ, शर, कासकी जड़, ईखको जड़, तोले । और नलकी जड़ ५०-५० तोले लेकर सबको यह धृत धनिकोंके योग्य है । इसे भोजनके | एकत्र कूटकर १२८ सेर पानीमें पकावें और १६ पहिले खिलाना चाहिये । सेर रहने पर छान लें। इसके सेवनसे मूत्रकृच्छ, कमरकी शिथिलता, | कल्क-पीपल, पीपलामूल, सेंधा नमक, मलका कड़ा होना, लिंगकी पीड़ा, वंक्षणशूल, मुलैठी, मुनक्का, अजवायन और सेठ १०-१० योनिशूल, गुल्म और वातरक्तका नाश होता है। तोले लेकर बारीक चूर्ण बनावें । गुड़ १५० तोले। यह बल्य और रसायन है। ४ सेर धीमें २ सेर अण्डीका तेल, ४ सेर (७९५९) सुकुमारकुमारकघृतम् (२) दूध और उपरोक्त क्वाथ तथा कल्क मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो धीको (वा. भ. । चि. अ. १३) छान लें। पचेपुनर्नवतुला तथा दशपलाः पृथक् । ___ यह घृत धनवानों, सुकुमारों और सुखशील दशमूलपयस्याश्च गन्धैरण्डशतावरीः ॥ व्यक्तियोंके योग्य है । इसके सेवन काल में वातातप, द्विदर्भशरकाशेक्षु मूलपोटगलान्विताः । मुसाफरी आदि किसी बातका परहेज करनेकी वहेपामष्टभागस्थे तत्र त्रिंशत्पलं गुडात ॥ | आवश्यक्ता नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - घृतप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २४९ इसे निरन्तर दीर्घकाल तक सेवन करनेसे | तोले लेकर सबको एकत्र कूटकर ८ सेर पानीमें कान्ति, लावण्य और पुष्टि की वृद्धि होती है। पकावें और २ सेर रहने पर छान लें। ___ यह घृत वर्म, विद्रधि, गुल्म, अर्श, योनि कल्क--जीवन्ती, कुटकी, पीपल, पीपलामूल, और लिंगकी वातज पीड़ा, शोथ, उदररोग, वातरक्त, | काली मिर्च, देवदारु, इन्द्रजौ, सेंभलके फूल, क्षीरप्लोहा और मलबन्धको नष्ट करता है। काकोली, सफेदचन्दन, रसौत, कायफल, चीतामूल, (७९६०) सुनिषण्णकचाङ्गेरीतम् । नागरमोथा, फूलप्रियंगु, अतीस, शालपर्णी, कमल( भै. र. ; च. द. । अर्थी.) केसर, नीलोत्पलकी केसर, मजीठ, कटेली, सेठि' मोचरस और पाठा ११-१। तोला लेकर सबको अवाक्पुष्पी बला दाों पृश्निपर्णी त्रिकण्टकम् ।। एकत्र पोस लें। न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः ।। २ सेर घी में उपरोक्त क्वाथ, कल्क तथा कषाय एष पेष्यास्तु जीवन्ती कटुरोहिणी । ४-४ सेर चांगेरी ( चौपतिया) और सुनिषण्णक पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं देवदारु च ॥ ( अम्ललोनी ) का रस मिलाकर पकायें। जब पानी कलिङ्गं शाल्मलीपुष्पं वीरा चन्दनमञ्जनम् । । जल जाय तो घीको छान लें। कट्फलं चित्रकं मुस्तं प्रियङ्ग्वसिविषे स्थिरा॥ यह घृत अर्श, त्रिदोषज अतिसार, रक्तस्राव, पनोत्पलानां किञ्जल्फः समङ्गा सनिदिग्धिका । प्रवाहिका, गुदभ्रंश, पिच्छल दस्त आना, शोथ, विश्वं मोचरसं पाठाभागाः स्युः कार्षिका:पृथक।। शूल, अर्श, अन्नग्रह, मूढवात, अग्निमांद्य और चतुः प्रस्थशृतं प्रस्थं कषायमवतारयेत् । भरुचि को नष्ट करता तथा बल वर्ण और अग्निकी त्रिंशत्पलानि तु प्रस्थो विज्ञेयो द्विपलाधिकः ॥ " वृद्धि करता है। मुनिषण्णकचाङ्गेाः प्रस्थी द्वौ स्वरसस्य च । इसे विविध प्रकारके अन्नपाने के साथ या सवरेतैर्यथोदिष्टेघृतपस्थं विपाचयेत् ॥ अकेला ही खिलाना चाहिये । । एतदर्शःस्वनीसारे त्रिदोषे रुधिरसुती । (मात्रा-१ तोला ।) प्रवाहणे गुदभ्रंशे पिच्छासु विविधासु च ॥ उत्थाने चापि बहुशः शोथशूलगुदामये । (७९६१) सूर्योदयघृतम् अन्नग्रहे मूढवाते मन्दानावरुचावपि ॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. २१) प्रयोज्यं विधिवत्सर्पिर्बलवर्णाग्निवर्धनम् । रास्नामागधिकामूलं दशमूलं शतावरी । विविधेष्वन्नपानेषु केवलं का निरत्ययम् ॥ शणत्रिवृत्तथैरण्डो भागान् द्विपलिकान् क्षिपेत् ।। ___ क्वाथ-सोया, खरैटी, दारुहल्दी, पृष्ठपर्णी, तथाविदारी मधुक मेदे द्वे सपुननेवा । गोखरु, बड़ (बरगद ) के अंकुर (कोंपल ), काकोल्यौ द्वे शिवा चैव भागा त्रिपलिकानि च ॥ गूलरकी कांपल, और पीपलकी कोंपल १०-१० १-सांठके स्थान पर बिल्व है । ३२ For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि खजूरी भीरु मृद्वीका गोक्षुरुश्च सशर्करः। दारुणछर्दि, विसर्प, विष, बणजनित शोष (उरःक्षत एषां चतुःपली मात्रा दुग्ध प्रस्थं विनिक्षिपेत् ॥ जनित क्षय ), मकड़ीका विष, भूत और पिशाचप्रस्थाधे नवनीतं च घृतप्रस्थार्धकं क्षिपेत् । वाधा, पामा और कुष्ठका नाश होता है। पचेन्मृद्वग्निना तावत्सिद्धं यावत्पदर्यते ॥ यह घृत मन्दाग्नि और विषमाग्निको सम कर परिशृतं शुभे भाण्डे शीतस्थाने तु धारयेत् । देता है ।। सर्बदा भोजनाभ्यंगे नस्ये बस्ती प्रदापयेत् ॥ (इस घृतमें २ सेर घी में ३॥ सेर से अधिक हन्त्यपस्मारक घोरमुन्मादं च नियच्छति । कल्क है, जो साधारण नियमसे बहुत अधिक है अतः तमकं भ्रमकं शोषं सदाघं च सपीनसम् ॥ पाकके समय ११ मनके लगभग पानी भी मिलोना क्षयं च राजयक्ष्माणं छर्दि जयति दारुणाम् । चाहिये नहीं तो पाक ठीक न होगा।) हन्ति विसर्प विषं घोरं व्रणशोषहरं परम् ॥ (७९६२) सैन्धवघृतम् लूताभूतपिशाचानां पामाकुष्ठविनाशनम् ।। त्रासनं सर्वदोषाणां प्राशनं वै घृतस्य च ॥ ( यो. र. । अपस्मारा) मन्दाग्निविषमाग्नीनां साम्यं प्रकुरुते भृशम् । घृतं सैन्धवहिङ्गभ्यां कणाभिस्तच्चतुर्गुणैः ।। हन्ति रोगं तमस्तोमं शीघं सूर्योदयो यथा ॥ मूत्रः सिद्धमपस्मारहृद्ग्रहग्रापनाशनम् ॥ ___ कल्क-रास्ना, पीपलामूल, दशमूल, शतावर, कल्क सेंधा नमक, हींग और पीपल सनकी जड़, निसोत और अरण्डमूल, १०-१० | समान भाग मिलित १० तोले लेकर एकत्र तोले; विदारीकन्द, मुलैठी, मेदा, महामेदा, पुनर्नवा, पीस लें। काकोली, क्षीरकाकोली और हर्र १५-१५ तोले; १ सेर धीमें यह कल्क और ४ सेर गोमूत्र खजूर, छोटी शतावर, मुनक्का, गोखरु और खांड मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र जल जाए २०-२० तोले । लेकर सबको एकत्र पीस लें। तो घीको छान लें । १ सेर नवनीत ( मक्खन ) और १ सेर घी यह घृत अपस्मार और ग्रहविकारोंको नष्ट को एकत्र मिलाकर उसमें उपरोक्त कल्क और २ करता। सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी (मात्रा-१ तोला।) और दूध जल जाए तो घीको छान लें। इसे शीतल स्थानमें रखना चाहिये । (७९६३) सोमघृतम् (१) इसे भोजनमें खिलाना तथा अभ्यंग, नस्य । (भै. र. । स्त्रीरोगा ; व. से. । बालरोगा. ; और बस्तिद्वारा प्रयुक्त करना चाहिये । वृ. यो. त. । त. १४४ ; च. द. । स्त्रीरोगा.) इसके सेवनसे अपस्मार, घोर उन्माद, तमक- सिद्धार्थकं वचा ब्रह्मो शङ्खपुष्पी पुनर्नवा । श्वास, भ्रम, शोष, दाह, पीनस, क्षय, राजयक्ष्मा, | पयस्यामययष्टयाहं कटुका च फलत्रयम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् पञ्चमो भागः शारिवे रजनी पाठाभृादारुसुवर्चलाः। इस प्रकार इसे सेवन करानेसे बुद्धिमान, मनिष्ठा त्रिफला श्यामा वृषपुष्पं सगैरिकम् ॥ रोगरहित और स्पष्ट उच्चारण करने वाला पुत्र धीमान् पक्त्त्वा घृतप्रस्थं सम्यङ्मन्त्राभिम- । उत्पन्न होता है। त्रितम् ।। यह घृत योनिदोषों और वीर्यदोषोंको नष्ट द्विमासगर्भिणी नारी षण्मासानुपयोजयेत् ॥ करनेके लिये एक उत्तम औषध है। इसके सेवन सर्वज्ञं जनयेत्पुत्रं सर्वामयविवर्जितम् । | से बन्ध्या स्त्रीको भी शूर और विद्वान पुत्र प्राप्त अस्य प्रयोगात् कुक्षिस्थः स्फुटवाग्व्याहरत्यपि ।। | होता है। योनिदुष्टाश्च या नार्यों रेतोदुष्टाश्च ये नराः। यह घृत जड़ता, गद्गद् शब्द ( हकलाना) स्त्रीणां पुंसां दोषहरं घृतमेतदनुत्तमम् ॥ और मूकता ( गूंगेपन ) को नष्ट करता है। वन्ध्यापि लभते पुत्रं शूरं पण्डितमानिनम् । । इसे केवल सात दिन ( थोड़े दिनों ही) जगद्गमूकत्वं पानादेवापकर्षति ॥ सेवन करनेसे मनुष्य श्रुतिधर हो जाता है । सप्तरात्रप्रयोगेण नरः श्रुतिधरो भवेत् । जिस घरमें यह घृत रहता है वह घर विनों नामिदहति तद्वेश्म न वज्रमुपहन्ति च ।। | से सुरक्षित रहता है और उसमें बालकोंकी मृत्यु न तत्र म्रियते बालो यत्रास्ते सोमसंज्ञितम् ॥ नहीं होती। ___ कल्क-सफेद सरसों, बच, ब्राह्मी, शंखा- (मात्रा-६ माशे से १ तोले तक) होली (शंखपुष्पी), पुनर्नवा (साठीकी जड़) (७९६४) सोमघृतम् (२) क्षीरकाकोली, कूठ, मुलैठी, कुटकी, त्रिफला (मुनक्का, खम्भारीके फल, फालसा), दो प्रकारकी शारिवा, | ( वृ. मा. । स्त्रीरोगा.) हल्दी, पाठा, भंगरा, देवदारु, हुलहुल, मजीठ. सिद्धार्थकं वां ब्राह्मीं शङ्खपुष्पी विषाणिकाम् । हरं, बहेड़ा, आमला, फूलप्रियंगु, अडूसे ( बासे) | पयस्यां मधुकं कुष्ठं तथा कटुकरोहिणीम् ॥ के फूल और गेरु ; इनका चूर्ण समान भाग मिलित सारिवां त्रिफलां चैव चोरकं सुमनो लताम् । २० तोले। | वृषपुष्पं समष्ठिं देवदारु महौषधम् ॥ २ सेर धीमें यह कल्क और ८ सेर पानी पिप्पल्यो भृगराजं च निशां श्यामां सुवचेलाम्। मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो घीको | दशमूलमपामार्गमश्वगन्धां शतावरीम् ॥ छान लें एवं उसे गायत्री मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके | जलद्रोणे पचेदेतान्भागैर्द्विपलिकैः पृथक् । सुरक्षित रक्खें । | तत्कषायं परिस्राव्य घृतस्यार्धाढकं पचेत् ॥ ___ इसे गर्भके दो महीने पूरे होनेके पश्चात्से युक्त्या प्रदापयेदेतद्रायच्या चाभिमन्त्रितम् । गर्भिणी स्त्रीको सेवन कराना चाहिये और ६ मास | द्विमासगर्भिणी नारी ह्यष्टमासान्प्रयोजयेत् ॥ निरन्तर खिलाना चाहिये। सर्वज्ञं जनयेत्पुत्रं सर्वामयविवर्जितम् । For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि अस्य प्रयोगात्कुक्षिस्थः स्फुटवाग्व्याहरत्यपि ॥ करता है । इसके सेवनसे वन्ध्या स्त्रीको भी शूर योनिदुष्टाश्च या नार्यः शुक्रदुष्टाश्च ये नराः। और विद्वान पुत्र प्राप्त हो जाता है । वन्ध्या च लभते पुत्रं शूरं पण्डितमानिनम् ।। इसे पीनेसे जड़ता, गद्गद् शब्द और मूकता जडगद्गदमूकं च पानादेव प्रशाम्यति । (गूंगेपन) का नाश होता है। सप्तरात्रप्रयोगेण सुस्वरं कुरुते नरम् ॥ इसे सात दिन सेवन करनेसे मनुष्यका स्वर मासत्रयोपयोगेन कुर्याच्छुतिधरं नरम् ।। मधुर हो जाता है और ३ मास तक सेवन करनेसे नाग्निर्दहति तद्वेश्म न वज्रमुपहन्ति च॥ न तत्र म्रियते बालो यत्रास्ते सोमसज्ञितम् ।। वह श्रुतिधर हो जाता है। जिस घरमें यह घृत होगा वह विनोंसे सुरक्वाथ-सफेद सरसों, बच, ब्राह्मी, शंख- | क्षित रहेगा और उसमें बालमृत्यु न होगी। पुष्पी (शंखाहोली), काकोली, क्षीरकाकोली, मुलैठी (मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक ।) कूठ, कुटकी, कृष्ण सारिवा, हरं, बहेड़ा, आमला, चोरक, चमेली के फूल, श्वेतसारिवा, बासे (असे) (७९६५) सोमराजीवृतम् के फूल, मजीठ, देवदारु, सेठ, पीपल, पीपलामूल, / (भै. र. ; व. से. ; भा. प्र. म. खं. २ । कुष्ठा.) भंगरा, हल्दी, फूलप्रियंगु, हुलहुल, दशमूलकी, प्रत्येक ओषधि, अपमार्ग ( चिरचिटा ), असगन्ध खदिरस्य पलान्यष्टौ सोमराज्याः पलद्वयम् । और शतावर, १०-१० तोले लेकर सबको एकत्र जलाढकद्वये साध्यं यावत्पादावशेषितम् ॥ कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर रहने क्वाथ्यमानश्च मृद्वग्नौ घृतप्रस्थं विपाचयेत । पर छान लें। चतुष्पलं सोमराज्याः खदिरस्य पलं भिषक् ।। पटोलमूलं त्रिफला त्रायमाणा दुरालभा ।। ___ चार सेर घी में यह क्वाथ ( तथा ८ सेर पानी) कल्कार्थ कटुकश्चापि कार्पिकान सूक्ष्मपेषितान् ।। गिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो पलद्वयं कौशिकस्य शुद्धस्यात्र प्रदापयेत् । धीको छान लें और गायत्री मन्त्रसे अभिमन्त्रित सिद्धं सर्पिरिदं श्वित्रं हन्यादम्भ इवानलम् ॥ करके रखें। अष्टादशानां कुष्ठानां परमश्चैतदौषधम् । इसे २ मासका गर्भ होनेके पश्चात् से आठवें सोमराजीघृतं नाम निर्मितं ब्रह्मणा पुरा॥ मास तक गर्भिणीको खिलाना चाहिये। लोकानामुपकाराय श्वित्रकुष्ठादिरोगिणाम् ।। ___ इसे सेवन करानेसे बुद्धिमान और नीरोग तथा | क्वाथ-खैरसार ४० तोले और बाबची स्पष्ट उच्चारण करने वाला पुत्र उत्पन्न होता है। १० तोले ले कर दोनोंको कूट कर १६ सेर यह घृत योनिदोषों और शुक्रविकारोंको नष्ट । पानीमें पकायें और ४ सेर रहने पर छान लें। For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २५३ -- - कल्क-बाबची २० तोले, खरसार ५ निकल आते हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो ताले तथा पटोलकी जड़, हर्र, बहेड़ा, आमला, | सूखे हुवे वृक्षोंमें नव पल्लव निकल आए हों। त्रायमाना, धमासा और सांठ, मिर्च तथा पोपल __ अनुपान-तक। श-११ तोला । सबको बारीक पीस लें । शुद्ध ___ (७९६७) सौरेश्वरघृतम् गूगल १० तोले । २ सेर घीमें उपरोक्त काथ, कल्क (और ४ | ( भै. र. ; र. र. ; वृ. मा. ; व. से. ; यो. र. । सेर पानी) मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें। जब | लापदा. ; वृ. या. त. । त. १०९) पानी जल जाए तो घीको छान लें । सुरसा देवकाष्ठश्च त्रिकटुत्रिफले तथा'। यह घृत श्वेत कुष्ठको तो इस प्रकार नष्ट | | लवणान्यथ सर्वाणि विडङ्गान्यय चित्रकम् ॥ कर देता है जिस प्रकार अग्निको जल । इसके चविका पिप्पलीमूलं गुग्गुलुईवुषा वचा । अतिरिक्त यह अन्य प्रकारके कुष्ठोंकी भी पर यवाग्रजश्च पाठा च शटयला वृद्धदारकम् ।। मौषध है। कल्कैश्च कार्पिकैरेभिघृतपस्थं विपाचयेत् । (मात्रा-२ तोले ।) दशमूलकषायेण धान्ययूपद्रवेण च ॥ (७९६६) सोमराजीयोगः दधिमस्तुसमायुक्तं प्रस्थं प्रस्थं पृथक् पृथक् । पक्वं स्यादुधृतं कल्कात् पिवेत्तोलादेकं हविः॥ ( ग. नि. | ओषधिकल्पा. २) इलीपदं कफवातोत्थं मांसरक्ताश्रितश्च यत् । ये सोमराज्या वितुषीकृताया- मेदः श्रितश्च वातोत्थं इन्यादेव न संशयः ।। चूर्णीकृतायाः पयसि भृतायाः। अपची गण्डमालाञ्च अन्त्रवृद्धि तथार्बुदम् । उदृत्य सारं मधुना लिहन्ति नाशयेद् ग्रहणीदोषं वयधु गुदजानि च ॥ . तक्रं तथैवानु पिबन्ति चान्ते ॥ परमाग्निकर हृद्यं कोष्ठ कृमिविनाशनम् ।। कुष्ठिनः शीर्यमाणाङ्गास्ते जाताङ्गुलिनासिकाः। कल्क-तुलसी, देवदारु, सांठ, मिर्च, भान्ति वृक्षा इव पुनः प्ररूढनवपल्लवाः ॥ पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमलो, पांचो नमक, बायबि १ सेर छिलके रहित बाबचीके बारीक चूर्ण- इंग, चीतामूल, चव, पीपलामूल, हपुषा, बच, को १६ सेर दूधमें मिलावें और उसमें ६४ सेर जवाखार, पाठा, कचूर, इलायची और विधारा; पानी मिला कर पकावें । जब पानी जल जाए तो इनका बारीक चूर्ण तथा शुद्ध गूगल ११-१॥ दूधको छानकर उसका दही बनावें और घी | तोला । निकाल लें। काथ-१ सेर दशमूलको ८ सेर पानीमें इसे शहद में मिला कर चाटनेसे गलित कुष्ठ | पकावें और २ सेर रहने पर छान लें । नष्ट हो कर नवीन उंगलियां और नासादि अंग १ “गजा" इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि २ सेर घीमें उपरोक्त कल्क, काथ, तथा यह घृत श्वासको नष्ट करता है । २-२ सेर कांजी, (पानी) और दधिमस्तु (दहीका (मात्रा--१ तोला ।) पानी) मिला कर पकावें | जब जलांश शुष्क हो | __ (७९६९) सौवर्चलादिघृतम् (२) जाए तो घीको छान लें। (र. र. । शोथा.) मात्रा-६ माशे। सौवर्चल यवक्षारं यवानी पञ्चकोलकम् । यह घृत कफ वातज एवं वातज, रक्त मांस | मरिचं दाडिमं पाठा धन्याकमम्लवेतसम् ॥ तथा मेदमें स्थित श्लीपदको अवश्य नष्ट करता है। वारिबिल्वञ्च कर्भाशं क्वाथयेत्सलिलाढके। तथा अपची, गण्डमाला, अन्त्रवृद्धि, अर्बुद, ग्रहणी- तत्क्वाथेन घृतपस्थं पाच्यं घृतावशेषकम् ।। दोष, शोथ, अर्श और उदर कृमियोंको नष्ट शोधार्थीगुल्ममेहातौँ घृतं सेव्यं प्रशान्तये ॥ करता है । यह अत्यन्त अग्निवर्द्धक और क्वाथ--संचल (कोला नमक), जवाखार, हृद्य है। अजवायन, पीपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल, नोट-पाठान्तरके अनुसार चव, चीता और | सेठ, काली मिर्च, अनारकी छाल, पाठा, धनिया, गूगलका अभाव है। अम्लबेत, सुगन्धबाला और बेलकी छाल ११-१॥ (७९६८) सौवर्चलादिघृतम् (१) तोला ले कर सबको कूट कर ८ सेर पानीमें पकावें (ग. नि. ; व. से. । हिक्काश्वासा.) और २ सेर रहने पर छान लें । इस काथमें २ सेर घी मिला कर पकावें। सौवर्चलयवक्षारकटुकाव्योपचित्रकैः ।। | जब पानी जल जाय तो घीको छान लें । वचाविडङ्गैश्च घृतं साधितं श्वासशान्तये ।। यह घृत शोथ, अर्श, गुल्म और प्रमेहको कला-संचल (काला नमक ), जवाखार, . नष्ट करता है। कुटकी, सोंठ, मिर्च, पीपल, चीतामूल, बच और (७९७०) स्थलपाकघृतम् बायबिडंग; इनका समान भाग मिश्रित चूर्ण १० तोले । (च. द. । शोथा. ३८ ; व. से. । शोथा.) क्वाथ-उपरोक्त ओषधियां २ सेर ले | स्थलपद्मपलान्यष्टौ त्र्यूषणस्य चतुपलम् । कर १६ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर रहने | घृतप्रस्थं पचेदेभिः क्षीरं दत्वा चतुर्गुणम् ॥ पर छान लें। पञ्च कासान्हरेच्छीघ्रं शोथं चैव सुदुस्तरम् ॥ १ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क | कल्क-स्थलपन ४० तोले और त्रिकुटा मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको ( समान भाग मिलित सांठ, मिर्च, पीपल ) २० छान लें। | तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतमकरणम् । पञ्चमो भागः २५५ - २ सेर धीमें उपरोक्त कल्क और ८ सेर सिद्धः कषाये द्विपलांशिकानां दूध मिला कर पकावें । जब दूध जल जाय तो प्रस्थो घृतात्स्यात्मतिबद्धवाते ॥ घीको छान लें। शालपणी, पृष्ठपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, ___यह घृत पांच प्रकारको खांसी और दारुण | पुनर्नवा, अमलतास और पूतिकरच (करञ्जवा) शोथको नष्ट करता है। |१०-१० तोले ले कर सबको एकत्र कुट कर ८ (७९७१) स्थिराद्यवृतम् (१) सेर पानीमें पकावें और २ सेर र.ने पर छान लें। (च. सं. । चि. अ. कासा.) तदनन्तर उसमें २ सेर घी मिलाकर पकावें और स्थिरासितापृश्निपर्णीश्रावणीबृहतीयुगैः । पानी जल जानेपर छान लें । जीवकर्षभकाकोलीतामलक्यद्धिजीरकैः॥ यह घृत आनाहको नष्ट करता है । शृतं पयः पिबेत्कासी ज्वरी दाही क्षतक्षयी । ( मात्रा-१ तोला ।) सज्ज वा साधयेत्सर्पिः सक्षीरक्षुरसं भिषक् ।। । (७९७३) स्थिराद्यघृतम् (३) शालपर्णी, मिश्री, पृष्टपर्णी, गोरखमुण्डी, छोटी और बड़ी कटेली, जीवक, ऋषभक, काकोली (व. से. । हृद्रोगा. ) भुई आमला, ऋद्धि और जीरा समान भाग मिलित स्थिरादिकल्कवत्सर्पिः क्षीरेणेक्षुरसेन वा । १० तोले । दूध २ सेर । पानी १६ सेर । सबको द्राक्षारसेन पक्वं वा पित्तरोगविनाशनम् ॥ एकत्र मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो कल्क--शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेली, कटेला दूधको छान लें। और गोखरु ८-८ तोले ले कर सबको बारीक ___ यह दूध उचित मात्रानुसार पीनेसे कास, पीस लें। ज्वर दाह और क्षतक्षय लाभ होता है। ४ सेर धीमें यह कल्क और १६ सेर दूध ___अथवा इस दूधका दही बनाकर घी निकालें । और फिर यह धी १० तोले । दूध १० तोले या १६ सेर ईखका रस अथवा १६ सेर द्राक्षा (अंगूर) का रस मिला कर पकावें । जब जलांश और ईखका रस ३० तोले ले कर सबको एकत्र शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें। मिला कर पकावें । जब घृत मात्र शेष रह जाय | तो छान लें। यह घृत पित्तज हृद्रोगको नष्ट करता है। यह घी भी कासादि उक्त रोगोंमें हितकारी है। ( मात्रा--आधा तोला ।) (७९७२) स्थिराद्यवृतम् (२) (७९७४) स्नुक्क्षीरयोगः (व. से. । उदावर्ता. ; च. द. ; वृ. नि. र. : र. र. । आनाह.) (वै. म. र. । पटल ९) स्थिरादिवर्गस्य पुनर्नवायाः दुग्धे स्नुक्क्षीरपक्वे दधिजनिशम्पाकपूतीककरअयोश्च । । तमहोरात्रतस्तन्मथित्वा For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि सारं हत्वा पिवेत्तनमथित ____ यह घी २ सेर, निसोतका कल्क २० तोले मुदररोगी विरेकाय मर्त्यः। और पानी १६ सेर ले कर सबको एकत्र मिला तत्सपिर्दुग्धमूत्रच्छगण कर पकावें । जब पानी जल जाए तो घीको .. रसदधिस्वर्णदुग्धैश्च युक्तं छान लें। पक्त्वा पाके सुजाते गलित यह घृत, गुल्म, गरविष और उदर रोगोंको मुदरशान्त्यै पिबेदल्पमल्पम् ॥ | नष्ट करता है । (४ सेर) गोदुग्धमें (१ सेर) थूहर (सेंड उपरोक्त घृत १ सेर; गोदुग्ध ८ सेर, स्नुही स्नुही) का दूध मिला कर पका कर दही जमावें (सेंड-थूहर ) का दूध ५ तोले और निसोतका और उसे मथकर घी निकाल लें। कल्क ३० तोले ले कर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घीको यह घी पिला कर उदर रोगीको विरेचन छान लें। कराना चाहिये। यह घृत भी गुल्म, गरदोष और उदररोगोंको १ भाग इस घीमें १-१ भाग दूध, गोमूत्र, | नष्ट करता है। गायके गोबरका रस, दही और स्वर्णक्षीरी (सत्या ( मात्रा-आधा तोला ।) नाशी) का दूध मिला कर पकावें | जब घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। (७९७६) स्नुहिक्षीराचं घृतम् (२) यह धी उदर रोगको नष्ट करता है। (वृ. नि. र. । गुल्मा.) ( मात्रा--३ माशे।) स्नुहिक्षीरं पले द्वे तु प्रस्थाध चैत्र सर्पिषः । (७९७५) स्नुहिक्षीराचं घृतम् (१) | कम्पिल्लं पलमेकं तु पलार्ध सैन्धवस्य च ॥ वितायाः पलं चैकं धात्र्याः कुडवमेव च । (च. सं. । चि. अ. १८ उदरा.) | तोयमस्थेन विपचेच्चैवं मृद्रग्निना भिषक् ।। क्षीरद्रोणं सुधाक्षीरं प्रस्थाधसहितं दधि।। कर्षप्रमाणं दातव्यं जठरप्लीहगुल्मिने । जातं विमथ्य तद्युक्त्या त्रिवृत्सिद्धं पिबेघृतम्॥ तथा कच्छपरोगेषु युनीत मतिमान् भिषक ।। तथा सिद्धं घृतप्रस्थं पयस्यष्टगुणे पिबेत् । एतदगुल्मान् ससमीरान निहन्ति सपरिग्रहान् । स्नुक्क्षीरपलकल्केन त्रिवृता षट् पलेन च ॥ निहन्त्येष प्रयोगो हि वायुर्जलधरानिव ॥ गुल्मानां गरदोषाणामुदराणां च शान्तये । । पञ्चगुल्मवधोपायं सपिरेतत्मकीर्तितम् । ३२ सेर दूध और १ सेर सेंड ( स्नुहो- सर्वासुरवधार्थाय यथा वजं स्वयम्भुवा । थूहर ) के दूधको एकत्र मिला कर जमाकर दही स्नुही (सेंड-थूहर ) का दूध २० तोले, बनावें और फिर उसका घी निकाल लें। घी १ सेर, कमीला ५ तोले, सेंधानमक २॥ तोले, For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेलप्रकरणम् ] पश्चमो भागः २५७ निसोत ५ तोले, आमला २० तोले और पानी २ | स्वल्पधात्रीपृतम् सेर ले कर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर (भै. र. । बहुमूत्रा.) पकावें और जब जलांश शुष्क हो जाय तो घीको छान लें। प्र. सं. ३२९१ " धात्रीधृतम् (स्वल्प)" मात्रा-११ तोला । देखिये। इसके सेवनसे उदर रोग, प्लीहा, गुल्म, स्वल्पनीलीघृतम् कच्छपरोग आदिका नाश होता है। यह उपद्रवयुक्त वातज गुल्मको इस प्रकार (वृ. यो. त. । त. १२०) नष्ट कर देता है, जिस प्रकार वायु मेघोंको । प्र. सं. ३४९४ " नीलीवृतम् ” देखिये । स्वल्पचैतसघृतम् स्वल्पपश्चगव्यं घृतम् (र. र. । उन्मादा.) प्र. सं. ४०४८ “पञ्चगव्यं घृतम् (स्वल्प)" प्र. सं. १७८३ “चैतसघृतम् ' देखिये ।। रे खये । इति सकारादिघृत (करणम् अथ सकारादितैलप्रकरणम् (७९७७) ससच्छदादितैलम् । कल्क-हल्दी, दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा, ( भै. र. । क्षुद्ररोगा.) आमला, सेांठ, मिर्च, पीपल, इन्द्रजौ, मजीठ, खैरसप्तच्छदस्य वासायाः पिचुमर्दस्य चाम्भसा । सार, जवाखार और सेंधा नमक; इनका समान भाग तैलप्रस्थं पचेत्कल्कैनिशादावीफलत्रिकैः ।। मिलित चूर्ण २० तोले । व्योपेन्द्रयवमनिष्ठा खदिरक्षारसैन्धवैः । २ सेर तेलमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला गोमूत्रस्याढकं दत्त्वा शनैश्च मृदुनाग्निना ॥ कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो पधिनीकण्टकं चिप्पं कदरं व्यङ्गनीलिके। जालगर्दभकश्चैतन्वग्गदांश्च विनाशयेत् ॥ | जाय तो तेलको छान लें। द्रवपदार्थ-सप्तपर्ण (सतौने) की छालका ___ यह तेल पद्मिनी कण्टक, चिप्प, कदर (ठेठ), काथ दो सेर । बासेका स्वरस दो सेर । नीमके । व्यङ्ग ( झाई ), नीलिका और जालगर्दभ आदि पत्तों या छालका रस २ सेर । गोमूत्र ८ सेर । । रोगोंको नष्ट करता है। 33 For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५८ भारत-पप-रत्नाकरः [सकारादि (७९७८) सप्ताहादितैलम् कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें (व. से. । नेत्ररोगा.) और ८ सेर रहने पर अन लें। समाहाशारिवानन्दा कालीयागरुवन्दनः । (२) शाखोटक (सिहोरे) की छाल ४ सेर । शतपुष्पाश्वगन्धानां चूस्तैलं विपाचवेत् ॥ पाकार्य जल ३२ सेर, शेष काय ८ सेर । पयस्यष्टगुणे नस्यमेवदहरं परम् ।। सरसेकि २ सेर तेलमें २० तोला सेंधाकल-सप्तपर्ण, सारिखा, अनन्तमूल, काला | नमक और उपरोक्त दोनों काथ मिला कर मन्दाग्नि अगर, सफेद चन्दन, सोया और असगन्ध; इनका | पर पकावें बन पानी जल जाय तो तेलको समान माग-मिश्रित चूर्ण आधा सेर । छान लें। १ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और ३२ सेर दूध मिला कर मंदाधि पर पकायें। जब दूध बल इस तेलकी मालिशसे सन्निपातज और कफ जाय तो तेलको अन लें। पित्तज शोग तथा सिरको सूजन, कर्णशोध, श्लीइसकी नस्य लेनेसे आंसुवोंकन बहना बन्द | पद, गलगण्ड, बध्न, अत्रवृद्धि, सर्वागगत शोष, हो जाता है। मसूदोंकी सूजन एवं हनुमूल और नेत्रोंकी सूजनका (७९७९) समुद्रशोषणतैलम् नाश होता है। ( मै. र. । शोधा.) (७९८०) सर्जरसाचं तेलम् निर्गुण्डी दाम्ली च घुस्तूरककरञ्जको। (रा. मा. बरा. २०) शुष्कम्सजयाविधराम्ना दारुभुनर्नवा ॥ सकाजिसनरसेन युक्तं एषाश्च प्रकृते काये काये शाखोटजे तथा । कटुतैलं पचेत्मस्थं सैन्धवं कल्लपादिकम ॥ तैलं विपक्वं मृदितं जलेन । सत्रिपातोद्भवा शोवावे चान्ये श्लेष्णपित्तनाः। अपनानान्मारूतरक्कदाहशिरकर्षगता ये च श्लीपदानि तव च ॥ ज्वरार्विसन्नाश्मपोहति द्राक् ॥ गलगण्डं ब्रमर्दि शोध सर्रासम्भवम् । ४ सेर कांजी, १ सेर तेल और १० तोले कर्णशोथं दन्तशोयं हनुमूलाशिसम्भवम् ।। रालका पूर्ण एकत्र मिला कर पका । जब कांजी एतान् सर्वानिहन्त्याच वाटबाधिरिवाम्बुदम् ।। १५ जल जाय तो तेलको छान लें। समुद्रशोएवं नाम तैलं परमशोभनम् ॥ द्रवपदार्थ-(१) संभाल, दशमूल, धतूरा, इसमें बोड़ा पानी मिला कर हाथरो अछी करञ्ज, सूखी मूली, जक्तीपत्र, सांठ, रास्ना, देव- तरह मव कर मालिश करनेसे वातरक, दाह, ज्वर दारु और पुनर्ना समान भाग मिलित ४ सेर ले और सन्तापका शीघ्र ही नाश हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् पञ्चमो भागः २५९ (७९८१) सहचरतलम् (१) सहारे चलना और अस्थिभग्नादि रोगोंको नष्ट ( ग. नि. । तैला. २) करता है। (७९८२) सहचरतैलम् (२) समूलपत्रशाखस्य शतं सह वरस्य च ॥ क्षोदयित्वा जलद्रोणे कार्य पादावशेषितम् ।। | ( भै. र. । मुखरोगा. ; व. से. ; र. र.; वृ. नि. शतपुष्पा देवदारु मांसी शैलेयकं वचा ॥ र.; वृ. मा. ; यो. र.। मुखरोगा. ; चन्दनं तगरं कुष्ठमेला चांशुमती तथा । वृ. यो. त.। त. १२८) एतैः कर्षसमै गैस्तैलपस्थं विषाचयेत् ॥ तुलां धृतां नीलसहाचरस्य पयस्तदद्विगुणं दत्त्वा पलान्यष्टौ च शर्करा। द्रोणेऽम्भसः संश्रपयेद्यथावत् । अथ तैलस्य पकस्य शृणु वीर्यमतः परम् ॥ पूते चतुर्भागरसे तु तैलं ये च कोष्ठगता वाताये च वाताः शिरोगताः । पचेच्छनैरईपलपमाणः ।। अस्थिमज्जगताश्चैव कर्णमध्यगताश्च ये॥ कल्कैरनन्ताखदिरारिमेदमृकानां मिन्मिणानांच पीठकटयूरुसर्पिणाम् । जाम्ब्वाम्रयष्टीमधुकोत्पलानाम् । स्वभावेन च ये भग्ना अस्थिभनाश्च ये नराः ॥ ततैलमाश्वेव धृतं मुखेन तेषां च संपयोक्तव्यं हितमेतदनूपमम् । ___स्थैर्य द्विजानां विदधाति सबः ॥ ६। सेर काली कटसरैयाको कूट कर ३२ क्वाथ-मूल, पत्र और शाखायुक्त ६। सेर | सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान कटसरैयाको कूट कर ३२ सेर पानीमें पका और लें तदनन्तर उसमें २ सेर तेल और निम्न लिखित ८ सेर रहने पर छान लें। कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी कल्क--सोया, देवदारु, जटामांसी, भूरि- जल जाय तो तेलको छान लें। छरीला, बच, सफेद चन्दन, तगर, कूठ, इलायची कल्क--अनन्तमूल, खैरसार, अरिमेद और शालपर्णी; इनका चूर्ण ११-१। तोला । खांड | (दुर्गन्धित खैर), जामनकी छाल, मुलैठी और ४० तोले । नीलोत्पल; इनका चूर्ण २॥-२॥ तोले । २ सेर तेलमें उपरोक्त काथ, कल्क और ४ इस तेलको मुखमें धारण करनेसे दांत शीघ्र सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी ही दृढ़ हो जाते हैं । जल जाए तो तेलको छान लें। (७९८३) सहचरतैलम् (३) (वृहद्) यह तेल कोष्ठगत वायु, शिरोगत वायु, अस्थि (ग. नि. । परि. तैला. २) और मजागत वायु तथा कर्णगत वायु, मूकता क्वाथे साहचरे शतावरियुते क्षुद्रामृतैरण्डजे ( गूंगापन ), मिन्मिनाना, पीठ, कमर और उरुके श्योनाकारणिबिल्वगोक्षुरयुते For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-लाकरः [ सकारादि - सिंहाग्निमन्थोद्भवे । । स्पृक्का (ब्राह्मी), भूरिछरीला, नागरमोथा; एलवारास्नोशीरविशालदारुतगरैस्त्वपत्रमेदानखैः । लुक, सरलवृक्ष (चौर) का काठ, कंकोल, कूठ, स्पृकाशैलपनलबालुसरलैः कङ्कोलकुष्ठोत्पलैः॥ नीलोत्पल, रेणुका, जटामांसी, खरैटी, २ प्रकारकी कौन्तीकेशीबलाद्विसारिवानिशाश्यामाशताहा- सारिवा, हल्दी, काली निसोत, सोया, तगर, नतेमभिष्ठापुरसिहचन्दनवरैश्चण्डाहस्थौणेयकैः। मजीठ, गूगल, शिलारस, सफेद चन्दन, चोरक, श्रीवेष्टागरुरोधकुङ्कमवरैः कल्कैः समांसैरिमै- थुनेर, श्रीवेष्ट (धूपसरल), अगर, लोध और केसर स्तैलं क्षीरसमं विपाच्य विधिना बस्ती . इनका चूर्ण समान भाग मिलित २० तोले । च नस्ये ध्रुवम् ॥ इस तेलको बस्ति, नस्य और अभ्यंग द्वारा पानाभ्यङ्गविधी नियोजितमिदं वातादिसर्वा- प्रयुक्त करने तथा पीनेसे वातव्याधि, गुल्म, अष्टीला, मयान् गुल्माष्ठीलशिरोतिशूलमुदरं श्वासाम शिरपीड़ा, शूल, उदररोग, श्वास, आमविकार, ___ कासज्वरम् । कास, ज्वर, शोथ, प्लीहा, अर्श, धातुक्षय, शोफ प्लीहगुदामयं च जठरं धातुक्षयाध्मानकं आध्मान, कुष्ठ, भगन्दर, व्रण, कामला, मलावरोध, अशःकुष्ठभगन्दरं च शमयेत्सर्वान् व्रणान् दिनान्ध्य, रतौंधा, तिमिर, गृध्रसी और शिरोगत हन्ति च ॥ वायुका नाश होता है। जयति पवनरोगान् कामलां विड्विबन्धं दिननिशितिमिरान्ध्यं गृध्रसी मूनिवातम् । (७९८४) सहचरतलम् (४) सहचरमिति नाम्ना तैलमेतत्मसिद्धं (ग. नि. । तैला. २) धनपतिनृपयोग्य भाषितं शम्भुनैव ॥ समूलशाखस्य सहाचरस्य पियाबांसा, शतावर, कटेली, गिलोय, अरण्ड तुलां समेतां दशमूलतश्च । मूल, श्योनाक (अरलु) की छाल, अरनी, बेलकी पलानि पञ्चाशदभीरुतश्च छाल, गोखरू, बड़ी कटेली और बड़ी अरनी सब ... पोदावशेष विपचेद्वहेऽपाम् ॥ समान भाग मिलित ६। सेर ले कर सबको एकत्र तत्र सेव्यनख कुष्ठहिमैलाकूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष ___ स्पृप्रियङ्गनलिकाम्बुशिलानैः। रहने पर छान कर उसमें २ सेर तेल, २ सेर दूध लोहितानलदलोहमुराद्वैः और निम्नलिखित कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर कोपनामिशितुरुष्कनखैश्च ॥ पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको तुल्यक्षीरे पालिकैस्तैलपात्रं छान लें । सिद्धं कृच्छान् शीलितं हन्ति वातान्। कल्क-रास्ना, खस, विशाल (वृक्ष विशेष), कम्पाक्षेपस्तम्भशोषादियुक्तान् देवदारु, तगर, दालचीनी, तेजपात, मेदा, नल, गुल्मोन्मादान् पीनसं योनिरोगान् ॥ For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] पेश्चमो भागः कटसरैयाका पंचांग ६। सेर, दशमूल ६ कटसरैयाका पंचाङ्ग ६। सेर एवं खम्भारीकी सेर और शतावर ३ सेर १० तोले लेकर सबको छाल, पाढलकी छाल, बेलकी छाल, असगन्ध, एकत्र कूटकर ८ द्रोण पानी में पकावे और २ खरैटीकी जड़, शतावर और बच समान भाग मिलित द्रोण (६४ सेर ) शेष रहने पर छान लें। तदन- १८॥ सेर लेकर सबको एकत्र कूटकर ८ द्रोण न्तर उसमें ८ सेर तेल और निम्नलिखित कल्क पानी में पकायें और २ द्राण (६४ सेर ) शेष एवं ८ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें जब रहने पर छान लें। पानी जल जाय तो तेलको छान लें। ८ सेर तेल में यह काथ और निम्नलिखित कल्क-खस, नख, कूठ, पोख, इलायची, कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी स्पृका (ब्राह्मी), प्रियङ्गु, नलिका (नाडी), सुगन्ध जल जाय तो तेलको छान लें । वाला, भूरिछरीला, लाल चन्दन, नलद (खस भेद) ___कल्फ-सोया, हींग, मुरैठी, देवदारु, चीता, अगर, मुरामांसी, रक्तकरवीर, सौंफ, शिलारस और | दालचीनी, इलायची, बायबिडंग, रास्ना, तगर नख इनका चूर्ण ५-५ तोले । | और सेंधा नमक इनका समान भाग मिलित चूर्ण यह तेल कष्टसाध्य वातव्याधि, कम्प, आक्षेप, | १ सेर । स्तम्भ, गुल्म, उन्माद, पीनस, योनिरोग और शोष ___यह तेल वात, कफ नाशक है, इसके पीनेसे आदिका नाश करता है। ८० प्रकार के वातज रोग, ४० प्रकारके पित्तज. रोग और २० प्रकारके कफज रोग नष्ट होते हैं। (७९८५) सहचराद्यतेलम् (१) (महा) इसे नस्य, अभ्यंग और बस्ति द्वारा भी प्रयुक्त (व. से. । वातव्या.) करना चाहिये। कृत्स्नां सहचरादेकां कृत्वा जर्जरितां तुलाम् । (७९८६) सहचराद्यतैलम् (२) काश्मरी पाटला बिल्लं तुलात्रिभिरथापरम् ।। (व. से. | वातव्या.) अश्वगन्यां बलां तद्वन्मूलं शतावरं वचाम् । । साधयित्वा जलद्रोणे तुला सहचरस्य च । चतुर्दोणे विपक्तव्यं चतुर्भागावशेषितम् ॥ पादशेषे पचेत्तैलं दत्वा क्षीरं चतुर्गुणम् ॥ शताहाहिङ्ग्यष्टयाह देवदारुसचित्रकम् । चन्दनाऽगुरु यष्टयाह शठीदेवद्रुमं धनम् । वगैला कृमिहन्ता च रास्नातगरसैन्धवाः ॥ सैन्धवश्चाजमोदा च काकोल्यौ जीरकावुभौ ।। महासहचरं तैलं वातश्लेषहरं परम् । कुष्ठं सौवर्चलं व्योषं रास्ना भाङ्गोंत्रिकण्टकम् । पाने नस्ये तथाभ्यङ्गे बस्तिकर्मणि शस्यते ॥ एतैरक्षसमैर्भागैः शर्करायाः पलाष्टकम् ॥ अशीतिं वातजावोगांश्चत्वारिंशच पैत्तिकान्। पक्वं प्रयोजयेत्पानादभ्यो नावनेऽपि वा । विंशति श्लैष्मिकांश्चैव पानादेवापकर्षति ॥ ऊर्धवाते ह्यधोवाते पक्षाघातेऽपबाहुके । For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ भारत-भैषज्य-रलाकरः [ सकारादि कर्णवाते शिरकम्पे शिरोरोगे तयार्दिते : कल्क---सारिवा, बच, गिलोय, मुलैठी, हर्र, सर्ववातकृते दोषे कफमेदः कृतेऽनिले ॥ बहेड़ा, आमला, नीलोत्पल, नीलका पंचांग, भंगरा, ६। सेर कटसरैयाको ३२ सेर पानीमें पकावें । कसीस और बकायनके फल समान भाग मिलित और ८ सेर रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें | २० ताले लेकर सबको एकत्र पीस लें। २ सेर तेल, ८ सेर दूध और निम्न लिखित करक | काय--४ सेर जौ को ३२ सेर पानीमें मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल पका और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। जाय तो तेलको छानले । ____सरसोंके २ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और कल्क --सफेद चन्दन, अगर, मुलैठी, कचूर, काथ मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो देवदारु, नागरमोथा, सेंधा नमक, अजमोद, तेलको छान लें। काफोली, क्षीरकाकोली, सफेद और काला जीरा, ", यह तेल कण्डू (खाज) और दारुणक (शिर कूठ, संचल ( काला नमक) सोंठ, मिर्च, पीपल, | १ की छोटी छोटी फुसियों) को नष्ट करता है तथा रास्ता, भरंगी और गोखरु; इनका चूर्ण ११-१॥ शिरोरोगों में उपयोगी है। तोला एवं खांड ४० तोले। इस तेलको पीने तथा इसकी मालिश करने | (७९८८) सिद्धार्थकतैलम् (१) और नस्य लेनेसे ऊर्बवात, अधोवात, पक्षाघात, (ग. नि. । परि. तैला. २) अपबाहुक, कर्णगत वायु, शिर:कम्पन, शिरोरोग करवीरवचातुम्बहरसाअनकरअभृङ्गलाक्षाभिः । और अर्दित आदि समस्त वातज रोग एवं कफ सारुष्करसिद्धार्थ कमूलकबीजाग्निगण्डीरैः ॥ और मेदयुक्त वायुके रोग नष्ट होते हैं । रजनीद्वयमधिष्ठारमधविडङ्गमाक्षीकैः । सहस्रपाकबलातैलम् सैन्धवकटुकालाम्बुपिचुमर्दास्फोटमालतीभिश्च (च. सं. । चि. अ. २९) सर्पपतैलं कारज वा गवां मूत्रेण वै सिद्धम् । प्र. सं. ७३९८ " शतपाकबलातैलम् ” देखिये। द्विगुणेन साधितमचिरादभ्यङ्गादन्ति कुष्ठानि ॥ अष्टादशापि सिद्धं तैलं सिद्धार्थकं नाम ॥ (७९८७) सारिवाचं तैलम् ___कल्क---करवीर (कनेर ), बच, तुम्बर (ग. नि.। परि. तैला. २; वृ. नि. र. । शिरोरोगा.) (नेपाली धनिया), रसौत, करंज (करंजुवेको छाल) सारिवोग्रामृतायष्टीत्रिफलानीलमुत्पलम् ।। भंगरा, लाख, भिलावा, सरसो, मूलीके बीज, चीता, नीलीभृङ्गारकासीसमहानिम्बफलानि च ॥ सेंड (स्नुही), हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, अमलकटुतैलं पचेदेभिः सार्धे यवरसेन तु । तासकी छाल, बायबिडंग, सामुद्रलवण, सेंधा फण्डूं दारुण हन्ति शिरोरोगे च शस्यते ॥ नमक, कड़वी तूंबी, नीमकी छाल, कचनारकी छाल For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सपकरणम् ] पनमो भागः २६३ और मालती (चमेली) के फूल समान भाग मिलित यचो, शालपर्णी, रास्ना, असगन्ध, मजीठ, दो २० तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। प्रकारको सारिवा, पृष्टपणी, बच, अरण्डमूल, सेंधा सरसों या करके २ सेर तेलमें उपरोक्त नमक और सोंठ; इनका समान भाग मिलित चूर्ण कल्क और ४ सेर गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि पर २० तोले। पकावें । जब गोमूत्र जल जाय तो तेलको २ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त कल्क और ४ छान लें। सेर शतावरका रस, ८ सेर दूध तथा २ सेर अद्रइस तेलको मालिशसे १८ प्रकारके कुष्ठ शीघ्र का रस मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी ही नष्ट हो जाते हैं। बल जाय तो तेलको हान लें। (७९८९) सिडार्थकतैलम् (२) यह तेल कुबड़ेपन, वामनता, पगुता (लंगड़े (भै. २. स्व.। वातत्र्या.) पन) में हितकारी है । जो मनुष्य महावातसे शतावरीस्तु निप्पीडय रसं प्रस्थद्वयं हरेत।। पीड़ित हों अथवा जिनके अंग सिकुड़गये हों तिलतैलं पचेव प्रस्थं क्षीरं दचा चतुर्गुणम् ॥ उनके लिये यह ते । उनके लिये यह तेल उत्तम है। शतपुष्पा देवदारु मांसी लेयकं बला। इसकी मालिशसे सन्धिवात और एकांगचन्दनं नगरं कुष्ठमेला चांशुमती तथा ॥ शोषका नाश होता है। जिन व्यक्तियोंके चलते रास्ना तुरगगन्धा च समझा शारिवाट्यम् । । समय पैर कांपते हों, जिनकी इन्द्रियां क्षीण हो पृभिपी वचा चैव तवा गन्धर्वहस्तकम् ॥ गई हों, शुक्र नष्ट हो गया हो और जो वृद्धावसिन्धद्भवं सपं दद्याद्विश्वमेषजमेव च।। स्थासे बर्जस्ति हो गये हों एवं जिनकी बुद्धि मन्द एमिस्तैलं पचेद्धीमान दत्ताकरसं समम् ॥ हो उनके लिये यह तैल अत्यन्त हितकारी है। कुब्जाश्च वामना ये च पडुपादाच ये नराः। | यह वधिरताको भी नष्ट करता है। इसे १ मास महावातेन ये रुग्णाः अङ्गसङ्कुचिताच ये॥ तक सेवन करनेसे वृद्ध पुरुष मो युवा हो तेषां हितमिदं तैलं सन्धिवाते च अस्यते। जाता है। येषां शुष्यति चैका गतिर्यपाश्च विह्वला । सीन्द्रिया नष्टशुक्रा जरया जर्जरीकृताः। व सिन्दूराद्यतेलम् (१) अमेषसथ बघिरास्तेपामपि परं हितम् ॥ (मै. र. । कुटा. ; ग. नि. । कुष्टा. ३६; यो. मासमेकं पिवेधस्तु यौवनस्थः पुनर्यवेत् ।। चि. म. । अ. ६; वृ. मा. कुटा. ; च. द.। सिद्धार्थकमिति रूयावं नरनारीहिताय वै । कल्व-सोया, देवदारु, जटामांसी, मूरि कुष्टा. १९) छरोला, खरैटी, सफेद चन्दन, तगर, कूठ, इला- प्र. सं. २०५७ “ जीरकतैलम् ” देखिये। For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org २६४ (७९९०) सिन्दूराद्यतैलम् (२) (महा) ( भै. र. । कुष्ठा. ; ग. नि. । कुष्ठा. ३६; व. से. ; बृ.मा. ; च. द. ; वृ. नि. र. | कु.; यो. चि. म. । अ. ६; यो त । त. ६३ ; वृ. यो. त. । त. १२० ; र. का. . । कुष्ठा. ) भारत - भैषज्य रत्नाकरः सिन्दूरं चन्दनं मांसीं विडङ्गं रजनीद्वयम् । पद्मकं कुठं मञ्जिष्ठां खदिरं वचाम् ॥ जात्यर्क त्रिवृता निम्बकरजं विषमेव च । कृष्णषेत्रफलोनञ्च मपुन्नाडञ्च संहरेत् ॥ पिष्टानि सर्वाणि योजयेत्तैलमात्रया | अभ्यनेन प्रयुञ्जीत सर्वकुष्ठ विनाशनम् ॥ पामाविचर्चिकाकण्डू विसर्पादिहितं मतम् । रक्तपित्तोत्थितान् हन्ति रोगानेवं विधान् बहून् ।। सिन्दूराधमिदं तैलमश्विभ्यां निर्मितं पुरा ॥ कल्क -- सिन्दूर, सफेद चन्दन, जटामांसी, बायबिडंग, हल्दी, दारूहल्दी, फूलप्रियङ्गु, पद्माक, कूँठ, मजीठ, खैरसार, बच, जावत्री, आककी जड़, निसोत, नीमकी छाल, करञ्ज, बछनाग, काला बेत, ' लोध और पंवाड़ समान भाग मिश्रित २० तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें 1 २ सेर सरसेकि तेलमें यह कल्क और ८ सेर | पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें । इस तेलकी मालिशसे साधारणतः समस्त कुष्ठ और विशेषतः पामा, विचर्चिका (खुजली), १ पाठान्तर के अनुसार काला चीता. wife [ सकारादि खाज, विसर्प और रक्तपित्त जनित इसी प्रकार के अनेक रोग नष्ट होते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७९९१) सिन्दूराद्यतैलम् (३) (ग.नि. । कुष्ठा. ३६; व. से. ; वृ. मा. ; यो. र. । कुष्टा. ; रा. मा. । कुष्ठा. ८; यो त । त. ६३ ; वृ. यो. त. । त. १२० ; वा. भ. । चि. अ. १९) सिन्दूरगुग्गुलुरसाञ्जनसिक्थतुत्यैः कल्कीकृतैश्च कटुतैलमिदं विपक्वम् । कच्छ्रस्वत्पिटकिकामथवापि शुष्का मभ्यञ्जनेन सकृदुद्धरति प्रसव ॥ २ सेर सरसोंके तेल में ४-४ तोले सिन्दूर, गूगल, रसौत और नीलेथोथेका कल्क तथा ८ सेर पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें और फिर उसमें ४ तोले मोम मिलाकर सुरक्षित रक्खें । इस तेलकी मालिश से कच्छू और विचर्चिका ( खुजली) का शीघ्र नाश हो जाता है । (७९९२) सिन्दूराद्यतैलम् (४) (भै. र. । गलगण्डा; र. र. ) चक्रमर्दकमूलस्य कल्कं कृत्वा विपाचयेत् । केशराजरसे तैलं कटुकं मृदुनाग्निना ॥ पाकशेषे विनिक्षिप्य सिन्दूरमवतारयेत् । एतत्तैलं निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम् || सरसों के २ सेर तेल में २० तोले पमाड़की जड़का कल्क और ८ सेर भंगरेका रस मिलाकर मन्दाग्नि For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - तैलप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २६६ पर पकावें । जब पानी जल जाय तो उसमें २० तस्मिंस्तथा पच्यमाने कल्कांश्चमान् समावपेत् । तोले सिन्दूर मिला दें और ठण्डा होने पर छानलें। पिप्पली शृङ्गवेरं च कदलीं च शतावरीम् ॥ इसकी मालिश से कष्टसाध्य गण्डमाला भी बलां तालं कदम्ब च सूक्ष्मैलां पद्मवीनकम् । शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। शृङ्गाटकं कसेरुं च जीवनीयानि यानि च ॥ द्विपालिकान् पृथग्दत्त्वा विपचेन्मृदुनाऽग्निना । (७९९३) सिन्दूराद्यं सूर्यपाकतैलम् | तत्सिद्धं सावयित्वाशु शीतं क्षौद्रेण संसृजेत् ।। (ग. नि. । तैला. २) नस्ये चाभ्याने पाने प्रशस्ते वस्तिकर्मणि । सिन्दूरशङ्खचूर्णकहरितालमनःशिलायवक्षारैः । वातव्याधिषु सर्वेषु क्षतक्षोणे शिरोग्रहे । कासीसकच्छसम्भवगन्धाद्यसंयुतैस्तैलम् ॥ पार्षशूले प्रमेहे च गुल्मे चार्थीभगन्दरे । दिनकरतप्तं पामाविचिकादद्रुकुष्ठकिटमादीन् । वातभनागहीनानां कासे श्वासे च हृद्ग्रहे ॥ नाशयति लेपमात्राद्भूयो भूयः कपालकुष्ठमपि ॥ वरातिसारे ह्यरुचौ कर्णनादे स्वरक्षये । सरसोंके २ सेर तेलमें २॥-२॥ तोले सिन्दूर, सुकुमारमिदं तैलं बाल वृद्धसुखावहम् ।। एतद्धि वृष्यं वल्यं च रक्तमांसविवर्धनम् । शंख, पत्थरका चूना, हरताल, मनसिल, जवाखार, स्वरवर्णकरं चैव शोपिणाममृतोपमम् ।। कन्छ देशका कासीस और गन्धकका बारीक चूर्ण पपाकस्यास्य तैलस्य सम्यक्सिद्धम्य यो भवेत् । मिलाकर तेज धूप में रखदें । ( एक या दा सप्ताह उदश्विदि विमध्यार्थ (?) सोऽपि कृत्यको पश्चात् तेलको छानकर बोतलोंमें भर लें।) भवेत् ॥ ___इसकी मालिशसे पामा, विचिका, दाद, एकादश च षट् चैव शोपिणां य उपवाः । कपालकुष्ठ और किटभादि कुष्ठ नष्ट होते हैं। । सुकुमारं प्रशमयेन्मेषोऽग्निमिव वृष्टिमान् ॥ (७९९४) सुकुमारतलम् । मुलैठी ६। सेर, खम्भारीकी छाल ४ सेर, ( च. स. । चि. वातव्या. ; ग. नि. । तैला. २) फाल नव्या न वा फालसे ४ सेर, मुनका १ सेर, खजूर ४ सेर, कटसरैया ४ सेर, महुवेके फूल ४ सेर तथा मधुकस्य शतं दद्यात्काश्मर्याश्च तथाऽऽढकम् । मुजातफल ४ सेर ले कर सबको एकत्र कट कर परूषकाणां द्राक्षायाः खजूरौदनपाक्ययोः। ६४ सेर पानीमें पकावे और १६ सेर पानी मधूकपुष्पस्य तथा तथा मौञ्जातमाढकम् ॥ | शेष रहने पर छान लें । तदनन्तर उसमें अद्रक,२ द्विद्रोणेऽपां विपक्तव्यं चतुर्भागावशेषितम् । तस्मिन् कपाये पूते च पुनरमावधिश्रयेत् ।। पाठान्तरआमलककाश्मयविदारीक्षुरसाढकम् । १ जल १२८ सेर है। तैलाढकं च संयोज्य पचेक्षीरे चतुर्गुणे ॥ २ अदरकके रसका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि आमले, खम्भारोके फल, विदारीकन्द और ईख; | वर्णको सुधारने वाला है। यह तैल शोषइनका ८-८ सेर रस, ८ सेर तेल और ३२ रोगियोंके लिये तो अमृतके समान गुणकारी सेर दूध तथा निम्नलिखित कल्क मिला कर | है। इसके सेवनसे शोष रोगके समस्त उपद्रव मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो इस प्रकार शान्त हो जाते हैं जिस प्रकार तेलको छान लें और ठण्डा होने पर उसमें २ सेर| वर्षासे अग्नि । शहद मिला दें। __(७९९५) सुगन्धितलम् (१) ___ कल्क-पीपल, अद्रक, केलेकी जड़, शतावर, खरैटी, तालकी जड़, कदम्बकी जड़, ( वृ. यो. त. । त. ९० ; यो. र. । वातव्या.) छोटी इलायची, कमलके बीज (कमलगट्टे), सिं तगरागुरुकुङ्कुमकुन्दरुभिः घाड़ा, कसेरु, जीवन्ती, काकोली, क्षीर काकोली, सलवाचराकरामदैः। मेदा, महामेदा, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवक, ऋषभक और मुलैठी; इनका चूर्ण १०--१० सरलामरदारुदलद्रविडी नसकेसररुक्नलिनीनरदैः ॥ तोले ५। सतुरुष्कहरेणुबलाक्वयनैइसे नस्य, अभ्यंग, पान और बस्ति द्वारा | रिति तैलमिदं पयसा विपचेत् । प्रयुक्त करना चाहिये। नृपतिप्रमदाशिशुभिः स्थविरैयह तेल समस्त वातव्याधियोंको नष्ट करता रुपयोज्यमिदं पवनामयजित् ।। है । क्षतक्षीण, शिरोग्रह, पार्वशूल, प्रमेह, गुल्म, अर्श, भगन्दर, वातभग्न, अङ्गहीनता, कास, श्वास, कल्क-तगर, भगर, केसर, कुन्दरु, लौंग, हृद्ग्रह, ज्वरातिसार, अरुचि, कर्णनाद और दालचीनी, कस्तूरी, सरल काष्ट (चौर), देवदारु, तेजपात, छोटी इलायची, नख, नागकेसर, कठ, स्वरक्षय आदि रोग इसके सेवनसे नष्ट हो जाते हैं। कमलिनीके पुष्प, नलद ( खसमेद ), शिलारस, यह तैल बालक और वृद्धोंके लिये सुखदायक | रेणुका और खरैटोको जड़; सबका समान भाग तथा वृष्य, बल्य, रक्तमांस वर्द्धक एवं स्वर और | मिलित चूर्ण २० तोले । ३ दूध चार द्रोण (१२८ सेर है) | क्वाथ-कस्तूरी आदि जो चीजें काय ४ केला, शतावर, बला, ताल और छोटी योग्य नहीं हैं .उन्हें छोड़ कर शेष सब चीजें इलायचीके स्थानमें आमला, अखरोट, समान भाग मिलित ४ सेर ले कर, कट कर सेंधा नमक और मिसरी हैं। ३२ सेर पानीमें पकावे और ८ से रहने पर ५ कल्क द्रव्य १-१ पल (५-५ तोले) हैं। | छान लें। For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तैलमकरणम् ] २ सेर तिलके तेल में यह काथ, कल्क और ८ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें । www. kobatirth.org यह तेल राजाओं, स्त्रियों, बच्चों और वृद्धों के लिये उपयोगी है । इसके सेवनसे वातव्याधि नष्ट होती है। सुगन्धितैलम् (२) (महा) 46 प्र. सं. ५३०६ और ५३०७ महा सुगन्धि तैलम् " देखिये । ले पञ्चमो भागः (७९९६) सुमुखाद्यं तैलम् (ग. नि. । अर्शो. ४ ) पक्वं सुमुखगण्डीर बाकुचीव्योषधान्यकैः । चव्यक्षारयवक्षारवद्विक्षारैस्तु साधितम् ॥ घ्राणजानि हरेतैलमशसि क्षणाधुत्रम् ॥ राईका पंचांग, सेहुण्ड ( थूहरका डंडा ), बावची, सांठ, मिर्च, पीपल, धनिया, चवका क्षार, जवाखार और चित्रकका क्षार, इनका चूर्ण समान भाग मिलित २० तोले ले कर २ सेर तेल में मिलावें और उसमें ८ सेर पानी डाल कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान I (७९९७) सुरसादितैलम् (ग.नि. । नासा. ४ ) सुरसन्योषकुष्ठैस्तु लाक्षाकटफल योजितैः । सविडङ्गै पचेत्तैलं सार्षपं पूतिनाशनम् ॥ इस तेल की मालिशसे नाक के मस्से नष्ट होते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६७ कल्क -तुलसी, सोंठ, मिर्च, पीपल, कूठ, लाख, कायफल और बायबिडंग समान भाग मिश्रित २० तोले ले कर पानी के साथ पीस लें 1 क्वाथ - उपरोक्त ओषधियां समान भाग मिलित ४ सेर ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी रह जाय तो छान 1 २ सेर सरसों तेल में यह काथ और कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। इसकी नस्य लेनेसे पूतिनासा रोग नष्ट होता है। (७९९८) सततैलम् ( र. र. स. । उ. अ. २१ ) रसगन्धशिलातालं सर्व कुर्यात्समांशकम् । चूर्णयित्वा ततः श्लक्ष्णमारनालेन मर्दयेत् ॥ पयित्वा तु कल्केन सूक्ष्मवस्त्रं ततः परम् । तैलाक्तां कारये तिमूर्ध्वभागे प्रदीपयेत् ॥ वर्त्यधःस्थापिते पात्रे तैलं पतति शोभनम् । लेपयेत्तेन गात्राणि भक्षयेदातुरस्तथा || नाशयेत्सूततैलं तद्वातरोगाननेकधा । बाहुकम्पं शिरःकम्पं जङ्घाकं ततः परम् ॥ एका च तथा वातं हन्ति रोगाननेकधा । रोगशान्त्ये सदा देयं ततैलमिदं शुभम् ॥ शुद्ध पारद, गन्धक, हरताल और मनसिल, समान-भाग मिला कर कज्जली बनावें और फिर उसे कांजी में खरल करके बारीक कपड़े पर लेप कर दें। जब वह सूख जाय तो बत्ती बनाकर For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि उसे तेलमें भिगो दें और उसके एक सिरेको । क्वाथपादं पचेतैलं कल्कं कृष्णायसामृतम् । चिमटे आदिसे पकड़ कर दूसरे सिरेको दियासलाई- पचेत्तैलावशेषं च तेन लेप्यं भगन्दरम् ॥ से जला दें एवं उसके नीचे कांच या चीनी आदि- असाध्यं साधयत्याशु पक्वं कृमिकुलान्वितम् ॥ का पात्र रख दें । इस पात्र में जो तैल एकत्रित क्वाथ- सेंधा नमक, चीता, दन्तीमूल, हो उसे सुरक्षित रक्खें । पलाश (ढाक)की छाल और इन्द्रायणकी जड़ इस तेलको मालिशसे और इसे खानेसे | १-१ सेर ले कर ८० सेर गोभूत्रमें पकावें और बाहुकम्प, शिर:कम्प, जंघाकम्प, एकांगवात तथा १० सेर शेष रहने पर छान लें। और भी अन्य अनेक बातज रोग नष्ट होते हैं । २॥ सेर तेल में यह काथ और १२॥-१२॥ (७९९९) सैन्धवाद्यं तैलम् (१) । तोले कृष्ण लोह और शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो ( रा. मा. । कर्णरोगा. २) तेलको छान लें। सिन्धुत्थहिङ्गसुरदारुवचाः सकुष्ठ इसे लगानेसे असाध्य और कृमियोंसे भरा विश्वौपधाः समवृता विनिधाय पक्वम् । हुवा भगन्दर भी नष्ट हो जाता है। तैलं सगोमयरसं श्रुतिपूरणेन (८००१) सैन्धवाद्य तेलम् (३) हन्ति प्रसह्य सकलानपि कर्णरोगान् ॥ (भै. र. । ऊरुस्तम्भा. ; ग. नि. । तैला. २ : कल्क-सेंधा नमक, हींग, देवदारु, बच, च. द. । वातव्या. २२; वृ. मा.। वाता. ; कूठ और सेठ, इनका समान भाग मिश्रित चूर्ण | भा. प्र. म. खं. २ । ऊहस्त.) २० तोले । द्वे पले सैन्धवात्पश्च शुण्ठ्या ग्रन्थिकचित्रकात् । २ सेर तेल में यह कल्क और ८ सेर गायके | द्वे द्वे भल्लातकास्थीनि विशति तथाऽऽढकम् ॥ गोबरका रस मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब आरनालं पचेत्पस्थं तैलस्यैरण्डजस्य च । पानी जल जाय तो तेलको छान लें। गृध्रस्यूरुग्रहार्मोतिसर्वातविकारनुत् ।। इसे कानमें डालनेसे समस्त कर्णरोग नष्ट कल्क-सेंधा नमक १० तोले, सेठ २५ होते हैं। तोले, पीपलामूल और चीतामूल १०-१० तोले एवं शुद्ध भिलावेके ४० दाने ले कर सबको एकत्र __(८०००) सैन्धवाद्यं तैलम् (२) । पीस लें। (( धन्व. ; र. र. । भगन्दरा ) २ सेर अरण्डीके तेलमें यह कल्क और ८ सेर न्य चित्रकं दन्ती पलाशश्चेन्द्रवारुणी। कांजी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी गोमूत्रेऽष्टगुणे पक्त्वा ग्राह्यमष्टावशेषितम् ॥ जल जाय तो तेलको छान लें। For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप करणम् ] पञ्चमो भागः २६९ - यह तेल गृध्रसी, ऊरुग्रह, अर्श और समस्त मिलित ४ सेर ले कर ३२ सेर पानीमें पकायें और वातज रोगोंको नष्ट करता है। ८ सेर रहने पर छान लें । (८००२) सैन्धवाद्यं तैलम् (४) (वृहत्) । अरण्डी या तिलके २ सेर तेल में यह काथ और कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब ( वृ. मा. ; च. द. ; वृ. नि. र. । वृदय ; पानी जल जाय तो तेलको छान लें। धन्य. ; ग. नि. । वृदय. ३५ ; व. से. ।। ब्रना. ; र. र. । बन्न वृद्धच. ; यो. यह तेल वर्म, उदावर्त, गुल्म, अर्थ, प्लीहा, र. । वृनय.) प्रमेह, वातरक्त, आनाह, अश्मरी और कफवातज सैन्धवं मदन कुष्ठं शताहां निचुलं वनाम् । रोगोंको नष्ट करता है। हीयेरं मधुकं भाङ्गी देवदारं सनागरम् ।। इसे अनुवासन बस्ति द्वारा प्रयुक्त करना कटफलं पोकर मेदां२ चविक चित्रकं सठीम् । चाहिये। विडङ्गातिविषे श्यामां रेणुकां नीलिनी स्थिराम्॥ (८००३) सैन्धवाद्यं तेलम् (५) बिल्वाजमोदाराना च दन्ती कृष्णा च तैः समे (मे. र. : व. से. : भा. प्र. म. खं. २ । नाडीव्रणा.) साध्यमेरण्ड तैलं तैलं वा कफवातनुत् ॥ वर्मोदावर्तगुल्माःप्लीहमे हायमास्तात् । सैन्धवार्कमरिचज्वलनाख्यैआनाहमश्मरों चैव हरेत्तदनुवासनात् ॥ मार्कवेण रजनीद्वयसिद्धम् । कल्क-सेंधा नमक, मैनफल, कूट, सोया, तैलमेतदचिरेण निहन्याद् हिजल वृक्षके फल, बच ( पाठान्तरके अनुसार दूरगामपि कफानिलनाडीम् ॥ खरैटी ), मुगन्धवाला, मुलैटी, भरंगी, देवदारु, सेंधा नमक, आककी जड़, काली मिर्च, सांट, कायफल, पोखरमूल, मेदा ( पाठान्तरके चीतामूल, भंगरा, हन्दी और दारुहल्दी । इनके अनुसार हल्दी), चव, चीतामूल, कचूर, बायबि- काथ और कल्कसे सरसेांका तेल सिद्ध करें। डंग, अतीस, काली निसोत, रेणुका, नीलका __ यह तेल दूर तक पहुंचे हुवे कफ वातज पंचांग, शालपर्णी, बेलकी छाल, अजमोद, रास्ना, नाडीवण (नासूर ) को भी शीघ्रही नष्ट कर दन्तीमूल और पीपल, सबका समान भाग मिलित | देता है। चूर्ण २० तोले । ( कल्कार्थ-सब चीजें समान-भाग मिलित क्वाथ ---उपरोक्त ओपधियां समान भाग २० तोले । काथार्थ- सब चीजें समान भाग १ बलामिति पाठान्तरम्. मिलित ४ सेर; पाकार्थ जल-३२ सेर । २ भद्रामिति पाठान्तरम्. शेष काथ ८ सेर । सरसेका तेल २ सेर ।) For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - (८००४) सैन्धवाद्यं तैलम् (६) (महा) वचाजमोदा मधुकं जीरकं पौष्करं कणा । ( भै. र. । आमवाता. , भा. प्र. म. खं. २।। एतान्यईपलांशानि श्लक्ष्णपिष्टानि कारयेत् ॥ ऊरुस्तंभा. ) प्रस्थमेरण्डतैलस्य प्रस्थाम्बु शतपुष्पजम् । काञ्जिकं द्विगुणं दत्वा तथा मस्तु शनैः पचेत् ॥ सिन्धुरुग्विश्वजा सोग्रा भार्गी यष्टिस्थिराफलैः ।। सिद्धमेतत्प्रयोक्तव्यमामवातहरं परम् ।। दारुविश्वशटोवान्यकृष्णाकट्फलपौष्करैः ।। पानाभ्यञ्जनबस्तौ च कुरुते ऽनिवलं शुभम् ।। दीप्यकातिविषैरण्डनीलीनीलाम्बुजैः पचेत् । वातातरक्षणे शस्तं कटीजानूरुसन्धिजे । तैलं सकाधिकं हन्ति पानाभ्यनननावनैः ।। शूलेहृत्पार्श्वपृष्ठेषु कृच्छ्राइमरिनिपीडिते । आमवानं क्रिमीन गुल्मान् प्लीहोदरशिरोरुजः। वाह्यायामादितानाहे अन्वृद्धिनिपीडिते । मन्दानि पक्षसन्ध्यण्डवातस्तम्भगदानपि । अन्यांश्चानिलजान् रोगान् नाशयत्याशु कल्क-सेंधा नमक, कूट, सांठ, बच, भरंगी, देहिनाम् ॥ मुलैठी, शालपर्णी, जायफल, देवदारु, सांट, कचूर, कल्क---सेंधा नमक, गजपीपल, रास्ना, धनिया, पीपल, कायफल, पोखरमूल, अजवायन, अतीस, एरण्डमूल, नीलका पंचांग और नीलकमल सोया, अजवायन, सज्जी, काली मिर्च, कूठ, सोंठ, संचल (काला नमक), विड लवण, बच, अजमोद, समान भाग मिलित २० तोले । मुलैठी, जीरा, पोखरमूल और पीपल इनका चूर्ण २ सेरे तेल में यह कल्क और ८ सेर कांजी २॥२॥ तोले। मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें जब पानी जल जाय क्वाथ-१ सेर सायेको ८ सेर पानीमें पकावें तो तेलको छान लें। और २ सेर शेष रहने पर छान लें। इसे पीने एवं इसकी मालिश करने और नरय लेनेसे आमवात, कृमि, गुल्म, प्लीहोदर, २ सेर अरण्डीके तेलमें उपरोक्त कल्क, काथ शिरपीड़ा, अग्निमान्द्य, पक्षाघात, सन्धिवात, तथा ४ सेर कांजी और ४ सेर मस्तु ( दहीका अण्डगत वायु और उरूस्तम्भादि रोगोंका नाश पानी ) मिला कर मन्दाग्निपर पकावें । जब पानी होता है। जल जाय तो तेलको छान लें। __इसे पान, अभ्यंग और बस्ति द्वारा प्रयुक्त (८००५) सैन्धवाद्यं तैलम् (७) (वृहत्) करना चाहिये। इसके सेवनसे आमवात, कटि ( भै. र. ; धन्व. ; भा. प्र. म. खं. २ ; र. जानु उरु और सन्धिको पीडा, हृच्छूल, पार्श्वशूल, र. । आमवाता. वृ. यो. त. । त. ९३) पृष्ठशूल, मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, वाह्यायाम, अदित, सैन्धवं श्रेयसी रास्ना शतपुष्पा यमानिका। आनाह और अन्त्रवृद्धि आदि वातज रोग शीघ्र सर्जिका मरिचं कुठं शुण्ठी सौवर्चलं विडम् || नष्ट होते तथा अग्निको वृद्धि होती है। For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेसपकरणम् ] पनमो भागः (८००६) सैन्धवाचं तैलप (८) पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। ( भै. र. । आमवाता.) इस तेलकी मालिशसे समस्त वातज रोग, सैन्धवं देवकाष्ठश्च वचा शुष्ठी च कटफलम्। और विशेषतः आमवातका नाश होता है । शताहा मुस्तकं चव्यं मेदे मलहरं त्रित् ।। | इस तेलसे कटि जानु, उरु और सन्धिगत हिज्जलस्य त्वचं बालं चित्रकं ब्रह्मयष्टिका। वायु, हृच्छूल, पार्वशूल और सर्व शरीरगत शूलका ऋटीविडमधुकं रेणुकातिविषा रुबु ॥ नाश होता है। इसके अतिरिक्त यह वातकफज अम्बष्ठा नीलिनी दन्तीमूलं मरिचमेव च ।। रोगोंमें तथा वाह्यायाम, अन्त्रवृद्धि, भगन्दर और अजमोदा पिप्पलीच कुठं रास्नाच ग्रन्थिकम् ॥ नाडीत्रणमें भी उपयोगी है। एषां कर्षमितैः कल्कैः शनैर्पद्वग्निना पचेत् । । प्रस्थश्च कटुतैलस्य मूर्छितस्य यथाविधि ॥ (८००७) सोमराजीतैलम् (१) एततैलबरं श्रेष्ठमभ्यवाद सर्ववाननुन् । (भै. र. ; व. से. ; धन्व. ; च. द. । कुष्ठा.) विशेषेणामवातेषु कटीजानसन्धिषु ॥ हृत्पार्धसर्वगात्रेषु शूलचैव विनाशयेत् । । सोमराजी हरिद्रे द्वे सर्षपाः कुष्ठमेव च । वातश्रेष्मणि वाद्यायामात्रबदौ भगन्दरे ॥ ! करङ्गडगजाबोज पत्राण्यारग्वधस्य च ॥ शस्तं नाहीव्रणान् सर्वान् नाशयत्यय देहिनाम् । विपचेत्सापपं तैलं नाडीदुष्टवणापहम् । अन्यांश्च विविधान् रोगान् वृक्षमिन्द्राशनिर्यया।। अनेनाशु प्रशाम्यन्ति कुष्ठान्यष्टादशैव तु ॥ सैन्धवादमिदं तैलं सर्वामयनिष्पदनम् ॥ नीलिका पिडका व्यङ्गो गम्भीरं वातशोणितम्। कण्डुकच्छुपशमनं दद्रुपामानिवारणम् ।। कल्क-सेंधा नमक, देवदारु, वच, सांठ, कायफल, सोया, नागरमोथा, चन्य, मेदा, महा कल्क-बाबची, हल्दी, दारुहल्दी, सरसा, मेदा, जमालगोटेकी जड़, निसोत, हिज्जल कूठ, कर अबीज, पंवाड़के बीज और अमलतासके वृक्षको छाल, सुगन्धबाला, चीता, भरंगी, कचर, पत्ते १०-११ तोला ले कर सबको एकत्र वायबिडंग, मुलैठी, रेणुका, अतीस, अरण्डमूल, पीस लें। पाठा, नीलकी जड़, दन्तीमूल, काली मिर्च, अज- १ सेर सरसेांके तेल में यह कल्क और मोद, पीपल, कूर, राना और पोपलामूल; इनका ४ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब चूर्ण १३-१। तोला । | पानी जल जाय तो तेलको छान लें । २ सेर सरसोंके यथाविधि मूर्छित तैलमें यह इसके लगानेसे दुष्ट नाडीव्रण, १८ प्रकारके कल्क और ८ सेर पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर | कुष्ठ, नीलिका, पिडिकायें, व्यंग, गम्भीर वातरक्त, For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [सकारादि - - - - कण्डू, कच्छू, ददू और पामाका शीघ्रही नाश हो । कल्क-चीतामूल, लांगलीकी जड़, सोंठ, जाता है। कूट, हल्दी, करंजबीज, हरताल, मनसिल, (८००८) सोमराजीतेलम् (२) (वृहद् ) आस्फोता, आककी जड़, कनेरकी जड़, सतौनेकी छाल, गायका गोबर, खैरसार, नीमके पत्ते, काली ( भै. र. ; र. र. : कुटा.) मिर्च और कसौंदी इनका चूर्ण ११-१। तोला। सोमराजीतुलाक्वाथे तथा द्रुहनस्य च । इस तेल की मालिशसे समस्त प्रकारके कुष्ठ गोमूत्रस्य तथा पात्रे कल्क द श विचक्षणः ॥ कृमि, दुष्ट व्रण, किटिभ कुष्ट, दाद, शरीरकी विव. विपचेत्कार्षिकैर्भागैः कटुतैलादक भिषक । र्णता, पाण्डु, कण्डू और कष्टसाध्य विसर्प रोगका चित्रकं लागलाख्या च नागरं कुष्टमेव च ॥ हरिद्रा नक्तमालञ्च हरितालं मनःशिला । - यह तेल कमजोर चर्म और मांसादिको दृढ़ आस्फोतार्ककरवीरं सप्तपर्णश्च गोमयम् ॥ करता है । त्वचाके अन्य रोगों में भी उपखदिरो निम्बपत्रञ्च मरिचं कासमर्दकम् । योगी है। एतानि श्लक्ष्णपिष्टानि कल्कं दत्वा विचक्षणः॥ (८००९) स्नुही तैलम् हन्ति सर्वाणि कुष्ठानि क्रिमिदुष्टत्रणानि च । (वै. म. र. । पटल ११) किटिभं दद्रुजातश्च गात्रवैवर्ण्यमेव च ॥ स्नसीरपलसंसिद्धतैलसैन्धवलेपनात् । विशीर्णचर्ममांसादि दृढीकरणमुत्तमम् । रोहे सहस्रधा भिन्नमपि पादतलं क्षणात् ॥ पाण्डुरोग तथा कण्डूं वीसप॑ हन्ति दारुणम् ॥ ५ तोले स्नुही ( सेहुण्ड-थूहर ) के दूध ये चान्ये त्वग्गतारोगास्तांस्तु शीघ्रं व्यपोहति॥ और २० तोले सरसों के तेलको एकत्र मिला कर क्वाथ-६। सेर बावचीको कूट कर ३२ पकावें । जब दूध जल जाय तो तेलको छान लें । सेर पानीमें पकायें और ८ सेर रहने पर इस तेल में सेंधा नमक मिला कर लगानेसे छान लें। पैरोंकी बिवाई नष्ट होती हैं। यदि बिवाइयोंसे (२) ६। सेर पंवाड़के बीजोंको कूट कर ३२ पैर हजारों जगहसे फट गया हो तब भी इसे लगासेर पानीमें पकायें और ८ सेर रहने पर नेसे शीघ ही आराम हो जाता है। छान ले । (८०१०) स्नुह्यादा तैलम् (१) ८ सेर सरसेकेि तेलमें ये दोनों काथ, ८ (र. र. स. । उ. अ. २० ) सेर गोमूत्र और निम्न लिखित कल्क मिला कर स्नुह्याः कुड पयसः प्रस्थं दुग्धस्य नारिकेरस्य मंदाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेल. गन्धकविषयोः कर्प पारदकर्षे च साधुसंयोको छान लें। ज्यम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलपकरणम् ] पश्चमो भागः २७३ - --- - - - - - --- - - खरतरकिरणातापात्पक्वं विलेपितं प्राज्ञैः। (८०१२) स्नुह्याद्य तेलम् (३) कुष्ठकिटिभेऽपहन्ति प्रबलं च समीरणं हन्यात् ॥ (स्नुहीदुग्धादि तैलम्) स्नुही ( सेंड-थूहर ) का दूध ४० तोले, (व. मा. ; च. द. । क्षुद्ररोगा. ; र. र. ; व. नारियल का दूध २ सेर, शुद्ध गन्धक और बछ से. ; भै. र. । क्षुद्र रोगा. ; भा. प्र.म. खं. २) नागका चूर्ण १-११ तोला एवं शुद्ध पारद १। स्नुहीपयः पयोऽस्य मार्कवो लाङ्गलीविषम् । तोला और तेल ४० तोले ले कर पारे, गन्धक और बछनागको एकत्र धोट कर कजली बनावें मूत्रमाज सगोमूत्रं रक्तिकासेन्द्रवारुणी ॥ सिद्धार्थ तीक्ष्णतैलं च गर्भ दत्वा विपाचयेत् । और फिर सब चीजोंको एकत्र मिला कर तेज धूपमें रख दें। जब जलांश शुष्क हो जाय तो वहिना मृदुना पक्वं तैलं खालित्यनाशनम् ॥ तेलको अन लें। कूर्मपृष्ठसमानाऽपि रुज्या या रोमतस्करी । यह तेल कुष्ट, किटिभ और प्रबल वायुको दिग्धा सानेन जायेत ऋक्षशारीरलोमशा ॥ नष्ट करता है। कल्क-थूहर (सेंड) का दूध, आकका दा, भंगरा, कलिहारीकी जड़, शुद्ध बछनाग, (८०११) स्नुह्याद्य तेलम् (२) । चौं लो, इन्द्रायणकी जड़ और सरसों ११-१॥ (व. से. । कुष्ठा.) तोला ले कर सबको एकत्र मिला कर पानीके स्नहीक्षीरं विडङ्गानि अर्कक्षीरं च लागली। | साथ पीस लें। बलापलाशबीजानि कोशातक्थोऽथ पिप्पली। सरसके १ सेर तेलमें यह कल्क और २-२ सिद्धं तैलन्तु गोमूत्रं कुष्ठानां नाशनं परम् । सेर बकरीका मूत्र और गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि पामापहरणं प्रोक्तं पूयन्नं व्रणरोपणम् ॥ पर पकावें । जब मूत्र जल जाय तो तेलको ___ कल्क-सेंड (थूहर) का दूध, बायबिडंगका छान लें। चूर्ण, आकका दूध, कलिहारीकी जड़का चूर्ण तथा खरैटीकी जड़, पलाश (ढाक) के बीज, कड़वी. इसकी मालिशसे खालित्य (गंजका ) नाश तोरी और पीपल, इनका चूर्ण ११-११ तोला ले | होता है । कछुवेको पीठके समान निर्लोम स्थान पर भी इसकी मालिशसे रीछके समान घने बाल कर सबको पानीके साथ एकत्र पीस लें। निकल आते हैं। १ सेर तेलमें यह कल्क और १ सेर गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र जल जाय (८०१३) स्यन्दनतैलम् तो तेलको छान लें । (वृ. नि. र. । भगन्दरा.) यह तेल कुष्ट, पामा, पीप और व्रणको नष्ट | चित्रकार्कत्रिवृत्पाठा मलपुहयमारको । करता है । सुधां वचा लाङ्गलिकी हरितालं सुवचिकाम् ॥ ૩૫ For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७४ भारत-भैषज्य-रस्नाकरः [सकारादि ज्योतिष्मती च संहत्य तैलं धीरो विपाचयेत् । (८०१५) स्वर्जिकाचं तेलम् (१) एतद्धि स्यन्दनं नामतैलं दद्याद्भगन्दरे ॥ (भै. र. । कर्णरोगा. ; च द. । कर्णा. ५६ ; वै. शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं तथा ॥ र.; धन्व. । कर्णरो. ; यो. त. । त. ७० ; कल्क-चीतामूल, आककी जड़, निसोत, | शा. सं. । खं. ३ अ. ११ , र. र. । पाठा, कठूमर, कनेरकी छाल, थूहर ( सेंड )का · कर्णरोगा.) . कांड, बच, कलिहारीकी जड़, हरताल, सज्जी और स्वर्जिका मूलकं शुष्कं हि कृष्णा महौषधम् । मालकंगनी १-१ तोला ले कर सबका बारीक शतपुष्पा च तैस्तैलं पक्वं शुक्तचतुर्गुणम् ।। पीस लें। प्रणादशूलबाधिर्य स्रावश्चाशु व्यपोहति ।। ९६ तोला तेल में यह कल्क और ४ गुना कल्क-सज्जी, सूखी मूली, हींग, पीपल, | सोंठ और सोया; इनका समान भाग मिलित चूर्ण पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें जब पानी जल २० तोले। जाय तो तेलको छान लें। २ सेर तेल में यह कल्क और ८ सेर शुक्तx यह तेल भगन्दरके घावको शुद्ध करके भर मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल देता है और फिर उस स्थानकी त्वचाके वर्णको भी जाए तो तेलको छान लें। ठीक कर देता है। इसे कानमें डालने से कर्णनाद, कर्णशूल, (८०१४) स्योनाकतैलम् बधिरता और कर्णस्रावका शीघ्र ही नाश हो जाता है। ( यो. र. ; वृ. नि. र. । कर्ण. ; शा. सं. । खं. ३ अ. ११) (८०१६) स्वर्जिकार्य तेलम् (२) (भै. र.। नाडीत्रणा. ; च. द.। नाडीत्रणा. तैलं स्योनाकमूलेन मन्देऽनौ विधिना शृतम् ।। ४५; व. से.; वृ. मा.; भा. प्र. म. खं. २. । हरेदाशु त्रिदोषोत्यं कर्णशूलं प्रपूरणात् ॥ नाडीव्रणा.) अरलुकी जड़की छालके कल्क और उसीके स्वर्जिकासिन्धुदन्त्यग्निथिनलनीलिका । काथ से सिद्ध तेल कानमें डालने से त्रिदोषज खरमचरिबीजेषु तैलं गोमूत्रपाचितम् ॥ कर्णशूल तुरन्त नष्ट हो जाता है। दुष्टत्रणप्रशमनं कफनाडीव्रणापहम् ॥ ( कल्क-२० तोले । क्वाथ-८ सेर । ४ शुक्त बनाने की विधि भा. भै. र. प्रथम तेल-२ सेर ।) भाग के परिशिष्ट में देखिये। For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवारिष्टप्रकरणम् ] पश्चमो भागः २७५ कल्क-सज्जीखार, सेंधा, दन्तीमूल, चीता- I १ सेर तेल में यह कल्क और ४ सेर गोमूत्र मूल, यूथिका ( जूही ) के फूल, नलकी जड़, | मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र जल जाए नीलकी जड़ और अपामार्ग (चिरचिटे )के बीज; तो तेलको छान लें। इनका चूर्ण ११-१। तोला ले कर सबको एकत्र यह तेल नाडीव्रणको नष्ट करता है। मिलाकर पानीके साथ पीस लें। १ सेर तेल में यह कल्क और ४ सेर गोमूत्र (८०१८ ) स्वर्जिकाद्यं तैलम् (४) मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र जल जाए (व. से. । ज्वरा.) तो तेल को छान लें। स्वर्जिकाकुष्ठमनिष्ठालाक्षामूमिहौषधैः। ____ यह तेल दुष्ट व्रण और कफज नाड़ीत्रण को सक्षीरैः साधितं तैलमभ्यङ्गाहाइशीतनुत् ।' नष्ट करता है। __कल्क-सजी, कुठ, मजीठ, लाख, मूर्वा (८०१७) स्वजिकाद्यं तैलम् (३) | और सोंठ; इनका समान भाग मिलित चूर्ण १० । व. से. । नाडीव्रगा. : भा. प्र. म. खं. २ । । तोले लेकर सबको एकत्र मिला कर पानी के साथ नाडीव्रणा. ) पीस लें। स्वर्जिकासैन्धवं दन्ती नीलीमूलं फलं तथा । १ सेर तेलमें यह कहक और ४ सेर दूध मूत्रे चतुर्गुणे सिद्धं तैलं नाडीव्रणापहम् ॥ मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध जल जाए कल्क-सज्जी, सेंधा, दन्तीमूल, नीलकी ता तलका । तो तेलको छान लें। जड़ और नीलके फल २-२ तोले ले कर सबको | इसकी मालिशसे घरके दाह और शीतका एकत्र मिलाकर पानी के साथ पीस लें। नाश होता है। इति सकारादितैलप्रकरणम् -*-40 -. अथ सकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् (८०१९) सारस्वतारिष्टः विदारिकाभयोशीराण्याकश्च तथा मिसिः । ( भै. र.) पश्च पञ्च पलान्येषां जलद्रोणे पचेद् भिषक् ॥ समूलपत्रशाखाया ब्राह्मया ब्राह्ममुहूर्तके। पादावशेषे विस्राव्य रसं वस्त्रेण गालयेत् । गृहीत्वा विंशतिपलं पुष्ययोगे शतावरी ॥ । माक्षिकस्य दशपलं सितायाः पञ्चविंशतिः ॥ For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ भारत-भैषज्य-रत्नाकर [ सकारादि धातकी पश्चपलिका रेणुका त्रिता कणा।। २५-२५ तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ देवपुष्पं वचा कुष्ठं वाजिगन्धा विभीतकी । सेर पानीमें पकायें और ८ सेर रहने पर छान लें अमृतैला विडङ्गत्वक प्रत्येकं कर्षसम्मितम् । तदनन्तर उसमें १। सेर शहद, १२५ तोले खांड क्याथे तस्मिन् समस्तानि समाक्षिप्य प्रयत्नतः॥ तथा २५ तोले धायके फूल और ११-श तोला स्वर्णकुम्भे निदध्याद् भाजने मृण्मयेऽपि वा। रेणुका, निसोत, पीपल, लौंग, बच, कूठ, असगन्ध, स्वर्णपतनुपत्रश्च क्षिप्त्वास्मिन् कर्षसम्मितम् ॥ बहेड़ा, गिलोय, इलायची, बायबिडंग और दालचीनी; मासाज्जातरसं दृष्ट्वा हेमपत्रे लयं गते। इनका चूर्ण मिलाकर सबको स्वर्णकलश या मिट्टीके वाससा च परिस्राव्य स्थापयेद् घृतभाजने ।। पात्रमें भर कर उसमें । तोला सोनेके अत्यन्त सारस्वताभिधोऽरिष्टः एषोऽमृतसमः पुरा।। सूक्ष्म पत्र मिलाकर उसका मुख बन्द कर दें। शिष्याणामुपकारार्थ धन्वन्तरिविनिर्मितः॥ तदनन्तर १ मास पश्चात् खोलकर देखें यदि आयुर्वीर्य धृति मेघां बलकान्तिविवर्धयेत् ।। स्वर्णपत्र विलीन हो गये हों तो कपड़ेसे छानकर वाग्विशुद्धि करो हृयो रसायनवरः स्मृतः॥ बोतलों में भरकर सुरक्षित रक्खें । बालकानाश्च यूनाश्च वृद्धानाश्च हितः सदा । ___ यह अरिष्ट अमृतके समान गुणकारी है। नरनारीहितो नित्यं परमाजस्करो मतः॥ प्राचीन कालमें श्री धन्वन्तरि भगवान ने अपने वारयेत्स्वरकार्कश्यं तथा चास्पष्टभाषणम् । शिष्योंके उपकारार्थ इसकी रचना की थी। स्वरं परभृतस्येव जनयेत्सेवनात् सदा ॥ इसके सेवनसे आयु, वीर्य, धृति, मेधा, बल रजोदोषेण दुष्टानां योषितां शुक्रदोषिणाम् । और कान्ति की वृद्धि होती है और वाणी शुद्ध हो पुन्साश्चापि शुभकरः सर्वदोषहरो मतः ॥ जाती है । यह हृद्य, श्रेष्ठ रसायन और बालक, युवा अत्यध्ययनगीतादिक्षीणस्मृतिबला नराः ।। तथा वृद्ध स्त्री, पुरुषों के लिये हितकारी एवं लभन्ते चित्तसन्तोपं स्मृतिश्चास्य निषेवणात् ।। अत्यन्त ओजवर्द्धक है। इसके सेवनसे स्वरकी पयसा सह पाव्योऽरिष्टोऽयं शाणमानतः । कर्कशता और वाणीकी अस्पष्टता नष्ट होकर वाणी मासाभ्यां रोगहच्चायं शरदा सर्व सिद्धिदः ॥ कोकिल सदृश मधुर हो जाती है । यह आसव अकालमृत्योर्हरणे यदीच्छा रजोदोष और शुक्रदोषोंको नष्ट करता है। अत्यधिक नारोप्रियत्वं यदि वाञ्छिा स्यात् । अध्ययन और गीत आदिसे जिनकी स्मृति और वाकशुद्धिधैर्यस्मृतिलब्धिरिष्टा शक्ति क्षीण हो गई है उन्हें इसके सेवनसे लाभ निषेव्यतां तर्हामृतं भवद्भि ॥ पहुंचता है। चित्तको शान्ति प्राप्त होती और ब्राह्म मुहूर्तमें उखाड़ी हुई मूल, पत्र, शाखा स्मरणशक्ति बढ़ती है । इसे १ मास तक सेवन युक्त ब्राह्मी ११ सेर, पुष्य नक्षत्रमें उखाड़ी हुई करनेसे अकाल मृत्यु नष्ट हाती और मनुष्य शतावर, विदारीकन्द, हर्र, खस, अदरक और सौंफ कामिनीवल्लभ हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org आसवारिष्टप्रकरणम् ] मात्रा -५ माशे । अनुपान ---- दूध (व्यवहारिक मात्रा - १ तोला) नोट—आसव में स्वर्णपत्र डालने से वह उसमें सप्ताहैकं स्थापयेत् प्रावृतास्ये विलोन नहीं होते अतएव निम्नलिखित विधिसे स्वर्ण-ल - लवण बना कर डालना चाहिये पञ्चमो भागः सारिवाद्यासव: भै. र. 1 प्रमेहा. ) प्र. सं. ७४३८ " शारिवाद्यासवः " देखिये । (८०२०) सूक्ष्मैलाद्यरिष्टः (भै. र. । शूला. ) सूक्ष्मैलाया द्वे पले जातिकोषं स्थूलैला च दीपनी देवपुष्पम् । For कुङ्कुमं क्षीरकाकोलका च प्रत्येकशः कोलमानं प्रकुटच ॥ सञ्जीविन्याः कौडवं तोयमर्द्ध Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक पक्की (आतशी) शीशी में ३ तोले स्वर्ण डालकर उसे स्प्रिट लैम्प पर गरम करें और पौनापौना तोला नमक व शोरेका तेजाब एकत्र मिलाकर उसमेंसे जरा जरासा शीशीमें छोड़ते रहें, जब तक कि स्वर्ण पिघल न जाय। तत्पश्चात् उसमें ४ तोले सेंधा नमक का चूर्ण मिला दें और फिर जब जल सूख जाय और स्वर्णका रंग नारंगी हो जाय तो शीशीको ठण्डा करके उसमेंसे स्वर्ण लवणको निकाल लें । | छोटी इलायची १० तोले तथा जावित्री, बड़ी इलायची, अजवायन, लौंग, दालचीनी, केसर और क्षीरकाकोली ७॥ - ७॥ माशे ले कर सबका बारीक चूर्ण करें और फिर 30 तोले संजीवनीसुरा तथा २० तोले पानीको एकत्र मिला कर उसमें यह चूर्ण मिलाकर काच या चीनी के पात्रमें भरकर सुरक्षित रक्खें एवं ७ दिन पश्चात् निकालकर छान लें। उद्धृत्यैनं वस्त्रपूतं प्रयुञ्ज्यात् ॥ विन्दुत्रिंशतवादी पष्टिबिन्दुमितां पराम् । अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत शूलरोगापनुत्तये ॥ ૨૦૦ स्निग्धे भाण्डे सर्वमेतभिधाय । मात्रा -३० से ६० बूंद तक । इसके सेवन से शूलरोग नष्ट होता है । देखिये । स्वल्पचुक्रसन्धानम् ( वृ. मा । अजीर्णा च द । ग्रहण्य. ) , प्र. सं. १८१६ "चुक्रसन्धानम्" (स्वल्प ) इति सकारावासवारिष्टप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २७८ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः अथ सकारादिलेपप्रकरणम् ((८०२१) सप्तदला दिलेपः ( वृ. मा. ; यो. र. । ब्रणशोथा. ; च. द. । व्रणशोथा. ४३ ) सप्तदलदुग्धकल्कः शमयति दुष्टत्रणं प्रलेपेन ॥ सप्तपर्ण ( सतौना वृक्ष) का दूध लगानेसे दुष्ट व्रण नष्ट होता है । (८०२२) सप्तामृतालेपः ( र. र. । कुष्टा . ) शतमूलीरसचैव कृष्णमूल्यामृताकुची । चक्रं चैडराजा वज्रीसमभागेन लेपयेत् ॥ वातरक्तं निहन्त्याशु कुष्ठमन्यं विनाशनम् सप्तामृतो भवेल्लेपो गदापत्रे निशाकरः || श्रीमद्गइननाथेन निर्मितो विश्वसम्पदि ॥ शतावर का रस, काली सारिवा, बाबची, गिलोय, अमलतासके पत्ते, तगर, पंबाड़ के बीज और थूहरका दूध समान भाग ले कर चूर्ण योग्य चीजों का चूर्ण बनावें और फिर सब चीजों को एकत्र मिला कर लेप बना लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०२३) समुद्रफेनजशोधनलेप ( रा. मा. । ग्रन्थ्यर्बुदा २६ ) अम्भोधिफेनकपणाकुपितासृगुत्थं यन्मण्डलं भवति तच्छिशिराम्बु पिष्टैः । प्रणश्यति पलाशतरोः पलितं सान्ध्यं यथा तिमिरमिन्दुकरोपगूढम् || [ सकारादि समुद्रफेनकी रगड़ लगने से रक्त दुष्ट हो कर जो मण्डल (चकते) उत्पन्न हो जाते हैं वे ढाक ( पलाश) के बीजोंको ठण्डे पानीमें पीस कर लेप करनेसे नष्ट हो जाते हैं । (८०२४) सरलादिलेपः (१) (ग. नि. । शिरो. १ ) सरलामरदार्व्यम्बुकुष्ठगन्धतृणैः समैः । सक्षारलवणैः पिटेर्लेपः कफशिरोर्तिहा ॥ सरलकाष्ठ, देवदारु, सुगन्धवाला, कूठ, सुगन्धतृण ( मिर्चियागन्ध ), जवाखार और सेंधानमक बराबर बराबर ले कर सबको पानीके साथ पीस कर लेप करने से कफज शिरपीड़ा नष्ट होती है । (८०२५) सरला दिलेप: (२) 1 ( व. से. । शिरो. ) सरलागुरुशार्ङ्गष्टादेवकाष्ठैः सरोहिषैः । क्षीरपिटैः सलवणैः सुखोष्णैर्लेपयेच्छिरः ॥ धूपसरल, अगर, करञ्ज, देवदारु, रोहिषतृण ( मिर्चियागन्ध ) और सेंधा नमक समान भाग ले कर सबको दूधमें पीस कर मन्दोष्ण इसे लगाने से वातरक्त और अन्य प्रकार के कुछ करके लेप करनेसे कफज शिरोरोग नष्ट होता है। हैं। (८०२६) सर्जरसादिलेप: (१) (वै. म. र. । पटल ११ ) शिग्रुप से सर्जरसं पिट्वा मसूरिकाम् । उत्पन्नमात्रामा लिम्पेत् सा तदैव विनश्यति || मसूरिकाके उत्पन्न होते ही उस पर रालको सहजने के पत्तोंके रस में पीस कर लेप करनेसे वह तुरन्त नष्ट हो जाती है । For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लेपप्रकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमो भागः (८०२७) सर्जरसादिलेपः (२) ( व. से. । मुखरोगा. ) तैलं घृतं सर्जरसं ससिक्थं रास्नागुर्डे सैन्धवगैरिकञ्च । पक्वं समां दशनच्छदानां त्वग्भेदहन्तु वदन्ति लेपम् ॥ तेल, घी, राल, मोम, रास्नाका चूर्ण, गुड़, सेंधा नमक और गेरु समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें जब सब मिल कर एकजीव हो जाय तो उतार लें । होता है । इसके लगाने से मसूढ़ों की त्वचाका फटना नष्ट (८०२८) सर्जादिलेपः ( वृ. नि. र. । क्षुद्ररोगा . ) सर्जाम्बुकुष्ठसैन्धवसित सिद्धार्थैः प्रकल्पितो योगः उद्वर्तनेन नियतं शमयति वृषणकण्डूतिः ॥ राल, सुगन्धवाला, कूठ, सेंधा नमक और सफेद सरसों समान भाग कर सबको एकत्र मिला कर पीस कर इसकी मालिश करनेसे अण्डकोर्षोकी खुजली नष्ट होती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७९ (८०३०) सर्जिकादिलेप: (२) ( वृ. नि. र. । उपदंशा . ) सर्जिकातुत्यकासीसशैलेयं सरसाञ्जनम् | मनःशिलासमश्चूर्ण व्रणवीसर्पनाशनम् ॥ सज्जी, नीलाथोथा, कसीस, शिलाजीत, रसौत और मनसिल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे पानी में मिला कर लेप करने से व्रण और विसर्पका नाश हो जाता है । (८०३१) सर्जिकाद्यलेपः ( व. से. । उपदंशा . ) स्वर्जिका तुत्थशैलेयं सरलं सरसाञ्जनम् । मनःशिलाले च समे चूर्णो मांसाङ्कुरापहः ॥ सज्जी, नीलाथोथा, शिलाजीत, सरल वृक्षके काठका चूर्ण, रसौत, मनसिल और हरताल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे पानी में मिला कर लेप करने से मांसाङ्कुर नष्ट होते हैं । (८०३२) सर्षपकल्कलेपः (ग. नि. । कुष्टा. ३६ ) खण्डे महावृक्षभवे निलीनः स्त्रिन्नः कुकूले पुटपाकयुक्तया । faafai सर्षपकल्क पिण्डो निहन्ति लज्जामिव रागवेगः ॥ For Private And Personal Use Only (८०२९) सर्जिकादिलेप: (१) यो र. । व्रणशोथा. शा. सं. । खं. ३ अ. ११ ) सर्जिकायावशुकाद्याः क्षारा लेपेन दारणाः । हेमकान्त्यास्तथा लेपो व्रणे परमदारणः ॥ सज्जी और जवाखारादि किसी क्षारको सरसे को पीस कर थूहर के डण्डेके भीतर भर पानी के साथ पीस कर लेप करनेसे अथवा दें और उस पर कपर मिट्टी करके पुटपाक विधिसे दारूहल्दीका लेप करने से व्रणशोथ फट जाता है || अंगारों पर पकावें । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २८० सरसोको निकाल लें 1 www. kobatirth.org भारत - भैषज्य -- तदनन्तर उसके ठण्डा हो जाने पर उसमें से इसका लेप करने से विचर्चिका ( खुजली ) अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है । (८०३३) सर्षपादिलेप: (१) शा. सं. । खं. ३ अ. (बृ. मा. । गलगण्डा. ११ ; ग. नि. । ग्रन्ध्याथ. ; यो. र. । गण्डमाला. ) सर्वपाः शिशुबीजानि शणबीजातसी यवान् । मूलकस्य च बीजानि तक्रेणा लेन पेषयेत् ॥ गण्डानि ग्रन्थयश्चैव गण्डमालाः समुत्थिताः । प्रलेपात्तेन शाम्यन्ति विलयं यान्ति वाऽचिरात् ।। सरसों, संहजनेके बीज, सनके बीज, अलसी, जौ और मूलीके बीज समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर खट्टे महेमें पीस कर लेप करने से गण्ड और गण्डमालाकी ग्रन्थियां शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं । (८०३४) सर्वपादिलेप: (२) ( वृ. मा. । गलगण्डा. शा. सं । खं. ३ ; अ. ११ ; यो. र. । गण्डमाला . ) सर्वारिष्टपत्राणि दन्त्या भल्लातकैः सह । छागमूत्रेण सम्पिष्टमपचीघ्नं प्रलेपनम् ॥ सरसों, नीमके पत्ते, दन्तीमूल और भिलावा समान भाग ले कर सबको बकरेके मूत्रमें पीसकर लेप करनेसे अपची ( गण्डमाला भेद ) का नाश होता है । - रत्नाकरः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ अकारादि (८०३५) सवर्णकर्त्ता लिप: ( यो त । त. ६२ ) कुवो वल्गुजवीजाद्धरिताल चतुर्थ सम्मिश्रः । मूत्रेण गवां पिष्टः सवर्णकरणः परः श्वित्रे ॥ बाबचीके बीज ४ भाग और हरताल १ भाग ले कर दोनोंका बारीक चूर्ण करके गोमूत्र में पीस कर लेप करनेसे श्वेत कुष्ठका रंग स्वभाविक त्वचा के समान हो जाता है । (८०३६) सहस्रौतसर्पिलेपः ( वृ. नि. र. | दाह. ) सहस्रधौतेन घृतेन दिग्धदेहस्य दाहकृशतां विभर्तिः । अन्याङ्गनासङ्गमसादरस्य स्वीयेषु दारेषु यथाभिलाषः हज़ार बार धोये हुवे घृतका लेप (मर्दन) करनेसे दाहका नाश होता है । For Private And Personal Use Only (८०३७) सारिवादिलेप: (१) । ( व. से. । बालरोगा. ) सारिवोत्पलक डारभद्रश्रीमुस्तचन्दनैः पौण्डरीकमञ्जिष्ठा यष्टीमधुकसर्षपैः ॥ कुमाराणां प्रशस्तोऽयं लेपो विसर्पनाशनः ॥ सारिवा, नीलोत्पल, कहार ( कमलभेद ), सफ़ेद चन्दन, नागरमोथा, लाल चन्दन, पुण्डरिया, मजीठ, मुलैठी और सरसों समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर पानीके साथ पीस कर लेप करनेसे बच्चों का विसर्प रोग नष्ट हो जाता है । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपपकरणम् ] पञ्चमो भागः २८१ (८०३८) सारिवादिलेपः (२) मोम मिलावें और फिर शहद तथा अन्य ओष(व. से. । व्रणा.) धियोंका बारीक चूर्ण मिला लें। एक वा सारिवामूलं सर्वव्रणविशोधनम्। | इसे लगानेसे घाव नष्ट होते हैं । केवल सारिवाकी जड़को पानीमें पीस कर | (८०४१) सिद्धार्थादिलेपः (१) लेप करनेसे ही समस्त प्रकारके व्रण शुद्ध हो (यो. त. । त. २०) जाते हैं। | सिद्धार्थसैन्धववचागृहधृमविश्वैः (८०३९) सिक्थकतम् (लेपः) विष्टलेन निशया सहितं च सूक्ष्मम् । लेपो हितो रुधिरनाशकरः प्रतीतः (वृ. यो. त. । त. ११६) . शोफत्रणस्य शमनः सरुजस्य कर्णे ॥ सिक्थकं तथा शङ्खजीरक सफेद सरसो, सेंधा नमक, बच, घरका धुंवा, शीर्षतैलकं सर्जखादिरौ। सेठ, भौर हल्दी इनका समान भाग मिलित चूर्ण गोघृतं व्रणे साधितं त्विदं ले कर सबको पानीके साथ अत्यन्त बारीक पीस सिद्धिदं भवेत्क्षतरोगनाशनम् ॥ कर लेप करनेसे सन्निपातमें उत्पन्न होने वाले शंखजीरा (संगजराहत) का चूर्ण, अगरका कर्णमूलकी सूजन और पीडाका नाश होता है । तेल, रालका चूर्ण, कत्थेका चूर्ण और गोघृत यह उस स्थानमें संचित रक्तको विलीन कर तथा मोम १-१ भाग ले कर प्रथम घीको गरम ! देता है । करके उसमें मोम मिलावें और फिर अन्य ओष- (८०४२) सिद्धार्थादिलेपः (२) धियां मिलाकर खरल कर लें। (यो. त. । त. २०) इसे लगानेसे घाव नष्ट होता है। सिद्धार्थको बचा हिङ्गु करनः सुरदारु च । (८०४०) सिक्थकादिघृतम् (लेपः) । मभिष्ठा त्रिफला श्वेता कटभीत्वकटुत्रयम् ।। प्रियङ्गुश्च शिरीषं च निशा दावी समांशतः। ( भा. प्र. म. खं. २ । गशोथा.) अजामूत्रेण सम्पिष्टो गोमूत्रैर्वाथ चूर्णितः ॥ सिक्थककर्दमजीरकमधुपथ्या सर्वमिश्रितं लेपान। सर्वज्वरं निहन्त्याशु सिद्धार्थादिः प्रलेपतः ॥ गव्यं घृतमपहरति विपाकजनितं वर्ण सद्यः॥ सफेद सरसा, वच, हींग, करजकी छाल, ___ मोम, कमलकी जड़के नीचेको कीचड़, जीरा, देवदारु, मजीठ, हर्र, बहेड़ा, आमला, फिटकरी, शहद और हर्र एक एक भाग तथा गायका घी | कटभी (कंटकशिरीष ) की छाल, सेट, मिर्च, ४ भाग ले कर प्रथम घीको गरम करके उसमें | पीपल, फूलप्रियङ्गु, सिरसकी छाल, हल्दी और For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [বাংf - - - दारुहल्दी समान भाग ले कर बारीक चूर्ण काले धतूरेकी जड़ और शुद्ध आमलासार बनावें। इसे बकरीके मूत्र या गोमूत्रमें पीस कर गन्धक समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनावें। शरीर पर लेप करनेसे हर प्रकारका ज्वर शीघ्र नष्ट इसे जम्बीरी नीबूके रस में घोट कर लेप हो जाता है। करनेसे सिध्म (छीप) का नाश होता है । __ (८०४३) सिद्धार्थादिलेपः (३) । (८०४६) सिध्महरलेपः (२) ( शा. सं. । ख. ३ अ. ११) । (रसे. सा. सं. । कुष्ठा.) सिद्धार्थरजनीकुष्ठप्पुनारतिलैः सह। गन्धकं मलकक्षारमादकस्य रसैदिनम् । कटुतैलेन सम्मिश्रं दद्रुघ्नं च प्रलेपनम् ॥ | मर्दितं हन्ति लेपेन सिध्मन्तु दिनमेकतः ॥ शुद्ध आमलासार गन्धक और मूलीका क्षार सफेद सरसा, हल्दी, कूठ, पंवाड़के बीज बराबर बराबर ले कर एक दिन अदरक रसमें और तिल समान भाग ले कर बारीक चूर्ण । खरल करें। बनावें। इसका लेप करनेसे सिध्म (छीप) एक दिन में इसे सरसेके तेलमें मिला कर लेप करनेसे : ही नष्ट हो जाता है। बाद नष्ट हो जाते हैं । (८०४७) सिध्महरलेपः (३) (८०४४) सिद्धार्थादिलेपः (४) (ग. नि. । कुष्ठा. ३६) (. मा. । क्षुद्ररो.) कासमर्दकबीजानि मूलकानां तथैव च । सिद्धार्थकवचालोध्रसैन्धवैश्च प्रलेपनम् । गन्धपाषाणमिश्राणि सिध्मानां परमौषधम् ॥ वमनं च निहन्त्याशु पिटकान्यौवनोद्भवान् ॥ कसौंदी और मूलीके बीजोंका चूर्ण तथा सफेद सरसों, नच, लोध और सेंधा नमक आमलासार गन्धक बराबर बराबर ले कर तीनोंको समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनावें । एकत्र खरल करें। इसे पानीमें पीस कर पेट पर लेप करनेसे । इसे पानीमें मिलाकर लेप करनेसे सिध्म वमन रुक जाती है और मुख पर लेप करनेसे शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। मुहासे (यौवन पिडिका) नष्ट हो जाते हैं। __ यह सिध्म (छोप) की श्रेष्ठ औषध है । (८०४५) सिध्महरलेपः (१) (८०४८) सिध्महरलेपः (४) ( रसे. सा. सं. । कुष्ठा.) __ (ग. वि. । कुष्ठा. ३६) कृष्णधुस्तूरचं मूलं गन्धतुल्यं विचूर्णयेत् । गन्धपाषाणमिश्रेण यवक्षारेण लेपतः । मयं जम्बीरनीरेण लेपनं सिध्मनाशनम् ॥ सिध्मनाशमुपैत्याशु कटुतैलयुतेन च ॥ For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः २८३ १-१ भाग गन्धक और जवाखारको सरसों- (८०५२) सुदर्शनामूलयोगः के तेल में घोट कर लेप करनेसे सिध्म (छीप) का (ग. नि. । कुष्ठा. ३६) नाश होता है। सौदर्शनी शिफां पिष्ट्वा लेपं कुर्यात्सजीरकाम् । (८०४९) सिन्दूरादिलेपः | कानिकेन जयेद्रं श्वित्रघ्नी कांस्यसंस्थिता ॥ (र. र. रसा. खं. । उप. ५) सुदर्शनाकी जड़ और जीरेका चूर्ण समान सिन्दूरस्य समं चूर्ण साबुणं च तयोः समम् । भाग ले कर दोनेांको कांजीमें पीसकर लेप करनेसे तज्जले पेषितं लेप्यं तत्क्षणाकचरञ्जनम् ॥ दाद नष्ट हो जाता है। इस लेपको २४ घंटे कांसीके पात्रमें रक्खा सिन्दूर और पत्थरका चूना १-१ भाग तथा रहनेके पश्चात् लगानेसे श्वित्र नष्ट हो जाता है। साबुन २ भाग ले कर तीनोंको एकत्र मिला कर पानीके साथ पीस कर लेप करनेसे सफेद बाल (८०५३) सुधादिलेपः तुरन्त ही काले हो जाते हैं। (वृ. नि. २. । अग्निदग्धव्रणा.) (८०५०) सिन्दरायो लेपः सुधां पुरातनी दधिवारिणा परिपेषिताम् । (ग. नि. | कुष्टा. ३६ ; रा. मा. । कुष्ठा. ८) | लेपनं तैलदग्धस्य विस्फोटव्याधिनाशनम् ॥ सिन्दरमरिचक्षोदयुक्तेनाभ्यङ्गयोगतः।। बहुत दिनांके पुराने पत्थरके चूनेको दहीके माहिषेणाचिरात्पामा नवनीतेन नश्यति ॥ पानीमें पीस कर लेप करनेसे अग्निदग्ध वण नष्ट __ सिन्दूर और काली मिरचके १-१ भाग होते हैं। चूर्णको भैसके मक्खनमें मिला कर लेप करनेसे (८०५४) स्वचिकाद्यो लेपः पामा (खुजली) अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है। (ग. नि. । अर्शी.) (८०५१) सिंहास्यादिलेपः सुवर्चिका विडं दन्ती भल्लातकमयो बचा । (यो. र. । विपादिका. ; वृ. यो. त.।। | चित्रकोऽस्त्रिकटुकं स्नुहीक्षीरेण पेपयेत् ।। त. १२०) | एतदालेपन श्रेष्ठमर्शसां क्षारसम्मितम् । कोमलसिंहास्यदल सनिशं सुरभीजलेन दह्यते सप्तरात्रेण पुंसत्वं च न विनश्यति ॥ सम्पिष्टम् । | सज्जी, बिड लवण, दन्तीमूल, भिलावा, बच, दिवसत्रयेण नियतं शमयति कच्छ विलेपनतः।। चीता, आककी जड़, सांठ, मिर्च, पीपल और बासे (असे) की कोंपल और हल्दीका जवाखार समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनावें चूर्ण समान भाग ले कर गोमूत्रमें पीस कर | और उसे थूहरके दूधमें घोट कर लेप बना लें। लेप करनेसे कच्छूका तीन दिनमें ही अवश्य नाश इसे लगानेसे सात दिनमें अर्शके मस्से नष्ट हो जाते हो जाता है। हैं और पुंसत्वको हानि नहीं पहुंचती । For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि (८०५५) सुवर्णपुष्प्यादिलेपः बराबर बराबर ले कर सबको एकत्र मिलाकर स्त्रीके ( शा. सं. । खं. ३ अ. ११) दूधमें मिलाकर घोट लें। सन्निपातमें इसका लेप करनेसे समस्त उपद्रव सुवर्णपुष्पी कासीसं विडङ्गानि मनःशिला। नष्ट हो जाते हैं। रोचना सैन्धवं चैव लेपनाच्छित्रनाशनम् ॥ (८०५७) सूतादिलेपः अमलतासके पत्ते, कसीस, बायबिडंग, मन (यो. र. । कुष्ठा.) सिल, गोरोचन और सेंधानमक समान भाग ले कर | सतगन्धकयोः पिष्टा कज्जलिकां विधाय च । बारीक पीस लें। म्रक्षणेन विमर्थाथ करित्वग्लेपने हितम् ॥ यह लेप लगानेसे स्वित्र कुष्ठ नष्ट होता है। (समान भाग ) पारे और गन्धककी अत्य (८०५६) सुवर्णादिलेपः | महीन कज्जलीको मक्खन में मिलाकर लेप कर | करित्वक् (गजचर्म) रोग नष्ट होता है। (र. चं. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) (८०५८) सूरणादिलेपः (१) सुवर्णमुक्तारजतप्रवालं (बृ. नि. र. । प्रहण्य.) कस्तूरिकाकुङ्कमरोचनं च । सूरणं रजनी वहिटणं गुडमिश्रितम् । वराट-रुद्राक्ष-मधूक-बिल्वं पिष्ट्वारनालकैलेंपो हन्त्य सि महान्त्यपि ।। कुष्ठं च खजूरपुनर्नवे च ॥ ___जिमीकन्द, हल्दी, चीतामूल, सुहागा औ द्राक्षा कणा नागरपुत्रजीवी गुड़ समान भाग ले कर कांजीके साथ अत्यन्त सारङ्गशृङ्गं कतकस्य बीजम् । बारीक पीस कर लेप करनेसे प्रवृद्ध अर्शके मस्सेभी एरण्डमूलं शरशीर्षकं च नष्ट हो जाते हैं। मयूरिका श्वेतपुनर्नवा च ॥ स्तन्येन पिष्ट्वा कुरु सन्निपाते (८०५९) सूरणादिलेपः (२) लेपः सदा सर्वगदानिहन्ति ॥ (वै. म. र. । पटल १६) सेना, मोती, चांदी, प्रवाल, कस्तूरी, केसर, परिणतसूरणकन्दं सनागरं तोयसम्पिटम् । गोरोचन, कौड़ी, रुद्राक्ष, महुवेके फूल, बेलकी मेदोग्रन्थिहरार्थ लिम्पेद्बहुशश्च सप्ताहम् ।। छाल, कूठ, खजूर, पुनर्नवा, द्राक्षा (मुनक्का), पीपल, पक जिमिकन्द और सांठ समान भाग ले सोंठ, पुत्रजीव, हरिणका सींग, निर्मलीके बीज, | कर दोनोंको पानीके साथ बारीक पीस कर बार अरण्डमूल, शर (सरकण्डेकी जड़), अगर, पाठा | बार लेप करनेसे १ सप्ताहमें मेदकी गांठ नष्ट हो और सफेद पुनर्नवा; इनका अत्यन्त बारीक चूर्ण | जाती है । For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लेपप्रकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमो भागः (८०६०) सूर्यावर्तादिलेप: (ग. नि. । ग्रन्ध्य. १ ; वृ. नि. र. । गलगण्डा ) सूर्यावर्तरसोनाभ्यां गलगण्डोपनाहनम् । स्फोटास्राः शमयति गलगण्डं न संशयः ॥ हुलहुल के पत्ते और ल्हसन समान भाग ले कर दोनोंको अत्यन्त बारीक पीस कर गलगण्ड पर लेप करें | इससे छाला पड़ कर वह फूट जायगा और मवाद निकल कर गलगण्ड नष्ट हो जायगा । (८०६१) सैन्धवादिलेप: (१) (८०६३) सैन्धवादिलेप: (३) ( वृ यो त । त. १२० ) सैन्धवं चक्रमर्द च सर्षपं पिप्पलीं तथा । सेचयेदारनालेन पामाकण्डूविनाशनम् ।। सेंधा नमक, पंवाड़के बीज, सरसो और पीपल इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको कांजी के साथ पीसकर लेप करने से पामा और कण्डू ( खुजली ) का नाश होता है । (८०६४) सैन्धवादिलेप: (४) ( व. से. । नेत्ररोगा. ) सैन्धवदारुहरिद्रागौरकपथ्यारसाञ्जनैः पिटैः । दत्तो बहिः प्रलेपो भवत्यशेषाक्षिरोगहरः ॥ सेंधा नमक, दारूहल्दी, गेरू, हर और रसौत मिक्षुद्भूतं केशरं तार्क्ष्यशैलम् समान भाग ले कर सबको पानी के साथ बारीक पिष्टो लेपोsयङ्कपित्थाद्ररसे पीसकर आंखों के बाहर लेप करनेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट होते हैं । ( सु. सं. । चि. अ. ९ ) सिन्धुद्भूतं चक्रमर्दस्य बीज - दस्तूर्ण नाशयत्येष योगः ॥ (८०६५) सैन्धवादिलेप: (५) ( यो त । त. ६२ ) सेंधा नमक, पंवाड़ के बीज, खांड, केसर और रसौत समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनावें । इसे कैथके रसमें पीस कर लेप करने से दाद शीघ्र ष्ट हो जाता है । (८०६२) सैन्धवादिलेप: (२) ( वृ. नि. र. । अर्श.; षृ. यो. त. । तं. ६९ ) सिन्धूत्यदेवदालयाश्च बीजं काञ्जिकपेषितम् गुदाङ्कुरान्मलेपेन पाटयेत्पर्वतानपि ॥ Faraar और fire डोढेके बीज समान भाग ले कर दोनोंको कालीके साथ बारीक पीस कर लेप करने से अर्शके मस्से नष्ट हो जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८५ सैन्धवं मदनं रालं मधु सर्पिः पुरो गुडम् । गैरिकं स्फुटितौ पादौ लिप्तौ पङ्कजसन्निभौ ॥ सेंधा नमक, मोम, राल, शहद, घी, गूगल, गुड़ और गेरु समान भाग ले कर प्रथम घी में गूगल मिलाकर गरम करें जब ये दोनों मिल जाएं तो उसमें मोम और शहद मिलालें तदनन्तर गुड़ और अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करें । For Private And Personal Use Only इसका लेप करनेसे पैरों की बिवाई नष्ट होकर पैर कमल सदृश कोमल हो जाते हैं । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि "" " x x (८०६६) सोमवल्कादिलेपः उसमें १-१ भाग शहद और अगस्ति के पत्तोंका (च. द. ; वृ. मा. । विषा.) रस मिला कर लिङ्ग पर लेप करें और एक पहर पश्चात् धो कर स्त्रीसमागम करें । यह इतना सोमवल्कोऽश्वकर्णश्च गोजिता हंसपायपि । स्तम्भक है कि मनुष्य एक समयमें सौ स्त्रियों से रजन्यौ गैरिकं लेपो नखदन्तविषापहः ॥ सुख पूर्वक रमण कर सकता है । श्वेत खदिर, शालवृक्षका सार, गोजिह्वा (८०६९) स्थूलीकरणलेपा। (गोजिया घास), हंसपादी, हल्दी, दारुहल्दी और (धन्व. । वाजीकरणा. गेरु समान भाग ले कर पानीके साथ पीस लें। (१) इसका लेप करनेसे नख और दांतोंका विष सकुष्ठमातङ्गबलावलानां नष्ट होता है। वचाश्वगन्धा गजपिप्पलीनाम् । (८०६७) सौभाञ्जनादिलेपः तुरङ्गशत्रोनवनीतयोगा लेपेन लिङ्गं मुशलत्वमेति ॥ (यो. त. । त. ५७ ; वृ. मा. | गलगण्डा.) - सौभाअनं देवदारु कानिकेन प्रयोजितम् । कोष्णप्रलेपतो हन्यादपची दुस्तरामपि ॥ बृहतासितसिद्धार्थकवचातुरगगन्धकासहितैः । संहजनेकी छाल और देवदारुके समान भाग एभिः प्रलेपितं स्यात्पुरुषवराङ्गं हयस्येव ।। मिलित बारीक चूर्णको कांजीके साथ पीसकर गरम । करके लेप करने से दुःसाध्य अपची ( गण्डमाला घृतमधुयुक्तं तैलं बृहतीफलमात्मगुप्ता च । भंद )का भी नाश होता है। । एभिर्वराङ्गऋद्धिः सप्तदिनं ताम्रभाण्डपर्युषितैः ॥ (८०६८) स्तम्भकलेपः ( यो. त. । त. ८०) | अश्वगन्धापामार्गबृहतीसारिवातिलान् । कपूरं टङ्कणं मूतं तुल्यं मुनिरसं मधु। कुटजस्य च बीजानि तथा वै राजसर्षपान ।। सम्मर्थ लेपयेल्लिङ्गं स्थित्वा यामं तथैव च। समभागानि कृत्वा तान् क्षीरेणाज्येन पेषयेत । ततः प्रक्षाल्य रमयेद्वनितानां शतं सुखम। तं समुर्तितं लिङ्गं तेनाति स्थूलतां व्रजेत् ॥ वीर्यस्तम्भकरं पुंसां सम्यङ्नागार्जुनोदितम् ॥ ___ कपूर, सुहागा और शुद्ध पारा समान भाग साज्यकुष्ठसमायुक्तं ,बृहतीफलमिश्रितम् । ले कर तीनोंको अच्छी तरह खरल करें और फिर शतावरीमूलयुतमश्वगन्धासमन्वितम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपमकरणम् ] पश्चमो भागः २८७ - - - - तिलतलं च यत्नेन सम्यक् मृद्वग्निना पचेत् । तेन लि समाभ्यक्तं यावदिच्छां प्रवर्तते ॥ सबको एकत्र मिलाकर पानीमें पीसकर लेप करनेसे मनुष्यका लिंग घोड़ेके लिंगके समान स्थूल हो जाता है। महिषी नवनीतं च मुसलीचूर्णमिश्रितम् । धान्यराशिस्थितं भाण्डे सप्ताहाच्च समुद्धरेत् ॥ तेन प्रलेपयेल्लिा यामैकाद्वर्तते ध्रुवम् । . x x x बड़ी कटेलीके 'फलका चूर्ण, कौंचका चूर्ण, घी, शहद और तेल १-१ भाग लेकर सबको एकत्र . मिलाकर ताम्रपात्र में भरकर रख दें। ___मात दिन तक इसका लेप करने से लिंग वृद्धि होती है। निर्मल लिङ्गमालिप्य गोमयेन पुनः पुनः। सिक्तं जलेन शीतेन वर्द्धते यावदिच्छति ॥ तैलेन सार्षपैः सार्धमालिम्पेद्दाडिमत्वचम् । लिङ्गकर्णस्तनानां च वृद्धिहेतुरिदं किल ।। असगन्ध (चिरचिटे) के बीज, कटेलीके फल, सारिवा, तिल, इन्द्रजौ और सरसो इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको दूधके साथ पीसें और फिर उसमें १ भाग धी मिला लें। इसकी मालिशसे लिंग अत्यन्त स्थूल हो जाता है। गोरोचनाभ्रकमदसमांशं मधुना सह । पेषयित्वा समं लिम्पेल्लिङ्गं मुसलबद्भवेत् ।। कूठ, नागबलाकी जड़, बला (खरैटो)की जड़, बच, असगन्ध, गजपीपल और कनेरकी जड़, इनका : कूर, बड़ी कटेलीका फल, शतावर और बारीक चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको नवनीत __ असगन्ध इनका चूर्ण तथा घी १-१ भाग, तिलका (मक्खन) में मिलाकर लेप करनेसे लिंग मूसल के तेल सबसे चार गुना और पानी तेलसे ४ गुना समान स्थूल हो जाता है। ले कर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। । इसकी मालिशसे लिंग यथेच्छ प्रवृद्ध हो कटेलीका फल या जड़, सफेद सरसों, बच जाता है। और असगन्ध; इनका समान भाग चूर्ण ले कर For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकर [ सकारादि - - - - करने से कण्डू ( खुजली) और कुष्टका नाश मूसलीके बारीक चूर्णको भैसके मक्खनमें | होता है। मिलाकर किसी पात्रमें बन्द करके अनाजके ढेरमें | (८०७१) स्नुकलेपः दबा दें और ७ दिन पश्चात् निकाल लें। (व. से. । कुष्ठा.) इसका लेप करने से लिंग १ पहरमें ही स्नुगर्कजातीपूतीकमुवर्णहरिपल्लवाः । अवश्य बढ़ जाता है। | मूत्रपिष्टाः प्रलेपेन श्वित्रदद्वणच्छिदः ।। ___स्नुही ( सेण्ड ), आक, चमेली, करन और धतूरा इनके हरे पत्ते समान भाग ले कर सबको लिंगको स्वच्छ करके बार बार गायके गोबर गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे श्वित्र कुष्ट, दाद का लेप करें और शीतल जलसे धोते रहें । इससे और व्रणका नाश होता है। लिंग इच्छानुसार बढ़ जाता है। (८०७२) स्नुहीक्षीरलेपः (वृ. नि. रे. । अर्शो.) | स्नुहीक्षीरनिशालेपस्तथा गोमूत्र कल्कितः। अनारकी छालके बारीक चूर्णको सरसोंके योजितो गोमवक्षीरवह्निमूलावचूर्णितम् ॥ तेलमें मिलाकर लेप करनेसे लिंग, कर्ण और पिस्तदेव तेनैव भुनानो गुदजाकरान ॥ स्तनोंकी वृद्धि होती है। थूहरका दूध और हल्दीका चूर्ण समान भाग | ले कर दानोंको एकत्र मिला कर गोमूत्रके साथ पीस कर लेप करने तथा गायके दूधमें चित्रकगोरोचन, अभ्रकका चूर्ण और कस्तूरी समान | | मूलका चूर्ण मिला कर पीने और उसीके साथ पथ्य भाग लेकर सबको शहदके साथ पीसकर लेप | भोजन करनेसे अर्शका नाश होता है। करनेसे लिंग मूसलके समान स्थूल हो जाता है। (८०७३) स्नुह्यकोदिलेपः (व. से. । क्षुद्र.) (८०७०) स्थौणेयकादिलेपः | स्नुह्यदुग्धधत्तरपत्रं मूत्रविमिश्रितम् । (ग. नि. ; वृ. मा. । कुष्टा.) | लेपनं तैलसंयुक्तं हितं काशिरोवणे ॥ स्थौणेयकनिशाः स्वल्पतालाः प्रलेपतः। स्नुही (सेण्ड) का दूध, आकका दूध और धत्तूररसपिष्टाश्च कण्डूकुष्ठविनाशनाः ॥ धतूरेके पत्ते १-१ भाग ले कर सबको एकत्र स्थौणेयक (थुनेर), हल्दी, दूर्वा (दूब घास) मिला कर गोमूत्र के साथ बारीक पीस लें । इसे १-१ भाग और ज़रा सी हरताल ले कर सबको तेलमें मिला . प करनेसे कण्डू (खाज) और एकत्र मिलाकर धतूरेके पत्तोंके रसमें घोट कर लेप शिरके व्रण नष्ट होते हैं । xxx For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूपमकरणम् ] पक्षमो भागः (८०७४) स्नुयादिलेपः सुहागेकी खील, सफेद कत्था, नीलाथोथा और ( वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) पत्थरका चूना समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनावें और इसे गोघृतमें मिला कर एक पहर तक स्नुबग्निलागलीदन्तीमूलैलेंपोर्शसां हितः ॥ अच्छी तरह खरल करें। ___ स्नुहो (सेण्ड), चीतामूल, कलिहारीकी जड़ इसे लगानेसे हर प्रकारके व्रण नष्ट हो जाते और दन्तीमूल समान भाग ले कर सबको एकत्र | हैं । यह व्रणकी खाज और कृमियोंको नष्ट करके मिला कर अत्यन्त बारीक पीस कर लेप करनेसे । उसे शुद्ध करता और भरता है तथा त्वचाके रंगको अर्शके मस्से नष्ट होते हैं। भी ठीक कर देता है। (८०७५) स्वजिकादिघृतम् (लेपः) (८०७६) स्वर्जिकादिलेपः ( यो. र. । व्रणशोथा. ; वृ. यो. त. । त. (व. से. । ग्रन्थ्य.) १११ ; यो. त.। त. ६०) स्वनिकामूलकक्षारः शङ्खचूर्णसमन्वितः । स्वर्जिका च यवक्षारः कम्पिल्लं च हरेणुका। प्रलेपो विहितः श्लक्ष्णो हन्ति ग्रन्थ्यर्बुदादिकान् टङ्कणं श्वेतखदिरं तुत्यं चूर्ण च गोघृतैः ॥ सर्व समांशं सञ्चूण्य मर्दयेत्पहरं दृढम् । सज्जी, मूलीका खार और शंखका चूर्ण स्वनिकायमिदं सर्पिः सर्वत्रणहरं परम् ॥ समान भाग ले कर सबको पानीके साथ अत्यन्त रोपणं कृमिकण्डूनं सवर्णकरणं परम् ।। बारीक पीस कर लेप करनेसे ग्रन्थि (गांठ) और सज्जी, जवाखार, कमीला, रेणुकाका चूर्ण, अर्बुद (रसौली) आदिका नाश होता है। इति सकारादिलेपप्रकरणम् अथ सकारादिधूपप्रकरणम् (८०७७) सक्तुधूपः सरसे के तेलमें जौका सत्तू मिला कर उसे (रोगीको) उसको धूनी दें। ( वृ. मा. । शूला.) (८०७८) सर्पत्वगादिधूपः (१) कम्बलातगात्रस्य प्राणायाम प्रकुर्वतः। (व. से. । बालरोगा.) कटुतैलाक्तसक्तूनां धूपः शूलापहः परः॥ | सर्पत्वक्सर्षपारिष्टपल्लवं तेजनी वचा । रोगीको कम्बल उढ़ाकर लिटा दें और उससे रसोनहिङ्ग्मजालोमशृङ्गीमरिचमाक्षिकैः ।। कह दें कि सांसको रोके पड़ा रहे । तदनन्तर । धूपः सर्वग्रहनोऽयं कुमाराणां ज्वरापहम् ॥ ३७ For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - सांपकी कांचली, सरसों, नीमके पत्ते, माल- (८०८०) सर्षपादिधूपः कंगनी, बच, हसन, हींग, बकरीके बाल, काक ( ग. नि. । बालग्रहा. १२ ; वा. भ. । डासिंगी और काली मिर्च समान भाग ले कर उ. अ. ३) सबको एकत्र मिला कर कूट लें और फिर उसमें १ भाग शहद मिला लें। सर्षपानिम्बपत्रार्क मूलमश्वखुग यवाः। इसकी धूप देनेसे बच्चोंके समस्त ग्रह और भूर्जपत्रं घृतं धूपः सर्वग्रहनिवारणः ।। ज्वरोका नाश होता है। सरसे, नीमके पत्ते, आककी जड़, घोडेके खुर, भोजपत्र और जौ समान भाग ले कर एकत्र (८०७९) सर्पत्वगादिधूपः (२) कूट लें और उसमें १ भाग घी मिला लें । (ग. नि. । ज्वरा. १ ; वृ. नि. र.। विषमज्वरा.) इसकी धूप देनेसे बच्चोंके समस्त ग्रहविकार सर्पत्वचासर्षपहिङ्गनिम्ब नष्ट होते हैं। पत्राण्यमीषां समचूर्णधूपः। (८०८१) सहदेव्यादिधृपः विनिग्रहं राक्षसडाकिनीनां (वृ. नि. र. । विषम ज्वरा.) करोति रक्षां विषमज्वरे सः॥ सहदेवीवचाभद्रानाकुलीभिः प्रधूपनम् । सांपकी कांचली, सरसेा, हींग और नीमके प्रदेहोद्वर्तनं कुर्यादेभिर्वा ज्वरशान्तये ॥ पत्ते समान भाग ले कर बारीक कूट लें। सहदेवी, बच, हल्दी और रास्ना समान इसकी धूप देनेसे विषम ज्वरका रोगी ग्रहों भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसकी धूप देने अथवा और राक्षस डाकिनी आदिके उपद्रवोंसे सुरक्षित इसका लेप और उद्वर्तन करनेसे विषम ज्वर नष्ट रहता है। होता है। इति सकारादिधूपप्रकरणम् -2016 अथ सकारादिधूम्रप्रकरणम् (८०८२) सम्प्रसारणीगुटिका प्रोक्ता सिक्थेन वटिका बदरी बीज सन्निभा। (वै. र. । फिरंगरोगा.) धूम्रपानाय देथैका प्रातर्बब्बूलजाग्निना ॥ पग्माषं हिङ्गुलं चैव टङ्कणं दशमापकम् ।। गोघृताक्ता यवस्यैव रोटिकाऽलवणाऽशने । आकारकरभं सिक्थं दशमाषं पृथक्पृथक् ॥ ! फिराङ्गणे प्रदातव्याऽनिशं ताम्बूलबीटकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम् पञ्चमो भाग: २९१ यस्तु वायुफिरङ्गातः सनरः सुखभाग्भवेत् । कर उस पर बबूलके कोयलोंकी अग्नि रखकर चतुर्दशदिनैरेव नात्र सन्देह ईरितः ।। रोगीको धूम्रपान करावें और फिर पानका बीड़ा शुद्ध हिंगुल ६ माशे, सुहागा १० माशे और चबानेको दें। अकरकरे का चूर्ण १० माशे लेकर सबको अच्छी पथ्य में घृतयुक्त जौकी रोटी दें। लवण न तरह खरल करें और फिर १० माशे मोमको पिघलाकर उसमें यह चूर्ण मिलाकर बेरकी गुठलीके | खाने दें। समान गोलियां बना लें। इसी प्रकार १४ दिन उपचार करनेसे फिरङ्ग प्रातःकाल इनमें से एक गोली चिलममें रख. ! रोग (आतशक) का अवश्य नाश हो जाता है। इति सकारादिधूम्रप्रकरणम् --HD अथ सकारायजनप्रकरणम् (८०८३) सज्ञाप्रबोधनरसा भाव्यं जम्बीरजैवैः सप्ताह तत्प्रयत्नतः । (र. स. क. । उल्ला. ५) सन्निपातं निहन्त्याशु अञ्जनेऽयं शिवः स्मृतः।। फिटकरी तुत्यनेपाल मरिच निम्बबीजकम् । जमालगोटेकी गिरी १० भाग और काली पुत्रजीवकमज्जा च निम्बुकेनार्कभाजने ॥ मिर्च तथा पीपलका चूर्ण एवं पारद १-१ भाग भाबना सप्त दातव्या गुटी गुआमिताञ्जनात् । लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें । जब सनिपातमपस्मारं विषं सर्पस्य नाशयेत् ॥ कजलके समान हो जाय तो उसे सात दिन फिटकरी, नीलाथोथा, जमालगोटा, काली | जम्बीरी नीबूके रसमें खरल करके सुखा लें और मिर्च, नीमके बीज और पुत्रजीव ( पितोजिया ) अत्यन्त बारीक पीसकर सुरक्षित रक्खें । की मज्जा, समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला इसे आंखमें लगाने से सन्निपात यर शीघ्र कर ताम्रपात्रमें डालकर नीबूके रसकी सात भावना ही नष्ट हो जाता है। दें और १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। (र. प्र. सुधाकर में जमालगोटा ८ भाग है इसे ( पानीमें घिस कर ) अन्जन लगानेसे तथा पोपलके स्थान में पीपलामूल है।) सन्निपात, अपस्मार और सर्पविष नष्ट होता है। (८०८४) सन्निपाताअनरसः (८०८५) सर्पविषहराञ्जनम् (र. र. स. । उ. अ. १२ ; र. प्र. सु. । अ. ८) ( शा. सं. । ख. ३ अ. १३ ) निस्त्वनेपालकं बीजं दशनिष्क प्रचूर्णयेत् । जयपालभवां मज्जां भावयेन्निम्बुक द्रवैः । मरिच पिप्पली मूतं प्रतिनिष्क विमिश्रयेत् ॥ । एकविंशतिवेलं तत्ततो वति प्रकल्पयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org २९२ मनुष्यलालया घृष्ट्वा ततो नेत्रे तयाऽञ्जयेत् । सर्पदष्टविषं जित्वा सञ्जीवयति मानवम् || जमालगोटेकी गिरीको नींबू के रसकी २१ भावना दे कर बत्तियां बना लें । भारत-भे षज्य रत्नाकरः (८०८६) सर्वज्वरहराञ्जनम् (र. का. . । ज्वरा. ) एकैकं पारदं गन्धं मरिचं नवटङ्कणम् । कारवल्लीरसेनैव रसो भाव्यस्त्रिसप्तधा || अञ्जनं च ज्वरार्तस्य सर्वज्वरहरं मतम् । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और काली मिर्चका चूर्ण १-१ भाग और सुहागेकी खील ९ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें और फिर उसे करेले के रसकी २१ भावना दे कर बारीक चूर्ण कर 1 सारिवात्रिफलोशीर मुक्ताचन्दनपद्मकैः । नेसे सर्प विष नष्ट हो जाता है । इसे मनुष्य के थूक में घिसकर आंख में आंज- पिष्टं वर्तीकृतं हन्ति पित्तोत्थं तिमिरं नृणाम् ॥ सारिवा, हर्र, बहेड़ा, आमला, खस, मोती, लाल चंदन और पद्माक; सबका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर पानीके साथ खरल करके वर्तियां बना लें 1 इसे आंख में आंजने से समस्त प्रकार के ज्वर नष्ट होते हैं । (८०८७) सर्वतोभद्रा वर्तिः ( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) हरिद्रामलकीकृष्णाकतकर येत सर्पपैः । व्योषवा रियुता वर्तिः सर्वनेत्रमयापहा ॥ हल्दी, आमला पीपल, निर्मलीके फल और सफेद सरसो इनका चूर्ण समान भाग कर सबको एकत्र मिला कर त्रिकुटेके काथ में खरलकर के वर्तियां बना लें । होते हैं। इसे आंख में लगाने से समस्त नेत्र रोग नष्ट Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि (८०८८) सारिवादिवर्तिः ( यो. र. । नेत्ररोगा. ; व. से. ; वृ. नि. र. । नेत्ररोगा . ) इसे आंख में लगाने से पित्तज तिमिर रोग होता है। (८०८९) सितायञ्जनम् ( वा. भ. । उ. अ. ११) सिता मनःशिलाले यलवणोत्तमनगरम् । अर्द्धकर्षोन्मितं ताक्ष्यै पलार्द्ध च मधुप्लुतम् ।। अञ्जनं श्लेष्मतिमिर पिल्लशुक्लार्मशोषजित् ॥ मिश्री, मनसिल, पद्माख, सेवानमक और सेठ इनका चूर्ण ७ ॥ - ७ ॥ माशे एवं शुद्ध रसौत २|| तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर अच्छी तरह खरल करें । इसे शहद में मिलाकर आंख में लगाने से कफज तिमिर, पिल्ल, शुक्ल, अर्म और अक्षिशोषका नाश होता है । . (८०९०) सुखाञ्जनम् ( र. चि. म. । स्त. ९ ) हविषा पातयेत्सौम्यं कज्जलं निर्मलं शुभम् । गन्धकं तुत्थकं दद्यात्कर्पूरं तत्र कज्जले ॥ For Private And Personal Use Only १ सावरोशीर " इति पाठान्तरम् 66 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अञ्जनप्रकरणम् ] मर्दयेनवनीतेन सुधृतं कज्जलं नयेत् । अञ्जनेनैव नेत्राणि बहुपीडाकराणि च । तत्कालं शममायान्ति प्रणश्यन्ति तदा गदाः । सतताञ्जनयोगेन सदा नैमल्यमाप्नुयुः ॥ नेत्रप्रसादनं नृणां नेत्ररोग निवारणम् । पुष्पादिकांश्च हन्याद्धि व्याधीन्मुखानं पञ्चमो भागः विदम् ॥ घृतका दीपक जला कर स्वच्छ कज्जल एकत्रित करें और फिर १ भाग यह कज्जल तथा १ - १ भाग शुद्ध गन्धक, नीलाथोथा और कपूर लेकर सबको एकत्र मिला कर मक्खनके साथ घोटें । 1 इसे आंख में लगाने से अत्यन्त पीडायुक्त अक्षिपाकको भी तुरन्त आराम हो जाता है । इसे रोज़ आंखोंमें लग|नेसे आंखका फूला और काच आदि अनेक नेत्ररोग नष्ट होते और नेत्र निर्मल रहते हैं । ! (८०९१) सुखावतीवतिः ( भै. र. । नेत्र. ; च. सं. । चि. अ. २६ ; व. से. । नेत्ररोगा. ; वृ. मा. ; र. का. धे. नि. । नेत्ररोगा . ) ; ग. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९३ इसे आंख में लगाने से तिमिर, पटल, काच अर्म, नेत्रशुक्र, नेत्रकण्डू, क्लेद, नेत्रार्बुद और नेत्रमलका नाश होता है । (८०९२) सुदर्शना वर्तिः (१) (ग. नि. । नेत्र रो. ) उदधिजलजः फेनः शङ्खः सचन्दनपद्मकप्रवरमरिचं पिप्पल्यो यत्तथाssलमनःशिले । धरणसमितानष्टौ भागान् सकुङ्कुमनागरान्मधुसमयुतां वर्ति कृत्वा द्विरंशरसाअनाम् ॥ मलतिमिरहा कण्डून्येषा तथाऽर्बुदनाशिनी स्रवति च भृशं येषां नेत्रं तदप्युपशाम्यति । यदपि सरुजं सास्रात्रं यच्छिरानुगतं भवेतदपि निरुजं नेत्रं सद्यः सुदर्शनयाऽञ्जितम समुद्रफेन, शंख, लाल चन्दन, पद्माख, काली मिर्च, पीपल, हरताल, मनसिल, केसर और सेठ इनका चूर्ण १ - १ भाग तथा शुद्ध रसौत २ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें और फिर शहद में मिला कर वर्तियां बना लें । इसे आंख में लगानेसे नेत्रमल, तिमिर, नेत्रकण्डू और नेत्रार्बुदका नाश होता है । यदि आंख से अत्यधिक स्राव होता हो या पीडायुक्त स्राव होता हो तो वह इसके व्यवहारखे शीघ्र नष्ट हो जाता है । कतकस्य फलं शङ्खं त्र्यूषणं सैन्धवं सिता । hat रसाञ्जनं क्षौद्रं विडङ्गानि मनःशिला || कुक्कुटाण्डकपालानि वर्त्तिरेषा व्यपोहति । तिमिरं पटलं काचपर्म शुक्रं तथैव च ॥ कण्डूक्लेदार्बुदं हन्ति मलञ्चाशु सुखावती ॥ (८०९३) सुदर्शना पर्तिः (२) निर्मली के फल, शंख, सोंठ, मिर्च, पीपल, (ग. नि. । नेत्ररो. ) सेंधा नमक, मिश्री, समुद्रफेन, रसौत, बायबिडंग, त्रिकटुकविडङ्गसैन्धवमधुक शिलातुस्थरोचनारोधैः। मनसिल और मुरगीके अण्डेके छिलके; इनका चूर्ण | त्रिफलातगररसाञ्जनकुसुमाञ्जनपाटला कुसुमैः ॥ समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर शहद के गैरिक समुद्रफेनमपौण्डरीकप्रियङ्गुलाक्षाभिः । साथ खरल करें और वर्तियां बना लें । | कतकफळ सिन्धुवारक सितमरिचपलाश निर्यासैः।। For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - नलदहरिद्राशङ्ख कनीलोत्पलयुगलकेसरोशोरैः। एतया सततमअयित्वं कुङ्कमसुमनःकोरकमभिष्टाभिश्च तुल्यांशम् ॥ __या सुपर्णसममिच्छति चक्षुः ॥ पिष्ट कटङ्कटेरीजटाधनकषायफाणितोपेतम् । पीपल, तगर, नीलोत्पलके पत्ते, मुलैठी और अञ्जनमेलापत्रककर्पूरवरागसम्मिश्रम् ॥ हल्दी; इनका समान भाग चूर्ण ले कर सबको पिहितमनातपशुष्कं वर्तीकृतमायेदनेनाक्षि । एकत्र मिला कर पानीके साथ खरल करके वर्तियां सलिलनिघृष्टेन सदा न भवति बना लें। नयनामयी पुरुषः ॥ इसे आंखोंमें लगानेसे नेत्रज्योति अत्यन्त तीव्र पृथक्पृथगनिलशोणितकफपित्तसमुद्भवा हो जाती है। रुजः सबला। (८०९५) सुप्रचेतनागुटिका (सुखचेतना नश्यन्ति सुदर्शनया षट्सप्ततिभेदनामानः ।। गुटिका) सेठि, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, सेंधा नमक, | (र. सं. क. । उल्ला. ५ ; र. का. धे. । ज्वरा.) मुलैठी, मनसिल, नीलाथोथा, गोरोचन, लोध, व्योषं वरा वरं हिङ्गु तिक्तोग्रा नक्तमालकः । हर, बहेड़ा, आमला, तगर रसौत, कुसुमाञ्जन, | गौरी कटु बजामृत्रैश्छायाशुष्का गुटी कृता । पाटलाके फूल, गेरु, समुद्रफेन, पुण्डरिया, फूलप्रियङ्गु, लाख, निर्मलीके फल, संभालकी जड़, सह अपस्मारं स्मृतिभ्रंशमुन्मादं शिरसो रुजम् । जनेके बीज, पलाश (ढाक) का गांद, नलद नक्तान्ध्यं तिमिरं हन्ति दोषं भूतादिकं भ्रमम्।। (खसभेद), हल्दी, शंख, दो प्रकारका नीलोत्पल, एकद्विीत्रचतुर्थाख्यमअनाज्ज्वरमेव च । नागकेसर, खस, केसर, चमेलीकी कलियां, मजीठ, | | सन्निपात त्वचैतन्यं नाशयेत्नुपचेतना ॥ इलायची, तेजपात, कपूर और दालचीनी १-१ F और दालचीनी - सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर दारु हल्दीकी सेंधा नमक, हींग, कुटकी बच, करञ्जबीज (करअड़ और नागरमोथेके गोढा किये हुवे काथमें अवेकी गिरी), हल्दी और सफेद सरसे; इनका खरल करके वर्तियां बना लें और छायामें सुखाकर | चूर्ण समान-भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर सुरक्षित रक्खें । बकरीके मूत्रमें घोट कर गोलियां बना लें और इसे पानीमें घिस कर रोज आंखोंमें लगानेसे उन्हें छायोमें सुखा कर सुरक्षित रक्खें । नेत्र रोग नहीं होते । यह वर्ति वायु, रक्त, कफ इसे आंखमें लगानेसे अपस्मार, स्मृतिनाश, और पित्तके समस्त नेत्र रोगोंको नष्ट करती है। उन्माद, शिरपीड़ा, नक्तान्ध्य, (रतौंधा), तिमिर, (८०९४) सुपर्णीवतिः | भूतबाधा, भ्रम, इकतरा, द्वयाहिक, तृतीयक और ( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) चातुर्थिक ज्वर तथा सन्निपातको मूर्छाका नाश पिप्पली सतगरोत्पलपत्रां होता है। ... वर्तयेत्समधुको सहरिद्राम् । । नोट--र. का. धे. में. कुटकीका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमनप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः - (८०९६) सूतकाद्यञ्जनम् (८०९८) सैन्धवादिवतिः (१) (व. से. । नेत्ररोगा.) (व. से. । नेत्र. , वृ. मा.) मृतकं गन्धकोपेतं चारीरसमूच्छितम् । सैन्धवं त्रिफला कृष्णा कटुका शङ्खनामयः । अननं दृष्टिदं नृणां नेत्रामयविनाशनम् ॥ सताम्ररजसो वत्तिः शुद्धशुक्रविनाशिनी ॥ शुद्ध पारा और गन्धक समान भाग ले कर सेंधा नमक, हर', बहेड़ा, आमला, पीपल, कजली बनावें और फिर उसे चांगेरी (चूके) के कुटकी, शंखनाभि, और ताम्र; इनका बारीक चूर्ण रसमें खरल करके सुखा लें। समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर पानीके साथ खरल करके वर्तियां बना लें । इसे आंखोंमें लगानेसे नेत्रोंको ज्योति तीब्र । इसे आंखमें लगानेसे व्रणरहित शुक्रका नाश होती और समस्त नेत्ररोग नष्ट होते हैं। होता है। (८०९७) सूर्यप्रभावर्ती (८०९९) सैन्धवादिवतिः (२) (र. र. स. । उ. अ. २९) ( वा. भ. । उ. अ. १६ ; वं. से. । नेत्ररोगा. ( रक्तचन्दनमनिष्ठा तिन्तिणीफलसक्तुकैः । सैन्धवं त्रिफला व्योष शङ्खनाभिः समुद्रजः । अभयालोध्रकतकनिशाशङ्खकणोषणैः ।। फेनः शैलेयकं सों वर्तिः श्लेष्माक्षिरोगनुत् ।। मनःशिलाकरञ्जाक्षबीजोग्राफेनसैन्धवैः ।। | सेंधा नमक, हरे, बहेड़ा, आमला, सेठ, अजाक्षीरैः समविषैर्वर्तयो विहिता हिताः ॥ मिर्च, पोपल, शंखनाभि, समुद्रफेन, भूरिछरीला शुक्लार्ममांसपिल्लेषु ग्रन्थिगण्डार्बुदेषु च ॥ और राल; इनका समान भाग चूर्ण ले कर सबको लाल चन्दन, मजीठ, तिन्तडीक (इमली) के एकत्र मिला कर पानीके साथ खरल करके वर्तियां फल, सक्तक विष, हर, लोध, निर्मलीके फल, । बना लें। हल्दी, शंख, पीपल, काली मिर्च, मनसिल, करञ्ज- इन्हें आंखमें लगानेसे कफज नेत्र रोग नष्ट बीज (करजुवेकी गिरी), बहेड़ेके बीज (गुठलीकी गिरी), बच, समुद्रफेन,सेंधानमक और बछनाग इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर (८१००) सैन्धवाद्यञ्जनम् (१) बकरीके दूधमें खरल करके वर्तियां बना लें। (वै. म. र. । पटल १६ ) इन्हें आंखमें लगानेसे शुक्ल, अर्म, नेत्रमांस, | पटुकुनटीवरटीगृहमागधिकाजातिकुसुमरजनिपिल्ल, नेत्रग्रन्थि, गण्ड और नेत्रार्बुदका नाश रजः। होता है। | पिलं हरेनिघृष्टं क्षौद्रयुतं कांस्यताम्राभ्याम् ।। For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-मेषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि सेंधा नमक, मनसिल, ततैनका घर, पीपल, हल्दी और पीपलके समान भाग मिश्रित चमेलीके फूल और हल्दी इनका समान भाग चूर्ण चूर्णको लोहे या तांबेके पात्रमें डालकर पानीके ले कर कांसीके पात्रमें डालें और उसमें थोडासा | साथ कांसीकी मूसलीसे घोरें। शहद मिला कर उसे तांबेकी मूसलीसे खरल करें। इसे भी आंखमें लगानेसे नेत्रपीड़ा नष्ट इसे आंखमें लगानेसे पिल्ल रोगका नाश होती है। होता है। (८१०३) सैन्धवाद्यञ्जनम् (४) (ग. नि. | नेत्र.) (८१०१) सैन्धवाद्यञ्जनम् (२) लवणं सैन्धवं तक्रं मरिचं कांस्यभाजने । ( यो. र. । नेत्ररोगा. ; शा. सं. । खं. निघृष्य नेत्रयोर्दत्तं हन्ति रोगं कफोद्भवम् । स्त्रीपयो यावको हिङ्गत्रय नेत्रभृतं द्रुतम् ।। ३ अ. १३) दहत्यक्ष्णोः स्थितं दुःखं शुष्कं दारु यथाऽनलः ।। दग्ध्वा ससैन्धवं लोभ्रं मधुच्छिष्टयुते घृते। सेंधा नमक और काली मिर्च के समान भाग पिष्टमञ्जनलेपाभ्यां सयो नेत्ररुजापहम् ॥ मिश्रित चूर्णको कांसीके पात्रमें डालकर तक्रके १-१ भाग सेंधानमक और लोधको शराव-साथ घोटें । सम्पुटमें बन्द करके भस्म करें और फिर दोनोंको इसे आंखमें लगानेसे कफज नेत्ररोग नष्ट पीस लें । तदनन्तर ४ भाग धीको गरम करके | होते हैं । उसमें १ भाग मोम मिलावें; इस धीमें उपरोक्त कुलथी और हींगके समान भाग मिश्रित भस्म मिलाकर रगड़ा बना लें। चूर्णको स्त्रीके दूधमें खरल करें। इसे आंखमें लगानेसे नेत्र पीड़ा शीघ्र नष्ट इसे आंखमें लगाने और आंखके बाहर लेप हो जाती है। करनेसे नेत्रपीड़ा शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । ___ (८१०४) सैन्धवाद्यञ्जनम् (५) (८१०२) सैन्धवाद्यञ्जनम् (३) (वृ. नि. र. । सन्निपाता.) (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) अञ्जनं सम्यगारब्धं मधुसिन्धुशिलोपणैः । प्रमोहद्रोहिभवति भाषितं भिषजां वरैः ।। आयसे ताम्रपात्रे वा सैन्धवं दधिमर्दितम् । सेंधा नमक, मनसिल और काली मिर्च; कांस्यघृष्टे निशाकृष्णे त्वञ्जनं चाक्षिशूलहृत् ।। | इनके समान भाग मिश्रित चूर्णको शहदमें सेंधा नमकको लोह या ताम्रके पात्रमें दहीके | खरल करें । साथ खरल करें। ___ इसे आंखमें लगानसे सन्निपातकी मूळ इसे आंखमें लगानेसे नेत्रपीड़ा नष्ट होती है। नष्ट होती है । For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनप्रकरणम् ] पश्चमो भागः (८१०५) सैन्धवाद्यञ्जनम् (६) (८१०८) सौवीराञ्जनम् (१) ( ग. नि. । ज्वरा. १ ; वृ. नि. र. । (वा. भ. । उ. अ. १३.) विषमज्वरा.) सौवीराजनतुत्यकशोधात्रीफलस्फटिकर्पूरम् । सैन्धवं पिप्पलीनां च तन्दुलाः समनःशिलाः । पञ्चांशं पश्चांशं व्यंशपथैकांशमजनं तिमिरघ्नम्।। नेत्राअनं तैलपिष्टं शस्यते विषमज्वरे ॥ सौवीरांजन (सुरमा) ५ भाग, शुद्र नीलासेंधा नमक, पीपलके चावल और शुद्ध मन- | थोथा ५ भाग, काकड़ासिंगो ३ भाग तथा आमला, सिलके समान भाग मिश्रित चूर्णको तेलमें पीसकर फिटकरी और कपूर १-१ भाग। सबके बारीक आंखों में लगानेसे विषम ज्वर नष्ट होता है। चूर्णको एकत्र मिला कर खरल करें। (८१०६) सैन्धवाद्यञ्जनम् (७) । । इसे आंखमें लगानेसे तिमिर रोग नष्ट ( यो. र. । नेत्ररोगा.) होता है। आईकस्वरसैपृष्टं सिन्धुकासीससम्मितम् । (८१०९) सौवीराञ्जनम् (२) छायाशुष्कां वटी कुर्यात्पूयाख्ये हितमञ्जनम् ।। (व. से. । नेत्ररोगा. ) __ सेंधा नमक और कसीसके समान भाग- सौवीरमजनं तुत्थं ताप्यं धात्री मनःशिला । मिश्रित चूर्णको अद्रकके स्वरसमें खरलकरके गोलियां चतुर्हरेणुमधुकं लोई शुकन्नमञ्जनम् ॥ बनावें और उन्हें छाया में सुखा लें। सौवीरांजन (सुरमा), शुद्ध नीलाथोथा, इसे ( पानीमें घिस कर ) आंखमें लगानेसे स्वर्ण माक्षिक भस्म, आमला, शुद्ध मनसिल, मुलैठी पूयालस नामक नेत्ररोग नष्ट होता है। और लोहभस्म; इनका चूर्ण समान भाग ले कर (८१०७) सौगताञ्जनम् सबको एकत्र मिला कर खरल करें । ___ इसे आंखमें लगानेसे नेत्रशुक्र (फूला) नष्ट (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ; यो. त.। त. ७१) | होता है। निशाद्वयाभयाकृष्णामांसीकुष्ठं विचूर्णितम् । सर्वनेत्रामयान् हन्यादेतत्सौगतमञ्जनम् ॥ (८११०) सौवीराजनयोगः हल्दी, दारुहल्दी, हरं, पीपल, जटामांसी (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ) और कूठ; इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको भृङ्गोद्भवस्वरसभावितमाजदुग्धे एकत्र मिला कर खरल करें। मूत्रे गवां पयसि त्रिफलाकषाये । इसे आंखमें लगानेसे समस्त नेत्ररोग नष्ट द्राक्षारसे च परिशुद्धमिति क्रमेण होते हैं । ___ सौवीरकाजनमिदं तिमिरामयघ्नम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि सौवीरांजन (सुरमे) को क्रमशः भंगरेके रस, समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर सहबकरीके दूध, गो मूत्र, गो दुग्ध, त्रिफलाके काथ जनेके पत्तोंके रसमें खरल करके वर्ति बना लें। और द्राक्षा (अंगूर) के रसकी भावनाएं दे कर | इसे आंखमें लगानेसे शुक्र ( फूला ) नष्ट सुखा लें। होता है। इसे आंखमें लगानेसे तिमिर रोग नष्ट . (८११३) स्रोतोञ्जनाधावतिः होता है। (ग. नि. | नेत्ररोगा. ३. ; वृ. मा. । नेत्ररोगा.) ___ (८१११) स्नेहनीवटिका स्रोतोजं विद्रुमं फेनं सागरस्य मनःशिला । (भा. प्र. । म. खं. २ ; नेत्ररोगा.) मरिचानि च वा वर्तीः कारयेत्पूर्ववद्भिषक् ॥ पथ्याक्षधात्रीबीजानि एकद्वित्रिगुणानि च । ____ शुद्ध सुरमा, प्रवाल, समुद्रफेन, मनसिल पिष्ट्वाम्बुना वटीं कुर्यादञ्जनं द्विहरेणुकम् ॥ और काली मिर्च; इनका चूर्ण समान भाग ले कर नेत्रस्रावं हरत्याशु वातरक्तरुजं तथा ॥ सबको एकत्र मिला कर बकरीके दूधके साथ खरल हर्र की गुठलीकी गिरी १ भाग, बहेड़ेकी करें और ताम्रपात्रमें भर कर रख दें। सात दिन गुठलीकी गिरी २ भाग और आमलेकी गुठलीकी पश्चात् उसकी वर्तियां बना लें। गिरी ३ भाग ले कर सबको पानीके साथ खरल इन्हें आंखमें आंजनेसे नेत्र स्वच्छ होते हैं। करके वटी बनावें। यह अंजन आंखें दुखनेके पश्चात नेत्रोंकी इसे आंखमें लगानेसे नेत्रस्राव और वातज मलिनताको दूर करनेके लिये उपयोगी है । तथा रक्तज नेत्रपीडाका शीघ्र हो नाश हो (८११४) स्वर्णमाक्षिकाद्यञ्जनयोगाः जाता है। (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ; यो. र. । नेत्ररोगा.) (८११२) स्फटिकादिवतिः ताप्यं मधूकसारो वा बीजं चाक्षस्य सैन्धवम् । (व. से. । नेत्ररोगा.) मधुनाऽअनयोगाः स्युश्चत्वारः शुकशान्तये ।। स्फटिकोषणयष्टयाहशङ्खगोदन्तसैन्धवैः। । सोनामक्खी भस्म, महुवेका सार, बहेड़ेकी पिष्टैः सचन्दनैवर्तिः शुक्रन्नी शिग्रुवारिणा ॥ गुठलीकी गिरी और सेंधा नमकमेंसे किसी एकके फिटकरी, काली मिरच, मुलैठी, शंख, गायका चूर्णको शहदमें मिला कर आंखमें लगानेसे शुक्र दांत, सेंधा नमक और लाल चन्दन; इनका चूर्ण | (फूला) नष्ट होता है। इति सकाराबञ्चनमकरणम् For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्यपकरणम् ] पञ्चमो भागः २९९ अथ सकारादिनस्यप्रकरणम् (८११५) सर्वज्वरहरनस्यम् संभालूकी जड़, बिल्लीकी हड्डी, बछनाग और (र. रा. सु. । ज्वरा.) तगर; इनके समान भाग मिश्रित चूर्णको पानीमें शुद्धतुत्थं पलैकं च भावयेज्जालिनीरसैः। पीस कर नस्यादि द्वारा प्रयुक्त करनेसे चूहेका विष शतविंशतिवारं च निम्बुनीरैस्तथैव च ॥ नष्ट होता है। शुष्कं नस्यं प्रदातव्यं सर्वज्वरविनाशनम् । (८११८) सैन्धवादिनस्यम् (१) यस्मिन्नासापुटे दत्तं तदर्धाङ्गज्वरापहम् ॥ (वृ. नि. र. । ज्वरा.) ___शुद्ध नीलेथोथेके चूर्णको बिंडालडोढेके | नीरेण सिन्धुत्थरजोतिमूक्ष्म रस और नींबूके रसकी पृथक् पृथक् १२० भावना नस्येतिनूनं विनिहन्ति हिक्काम् । दें। और सुखा कर सुरक्षित रखें । शुण्ठीहठाबा सितया समेता इसकी नस्य देनेसे समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट | धृमोथवाहिङ्गसमुद्भवश्च ॥ होते हैं। जिस ओरके नासा-विवरमें इसकी नस्य सेंधा नमकको पानीके साथ अत्यन्त बारीक दी जाती है उसी ओरके आधे शरीरका ज्वर उतर | शाकावर तर पीस कर नस्य देनेसे हिचकी अवश्य नष्ट हो जाता है। जाती है। ___ अथवा सेठ और मिश्रीको पीस कर उसकी (८११६) सितोपलादिनस्यम् | नस्य देनेसे या हींगका धूम्रपान करनेसे हिचकी (यो. त.। त. ७३ ; यो. र. । शिरो.) अवश्य नष्ट होती है। सितोपलायुतं घृष्ट मदन गोपयोन्वितम् ।। (८११९) सैन्धवादिनस्यम् (२) नस्यतोऽनुदिने मूर्ये निहन्त्येवार्द्धभेदकम् ॥ (भै. र. । ज्वरा. ; वृ. नि. र. ; वै. र. ; भा. मैनफल और मिश्रीको गोदुग्धमें पीस कर | प्र. म. खं. २ । ज्वरा. ; वृ. यो. त.। त. ५९) प्रातःकाल नस्य देनेसे अर्द्धावभेद ( आधे शिरकी | सैन्धवं श्वेतमरिचं सर्पप कुष्ठमेव च। पीड़ा ) का नाश होता है। | वस्तमूत्रेण सम्पिष्य नस्यं तन्द्रानिवारणम् ॥ (४११७) सिन्दवारादिनस्यम् सेंधा नमक, सहजनेके बीज, सरसों और कूठ (वा. भ. । उ. अ. ३८) इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको बकरीके सिन्दुवारस्य मूलानि बिडालास्थिविषं नतम् । मूत्रके साथ पीस कर नस्य देनेसे तन्द्रा नष्ट हो जलपिष्टोऽगदो हन्ति नस्याबैराखु विषम् ॥ जाती है । इति सकारादिनस्यप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३०० www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः अथ सकारादिरस-प्रकरणम् (८९२०) सङ्कोचगोलरसः ( रसेन्द्र मं. । कुष्टा.) अमृतविषपटलं निम्बपचाङ्गयुक्तं, त्रिफलखदिरसारं व्याधिघातञ्च तुत्थम् । रसपलघनमेकं गुग्गुलोर्भागयुक्तं, जयति विषविस कुष्ठराशि जवेन || शुद्ध बछनाग २ भाग, पटोल, नीमका पञ्चाङ्ग, हर्र, चहेड़ा, आमला, खैरसार, अमलतासकी जड़ की छाल, शुद्ध नीलाथोथा, रससिन्दूर, जटामांसी, अभ्रक भस्म और शुद्ध गूगल १ – १ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर अच्छी तरह खरल करें । इसके सेवन से विष, विसर्प और कुटका नाश होता है। (८१२१) सङ्कोच पिष्टिकारसः ( रसेन्द्र मं. । वाता. ) शुद्ध पारद ४० तोले और शुद्ध ताम्रका बारीक चूर्ण १० तोले ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर खरल करें; यहां तक कि दोनों अच्छी तरह मिल कर पिष्टी हो जाय । तदनन्तर १० तोले शुद्ध गन्धकको १० तोले सरसेकि तेलमें मिलाकर मन्दान पर पकायें | जब गन्धक पिघल जाय तो उसमें उपरोक्त पिष्टी मिला दें और इतनी धीमी आग पर पकाते रहें कि जिससे पारद उड़ न जाए | जब गन्धक समाप्त हो जाए तो अग्निसे नीचे उतार लें और सोंठ, मिर्च, पीपल, बच, नागरमोथा, बायबिडंग, चीता और शुद्ध बछनांग; इनका चूर्ण १ - १ भाग तथा हर्र का चूर्ण ३ भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें और उपरोक्त तैयार शुद्धस्तपलान्यष्टौ शुद्धताम्रपलद्वयम् 1 खल्वे सङ्घष्य यत्नेन कारयेत्पिष्टिकां बुधः ॥ औषधमें यह चूर्ण उसके बराबर मिला कर, शहद के साथ खरल करके आधी या एक एक रत्ती की गोलियां बना लें | मात्रा एक गोलीसे सात गोली तक । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन्धकस्य पले द्वे तु कटुतैलेन पाचयेत् । तन्मध्ये पिष्टिकां पाच्या भिषजा यत्नपूर्वकम् ।। तत उद्धृत्य यत्नेन यथा नोड्डीयते रसः । aat योज्यानि वैद्येन भैषज्यानि शुभानि वै ।। कटुत्रयं वचा मुस्ता विडङ्गं चित्रकं विषम् । समभागानि चैतानि पथ्या च त्रिगुणा विषात् । [ सकारादि मधुना मर्दयित्वा तु गुटिकाः कारयेद्भिषक् । गुआ अर्धमात्रा वा एकैकां भक्षयेद्बुधः ॥ ज्ञात्वा बलाबलं सवं द्वे द्वे वा दापयेद्बुधः । गुटिका सप्तपर्यन्तं यथायोगेन दीयते || सङ्कोचपिष्टिका ह्येषा प्रसूतौ वातनाशिनी । अन्ये ये वातजा रोगा तान् कुष्ठांश्च व्यपोहति।। For Private And Personal Use Only ( व्यवहारिक मात्रा - १ से २ गोली तक । ) इसके सेवन से प्रसूत- बात तथा अन्य समस्त वातज रोग और समस्त कुष्ठोंका नाश होता है । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसप्रकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमी भागः (८१२२) सङ्कोचरस : ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । कुष्ठा. ; रसे. चि. म. । अ. ९ ) मृतताम्राभ्रकं तुल्यं तयोः सूतञ्चतुर्गुणम् । शुद्धं तन्मयेत्खले गोलकं कारयेत्ततः ॥ त्रिभिस्तुल्यं शुद्धगन्धं लौहपात्रे क्षणं पचेत् । तन्मध्ये गोलकं पाच्यं यावज्जीर्णन्तु गन्धकम् ॥ एतन्मृद्वग्रिना तावत्समुद्धत्य विचूर्णयेत् । गुग्गुलुर्निम्बपञ्चाङ्गं त्रिफला चामृता विषम् || पटोलं खादिरं सारं व्याधिधातं समं समम् । चूर्णितं मधुना लेह्यं निष्कमौदुम्बरापहम् ॥ रसः सङ्कोचनामायं कुष्ठे परमदुर्लभः || ताम्र भस्म और अभ्रक भस्म १-१ भाग और शुद्ध पारद ८ भाग ले कर तीनों को एकत्र खरल करें। जब सब चीजें अच्छी तरह मिल जाएं तो सबका एक गोला बना लें । तदनन्तर १० भाग शुद्ध गंधकको कढ़ाई में पिघला कर उसमें वह गोला रख दें और मन्दाग्नि पर पकावें ( गन्धक में आग न लग जाय इस बात का ध्यान रक्खें ) । जब सम्पूर्ण गन्धक जीर्ण हो जाए तो कढ़ाईको अग्निसे नीचे उतार कर ठंडा कर लें और raat are arh बारीक करें | तत्पश्चात् उसमें गूगल, नीमका पंचाङ्ग, हर्र, बहेड़ा, आमला, गिलोय, शुद्ध बछनाग, पटोल, खैरसार और अमलतासकी छाल; इनका एक एक भाग चूर्ण मिला कर अच्छी तरह खरल करके रक्खें । मात्रा - ४ माशे । (व्यवहारिक मात्रा - २ रती । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०१ इसे शहद में मिलाकर सेवन करनेसे उदुम्बर कुष्ठ नष्ट होता है । सङ्ग्रहणीकपाटरसः १५९८ प्र. सं. वृहद् ) " देखिये | " ग्रहणीकपाटरसः (८१२३) सङ्ग्रहणीरसः ( र. का. घे. 1 सङ्ग्रहणी. ) रसं गन्धकं नीलकं ताम्रमभ्रं शिलामाक्षिकं हिङ्गुलं भस्म लोहम् विषं सर्वमेतत्समांशं निदध्यात् क्षिपेद्भस्म शाङ्ख कला भागिकं च ॥ दृढं मईयेत्कज्जलाभं समस्तं ददीतास्य वलं जयाजीरकाभ्याम् । जयाजातिजातीफलाभ्यां प्रयुक्तो जयेत्तक्रयोगात्पयः पानयोगात् ॥ ग्रहण्यानिमान्धं क्षयं गुल्मशूला न्यभिन्यासम्मुख्यान् महावायुरोगान् । स्वकीयानुपानैर्जयेत्सर्वरोगां रिछवावीक्षणं दैत्यवृन्दं यथाऽश्रु ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कान्तलोह भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध मनसिल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध हिङ्गुल, लोह भस्म और शुद्ध बछनाग १ - १ भाग तथा शंख भस्म १६ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके अत्यन्त बारीक करें। मात्रा ३ रत्ती । For Private And Personal Use Only इसे भांग और जीरे चूर्णके साथ, या भांग, जावत्री और जायफलके चूर्णके साथ सेवन कराने Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि और रोगीको तक्र या दूध पर रखनेसे संग्रहणी, शूल, हल्लास और अर्शका भी नाश होता है। अग्निमांद्य, क्षय, गुल्म, शूल, अभिन्यास और वात- यह रस वृष्य, बलदायक, रसायन और अत्यन्त व्याधि आदि रोगोंका नाश होता है। रोगोचित धातुवर्द्धक है । अनुपानके साथ देनेसे यह रस उपरोक्त समस्त (८१२५) सज्जीवनीवटी रोगोंको शीघ्रही नष्ट कर देता है । ( यो. त. । त. २४ ; वृ. यो. त. । त. ७१ वै. (८१२४) सञ्जीवनाभ्रम् र. । अग्निमांद्या. ; शा. सं.। खं, २ अ.७; (र. रा. सु. । ज्वरा.) यो. र. । अजीर्णा. ; यो. चि. म. । अ. ३) वजाभ्रं मारितं कृत्वा कर्षमान सचर्णितम विडङ्गं नागरं कृष्णा पथ्यामलविभीतकम् । जीरकं कानकं बीजं कर्ष वासारसेन च ।।। वचा गुडूची भल्लातं सविषं चात्र योजयेत् ॥ कण्टकारिरसेनैव धात्रीमुस्तारसेन च। एतानि समभागानि गोमूत्रेणैव पेषयेत। गुडूची स्वरसेनैव पलांशेन पृथक पृथक् ॥ | गुनाभा गुटिका कार्या दद्यादाईकनै रसः॥ मयित्वा वटी कार्या गुआमात्रा नियोजिता । तिमश्च सर्पदष्टे तु चतस्रः सानिपातिके ॥ एकामजीर्णगुल्मेषु द्वे विषूच्यां प्रदापयेत् । विषमाख्यान ज्वरान्सर्वान् प्लीहानं यकृतं वटी सञ्जीवनी नाम्ना सजीवयति मानवम् ।। वमिम् ॥ ___बायबिडंग, सांठ, पीपल, हर, आमला, रक्तपित्तं वातरक्तं ग्रहणों श्वासकासको। | बहेड़ा, वच, गिलोय, भिलावा और शुद्ध बछनाग; अरुचिं शूलहल्लासावीसि च विनाशयेत् ।। इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको गोमूत्रके जीवनानन्दमे वेदमभ्रं वृष्यं बलप्रदम् । साथ एकत्र खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां रसायनवरं श्रेष्ठं धातुसम्बर्द्धनं परम् ॥ बना लें। वज्राभ्रक भस्म ११ तोला, जीरेका चूर्ण १। इनमेंसे अजीर्ण और गुल्ममें १ गोली, तोला और धतूरेके बीजोंका चूर्ण १। तोला ले कर विसूचिकामें २ गोली, सर्प दंशमें ३ गोली और सबको एकत्र मिला कर बासा (अडूसा), कटेली, सन्निपातमें ४ गोलो देनी चाहिये । आमला, नागरमोथा और गिलोयके ५-५ तोले अनुपान-अदरकका रस । स्वरसमें पृथक् पृथक् खरल करें और १-१ । ये गोलियां उक्त रोगांसे मृत्प्रायः रोगीको रत्तीकी गोलियां बना लें। | भी जिला देती हैं। यह वटी समस्त प्रकारके विषम ज्वरोंको नष्ट नोट-प्रथम भिलावेको गोमूत्रमें घोट कर करती है तथा इसके सेवनसे प्लीहा, यकृत् , वमन, कणरहित कर लेना चाहिये और फिर उसमें अन्य रक्तपित्त, वातरक्त, संग्रहणी, श्वास, कास, अरुचि, ओषधियां मिलानी चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः (८१२६) सञ्जीवनो रसः (१) फल, लोह भस्म, हंसपादी और कंकुष्ट १-१ भाग (र. रा. सु. । ज्वरा.) ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सब रसेन गन्धं द्विगुणं विमर्थ को ३ दिन अदरकके रसमें खरल करें और फिर रसप्रमाणानि भवन्त्यमृनि । कपडमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर कर शिलानलव्योषविपाभ्रकाणि उसमें ४५ तोले जम्बीरी नीबूका रस, संभालुका भृङ्गं विषं माक्षिकतन्दुलीयाः ।। रस और जयन्तीका रस (हरेकका रस १५ तोले) कुम्भीभमुण्डीमृततालकश्च । एवं ५ तोले चूकेका रस भर कर उसके मुखको सताम्रशाकोयमरालपादः । बन्द कर दें और उसे बालुका यन्त्रमें रख कर १४ कष्ठकं चेति दिनत्रयं तदा दिन पाक करें। ___ह्यााम्बुना सर्वमथो विमर्यः॥ निवेश्य कूप्यां रसमत्र देयो तदनन्तर शीशीके स्वांगशीतल होने पर जम्बीरनिर्गुण्डिजयाभिधानां।। उसमेंसे औषधको निकाल कर उसे अदरकके रसमें नवप्रमाणानि रसः पलानि खरल करके सुखा कर सुरक्षित रखें। चाङ्गेरिकायाः स्वरसः पलैकम् ॥ मात्रा-२ रत्ती। ततः सुबध्वा सिकताख्ययन्त्रे अनुपान-अदरकका रस । चर्तुदशाहानि पचेत्सुशीते । तद्भावयेदाकजेन सूतो यह रस सन्निपात ज्वर में विशेष उपयोगी है। ___ मृताख्य सञ्जीवन इत्यपूर्वः ॥ इस पर पथ्यादि “प्राणेश रस" के समान वल्लोस्य सर्वान् जयति प्रयुक्तो देना चाहिये। गदान् सदाद्रवयुक्मभावान् । ___ (८१२७) सञ्जीवनो रसः (२) प्राणेशवत्सर्वमिह प्रयोज्यं ह्ययं त्रिदोषे सविशेष वीर्यः।। (र. रा. सु. । प्रमेहा. ; र. र. स. । उ. अ. १७) शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग | पलमा पलमात्र रस शुद्धं वरनागसमन्वितम् । और शुद्ध मनसिल, चौतामूलका चूर्ण, सांठ, मिर्च निक्षिप्य पातनायन्त्रे त्रिंशद्वाराणि पातयेत् ॥ और पीपलका चूर्ण, शुद्ध बछनागका चूर्ण, अभ्रक समाहरेद्रसं सम्यक पातनायन्त्रके मृतम् । भस्म, दालचीनी, शुद्ध संखिया, स्वर्णमाक्षिक- मृत रसं क्षिपेत्तुल्यं भूपालावर्तभस्मकम् ॥ भस्म, चौलाई की जड़, शुद्ध जमालगोटा, नागकेसर, निरुत्थं त्रपुभस्मापि निक्षिपेदष्टमांशतः । गोरखमुण्डी, हरताल भस्म, ताम्र भस्म, सागोनका ततो निम्बदलद्रावैस्त्रिंशद्वारं हि भावयेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि ततः संशोष्य सञ्चूर्ण्य क्षिपेद्वरकरण्डके। शुद्ध पारद १ भाग, शुद् गन्धक २ भाग, सञ्जीवनोयं खलु वल्लमानो निशाकुलीचूर्णयुतः अभ्रक भस्म १ भाग तथा जवाखार, सज्जीखार, सतक्रः॥ सुहाला, जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, निहन्ति सर्वानपि मेहरोगान् आमला और पांचों नमक; इनका चूर्ण १-१ नृणां नितान्तं कुरुते क्षुधां च ॥ भाग ले कर प्रथम पारे--गन्धककी कज्जली बनावें ५ तोले शुद्ध सीसेको पिघला कर उसमें ५ | और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको तोले पारद मिलावें और फिर उसे ऊर्ध्वपातन १ दिन चीतामूलके काथमें खरल करके ५-५ यन्त्रमें ३० बार पातन करें । तदनन्तर उसकी | रत्तीको गोलियां बना लें। भस्म बनावें । फिर उसमें उसके बराबर राजावर्त यह रस सन्धिक सन्निपातको नष्ट करता है। भस्म और उसका आठवां भाग सीसेकी निरुत्थ भस्म मिला कर नीमके पत्तोंके रसकी ३० भावना (८१२९) सन्धिवातारिगुटिका दें और अन्तमें सुखा कर चूर्ण करके सुरक्षित (र. चं. । शूला.) रक्खें । दुग्धेन वटिका कार्या बोलहिङ्गलगुग्गुलैः । मात्रा-२ रत्ती। हरेद्वातव्यथां सवी सन्धिवातं च दुःसहम ॥ इसे हल्दी और चवके चूर्णके साथ मिलाकर बोल, शुद्ध हिंगुल और शुद्ध गूगल समान तक्रके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रमेह रोग नष्ट भाग ले कर सबको दूधके साथ खरल करके (३-३ होते और अत्यन्त क्षुधावृद्धि होती है । रत्तीकी) गोलियां बना लें। सज्ञाप्रबोधनरसः इनके सेवनसे समस्त वातव्याधियों और कष्ट. (र. सं. क. । उल्ला. ५) साध्य सन्धिवातका नाश होता है । अञ्जनप्रकरणमें देखिये। (८१३०) सन्निपातकुठाररसः (८१२८) सन्धिकारिरसः ( र. र. स.। उ. अ. १२ ; र. चं. । ज्वरा. ) (सन्धिगारीग्सः ) (वृ. नि. र. ; र. रा. सु. । सन्निपाता. ; वजनागं च सूतं च नेपालं गन्धकं तथा । र. का. धे. । ज्वरा.) शुल्वं विषं समांशेन रसेनाइँण मर्दयेत् ॥ शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं मारितं चाभ्रकं समम् । पुनमर्धेत निर्गुण्डथाश्चाङ्गेर्या रसमर्दितः । त्रिक्षारं जीरकं व्योषं त्रिफला लवणैः समम्।। | एकवल्लपयोगेण रसोऽयं सन्निपातनुत । चित्रकस्य कषायेण दिनैकं मर्दयेद् दृढम् ।। १ पाठान्तरके अनुसार गन्धक समान पञ्चगुअमिदं खादेत्सन्धिकारिरसः स्मृतः॥ | भाग है। For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org रसप्रकरणम् ] बंग भस्म, सीसा भस्म, शुद्ध पारद, ताम्रभस्म, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म और शुद्ध बछनाका चूर्ण समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको क्रमशः अदरक, संभालु और चांगेरीके रसकी १-१ भावना दे कर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें । ये गोलियां सन्निपात ज्वरको नष्ट करती हैं । (८१३१) सन्निपातकुष्ठहररसः ( र. र. स. । उ. अ. २० ) तीक्ष्णा भ्रमसङ्कोचस्तै लगन्धकपाचितः । ताळताप्यविशालाग्निबोलपाठाजटा विषैः शृङ्गीटङ्कणयष्टयाह सिन्दुवारैः समन्वितः । रसेन शृङ्गवेरस्य बद्धो बदरसन्निभः || छायाविशोषितः कुष्ठं निहन्यात्सनिपातनम् ॥ पञ्चमी भागः तीक्ष्ण लोह भस्म, अभ्रक भस्म, स्वर्ण भस्म, केसर, कड़वे तेलमें पकाकर शुद्ध किया हुवा गन्धक, हरताल भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, इन्द्रायणकी जड़ का चूर्ण, चीतामूलका चूर्ण, बोलका चूर्ण, पाठामूलका चूर्ण, शुद्ध बछनाग, काकड़ासिंगोका चूर्ण, सुहागेकी खील तथा मुलैठी और संभालु की जड़ का चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर अदरक के रसमें खरल करके छोटे बेरके समान गोलियां बना कर छाया में सुखा लें। 34 इनके सेवन से सन्निपातज कुष्ठ नष्ट होता है ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०५ (८१३२) सन्निपातगजाङ्कुशः (र. रा. सु. । ज्वरा. ; र. र. ; र. का. . । सन्निपाता.) मृतं मृतं मृतं चाभ्रं शुद्धतालकमाक्षिके । हिङ्गुलं तुल्यतुल्यं स्यात्मर्दयेत्खल्व के द्रवैः ॥ वन्ध्यापटोल निर्गुण्डी सुगन्धानिम्बचित्रकैः । धत्तूर लाङ्गलीपाठाभृङ्गी जम्बीरजैद्रवैः ॥ त्रिदिनं मर्दयेदेभिश्चूर्ण कृत्वा विमिश्रयेत् । त्रिक्षारं सैन्धवं व्योषं विषं मधूकसारकम् ॥ तुल्यं तुल्यं विचूर्याथ पूर्वोक्तं च रसं समम् एकीकृत्य भवेत्सिद्धं सन्निपातगजाङ्कुशम् ॥ सन्निपातं निहन्त्याशु भाषमात्रं प्रयोजयेत् ॥ पारद भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध हरताल, स्वर्ण - माक्षिक भस्म और शुद्ध हिंगुल १-१ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके बांझककोड़ा, पटोल, संभालु, तुलसी, नीम, चीतामूल, धतूरा, कलियारी, पाठा, मंगरा और जम्बीरी नीबू; इनके स्वरस या काथमें ३-३ दिन खरल करें। तदनन्तर जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, सेंधा नमक, सेठ, मिर्च, पीपल, शुद्र बछनाग और महुवेके वृक्षका सार समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलावें और उपरोक्त रसमें यह चूर्ण उसके बराबरे मिला कर अच्छी तरह खरल करें । * For Private And Personal Use Only * पाठान्तर. र. का. धे. में हिंगुलकी जगह हींग है और त्रिकुटेका अभाव है । र. र. में माक्षिकस्थानमें ताम्र, हिंगुलके स्थानमें हींग और " सुगन्धानिम्बचित्रकैः " के स्थानमें “ शुण्ठिगन्धालिचित्रकैः " एवं त्रिकुटेके स्थानमें ' बोल ' है । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि वा मात्रा-१ माशा। ( व्यवहारिक मात्रा- सन्निपाततूलानलरसः २ रत्ती ।) (र. रा. सु. ; र. चं. । ज्वरा. ; रसे. चि. यह रस सन्निपातको शीघ्र ही नष्ट कर | म. । अ. ९) देता है। " सन्निपातोन्मूलनरसः " देखिये । (८१३३) सन्निपातगजाङ्कुशरसः पाठान्तरके अनुसार सेंधा नमकका अभाव है। (र. र. स. । उ. अ. १२) (८१३४) सन्निपातभैरवो रसः (१) रसगन्धकताम्राभं लागली वह्निरामठम् । ( भै. र. , र. रा. सु. । ज्वरा.) वन्ध्यापटोलनिर्गुण्डी सुगन्धा निम्बपल्लवाः ॥ हिडलस्य विशुद्धस्य साईतोलचतुष्टयम् । पाठाक्षारत्रयं क्ष्वेडबोलधत्तूरतन्दुलैः। गन्धकस्य विषस्यापि प्रत्येकं तोलकद्वयम् ॥ शृङ्गी मधुकसारं च जम्बीराम्लेन मर्दयेत् ॥ | समाषकछयश्चैव कनकात्तोलकत्रयम् । कुर्याद्धि निष्कमानेन वटिका सा नियच्छति। माफकाधिकतोलैक टङ्गणस्य तथैव च ॥ सस्वेददाहाभिन्यासं सन्निपातगजानुशः ॥ | सम्मर्य जम्बीररसैबटीश्छायाविशोषिताः । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, अभ्रक गुञ्जैकपरिमाणास्तु कारयेत् कुशलो भिषक् ।। भस्म, कलियारीकी जड़, चीतामूल, हींग, बांझ- | एकान्तु भक्षयेत्तस्य गोलयित्वाकद्रवैः । ककोड़ेकी जड़, पटोल, संभालुकी जड़, तुलसी, घोरे त्रिदोषे दातव्यः सन्निपातज्वरापहः ॥ नीमके पत्ते, पाठा, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, शुद्ध बछनाग, हीराबोल, धतूरा, चौलाई की जड़, शुद्ध हिंगुल (शिंगरफ) ४॥ तोले, शुद्ध काकड़ासिंगी और महुवेके वृक्षका सार ( या गन्धक २ तोले, शुद्ध बछनाग २ तोले, धतूरेके मुलैठीका सत ) समान भाग ले कर सबको एकत्र शुद्ध बीज ३ तोले २ माशे और सुहागेकी खील मिला कर जम्बीरी नीबूके रसमें खरल करें और २ तोला १ माशा ले कर सबको एकत्र मिलाकर ४-४ माशेकी गोलियां बना लें। जम्बीरी नीबूके रस में खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें और छायामें सुखा कर सुरयह रस अत्यधिक स्वेद और दाहयुक्त अभि- क्षित रखें। न्यास सन्निपातको नष्ट करता है। इनमेंसे १-१ गोली अदरकके रसमें मिला( व्यवहारिक मात्रा-१ माशा ।) कर देनेसे घोर सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् । पञ्चमो भाग: ३०७ (८१३५) सन्निपातभैरवो रसः (२). रसतुल्यं प्रदातव्यं दत्त्वा तोयं चतुर्गुणम् । (र. रा. सु. ; भै. र. । ज्वरा.) | शिष्टैकगुणतोयेन भावनाविधिरिष्यते ॥ पारदं गन्धकं तालं वत्सनाभं त्रिभिः समम् । भावनायां भावनायां शोषणं मुहुरिष्यते । दारुमूषञ्च गरलं सर्वश्च समहिङ्गलम् ॥ ततच वटिकां कृत्वा भैरवाय बलिं ददेत् ।। सर्षपाभाश्च वटिकां कारयेत् कुशलो भिषक् । ! रसोऽयं श्रीसन्निपातभैरवो ज्वरनाशनः । सन्निपाते क्टीमेकामाद्रावैः प्रदापयेत ॥ सर्वोपद्रवसंयुक्तं ज्वरं इन्ति न संशयः ॥ रसो महाप्रभावोऽयं सन्निपातस्य भैरवः ॥ सन्निपातज्वरं हन्ति जीर्णश्च विषमं तथा । ऐकाहिकं द्वयाहिकञ्च चातुर्थकमपि ध्रुवम् ।। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और शुद्ध हरताल १-१ भाग, शुद्ध बछनाग ३ भाग; संखिया ३ ज्वरश्च जलदोषोत्थं सर्वदोषसमाकुलम् । भाग, कृष्ण सर्पका विष ३ भाग और शुद्ध हिंगुल भैरवस्य प्रसादन जगदानन्दकन्थडो॥ १२ भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर पानीके शुद्र पारद, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक साथ खरल करके सरसेकेि समान गोलियां शुद्ध हरताल, हर्र, बहेड़ा, आमला, शुद्ध जमाल. बना लें। गोटा, निसोत, स्वर्ण-भस्म, तान-भस्म, सीसाइनमेंसे १-१ गोली अदरकके रसके साथ भरम, अन्नक-भस्म, लाह-भस्म, आकका दूध, देनेसे सन्निपात ज्वर नष्ट होता है । सन्निपात लांगली (कलियारी) की जड़ और स्वर्णमाक्षिकज्वरके लिये यह रस महा प्रभावशाली है। | भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। तदनन्तर आककी जड़, अतीस, गोरख(८१३६) सन्निपातभैरवो रसः (३) । मुण्डो, सूरजमुखी, काला जीरा, काकजंघा, ___ (भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा.) अरलुकी छाल, कूठ, सोंठ, मिर्च, पीपल, कण्टाई, रसं विषं गन्धकश्च हरितालं फलत्रयम् । सूर्यमणि, चन्दन, संभालुको जड़, धतूरा, दन्ती मूल और पीपल; ये अठारह ओषधियां समान भाग जयपालं त्रिकृत्स्वर्ण ताम्रसीसाभ्रलौहकम् ॥ ले कर सबको एकत्र कूट लें और फिर यह चूर्ण अक्षीरं लागली च स्वर्णमाक्षिकमेव च । उपरोक्त पारदादिके मिश्रणके बराबर ले कर आठ समं कृत्वा रसेनैषां त्रिंशद्वारश्च मर्दयेत् ॥ गुने पानीमें पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर अर्कतालम्बुषा च सूर्यकान्तश्च कारवी । छान लें । तत्पश्चात् उपरोक्त पारदादिके मिश्रणमें काकजङ्घा शोणकश्च कुष्ठं व्योपं विकङ्कतम् ॥ यह काथ मिला कर अच्छी तरह खरल करें और सूर्यमणिश्चन्द्रकान्तो निर्गुण्डीशजटापि च। धूपमें सुखा लें । इसी प्रकार इन अठारह ओषधिधुस्तूरं दन्तो पिप्पल्यो दशाष्टाङ्गमिदं शुभम् ॥ योंके क्याथको ३० भावना दें। हर बार नवीन For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि क्वाथ बनाना और धूपमें सुखाना चाहिये । ३० आई भर बीजपूरं जयन्त्या भावना देनेके पश्चात् ( १-१ रत्तीकी ) गोलियां निर्गुण्डीकाहाराजद्रवैश्च ।। बना कर सुरक्षित रक्खें । युक्त्या वैधैर्भावयित्वा विधेयः इन्हें सेवन करनेसे पूर्व भैरवको बलि देनी | शाणार्धाधं सन्निपातस्य नूनम् । चाहिये। शीतैर्वा निर्मलं स्नानपानं पथ्यं दुग्धं शर्कराभिर्युतं च ।। इनके सेवनसे सर्व उपद्रव-युक्त सन्निपात | ज्वर, जीर्ण ज्वर, विषम ज्वर, एकाहिक ज्वर, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और मण्डूर-भस्म द्वयाहिक ज्वर, चातुर्थिक ज्वर ,और जलदोषज ज्वर | १-१ भाग तथा शुद्ध बछनाग ३ भाग ले कर आदि समस्त ज्वरोंका नाश होता है । प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें मण्डूर तथा बछनागका चूर्ण मिला कर (८१३७) सन्निपातभैरवो रमः (४) । सबको अदरकके रस, दालचीनीके काथ तथा - (रं. चं. । ज्वरा.) बिजौ रे, जयन्ती, संभाल और भंगरेके रसकी विषं गन्धं ताम्रभस्म सोमलं च समांशकम् ।। एक एक भावना दे कर १-१ माशेकी गोलियां बना लें। पारदं सर्वतुल्यं स्यात्कृत्वा खल्वे तु कज्जलीम्॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती।). निर्गुण्डीसुरसाद्रावैर्भावयित्वाऽऽकद्रवैः।। । इनके सेवनसे सन्निपात ज्वर अवश्य नष्ट हो तिलमात्रा वटी देया सन्निपातादिरोगजित् ।। जाता है। शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म और (इसे खानेके पश्चात् यदि अधिक दाह हो शुद्ध संखिया १-१ भाग तथा शुद्ध पारद ४ भाग तो) रोगीको शीतल पवन करनी चाहिये तथा ले कर सबको एकत्र खरल करके संभाल, तुलसी शीतल जलसे स्नान कराना चाहिये। और अदरेकके रसकी १-१ भावना दे कर तिलके । पथ्य-दूध और मिश्री युक्त योग्य आहार समान छोटी छोटी गोलियां बना लें। देना चाहिये। (मात्रा-१ गोली।) । (८१३९)सन्निपातभरवो रसः (६) यह रस सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है। (शा. सं. । खं. २ अ. १२, यो. र. ; र. का. (८१३८) सन्निपातभैरवो रसः (५) धे. । ज्वरा. ; र. प्र. सु. । अ. ८) ( यो. र. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) | रसो गन्धस्त्रिकर्षः स्यात् कुर्यात्कज्जलिका तयोः। सूतं गन्धं लोहकिटं विमर्च ताराभ्रताम्रवाहिसाराश्चैकैककार्षिकाः ॥ सर्वैस्तुल्यं क्त्सनाभं नियुज्यात् । १ "तारास्ताम्र" इति पाठान्तरम् .. . For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः शिग्रुज्वालामुखीशुण्ठीबिल्वेभ्यस्तण्डुलीयकात् । गोलेको नमकसे ढकदें । तदनन्तर इस शोशीको प्रत्येकं स्वरसैः कुर्याद्यामकैकं विमर्दनम् ॥ बालकायन्त्रमें रखकर २ पहर पाक करें और कृत्वा गोलं वृतं वस्त्रे लवणापूरिते न्यसेत् । फिर शीशीके ठण्डा होने पर उसमें से औषधको काचभाण्डे ततः स्थाल्यां काचकूपी निवेशयेत ॥ निकाल कर चूर्ण कर लें और उसमें १। तोला मूंगेकी भस्म तथा ५ माशे शुद्ध बछनागका चूर्ण वालुकाभिः प्रपूर्याय वहिर्यामद्वयं भवेत् । मिलाकर काले सांपके विषकी २ भावना दें। तत उद्धृत्य तं गोलं चूर्णयित्वा चिमिश्रयेत् ।। तत्पश्चात् तगर, मूसली, जटामांसी, चोक, अम्ल. प्रवालचूर्णकर्षेण शाणमात्रविषेण च । बेत, पीपल, नीलका पञ्चाङ्ग, तेजपात, इलायची, कृष्णसर्पस्य गरलैद्विवेलं भावयेत्तथा ॥ चीता, बनतुलसी, सोया, देवदाली ( बिंडाल ), तगरं मुशली मांसी हेमाहा वेतसः कणा।। धतूरा, अगथिया, गोरखमुण्डी, महुवा, चमेली और मीलिनी पत्रकं चैला चित्रकश्च कुठेरकः॥ मैनफल; इनके स्वरस या काथ की १-१ भावना शतपुष्पा देवदाली धत्तूरागस्त्यमुण्डिकाः । देकर सुखाकर सुरक्षित रक्खें। मधूकजातीमदनरसैरेषां विमर्दयेत् ।। मात्रा-२ रत्ती । (व्यवहारिक मात्रा आधी रत्ती) प्रत्येकमेकवेलं च ततः संशोष्य धारयेत । . अनुपान-अदरक और बिजौ रका (१-१ बीजपूराईकद्रावैर्मरिचैः षोडशोन्मितः॥ ला ) रस तथा १६ काली मिचोंका चूर्ण एकत्र रसो द्विगुआममितः सन्निपातेषु दीयते । । मिलाकर उसमें उपराक्त रस मिलाकर पीना चाहिये। प्रसिद्धोऽयं रसो नाम्ना सनिपातस्य भैरवः ।। यह रस सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है। यह सन्निपातकी एक प्रसिद्ध औषध है। ___ शुद्ध पारद और गंधक ३॥-३॥ तोले (८१४०) सन्निपातवडवानलरसः तथा चाँदी-भस्म, अभ्रक-भस्म, ताम्र-भस्म, | बंग-भस्म, नाग--भस्म और लोह-भस्म ११-१। (र. चं. । ज्वरा. ; रसे. सा. सं. । ज्वरा.) तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें रसाष्टकोऽमृतं सप्त स्यात् षट् षट् गन्धतालयोः। और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको दन्तीबीजानि षड्भागाः पञ्चभागं तु टङ्कणम् ॥ सहजना, हुलहुल, सांठ, बेलछाल और चौलाई चत्वारि धृतबीजस्य व्योषस्य त्रितय भवेत् । पर इनके स्वरस ( अभावमें काथ ) में १-१ प्रहर एतानि वामूलस्य काथन पारमदयत् ।। खरल करें । तदनन्तर सबका एक गोला बनाकर | आद्रेकस्य रसेनाऽथ देयं गुजाद्वयं हितम् । उसे कपड़े में लपेट लें और कांचकी आतशीशीशीमें । वडवानलसञोऽयं सनिपातहरः परः॥ सेंधा नमक का चूर्ण डालकर उसमें वह गोला डाल | शुद्ध पारद आठ भाग, शुद्ध वछनाग सात दें तथा ऊपरसे भी सेंधा नमक का चूर्ण डोलकर भाग, शुद्ध गंधक और हरताल ६-६ भाग, शुद्ध For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ३१० जमालगोटा ६ भाग, सुहागे की खील ५ भाग, धतूरेकें शुद्ध बीज ४ भाग और सेठ, मिर्च तथा पीपलका चूर्ण ३ - ३ भाग लेकर प्रथम पारे - गन्धक की कज्जली बनायें और फिर उसमें अन्य औष भारत- भैषज्य का चूर्ण मिलाकर सबको चीतामूलके कायमें खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें I इन्हें अदरक के रसके साथ देनेसे सन्निपात वर नष्ट होता है। (र. रा. सु. । सन्निपाता. ; सन्निपाता. ) (८१४१) सन्निपातविध्वंसकः र. र. र. का. घे. । X र. का. घे. में " बोल " की जगह कमीला और पाठा की जगह कचूर है । - रत्नाकरः [ सकारादि खार, सुहागा, बच, हींग, पाठा, काकड़सिंगी, पटोल, बांझककोड़ेकी जड़, तीन प्रकारका नीम ( कड़वा नीम, बकायन, मीठा नीम; इनकी छाल), सोंठ और कलिहारीकी जड़ समान भाग ले कर प्रथम पारे, गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको १- १ दिन संभाल और जम्बीरीके रसमें खरल करके चने के समान गोलियां बना लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्हें खिलानेसे उपद्रव युक्त अत्युग्र सन्निपात भी अवश्य नष्ट हो जाता है । A अनुपान - दशमूलका काथ या आककी जड़का काथ ! सूतं गन्धं समं शुद्धं तालकं माक्षिकं तथा । मृत ताम्राभ्रकं बोलं विषं धत्तूरबीजकम् ॥ क्षारत्रयं वच्चा हिङ्गु पाठा शृङ्गी पटोलकप । वन्ध्यानिम्बत्रयं शुण्ठी कन्दलाङ्गलीजं समम् ।। सिन्धुवारद्रवैर्म सर्व जम्बीर जैदेवैः । हिङ्गुलं गन्धकं ताम्रं मरिचं पिप्पली विषम् । शुण्ठीकनकवीजं च श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥ दिनैकं वटिका कार्या चणकाभां च भक्षयेत् ॥ विजयापत्रतोयेन त्रिदिनं भावयेत्सुधीः । अत्युग्रं सन्निपातन्तु सर्वोपद्रवसंयुतम् । निहन्यादनुपानेन दशमूलार्कजेन वा ।। कषायेण न सन्देह पथ्यं दध्योदनं हितम् । रसो विध्वंसको नाम सन्निपातस्य निश्चितम् || शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, स्वर्ण माक्षिक भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, बोल, शुद्ध वछनाग, धतूरे के शुद्ध बीज, जवाखार, सज्जी द्विगुञ्ज पर्णखण्डेन अर्कक्वाथं पिबेदनु || निहन्ति सन्निपातोत्थान् गदान् घोरान् सुदारुणान् । वातिकं पैत्तिकं चैव श्लैष्मिकं च विशेषतः ॥ पथ्य - दही भात | (८१४२) सन्निपातसू रसः ( र. रा. सु.; भै. र. । सन्निपाता. ) शुद्ध हिंगुल, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, काली मिर्चका चूर्ण, पीपलका चूर्ण, शुद्ध बंछनाग, सोंठका १ पाठान्तर के अनुसार बच और काकड़ासिंगीके स्थानमें अर्कपत्र तथा निम्बत्रयके स्थान में भृङ्गराजका रस है । For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः चूर्ण और धतूरेके बीजोंका चूर्ण समान भाग ले (८१४४) सन्निपातान्तकरसः (१) कर सबको एकत्र खरल करके ३ दिन भांगके (र. रा. सु..। सन्निपाता.) पत्तोंके रसमें खरल करके सुखा लें। मात्रा-२ रत्ती । मृत सूतं समं गन्धं दरदं शुद्धखर्परम् । .. इसे पानमें रख कर खिलाना और ऊपरसे | रसस्य द्विगुणौ देयौ मृतताम्राम्लवेतसौ ॥ आकको जड़का काथ पिलाना चाहिये । जम्बीरोत्थैवैमर्थ भूधरे पाचयेल्लघु ।, | हिङ्गुत्रिकटुकपूरं पश्चैतानि समं समम् ॥ यह सन्निपात और उससे उत्पन्न होने वाले वातज, पित्तज तथा विशेषतः कफज विकारोंको पूर्वस्यैतत्समं चूर्णमाकस्य द्रवैः सह । नष्ट करता है। महाराष्ट्री च निर्गुण्डी जयन्ती पिप्पली द्वयम्॥ शृङ्गराजद्रवैर्भाव्यं प्रत्येकं भावना पृथक् । (८१४३) सन्निपातहररसः दातव्यं तच्चतुर्गुञ्जमादकस्य द्रवैः सह ॥ . ( रसे. सा. सं. । सन्निपाता.) सन्निपातं निहन्त्याशु सन्निपातान्तको रसः॥ शुद्धं सूतं टङ्कणं वै मरीचं पारद भस्म, शुद्ध गन्धक , शुद्ध हिंगुल और व्योषं तद्वद्धस्तिनः पिप्पली च। शुद्ध खपरिया १-१ भाग तथा ताम्र भस्म और सर्व तुल्यं धर्तनीरैः प्रपेष्य अम्लवेतका चूर्ण २-२ भाग लेकर सबको एकत्र व्योपक्षोदैरकनारैर्द्विगुअम् ॥ | मिलाकर जम्बोरी नीबूके रसमें खरल करके भूधरशुद्ध पारा (रससिन्दूर), सुहागेकी खील, | पुटमें हल्की आंच दे कर पका। तदनन्तर उसके काली मिर्च का चूर्ण, सेठ, काली मिर्च, पीपल और स्वांगशीतल होने पर उसमें से औषधको निकालगजपीपलका चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको वो कर खरल करलें और फिर हींग, सोंठ, मिर्च, एकत्र मिला कर धतूरेके रसमें खरल करके सुखा लें। पीपल और कपूर; इनके समान भाग चूर्णको एकत्र मिलालें और यह मिश्रण उपरोक्त तैयार रसके इसे त्रिकुटेके (१ माशा) चूर्ण और आककी बराबर लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर अदरक, जड़के क्वाथके साथ सेवन कराने से सन्निपात ज्वर महाराष्टी (जलपीपल ), संभाल, जयन्ती, पीपल, नष्ट होता है। गजपीपल और भंगरे के रसको पृथक् पृथक् १-१ मात्रा-२ रत्ती । भावना दें। सन्निपाताञ्जनरसः मात्रा-४ रत्ती। (र. प्र. सु. । अ. ८) इसे अदरकके रसके साथ देने से सन्निपातका अञ्जनप्रकरणमें देखिये । | शीघ्र ही नाश हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ सकारादि (८१४५) सन्निपातान्तकरसः (२) । (८१४६)सन्निपातारि रसः (र. का. धे. । सन्निपाता.) (वृ. यो. त. । त. ५९) मृतकान्ताभ्रवक्रान्तं ताप्यं नालं समं समम् । मछितश्च रसो मोभयवानरमत्रतः॥ भागौ पारदगन्धयोरमलयोर्देयास्त्रयस्यूपणाराजक्षफलव्योषकुष्माण्डरसपिण्डितः। देकश्चोज्ज्वलटङ्कणादहनतस्तीबोत्तमाभृङ्गतः । अभिन्यासज्वरं हन्यात्क्षौर्षिकभक्षणात् ।। नागाद्वै चरणोऽहिफेनत इदं स चूर्ण्य भृङ्गद्रवे कान्ताभावे मृतं तीक्ष्णं सन्निपातान्तको रसः॥ स्थाप्यंसप्त दिनान्यथैकमखिलं ज़ेपालनीरेऽपि च ___ कान्तलोह भस्म, अभ्रक भस्म, वैक्रान्त- रुद्रेण ज्वरमर्दितं जगदिदं दृष्ट्वा रसो निर्मितः भस्म, स्वर्णमाक्षिक-भस्म, शुद्ध हरताल और सेव्यो वल्लमितः क्षणादिह नृणामुग्रां ज्वराति मूछित पारद ( रससिन्दूर ) समान भाग लेकर जयेत् । सबको एकत्र मिलाकर खसके काथ, बन्दरके मूत्र, सन्तापे शिशिरो विधिः समुदितः पथ्ये न अमलतासके फलके गूदेके पानी, त्रिकुटेके काथ शाल्योदनम् और पेठे (भूरे कुम्हड़े ) के रसकी पृथक् पृथक् | दना शर्करयाऽथ दोषवशतो देश सात्म्येन च ॥ १-१ भावना देकर १-१ माशेकी गोलियां शुद्ध पारद और गन्धक २-२ भाग, सेट, बना लें। मिर्च और पीपलका चूर्ण १-१ भाग, सुहागेकी (व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती । ) खील १ भाग, तथा चीतामूलका चूर्ण, तीक्ष्ण लोह इसे शहदके साथ देनेसे अभिन्यास सन्निपात भस्म, शुद्ध मनसिल और भंगरेका चूर्ण १-१ नष्ट होता है। भाग एवं सीसा-भस्म और अफीम चौथाई चौथाई नोट-यदि कान्तलोह-भस्म न हो तो तीक्ष्ण भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें लोहभस्म डालनी चाहिये। और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सन्निपातानलरसः । सबको भंगरेके रसमें डाल दें और सात दिन तक .. (र. रा. सु.। सन्निपाता.) भीगो रक्खें तदनन्तर सुखा कर एक दिन जमालसन्निपातान्तक रस प्र. सं. ८१४४ देखिये। गोटेके पानी ( दन्तीमूलके काथ ) की भावना दें उससे इसमें इतना अन्तर है । और २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें । (१) खपरिया और हिंगुल २-२ भाग तथा अम्लबेत १ भाग है। ____ भगवान रुद्रने संसारको ज्वराक्रान्त देख (२) जयन्ती, पीपल, गजपीपल और भंग- कर इस रसकी रचना की थी। रेके स्थानमें केवल करवीरकी भावना है। इसके प्रभावसे तीब्र ज्वर भी शीघ ही नष्ट हो (३) भावनाओंकी संख्या सात सात है। जाता है। For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ३१३ यदि इसे खानेके पश्चात् अधिक सन्ताप हो । इनमेंसे नित्य प्रति प्रातःकाल १-१ गोली तो शीतल क्रिया करनी चाहिये (नाभि पर कांस्य | पानीके साथ खानेसे फिरङ्ग रोग (आतशक) का पात्र रख कर उसमें शीतल जल छोड़ना, चन्दनका | नाश होता है। लेप करना, हवा करनी, शिर पर बरफ रखना ___ इसके सेवन कालमें खटाई और नमकसे परआदि ।) हेज़ करना चाहिये। पथ्य-शालि चावल, दही, खांड अथवा दोष और ऋतुके अनुसार अन्य उचित पथ्य दें। | (इस योगमें पारदके स्थानमें शुद्ध रस कपूर डालना चाहिये । परन्तु उपरोक्त परिमाणके सन्निपातोन्मूलनरसः अनुसार एक मात्रामें ४ रत्तीके लगभग रसकपूर (सन्निपाततृलानलरसः) आ जायगा जो बहुत अधिक ( भयानक ) है । अतः यह योग किसी योग्य चिकित्सक के परामर्शसे (रे. का. धे. । ज्वरा. ; रसे. चि. म. । अ. ९; मात्रा आदिका निर्णय करके सेवन करना र. रा. सु. ; र. च. । ज्वरा.) चाहिये।) ___ " वीरभद्राख्यो रसः" प्र. सं. ७०९२ देखिये । उसमें उपदानोंकी मात्रा भिन्न भिन्न है (८१४८) सप्तामृतरसः और इसमें सब पदार्थ समान भाग हैं। ( मै. र. ; र. र. । मुखरोगा.) (८१४७) सप्तशालिवटी मृतमूताभ्रक तुल्यं मृतलौह शिलाजतु । (भा. प्र. म. खं. २ ; धन्व. । उपदंशा.) गुग्गुलुश्च शिला ताप्यं समांशं मधुना लिहेत् ॥ पारदष्टङ्कमानः स्यात्खदिरष्टङ्कसम्मितः । अर्धगुञ्जप्रमाणेन मुखरोगं विनाशयेत् ॥ आकारकरभश्चापि ग्राह्यष्टकद्वयोन्मितः ॥ पारद-भस्म, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, शुद्ध टङ्कत्रयोन्मितं क्षौद्रं खल्वे सर्व विनिक्षिपेत् । । शिलाजीत, शुद्ध गूगल, शुद्ध मनसिल और स्वर्ण सम्म तस्य सर्वस्य कुर्यात्सप्तवटीभिषक् ॥ । माक्षिक-भस्म समान भाग ले कर प्रथम शिलास रोगी भक्षयेत्पातरेकैकामम्बुना वटीम्। जीत और गूगलको शहदमें खरल करें और फिर वर्जयेदम्ललवणं फिरणस्तस्य नश्यति ॥ उसमें अन्य औषयें मिलाकर अच्छी तरह करें। पारद १ टंक (३॥। माशे), कत्था १ टंक, मात्रा-आधी रत्ती। अकरकरेका चूर्ण २ टंक और शहद ३ टंक ले कर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें और सबकी ___ इसके सेवनसे (मुखपाकादि) मुख-रोग नष्ट सात गोलियां बना लें। होते हैं। ४० For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ३१४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि (८१४९) सप्तामृतलौहम् (१) हरं, बहेड़ा, आमला और मुलैठी; इनका ( सर्वचूर्णसमं लौहम् , सप्तामृत गुटी) चूर्ण तथा लोहभस्म और शहद एवं घी १-१ (र. चं. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; च. द.। | भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर सायंकालके शूला. ; रसे. चि. म. म. ९ र. का. धे.।। समय सेवन करनेसे तिमिर, क्षत ( नेत्रका घाव ), नेत्ररोगा. ; भै. र.। शूला. , नेत्ररोगा. ; . लाल रेखाएं, नेत्रोंकी खाज, रात्र्यान्ध्य (स्तौंधा), यो. र. । नेत्ररोगा. ; वृ. नि. र.। । नेत्रार्बुद, नेत्रतोद, नेत्र-दाह, नेत्रशूल, पटल, काच नेत्ररोगा. ; यो. चि. म. । अ. ३) और पिल्लादि नेत्ररोगांका नाश होता है। त्रिफलारज आयसचूर्ण यह प्रयोग केवल नेत्ररोगांको ही नष्ट नहीं सह यष्टीमधुकं समांशयुक्तम् ।। करता बल्कि दन्त, कर्ण और गलेसे ऊपर उत्पन्न मधुना सर्पिषा दिनान्ते होने वाले रोगोंमें भी श्रेष्ठ है । यह पलित रोगको पुरुषो निष्परिहारमाददीत ॥ नष्ट करता है और बहुत समयकी पुरान तिमिरक्षतरक्तराजिकण्डू मन्दाग्निको अत्यन्त तीक्ष्ण कर देता है। क्षणदान्ध्यार्बुदतोददाहशुलान् । इसे सेवन करनेसे कामशक्ति अत्यधिक बढ़ पटलं सह काचपिल्लक जाती है ; मुखकान्ति शोभायमान हो जाती है। शमयत्येव निषेवितः प्रयोगः॥ बाल अत्यन्त काले हो जाते हैं और दृष्टि गृध्रके न च केवलमेव लोचनानां समान तीक्ष्ण हो जाती है। इसे सेवन करने विहितो रोगनिबर्हणाय धुंसाम् । | वालेको १०० वर्षको सुखपूर्ण आयु प्राप्त होती है। दशनश्रवणोर्ध्वकण्ठजानां ( मात्रा-१ माशा) प्रशमे हेतुरयं महागदानाम् ॥ (८१५०) सप्तामृतलौहम् (२) पलितानि विनाशयेत्तथानि (वृ. यो. त. । त. ७६) चिरनष्टं कुरुते रविप्रचण्डम् । दयिताभुजपअरोपगृहा | मधुताप्यविडवाश्मनतुलोहतामयाः । स्फुटचन्द्रभरणासु यामिनीषु । | घन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमाना हिताशिना ॥ मुरतानि चिरं निषेवतेऽसौ ___शहद, स्वर्णमाक्षिक-भस्म, बायबिडंगका पुरुषो योगवरं निषेवमाणः॥ चूर्ण, शुद्ध शिलाजीत, लोह-भस्म, घी और कूठका मुखेन नीलोत्पलचारुगन्धिना चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर शिरोरुहैरञ्जनमेचकमभैः । सेवन करने और पथ्य पूर्वक रहनेसे अत्युम यक्ष्मा भवेच्च गृध्रस्य समानलोचनः रोग भी नष्ट हो जाता है। मुखैनरो वर्षशतश्च जीवति ॥ (मात्रा-१ माशा।) For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पश्चमो भागः सप्तामृतावटी (सप्तोत्तरावटी) पुष्ट करता है तथा बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि ( र. र. स. । उ. अ. १३ ; र. चं. । श्वासा. ; करता है। र. रा. सु. । श्वासा.) (मात्रा-१-१॥ माशा । मधुके साथ प्रयोग संः ४७३३ " बब्बूलादिगुटिका" | मिला कर चाटें ।) देखिये। ___ (८१५२) समशर्करलौहम् (२) (८१५१) समशर्करलौहम् (१) (रसे. सा. सं. ; मै. र. ; र. चं. ; र. रा. ( भै. र. । कासा.) सु. ; र. का. धे.। रक्तपित्ता.) लवकं कट्फलं कुष्ठं यमानी व्युषणं तथा। लोहाच्चतुर्गुणं क्षीरमाध्यं द्विगुणमुत्तमम् । चित्रकं पिप्पलीमूलं वासकं कण्टकारिका ॥ | चूर्ण पादन्तु वैडङ्गं दद्यान्मधुसिते समे ॥ चव्यं कर्कटशृङ्गी च चातुर्जातं हरीतकी।। ताम्रपात्रे दृढे पक्त्वा स्थापयेद् घृतभाजने । शटी ककोलकं मुस्तं लौहम, यवाग्रजम् ।। माषकादि क्रमेणैव भक्षयेद्विधिपूर्वकम् ॥ सर्व प्रति समं चूर्ण तावच्छर्करयान्वितम् । अनुपानं प्रयुजीत नारिकेलोदकादिकम् । सर्वमेकीकृतं चूर्ण स्थापयेत्निग्धभाजने ॥ रक्तपित्तं जयेचीब्रमम्लपित्तं क्षतक्षयम् ॥ निहन्ति सर्वजं कासं वातश्लेष्मसमुद्भवम् । पहष्ट कान्तिजननमायुष्यमुत्तमोत्तमम् ।। लयकासं रक्तपित्तं श्वासमाशु विनाशयेत् ॥ लोह भस्म ४ तोले, गोदुग्ध १६ तोले, क्षीणस्य पुष्टिजननं बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ।।। गोघृत ८ तोले, बायबिडंगका चूर्ण १ तोला, मधु लौंग, कायफल, कूठ, अजवायन, सांठ, मिर्च, | ४ तोले और मिश्री ४ तोले ले कर सबको एकत्र पीपल, चीतामूल, पीपलामूल, बासा (अडूसा), मिला कर ताम्रके ( कलई किये हुवे ) पात्रमें कटेली, चव्य, काकड़ासिंगी, दालचीनी, इलायची, पकावें और दूध जल जाने पर ( खूब गाढ़ा हो तेजपात, नागकेसर, हर्र, कचूर, कंकोल और | जाने पर ) उतार कर ठण्डा कर लें और स्निग्ध नागरमोथा; इनका चूर्ण तथा लोह भस्म, अभ्रक पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें । भस्म और जवाखार १-१ भाग एवं खांड __ मात्रा-१ माशेसे आरम्भ करें और रोगीकी सबके बराबर ले कर सबको एकत्र मिला कर | शक्तिके अनुसार बढ़ाते रहें । खरल करें। अनुपान-नारियलका पानी आदि । इसके सेवनसे वातज, कफज तथा त्रिदोषज इसके सेवनसे तीब्र रक्तपित्त, अम्लपित्त और कास, क्षयकी खांसी, रक्तपित्त और श्वासका | क्षतक्षयका नाश हो कर कान्ति और आयुकी शीनही नाश हो जाता है । यह क्षीण व्यक्तियोंको | वृद्धि होती है । For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत-भैषज्य- रत्नाकरः ३१६ (८१५३) समीरगजकेसरीरसः ( र. रा. सु. ; वै. र. ; वृ. नि. र. । वातन्या. ) नवाहिनं कुचिलं नवानि मरिचानि च । समभागानि सर्वाणि रक्तिकाप्रमितानि च ॥ देयानि प्रातरेतानि पुनस्ताम्बूलचर्वणम् । कुब्जे च खञ्जवाते च सर्वजे गृध्रसी गदे || अपवाह प्रयोक्तव्यः शोषे कम्पेऽपतानके । विसूच्यामरुचौ देयोऽपस्मारे च विशेषतः ॥ नवीन अफीम, शुद्ध नवीन कुचलेका चूर्ण, और काली मिर्चका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें । इनमें नित्य प्रति प्रातःकाल १ गोली खा कर बादको पान खाना चाहिये । इनके सेवन से कुब्जता ( कुबड़ापन ), खञ्जवात, सर्वद्रोपज गृध्रसी, अपबाहुक, शोष, कम्प, अपतानक, विसूचिका, अरुचि और विशेषतः अपस्मार का नाश होता है । (८१५४) समीर पन्नगरस: (१) ( र. चं. । वातरो. ) पारदं गन्धकं मल्लं हरितालं तथैव च । एतच्चतुष्टयं सर्व तुलसीरसमर्दितम् ॥ कृत्वावयेद् गोलकन्तु तत् । शरावयुगुले क्षिप्त्वा वोलुकायन्त्रगं पचेत् ॥ दीपिका मितं वदित्वा यामचतुष्टयम् । स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य नाम्नाऽसौ वातपन्नगः ॥ सन्निपाते तथोन्मादे सन्धिबन्धे कफामये । नागवल्ल्या दलेनैव भक्षयेद् गुञ्जिकाद्वयम् || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध संखिया और शुद्ध हरताल समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके कज्जली बनायें और उसे तुलसीके रसमें खरल करके सबका एक गोला बना लें तथा उसे सफेद अभ्रकके पत्रों में लपेट कर शरावसम्पुट में बन्द करें और उस पर ३-४ कपर मिट्टी करके सुखा लें । तदनन्तर उसे बालुका यन्त्रमें रख कर अत्यन्त मृदु अग्नि पर ४ पहर पाक करें औषधको निकाल कर खरल करके सुरक्षित तत्पश्चात् यन्त्रके स्वांगशीतल होने पर उसमें से रक्खें । मात्रा - २ रत्ती । पानमें रखकर खिलावें । 1 यह रस सन्निपात, उन्माद, सन्धियोंके जकड़ जाने और कफ रोगोंको नष्ट करता है । (८१५५) समीरपन्नगरस: (२) ( वृ. नि. र. ; यो. र. र. चं.; र. रा. सु. ; वै. र. । वातव्या . ) अभ्रगन्धविषयो पर सटङ्कान्समांशकान् । भावयेत्सप्तधा भृङ्गरसेन स्यात्समीरहा । आर्द्रद्रवेण वल्लो वा खण्डव्योषेण योजितः । महावाताञ्जयत्याशु नासाध्मातः सुसज्ञकृत् ॥ अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, सोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध पारद और सुहागेकी खील समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर सबको भंगरे रकी सात भावना दें और सुखा कर सुरक्षित रक्खें । For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ३१७ इसे अदरकके रसके साथ अथवा सेठि, मिर्च, कर्णस्रावरुजागृत्यहरः पाचनदीपनः । पीपल और मिश्रीके चूर्णके साथ खिलानेसे कष्ट- अशुद्धः स करोत्यङ्गभङ्गं तस्माद्विशोधयेत ॥ साध्य बातव्याधियां नष्ट हो जाती हैं। समुद्रफेनः सम्पिष्टौ निम्बुतोयेन शुध्यति ॥ इसकी नस्य देनेसे मूर्छा जाती रहती है। ससुद्रफेनको अब्धिफेन, अब्धिसार, अब्धिज मात्रा-२-३ रत्ती। और समुद्रज भी कहते हैं। समीरपन्नगरसः (३) समुद्रफेन आंखोंके लिये हितकारी, लेखन, (कृ. नि. र. । वातव्या.) शीतल, सारक (रेचक ), पाचन और दीपन प्र. सं. ६९८२ “वातगजाङ्कुशरसः (२)" है । यह कर्णस्राव, कर्णपीड़ा और कर्णमलको नष्ट देखिये। करता है । ___ इसमें उसकी अपेक्षा तुलसी अधिक है तथा __अशुद्ध समुद्रफेन अङ्ग भङ्ग करता है अतः भावना द्रव्योंमें संभालुके स्थानमें तुलसी है। उसे शुद्ध करके काममें लाना चाहिये । (८१५६) समीरशूले भहरिः समुद्रफेनको नीबूके रसमें घोटनेसे वह शुद्ध ( यो. र. ; र. का. धे. । शूला.) हो जाता है। क्षार कपर्दो विषसैन्धवौ च (८१५८) सम्मोहलौहम् __ व्योपं च सम्मर्थ भुजङ्गचल्ल्याः । (र. चं. । पाण्डु. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. रसेन गुञ्जापमितः प्रदिष्टः सु. । पाण्डु.) ___ समीरशूलेभहरिः प्रचण्डः ॥ त्रिकटु त्रिफला वह्निर्विडॉ लोहमभ्रकम् । जवाखार, कौड़ी भस्म, शुद्ध बछनाग, सेंधा एतानि समभागानि घृतेन वटिका कुरु ।। नमक, सांठ, मिर्च और पीपल; सबके समान भाग कामलां पाण्डुरोगं च हृद्रोगं शोथमेव च । चूर्णको एकत्र मिला कर पानके रसमें खरल करके | | भगन्दरं कोष्ठक्रिमि मन्दानलमरोचकम् ।। १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। तान् सर्वान्नाशयेदाशु बलवर्णाग्निवर्द्धनः । इनके सेवनसे वातजशूल नष्ट होता है । सम्मोहलोह नामाऽयं पाण्डुरोगे च पूजितः ।। सांठ, मिर्च, पीपल, हर', बहेड़ा, आमला, (८१५७) समुद्रफेनशोधनम् चीतामूल और बायबिडंग; इनका चूर्ण तथा लोह( आ. वे. प्र. । अ. १० ; यो. र.) भस्म और अभ्रक-भस्म समान भाग ले कर सबको अब्धिफेनोऽब्धिसार: स्यादब्धिजश्च समुद्रजः। एकत्र मिला कर थोड़े घीके साथ खरल करें और समुद्रफेनश्चक्षुष्यो लेखनः शीतलः सरः॥ (१-१ माशेको ) गोलियां बना लें। For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ३१८ इनके सेवनसे कामला, पाण्डु, भगन्दर, कोष्ठकृमि, अग्निमांद्य और अरुचिका नाश हो कर बल, वर्ण और अग्रिकी वृद्धि होती है । यह रस पाण्डु रोगमें विशेष उपयोगी है । भारत - भैषज्य रत्नाकरः [ सकारादि हृद्रोग, शोथ, | तत्पश्चयाममलैर्निम्बूकस्याथ तद्गुञ्जा । पथ्येन षष्टिघृततः सर्वज्वरहृद्वसो भवति ॥ (८१५९) सज्जक्षारादियोगः (बृ. नि. र. । संग्रह ण्य. ) सज्जिका यावकं वा विजयातिविषा समम् । दीप्यकं पारदं गन्धं निम्बुनीरेण भावयेत् ॥ माषा मधुना देयं सितया वा घृतान्वितम् । अनुदद्यात् ग्रहण्यार्तिज्वरातिसारशान्तये ॥ सशूलशोथसहितां ग्रहण्यातिं प्रणाशयेत् । सज्जीखार या जवाखार, भांग, अतीस और अजवायन इनका चूर्ण तथा शुद्ध पारद और गन्धक समान भाग ले कर प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर नीबू के रसमें खरल करके सुखा लें । मात्रा-आधा माशा । इसे शहद में मिला कर अथवा घी और मिश्री के साथ देना चाहिये । इसके सेवन से संग्रहणी, ज्वरातिसार और शूल तथा शोथयुक्त संग्रहणीका नाश होता है । सर्वचूर्णसमं लौहम् ( र. र. नेत्ररोगा. ) सप्तामृतलोहम् (१) प्र. सं. ८१४९ देखिये । (८१६०) सर्वज्वरहरो रसः (१) (र. का. घे. । ज्वरा. ) (सबलिटङ्कण नागरकणानां च पञ्चपञ्चभिर्भागः । जयपालाद्विशत्या लौहे कौन मर्दयेत्सुरम् || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सुहागेको खील, सोंठ और पीपल; इनका चूर्ण ५-५ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा २० भाग ले कर प्रथम पारे की लोहखरल में कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधका चूर्ण मिला कर पांच पहर नीबू के रस में खरल करें और १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें | इसके सेवन से समस्त प्रकारके ज्यर नष्ट होते हैं । पथ्य घृत युक्त साठी चावल का भात | ( अनुपान - शीतल जल | यह रस रेचक है । ) (८१६१) सर्वज्वरहरो रसः (२) ( र. का. घे. । ज्वरा. ) रसदरद दिनेश फेनगन्धेन युक्तं मुनिदिनमिति खल्वे विश्वतोयेन घृष्टम् । ज्वरहर मिह सूतं वल्लमात्रप्रमाणं प्रथमजनितदाहे दापयेदाद्रेकेण ॥ शुद्ध हिंगुल, ताम्र भस्म, समुद्रफेन और शुद्ध गंधक समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर खरल करें और सात दिन सांठके काथ ( या अदरक रस ) में खरल करके ३-३ रत्तीको गोलियां बना लें | ( व्यवहारिक मात्रा - १ - २ रत्ती । ) इसे अदरक के रसके साथ देनेसे ज्वर नष्ट होता है । For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पश्चमो भागः (८१६२) सर्वज्वरहरो रसः (३) बल्यं वृष्यं पुष्टिकरं सर्वरोगनिषूदनम् ॥ (र. का. घे. । ज्वरा.) | सर्वज्वरहरं लौहं चन्द्रनाथेन भाषितम् ॥ रङ्ग विष टङ्कणं च द्वौ क्षारौ मरिचानि च । ____ चौतामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, काली भावयेनिम्बुक द्रावैः सर्वज्वरहरो रसः॥ मिर्च, पीपल, बायबिडंग, नागरमोथा, गजपीपल, बंग भस्म, शुद्ध बछनाग, सुहागेको खील, | पोपलामूल, खस, देवदारु, चिरायता, पाठा, कुटकी, जवाखार, सज्जीखार और काली मिर्चका चूर्ण कटेली, सहजनेके बीज, मुलैठी और इन्द्रजौ; इनका समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर चूर्ण १-१ भाग तथा लोह-भस्म सबके बराबर नीबूके रसमें खरल करके (३-३ रत्तीकी) ले कर सबको (पानीके साथ) खरल करके (२-२ गोलियां बना लें। रत्तीकी) गोलियां बना लें। इनके सेवनसे समस्त ज्वर नष्ट होते हैं । इसके सेवनसे वातज, पित्तज, कफज, द्वन्द्वज, सान्निपातिक, विषम और धातुगत आदि समस्त (८१६३) सर्वज्वरहरलौहम् (१) ज्वरोंका नाश होता है । यह रस शीत, कम्प, ( र. चं. ; मै. र. ; धन्व. ; रसे. सा. सं. ; तृवा, दाह, प्रस्वेद, वमन, भ्रम, रक्तपित्त, अतिर. रा. सु. । ज्वरा.) सार, अग्निमांद्य, कास, प्लीहा, यकृत् , गुल्म, कष्टचित्रकं त्रिफलाव्योष विडङ्ग मुस्तकं तथा। साध्य आमवात, अर्श, घोर उदर रोग, मूछो, श्रेयसी पिप्पलीमूलमुशीरं देवदारु च ॥ पाण्डु, हलीमक, अजीर्ण, संग्रहणी, यक्ष्मा और किराततिक्तकं पाठार कटुकी कण्टकारिका । शोथको नष्ट करता है तथा वृष्य, बल्य और शोभाजनस्य बीजानि मधुकं वत्सकं समम् ।। | पौष्टिक है। लोहतुल्यं गृहीत्वा तु टिकां कारयेद्भिषक् । | (८१६४) सर्वज्वरहरलौहम् (२) वृहत्) सर्वज्वरहरं लौहं सर्वरोगहरं तथा । (भै. र. ; र. रा. सु. ; धन्व. 1 ज्वरा.) वातिकं पैत्तिकं चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् । द्वन्द्वजं विषमाख्यं च धातुस्थं च ज्वरं जयेत् ॥ द्विपलं जारित लौहं रसं गन्धं द्वितोलकम् । शीतं कम्पं वृषां दाहं धर्मस्रतिवमिभ्रमान् । तोलकं त्रिफला व्योष विडङ्ग मुस्तकं तथा ॥ रक्तपित्तमतीसारं मन्दानि कासमेव च ॥ श्रेयसी पिप्पलीमूलं हरिद्रे द्वे च चित्रकम् । प्लीहानं यकृतं गुल्ममामवातं सुदारुणम् । आर्द्रकस्य रसेनैव वटिकां कारयेद्भिषक् ॥ अर्शासि घोरमुदरं मूर्छा पाण्डं हलीमकम् ॥ गुनाद्वयवटीं कृत्वा भक्षयेदाईकद्रवैः । अजीर्ण ग्रहणीं चैव यक्ष्माणं शोथमेव च । सर्वज्वरहरो लौहः सर्वज्वरविनाशनः ॥ पातिकं पैत्तिकश्चापि श्लैष्मिकं सानिपातिकम्। १. बालमिति पाठान्तरम् । विषमज्वरभूतोत्यं बरं प्लीहानमेव च ॥ For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि मासज पक्षनश्चैव तथा सम्वत्सरोत्थितम् ।। | पुनर्नवाईकाम्भोभिर्भावनां परिकल्प्य च । सर्वान् ज्वराग्निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ॥ रक्तिकादिक्रमेणैव वटिकां कारयेद्भिपक ॥ लोह भस्म १० तोले, शुद्ध पारा और गन्धक, पिप्पलीगुडसंयुक्ता वटिका वीर्यवर्धिनी। २॥-२॥ तोले, तथा हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, ज्वरमष्टविधं हन्ति चिरकालसमुद्भवम् ।। मिर्च, पीपल, बायबिडंग, नागरमोथा, गजपीपल, विविधं वारिदोषोत्यं नानादोषोद्भवं तथा । पीपलामूल, हल्दी, दारुहल्दी और चीतामूल | सततादिज्वरं हन्ति साध्यासाध्यमथापि च ॥ ११-१॥ तोला ले कर प्रथम पारे गन्धकको कञ्जली क्षयोद्भवञ्च धातुस्थं कामशोकभवं तथा । बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका बारीक भूतावेशज्वरश्चैव ऋक्षदोषभवं तथा ॥ चूर्ण मिला कर अदरकके रसमें खरल करके २-२ अभिघातज्वरश्चैवमभिचारसमुद्भवम् । रत्तीकी गोलियां बना लें। अभिन्यासं महाघोरं विषमञ्च त्रिदोषजम् ॥ शीतपूर्व दाहपूर्व विषमं शीतलं ज्वरम् । . इन्हें अदरकके रसके साथ सेवन करनेसे प्रलेपकज्वरं घोरमर्द्धनारीश्वरं तथा ॥ वातज, पित्तज, कफज, सान्निपातिक, विषम, प्लीहज्वरं तथा कासं चातुर्थकविपर्ययम् । भूतोत्थ और महीने महीने भर बाद या १५-१५ पाण्डुरोगगणान सर्वान् अनिमान्धं महागदम् ॥ दिन बाद अथवा प्रति वर्ष नियमसे आने वाले | एतान् सर्वानिहन्त्याशु पक्षान नात्र संशयः। तथा अन्य समस्त प्रकारके ज्वरों और प्लीहाका | शाल्यन्नं तक्रसहितं भोजयेदद्विजसंयुतम् ॥ नाश होता है। ककारपूर्वकं सर्व वर्जनीयं विशेषतः। (८१६५) सर्वज्वरहरलौहम् (३)(वृहत्) मैथुनं वर्जयेत्तावद्यावन्न बलवान् भवेत् ॥ सर्वज्वरहरं श्रेष्ठमनुपानं प्रकल्पयेत् ॥ ( भै. र. ; रसे. सा. स. ; र. रा. सु. ; शुद्ध पारद, गन्धक, ताम्र--भस्म, अभ्रकधन्व. । वरा.) भस्म, स्वर्ण माक्षिक-भस्म, स्वर्ण-भस्म, चांदीपारदं गन्धकं शुद्ध ताम्रमभ्रश्च माक्षिकम् । भस्म और शुद्ध हरताल ११-१॥ ताला तथा लोहहिरण्यं तारतालश्च कर्षमेकं पृथक् पृथक् ।। भस्म ५ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली मृतकान्तं पलं देयं सर्वमेकीकृतं शुभम् ।। बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर वक्ष्यमाणौषधैर्भाव्यं प्रत्येक दिनसप्तकम् ।। निम्नलिखित ओषधियोंके स्वरस या काथकी कारवेल्लरसेनापि दशमूलरसेन च । पृथक् पृथक् सात सात भावना दे कर १-१ पर्पटस्य कषायेण काथेन त्रैफलेन च ॥ रत्तीकी गोलियां बना लें। गुडूच्याः स्वरसेनापि नागवल्लीरसेन च। भावना द्रव्य-करेला, दशमूल, पित्तपापड़ा, काकमाचीरसेनैव निर्गुण्डयाः स्वरसेन च ॥ । त्रिफला, गिलोय, पान, मकोय, संभालु, पुनर्नवा For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पनमो भाग: और अदरक । इनमेंसे जिनके स्वरस मिल सकें चूर्णयित्वा समांशन्तु कज्जल्या सह मेलयेत् । उनके स्वरस और शेषके काथ लेने चाहियें। निर्गुण्डया स्वरसे चापि आर्द्रकस्य रसे तथा।। इनमेंसे १-१ गोली पीपलके चूर्ण और भावनां कारयित्वा तु वटिकां कारयेद्भिषक् । गुडके साथ देनेसे वीर्य वृद्धि होती है। यह रस वटिकां भक्षयित्वा तु वस्त्रवेष्टश्च कारयेत् ॥ बहुत पुराने आठ प्रकारके ज्वरोंको नष्ट करता है। एषा ज्वराङ्कुशवटी सर्वज्वरविनाशिनी। जलदोष-जनित, विविध दोषोंसे उत्पन्न सतत पृथग्दोषांश्च विविधान् समस्तान् विषमज्वरान् ॥ इत्यादि कष्टसाध्य ज्वर और क्षयका ज्वर, धातुगत | प्राकृतं वैकृतं वापि वातश्लेष्मकृतश्च यत । ज्वर, काम शोक और भयसे उत्पन्न ज्वर, भूतावेश | अन्तर्गत बहिःस्थश्च निरामं साममेव वा ॥ ज्वर, अभिघातज और अभिचार-जन्य ज्वर, अभि- | ज्वरमष्टविधं हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ न्यास ज्वर, त्रिदोषज विषम ज्वर, शीत और दाह शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, काली मिर्च, सेठ, पूर्व ज्वर, शीत ज्वर, प्रलेपक ज्वर, आधे शरीरका | पीपल, दालचीनी, शुद्ध जमालगोटा, कूठ, चिराज्वर, प्लीह-ज्वर और चातुर्थिक विपर्यय ज्वर आदि यता और नागरमोथा समान भाग ले कर प्रथम समस्त ज्वर एवं कास, पाण्डु और अग्निमांद्य आदि पारे--गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें रोग इसके सेवनसे १ सप्ताहमें अवश्य नष्ट हो । अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर संभालु तथा जाते हैं। अदरकके रसकी एक एक भावना दे कर ( ३-३ पथ्य-शालि चावलोंका भात और तक्र । रत्तीको ) गोलियां बना लें। ___ इनमेंसे एक गोली खिला कर रोगीको कपड़ा अपथ्य-कुष्माण्डादि ककारादि वर्गके .उढ़ा देना चाहिये। शाक । जब तक रोगी बलवान न हो जाय मैथुनसे परहेज़ करना चाहिये। इसके सेवनसे पृथक् पृथक् दोषोंसे उत्पन्न, सान्निपातिक, विषम, प्राकृत, वैकृत, वातकफज, सर्वज्वरहरवटी अन्तर्गत, बहिरस्थ, निराम और साम आदि समस्त ( भा. प्र. | म. खं. २) ज्वरोंका नाश होता है। प्र. सं. २१२२ “ जीर्णज्वरारि रसः (८१६७) सर्वज्वरारिरसः (१) (१)" देखिये। (र. र. स. । उ. अ. १२) (८१६६) सर्वज्वराङ्कुशवटी तालं ताम्रमयोरजश्च चपला तुत्याभ्रकं ( भै. र. ; रे. रा. सु. । ज्वरा.) कान्तकम् । शुद्धसूतं तथा गन्धं मरिचं नागरं कणा। नागं स्याच्च समांशकं सुमृदितं मूलं च त्वचं जैपालकं कुष्ठं भूनिम्बं मुस्तकं पृथक् ॥ । पौनर्नवम् ॥ ४१ For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ३२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि भृङ्गीकासहरीपुनर्नवमहामन्दारपत्रोद्भवैः। । इनमेंसे एक एक गोली प्रातः काल अदरकके कल्कं वालुकायन्त्रपाचितमिदं सर्वज्वरस्या- रसके साथ सेवन करनेसे जीर्ण ज्वर, अजीर्ण, आम न्तकृत ॥ ज्वर और विषम ज्वरका नाश होता है। शुद्र हरताल, ताम्र-भस्म, लोह-भस्म, (८१६९) सर्वतोभदरसः (१) पीपलका चूर्ण, नीले थोथेकी भस्म, अभ्रक-भस्म, कान्तलोह-भस्म, सीसा-भस्म और पुनर्नवा (रसे. सा. सं. । ज्वरा.) मूलका चूर्ण समान भाग ले कर सबको भंगरा, विशुद्धं गगनं ग्राह्यं द्विकर्ष शुद्धगन्धकम् । कसौंदी, पुनर्नवा और बकायन; इनके पत्तोंके रसकी | तोलकं तोलकादश्च हिंगुलोत्थरसन्तथा ॥ १-१ भावना दे कर शराव-सम्पुट में बन्द करके कपरं केशरं मांसी तेजपत्रं लवङ्गकम् । बालुकायन्त्रमें पाक करें । | जातीकोषफलञ्चव सूक्ष्मैला करिपिप्पली ॥ इसे सेवन करनेसे समस्त ज्वर नष्ट होते हैं । | कुष्ठं तालीशपत्रश्च धातकी चोचमुस्तकम् । (मात्रा-१ रत्ती।) हरीतकी मरीचञ्च शृङ्गवेरं विभीतकम् ॥ पिप्पल्यामलकञ्चैव शाणभागं विचूर्णितम् । (८१६८) सर्वज्वरारिरसः (२) सर्वमेकीकृतं पिष्ट्वा वटीं कुर्य्याद्विगुत्रिकाम् ॥ ( वृ. यो. त. । त. ५९ ; यो. त. । त. २०) भक्षयेत्पर्णखण्डेन मधुना सितयापि वा। एकभागो रसो भागद्वयं शुद्धं च गन्धकम् । रोगं ज्ञात्वानुपानं च प्रातःकुर्य्याद्विचक्षणः ॥ विषस्य च त्रयो भागा निम्बुद्रवविमर्दिताः ॥ | हन्ति मन्दानलान्सर्वानामदोपं विसूचिकाम् । जेपालजाः पञ्चभागा निम्बुद्रवविमर्दिताः। पित्तश्लेष्मभवं रोगं वातश्लेष्मभवन्तथा ॥ कृमिन्नममिता वटयः कार्याः सर्वेज्वरच्छिदाः॥ | आनाहं मूत्रकृच्छं च संग्रहग्रहणी वमिम् । शावरेण दातव्या वटिकैका दिनानने। अम्लपित्तं शीतपित्तं रक्तपित्तं विशेषतः ॥ जीर्णज्वरे तथाऽजीर्ण सामे वा विपमे तथा ॥ चिरज्वरं पित्तभवं धातुस्थं विषमज्वरम् । सर्वज्वरं निहन्त्याशु दावो वनमिवानलः ॥ कास पश्चविधं हन्ति कामलां पाण्डुमेव च ॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, सर्वलोकहितार्थाय शिवेन कथितः पुरा । नीबके रसमें घटा हवा शुद्ध बछनाग ३ भाग, सर्वतोभद्रनामायं रसः साक्षान्महेश्वरः ॥ और नीबूके रसमें घुटा हुवा शुद्ध जमालगोटा ५ | अभ्रक भस्म २॥ तोले, शुद्ध गन्धक १। भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें | तोला, हिंगुलोत्थ पारद ७॥ माशे तथा कपूर, और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको केसर, जटामांसी, तेजपात, लौंग, जावत्री, जायनीबूके रसमें खरल करके बायबिडंगके समान फल, छोटी इलायची, गजपीपल, कूठ, तालीसगोलियां बना लें। | पत्र, धायके फूल, दालचीनी, नागरमोथा, हरं, For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः काली मिर्च, सेठ, बहेडा, पीपल और आमला; | अच्छी तरह मर्दन करके १-१ रत्तीकी गोलियां इनका चूर्ण ३॥-३॥ माशे ले कर प्रथम पारे- | बना लें। गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य रोगिचित अनुपानके साथ देनेसे यह रस औषधोंका चूर्ण मिला कर सबको पानीके साथ समस्त रोगोंको नष्ट करता है। खरल करके २-२ रत्तोको गोलियां बना लें। (८१७१) सर्वतोभदरसः (३) ___ इनमेंसे एक एक गोली पानके साथ अथवा | शहद या मिसरी आदि रोगोचित अनुपानके साथ | (रसे. सा. स. ; र. रा. सु. । प्लीहा.) प्रातःकाल सेवन करनेसे अग्निमांद्य, आमदोष, | सूतं गन्धं तपनगगनं कान्तलौहस्य चूर्गम् । विसूचिका, पित्तकफज रोग, वातकफज रोग, कृत्वैकस्मिन् दृषदि पेषितं शृङ्गवेरस्य वारा ॥ अफारा, मूत्रकृच्छ, संग्रहणी, वमन, अम्लपित्त, । युज्याद्रोगे यकृति गुदजे प्लीहि सर्वज्वरेषु । शीतपित्त, रक्तपित्त, पित्तज जोर्णज्वर, धातुगत | शोथे पाण्डौ कृमिकृतगदे सर्वतः कामलायाम् ॥ विषम ज्वर, पांच प्रकारको कास, कामला और वासे श्वासे च मेहे जठरजलगदे सर्वदोषप्रभूते । पाण्डुका नाश होता है। : यातो योगः सुरमणिकृतः सर्वरोगैकहन्ता । " (८१७०) सर्वतोभदरसः (२) ___ शुद्र पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, भभ्रक ( भै. र. ! मसूरिका.) भन्म और कान्त लोह-भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर खरल करें और कज्जली सिन्द्रमभ्रं रजतश्च हेम | हो जाने पर अदरकके रसमें खरल करके १-१ समेन भागेन मनःशिलाश्च । रत्तीकी गोलियां बना लें। द्विशस्तु वांशी निखिलेन तुल्यं सम्पर्दयेद् गुग्गुलुक प्रयत्नात् ॥ ____ इनके सेवनसे यकृत् , अर्श, प्लीहा, सर्व ततस्तु गुआपमितां विधाय प्रकारके ज्वर, शोथ, पाण्डु, कृमि रोग, कामला, वटीं प्रयुञ्जीत यथानुपानम् । कास, श्वास, प्रमेह और जलोदरका नाश होता है । यं सर्वतोभद्ररसो न हन्ति (८१७२) सर्वतोभदरसः (४) न सोऽस्ति रोगः खलु देहिदेहे ॥ । (र. र. ; र. च. ; धन्व. । रसायना.) रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, चांदी भस्म, स्वर्णभस्म और शुद्ध मनसिल १-१ भाग, बंसलोचनका सूतं कान्तं उपलगगनं ताप्यकं शुद्धतालम। चूर्ण २ भाग तथा शुद्ध गूगल सात भाग ले कर | राजावत सुरभि मधुकं मानसी चेति तुल्यम् ॥ प्रथम गूगलमें थोड़ा घी मिला कर उसे पतला करें | सर्वैस्तुल्यं दृशदिदलितं भृङ्गतोयेन सर्वम् । और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको गोलीभूतं भवति विमलः सर्बभद्राभिधानः ।। For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ३२४ शूलं गुल्मं जठरजरुजां वातजान सर्वरोगान् । | मद्यं कफकृतगदं पीनसं च ज्वरार्तिम् ।। प्लीहं पाण्ड्रं क्षयकृतरुजः कुष्ठरोगानशेषान् । मूर्धारोगान रुचिनिचयं हन्ति रोगांस्तथाऽन्यान् भारत-भैषज्य रत्नाकरः ॥ शुद्ध पारद, कान्त लोह भस्म, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, शुद्र हरताल, राजावर्त - भस्म, स्वर्ण-भस्म, मुलैठी और दुर्गपुष्पी समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर सबको भंगरे के रस में खरल करके (१ - १ रत्तीकी) गोलियां बना लें । यह रस शूल, गुल्म, जठरपीड़ा, समस्त वातज रोग, अग्निमांब, कफज रोग, पीनस, ज्वर, प्लीहा, पाण्डु, क्षय, कुष्ठ, शिरो रोग और अरुचिका नाश करता है । (८१७३) सर्वतोभद्रलौह : (१) (भै. र. । अम्लपि. ) लौहचूर्ण मृतं ताम्रमभ्रकञ्च पलं पलम् । शुद्धसूतस्य कषैकं गन्धकार्द्धपलं तथा ॥ माक्षिकस्य विशुद्धस्य कर्षे शुद्धशिलापरा । सार्द्धकर्ष विशुद्धःश्च शिलाजतु तथापरम् ॥ गुग्गुलोचापि कर्षैकं शाणमानं परस्य च । चूर्ण विभल्लातवह्निश्वेतार्कमूलजम् ॥ करिकर्णपलाशश्च तालमूली पुनर्णवा । घनामृता नागवला चक्रमर्दकमुण्डिरी ॥ भृङ्गकेशशतावर्यो वृद्धदारं फलत्रयम् । त्रिकटुवापि सर्वेषां प्रत्येकञ्च नयेद्भिषक् ॥ [सकारादि सर्वमेकत्र सम्मर्थ घृतेन मधुना सह । स्निग्धे भाण्डे विनिक्षिप्य ततः कुर्याद्विधानवित् ॥ द्विमुखादिक्रमेणैव लौहं सर्वरसायनम् । अम्लपित्तं जयेच्छीघ्रं सर्वोपद्रवसंयुतम् ॥ तद्वदर्शासि सर्वाणि सर्वमेव भगन्दरम् । पक्तिशूलञ्च शूलश्च तथामं कुक्षिसम्भवम् ॥ बावरचं तथा कुष्ठं पाण्डुरोगं हलीमकम् । आमनातं तथा शोषमग्निमान्धं सुदुस्तरम् ॥ कामलां वातगुल्मच पिडकागरगृध्रसी । कासश्वासारुचिरं दृष्यमेतद्विशेषतः ॥ सर्वव्यादिरं प्रोकं यथेष्टाहारसेविनः । यक्ष्माणं रक्तपित्तश्च वातरोगं विनाशयेत् ॥ संज्ञया सर्वतोभद्रलौहो रसवरः स्मृतः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोह - मस्म, ताम्र भस्म और अभ्रक भस्म ५-५ तोळे शुद्ध पारेद १| तोला, शुद्ध गन्धक २॥ तोले, स्वर्णमाक्षिक भस्म १ तोला, शुद्ध मनसिल १ तोला, शुद्ध शिलाजीत २२॥ माशे, शुद्ध गूगल १ तोला तथा बायबिडंग, शुद्ध मिलावा, चीतामूल, सफेद आकको जड़की छाल, हस्तिकर्ण पलाशकी छाल, तालमूली (मूसलो), पुनर्नवाकी जड़, नागरमोथा, गिलोय, नागवला (गंगेरन), पंवाड़के बीज, गोरखमुण्डी, मंगरा, सुगन्धवाला, शतावर, विधारा, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण ३॥ - ३ || माशे ले कर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर सबको भली भांति खरल करें और सबके एकजीव हो जाने पर थोड़ा थोड़ा शहद और For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पचमो भाग: घी मिला कर स्निग्ध पात्रमें भर कर सुरक्षित एलार्ष गन्धकं देयं पलाई गुग्गुलु त्वरम् । रक्खें। चूर्णयित्वा विधानेन सर्वमेका कारयेत् ।। इसे २ रत्तीकी मात्रासे खिाना आरम्भ करें। घृतमष्टपलं दत्वा क्षीरं चतुः शरारकम् । और रोगीको शक्तिके अनुसार थोडी थोड़ी मात्रा। चतुर्वित्रपलक्वाये त्रिफलाशेषवारिणा ॥ बढ़ाते रहें। | वस्त्रपूतेन विधिवत्पाचयेचाम्रभाजने । इसके सेवनसे सर्वोपवयुक्त अम्लपित्त, अर्श, दावी लोहमयीं गृह्य पाकं कुर्याद्विपाकवित ॥ भगन्दर, पक्तिगल, शूल, पेटकी आम, वातरक्त, शातलश्च ततः यात्स्निग्य भाण्ड निषापयत्। कुष्ठ, पाण्डु, हलीमक, आमवात, शोथ, कासाध्य, रक्तिकादि क्रमेणेव घृतेन मधुना सह ॥ अग्निमांच, कामला, वातज गुल्म, पिडिकाएं, सम्मघ लाई | सम्मर्थ लोहदण्डेन लोहपात्रे च भक्षयेत् । गरविष, गृधमी, कास, स्वास, अरुचि, यक्ष्मा, क्षीरानुपानं दातव्यं पित्तदुष्टाय रोगिणे ॥ रक्तपित्त और वातज रोगोंका नाश होता है । यह | तथामकोष्टिने दद्यायवक्षारस्य वारिणा। अक्त वृष्य है। | मूर्छार्दिषारक्तपित्तशूलादिसम्भवे ॥ क्षीरं शर्करया मिश्रमनुपानं प्रयोजयेत् । (८१७४) सर्वतोभद्रलौहः (२) चतुर्षा ग्रहणीरोगे वातपित्तकफोद्भवे ॥ (व. से. । रसायना.) ज्ञात्वा कुक्षौ मनाक्छ्लभामगन्धं सलोहितम् । गव्येन नवनीतेन स्वर्णमाक्षिकश्चिकौ । कुक्षौ दक्षिणतः शूलं नाभियण्डलतोपरि ॥ निष्पिष्य लेपयेल्लोहं कान्तपाण्ड्यादि वातपित्तनिदानं हि लक्षयित्वा प्रदीयते । सम्भवम् ॥ | नारिकेलच समधुपानश्च हितमिच्छता ॥ ध्यापयेत्कर्मकारानौ सिक्ता सिक्त्वा | रक्तच्छों विगन्धत्वमीपत्यानन्तु दापयेत् । पुनः पुनः। कटिशूले त्रिकशूले कुक्षिशूले अरोचके ॥ त्रिफला कायतोयेन ततो निर्वापयेत्सुधीः॥ आमवातनिदाने च मुखस्रावे प्रकोचितम् । पश्चात्सम्पिष्यते लोहं दाहयेत्पुटबाझिना। पाचशूले त्रिकाले नाभिमण्डलतोपरि ॥ अम्लेराकृष्य विधिना जलपोतं प्रयत्नतः॥ 'ज्वरे सशूले सामे च वायुमा निवर्तयेत् । श्लक्ष्णचूर्ण ततः कृत्वा बहु अष्टन्तु कारयेत। क्वचिनामेरधः शूले वामपार्वे कचिद्भवेत ॥ पलं चतुष्टयं तस्य मधुकस्यापि तत्समम ॥ शूले वा परिणामे च भ्रमे पृष्ठे कचित्क्वचित् । पथ्या धात्री विभीक्क्या रसश्च त्रिकटोस्तथा। शीतलेन यवक्षारमनुपानश्च वारिणा॥ वचारहिविडङ्गानि कृष्णजीरकजीरके॥ स्वर्णमाक्षिकचूर्ण और पुनर्नवामूलका चूर्ण दन्ती पुनर्नवामली प्रत्येक पलसक्यया। समान भाग ले कर दोनोंको गायके मक्खनमें एलायाः कर्षक दद्यात्कार्षिकं कटुरोहिणी॥ । खरल करें और फिर कान्तलोह या किसी अन्य For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-त्नाकरः [ सकारादि प्रकारके लोहके पत्रोंपर उसका लेप करके उन्हें लोहेके खरलमें लोहेकी मूसलीसे थोड़े घी और भट्टीमें रख कर धौकनीसे धमावें और लोहपत्रोंके | शहदके साथ थोड़ी देर खरल करके खाना अग्निके समान लोल हो जाने पर उन्हें त्रिफला चाहिये। काथमें बुझा दें। इसी प्रकार बार बार उक्त ___ अनुपान-पित्तदुष्टिमें दूध । पेटमें आम मिश्रणका लेप करके ध्मा और त्रिफला काथमें हो तो जवाखारका पानी। मूर्छा, छर्दि, तृषा, बुझाते रहें। जब लोहका चूर्ण हो जाए तो उसे रक्तपित्त और शूलादिमें खांडयुक्त दूध । चार नीबू आदिके रसमें खरल करके टिकियां बनावें प्रकारको ग्रहणी, कुक्षिशूल, आमगन्ध वाली रक्तऔर शराव सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक वमन, दहिनी कुक्षिके शूल, नाभिशूल और दें। इसी प्रकार बहुतसी पुटें दे कर वारितर | वातज तथा पित्तज रोगोंमें मधुयुक्त नारिभस्म बनावें । इस भस्मको पानीसे धो कर अम्लता यलको पानी । दूर करें और फिर अच्छी तरह खरल करके अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण बना लें। यह रस रक्तवमन, कटिशूल, त्रिकशूल, कुक्षिशूल, आमवात, मुखस्राव, पार्श्वशूल, नाभिसे यह भस्म २० तोले, मुलैठीका चूर्ण २० | ऊपर होने वाले शूल और शूलयुक्त आमञ्चर तोले, तथा हर्र, आमला, बहेड़ा, शुद्ध पारा, सांठ, तथा आमवातको भी नष्ट करता है। मिर्च, पीपल, बच, चीतामूल, बायबिडंग, काला जीरा, सफेद जीरा, दन्तीमूल और पुनर्नवामूल; जो शूल कभी नाभिके नीचे और कभी बाई इनका चूर्ण ५-५ तोले एवं इलायची और पसलीमें होता हो उसमें तथा परिणाम शूल, भ्रम कुटकीका चूर्ण १०-११ तोला तथा शुद्ध गन्धक और पृष्टशूलमें यह रस खिला कर ऊपरसे ठण्डे ७॥ माशे, शुद्ध गूगल २॥ तोले और दालचीनीका पानीमें जवाखार मिला कर पिलाना चाहिये। चूर्ण २॥ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी सर्वरोगहरबालरसः कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर खरल करें। तत्पश्चात् (कलई की हुई) प्र सं. ४७४३ " बालरसः " देखिये । तांबेकी कढ़ाई में यह चूर्ण और १ सेर घी, ४ सेर दूध __ (८१७५) सर्वरोगान्तकवटी तथा ३ सेर त्रिफलेका वस्त्रपूत काथ डालकर सबको लोहेकी करछीसे चलाते हुवे मन्दाग्निपर पकावें । जब । (र. र. स. । उ. अ. १६ ; र. चं. । अजीर्णा.) पाक तैयार हो जाय तो उसे शीतल करके स्निग्ध शुद्धस्तं विषं गन्धमजमोदं फलत्रयम् । पात्रमें भर कर सुरक्षित रखें। सर्जीक्षारं यवक्षारं वहिसैन्धवजीरकम् ॥ इसे १ रत्तीसे आरम्भ करके रोगीकी शक्त्यनु- सौवर्चलं विदानि सामुद्रं यूपणं समम् । सार मात्रा बढ़ाते हुवे खिलाना चाहिये । औषधको । विषमुष्टिः सर्वतुल्या जम्बीराम्लेन मर्दितम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः मरिचाभा वटी खादेवसिमान्धप्रशान्तये। ततो भाण्डतृतीयांशे सिकतापरिपूरिते। पध्या शुण्ठा गुढं चानु पलार्ध भक्षयेत्सदा ॥ निधाय सिकता मूर्ध्नि सिकताभिः प्रपूरयेत् । अभिमान्ये वटी ख्याता सर्वरोगकुलान्तका ॥ रुध्वास्यं तदधो वह्नि ज्यालयेत्सार्धवासरम् ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक स्वाङ्गशीतलितं काचकुप्या आकृष्य त रसम् । तथा अजमोद, हर्र, बहेड़ा, आमला, सज्जीखार, पटचूणे विधायाथ ताम्रमभ्रं पलद्वयम् ॥ यवक्षार, चीतामूल, सेंधा नमक, जीरा, सञ्चल | पलार्धममृतं चैव मरिचं च चतुष्पलम् । ( काला नमक ), बायबिडंग, सामुद्र लवण, सांठ, एकीकृत्य क्षिपेत्सर्वं नारिकेरकरण्डके ॥ मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण १-१ भाग एवं साज्यो गुअाद्विमानो हरति रसवरः ॥ शुद्ध कुचलेका चूर्ण सबके बराबर ले कर प्रथम सर्वलोकाश्रयोऽयं वातश्लेष्मोत्थरोगान्गुदजपारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें नितगदं शोषपाण्ड्डामयं च । अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सबको जम्बीरी | यक्ष्माणं वातशूलं ज्वरमपि निखिलं नीबूके रसमें खरल करके काली मिर्च के समान वहिमान्धं च गुल्मं ॥ गोलियां बना लें। तत्तद्रोगघ्नयोगैःसकलगदचयं दीपनं तत्क्षणेन ॥ शुद्ध पारद और गन्धक ५-५ तोले; शुद्ध इनके सेवनसे अग्निमांद्यका नाश होता है। हरताल और स्वर्णमाक्षिक-भस्म २॥-२॥ तोले तथा इनमेंसे एक गोली खा कर हरी, सेांठ और शुद्ध बछनाग और खपरिया ११-१। तोला ले कर गुड़का समान भाग मिलित २॥ तोले ( व्य. मा. सबको एकत्र खरल करके कजली बनावें। तदनन्तर ३ माशे ) चूर्ण खाना चाहिये। उसे नीबूके रसमें ३ दिन खरल करके छोटी (८१७६) सर्वलोकाश्रयरसः छोटी गोलियां बना लें और उन्हें सुखाकर कपड़ मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें डाल कर उसके (र. र. स. । उ. अ. १५; र. रा. मुखको ताम्र पत्रसे बन्द करके उसके ऊपर १॥ सु. । अर्शी. ) अंगुल मोटा मिट्टीका लेप करके सुखा लें । तत्पशुद्धं सूतं पलं गन्धं गन्धाधु तालताप्यहम् । इचात कपड़मिट्टी की हुई एक मिट्टीकी हांडीका अमृतं रसकं चैव तालकाविभागिकम् ॥ तीसरा भाग रेतीसे भर कर उसके ऊपर वह शीशी एतेषां कज्जली कुर्यादृढं सम्पर्ध वासरम् । रक्खें और हांडीको रेतसे भर दें । हांडी इतनी त्रिदिनं मर्दयेचाय दत्वा निम्बुजलं खलु ॥ बड़ी होनी चाहिये कि शीशीका मुंह उससे बाहर वटीकृत्य विशोष्याथ काचकुप्यां निधापयेत् । न निकले। इसके बाद हांडीके मुख पर शराव निष्कतुल्याऽर्कपत्रेण पिधायास्यं प्रयत्नतः॥ ढक कर उस पर कपड़मिट्टी करके सुखा लें और साजिष्टमितोत्सेघ मृत्स्नया तां विलिप्य च।। हांडीको भट्टी पर चढ़ा कर उसके नीचे १॥ दिन For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मात्रा ३२८ ( ३६ घंटे ) आग जलावें और फिर हांडीके स्वांगशतिल होने पर शीशी से औषध निकाल कर बारीक चूर्ण बनावें तथा उसमें ५-५ तोले अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म, २॥ तोले शुद्ध बछनागका चूर्ण और २० तोले काली मिर्चका चूर्ण मिला कर सबको अच्छी तरह खरल करके शीशी में भर कर सुरक्षित रक्खें । - २ रत्ती । भारत - भैषज्य रत्नाकरः अनुपान - घी में मिला कर सेवन करें । इसके सेवन से वातकफज रोग, अर्श, शोष, पाण्डु, राजयक्ष्मा, वातज शूल, ज्वर, अग्निमांद्य और गुल्मका नाश होता है । (८१७७) सर्व सुन्दररसः (१) ( र. प्र. सु. । अ. ८ ) सूतगन्धविषमेव कारये -- द्भागवृद्धमथ मर्दयेत्ततः । आर्द्रवह्निजरसेन यत्नतः पाचितो हि लवणाख्ययन्त्रके ॥ भक्षितो हि किल वलमात्रया क्षौद्रण सह पिप्पलीयुतः । पूर्णचन्द्रवदयं हि सेवितो यक्ष्म हा भवति वातरोग हा ॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध बन्धक २ भाग और शुद्ध बचनाग ३ भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें और फिर अदरक तथा चीतेके रसकी एक एक भावना दे कर शरावसम्पुट में बन्द करके बालुकायन्त्र में पकावें । जब स्वांग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि शीतल हो जाय तो औषधको निकाल कर पीस कर सुरक्षित रक्खें । मात्रा - ३ रत्ती । ( व्यवहारिक मात्रा - १ रती 1 ) इसे पीपल के चूर्ण और शहद के साथ सेवन करनेसे राजयक्ष्मा और वातजरोगका नाश होता है । 19 इसमें पथ्यादिकी व्यवस्था " पूर्ण चन्द्र रस के समान करनी चाहिये । (८१७८) सर्वसुन्दररसः (२) ( र. चि. भ. । स्त. ७ ) गद्याणैकं सुकर्पूरं कनकं कङ्गुणी पुरम् । समं समं गृह्य सर्वमेकत्र परिमर्दयेत् ॥ माहा सर्पगरलं भावना कार्यते ततः । अहिफेनरसस्यापि शृङ्गीविषस्य भावनाः ॥ वृक्षादन्या भवेदेका शोषयित्वा पुनः पुनः । योग्यमात्रा वटी कार्या पश्चादेकाऽथ दीयते ।। गलग्रहे ग्रहण्यां तमतिसारे प्रयोजयेत् । अयमर्शःसु देयः स्याद्वात जेषु पुनः पुनः ॥ कफजेषु तथा द्वन्द्वसमुद्भूतेषु दीयते । रोगयोग्यानुपानेन दातव्यः सर्व सुन्दरः ॥ नारङ्गं शर्करा द्राक्षा दधि रम्भाफलं तथा । घृतशृतं प्रयुञ्जीत भक्तं नक्तं प्रशस्यते ॥ तत्रोपयोगिकं यच्च प्रयोज्यं तद्भिषग्वरैः । शीतलं सलिलं दद्यात्सुवासकुसुमानि च ।। अतितापो भवेदने घृताक्तं शीतवारिणा । त्रापयेद्रोगिणं पश्चात्तदासौ लभते सुखम् कपूर, स्वर्ण भस्म, मालकंगनी और शुद्ध गूगल समान भाग कर सबको एकत्र खरल For Private And Personal Use Only || Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] करके सत्यानाशीमूल ( चोक) के काथ, सांपके विष, अफीमके पानी, बछनागके काथ और बिदारीकन्दके रसकी १–१ भावना दे कर ( मूंगके बराबर ) गोलियां बना लें । हर बार भावना देनेके पश्चात् औषधको सुखा लेना चाहिये । इसे रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे गलग्रह, ग्रहणी, अतिसार, वातार्श, कफार्श और द्वन्द्वजाका नाश होता है । पथ्य - नारङ्गी, खड, मुनक्का, दही, केला और घृत डालकर पकाया हुवा भात | भोजन रात के समय कराना चाहिये । यदि अधिक गरमी हो तो शीतल जल पिलाना, सुगन्धित फूलों की माला पहिनाना और शरीर पर घीकी मालिश कराके शीतल जलसे स्नान कराना चाहिये । (८१७९) सर्वाङ्गकम्पारिरसः ( र. र. । वातव्या . ) मृतं सूतं ताम्रं मर्दयेत्कटुकद्रवैः । एकविंशतिवारं च शोष्यं पेष्यं पुनः पुनः ॥ चणमात्रा वटी भक्ष्या रसः सर्वाङ्गकम्प जित् पारद भस्म और ताम्र भस्म समान भाग ले कर दोनोंको एकत्र खरल करके त्रिकुटे ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) के काथकी २१ भावना दें । हरेक भावना के पश्चात् औषधको सुखा लेना चाहिये । २१ भावना पूरी होनेके पश्चात् चनेके समान गोलियां बना लें | ૪૨ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२९ इनके सेवन से सर्वाङ्गकम्प ( समस्त शरीरका कांपना ) रोगका नाश होता है । (८१८०) सर्वाङ्गसुन्दर चिन्तामणिरसः ( र. र. स. अ. १२ ) अभ्रकं गन्धकं सूतं तो कैकं पृथक्पृथक् । गृहीत्वा विषतोलार्धं तोलार्ध तिन्तिडीफलम् || एतत्सर्वं समं कृत्वा मर्दयेत्खत्वमध्यतः । श्लक्ष्णतां याति तद्यावत्तावत्सम्मर्दयेच्छनैः ॥ विस्तारे परिणाहे च गर्दा कृत्वा पङ्गुलाम । फणिवल्लीदलान्यन्तर्गतयां प्रक्षिपेन्नरः ॥ पर्णेषु सूतकल्कं तं गर्तायां स्थापयेद्दृढम् । कल्कादुपरि तत्पर्णैतवक्त्रं प्रपूरयेत् ॥ परि पुढं देयं तत आरण्यकोत्पलैः । स्वाङ्गशीतलतां ज्ञात्वा समाकर्षेत्ततः सूतलिप्तदलैः सार्धं कल्कं खल्वे विमईयेत् । परम् ॥ तोलार्धममृतं क्षिप्त्वा तोलार्ध तिन्तिडीफलम् ।। स्थापयेत्खल्वितं कल्कं योजयेद्गुञ्जमानया । शृङ्गवेराम्भसा युक्तं तीक्ष्णचित्रक सैन्धवैः ॥ सन्निपाते तथा वाते त्रिदोषे विषमज्वरे । मान्छे ग्रहण्यांच तथा देयोऽतिसारिणि ।। भोजनं दधिभक्तं च रसेऽस्मिन्संप्रयोजयेत् । व्यावादिकं यथा कुर्यादुदकं ढालयेत्ततः ॥ एष योगवरः श्रीमान्प्राणिनां प्राणदायकः । चिन्तामणिरिति ख्यातो रसः सर्वाङ्गसुन्दरः ॥ अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारा १ - १ तोला तथा शुद्ध बछनाग और तिन्तड़ी फल ( इमलीके फल ) आधा आधा तोला ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनायें और फिर उसमें For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि - अन्य ओषधियां मिला कर इतना खरल करें कि चूर्णीकृतं सविषमौक्तिकन्दुिमांशं सब चीजें अत्यन्त बारीक हो जाएं। तदनन्तर जम्बीरनीरफलसत्वपुटेन पक्वम् ।। ६ अंगुल लम्बा, छ: अंगुल चौड़ा और ६ अंगुल | सिद्धो भवेद्रससिताहविवान्लीढः गहरा गढ़ा खोद कर उसमें आधी दूर तक पान ___ सर्वाङ्गसुन्दर इति प्रथितो गदारिः । बिछा दें और उनके ऊपर उपरोक्त औषध रखकर | जीर्णज्वरारुचिवलक्षयमेहगढ़ेको मुंह तक पानोंसे भर दें एवं उसके ऊपर हृद्रुकमयभ्रमगुदोदररोगहन्ता । अरने उपले (करडे) रख कर पुट लगा दें। पुटके | स्वर्ण-भस्म १ भाग, अभ्रक भस्म ३ भाग, स्वांग शीतल होने पर राखको अलग करके गढ़ेके शुद्धगन्धक ५ भाग, शुद्ध पारद ६ भाग, सुहागा भीतरसे औषध और पानोंको निकाल कर सबको २ भाग, स्वर्णमाक्षिकभस्म ३ भाग, ताम्र-भस्म एकत्र मिला कर खरल करें और उसमें आधा | ४ भाग तथा शुद्ध बछनाग, मोती और प्रबाल आधा तोला शुद्ध बछनागका चूर्ण तथा इमलीके ! (मूंगा) १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी फल (बीजरहित) मिला कर अच्छी तरह खरल कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका करके बारीक करें । चूर्ण मिलाकर सबको जम्बीरी नीबूके रस और मात्रा-१ रत्ती। त्रिफलाके क्वाथकी एक एक भावना देकर शरावऔषधको काली मिर्च, चीतामूल और सेंधा- सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकावं । तदनन्तर नमकके समान भाग मिश्रित ( १ माशा ) चूर्णमें पुटके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकालकर मिला कर अदरकके रसके साथ सेवन करना सुरक्षित रक्खें। चाहिये। इसे मिश्री और घीके साथ सेवन करनेसे इसके सेवनसे सन्निपात, वातव्याधि, त्रिदो जीर्णज्वर, अरुचि, बलक्षय, प्रमेह, हृदय-पीड़ा, पज विषम ज्वर, अग्निमांदा संग्रहणी और अति भ्रम, गुदरोग और उदररोगोंका नाश होता है। सारका नाश होता है। ( मात्रा-१ रत्ती) पथ्य-दही भात । (८१८२) सर्वाङ्गसुन्दररसः (२) यदि इसके सेवनसे अधिक बेचैनी हो तो (रसे. सा. सं. । रेचना; र. चं.) शरीर पर शीतल जल डालना चाहिये । शुद्धमूतश्च गन्धश्च विषश्च जयपालकम् । कटुत्रयश्च त्रिफला टकणश्च समांशकम् ॥ (८१८१) सर्वाङ्गसुन्दररसः (१) । अस्य मात्रा प्रयोक्तव्या गुञ्जात्रयसमा ततः । (र. का. घे.। अर्शी. ) सर्वेषु ज्वररोगेषु सामवाते विशेषतः ॥ हेमाभ्रगन्धरसटङ्कणताप्यताम्र नाशयेच्छासकासश्च अग्निमान्य विशेषतः। चन्द्राग्निवाणरसयुग्मगुणाब्धिमानम् । । ब्रह्मणा निर्मित: पूर्व रसः सर्वाङ्गसुन्दरः॥ For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पश्चमो भागः शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, शुद्र की सहायतासे ( ३-३ रत्तीकी ) गोलियां बनाजमालगोटा, सेठ, कालीमिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, | कर छायामें सुखालें । आमला और सुहागेकी खील समान भाग लेकर इनके सेवनसे अङ्गमर्द और पीडायुक्त समस्त प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर प्रकारके प्रदर, ८० प्रकारके वातज रोग, कष्टसाध्य उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर अच्छी तरह खरल अग्निमांद्य, ज्वरयुक्त संग्रहणी, रक्तपित्त, अरुचि, पांच करके ( पानीकी सहायता से ) ३-३ रत्तीकी प्रकारकी कास, प्रतिश्याय, श्वास और हृद्रोगोंका गोलियां बनालें। नाश होता है। इनके सेवनसे (विरेचन होकर) ज्वर, आम- (८१८४) सर्वाङ्गसुन्दररसः (४) वात, श्वास, कास और अग्निमांधका नाश (भै. र. । राजय.) होता है। रसं गन्धश्च तुल्यांशं द्वौ भागौ टङ्कणस्य च। (८१८३) सर्वाङ्गसुन्दररसः (३) मौक्तिकं विद्रमं शङ्खभस्म देयं समांशिकम् ॥ ( भै. र. । स्त्रीरोगा.) हेमभस्मार्द्धभागश्च सर्व खल्ले विमर्दयेत् । निम्बूद्रवेण सम्पिष्य पिण्डिकां कारयेत्ततः ॥ गगनं शोधितं ग्राह्य पलैकमिष्टकासमम् । पश्चाल्लघुपुटं दत्वा सुशीतश्च समुद्धरेत् । टणं स्याच्चतुर्थाशं शाणार्दै त्रिसुगन्धिकम् ॥ हेमभस्मसमं तीक्ष्णं तीक्ष्णा? दरदं मतम् ॥ कपूर नलदश्चैव जातीकोषं जलं घनम् ।। एकीकृत्य समस्तानि मूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । नागेश्वरलवाश्च कुष्ठं सत्रिफलं तथा ॥ ततः पूनां प्रकुर्वीत रसस्य दिवसे शुभे ॥ जलेन वटिका कार्या छायया शोषयेत्तु ताम् । सर्वाङ्गसुन्दरो ह्येष राजयक्ष्मनिकृन्तनः । प्रदरं नाशयेत्सर्व साङ्गमदै सवेदनम् ॥ वातपित्तज्वरे घोरे सन्निपाते मुदारुणे ॥ अशीतिर्वातजान् रोगान् मन्दाग्निमतिदारुणम । | अर्शसि ग्रहणीदोषे मेहे गुल्मे भगन्दरे । सज्वरग्रहणीं चैव रक्तपित्तमरोचकम् ॥ निहन्ति वातजान रोगान् श्लैष्मिकांश्च विशेषतः।। कासान् पञ्च प्रतिश्यायं श्वासं हृद्रोगमेव च ॥ पिप्पलीमधुसंयुक्तं घृतयुक्तमथापि वा। इंटके समान रंगवाली अम्रकभस्म. ५ तोले, TWARI , नोले भक्षयेत् पर्णखण्डेन सितया चाकेण वा ॥ सुहागेकी खील ११ तोला; दालचीनी, इलायची, शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक १ भाग, तेजपात, कपूर, खस, जावत्री, सुगन्धवाला, नागर-सुहागा २ भाग, मोतीको भरम १ भाग, प्रवाल मोथा, नागकेसर ( अथवा सीसाभस्म ), लौंग, i (मूंगा )-भस्म १ भाग, शंख-भस्म १ भाग, कूल, हर्र, बहेड़ा और आमला; इनका चूर्ण २॥- और स्वर्ण-भस्म आधा भाग लेकर प्रथम पारे.२॥ माशे लेकर सबको एकत्र खरल करके पानी- ! गन्धकको कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि औषधे मिलाकर नीबूके रस में खरल करके पारद-भस्म, साम्र-भस्म, शुद्ध मनसिल, सबका एक गोला बनावें और उसे शराव-सम्पुट | स्वर्णमाक्षिक-भस्म, शुद्ध हरताल, सेंधा नमक, में बन्द करके लघुपुटमें पकायें । तत्पश्चात् पुटके काला नमक, बिड लवण, काच लवण, और स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल कर सामुद्र लवण १-१ भाग एवं स्वर्ण भस्म उसमें आधा भाग तीक्ष्णलोह-भस्म और चौथाई दसवां भाग और शुद्ध छनाग १ भाग लेकर भोग शुद्ध हिंगुल मिलाकर अच्छी तरह खरल सबको एकत्र मिलाकर कुचला, जया, बासा करें। (अडूसा), भांग, रक्तशाकिनी, तुलसी, महाराष्ट्री इसके सेवनसे राजयक्ष्मा, वातपित्तञ्चर, भयं (जलपीपल) और धतूरा; इनके स्वरस या क्वाधमें कर सन्निपात, अर्श, सं. हणी, प्रमेह, गुल्म, पृथक पृथक १-१ दिन खरल करके गोला भगन्दर, और वातज तथा कफज रोगोंका नाश बनावें और उसे सुखाकर शराव-सम्पुट में बन्द होता है। करके तुर्षोंकी अग्निमें पकावें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकालकर पीसलें । इसे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ, या मात्रा-४ रत्ती। धीके साथ, पानके साथ, या मिश्रीके साथ अथवा अदरकके रसके साथ खाना चाहिये। इसे सांठके चूर्ण और घीके साथ सेवन करने से गुल्म तथा शूलका नाश होता है। ( मात्रा-२ रत्ती।) (८१८५) सर्वाङ्गसुन्दररसः (५) (८१८६) सर्वाङ्गसुन्दररसः (६) (र. का. धे.। प्रमेहा.) (वृ. नि. र.; र. र. । शूला.) रसालनागौलानि तुत्यं गन्धकसोमलम् । मृतं मूतं मृतं तानं शिलामाक्षिकतालकम् । | सहदेवीनिम्बविम्बीरसैः सम च सप्त च ॥ चूर्ण येल्लवणं पश्च एतदशकतुल्यकम् ॥ दिनानि सम्पर्ध दृढं कृप्यां हाशियामकम् । मृतं स्वर्ण च निक्षिप्य मूतान्तर्दशमांशकम् । बहिशीतो मेहहरो रसः सक्सिन्दरः। सूततुल्यं वत्सनाभं चूर्ण भाव्यं दिनावधि । शुद्ध पारद, शुद्ध हरताल, सीसा भस्म विषमुष्टचा जया वासा विजया रक्तशााकना। शुद्ध मनसिल, शुद्ध नोलायोथा, शुद्ध गन्धक पर्वरी च महाराष्ट्रीद्रवैर्धस्तूरजैस्तथा ॥ और शुद्ध सोमल ( संखिया) समान भाग लेकर रुवा तुपपुटे पाच्यं समुद्धत्य विचूर्णयेत् । प्रथम पारे-न्धकको कञ्जली बनावें और फिर सर्वाङ्गसुन्दरो नाम रसो गुना चतुष्टयम् ॥ उसमें अन्य औषध मिलाकर सहदेवोके रस या भक्षयेद्धृतशुण्ठीभ्यां हन्ति गुल्मं सशूलकम् ॥ क्वाथ, नीमकी छालके क्वाथ मोर कन्दूरीके रसकी For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः - पृथक् पृथक् सात सात भावना देकर कपड़मिट्टी की १-१ भाग पीपल और शुद्ध बछनागका चूर्ण हुई आतशी शीशीमें भरकर ३२ पहर (बाल-मिलाकर खरल कर ले। कायन्त्रमें ) पकावें । तदनन्तर यन्त्रके स्वांगशी- । यह समस्त वातविकारों और समस्त प्रकारतल होने पर औषधको निकाल कर पीस लें। के शूलोंको नष्ट करता है। इसके सेवनसे प्रमेह नष्ट होता है। | (मात्रा-१ रत्ती) (मात्रा-१ रत्तो।) (८१८८) सर्वाङ्गसुन्दररसः (८) (८१८७) सर्वाङ्गसुन्दरसः (७) (पीतभस्म) (रसे. सा. सं. । अपस्मारा.; धन्च.; र. रा. सु.। (रसे. सा. सं. ; र. चि. म. । स्त. २ ; र. का. धे.) __ अपस्मारा.) मईयेइसगन्धौ च हस्तिशुण्डीद्रवैदृढम् । भूधात्रिकारसैर्वापि पर्यन्तं दिनसप्ततः ।। शुदमताभ्रताम्रायो हिकलं कार्षिकं समम्। विघृष्य वालुकायन्त्रे मृषायां सनिवेशयेत् । गन्धकश्चैकभागः स्यात्सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ दिनमेकं ददेदग्निं मन्द मन्दं निशावधि । समपर्णार्कस्नुक क्षीरवासावावारिवारिणा । एवं निष्पद्यते पीतः शीतः मूतस्तु गृह्यते । विषमुष्टिसमं सर्व पेष्यन्तगोलकी कृतम् ॥ पर्णखण्डेन तद्गुआं भक्षयेच्छ्रयतां मम ॥ विपचेद्वालुकायन्ने द्वियामान्ते समुद्धरेत् । क्षुद्रोधं कुरुते पूर्वमुदराणि विनाशयेत् । पिप्पलीविषसंयुको रसः सर्वासुन्दरः ॥ | ज्वराणां नाशनः श्रेष्ठस्तद्वच्छ्रीसुखकारकः । सर्ववातविकारनः सर्वशूलनिम्दनः। हृदयोत्साहजननः स्वरूपतनयप्रदः। शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, ताम्र-भस्म, लोह, बलमदः सदा देहे जरानाशनतत्परः ॥ भस्म, शुद्ध हिंगुल और शुद गन्धक १-१ भाग आभङ्गादिकं दोषं सर्व नाशयति क्षणात् । एवं शुद्र कुचलेका चूर्ण सबके बराबर लेकर प्रथम एतस्मानापरः मूतो रसात्सर्वाङ्गसुन्दरात् ।। पारे गन्धककी कजली बनावें और उसमें अन्य समान भाग शुद्ध पारद और गन्धककी औषधे मिलाकर सप्तपर्ण ( सातविन), स्नुही कज्जली बनाकर उसे हाथीसूंडी या भुइआमलेके (सेंड-यूहर) और आक के दूध तथा बासा (अडू- रसमें सात दिन खरल करके मूषामें बन्द करें और सा) के स्वरस और अरण्डमूलके क्वाथको १-१ बालकायन्त्र में १ दिन मन्दाग्नि पर पकावें । तदभावना देकर सबका एक गोला बनावें और उसे नन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल मुखाकर शराव-सम्मुटमें बन्द करके २ पहर लें। इसका रंग पीला होगा। बालुकायत्रनें पकावें । तदनन्तर जब वह स्वांग- मात्रा-१ रत्तो। पानमें रख कर खाना शोतल हो जाए तो औषधको निकालकर उसमें चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि इसके सेवनसे उदर रोगोंका नाश होता और इसके सेवनसे कफवातज रोग और समस्त क्षुधाकी वृद्धि होती है । यह रस ज्वरनाशक श्रेष्ठ प्रकारके शूलोंका नाश होता है। औषध है । इसे सेवन करनेसे कान्ति, सुख, उत्साह इसे सांठ और अरण्डमूलके चूर्णके साथ मिऔर बलको वृद्धि होती तथा जरा और अङ्गभङ्गा- लाकर खाना चाहिये और ऊपर से सांठ, मिर्च, दिका नाश होता एवं स्वरूपवान पुत्रकी प्राप्ति पीपल, संचल (काला नमक), हींग और करा होती है। । बीजका समान भाग मिश्रित चूर्ण (१ माशा) (८१८९) सर्वाङ्गसुन्दारसः (९) गर्म पानीके साथ पीना चाहिये। (धन्व. ; र. चं. ; रसे. सा. स. ; र. रा. सु. । शूला) शुद्धसूतं तथा तानं शिलामाक्षिकतालकम् । (८१) सवाङ्गसुन्दररसः (१०) रजतं स्वर्णवङ्गश्च लौहमभ्रं सनागरम् ।। । (रसे. सा. सं.; र. चं. । राजयक्ष्मा. ; र. रा. सु.; चूर्णयेत्पश्चलवणं देयं सर्वन्नु तुल्यकम् । ___ र. र. ; धन्व ; भै. र. । राजयक्ष्मा.) गन्धकं मिश्रयेत्सर्व रसैरेषां विभावयेत् ।। | रसं गन्धश्च तुल्यांशं दो भागो रङ्कणस्य च । शुण्ठी जयन्ती विजया महाराष्ट्रिकधूर्तजैः ।। । मौक्तिकं विद्रुमं शलभस्म देयं समांशिकम् ।। सर्वाङ्गसुन्दरो नाम्ना रसोयं विष्णुनिम्मितः॥ खादेदेरण्डशुण्ठीभ्यां माषमात्र दिने दिने । । हेमभस्मार्द्धभागच सर्व खल्ले विपईयेत् । कफवातामयं हन्ति चानुपानं वदाम्यहम् ॥ निम्बुद्रवेण सम्पिष्य पिण्डिकां कारयेत्ततः ।। व्योषं सौवर्चलं हिङ्गु करअबीजसंयुतम् । पश्चाद्गजपुटं दत्त्वा सुशीतश्च समुद्धरेत् । पिबेदुष्णाम्बुना चानु सर्वशूलनिकृन्तनम् ॥ हेमभस्मसमं तीक्ष्णं तीक्ष्णार्द्ध दरदं मतम् ।। ___ शुद्ध पारद, ताम्रभस्म, शुद्ध मनसिल, स्वर्ण- एकीकृत्य समस्तानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । माक्षिक-भस्म, शुद्ध हरताल, चांदी-भस्म, स्वर्ण-- ततः पूजां प्रकुर्वीत रसस्य दिवसे शुभे । भस्म, बंग-भस्म, लोहभस्म, अभ्रक भस्म, सेांठ सर्वाङ्गसुन्दरो ह्येष राजयक्ष्मनिकुन्तनः। का चूर्ण, पांचों नमक और शुद्ध गन्धक समान | वातपित्तचरे घोरे सनिपाते सुदारुणे ॥ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें अःस ग्रहणीदोषे मेहे गुल्मे भगन्दरे । और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सेठिके निहन्ति वातजावोगाञ्छेष्मिकांश्च विशेषतः॥ काथ, जयन्ती (जैत ) के पत्तोंके रस, भांगके रस (या काथ ); जलपीपलके रस और धतूरेके पिप्पलामधुसयुक्त घृतयुक्तमथाप वा। पत्तोंके रसकी १-१ भावना देकर सुखा लें। | भक्षयेत्पर्णखण्डेन सितया चाईकेण वा ॥ मात्रा-१ माशा । व्यवहारिक मात्रा- शुद्ध पारद और गन्धक १-१ भाग, सुहागा १-२ रत्ती।) । २ भाग, मोती, प्रवाल-भस्म और शंख-भस्म For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः १-१ भाग एवं स्वर्ण-भस्म आधा भाग (८१९१) सर्वारोग्यरस: (सर्वारोग्यवटी) लेकर पारे-गन्धककी कजली बनावें और फिर (र. र. स. ! उ. अ. १६) उसमें अन्य औषधे मिलाकर नीबूके रसमें खरल करके सबका एक गोला बना लें और उसे शराव रसं पलमितं तुल्यं शुद्धनागेन संयुतम् । सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकावें । तदनन्तर द्रावयित्वाऽऽयसे पात्रे सतैले निक्षिपेक्षितौ ।। उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकालकर ततो द्रुते विनिक्षिप्य गन्धके तद्विलोडय च । उसमें आधा भाग तीक्ष्ण लोह-भस्म और चौथाई पुनरायसपात्रे तक्षिप्त्वा प्रद्राव्य निक्षिपेत् ॥ भाग शुद्ध हिंगुल मिलाकर अच्छी तरह खरल तत्तुल्यं जारयेत्तालं पुनः सय पूर्ववत् । | तत्तुल्यां जारयेत्सम्यक कुनटी परिशोधिताम् ॥ तत्तुल्यं चूर्णितं तस्मिन्क्षिपेन्नागं निरुत्थकम् । इसके सेवन से घोर वातपित्तज ज्वर, भयंकर तावदेव मृतं ताप्यं सर्वमन्यच्च तत्समम् ।। सन्निपात, अर्श, संग्रहणी, प्रमेह. भगन्दर, गुल्म, तीक्ष्णायःखपरं व्योम हिङ्गलं च शिलाजतु । वातज रोगों और विशेषतः कफज रोगोंका नाश पृथकर्षाशमानेन पट्कोलं कटफलं मिशी ॥ होता है। दीप्यकं च चतुर्जातं रेणुकोशीरवेल्लकम् । इसे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ, अथवा तुम्बरु भाणिकां राम्नां कङ्कोल्लं चोरपुष्करम् ॥ घीके साथ, या पानके साथ अथवा मिसरीके साथ रिङ्गिणी चिरतिक्तं च वीजान्युन्मत्तकस्य च । पलद्वयं च लागल्याः सर्वेषां द्वादशांकम् ॥ या अदरकके रसके साथ सेवन करना चाहिये । वत्सनाभं सितं भूरि विनिक्षिप्य ततः परम् । मात्रा–१ रत्ती। त्रिफलानां दशाड्डीणां कषायेण ततः परम् ॥ सर्वाङ्गसुन्दररसः (११) जयन्त्याईकवासानां मार्कवस्य रसैस्तथा । (र. च. । अतिसा.) भावयित्वा च कर्तव्या वटकाचणकोपमाः ॥ एकेका वटिका सेव्या कुर्यात्तीव्रतरां क्षुधाम् । प्र. सं. ५५३९ " महा गन्धक '' को विषूचीमरति हिका सेव्यं स्वादु च शीतलम् ।। यदि पकाया न जाए और सब चीजोंको एकत्र | सामांच ग्रहणीं सदाङ्गतुदनं शोषोत्कटं पाण्डुतामिलाकर खरल कर लिया जाय तो उसीका नाममाति वातकफत्रिदोषजनितांशूलं च गुल्मामयम् ।। " सर्वाङ्गसुन्दर" हो जाता है । हिकाध्मानविचिकां च कसन श्वासार्शसां विद्रधि सर्वारोग्यवटी क्षणाद्विजयते रोगांस्तथान्यानपि।। सर्वाङ्गसुन्दररसः (१२) ५ तोले शुद्ध पारमें ५ ताले शुद्ध सीसेके प्र. सं. ४४८१ "प्राणेश्वरो रसः" देखिये । पत्र मिलाकर खरल करें और दानोंके मिल जाने For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर [सकारादि पर लोहे की कढ़ाई में थोड़े तेल के साथ पिघलावें | युक्त संग्रहणी, अंगतोद, शोष, पाण्डु, वातज कफज और पिघल जाने पर स्वच्छ भूमि पर डाल दें। और त्रिदोषज शूल, गुल्म, अफारा, खांसी, श्वास, तदनन्तर कढाईमें ५ तोले गन्धकको पिघलाकर | अर्श और विद्रधि आदि अनेक रोगोंको नष्ट उसमें उपरोक्त मिश्रण डालकर अच्छी तरह आलो. | करता है । डित करें और उसमें १० तोले शुद्ध हरतालका | ___ इसके सेवन कालमें मधुर और शीतल पदार्थ चूर्ण जरा जरासा डालकर जारित करें । तदनन्तर | खिलाने चाहिये। उसे अग्निसे नीचे उतारकर ठंडा करके चूर्ण करलें (८१९२) सर्वेश्वरचूर्णम् (१) और पुनः कढ़ाई में चढ़ाकर उसमें उपरोक्त विधिसे १० तोले शुद्ध मनसिलका चूर्ण जारित करें । (र. र. । शूला.) तत्पश्चात् उसे अग्निसे नीचे उतारकर ठण्डा कर | त्रिकटुत्रिफलाचूर्ण चूर्ण शम्बूकनाननम् । लें और १०-१० तोले निरुत्थ नागभस्म, स्वर्ण- यवक्षारं तथा रक्तकठिनी कामरूपिणी ।। माक्षिक-भस्म, तीक्ष्ण लोह-भस्म, शुद्ध खपरिया, | शक्रचूणे समधुर्फ क्षारं दावदलोद्भवम् । अभ्रक भस्म, शुद्ध हिंगुल और शुद्ध शिलाजीत यावन्त्येतानि चूर्णानि मण्डूरं द्विगुणन्ततः ।। तथा ११-११ तोला पीपल, पीपलोम्ल, चव, मण्डूरं द्विगुणं कार्य गोमूत्रैः सप्तचैव हि । चीतामूल, सेठ, काली मिर्च, कायफल, सौंफ, | कलम्बी स्वरसैः शुद्धं शोधयेत्सुविचक्षणः ।। अजवायन, दालचीनी, तेजपात,इलायची, नागकेसर, | एकीकृत्य प्रयत्नेन चूणे सर्वेश्वरादयम् ।। रेणुका, खस, बायबिडंग, तुम्बरु, भरंगी, रास्ना, | प्राङ्मध्यान्तक्रमेणैव भोजनस्य प्रयोजयेत् ॥ कङ्कोल, चोरपुष्पी, पोखरमूल, कटेली, चिरायता, मात्रया चानुपानञ्च शुष्कपत्रनले पयः । और धतूरेके बीज; इनका चूर्ण तथा १० तोले गव्यमद्धशृतं कृत्वा शूलाच सर्वशः ॥ लांगलीकी जडका चूर्ण और सबका बारहवां भाग | मुच्यते मानवो यारग्विष्णोराराधने भवात् । शुद्ध सफेद बछनागका चूर्ण मिलाकर खरल करें | प्लीहगुल्मोदरादोंश्च मन्दाग्नित्वमरोचकम् ॥ एवं त्रिफला और दशमूलके काथ तथा जयन्ती कासं पञ्चविधं चाप उरुस्तम्भामवातकान् । (जैत ), अदरक, बासे और भंगरे के स्वरसकी हन्यादेव प्रयोगोऽयमश्विभ्यां निर्मितः पुरा ॥ १-१ भावना देकर चनेके समान गोलियां बनालें। सेठ, मिर्च, पीपल, हरी, बहेड़ा, आमला, मात्रा-१ गोली घोंधों ( क्षुद्र शंख ) के मुख, जवाखार, शुद्ध हिंगुल, खिडिया मिट्टी, असगन्ध, इन्द्रजौ, मुलैठी इसके सेवनसे क्षुधा अत्यन्त तीव्र हो | और चीतेके पत्तोंका क्षार १-१ भाग तथा तपा जाती है। तपा कर सात बार गोमूत्रमें और सात बार कल. यह रस विषूचिका, बेचैनी, हिचकी, आम- | म्बी ( पोई शाक ) के रसमें बुझाया हुवा मंडूर For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो मागः - - सबसे दो गुना ले कर सबको एकत्र मिला कर कूठ, नागरमोथा, साया, बच, चव्य, तेजपात और अच्छी तरह खरल करें। रास्ना; इनका चूर्ण १०-११ तोला, स्वर्णमाक्षिकइसे भोजनके आदि, मध्य और अन्तमें सेवन भस्म १। तोला, ताम्र-भस्म १। तोला, शुद्ध पारद करना चाहिये। ५ तोले, शुद्ध गन्धक ५ तोले और अभ्रक भस्म अनुपान-~-शुश्क पट्टशाक (पटुवाशाक) का १० तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी कञ्जली चूर्ण, जल, अथवा पकाते पकाते आधा रहा हुवा बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण गोदुग्ध । मिला कर सबको अच्छी तरह खरल करें । तदन न्तर उसमें सबसे दो गुनी लोह-भस्म मिला कर इसके सेवनसे हर प्रकारके शूल, प्लीहा, | पुनः खरल करें। गुल्म, उदररोग, अग्निमांद्य, अरुचि, पांच प्रकारको कास, उरुस्तम्भ और आमवातका नाश इसके सेवनसे शरीर रोगरहित हो जाता है । होता है। (८१९४) सर्वेश्वरपर्पटीरसः (८१९३) सर्वश्वरचूर्णम् (२) ( र. र. स. । उ. अ. १८) (र. र. । रसायना.) रसो रसलोहानि कार्षिकाणि पृथक् पृथक् । चित्रकं माणकश्चैव शूरणं घण्टकर्णकम् । तेषु लोहानि सर्वाणि पाषाणाः कठिनास्तथा।। ग्रन्थिकं त्रिफलाव्योष कट्फलं सपुननेवम् ॥ घनसस्वं च तत्सर्व भस्मीकृत्य प्रयोजयेत् । दण्डोत्पलं वृश्चिकाली रुदन्ती काकमाचिका । रत्नानि वल्लतुल्यानि भस्मीकृत्य च सर्वशः । सूर्यावर्तत्रिदृदन्ती क्रिमिघ्नं कुष्ठमुस्तकम् ॥ एभिश्चतुर्गुणः मूतो गन्धस्तस्माञ्चतुर्गुणः । शतपुष्पा वचा चव्यं पत्रं रास्ना च तोलकम्। कृत्वा कज्जलिकां ताभ्यां क्षिपेल्लोहस्य भाजने। माक्षिकाणाश्च ताम्राणां पलं गन्धकस्तयोः॥ प्रद्राव्य बदराङ्गारै निक्षिपेत्तदनन्तरम् । अभ्रक द्विपलं ग्राह्य पात्रे कृत्वा दृढोपमे । रसोपरसलोहानां रत्नानामपि सर्वशः॥ सर्वमेकत्र सम्म द्विगुणं मृतमायसम् ॥ चूर्ण भस्म च निक्षिप्य काष्ठेनाऽऽलोडय चूर्ण सर्वेश्वरो नाम सर्वामयनिवईणम् ॥ मेलयेत् । चीतामूल, मानकन्द, सूरण ( जिमीकन्द ), । ततश्च षोडशांशेन मिश्रयित्वाऽरुणं विषम ॥ घण्टकर्ण, पीपलामूल, हरं, बहेड़ा, आमला, सांठ, गोमयोपरि निक्षिप्ते निक्षिपेत्कदलीदले । मिर्च, पीपल, कायफल, पुनर्नवामूल, दण्डोत्पल, पत्रेणान्येन रम्भायाः समाच्छाद्य प्रयत्नतः ॥ वृश्चिकाली (बर्हण्टा), रुदन्ती (रुद्रवन्ती), मकोय, कराभ्यां चिपटोकृत्य क्षिपेदुपरि गोमयम् । सूर्यावर्त (हुल हुल), निसोत, दन्तीमूल, बायबिडंग, | ततः शीतं समाहृत्य चूर्णयित्वा च पर्पटीम् ॥ ४३ For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि विनिक्षिपेत्करण्डान्तः सम्पूज्य रसभैरवम् । चार गुना ले कर पारे गन्धककी कज्जली बनावें सर्वेश्वराभिधानेयं पर्पटी परिकीर्तिता ॥ और उसे घृतलिप्त लोहपात्रमें डाल कर बेरीके कोसर्वलोकहितार्याय नन्दिनेयं विनिर्मिता । यलोंको अग्निपर पिघलावें तत्पश्चात् उसमें उपरोक्त रक्तियुक्तसमानेयं मरिचाईसमन्विता ॥ समस्त औषधे डाल कर लकड़ोसे चला कर सबको विद्रधौ षट्प्रकारायां देया वसु सप्तम् । अच्छी तरह मिला दें। तदनन्तर सबका १६ वां क्षयरोगेषु सर्वेषु पाण्डुरोगे विशेषतः ॥ भाग लाल बछनागका चूर्ण मिलावें और फिर भूमि ग्रहणीरोगमेदेषु गुल्मेष्वष्टविधेषु च ।। पर गायका गोबर बिछा कर उस पर केलेका पत्ता मूलरोगेष्वशेषेषु प्लीहायां यकृदामये ॥ बिछा और उसपर उपरोक्त औषध डालकर उसके प्रमेहे सोमरोगे च प्रदरे जठरातिषु । ऊपर अन्य कदली पत्र ढक कर दोनों हाथेसे विशेषेण च मन्दामौ सर्वेष्वावर्तकेषु च ॥ जल्दीसे दबा दें कि जिससे औषधकी बारीक पर्पटी अनुक्तेष्वपि रोगेषु तत्तदौचित्ययोगतः। (पपड़ी) बन जाए । तत्पश्चात् ऊपर वाले केलेके रसोऽयं खलु दातव्यः शिवतुल्यपराक्रमः॥ पत्ते पर गायका गोबर बिछा दें। औषधके शीतल यघद्रव्यमसात्म्यं हि जनानामुपजायते। हो जाने पर उसे निकाल कर पीस लें और सुरतत्सर्वं सात्म्यमायाति रसस्यास्य निषेवणात् ॥ क्षित रक्खें । दासाध्यो विद्रधिर्मासाच्छान्तिमायाति निश्चितम मात्रा-१ रत्ती। अभ्रक सत्व-भस्म, वैक्रान्त भस्म, सुवर्णमाक्षिक भस्म, रौप्यमाक्षिक भस्म, शुद्ध शिलाजीत, | __ अनुपान-अदरकका रस और काली मितुत्य भस्म, चपल भस्म, शुद्ध खर्पर भस्म, शुद्ध र्चका चूर्ण। गन्धक, शुद्ध गेरु, कसीस भस्म, फिटकरीकी खील, | इसके सेवनसे ६ प्रकारकी विद्रधि, ७ शुद्ध हरताल ( अथवा हरताल भस्म ), शुद्ध मन- प्रकारका वर्म रोग, क्षय, पाण्डु, संग्रहणी, गुल्म, सिल, शुद्ध सुरमा, कंकुष्ठ, लोहभस्म, स्वर्णभस्म, अर्श, प्लीहा, यकृद्रोग, प्रमेह, साम रोग, प्रदर, जठर रौप्य भस्म, ताम्र भस्म, नाग भस्म, वंग भस्म, रोग, अग्निमान्य, उदावर्त, तथा और भी अनेक कांस्य भस्म और पित्तल भस्म ११-१। तोला तथा रोग नष्ट होते हैं। वैक्रान्त भस्म, सूर्यकान्त भस्म, होरा भस्म, मोती. __ यह शिवके समान पराक्रमी, अत्यन्त प्रभावभस्म, माणिक्य भस्म, चन्द्रकान्तमणि भस्म, राजावर्त भस्म, पन्ना भस्म, पुखराज भस्म, महा शाली रस है। नीलमणि भस्म, पराग भस्म, प्रवाल भस्म, वैदूर्य मनुष्योंको हानिकर पदार्थ भी इसके सेवनसे भस्म और नीलम भस्म ३-३ रत्ती तथा शुद्ध | सात्म्य हो जाते हैं । यह रस १ मासमें दुस्साध्य पारद सबसे चार गुना और शुद्ध गन्धक पारदसे | विद्रधिको भी अवश्य नष्ट कर देता है। For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः (८१९५) सर्वेश्वररसः (१) पांच वर्षके बालकोंको यह रस १ जौके ( र. रा. सु. ; वृ. नि. र. । ज्वरा. ) बराबर देनेसे उनका ज्वर नष्ट होता है। १ रत्तीसे ४ रत्ती तक, गुड़की शक्करके साथ देनेसे यह रस रसाद द्विगुणितो गन्धश्चतुर्भागस्तु टङ्कणम्। समस्त विषमज्वरों और सन्निपातज्वरांको नष्ट तथाष्टभागो जैपालस्त्र्यहं सम्मदयेदृढम् ॥ करता है। अजवायन और बायबिडंगके चूर्णके साथ वल्लो नवज्वरं हन्ति रसः सर्वेश्वराभिधः। ३ रत्ती यह रस देनेसे कृमि रोग नष्ट होता है । वल्लद्वयं हरीतक्या युक्तो वातध्वरं तथा ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१-२ रत्ती ।) द्विवल्लो मल्लखण्डेन पीतः क्षौद्रयुतं कफम् ।। (८१९६) सर्वेश्वररसः (२) गुञ्जा जीर्णज्वरं घोरं प्रतिलयितवांस्तथा ॥ ( रसे. सा. सं. ; धन्व. ; र. रा. सु. । कासा.) वल्लस्तु सूतिकारोगे पिप्पलीमधुसंयुतः । रसगन्धकयोश्चूर्णमेकीकृत्याभ्रकन्तथा । पञ्चवर्षस्य बालस्य यवमात्रो ज्वरं जयेत् ॥ हेमभिश्च समं कृत्वा मर्दयेद्यामकद्वयम् ॥ गुआभिवृदया विषमान् यावच्चातुर्थकावधि। यूपणानि लवङ्गैला टङ्कणं हेमतुल्यकम् । मल्लखण्डेन संयुक्तो हन्याद्दोषत्रयं तथा ॥ कण्टकार्या रसैर्भाव्यमेकविंशतिधारकम् ॥ यवानीकृमिशत्रुभ्यां वल्लो हन्यात्कुमीनपि । | शिबीजाकरसैः सप्तधा भावयेत्पृथक् ।। एवं सर्वगदान्हन्ति रसो भैरवभाषितः ॥ रसः सर्वेश्वरो नाम कासश्वासक्षयापहः॥ ___शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, अनुपानं प्रयोक्तव्यं विभीतकफलत्वचम् ॥ सुहागेको खील ४ भाग और शुद्ध जमालगोटा ८ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें । स्वर्ण पत्र ( या भस्म ), तथा सेठ, काली मिर्च, और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको ३ पीपल, लौंग, छोटी इलायची और सुहागेकी खील; दिन तक खरल करें। इनका चूर्ण समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धकइसमेंसे ३ रत्ती रस उचित अनुपानके साथ की कजली बनावें और फिर अभ्रक तथा स्वर्ण देनेसे नवीन ज्वर नष्ट होता है। इसे वात ज्वरमें मिला कर दो पहर खरल करें । तत्पश्चात् उसमें ६ रस्ती मात्रानुसार हरेके चूर्णके साथ, कफवरमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर कटेलीके रस ६ रत्तीकी मात्रासे गुड़की शक्कर और शहदके साथ या काथकी २१ भावना तथा सहंजनेके वीजोंके तथा जीर्णज्वरमें १ रत्ती उचित अनुपानके साथ क्वाथ और अदरकके रसको ७-७ भावना दे कर देना चाहिये । जणिज्वरमे रोगीको यथाशक्ति (३-३ रत्तीकी) गोलियां बना लें। लंघन भी कराना चाहिये । सूतिकारोगमें ३ । इनके सेवनसे कास, श्वास और क्षयका नाश रत्ती यह रस पीपलके चूर्ण और शहद के साथ होता है । देना चाहिये। अनुणन ----यहे ड़े के फलका काथ । For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - (८१९७) सर्वेश्वररसः (३) | भावना दे कर शराव-सम्पुट में बन्द करके ३ दिन ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; धन्व. । गुल्मा. ; तक बालुका-यन्त्रमें स्वेदित करें और फिर औषधरसे. चि. म. | अ. ९) को पीस कर उसमें ११ तोला पीपलका चूर्ण तथा ३।।। माशे शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर तानं दशगुणं स्वर्णात्स्वर्णपादं कटुत्रिकम् । खाल को। त्रिकटुत्रिफला तुल्या त्रिफलार्द्धमयोरजः॥ मात्रा-१ रत्ती। अयसोर्द्ध विषश्चैव सर्व सम्मर्थ यत्नतः ।। इसके सेवनसे सुप्तवातका नाश होता है। सर्वेश्वररसो नाम रौधिरगुल्मनाशनः ॥ ( नोट--वृ. नि. र. में वातरक्ताधिकारमें स्वर्ण-भस्म १ तोला, ताम्र-भस्म १० तोले सर्वेश्वर रसका एक पाठ लगभग इसके समान ही तथा सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और आमला; है। उसमें अभ्रकके स्थानमें ११ तोला हिंगुल है इनका समान-भाग मिलित चूर्ण ६ माशे; लोह | तथा भावना द्रव्योंमें अरण्ड और खसके स्थानमें भस्म १।। माशा और शुद्ध बछनागका चूर्ण ६ रत्ती | विषमुष्टि, धतूरा और करवीर है। भावनाओंकी ले कर सबको एकत्र मिला कर खरल करें। | संख्या सात सात है । अनुपानमें धतूरेका रस इसके सेवनसे रक्तगुल्म नष्ट होता है। लिखा है ।) ( मात्रा--१ रत्ती।) । र. र. स. अ. २१ में स्पर्शवातनाशक (८१९८) सर्वेश्वररसः (४) "सर्वेश्वर रस"का एक अन्य पाठ है जिसमें श तोला (र. र. स. । उ. अ. २०) हिंगुल तथा ५-५ तोले सांठ, मिर्च, पोपल और चांदी भस्म अधिक है एवं गन्धक १० तोले है, पालिकं ताम्रगन्धाभ्रं कर्षांश लोहपारदम् । | भावना द्रव्य वृ. नि. र. के उपरोक्त पाठके अनुसार स्नुह्यक्षीरवातारिजम्बीरोशीरवारिभिः॥ हैं। शेष प्रयोग नं. ८१९८ के समान है। पाठ मर्दितं वालुकायन्त्रे स्वेदयेदिवसत्रयम् । कोंकी जानकारीके लिये र. र. स. का पाठ पृथक भी कर्ष कणाया निष्कं च विषस्यास्मिन्विनिक्षिपेत् ॥ " दिया है । प्र. सं. ८१९९ देखिये । एष सर्वेश्वरः सद्यो गुनामात्रः प्रसुप्तिजित् ॥ ताम्र-भस्म ५ तोले, शुद्ध गन्धक ५ तोले, (८१९९) सर्वेश्वररसः (५) अभ्रक भस्म ५ तोले, लोह-भस्म ११ तोला ( र. र. स. । उ. अ. २१) और शुद्ध पारद १ तोला ले कर सबको एकत्र कर्षमात्रं रसस्य स्याल्लोइहिङ्गलयोरपि । मिला कर कज्जली बनावें और उसे सेंड ( स्नुही- भास्वद्गगनयोश्चापि गन्धकस्य पलं मतम् ।। थूहर ) के दूध, आकके दूध, अरण्डमूलके काथ, | व्योषगन्धकताराणां प्रत्येकं तु पलं पलम् । जम्बीरी नीबूके रस तथा खसके काथकी १-१ निम्बुद्रायेण सम्मर्थ भावयेत्सप्तधा पृथक् ॥ For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] मार्कस्नु पयोवासाहयारिविषमुष्टिभिः । पिण्डितं वालुकायन्त्रे स्वेदयेदिवसत्रयम् ॥ कर्षमात्रं तु पिप्पल्या निष्कमात्रं विषस्य च । सञ्चूर्ण्य दापयेदत्र रसे सर्वेश्वराभिधे || गुञ्जामात्रं ददीतास्य स्पर्शवातापनुत्तये शुद्ध पारद १ तोला, लोह भस्म १| तोला, शुद्ध हिंगुल १| तोला, ताम्र भस्म ५ तोले, अभ्रक भस्म ५ तोले, शुद्ध गंधक ५ तोले, तथा सेठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध गन्धक और चांदी भस्म ५-५ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर नीबूके रस, धतूरे के रस, आकके दूध, स्नुही ( सेंड - थूहर ) के दूध, बासा के रस, कनेर की जड़के रस या काथ और कुचलेके क्वाथकी सात सात भावना दे कर सबका एक गोला बनायें और उसे शराव - सम्पुट में बन्द करके ३ दिन तक बालुकायन्त्र में स्वेदित करें। तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल कर उसमें १ | तोला पीपलका चूर्ण और ३ ||| माशे ' शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर खरल करें । मात्रा --- १ रती । इसके सेवनसे स्पर्शबातका नाश होता है। (८२००) सर्वेश्वररसः (६) (भै. र. । प्रमेहा. ) स्वर्ण रौप्यं मौक्तिकश्च विशुर्द्धश्च शिलाजतु । लौह तथा ताप्यं मधुयष्टी व पिप्पली ॥ मरिच विश्वकश्चेति सर्वमेकत्र कारयेत् । विमर्थ प्रहरं यत्नात्कज्जलाकृतिसन्निभम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४१ केशराजभृङ्गराजशक्राशनर से पृथक् । मेहं विविधं हन्ति मधुमेहं सुदुस्तरम् ॥ वातपित्तसमुद्भूतं तथा कफसमुद्भवम् । सर्वेश्वरो रसो नाम्ना प्रमेहकुलनाशकः ॥ स्वर्ण भस्म, चांदी - भस्म, मोती भस्म, शुद्ध शिलाजीत, लोह - भस्म, अभ्रक भस्म, सुवर्णमाक्षिक भस्म, मुलैठीका चूर्ण, पीपलका चूर्ण, काली मिर्चका चूर्ण, और सांठका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर एक पहर तक इतना खरल करें कि कज्जलके समान हो जाय । तदनन्तर उसे सफेद और काले भंगरे तथा भांगके रसकी एक एक भावना देकर सुखा लें । मात्रा -- २ रत्ती । इसके सेवन से वातज, पित्तज और कफज प्रमेह तथा कष्टसाध्य मधुमेहका नाश होता है । (८२०१) सर्वेश्वररसः (७) (र. का. घे. । ज्वरा.) कर्पूराद्विगुणं बीजं बीजाद्विगुणगन्धकम् । प्रततवालुकान्तस्थं शुक्तियन्त्रेण तापयेत् ॥ तार्थ तच्छो काचकुप्यां च रक्षयेत् । कंवा द्विगु वा विषमज्वरनाशनम् ॥ दद्याद्रोगानुपानेन तत्तद्रोगनिवृत्तये । अयं सर्वेश्वरो नाम रसो जगति दुर्लभः ॥ For Private And Personal Use Only कपूर १ भाग, शुद्ध पारा २ भाग और शुद्ध गन्धक ४ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। जब कज्जली हो जाए तो उसे सीपके सम्पुट में बन्द करके उस पर ३-४ कपर मिट्टी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि करके तप्त रेतमें दबा दें और रेतके ठण्डा हो जाने | माशे चांदो-भस्म, ११ माशा हीराभस्म और पर औषधको निकाल कर पीस लें । १० तोले हरताल का सत्व मिलाकर १-१ दिन मात्रा-१ या २ रत्ती । जम्बीरी नीबूके रस, धतूरेके रस, बासा (अडूसा) इसे उचित अनुपानके साथ देनेसे समस्त के रस, स्नुही (थूहर) के दूध, आकके दूध, विषम ज्वरों का नाश होता है। कुचलेके काथ या रस और कनेरकी जड़के काथमें खरल करके सबका एक गोला बनावें और उसे (८२०२) सर्वेश्वररसः (८) . सुखाकर, कपड़ेमें लपेट कर (शरावसम्पुटमें बन्द (र. र. सं. । उ. अ. २० ; शा. सं. । खं. २ करके ) ३ दिन तक मृदु अग्नि पर बालुकायन्त्रमें अ. १२; वृ. यो. त. । त. ९१; र. प्र.. स्वेदित करें । तदनन्तर यन्त्रके स्वांगशीतल होने सु. । अ. ८; यो. त. । त. ४१, र. पर उसमेंसे औषधको निकाल कर पीस लें और का. धे. । कुष्ठा., वातरक्ता.; भै. र. । कुष्ठा) उसमें ५ तोले शुद्ध बछनागका चूर्ण तथा १० शुद्धसूतं चतुर्गन्धं पलं या विचूर्णयेत् । तोले पीपलका चूर्ण मिला कर अच्छी तरह मृतताम्राभ्रलोहानां दरदं च पलं पलम् ॥ खरल करें। * सुवर्ण रजतं चैव प्रत्येकं दशनिष्ककम् । मात्रा-२ रत्ती । मायकं मृतवजं च तालसत्वं पलद्वयम् ॥ इसे सेवन करनेसे सुप्तिकुष्ठ और मण्डलकुष्ठका जम्बीरोन्मत्तवासाभिः स्नुह्यविषमुष्टिभिः । नाश होता है। मर्थ हयारिजेवैः प्रत्येकेन दिनं दिनम् ॥ __ अनुपान-बाबची और देवदारुका समानएवं सप्तदिनं मर्च तद्गोलं वस्त्रवेष्टितम् । भाग मिलित ११ तोला ( व्यवहारिक मात्रा ३ वालुकायन्त्रगं स्वयं त्रिदिनं लघुना बहिना ।। माशा ) चूर्ण अरण्डीके तेलमें मिला कर औषध आदाय चूर्णयेच्लक्ष्णं पलैकं योजयेद्विषम् । खानेके पश्चात् चाटना चाहिये। द्विपलं पिप्पलीचूर्ण मिश्रं सर्वेश्वरो रसः ।। द्विगुओ लिखते क्षौद्रैः सुप्तमण्डलकुष्ठनुत् । * र, प्र. सु. में स्वर्णमाक्षिक अधिक है बाकुची देवकाष्ठं च कर्षमात्रं सुचूर्णयेत् ॥ तथा रस तैयार होने के पश्चात् जो औषधे मिलाई लिहेदेरण्डतलाक्तमनुपानं मुखावहम् ।। जाती हैं उनमें विषके स्थानमें सीसा भस्म है। शुद्ध पारद २० तोले, और गन्धक ५ तोले भै. र. कुठा., तथा र. का. धे. वातरक्ता. लेकर दोनोंको १ पहर एकत्र खरल करके कजली में “ शुद्ध सूतं........दरदं च पलं पलं" इन दो बनावें । तत्पश्चात् उसमें ५-.५ तोले ताम्र-भस्म, | पंक्तियों का अभाव है। अभ्रक भस्म, लोहभस्म और शुद्ध हिंगुल तथा र. को. धे. के कुष्ठाधिकार वाले पाठमें "सुवर्ण ३ सोले ७ माशे स्वर्ण भस्म और ३ तोले ७॥ .......पलद्वयं " इन दो पंक्तियोंका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 रसपकरणम् पञ्चमो भागः ३४३ (८२०३) सर्वेश्वररसः (९) एकाहमर्कदुग्वेन पिष्ट्वा चैकात्मतां गतम् । गोलं कृत्वा विनिक्षिप्य शरावे सम्पुटे च ताम् ।। ( र. चि. म.। स्त. ८) वस्मृत्तिकया लिप्त्वा देयो गर्नान्तरे पुटः। चतुरो हेमगघाणा गालयित्वा रसं परे । स्वाङ्गशीतं नयेद्गोलं खल्वे सञ्चूर्णयेदृढम् ।। पत्राणि कारयेत्तस्य विध्यन्ते कण्टकैर्यथा ॥ तच्चूर्ण कूप्यके क्षेप्यं जातः सर्वेश्वरो रसा। जलवत्कोमलान्येव स्वच्छान्येकालानि च । साज्यं वल्लत्रयं ग्राखं द्वात्रिंशन्मरिचैः समम ॥ शुद्धसूतस्य गद्याणा अष्टौतानि दलानि च ॥ | अष्टादशपमेहेषु गुल्मयोतिपित्तयोः। मिश्रं द्वादशगधाणं खल्वे पिष्ठा दिनत्रयम् । वडकोष्ठेषु मन्दानौ देयः शूलादिरोगिषु ॥ अन्यि वस्त्रेण बध्नीयाक्षिप्त्वाब हेमपिथिकाम।। | कामहीने बलक्षीणे श्लेष्मवातादिरोगेषु । मृन्मय्यां मूषिकायां तद्धार्यमतियत्नतः। मरिचाधैरजीर्णेषु ज्वरेपूष्णोदकेन च । स्थालिका वालुकापूर्णा मुषां तत्रान्तरे क्षिपेत॥ | तैलक्षारादिवज्ये हि भोजनं मधुरं भवेत् ॥ स्थाली चुल्ल्यां समारोप्य मनिं ज्वालयेदधः। क्रमाद्रोगा विलीयन्ते मासैकानन्तरं ध्रुवम् । शुद्धगन्धकगधाणा विशद् ग्राखास्ततःपरम् ।। । अर्शीसि नाशमायान्ति साध्यासाध्यानि सत्वरम्। गोस्तनाकारमूषायां पूर्व प्रक्षिप्य गालयेत् । । गुदकीला निवर्तन्ते बाहुशालगुडं भजेत् ॥ गन्धके गलितेऽतीव जाते तैलस्य सनिभे॥ | दारुणा गुदपाडा च निवतेतास्य सेवनात् ।। पक्षिपेदेमनां पिष्टि ग्रन्थिबद्धां च गन्धके । २॥ तोले शुद्ध स्वर्णके कण्टकवेधी पत्र और सिपेद् गन्धकगधाणा मुहुर्दग्धे च गन्धके ।। ५ तोले शुद्ध पारदको एकत्र मिलाकर ३ दिन एवं दिनाष्टकं स्वेद्या पिष्टी यत्नेन हेमजा। | तक अच्छी तरह खरल करें और फिर उस पिष्टीको स्वागशीतां क्षिपेत् खल्वे दग्धां गन्धकसंयुताम् ॥ वनमें बांध कर पोटली बनावें । तदनन्तर कपरभाराजरसेनैकं वासरं मर्दयेच्च तम् । मिट्टी की हुई एक हाण्डीको चूल्हेपर चढ़ा कर उसमें काश्नारतरोमूलत्वचा श्रीखण्डमर्दितम् ॥ गले तक रेत भर दें और उसके बीचमें गोस्तनावज्रीक्षीरेण चैकाहमर्कदुग्धेन वासरम् । कार मूषा रख कर उसमें १२॥ तोले गंधक डाल एवं चतुर्दिनं पिष्टवा कार्यों चतुलगोलकः ॥ दें और चूल्हेमें अग्नि जला दें। जब गन्धक पिघशरावसम्पुटे क्षिप्त्वा चतुर्मिछाणकैः पुटः। लकर तेलके समान हो जाए तो उसमें उपरोक्त दह्यते गन्धको यावत्तावईयो मुहुर्मुहुः ॥ पोटली डाल दें। जब गन्धक जल जाय तो पुनः मृत वेताभ्रकं चूर्ण चूर्ण स्यान्मृतताम्रकम् । १२॥ तोले गंधक डाल दें। इसी प्रकार आठ चूर्ण पीतकपर्दीनां शङ्खचूर्ण तुरीयकम् ॥ दिन तक बार बार गंधक डाल कर मन्दाग्नि पर षडू गधाणाच प्रत्येकं क्षिपेत्पिष्टे च हेमजे। जारण करते रहें। तदनन्तर उसके स्वांगशीतल खल्वे पिष्ट्वा कृतं पिष्टं वञीक्षीरेण वासरम् ॥ | होने पर जले हुवे गंधक समेत स्वर्ण और पारदकी For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि उपरोक्त पिष्टीको निकाल लें और उसे १-१ दिन | इसे १ मास तक सेवन करनेसे साध्यासाध्य भंगरेके रस, चन्दनके काथमें पीस कर निकाले हुवे | हर प्रकारके अर्शका नाश हो जाता है और कचनारकी जड़के रस, स्नुही (थूहर-सेंड ) के | दारुण गुदपीड़ा इसके सेवनसे शीघ्र ही नष्ट हो दूध और आकके दूधमें एक एक दिन खरल करके जाती है। सबका एक गोला बनावें और उसे शराव-सम्पुटमें इसे अर्श रोगमें "बाहुशाल गुड़" के बन्द करके चार कण्डोंकी अग्निमें फूंक दें। जब साथ सेवन करना चाहिये । तक सम्पूर्ण गन्धक न जल जाए इसी प्रकार उक्त (८२०४) सर्वेश्वररसः (१०) चारों चीजोंमें घोट घोट कर पुट देते रहे ।। (र. रा. सु. ; वृ. यो. त. । त. १०३) तत्पश्चात् उसमें ३॥-३॥ तोले सफेद अभ्रककी भस्म, ताम्र-भस्म, पीली कौडीकी भस्म | ताप्यष्टकणहेमताररसकं गन्धं यथाभागिकं और शंख-भस्म मिला कर १-१ दिन स्नुही तानं विद्रुमशुक्तिजं शिखरिज द्विघ्नं तथा भागतः। (थूहर-सेंड ) के दूध और आकके दूधमें खरल | वायोहिरसेन्द्रभूतिगगनं वैक्रान्तकान्तं त्रिशः करके सबका एक गोला बनावें और उसे शराव- तत्सम्म विभावयेत्रिदिवसं यष्टी त्रिजाताम्बुभिः। सम्पुटमें बन्द करके पुट में फूंक दें तथा स्वांग- मुस्तोशीरवराषामृतसठीकन्याविदारीवरी-- शीतल होने पर निकाल कर पीस लें। नीरैर्गोपयसेक्षुरैश्च मुसलीगोलं पचेद्यामकम् । इसे ३२ काली मिरचोंके चूर्ण और घीके साथ मन्दानौ च गृगावत्पुनरसौ भाव्यस्ततो भावने सेवन करना चाहिये। द्वे कस्तूरिमृगायोर्मधुकणायुक्तोऽस्य वल्लो जयेत् ॥ __ मात्रा-९ रत्ती ( व्यवहारिक मात्रा मेहा ग्रहणीज्वरोदरपरुद्वयाधि रुजं कामला १ रत्ती।) पाण्डूकुष्ठभगन्दरं ज्वरगणं कृच्छं च शुक्रक्षयम् ॥ ___ यह रस प्रमेह, वातज गुल्म, पित्तज गुल्म, स्वर्णमाक्षिक-भस्म, सुहागा, स्वर्ण-भस्म, मलावरोध, अग्निमांद्य, शूल, कामशक्तिकी कमी, चांदी भस्म, खपरिया और शुद्ध गन्धक १-१ बलहानि, श्लेमरोग, वातरोग, अजीर्ण और भाग; ताम्र-भस्म, प्रवाल-भस्म, मोती-भस्म ज्वरको नष्ट करता है। और अपामार्गका क्षार २-२ भाग एवं बंग-भस्म, ___ इसे अजीर्णमें काली मिरचोंके चूर्ण आदिके लोह-भस्म, नाग-भस्म, पारद-भस्म, अभ्रकसाथ और ज्वरमें उष्ण जलके साथ देना | भस्म, वैकान्त-भस्म और कान्तलोह-भस्म ३-३ चाहिये। भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें और फिर पथ्यापथ्य-तैल क्षारादि रहित मधुर रस- | मुलैठोके क्वाथ, त्रिजात (दालचीनी, इलायची युक्त भोजन हितकारी है। और तेजपात ) के क्वाथ, नागरमोथेके क्वाथ, For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पश्चमो भागः ३४५ खसके क्याथ, त्रिफलाके क्वाथ, बासे (अडूसे) के | सम्पृज्य भास्करं विष्णुं गणनाथं द्विजोत्तमम् । स्वरस, शुद्ध बछनागके क्वाथ, कचूरके क्वाथ, गुञ्जाद्वयश्च मधुना कृत्वा शीतजलं पिबेत् ॥ घृतकुमारीके रस, विदारीकन्दके रस, शतावरके चूणे सर्वेश्वरं नाम सर्वरोगहरं भवेत् । रस, गोदुग्ध, ईखके रस और मूसलीके क्वाथमें कठोरप्लीहनाशाय गुल्मोदरहरं तथा ।। ३-३ दिन घोट कर गोला बनावें और उसे कामलां पाण्डुमानाहं यकत्क्रिमिकृतामयान् । कपड़े में लपेट कर शराव-सम्पुट में बन्द करके लवण- विचर्चिमम्लपित्तञ्च कण्डू कुष्ठं विनाशयेत् ॥ यन्त्रमें रख कर उसके मुखको शरावसे बन्द करके प्लीहानमस्र पित्तश्चाप्यग्निमान्धं सुदुस्तरम् । १ पहर मन्दाग्नि पर पकावें । जिस प्रकार कि | श्रीकर कान्तिजननं शुक्रायुर्वलवर्द्धनम् ॥ "मृगाङ्क रस" पकाया जाता है। तत्पश्चात् शुद्ध पारद ५ तोले, शुद्ध गंधक ५ तोले, स्वांगशीतल होने पर निकाल कर उसे कस्तूरी अभ्रक भस्म १० तोले, ताम्र भस्म १५ तोले, और कपुरके पानीकी २-२ भावना दे कर ३-३ स्वर्ण माक्षिक-भस्म २|| तोले, तथा शुद्ध जमारत्तोको गोलियां बना लें। लगोटा, चीतामूल, मानकन्द, सूरण (जिमीकन्द), ( व्यवहारिक मात्रा-१-२ रत्ती ।) । घण्टकर्ण, पीपलामूल, हर, बहेड़ा, आमला, सेट, मिर्च, पीपल, निसोत, अपामार्ग-मूल, दण्डोत्पला, इसे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन वृश्चिकाली (बिछाटी), कुलिश ( अस्थि-संहार ), करनेसे प्रमेह, अर्श, संग्रहणी, ज्वर, उदररोग, नागदन्ती (वृहद्दन्तीमूल अथवा हाथीमुंडी ) वातव्याधि, कामला, पाण्डु, कुष्ठ, भगन्दर, मूत्र और सूर्यावर्त ( हुलहुल ); इनका ११-१॥ तोला कृच्छू और शुक्रक्षयका नाश होता है । चूर्ण ले कर प्रथम पारे-गन्धककी कजली बनावें (८२०५) सर्वेश्वरलौहम् और फिर उसमें अन्य औषधांका चूर्ण मिला कर अदरकके रसमें खरल करें। तपश्चात् सुखा कर ( भै. र. । प्लीहा.) उसमें १५ तोले लोह-भस्म मिलावें और खरल शुद्धसूतं पलं गन्धं द्विपलन्तु मृताभ्रकम् । करके सुरक्षित रक्खें। त्रिपलं मृतताम्रश्च पलादै स्वर्णमाक्षिकम् ॥ मात्रा-२ रत्ती। जैपालं चित्रकं मानं शूरणं घण्टकर्णकम् । ग्रन्थिकं त्रिफला व्योषं त्रिता खरमअरी॥ | इसे शहदके साथ खा कर थोड़ा शीतल जल दण्डोत्पला वृश्चिकाली कुलिशं नागदन्तिका। पीना चाहिये । सूर्यावर्तश्च सञ्चूर्ण्य कर्षमात्र विमर्दयेत् ॥ | इसके सेवनसे कठोर प्लीहा, गुल्म, कामला, आर्द्रकस्य रसैरेव चूर्णयित्वा पुनः क्षिपेत् । पाण्डु, अफारा, यकृत, कृमिजनिन रोग, विचत्रिपलं लौहचूर्णस्य ततः खादेच्छुभेऽहनि ॥ | चिका, अम्लपित्त, कण्डू, कुष्ठ, रक्तपित्त और कप्ट For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयुक्त कर ३४६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि साध्य अग्निमांद्यका नाश होता तथा कान्ति, शुक्र | प्रवाल-भस्म, पीपल, काली मिर्च, छोटी इलायची, और आयुकी वृद्धि होती है। संभालु, मुलैठी और लोध । पुष्य नक्षत्रमें इन सब (८२०६) सर्षपाद्या गुटिका चीजोंका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर ( पानीके साथ ) खरल करें और ५-५ ( ग. नि. । गुटिका. ४) माशे की गोलियां बना कर छाया में सुखा लें। सर्षपाः पृष्ठिपर्णी व तगरं पद्मकेसरम् । हरितालं विडङ्गानि रोधद्राक्षाप्रियङ्गवः ।। इन्हें नस्य, पान, आलेपन और अञ्जन द्वारा चन्दनं वालकं मांसी विशाला समनःशिला ।। श्रीवासकनिशादा-पद्मकं ध्याममेव च ॥ इनके प्रभावसे समस्त विष नष्ट होते हैं तथा सुरसमसवाः स्पृका रोचना गन्धनाकुली। राजदरबारमें, रण में, व्यापारमें और विवादमें लाभ अम्लकं कुङ्कामं दारु स्थौणेयं गिरिकर्णिका ॥ होता है। जिस घरमें ये गोलियां होंगी वहां माग मिली मानिनसर्पादिका भय न रहेगा। शरीर पर इनका लेप करने मुक्ष्मैला सिन्दवारं च यथाई रोध्रमेव च॥ से चोर, अग्नि, सर्प और जलका भय नहीं एतान्यङ्गानि षट्त्रिंशत्पुष्येण परिपेषिताम् । | रहता (?) गुटिकां कोलमात्रांच छायाशुष्कां हि कारयेत्॥ | ( देखना पाठक ? लेप करके कहीं आगमें नस्यपानाञ्जने चैषा सम्यग्लेपे च पूजिता । या कुवेमें न कूद पड़ना । ) पुंसां सर्वविषार्तानां राजद्वारे रणे तथा॥ (८२०६ अ) सामज्वरहररसः वणिजां लाभकामानां विवादे च सदा हिता । सरीसृपा न तिष्ठन्ति यत्र तिष्ठति वेश्मनि ॥ (र. का. धे. । ज्वरा.) अनया संपलिप्तस्य चौरवद्विभयं कुतः। | शुद्ध रसं समं गन्धं मूतत्रिगुणटणम् । सर्पदष्टभयं चापि जलराशिभयं न च ॥ चतुर्गुणं वराचूर्ण त्रिगुणं यवशूकजम् ॥ ___ सरसों, पृष्टपर्णी, तगर, कमलकेसर, शुद्ध दरदं द्विगुणं सूर्यभागं जेपालमुत्तमम् । हरताल ( या हरताल-भस्म ), बायबिडंग, लोध, | सप्तभागं त्रिकटुकं त्रिभागं चोरसंज्ञकम् ॥ मुनक्का, फूलप्रियंगु, सफेद चन्दन, सुगन्धवाला, | नालिकायास्त्रयो भागास्त्रितश्च तथैव च । जटामांसी, इन्द्रायणकी जड़, शुद् मनसिल, श्री- एतत्सर्व राजक्षमूलक्याथेन मर्दयेत् ।। वास धूप, हल्दी, दारुहल्दी, पाख, सुगन्धतृण, | सप्तधा मतिमान्धर्मे वजीक्षीरेण भावयेत् । तुलसीको मंजरी, स्पृक्का ( ब्राह्मी), गोरोचन, शृङ्गवेरजयावविभङ्गोत्यैर्भावयेद्रसैः ।। गन्धनाकुली ( गन्धरास्ना ), लकुच (बढल ) का नागवल्लीदलान्तस्थं स्वेदयेद्भुधरे शनैः। फल, केसर, देवदारु, थुनेरे, कोयल, चमेलीके फूल, | नागवल्लीदलयुतं श्लक्ष्णं खल्वे विमर्दयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org रसप्रकरणम् ] वलयमित मात्रां ददीतार्द्रकनीरतः । सामज्वरे प्रयुक्तोऽयं रेचयेत्क्षणमात्रतः ॥ गोत सहितं पथ्यं दद्याद्यामद्वयादनु । वरात्रिश्वगुडूचिभिः पाचनं प्राक्प्रदापयेत् ॥ चणककाथसहितं दद्याद्वा शालिभक्तकम् ॥ 6-67 पञ्चमो भागः शुद्ध पारद और गन्धक १ - १ भाग, सुहागेकी खील ३ भाग, त्रिफलेका चूर्ण ४ भाग, जवाखार ३ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग, शुद्ध जमालगोटा १२ भाग, त्रिकुटेका चूर्ण ७ भाग, चोरक ३ भाग नलिका ३ भाग और निसोत ३ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर अमलतासकी जड़ काथकी धूप में ७ भावना दें और फिर इसी प्रकार थूहर (स्नुही - सेंड) के दूध, अद्रक के रस, जया रस, चीतामूलके काथ और भंगरेके रस की भावना दें । तदनन्तर उसका १ गोला बनाकर उसे पानोंमें लपेटकर भूधरपुट में स्वेदित करें और फिर उसके स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पानों समेत पीस लें । मात्रा—६ रत्ती मात्रा | इसे सेवन करने से शीघ्र ही विरेचन हो कर सामञ्वर नष्ट हो जाता है । इसे सेवन करनेसे पहिले ज्वरपाचनके लिये त्रिफला, सोंठ और गिलोयका क्वाथ पिलाना चाहिये । पथ्य - औषध खानेके दो पहर पश्चात् गायके तकके साथ या चनेके काथके साथ शाली चावलोंका भात खिलाना चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४७ (८२०७) सामुद्रशुक्तिक्षारादियोगः (ग. नि. । उदरा. ३२ ) सामुद्रशुक्तिकाक्षा यवक्षारः ससैन्धवः । गोदना सम्प्रयुज्येत सर्वोदरविनाशनः ॥ मोतीकी सीपकी भस्म, जवाखार और सेंधा नमक का चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके रक्खें । इसे गाय दही साथ सेवन करने से समस्त प्रकार के उदर रोग नष्ट होते हैं । ( मात्रा - ४-६ रत्ती । ) सामुद्रं सैन्धवं क्षारो रुचकं रोमकं विडम् । दन्ती लोहरज: कि त्रिवृत्रणकं समम् ॥ afariyar मन्दपावकपाचितम् । अनुपान —— अदरक का रस. ( व्यवहारिक तद्यथाग्निवलं चूर्ण पिवेदुष्णेन वारिणा ॥ - २ - ३ रत्ती ) (८२०८) सामुद्राचं चूर्णम् ; ( वृ. मा. ; र. र. व. से. । परिणामशूला. ; भै. र. र. का. घे. ; यो. र. । शूला. ; च. द. | परि. शृला. २७ ; ग. नि. । चूर्णा. ३; बृ. यो. त. । तं ९५ ) जीर्ण जीर्णे च भुञ्जीत माषादिघृतभोजनम् । नाभिशूलं हरेन्नूनं गुल्मप्लीहकृतं च यत् ॥ विद्रध्यष्ठीलिकं हन्ति कफवातोद्भवं तथा । शूलानामपि सर्वेषामौषधं नास्त्यतः परम् ॥ परिणामसमुत्थस्य विशेषेणान्तकं मतम् ॥ For Private And Personal Use Only समुद्र लवण, सेंधा नमक, जवाखार, संचल ( काला नमक ), रोमक लवण, विड लवण, दन्तीमूल, लोह - भस्म, मण्डूर भस्म, निसोत और Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः ३४८ जिमिकन्द - इनका चूर्ण १ - १ भाग ले कर सबको एकत्र मिला लें और इस मिश्रणसे चार चार गुना दही, गोमूत्र और गोदुग्ध एकत्र मिला कर उसमें यह चूर्ण डाल कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो पोस कर बारोक ले कर 1 इसे उचित मात्रानुसार उष्ण जलके साथ सेवन करना चाहिये और औषध पच जाने पर उड़दसे बने हुवे घृतयुक्त पथ्य पदार्थ खाने चाहियें । इसके सेवनसे नाभिशूल अवश्य नष्ट हो जाता है । साधारणतः समस्त शूलोंके लिये और विशेषतः परिणामशूल के लिये तो इससे श्रेष्ट अन्य औषध नहीं है । यह चूर्ण गुल्म, प्लीहा तथा कफवातज विधि और अटलको भी नष्ट करता है । ( मात्रा - १ || - २ माशे । ) (८२०९) सारकल्पः ( व. सं. : ग्रहण्य. ) आलिप्य तापी करवीरकाभ्यां वैश्वानरे प्रज्वलिते निधाय । तप्तं सुतं विनियोज्य तक्रे निर्वाप्य वरान्वहुशः सुलोहम् ॥ एभिः प्रकारैः सुमृताश्च लोहा चूर्णीकृताश्चापि पलानि चाष्टौ । सर्पिप्पलं तैलपले पलानि चत्वारि चादाय वरारसस्य ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तक्रस्य चाम्लस्य चतुष्पलानि व्योषाजमोदाचविकानलानां [ सकारादि कर्षञ्च कर्षे पृथगौषधानाम् । मूकं प्रदद्याद्दशपिप्पलीनाम् ॥ सिन्धुप्रभूतं सविङ्गचूर्ण तक्रेण हन्याद् ग्रहणीं समस्ताम् । अशसि शोथं परिणामस शुच दीप्तिं करोति वह्नेः ॥ For Private And Personal Use Only १ - १ भाग सोनामक्खी और मनसिलके चूर्णको एकत्र मिला कर ( पानी या नीबू के रस में घोट कर) बारीक लोह पत्रोंपर लेप करें और उन्हें अग्निमें तपा कर तक्रमें बुझा दें । इसी प्रकार बार बार उक्त चीज़ोंका लेप करके तपा तपा कर तक्रमें बुझानेसे लोहेकी भस्म हो जायगी; उसे खरल करके बारीक कर लें । यह लोह भस्म ४० तोले, घी १० तोले, तिलका तेल २० तोले, त्रिफलेका काथ ४० तोले तथा अम्ल तक ४० तोले और सोंठ, मिर्च, पीपल, अजमोद, चव तथा चीता ; इनका चूर्ण ११- १ | तोला एवं पीपलामूल, सेंधा नमक और बायबिडंगका चूर्ण १२॥ - १२ ॥ तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर ( मन्दाग्नि पर पका कर, जलांश शुष्क होने पर) अच्छी तरह खरल करके रक्खें । इसे तक के साथ सेवन करनेसे समस्त ग्रहणी - विकारोंका तथा अर्श, शोथ और परिणामशूलका नाश होता और अग्नि दीप्त होती है । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ३४९ (८२१०) सारणसुन्दररसः माषोऽस्य दुग्धभत्तानुपानेन स्वरभाजित् । (र. सं. क. । उल्ला. ४ ; र. का. धे. । उदरा.) अयं सारस्वतो नाम रसो जाड्यापहारकः ।। मृतं गन्धं समं शुद्धं सप्तधा भावयेत् क्रमात । समान भाग शुद्ध पारद और गन्धककी स्नुह्यक दुग्धैः श्रीखण्डद्वयश्यामाभयारसैः ॥ कजली बना कर उसे बच और शंखपुष्पीके रसमें समं नेपालजं चूर्ण देयमेकत्र मर्दयेत् । ३-३ दिन खरल करके सुखा लें और आतशी उष्णाम्बुना वल्लयुग्मं देयमष्टगुणे गुडे ॥ शीशी में डाल कर २४ पहर बालकायन्त्रमें मन्दाग्निमलाः पूर्वं जलं पश्चात्ततश्चामः शनैः शनैः। पर पकार्वे । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने उदराच्च विनाऽन्त्राणि सर्व निर्याति किल्बिषम पर औषधको निकाल कर पीस लें। जाते विरेके संशुद्ध पथ्यं दध्योदनं हितम् ।। मात्रा-१ माशा ( व्यवहारिक मात्राजयेज्ज्वरादिकान् रोगान् रस: सारणसुन्दरः॥ १ रत्ती ।) शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक समान-भाग ले पथ्य-दूध भात । कर कज्जली बनावें और उसे स्नुही (थहर-सेंड) इसके सेवनसे स्वर भंग और जडताका नाश के दूध, आकके दूध, सफेद चन्दनके काथ, लाल होत चन्दनके काथ, हरके काथ और निसोतके क्वाथकी (८२१२) सारिवादिवटी सात भावना दें । तदनन्तर उसमें उसके बराबर (भै. र. । कर्णरो.) शुद्ध जमालगोटा मिला कर अच्छी तरह खरल सारिवां मधुकं कुष्ठं चातुर्जातं प्रियङ्गकम् । करें और ६-६ रत्तीकी गोलियां बना लें। नीलोत्पलं गुडूचीञ्च देवपुष्पं फलत्रिकम् ।। ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्तो।) । अभ्रं सर्वसमश्चाभ्रसमं लोह विभावयेत् । एक गोली आठ गुने गुड़में मिला कर उष्ण केशराजाम्युना पार्थकाथेन यवजाम्भसा ।। जलके साथ खानेसे विरेचन हो कर ज्वरादि रोग । काकमाचीरसेनापि गुञ्जामूलद्रवेण च । नष्ट हो जाते हैं। त्रिगुभापमिताः पश्चाद् विदध्याद् वटिका इससे पहिले तो मल निकलता है, फिर पानी | भिषक् ॥ और अन्त में आम निकल कर पेट साफ हो धारोष्णेनापि पयसा शतमूलीरसेन वा । एकैकां योजयेत् प्रातः श्रीखण्डसलिलेन वा॥ जाता है। निखिलान् कर्णजान् रोगान् प्रमेहानपि (८२११) सारस्वतरसा विंशतिम् । ( र. का. धे. । स्वरभेदा.) रक्तपित्तं क्षयं श्वासं क्लैव्यं जीर्णज्वरं तथा ॥ रसगन्धौ वचा शङ्कपुष्प्यास्त्रित्रिदिनं पुटे । अपस्मारमदाीसि हृद्रोगश्च मदात्ययम् । चतुर्विशतियामांस्तु वहिं दद्यान्मृदुं भिषक् ॥ सारिवादिवटी हन्यात् स्त्रीगदानखिलानपि ।। For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि सारिवा, मुलैठी, कूठ, दालचीनी, छोटी पूतीकचव्यव्योषाग्नि कारवी कृमिनाशनैः । इलायची, तेजपात, नागकेसर, फूलप्रियंगु, नीलो- चूर्णितैरर्धपलिकैस्तिलतैलं पलद्वयम् || त्पल, गिलोय, लौंग, हर्र, बहेड़ा और आमला; त्रिफलाया रसप्रस्थे खण्डं प्रस्थयुगं पचेत् । इनका चूर्ण १-१ भाग तथा अभ्रक भस्म और दापिलेपात्पाकश्च चातुर्जात कसंयुतम् ।। लोह-भस्म १४-१४ भाग ले कर सबको एकत्र सावित्रवटका ह्येते यथाग्निवलक्षिताः । मिला कर भंगरेके रस, अर्जुनके काथ, जवाखारके कृमिकोष्ठानिदौर्बल्यशोथगुल्मोदरवणान् ॥ पानी, मकोयके रस और गुञ्जा ( चौंटली ) की जड़के क्वाथको १-१ भावना दे कर ३-३ कामलापाण्डुरोगार्थीभगन्दरगदज्वरान् । रत्तीकी गोलियां बना लें। निहन्युर्वा तु सन्नद्धाः वयः स्थैर्यबलपदाः ॥ मात्रा-१ गोली । समय-प्रातःकाल । वातप्रमेहशमनाश्चक्षुष्याः पुष्टिवर्द्धनाः । भवन्त्यतिस्निग्धभुजां वातातपनिषेविणाम् ॥ अनुपान-धारोष्ण दूध या शतावरका रस अथवा लाल चन्दनका क्वाथ । कृष्ण लो:-भस्म १० तोले तथा हर्र, इन्हें सेवन करनेसे समस्त कर्ण रोग, २० । गिलोय, बहेड़ा और आमला; इनका चूर्ण ५-५ प्रकारके प्रमेह, रक्तपित्त, क्षय, स्वास, क्लीवता, तोले एवं करञ्जबीज, चत्र्य, सेठ, मिर्च, पीपल, जीर्णज्वर, अपस्मार, मद, अर्श, हृद्रोग और मदा- | चीता, कलौंजी, बायबिडंग, दालचीनी, इलायची, त्यय तथा समस्त स्त्रीरोग नष्ट होते हैं। तेजपात और नागकेसरका चूर्ण २॥-२॥ तोले ले (८२१३) सार्वभौमरसः कर सबको एकत्र मिला लें । तदनन्तर त्रिफलाके २ सेर काथमें २ सेर खांड, १० तोले शुद्ध ( रसे. सा. सं. । कासा. ; धन्व. । कासा.) गूगल और २० तोले तिलका तेल मिला कर जीर्ण सुवर्ण लौहं वा यद्यत्रैव प्रदीयते। पकावें । जब पाक तैयार होनेके निकट हो तदायं सर्वरोगाणां सार्वभौमो न संशयः॥ । ( करछीको लगने लगे ) तो उसमें उपरोक्त चूर्ण ___यदि शृङ्गाराभ्र प्रयोग सं. ७६६९ में १ मिला कर अग्निसे नीचे उतार लें। भाग स्वर्ण-भस्म या लोह-भस्म सम्मिलित कर ली जाय तो उसका नाम “सार्वभौमरस" हो इसके सेवनसे कृमिरोग, अग्निमांद्य, शोथ, जाता है। गुल्म, उदररोग, अण, कामला, पाण्डु, अर्श, (८२१४) सावित्रवटक: भगन्दर, ज्वर और वातज-प्रमेहका श होता है। यह रस आयु, बल और पुष्टिवर्द्धक तथा (व. से. । पाण्डु.) | नेत्रोंके लिये हितकारी है। पलपापले द्वे तु कृष्णायसपलद्वयम् । पथ्यामृताक्षधात्रीणां पृथगेकैकशः पलम् ॥ (मात्रा-२-३ माशे ।) For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसप्रकरणम् ] (८२१५) सितमलगुटिका ( वृ. यो त । त. ८० ) सितमलवली कटुकीखदिरौ www. kobatirth.org पञ्चमो भागः fertseit नयनाक्षिमितौ । पुटितं च खले त्रिदिनं सकलं स्वरसैः किल चाssसञ्जनितैः ॥ श्वसने कसने शूले ज्वरेऽजीर्णे तथोदरे । सर्पिषा रक्तिकामात्रं चोत्तारो नागवलिका । शुद्ध सोमल (संखिया) १ भाग तथा शुद्ध गन्धक, कुटकोका चूर्ण और कत्था २ - २ भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर अदरक के रसमें ३ दिन खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें । इनमें से १-१ गोली घीके साथ देनेसे श्वास, कास, शूल, ज्वर, अजीर्ण और उदररोगोंका नाश होता है । (८२१६) सितामण्डूरम् (भै. र. । अम्लपि. ) धमनविधिविशुद्धं गोजले सप्तवारान, तरणिकिरणशुष्कं श्लक्ष्णमण्डूरचूर्णम् । विमलकपलमेकं पञ्चसख्यं सिताया, अनघृतपलाष्टौ द्वयष्टकं गन्धदुग्धम् ॥ यदि इससे चमन हो तो पान खिलाना चाहिये | ( यह विषैला प्रयोग है अतः योग्य चिकित्सक के परामर्शके बिना सेवन न करना चाहिये | मात्रा - आधी रती ठीक है । एक दिन में २ मात्र से अधिक न दें ।) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५१ मृदुदनशिखाभिर्मन्दमन्दं कटा हे, विगतसलिलशेषं पाचयेत्पाकविज्ञः । वितरति गुडपाके किञ्चिदुष्णेऽवतीर्ण, raft दृढमभीक्ष्णचूर्णितं देयमाशु || त्रिकटुकमधुके छाया सबैडङ्गसारं, त्रिफलगदलवङ्गं कर्षमेकैकशश्च । तदनु शिशिरकाले द्वे पले माक्षिकस्य, प्रतनुपट निघृष्टं गालितं सम्प्रदद्यात् ॥ शुभ तिथिदिवसादौ भोजनादौ निषेव्यं, प्रथम दिवसमेनं सार्द्धमाणं तदूर्ध्वम् । अहरहरनुवृद्धया शाणमानं प्रयोज्यं, हिमकररुचिशीतं गव्यदुग्धञ्च पेयम् ॥ नियतमयमसाध्यानम्ल पित्तोत्थशूलान्, मिनिवसदाहानाहमोहममेहान् । विविधरुधिररोगान् पित्तयुक्तानशेषानपहरति सिताख्यो दिव्यमण्डूरयोगः || उत्तम मण्डूरको अभिमें तपा तपाकर सातबार गोमूत्र में बुझावें और फिर तेज़ धूपमें सुखा कर बारीक चूर्ण कर लें। यह मण्डूर चूर्ण ५ तोले, मिश्री २५ तोले, पुराना घी ८० तोले और गोदुग्ध ८० तोले ले कर सबको एकत्र मिलाकर मन्दान पर पकायें। जब जलांश शुष्क हो जाय तो उसे अभिसे नीचे उतार लें और उसके कुछ उष्ण रहते ही उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, मुलैठी, इलायची, धमासा, बायबिडंगकी गिरी, हर्र, बहेड़ा, आमला, कूठ और लौंग, – इनका ११ - १| तोला चूर्ण मिला दें । तदनन्तर जब वह ठंडा हो जाय तो कपड़े से छना हुवा २० तोले शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें । For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि इसे १॥ माशेकी मात्रा से आरम्भ करके (८२१८) सिद्धतालेश्वररसः प्रतिदिन थोडीथोड़ी मात्रा बढ़ाते हुवे १ शाण ( र. चि. म. । स्त. २) (३॥ माशे) की मात्रा कर देनी चाहिये । अनुपान-शीतल गोदुग्ध । भल्लातकं तालकतुल्यभागं तद्धण्डिकायन्त्रवरे च दत्तम् । सेवनकाल–भोजनके आदि में सेवन दया ततश्चप्पणिकां तव करना चाहिये। सपष्ठिकांस्तान्विकिरन्ति मध्ये ॥ इसे सेवन करने से असाध्य अम्लपित्त और । यदा च सर्वे स्फुटिता भवेयुः उससे उत्पन्न होने वाला शूल अवश्य नष्ट हो जाता सिद्धो रसः स्यात्खलु तालकेशः । है । यह वमन, दाह, आनाह, मोह, प्रमेह और | कुष्टानि सर्वाणि निहन्ति मासापित्तजन्य अनेक रुधिरविकारोको नष्ट करता है। जरामयं रूपमपास्य सर्वम् ।। (८२१७) सिद्धतालकेश्वरः भवेदपूर्व सकलं शरीरं ( रसे. चि. म. । अ. ९) निरामयं कान्तिवलायुपेतम् ॥ तालसत्वं चतुर्थांशं सूतं कृत्वा च कज्जलीम । मासमात्रममुं दद्यादेहं कुर्यान्निरामयम् । सोमराजीकषायेण मर्दयित्वा पुनः पुनः॥ | विजित्य सकलान् रोगान्कुर्यादानन्दसंयुतम् ॥ अधो भूधरमं पाच्य काचकृप्यां दिनत्रयम् । दीर्घायुर्जायते भूमौ सज्जदेहो निराकुलः । तालेन सदृशं किञ्चिदौपधं कुष्ठरोगिणाम् ।। । साधनैः सकलैयुक्तः सर्वसौभाग्यभाजनः । नास्ति वातविकारनं ग्रन्थिशोथनिवारणम॥ । शुद्ध भिलावे और शुद्र हरताल समान भाग १ भाग शुद्ध पारद और ४ भाग हरताल- | लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह कूटें सत्वको एकत्र मिला कर खरल करें और कजली और फिर कपरमिट्टी की हुई हांडीमें भरकर उसके हो जाने पर उसे बाब चीके क्वाथकी कई भावनाएं मुखको शराबसे अच्छी तरह बन्द करदें तथा उसके देकर सुखा लें । तदनन्तर उसे आतशी शीशी में ऊपर (शराव पर) थोडेसे धान डालकर हांडीको भरकर ३ दिन भूधरयन्त्रमें पकावें और उसके । आग पर चढ़ा दें । जब सब धान खिल जाएं तो स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल कर खरल आग देनी बन्द करदें और हाण्डीके ठण्डी होने पर करके सुरक्षित रक्खें । उसमें से औपधको निकाल कर पीस लें । इसके सेवनसे कुष्ट नष्ट होता है। कुष्ठ, वातव्या धि, प्रन्थि और शोथके लिये इसे सेवन करने से १ मासमें कुष्ठ नष्ट होकर हरतालसे श्रेष्ठ अन्य कोई औपध नहीं है। | कान्ति और बलयुक्त नीरोग शरीर प्राप्त होता है। ( मात्रा-आधी रत्ती । ) (मात्रा-आधीसे १ रत्ती तक ।) For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसाकरन पायो आमः -- --- %3 - - --- (८२१९) सिडपत्राननरसः | उष्णोदकानुपानश दयारात्र पलत्रयम् । (र. प्र. सु. । न. ८) ज्वरातिसारेऽतिस्तो केवले वावरेऽपि ॥ घोरे त्रिदोषजे रोगे ग्रहण्यामसगामये । सूतं गन्धं टङ्कणं चेत्समांश वातरोगे च सूले च शूले च परिणापजे ॥ . व्योषं मुस्तं वत्सना बराच । शुद् गन्धक, शुद्र पारद और अप्रक भस्म सर्वेभ्यो वै निष्कमा गुडेन ४-१ भाग तथा सब्जी, सुहागेकी खील, बबाखादेद्गुमायुग्मं मात्रा वटी हि ॥ । खार, पांचो नमक (सेंधा, काला नमक, बिडकुष्ठान् मेहान् शोफशूलादिदोषान् लवण, काच लवण, सामुद्र लवण ), हरं, बहेन, हन्तीत्येवं सिद्धपश्चाननोऽयम् । | आमला. सांठ, काली मिर्च, पीपल, इन्द्रबो, सफेद शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, मुहागेकी खील, जीरा, काला जीरा, चीतामूल, अजवायन, होम, सोट, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, शुद्ध बछनाग, बायबिडंग और सोया; इनका चूर्ण १-१ भाग हरं, बहेड़ा और आमला समान भाग लेकर प्रथम कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और पारे गन्धकको कम्जली बनावें और फिर उसमें हर उसमें अन्य ओषधियोका चूर्ण मिलकर अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह । रच्छी तरह खरल करें। खरल करें। इसके सेक्नसे घोर क्रिदोषज मातिसार, मात्रा-२ रत्ती। अतिसार, ज्वर, संग्रहणी, रक्तविकार, बातम्याधि, इसे गुड़में मिलाकर गोली बनाकर खानेसे शूल और परिणाममूलका नाश होता है। कुष्ठ, प्रमेह, शोथ और शूलादि का नाश इसे पानके साथ खा कर १५ तोले उन्म जल पीना चाहिये। होता है। मात्रा- रत्ती। (८२२०) सिद्धप्राणेश्वरो रसः सिरमण्डूरम् ( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. । ज्वरातिसारा.; (र. र.; वृ. नि. र. ; र. का. थे. । पाहु.) रसे. चि. म. । अ. ९) प्र. सं. ४४२१ "पुनर्नवा मण्डूर (२)” देखिये। गन्धेशानं पृथग्घेदभागमन्यच भागिकम् । उसकी अपेक्षा इसमें (सिद्ध मण्डूर में) यह स्वजिटायवक्षाराः पश्चैव लवणानि च ॥ विशेषता हैवराव्योपेन्द्रबीजानि द्विनीराग्नियमानिका । (१) मण्डूर ८ पल (४० तोले) और अन्य सहिष बीजसारश शवपुष्पा मुचूर्णिता ॥ | ओषधियां १।-१। तो. हैं। सिद्धः प्राणेश्वरः सूतः माणिनां प्रामदाएकः। (२) ११ तोला विष (शुद्ध बछनाम) अवल्लै भक्षयेदस्य नागवल्लीदलैयुतम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५४ भारत-भैषज्यमलाकरः [ सकारादि (८२२१) सिद्धयोगेश्वरः अरण्डके पोंसे लपेट दें तथा अनाजके ढेर में दबा दें । ३ दिन पश्चात् गोलेको निकाल कर ( रसे. चि. म.। अ. ८) खरल कर लें, वह वारितर हो जायगा । तत्पश्चात् शुद्धसूतं द्विधा गन्धं खल्वे घृष्ट्वा तु कजलीम् । | उसे घीकुमार, भंगरा, पियाबांसा; मकोय, पुनर्नवा, तयो रसं कान्तलोहमभावे तस्य तीक्ष्णकम् ॥ नील, गोरखमुण्डी, संभालु, सहदेवी, शतावर, वेडितं देवदेवेशि मर्दितं कन्यकाद्रवैः। . | अम्लपर्णी, गोखरु, कोचकी जड़ और बड़के यामद्वयं ततः पश्चात् तद्गोलं ताम्रसम्पुटे । अंकुर-इनके स्वरस तथा त्रिकुटा, त्रिफला और आच्छाधरण्डपत्रैस्तु धान्यराशौ निधापयेत् ।। बाबची-इनके काथकी पृथक् पृथक सात सात त्रिदिनान्ते समुद्धत्य पिष्टं वारितरं भवेत् ॥ भावना दें । तत्पश्चात् उसमें उसके बराबर कुमारी भृङ्गकोरण्टौ काकमाची पुनर्नवा। निम्नलिखित चूर्ण मिला कर शहदके साथ सरल नीली मुण्डी च निर्गुण्डी सहदेवी शतावरी ॥ कर लें। अम्लपर्णी गोक्षुरकं कच्छमूलं वटाङ्करम् । चूर्ण-हर्र, बहेड़ा, आमला, सांठ, मिर्च, एतेषां भावयेद्रावैः सप्तवारान पृथक पृथक् ॥ | पीपल, चीतामूल, सेठ, छोटी इलायची, जायफल अषणत्रिफलासोमराजीनां च कपायकैः। और लौंग समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । शुद्धेऽस्मिन् तोलितं चूर्ण सममेकादशाभिधम् ॥ इसे रात्रिके समय खा कर ऊपरसे गोदुग्ध बराव्योषाग्निविश्वैलाजातीफललवङ्गकम् । पीना चाहिये । यदि दूध काली गायका हो तो संयोज्य मधुनालोड्य विमयेदं भजेत्सदा ॥ और भी उत्तम है। रात्रौ पिवेद्गवां क्षीरं कृष्णानां च विशेषतः। इसे एक वर्ष तक सेवन करनेसे वृद्धावस्था सम्वत्सराजरामृत्युरोगजालं निवारयेत् ॥ और अकाल मृत्यु नहीं आती । यह अत्यन्त वीर्यवीर्यवृद्धिकरं श्रेष्ठं रामाशतमुखपदम् । वर्द्धक और स्तम्भक है । इसे सेवन करने वाला तावन्न च्यवते वीये यावदम्लंन सेवते ॥ पुरुप जब तक अम्ल पदार्थ न खाएगा मैथुनके दीपनं कान्तिदं पुष्टितुष्टिकृत्सेविनां सदा।। समय उसका वीर्यपात न होगा चाहे वह १०० मुगुप्तः कथितः मृतः सिद्धयोगेश्वराभिधः ॥ बार भी स्त्रीसमागम क्यों न करे । ... १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गन्धक यह अग्निदीपक, कान्तिवर्द्धक और पौष्टिक है । को एकत्र मिला कर कजली बनावें । तदनन्तर (८२२२) सिद्धवटी उसमें ३ भाग कान्तलोह-भस्म और यह न मिले तो ती लोह-भस्म मिला कर २ पहर घृत- ( वृ. नि. र. । सन्निपाता.) कुमारीके ग्समें खरत करें और फिर उसका एक | शुद्धसूतं तथा गन्धं काकाण्डं सैन्धवं समम् । गोला बना कर उसे ताम्रसम्पुटम बन्द करके | सद्यो बालस्य विष्ठांच द्रवैाम्या विमर्दयेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रसंपकरणम् ] पश्चमो भागः गुटिका बदराकरा भसिता रोगनाशिनी। अनेनाशीतिवर्षोऽपि शतधा रमते स्त्रियाः। इयं सिद्धवटी नाम सन्निपातं नियच्छति ॥ ऊर्ध्वलिङ्गः सदा तिष्ठेत् कामदेव इव स्वयम् ॥ पूर्वोक्तनानुपानेन सन्निपातं नियच्छति ॥ ज्वरादिरोगनिर्मुक्तः संसारसुखमश्नुते । __शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, बकायनकी छाल, माघमेकन्तु कर्त्तव्यं, दुग्धमत्रानुपानकम् ॥ सेंधा नमक और नवजात बालककी विष्ठा समान विदारीकन्द, मूसली, आमला और पुनर्नवाभाग ले कर प्रथम पारे गन्धकको कजली बनावें। मूल इनका चूर्ण ४-४ भाग तथा शुद्ध गन्धक २ और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर भाग और शुद्ध पारद १ भाग ले कर प्रथम पारे सबको अच्छी तरह खरल करें और ब्राह्मीके रसमें | मन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य घोट कर बेरके समान गोलियां बनावें। ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सफेद सेभलकी जड़के इन्हें पूर्वोक्त* अनुपानके साथ सेवन करनेसे | रसमें तथा भैसके दूधमें पृथक् पृथक् सात सात सन्निपात नष्ट होता है। दिन खरल करके सुखा लें। - इसे शहद तथा घीके साथ सेवन करनेसे (८२२३) सिद्धशाल्मलीकल्पः कामशक्ति इतनी बढ़ जाती है कि ८० वर्षका ( भै. र. । वाजिकरणा.) वृद्ध भी एकही समय में १०० बार स्त्री समागम भूकूष्माण्ड तालमूली धात्री चैव पुनर्नवा । कर सकता है। इसे सेवन करने वालेका लिंग समभागं समाहृत्य भागाई गन्धकं तथा ॥ कभी शिथिल नहीं होता और वह ज्वरादि रोगोंसे तदर्दै पारदं शुद्ध कज्जलीकृत्य निक्षिपेत् ।। | मुक्त हो कर सांसारिक सुखोंका उपभोग करता श्वेतशाल्मलीतोयेन सप्तधा भावयेत्पुनः ॥ । है । इसे १ मास तक सेवन करना आवश्यक है। माहिषेण च दुग्धेन तच्चूर्ण भावयेत् पुनः ।। अनुपान -दूध । शुष्कं तच्चूर्णयेद् यत्नाल्लेहयेन्मधुसर्पिषा (मात्रा-६ रत्ती।) *मालूम नहीं कि " पूर्वोक्त" शब्दसे किस (८२२४) सिडसावरयोगः रसकी ओर संकेत किया गया है । हमने यह ( र. का. धे. । अशॉ.) प्रयोग रसराजसुन्दरसे लिया है, उसमें इससे मृताभ्रं विंशतिपलं मृतलोहस्य पञ्चकम् ।. पूर्व विश्वमूर्ति रस है, जिसका अनुपान इस प्रकार गन्धकस्य पलपश्च त्रिभोद्वगुणमाक्षिकम् ॥ लिखा है: पथ्या शतपलं योज्यं धात्री पल शतद्वयम् । “ अदरकके रसमें औषध खिला कर ऊपरसे सर्वमेकत्र सञ्चूर्य जम्बीरैर्भावयेदिनम् ॥ आकको जड़के क्वाथमें काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर भृङ्गीपुनर्नवादावैः पातालगरुडांशकैः । पिलाना चाहिये।" । भल्लातवनिकोरण्ठं हस्तिशुण्डा च लागली ॥ For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [सकारादि क्षीरिणी जलम्बी च प्रत्येक प्रत्यहं वः। । दुर्वल बपुरत्यर्थ बलयुक्तं करोत्यसौ।। भावयेन्मर्दयेदित्थं मध्वाज्याभ्यां विलोडयेत् ।। मुद्गगर्भ धृतं क्षीरं शालयो माहिषं हितम् ।। स्निग्धभाण्डे स्थितं खादेन्नित्यं निष्कद्वयं द्वयम् । मोती, शुद्ध पारद, स्वर्ण-पत्र, रौप्यपत्र और सिद्धसापरयोगोऽयं त्रिदोषाश: प्रशान्तये ॥ जवाखार १-१ तोला ले कर प्रथम पारदमें स्वर्ण ___अभ्रक भस्म १०० तोले, लोह-भस्म २५ और रौप्य पत्र मिला कर खरल करें । जब तीनों सोले, शुद्ध गन्धक २५ तोले, स्वर्णमाक्षिक- चीजें मिल जाएं तो उसमें मोती और जवाखार मस्म ३०० सोले, हरका चूर्ण ३। सेर, और मिला कर पुनः सरल करें और फिर उसे लाल मामलेका चूर्ण १२।। सेर ले कर सबको एकत्र कमलकी पत्तियों (पखड़ियों ) के रसमें १ दिन मिला कर जम्बीरी नीबू, मंगरा, पुनर्नवा, पाताल- | खरल करके १ तोला शुद्र गन्धक मिला कर पुनः गरुटी, मिलावा, चीतामूल, पियाबांसा, हाथीसुंडी, । खरल करें । जब कजली हो जाय तो उसे कपरकलिहारी, दुद्धी और जलतुम्बी-इनके स्वरस या मिट्टी की हुई आतशोशीशीमें भर कर उसका काथकी १-१ भावना दे कर शहद और धीमें | मुख बन्द करके ३ पहर बालुका-यन्त्रमें पकावें । मिका कर सुरक्षित रक्खें । तदनन्तर शीशीके स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे मात्रा-७॥ मारो। औषधको निकाल कर सुरक्षित रक्खें। इसके सेवनसे त्रिदोषज अर्शका नाश मात्रा-१ रती। होता है। इसे मूसलीके चूर्ण और सांडके साथ (व्यवहारिक मात्रा-३ से ६ रत्ती तक I) खिलाना चाहिये। इसके सेवनसे शुक्रवृद्धि होती और ध्वजमल (८२२५) सिद्धसूतः का नाश हो कर निर्बल शरीर अत्यन्त बलवान (भै. र. । वाजीकरणा. ; न. मृ. । सं. ५) हो जाता है। पथ्य--घृतयुक्त मूंगकी दाल, भैसका घी, मुक्ताफलं सुद्धस्तं सुवर्ण रूप्यमेव च । यवक्षारश्च तत्सर्वं तोलकैकं प्रकल्पयेत् ।। | भैसका दूध और शाली चावलका भात । रक्तोत्पलपत्रतोयैर्मर्दयेत्पत्तलीकृतम् । सिद्धाभ्रकरसः मर्दषेच्च पुनर्दत्वा गन्धकं तदनन्तरम् ॥ (र. चं. । ग्रहण्य.) क्षिप्त्वा काचपटीमध्ये सनिरुध्य त्रियामकम्। प्र. सं. ६३४५ "लघु सिद्धाभ्रक रसः” देखिये। सिकताल्ये पच्छीते सिद्धसूनन्तु भक्षयेत् ॥ सिद्धेश्वररसः रक्तिकैकपमाणेन मुशलीशर्करान्वितम् । प्र. सं. ५५८३ महा सिद्धेश्वर रसः शुक्रवृद्धि करोस्पेष ध्वजमाच नाशयेत् ॥ । देखिये । For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः (८२२६) सिन्दूरभूषणरसः इसके सेवनसे वातज पाण्डु और कामलाका (र. चं. ; र. रा. सु. ; र. र. : र. र. स.। नाश होता है। उ. अ १०) अनुपान--१। तोला अपामार्ग और अरण्डकी शुद्धसूतं च सिन्दूरं पलैकैकं विमर्दयेत् । जड़को तक्रमें पीस कर पियें। पासारसेन यामैकं तेन कुर्याच चक्रिकाम् ॥ (८२२७) सिन्दूररस:भुपक्यां कारयेन्मूषामुत्तानां द्वादशाङ्गुलाम् ।। ___ (वृ. यो. त. । त. ११८) तन्मध्ये गन्धक शुद्धं क्षिपेत्पलचतुष्टयम् ।। पूर्वोक्तां चक्रिकां तत्र क्षिप्त्वाऽय प्रपुटेलघु । | चतुष्पलं तु गन्धस्य पारदं च चतुष्पलम् । जीणे गन्धे समुद्धृत्य चक्रिकां तां विचूर्णयेत् ।। | पलैकं हरितालं च तालका मनःशिला || चूर्णादशगुणं योज्यं मृतं लोहं च मर्दयेव । तालार्ध टङ्कणं शुद्ध नवसारं तदर्धकम् । लशुनेन दशांशेन चणमात्रां वर्टि कुरु ॥ सर्व नक्षिप्य खल्वे च मर्दयेत्कज्जलीकृतम् ।। शाककृतस्य पत्राणां रक्तवर्ण द्रवं हरेत् । वातपाण्डहर: सिद्धो रसः सिन्दूरभूषणः।। पिच्चानु झपामार्गस्यैरण्डस्य च मूलिकाम् ॥ तवैमर्दयेत्सम्यकाचकूप्यां विनिक्षिपेत् ॥ तः पिष्ट्वाऽय कर्फकं हन्ति पाण्डु सकामलम् ॥ खटिक्या मुखमान्छाद्य वज्रमृत्तिकया तथा । कूपिका लेपयेत्सप्त शोषयेदातपे खरे ॥ शुद्ध पारा और रससिन्दूर ५-५ तोले ले। वालुकायन्त्रमध्ये तु कूपिकां तां विनिक्षिपेत् । कर दोनोंको एकत्र मिला कर खरल करें और बुल्लिकायां विनिक्षिप्य वहि प्रज्वालयेत्ततः ॥ फिर उसे १ पहर वासा (अडसा) के रसमें खरल | यामं षोडशमात्रं तु दीप्तमध्यवरामिना। करके टिकिया बनावें और फिर २२ अङ्गुल गहरी स्वागशीतलमादाय खल्बमध्ये विनिक्षिपेत् ॥ पक्की भूषामें २० तोले शुद्ध गन्धकका चूर्ण डाल- तत्सिन्दुरसमं द्रव्यं षोडशांशं विनिक्षिपेत् । कर उसके बीचमें उपरोक्त टिकियाको रख कर मर्दयेत्पूर्ववद्रव्यं काचकूप्यां विनिक्षिपेत ॥ उसके मुखको अच्छी तरह बन्द कर दें और एवं सप्तविधं कृत्वा क्षिप्त्वा कूप्यां विपाचयेत् । उस पर कपडमिट्टी करके लधुपुटमें पकावें । जब स्वागशीतलमादाय उदयासमो रसः॥ गन्धक जीर्ण हो जाय तो मूषाके स्वांगशीतल सिन्दूरं सूक्ष्मलं चूर्ण नागदन्तकरण्डके । होने पर टिकियाको निकाल लें और उसको पीस तस्सिन्दूरं निषेवेत गुआमात्रप्रमाणतः ॥ कर उससे १० गुनी लोह भस्म तथा दसवां शर्करामधुपिप्पल्या प्रातरुत्थाय सेवयेत् । भाग ल्हसनका कल्क मिला कर अच्छी तरह खरल क्षयानेकादश हन्ति सन्निपातांस्त्रयोदश ।। करें और चनेके समान गोलियां बना कर सुर- आमवातं च शूलं च नाशयेन्नात्र संशयः। क्षित रक्खें। पाण्डु पश्चविधं चैव कामलानयनाशनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः ३५८ महोदरा नष्ट पञ्चगुल्मानामपि पञ्च च । अरोचकं पञ्चकासं पञ्चश्वासं जडं हरेत् ॥ स्थिरायुः कार्यसिद्धिश्च मेध्यं चाऽऽशु शुभप्रदम् । अनुपानविशेषेण सर्वरोगनिवारणम् ॥ इति धन्वन्तरोक्तं सिन्दूरं लोकपूजितम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि इसे खांड, शहद और पीपल के चूर्णके साथ मिलाकर प्रातः काल सेवन करना चाहिये । इसके सेवन से ११ प्रकारका क्षय, १३ प्रकारका सन्निपात, आमवात, शूल, पाण्डु, कामला, ८ प्रकार के उदररोग, ५ प्रकारके गुल्म, अरुचि, कास, श्वास और जड़ताका नाश होकर आयु स्थिर होती है । यह रस मेध्य है और अनुपान भेद समस्त रोगों को नष्ट करता है । शुद्ध गन्धक २० तोले, शुद्ध पारद २० तोले, शुद्ध हरताल ५ तोले, शुद्ध मनसिल २॥ तोले, सुहागा २ ॥ तोले और नौसादर १| तोला लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें | जब कंज्जली हो जाय तो उसे शाकवृक्षके पत्तों से निकाले हुवे लालरंग के रसमें अच्छी तरह खरल करें और फिर आतशी शीशीमें भरकर उसके मुख को खिड़िया डाटसे बन्द कर दें और शीशीके ऊपर वज्रमृत्तिकाके सात लेप करके तेज धूपमें सुखावें । तदनन्तर उसे बालुकायन्त्रमें रख कर १६ पहर मृदु, मध्यम और तीव्रानि पर पकावें । इसके पश्चात् शीशीके स्वाङ्गशीतल होने पर उसमें से रसको निकालकर पीस लें और उसमें उसका सोलहवां भाग उपरोक्त पारद गन्धक आदि द्रव्योंका ऊपर लिखित परिमाणसे बनाया हुवा मिश्रण मिला सुरङ्गोऽग्रिसहः स्त्रिग्धः सूक्ष्मः स्वच्छो गुरुर्मृदुः।। सुवर्णाकरजः शुद्धः सिन्दूरो मङ्गलप्रदः । दुग्धाम्लयोगतस्तस्य विशुद्धिर्गदिता बुधैः ॥ मतान्तरम् - कर शाकवृक्षके पत्तोंके रसमें खरल करें और फिर | सिन्दूरं निम्बुकद्रावैः पिष्ट्वा धर्मं विशोषयेत् । उपरोक्त विधिसे पाक करें । इसी प्रकार ७ बार | ततस्तण्डुलतोयेन तथाभूतं विशुद्धयति ॥ पाक करें। हर बार तैयार रसका सोलहवां भाग पारद गन्ध आदिका मिश्रण मिलाना चाहिये । अन्तमें इसको पीस कर हाथीदांतकी शीशी में भर कर सुरक्षित रक्खं । मात्रा - १ रत्ती | (८२२८) सिन्दूर शोधनम् ( आयु. वे. प्र. । अ. १२ ) सिन्दूरं रक्त रेणुश्च नागगर्भे च सींसकम् । सीसोपधातुः सिन्दूरं गुणैस्तत्सीसवत्मतम् ॥ संयोगजप्रभावेण तस्याप्यन्ये गुणाः स्मृताः । सिन्दूरमुष्णं वीस कुष्ठकण्डुविषापहम् || भग्नसन्धानजननं व्रणशोधनरोपणम् । रक्तरेणु, नागगर्भ, सीसक, सीसोपधातु और सिन्दूर; ये सब एक ही पदार्थके नाम हैं । सिन्दूर में सीसे के समान ही गुण होते हैं और अन्य पदार्थों का योग होनेसे उसके गुणोंमें भी अन्तर आ जाता है । For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org रसमकरणम् ] पञ्चमी भागः ३८९ सिन्दूर उष्ण है तथा विसर्प, कुष्ठ, कण्डू और | चन्दन और चव- इनका चूर्ण समान भाग ले कर । सबको एकत्र मिला कर खरल करें । विषको नष्ट करता है । भग्न अस्थिको जोड़ देता है और व्रणको शुद्ध करके भर देता है । इसे शहद में मिला कर सेवन करने से बच्चोंका पश्चाद्रुज' नामक रोग नष्ट होता है । मात्रा - १ रत्ती । सिन्दूरको दूध और जम्बीरी नीबूके रसमें घोट कर सुखा लेनेसे वह शुद्ध हो जाता है । (८२३०) सिन्दूरादिवटी ( धन्व. | वाजीकरणा . ) सिन्दूरं कनकबीजं विजयाक्षुरबीजकैः । जातीफलं जातिपत्री कटुशिग्रुमफेनकम् ॥ अथवा सिन्दूरको नीबूके रस और चावलोंके, पानीमें पृथक् पृथक् १-१ दिन घोट घोट कर समुद्रशोषसंयुक्तं लवङ्गं च तथैव च । धूपमें सुखा लेनेसे वह शुद्ध हो जाता है । भावयेद् विजयाक्वाथैश्छायाशुष्क वटीं कृताम् ॥ स्वादेच्च रक्तिकां नित्यं शुक्रस्तम्भः प्रजायते || जो सिन्दूर रंगमें सुन्दर हो; अग्नि सहन कर सकता हो; स्निग्ध, सूक्ष्म, स्वच्छ, भारी और कोमल हो तथा सोनेकी खानसे निकला हो; वह श्रेष्ठ होता है । (८२२९) सिन्दूरादिलेहः ( र. र. । बालरोगा. ) सिन्दूरानलकुष्ठमुस्तपरिचैः शृङ्गीवटस्याग्रजैः । पाठागन्धककाचटङ्गणविपाविश्वौषधीकट्फलैः ॥ 1 लेहः क्षौद्रविनिर्मितो हरति वै पश्चादुजं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिन्दूर, धतूरे के शुद्ध बीज, भांग, तालमखाना, जायफल, जावित्री, सांठ, मिर्च, पीपल, सइंजनेके बीज, अफीम, समुद्रशोष और लौंग; सबका समान भाग चूर्ण ले कर एकत्र मिला कर कुची सर्जककोलबीज कुनटीबिल्वेन्द्रलोभैस्तथा । भांग काथमें खरल करें और १–१ रत्तीकी restriयुगैः सचन्दनयुतैः सश्रेयसी गोलियां बनाकर छाया में सुखा लें 1 चूर्णितैः ॥ दुस्तरम् ॥ रससिन्दूर, चीतामूल, कूठ, नागरमोथा, काली मिर्च, काकड़ासिंगी, बड़के अंकुर, पाठा, शुद्ध गन्धक, काच लवण, सुहागेकी खील, शुद्ध बछनाग, सोंठ, कायफल, बाबची, राल, बेरकी गिरी, शुद्ध मनसिल, बेलगिरी, इन्द्रजौ, लोध, धानकी खील, स्याह और सफेद जीरा, सफेद इन्हें खानेसे वीर्यस्तम्भन होता है । ( मात्रा - १ गोली। स्त्री समागमसे १ घंटा पहले दूधके साथ खावें । ) १ बच्चोंके मलमार्गमें होने वाले लाल रंगके एक विशेष प्रकारके व्रणको " पश्चाद्रुर्ज " कहते हैं । इसमें बच्चेको हरे, पीले दस्त आने लगते हैं और वह सूखने लगता है । यह रोग स्तन्यविकारसे होता है । For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य लाकरः [सभरादि (८२३१) सिंहनादरसा (८२३२) सुकुमारमोदकम् ( रसे. सा. सं. ; र. का. धे. ; र. र. । ज्वरा.) (मै. र.। अग्निमान्धा.) गोहपात्रगते गन्धे द्राविते तत्र निक्षिपेत् । पिप्पली पिप्पलीमूलं नागर मरिचं शिया। शुद्धसूतं समं चाभं भार्गीद्रावं तयोः समम् ॥ धात्री चित्रकमभ्रश्च गुडूची कटुरोहिणी ॥ निर्गुण्डयाः पल्लवोत्यञ्च तुल्यं तुल्यं पदापयेत् । प्रत्येकमेषां कर्षाशं चूर्ण दन्त्यासिकार्षिकम् । पचेन्यदमिना तावद्यावच्छुकं द्रवं द्वयम् ॥ | द्विपलं ऋिवाचूर्ण करायाः पलत्रयम् ।। विषपादयुतः सोऽयं सिंहनादरसोत्तमः। मधुना मोदकं कार्य सुकुमारकसमकम् । गुञ्जामात्र प्रदातव्या समिपातज्वरान्तकः॥ वाताजीर्णप्रशमनं विष्टम्मे परमौषधम् ।। अनुपानं पिवेत्क्वार्थ कण्टकार्याः सपुष्करम् । दाव नाइहरं- सर्वाजीर्णविनाशनम् ॥ गुडूचीनागरयुक्तमरुचिश्वासकासजित् ॥ पीपल, पीपलामूल, सेठ, काली मिर्च, हरं, लोह-पात्रमें १ भाग शुद्ध गन्धकको पिघला | आमला, चीतामूल, गिलोय और कुटकी; इनका कर उसमें १-१ भाग शुद्ध पारद और अभ्रक- चूर्ण १।--१। तोला, अभ्रक भस्म ११ तोला, भस्म तथा २ भाग भरंगीका काथ और २ भाग, दन्तीमूलका चूर्ण ३॥ तोले, निसोतका चूर्ण १० संभालुके पत्तोंका रस डाल कर उसे ( मूसलीसे तोले तथा खांड १५ तोले ले कर सबको एकत्र रगड़ते हुवे ) मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश मिलावें और आवश्यकतानुसार शहद मिला कर शुष्क हो जाय तो अग्निसे नीचे उतार लें और फिर मोदक बना लें। इनके सेवनसे वातज अजीर्ण उसमें उसका चौथाई भाग शुद्ध बछनागका चूर्ण, उदावर्त और आनाहका नाश होता है। विष्टम्भ मिला कर अच्छी तरह खरल करें । (मलावरोध) की यह परमौषध है। मात्रा–१ रत्ती। मात्रा-६ माशेसे १ तोला तक । इसे (शहदके साथ) खा कर ऊपरसे कटेली, अनुपान-उष्ण जल । पोखरमूल, गिलाय और सेठिका काथ पीनेसे सन्नि- (८२३३) सुखभैरवरसः पात ज्वर, अरुचि, स्वास और कासका नाश (रसे. चि. म. । अ. ९) होता है। गन्धालमासिकमयामुरसाविषाणि, * पाठान्तरके अनुसार-- मूतेन्द्रटङ्कणकटुत्रयमग्रिमन्यम् । (१) अभ्रकका अभाव है। शृङ्गी शिवां हरतरं मुरसेभशुण्डयोः (२) भगीके काथके स्थानमें कटेलीका | क्षीरेण घृष्टमनिलामयहारि बदम् । रास्नामृतादेवदारुशुण्ठीमुस्तभृतं पयः । (३) करनका रस अधिक है। | सगुग्गुलु पिवेत् कोष्णमनुपानं सुखावहम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ३६१ - - शुद्ध गन्धक, शुद् हरताल, स्वर्णमाक्षिक- (८२३५) सुदर्शनरसः (२) भस्म, लोह-भस्म, तुलसीदलका चूर्ण, शुद्ध बछ (र. का. धे. । ज्वरा.) नाग, शुद्ध पारद, सुहागेकी खील तथा सेठ, मिर्च, पीपल, अरनीकी जड़, काकडासिंगी और | | रसस्य भाग एकः स्याद् गन्धकस्य चतुर्दश । हर; इनका चूर्ण समान भाग ले कर प्रथम पारे । मर्दयेन्मासमेकं तु सहदेव्या रसैद्धयम् ।। गन्धकको कजली बनावें और फिर उसमें अन्य विषात् त्र्यंशेषु गोजिहारसैः षोडश भावना। ओषधियोंका चूर्ण मिला कर तुलसी और हाथी- तालकांशौ द्विशः कूष्माण्डोत्थैः पञ्चदशापि च ॥ सुंडीके रस तथा दूधमें १-१ दिन खरल करके भागमेकैकं सोममलं पश्चाशदङ्गजैः रसैः। (-३ रत्तीकी ) गोलियां बना लें। टङ्कणस्य त्रयो भागा लिङ्ग्याः परसभावनाः।। इनके सेवनसे वातव्याधिका नाश होता है। हिडिम्ब्यास्त्रिीलकण्ठीरसैदशभावनाः । अनुपान--रास्ना, गिलोय, देवदारु, सेठ जैपालात्सप्तभागाश्च शिवनेत्रत्रिभावनाः ॥ और नागरमोथा; इनसे यथाविधि सिद्ध दूधमें शुद्ध आकल्लकवचाभार्कीकणामरिचनागरम् । गूगल मिला कर मन्दोष्ण करके पियें । | जीरके च लवङ्गानि एकैकांशानि सर्वतः ।। धूर्तच्छदरसैर्भाव्यं सप्तविंशतिभावितम् । (८२३४) सुदर्शनरस: (१) छायाशुष्कां च गुटिकां गुञ्जामानां च कारयेत् ॥ (र. का. धे. । । हण्य.) अयं सुदर्शनो नाम रसः सर्वगदापहः । मूर्छितं मर्दयेत्सूतं दध्ना घर्मे दिनावधि ।। तत्तद्रोगानुपानेन विशेषाज्ज्वरहृत्परः ।। तत्तु शुष्क त्रिकटुकं सिन्दूरं निष्कमात्रकम् ॥ शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध गन्धक १४ यवक्षारस्य निष्कैकम्लपर्णीनिशाद्वैः । | भाग ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसे १ त्रिदिनं मर्दयेत्वल्वे लेह्यं मध्वाज्यसंयुतम् ॥ मास तक सहदेवीके रसमें खरल करें । तदनन्तर रसः सुदर्शनः ख्यातो. ग्रहणोरोग शान्तिकृत् ॥ ३ भाग शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर गोजिह्वा १ भाग मन्छित पारद ( कम्जली ) को १ . ( गोजिया घास ) के रसकी १६ भावना दें और दिन दहीके साथ धूपमें खरल करें और फिर फिर २ भाग शुद्ध हरताल मिला कर भूरे कुम्हड़े सुखा कर उसमें १-१ भाग सोंठ, मिर्च, पीपलका (पेरे) के रसकी १५ भावना दें। तत्पश्चात् उसमें चूर्ण, रससिन्दूर तथा यवक्षार मिला कर ३-३ । १ भाग शुद्ध संखिया मिला कर भंगरेके रसकी दिन अम्लपर्णी और हल्दीके रसमें खरल करें। ५० भावना दें। फिर ३ भाग सुहागेकी खील इसे शहद और घीके साथ मिला कर सेवन | मिला कर शिवलिगीके रसकी ६ भावना दें। फिर करनेसे ग्रहणी रोगका नाश होता है। ३ भाग हिडिम्बा ( शुद्ध मनसिल ? ) मिला कर मात्रा-६ रत्ती। | नीलकण्ठीके रसकी १२ भावना दें । तत्पश्चात् For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि ७ भाग शुद्ध जमालगोटा मिला कर रुद्राक्षके (८२३७) सुधानिधिरसः (२) क्वाथकी ३ भावना दें और फिर उसमें १-१ भाग (रसे. सा. सं.: र. रा. सु. ; र.चं. ; धन्व. । अकरकरा, बच, भरंगो, पीपल, मिर्च, सोंठ, सफेद अरोचका.) जीरा, काला जीरा और लौंग--इनका चूर्ण मिला फर धतूरेके पत्तोंके रसको २७ भावना दे कर १-१ रसगन्धौ समौ शुद्धौ दन्तीक्वाथेन भावयेत् । रत्तीकी गोलियां बना लें और छायामें सुखाकर जम्बीरस्य रसेनैव आर्द्रकस्य रसेन च ॥ सुरक्षित रक्खें । मातुलुङ्गस्य तोयेन तस्य मजरसेन च । पश्चाद्विश्चोष्यान्सर्वास्तान्टङ्कणञ्चोपचारयेत् ।। इसे रोगोचित अनुपानके साथ देनेसे साधा 'देवपुष्पं वाणमितं रसपादं मृतामृतम् । रणतः समस्त रोग और विशेषतः समस्त प्रकारके मापमात्रश्च तत्सर्व नागरेण गुडेन वा ॥ ज्वरोंका नाश होता है। । सर्वारोचकशूलार्तिसामवातं सुदारुणम् । (८२३६) सुधानिधिरसः (१) । विसूचीश्चानिमान्धश्च भक्तद्वेषश्च दारुणम् ।। ( भै. र. । रक्तपित्ता.) रसोयं वारयत्याशु केशरी करिणं यथा ॥ मृतं गन्ध माक्षिकं लौहचूर्ण शुद्ध पारद और गन्धक १-१ भाग ले कर सर्व घृष्टं त्रैफलेनोदकेन । | कज्जली बनावें और उसे दन्तीमूलके क्वाथ, मूपामध्ये भूधरे तत्पुटित्वा जम्बीरी नीबूके रस, अदरकके रस, बिजौरे नीबूके दद्याद्गुञ्जां त्रैफलेनोदकेन ॥ रस और बिजौ रे नीबूकी मज्जाके रस को १-१ लौहे पात्रे गोपयः पानयित्वा भावना देकर उसमें ५-५ भाग सुहागेकी खील रात्रौ दद्याद्रक्तपित्तप्रशान्त्यै ॥ ! और लोंगका चूर्ण तथा पारदसे चौथाई मृत । बछनाग* मिलाकर खरल करें। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण माक्षिक-भस्म और लोह-भस्म समान भाग ले कर कञ्जली मात्रा-१ माश। बनावें और फिर उसे त्रिफलाके काथमें खग्ल करके, इसे सोंटके चूर्णके साथ या गुड़के साथ मूषामें बन्द करके भृधरपुटमें पकावें । | सेवन करनेसे सब प्रकारको अरुचि, शूल, कष्टसाध्य मात्रा–१ रत्ती ! आमवात, विमृचिका, अग्निमांद्य और भक्तद्वेष (भोजन ___ इसे त्रिफलेके क्कायके साथ सेवन करनेसे पर अश्रद्धा) आदि रोगोंका शीघ्र ही नाश हो जाता है। रक्तपित्त शान्त होता है। इस पर रात्रिके समय लोहपात्रमें गोदुग्ध * वकारादि रस-प्रकरणमें 'विषमारणम्' पका कर पीना चाहिये। देखिये। For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ३६३ - ---- - - (८२३८) सुधानिधिरसः (३) भस्म सबसे दो गुनी ( १० भाग ) ले कर सबको ( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. मु. ; धन्व. । एकत्र मिलाकर गोमूत्र, भंगरेके रस, पुनर्नवामूलके मूर्छा.) रस, काले भंगरेके रस, संभालके रस और मण्डूक पीके रसकी पृथक् पृथक् १४-१४ भावना दे कर कणामधुयुतं सूतं मूर्छायामनुशीलयेत् ।। | २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। शीतसेकावगाहादि सर्व वा शीतलं भजेत् ॥ सुधानिधिरसो नाम मदमूर्छाविनाशनः ।। अनुपान-तक या भंगरेका रस । पारदभस्म ( या रससिन्दूर ) को पीपलके इसके सेवन कालमें तकके साथ भात खाना चूर्ण और शहदके साथ सेवन करनेसे मूर्छाका | | और प्यासमें पानीके स्थानमें तक पीना चाहिये । नाश होता है। लवणसे परहेज़ करना चाहिये । मूर्छा और मद रोगमें शरीर पर शीतल जल | इसके सेवन से कामला, ज्वर, शोथ, प्रहणीकी धार डालना, शीतल जलमें घुसकर स्नान करना विकार और पाण्डु का नाश होता तथा अग्नि आदि शीतल उपचार करने चाहिये । दीत होती है। ( पारदभस्म १ रत्ती, पीपलका चूर्ण १ माशा, | (८२४०) सुधानिधिरसः (५) शहद १ तोला।) (यो. र. ; र. का. धे. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. (८२३९) सुधानिधिरसः (४) मु. ; धन्व. , र. चं. ; वृ. नि. र. । रक्त(भै. र. । शोथा. ) पित्ता. ; र. चि. म. | स्त. ११ ; रसे. धान्यकं बालकं मुस्तं विश्व सिन्धुं समांशकम् । चि. म. । अ. ९) मण्डूरं द्विगुणं दत्त्वा भावयेत्तु चतुर्दश ॥ गन्धं मूतं माक्षिकं लोहचूर्ण गोमूत्र केशराजश्च शोथनी भृङ्गराजकः। निर्गुण्डी भेकपर्णी च रसैरेषां विभाव्य च ॥ ____ सर्व घृष्टं त्रैफलेनोदकेन । लौहे पात्रे गोपयःस्थं च कृत्वा x द्विगुमश्च प्रयुञ्जीत तक्रेण सह बुद्धिमान् । रात्रौ दद्याद्रक्तपित्तप्रशान्त्यै ॥ केशराजरसैर्वापि भोजनं लवणं विना ।।। तक्रेण भोजयेदन्नं पाने तक्रश्च दापयेत् । x“ लौहे पात्रे गोमयैः पाचयित्वा " कामलाज्वरशोथनो वहिसन्दीपनः परः॥ इति पाठभेदः । ग्रहणोपाण्डुरोगनः सर्वव्याधिविनाशनः ॥ (नोट-इस प्रयोगके उपादान प्र. सं.८२३६ धनिया, सुगन्धवाला, नागरमोथा, सांठ और के समान हैं परन्तु निर्माणविधि और सेवन विधिमें सेंधा नमक-इनका चूर्ण १-१ भाग एवं मण्डूर | बहुत अन्तर है इसीसे पृथक् लिखा गया है।) For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - ___ शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, स्वर्णमाक्षिक और काष्टेनालोड्य तत्सर्व क्षिपेत्कुटजपत्रके । लोहभस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर पुनः सञ्चूर्ण्य यत्नेन भावयेत्तदनन्तरम् ॥ त्रिफलेके क्वाथमें खरल करें। बालतिन्दुफलद्रावैः क्षीरैरौदुम्बरैस्तथा । इसे रोतको लोह-पा में गोदुग्धमें भिगोदें अरलुत्वग्रसैश्चापि दुग्विनीस्वरसैस्तथा ॥ और प्रातःकाल सेवन करें। इसके सेवनसे रक्त- पुटपक्कस्य बालस्य दाडिमस्य रसैः शुभैः। पित्तका नाश होता है। कृष्णकाम्बोजिकामूलरसैः कुटजवल्कनैः ॥ (मात्रा-२ रत्ती) तुल्यांशविश्वगान्धारीचूर्ण विपलिकं क्षिपेत् । मुस्तावत्सकदीप्यानिमोचसारं सजीरकम् ।। सुधानिधिरसः (६) वत्सनाभं च काशं प्रत्येकं तत्र निक्षिपेत् । ( लव गभेदी सुधानिधि रसः ) | विचूर्ण्य भावयेद्भूयः शुण्ठीकाथेन सप्तधा ।। प्र. सं. ६०५३ अ " रसक: रविधि (५)" ! इत्थं सिद्धो रसः पिष्टः करण्डे विनिवेशयेत् । देखिये। सुधासार इति ख्यातः सुधारससमो गुणैः ।। (८२४१) सुधापञ्चकरसः दीपनः पाचनो ग्राही हृयो रुचिकरस्तथा। दोषत्रयातिसारं च दुर्जेयं भेषजान्तः ॥ (र. र. स । उ. अ. १९) । | आमं चैवामरक्तं च ज्वरातीसारमेव च । कसेन पिष्टः शिलया सहितः पाचितो रसः। सातिसारां विपूची च प्रतिबध्नाति तत्क्षणात् ।। हताभ्यां तीक्ष्णताम्राभ्यां युतो हन्ति हलीमकम्॥ मान्यमानव्यतिक्रान्तिरिव पुण्यफलोदयम् । कास्य-भस्म, शुद्ध मनसिल, पारद-भस्म ! पिटविश्वाब्दकल्केन विधाय खलु चक्रिकाम् ।। ( या रससिन्दूर ), तीक्ष्णलोह भस्म और ताम्र- निक्षिपेत्स्वेदनीयन्त्रे पक्वार्धघटिकावधि । भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर आकृष्य तज्जलैरेवं सम्प्रमर्याऽऽहरेद्रसम् ॥ खरल करें। मुधासाररसं तत्र क्षिप्त्वा धान्यकसम्मितम् । यह रस हलीमकको नष्ट करता है। पूर्वोदितेषु रोगेषु प्रददीत भिपवरः ।। ( मात्रा-१ रत्तो।) गोतक्रेणाथ दध्ना वा पथ्यं देयं हितं मितम् । बालरम्भाफलं गुर्वीफलं बिल्वफलं तथा ॥ (८२४२) सुधासाररसः आम्रपेशी च मधुकं वृन्ताकं च प्रशस्यते ।। ( र. र. स.। उ. अ. १६ ; र. रा. सु.। । सर्वातिसारं ग्रहणी च हिक्कां उदावर्ता.) मन्दाग्निमानाहमरोचकं च । पृथपलिकगन्धाश्भमत सातकजलीम् । निहन्ति सद्यो विहितामपाके भद्राव्य क्षिपेद्वयोम पलैक गतचन्द्रिकम् ॥ । द्वित्रिप्रयोगेण रसोत्तमोऽयम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् पञ्चमो भागः साम्बुस्थालीमुखाबद्धे वस्त्रे पाक्यं निधाय च ।। सेवन विधि-समान भाग मिलित सांठ पिधाय पच्यते यत्र स्वेदनीयन्त्रमुच्यते ॥ और नागरमोथेके चूर्णको एकत्र मिलाकर, पानीके साथ पीस कर टिकिया बनावें । तदनन्तर एक ५-५ तोले शुद्ध पारद और गन्धकको एकत्र मिट्टीके पात्रमें पानी भरकर उसके मुखपर कपड़ा मिला कर कज्जली बनावें और उसे घृत लिप्त | बांध दें और उस पर उपरोक्त टिकिया रखकर उसे लोह-पात्रमें डाल कर मन्दाग्नि पर पिघलावें और कटोरी आदिसे ढक दें एवं हाण्डीको अग्नि पर फिर उसमें ५ तोले निश्चन्द्र अभ्रक भस्म मिला चढ़ाकर आधी घड़ी तक पकावे तत्पश्चात् धनियेके कर लकड़ीसे अच्छी तरह चलावें और सबके मिल दानेके बराबर सुधासार रसको थोडेसे उपरोक्त जाने पर कुड़ेके पत्तों पर डाल दें । तदनन्तर ठण्डा | हाण्डीके पानीके साथ खरल करके रोगीको होजाने पर उसे पीस कर तेंदुके कच्चे फलों के रस, । पिला दें। गूलरके दूध, अरलुकी छालके रस ( या क्वाथ ), पथ्य-गायका दही, गोतक्र, केलेकी कच्ची दूधीके रस, कच्चे दाडिम (अनार) को पुटपाक | फली, सुपारीका फल, बेलगिरी, आम, मुलैठी विधिसे पकाकर निकाले हुवे रस, कृष्ण कम्बो- | और बैंगन । जिकाकी जड़ के रस और कुड़ेकी छालके रस की (८२४३) सुरसादियोगः १-१ भावना दें और फिर उसमें ५-५ तोले (रा. मा. । विषा. २८) सोंठ और धमासेका चूर्ण तथा १-१॥ तोला । नागरमोथा, इन्द्रजौ, अजवायन, चीतामूल, मोचरस, | बहुशः सुरसाभाविततालक जीरा और शुद्ध बछनाग-इनका चूर्ण मिलाकर ___ कुवलयमनःशिलाचूर्णैः । सोंठके क्वाथकी सात भावना दें और सुखाकर मूषक विषमपि घोरं नश्यति पीतैर्न सन्देहः ॥ सुरक्षित रक्खें। तुलसीके रसकी अनेक भावना दी हुई हरयह रस दीपन, पाचन, ग्राही, हृद्य और ! ताल, कमलपुष्प ( या मोती ) और शुद्ध मनसिल रोचक है। अन्य औषधोंसे आराम न होने वाला समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें। त्रिदोषज अतिसार इससे नष्ट हो जाता है। ___ इसे सेवन करनेसे घोर मूषकविष भी अवश्य नष्ट हो जाता है। इसके सेवनसे आम, आमरक्त, ज्वरातिसार (८२४४) सुरसुन्दरीगुटिका और अतिसार युक्त विषूचिकाका तुरन्त नाश होता (र. चं. । वाजीकरणा. ; र. र ; । धन्व. । है । यह रस अतिसार, संग्रहणी, हिचकी, अग्निमांद्य, | रसायना.) आनाह और अरुचि को २-३ मात्रामें ही नष्ट | अभ्रक माक्षिकं वज्र कान्तं हेम समं समम् । कर देता है। सर्वाणि समभागानि मूतयुक्तानि कारयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः ३६६ गोलकं ततः कृत्वा पक्वं निचुलवारिणा । ततस्तं पुटपाकेन स्तम्भयित्वा प्रयत्नतः ॥ वाह्ये चास्यापि लिप्त्वा च वक्त्रस्था गुटकोत्तमा । स्तम्भयेच्छस्त्रसङ्घातं विषरोगांश्च नाशयेत् || अब्देनैकेन वक्त्रस्थावयः स्तम्भं करोति च । बलीपतिहन्त्री गुटिका सुरसुन्दरी ॥ अभ्रक, स्वर्णमाक्षिक, हीरा, कान्त लोह, स्वर्ण और शुद्ध पारद समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर खरल करें। जब सब चीजें मिल कर एकजीव हो जाएं तो उसकी गोली बना कर हिज्जल ( या जलवेत ) के रसमें पकावें और फिर उसे शराव - सम्पुट में बन्द करके पका कर दृढ़ कर लें । यदि इसे १ वर्ष तक मुखमें धारण किया जाय तो आयु स्थिर हो जाती है तथा वलीपलितका नाश होता है । (८२४५) सुरसुन्दरीवटिका ( र. र. रसा. खं । उप. ३ ) स्वर्णमेकं कान्तमेकं पञ्चतारं द्वि पारदम् । त्रिभागं व्योमसत्त्वं स्यात् षड्भागं शुल्वचूर्णकम् ॥ सर्वमेतत्कृतं सूक्ष्मं तप्तखल्वे दिनत्रयम् । मर्दयेदम्लवर्गेण दोलायन्त्रे सकाञ्जिके ॥ [ सकारादि गोलं त्रिदिनं पच्याद्गुटिका सुरसुन्दरी । जायते धारिता व वर्षान्मृत्युजरापहा ॥ भूतावटमूलं च कर्ष क्षीरैः पिवेदनु ॥ इसके ऊपर (घृतादि) किसी योग्य वस्तुका लेप करके मुखमें रखनेसे शस्त्रसंघात रुक जाता है |चाहिये । और विष नष्ट हो जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वर्ण १ भाग, कान्तलोह १ भाग, चांदी ५ भाग, शुद्ध पारद २ भाग, अभ्रक - सत्व ३ भाग और ताम्र ६ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर खरल करें और सबके मिल जाने पर तप्त खरल में ३ दिन तक अम्लवर्गके साथ खरल करें । तदनन्तर उसकी गोली बना कर कपड़े में बांध कर दोलायन्त्रविधिसे ३ दिन कांजीमें वेदित करें । इसे १ वर्ष तक मुखमें धारण करनेसे जरा और अकाल-मृत्यु नहीं आती । इसके प्रयोग कालमें नित्य प्रति १ तोला भूतारवट मूल (3) को दूधमें पीस कर पीना (८२४६) सुरूपो रसः (र. का. . । ज्वरो . ) रसं गन्धकं त्र्युषणं नागपुष्पं वरायुक्तमादौ वराजीवनेन । सुम नागैर्भावितं भृङ्गतोयैर्वटी मुद्गमाना विधेया भिषग्भिः ॥ जयेदग्निमान्धं कुरङ्गाश्वतापं कफं वातमुन्मत्तभावं क्षणेन । समस्तेन्दुर वृन्दमक्षिम वाह उक्त रसान्धौ सुरूपेति नामा ॥ For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् पञ्चमो भागः ३६७ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सांठ, मिर्च, पीपल, ! यो यःसमाश्रयेद्वयाधिः क्लोमितं तमवेक्ष्य च । नागकेसर, हर, बहेड़ा और आमला समान भाग क्रियां संसाधयेद्वैद्यो यथादोषं यथावलम् ॥ ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जलो बनावें और अनग्राण्यन्नपानानि क्लोमामयनिपीडितः। फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिला कर त्रिफले सेवेतोपाणि सर्वाणि यत्नतः परिवर्जयेत् ॥ के क्वाथ, पानके रस और भंगरेके रसकी भावना ___सहस्रपुटो अभ्रक भस्म, हिंगुलोत्थ पारद, दे कर मूंगके बराबर गोलियां बना लें। | भंगरेके रसमें शुद्ध गन्धक, हीरा-भस्म, प्रवालभस्म, (मात्रा-७-८ गोली ।) मुक्ता-भस्म, स्वर्ण-भस्म, चांदी--भस्म, स्वर्णमाक्षिकइनके सेवनसे अग्निमांद्य, कफ वातज ज्वर, भस्म और कान्तलोह-भस्म समान भाग ले कर उन्मत्तता, क्षय और नेत्रस्रावका नाश होता है। प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर सुरेचनकररसः उसमें अन्य औषधे मिला कर चीतामूलके काथमें खरल करें और ३-३ रत्तीकी गोलियां बना कर (र. र. स. । उ. अ. १९) छायामें सुखा लें। " नाराच रसः (३)" प्र. स. ३६४३ | इसे यथोचित अनुपानके साथ देनेसे क्लाम देखिये। रोगका नाश और अग्नि दीत होती है। (८२४७) सुरेन्द्रानवटी संसारमें ऐसा कोई रोग नहीं जिसे यह रस __ ( भै. र. । क्लोमा. )* नष्ट न करता हा। अभ्रं सहस्रशो दग्धं रसं दरदसम्भवम् । क्लोम रोगमें उग्र अन्न पानादिका त्याग केशराजाम्भसा शुद्धं गन्धक हीरकन्तथा ॥ करके अनुग्र आहारादि देना चाहिये । विद्रमं मौक्तिकं हेम रौप्यं माक्षिकमेव च। (व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती ।) कान्तलोहश्च सम्मय विधिना वहिवारिणा ॥ बल्लमात्रां वटीं कृत्वा छायायां परिश्चोषयेत् । ____ (८२४८) सुलोचनाभ्रम् एकैकां योजयेत्यासो यथादोषानुपानतः॥ (रसे. सा. सं. । अरोचका. ; र. रा. सु.; धन्व. क्लोमरोगविनाशाय वः सन्धुक्षणाय च । अरोचका.) न सोऽस्ति रोगो लोकेऽस्मिन्यमियं न पलं सुजीर्ण गगनन्तु वन विनाशयेत् ॥ तेजोवती कोलमुशीरदाडिमम् । *संस्कृत पुस्तकालय लाहौर द्वारा प्रकाशित | धान्यम्ललोणी रुचकं पृथग्दिशाभैषज्य रत्नावलीमें यह प्रयोग नहीं है। पलोन्मितं मर्दितमेव सेवितम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ३६८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि अरोचकं वातकफत्रिदोष संचल, व्याघनख, चीतामूल, कुटकी, चव्य, पित्तोद्भवं गन्धसमुद्भवं नृणाम् । देवदारु, अजवायन और लोह-भस्म समान भाग कासं स्वराघातमुरोग्रहं रुज लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। ____ श्वासं बलासश्च यकृद्भगन्दरम् ॥ (मात्रा-१ माशा ।) प्लीहाग्निमान्द्यं वयधुं समीरणं इसे सेवन करनेसे शोथ, पाण्डु, कास और मेहं भृशं अष्ठमसग्दरं कृमीन् । उदर-रोगों का नाश होता है। शूलाम्लपित्तं क्षयरोगमुद्धतं सुवर्णराज बङ्गेश्वरः सरक्तपित्तं वमिदाहमश्मरीम् ॥ प्र. सं. ५५२७ " मस्कमृगाको रसः" निहन्ति वार्शीसि सुलोचनाभ्रकं । देखिये। बलप्रदं वृष्यतमं रसायनम् ॥ सुवर्ण वसन्तमालती रमः वजाभ्रक भस्म ५ तोले तथा, चव, बेरकी प्र. सं. ६९७१ " वसन्तमालती रस: " गुठलीकी मज़ा, खस, अनारदाना, आमला, देखिये। अम्ललोणी और काला नमक; इनका चूर्ण ५०-५० । (८२५०) मूचिकाभरणरसः (१) (लघु) तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। इसे सेवन करने से वातज, कफज और ( रसे. चि. म. । अ. ९; शा. सं. । खं. २ अ. त्रिदोषज तथा अप्रिय गन्धजनित अरुचि, कास, १२; र. सं. क. । उल्ला. ४ ; भै. र. ; वृ. __ यो. त. । त. ६० ; यो. चि. म. । अ.७; स्वरक्षय, उरोग्रह, श्वास, कफ, यकृत् , भगन्दर, प्लीहा, अग्निमांद्य, शोथ, वायु, प्रमेह, कुष्ट, प्रदर, र. प्र. सु. । अ.८; वृ नि. र. र. का. कृमिरोग, शूल, अम्लपित्त, प्रबल क्षय, रक्तपित्त, धे. ; र. रा. सु. ; धन्व. । ज्वरा.) बाद अमरि और अर्शका नाश होता है। विषं पलमितं मूतः शाणिकश्चूर्णयेद् द्वयम् । यह बलप्रद, वृष्य और रसायन है। तच्चूर्ण सम्पुटे क्षिप्त्वा काचलिप्तशरावयोः । ( मात्रा-३ माशा।) मुद्रां दत्वा च संशोप्य ततश्चूल्यां निवेशयेत् । वहिं शनैः शनै कुर्यात्महरद्वयसङ्ख्यया ॥ (८२४९) सुवर्चलाद्यलोहम् तत उद्घाटयेन्मुद्रामुपरिस्थशरावकात् । ( भै. र. ; रसे. सा. सं. । शोथा. ; धन्व. ; र. रा. संलग्नो यो भवेत्सूतस्तं गृह्णीयाच्छनै शनैः ॥ सु. । शोथा. ; रसे. चि. म. । अ. ९) वायुस्पर्शों यथा न स्याचथा कूप्यां निवेशयेत् । सुवर्चला व्याघनखं चित्रकं कटुरोहिणी। । यावत्सूच्या मुखे लग्नं कुप्या निर्याति भेषजम् ॥ चव्यश्च देवकाष्ठश्च दीप्यकं लोहमेव च ॥ तावन्मात्रो रसो देयो मूर्छिते सन्निपातिनि । शोथं पाण्डु तथा कासमुदराणि निहन्ति च ॥ क्षुरेण प्रच्छिते मूर्ति तत्राल्या च मृक्षयेत् ।। वमन, For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - रसपकरणम् ] पश्चमो भागः ३६९ रक्तभैषजसम्पन्मृिन्तिोऽपि हि जीवति । । शुलवं विषं तथा चाभ्रं खल्वे मयं मुहुर्मुहुः । तथैव सर्पदष्टस्तु मृतावस्थोऽपि जीवति ॥ सेवनाच विलीयन्ते सन्निपातास्त्रयोदश । यदा तापो भवेत्तस्य मधुरं तत्र दीयते ॥ मूचिकाभरणो नाम नैव देयो ह्यमूर्छिते । ___ शुद्ध बछनाग ५ तोले और शुद्ध पारद ३॥ अस्योपयोगमात्रेण सन्निपाती भयङ्करः ॥ माशे ले कर दोनेांको एकत्र मिला कर खरल करें। स्वस्थः स्यादचिरेणैव संशयावसरो न हि ॥ तदनन्तर दो ऐसे शराव लें कि जिनके भीतर किसी भी विधिसे बनाई हुई पारद-भस्म काच च या हुवा हो और उनमें उपरोक्त औषध १ भाग, ताम्र भस्म १ भाग, शुद्ध बछनाग १ बन्द करके ३-४ कपरमिट्टी कर दें और उसे भाग और अभ्रक भस्म १ भाग ले कर सबको सुखा कर चूल्हे पर चढ़ा कर उसके नीचे २ पहर | एकत्र मिला कर कई दिन तक खरल करें। तक मन्दाग्नि जलावें । तदनन्तर उसके स्वांग यह रस १३ प्रकारके सन्निपातोंको नष्ट शीतल होने पर शरावोंको आहिस्तासे खोल कर | करता है । इसे देनेसे भयंकरसे भयंकर सन्निपात ऊपरके प्याले में लगे हुवे रसको सावधानीसे छुड़ा | भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । इसे केवल मूर्छिलें। इसे ऐसी शीशीमें रखना चाहिये कि औषधको तावस्थामें ही देना चाहिये । रोगी मूर्छित न हो तो हवा न लगे। यह रस न देना चाहिये। जब रोगी सन्निपात या सर्पविषसे मूछित (८२५२) सूचिकाभरणरसः (३) हो तो उसके शिर पर (तालु पर) छुरेसे त्वचाको (वृ. यो. त. । त. ५९ ; र. का. धे. ; र. ज़रा खुरच दें और सुईकी नोकसे शीशीमेंसे औषध निकाल कर उस स्थान पर मल दें। सुईकी रा. सु. । ज्वरा.) नोक पर जितनी औषध लगजाए उतनी ही पर्याप्त खण्डं कृत्वा विषं कृष्णं सार्कदुग्धेऽल्पभाण्डके। होती है। सकाधिके सगरले क्षिप्त्वा चुल्ल्यां निधापयेत्।। ___ रक्तके साथ औषधका सम्पर्क होते ही सप्ताहतः समुद्धृत्य श्लक्ष्णचूर्णीकृतं च तत् । मृठित रोगी भी सचेत हो जाता है। इसके प्रभावसे | मूचिकामरणो नाम रसो गुप्ततपो भुवि ।। सर्पदष्ट मृतप्रायः रोगी भी जीवित हो जाता है। सज्ञानाशे विचेष्टे च वल्लः काभिकपेषितः । " किमी करे तो मधर ब्रह्मरन्ध्र प्रयोक्तव्यो महामोहप्रणाशनः ।। पदार्थ खिलाना चाहिये। काले बछनागके टुकड़े करके उसे एक छोटी (८२५१) सूचिकाभरणरसः (२) डाण्डीमें डालें और उसमें (उससे चार गुना) आकका (र. चि. म. । स्त. ८) दूध और उतनी ही कांजी तथा बछनागके बराबर येन केनाप्युपायेन भस्मीभूतो भवेद्रसः ।। | सर्प विष मिला कर मुख बन्द कर दें और उस पर तच्चूर्ण वस्त्रगलितं तेनैव मिश्रयेसुधीः ॥ कपरमिट्टी करके चूल्हे में गढ़ा खोदकर दबा दें कि ४७ For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - - - जिससे रोज उसके ऊपर आग जलती रहे । सात रसमें मिलाकर उसे खिला भी देनी चाहिये जिससे दिन पश्चात् हाण्डीको निकाल कर औषधको | वह पूर्णतः निरोग हो जायगा । निकाल लें और बारीक चूर्ण करके रक्खे । । पथ्य-दही भात । जब रोगी सन्निपात आदिसे मूर्छित हो तो (८२५४) सूतभस्मयोगः (१) उसके सिर पर ( ब्रह्मरन्ध्र में ) छुरेसे त्वचाको जरा (र. का. घे. । मूत्राघाता.) खुरच कर ३ रत्ती यह रस कांजीमें पीसकर मल लवणक्षारसंयुक्तं मृतकं यः पिचेन्नरः । दें। इससे भयंकरसे भयंकर मूर्छा तुरन्त नष्ट हो | तस्य नश्यन्ति वेगेन मूत्राघातास्त्रयोदश ॥ जाती है। __सेंधा नमक और जवाखार (१-१ माशा) (८२५३) सूचिकाभरणरसः (४) तथा पारद भस्म १ रत्ती लेकर तीनोंको एकत्र (र. रा. सु. । चरा.) मिलाकर सेवन करनेसे १३ प्रकारके मूत्रकृच्छ । शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। हृद्धात्री दरदं तुल्यं गरलेन सुमर्दितम् । मुद्गप्रमाणा वटिका नाभिहत्तालुदेशके ॥ (८२५५) सूतभस्मयोगः (२) कुशेन चर्मनिर्भिद्यविघृष्याकवारिणा । (र. का. धे. । मूत्रकृच्छ्रा.) रसप्रभावमात्रेण नेत्रमुद्धाटयेक्षणात् ॥ | रसवल्लं यवक्षारं सितातक्रयुतं पिबेत् । सावधानो भवत्येव निश्चैतन्यं प्रवर्तते । मूत्रकृच्छाणि सर्वाणि लभन्ते नाशतां जवात् ।। ततस्त्वेकां मुवटिकां दद्यादाकवारिणा॥ तक्रमें मिश्री और (१ माशा) यवक्षार तथा सर्वथासुखमामोति भोजयेद्दधिभक्तकम् । | २ रत्ती पारद-भस्म मिलाकर सेवन करनेसे समस्त सूचिकाभरणो नामरसः परमदुर्लभः ॥ प्रकार के मूत्रकृ शोध ही नष्ट हो जाते हैं। दृद्वात्री (हियावली) और शुद्र हिंगुल (८२५६) सूतभस्मयोगः (३) समान भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर सर्पविषसे (र. चं. । विसा. ) खरल करें और मूंगके बराबर गोलियां बना लें। । गुडूचीनिम्बजक्वाथैः खदिरेन्द्रयवाम्बुना । कर्पूरत्रिसुगन्धिभ्यां युक्तं सूतं द्विवल्लकम् ।। जब रोगी मूच्छित हो तो उसको नाभि, विस्फोटं त्वरितं हन्याद्वायुर्जलधरानिः ।। हृदय या तालु (खोपरी) पर कुशसे चर्ममें छेद | ६ रत्ती (व्य. मात्री १-२ रत्ती) पारद भस्मको करके उस स्थान पर इस रसकी १ गोली अदरकके कपूर, दालचीनी, इलायची और तेजपातके चूर्ण के रसमें घिसकर मल दें। साथ मिलाकर गिलोय, नीमकी छाल, खैरसार और इसका प्रभाव होते ही गेगी तुरन्त चेतमें आकर इन्द्रजौके काथके साथ सेवन करनेसे विस्फोटकका आंखें खोल देता है। उस समय १ गोली अदरकके शीघ्र ही नाश होता है । For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org प्रकरणं ] (८२५७) सूतभस्मयोग: ( ४ ) ( र. चं. । शीतपित्ता. ) मानीगुडसम्मिश्रं सूतभस्प द्विवलकम । पित्तं निहन्त्याशु कटुतैलविलेपनम् || अजवायन के चूर्ण और गुड़के साथ ६ रती पारद - भस्म मिलाकर सेवन करने से शीतपित्त ( पित्ती ) का शीघ्र नाश होता है । शीतपित्त में कड़वे तेलका लेप भी करना चाहिये । पञ्चमो भागः ( व्यवहारिक मात्रा - १ - २ रत्ती | (८२५८) सूतभस्मयोगः (५) ( र. च.; र. रा. सु. | वातरोगा. ) शङ्खपुष्पी वचा ब्राह्मी कुठमेलारसैः सह । सूतभस्म प्रयोगोऽयं रतिकाद्वयमानतः ॥ सर्वापस्मारनाशाय महादेवेन भाषितः ॥ शंखपुष्पी, बच, ब्राह्मी, कूठ और इलायची समान भाग ले कर काथ बनावें । इस का के साथ २ रत्ती पारद भस्म सेवन करने से समस्त प्रकारके अपस्मार नष्ट होते हैं । (८२५९) सूतभस्मयोग : ( ६ ) ( रसे. सा. सं. 1 अरोचका. ) समरुचिघ्नं स्यातिन्तिडीकगुडोपणम् । मृद्वीका जीरकं कृष्णा मातुलुङ्गाम्लवेतसम् ॥ तिन्तड़ीक (इमली), गुड़, काली मिर्चका चूर्ण, मुनक्का, जीरेका चूर्ण और पीपलका चूर्ण तथा अम्लवेतका चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको एकत्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७१ मिलाकर बारीक पीसें और फिर उसमें १ भाग पारद - भस्म ( या रससिन्दूर) मिलाकर अच्छी तरह. खरल करें । इसे बिजौरे नीबू के रस में मिलाकर सेवन करने से अरुचिका नाश होता है । ( मात्रा - १ माशा | ) (८२६०) सूतराजः (र. रा. सु. ; २. चं. । ग्रहण्य. ) रसगन्धाकाणां च भागानेकद्विकाष्टकान् । समय सर्वरोगेषु युञ्ज्याद्वल्लचतुष्टयम् ॥ ग्रहगुल्माशमेहधातुगतज्वरान् । निहत मृतराजोऽयं मण्डलस्य च सेवनात् ॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्र गंधक २ भाग और अभ्रक - भस्म ८ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें | मात्रा- - १॥ माशा ( व्यवहारिक मात्रा १ रत्ती । ) इसके सेवन से संग्रहणी, क्षय, गुल्म, अर्श, प्रमेह, और धातुगतज्वरका ४० दिनमें नाश हो जाता है। (८२६१) सूतशेखररसः (१) ( र. च.; बृ. नि. र. ; यो. र. । अम्लपित्ता. ) शुद्धं मृतं मृतं स्वर्ण टङ्कणं वत्सनागकम् । व्योषमुन्मत्तबीजं च गन्धकं ताम्र भस्मकम् || चातुर्जातं शङ्खभस्म बिल्वमज्जा कचोरकम् । सर्व समं क्षिपेत्खल्वे मधे भृङ्गरसैर्दिनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ भारत-भैषज्य-लाकरः [ सकारादि गुभायात्रां वटि कृत्वा द्विगुझे मधुसर्पिषा। (८२६२) सूतादिगुः का भक्षयेदम्लपित्तनो वान्तिशूलामयापहः ॥ (यो. र. ; र. चं. ; र. रा. सु.। चका. ; वृ. पश्चगुल्मान्पकासान् ग्रहण्यामयनाशनः। यो. त. । त. ८२, क्दिोषोत्यातिसारनः श्वासमन्दाग्निनाशनः ॥ उग्रहिकामुदावत देहयाप्यगदापहः। मतगन्धाभ्र मगधाम्लिका मरिचसैन्धवैः । मण्डलाबात्र सन्देहः सर्वरोगहरः परः॥ गुटिकाऽरोचकहरी जिहावदनादिकृत् ॥ राजयक्ष्महरः साक्षाद्रसोऽयं मूतशेखरः॥ ___शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, स्वर्ण-भस्म, सुहागेको खील, पीपलका चूर्ण, इमलोके फल, मिर्चका चूर्ण और शुद्ध बछनाग, अभ्रक-भस्म, सोंठ, मिर्च, पोपल, सेंधा नमकका चूर्ण समान भाग ले कर प्रथम पारे धतूरेके शुद्र बोज, शुद्ध गंधक, ताम्र-भ्रस्म, गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, शंख-भस्म, औषधोंका चूर्ण तथा पानी के साथ पत्थर पर पीसी बेलकी गिरी और कचूर समान भाग ले कर प्रथम | हुई इमली मिलाकर अच्छी तरह सरल करें और पारे-गंवककी कजली बनावें और फिर उसमें (३-३ रत्तोको ) गोलियां बना लें। अन्य औषधोंका बारीक चूर्ण मिलाकर, १ दिन इनके सेवनसे अरुचि नष्ट होती तथा जिल्हा भंगरेके रसमें खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां | और मुख शुद्ध होता है। बना लें। (सुबह शाम १-१ गोली मुंहमें रखकर रस ____इनमेंसे १-१ गोली शहद और घीके साथ चूसना चाहिये। ४० दिन तक खानेसे अम्लपित्त, वमन, शूल, ५ (८२६३) सूतादियोगः (१) प्रकारके गुल्म, ५ प्रकारको खांसी, संग्रहणी, (र. रा. सु. । मदात्यया.) त्रिदोषज अतिसार, स्वास, अग्निमांद्य, उप हिक्का पूरक हिकरुचकं सचव्यविश्वदीप्यकम् । ( हिचको), उदावर्त और राजयक्ष्माका अवस्य नाश हो जाता है। चूर्ण समूतं मयेन पीतं पानात्ययं जयेत् ॥ बिजौरे नीबूको मजा, हींग, काला नमक, सूतशेखररसः (२) प्र. सं. ६०३३ "रक्तसूतशेखररसः"देखिये। र चन्य, सोंठ, और अजवायन इनका चूर्ण तथा सूतशेखररसः (३) रससिन्दूर १-१ भाग ले कर सबको एकत्र मिला (सूर्यशेखररसः) कर खरल करें। (वृ. नि.र. । कफपित्तवरा. ; र. चि. । स्त. ११) इसे मयके साथ सेवन करनेसे पानात्ययका प्र. सं. ७६३८ “शीतारि रसः (१)" नाश होता है। देखिये। (माग-१ माशा ।) For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः (८२६४) सूतादिवटी फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर बकरीके ( र. चं. ; वृ. नि. र. । उपदंशा.) दूधमें खरल करके २-२ रत्तीको गोलियां बना लें। शुद्धम्तं च भल्लातं पिप्पलीमूलपिप्पली। इनके सेवनसे सूतिका रोग, ज्वरातिसार, आकल्लकं जातिपत्री सुरकं देवपुष्पकम् ॥ _कास श्वास और अतिसारका नाश होता है। मर्दयेत्समभागेन पुराणगुडमिश्रितम् । (८२६६) मूतिकान्तकरसः उपदंशेषु सर्वेषु प्रमाणं रक्तिका वटी ॥ (रसे. सा. सं. । सूतिका. ; र. रा. सु.। __शुद्ध पारद, भिलावा, पीपलामूल, पीपल, ' सूतिका. ; भै. र.। खोरोगा.) अकरकरा. जावत्री, वंग-भस्म ( या तालमखाना ) रसाभ्रगन्धकव्योषं सुवर्णमाक्षिकं विषम् । और लौंग-इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको सर्वमेकीकृतं चूर्ण खादेद्रक्तिचतुष्टयम् ॥ एकत्र खरल करके पुराने गुड़में मिलाकर १-२ मृतिकाग्रहणीरोग वहिणन्यश्च नाशयेत् । रत्तीकी गोलियां बना लें। अतिसारश्च शमयेदपि वैधविवर्जितम् ॥ इनके सेवनसे समस्त प्रकारके उपदंश नष्ट कासश्वासातिसारनो वाजीकरण उत्तमः ।। होते हैं। शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, शुद्ध गंधक, सोंठ, मिर्च, पीपल, स्वर्ण-माक्षिक -भस्म और शुद् बछ(८२६५) मृतिकानो रसा नाग समान भाग ले कर प्रथम पारे गंवककी ( भै. र. ; र. रा. सु. ; र. चं. ; रसे. सा. सं.। कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष सूतिका. ; रसे. चि. म. । अ. ९) धियोंका चूर्ण मिला कर अच्छी तरह सरल रसगन्धकलौहानं जातीकोषं सुवर्चलम् । करें । समांशं मर्दयेत्खल्ले छागीदुग्न पेषयेत् ।।। मात्रा-४ रत्ती । गुमाइयप्रमाणेन मृतिकातकनाशनः । इनके सेवनसे सूतिका रोग, संग्रहणी, अग्निज्वरातिसाररोगनः कासश्वासातिसारनत | मांध, भयंकर अतिसार, कास और स्वासका नाश सूतिकानो रसो नाम ब्रह्मणा परिकीर्तितः ॥ होता है। । होता है। यह रस उत्तम वाजीकरण भी है। (८२६७) मृतिकाभरणरसः ___ शुद्ध पारद, गन्धक, लोह-भस्म, अभ्रक (र. चं. ; यो. र. । वाता. ; भै. र. । स्त्री.) भस्म, जावत्रीका चूर्ण और काले नमकका चूर्ण सुवर्ण रजतं तानं प्रवालं पारदं समम् । ( पाठान्तरके अनुसार स्वर्ण-भस्म ) समान भाग गन्धकं चाभ्रकं तालं शिला त्रिकटु रोहिणी॥ ले कर प्रथम पारे गंधकको कजली बनावें और एतानि समभागानि रविक्षीरेण मर्दयेत् । १ “ सुवर्णकमिति ” पाठान्तरम् । चित्रमूलकपायेण पुनर्नवरसेन च ।। For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि दिनं गनपुटे पाच्यं मूषायां धारयेत्पृथक। चूर्णितं मर्दयेयत्नाद् भेकपर्णी रसेन च ॥ अनुपानविशेषेण देयं गुभार्धकं तु तत् ॥ छायाशुष्का वटी कार्या द्विगुञ्जाफलमानतः । सूतिकारोगमतुलं धनुर्वात विशेषतः । क्षीरत्रिकटुना युक्ता मूतिकातङ्कनाशिनी ॥ त्रिदोपोत्थान्हरेव्याधीनिच्छापथ्यं प्रदापयेत् .. | अरं तृष्णारुचिं शोयं हन्त्यसाध्यं न संशयः ।। सूतिकाभरणं नाम सर्वरोगहरं च तत् ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक और अभ्रक भस्म स्वर्ण-भस्म, चांदी-भस्म, ताम्र-भस्म, प्र-१-१ भाग तथा ताम्र भस्म १|| भाग ( पाठान्तरवाल-भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक- के अनुसार १ भाग ) ले कर सबको एकत्र भस्म, शुद्ध हरताल, मनसिल, सेांठ, मिर्च, पीपल मिला कर मण्डूकपर्णीके रसमें १ दिन खरल और कुटकी समान भाग ले कर प्रथम पारे गंकको करके २-२ रत्तोकी गोलियां बना कर छायामें कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका | सुखा लें। चूर्ण मिला कर १-१ दिन आकके दूध, चीता इनके सेवनसे कष्ट साध्य सूतिका रोग, ज्वर, मूलके काय और पुनर्नवाके रसमें खरल करके तृष्णा, अरुचि और शोथका नाश होता है। सबका एक गोला बनावें और उसे सुखा कर मूषामें बन्द करके गजपुट में पकावें । अनुपान-सोंठ, मिर्च और पीपलका चूर्ण मात्रा-आधी रत्ती। मिला हुवा दूध। इसे यथोचित अनुपानके साय देनेसे प्रवृद्ध (८२६९) मूतिकारिरसः (२) सूतिका रोग, विशेषतः धनुर्वान और अन्य सन्नि (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । स्त्रीरोगा.) पातज रोगोंका नाश होता है। इस पर किसी विशेष परहेज़की आवश्यकता टङ्कणं मृच्छितं मूतं गन्धकं हेम तारकम् । नहीं है। जातीफलं तथा कोषं लवङ्ला च धातकी॥ (८२६८) मूतिकारिरसः (१) वत्सकेन्द्रयवः पाठा शृङ्गी विश्वाजमोदिका । प्रसारणीरसैः कार्या गुडी गुमाद्वयोन्मिता ॥ (मूतिकातङ्कनाशिनी वटी) भक्षयेत्तसः प्रातः मूतिकातङ्कशान्तये । (र. चं. । सूतिका. ; रसे. चि म. । अ. ९ जीर्णज्वरं हन्ति शोथं ग्रहणीप्लीहकासनुत् ।। भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. र. । ___ सुहागेकी खील, मूछित पारद (रस सिंदूर), - स्त्रीरोगा. ; धन्य । सूतिका.) शुद्ध गंधक, स्वर्ण-भस्म, चांदी-भस्म, जायफल, रसगन्धककृष्णाभ्रं तदर्धे मृतताम्रकम् ।। जावत्री, लौंग, इलायची, धायके फूल, कुड़ेकी x भै. र. में. निम्नलिखित पाठ है- छाल, इन्द्रजौ, पाठा, काकासिंगी, सेठ और " रसं गन्धं मृताभं च मृतताम्रश्च तुल्यकम् " | अजमोद समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः कर प्रसारणीके रसमें खरल करके २-२ रत्तीकी शुद्ध पारद, गंधक, स्वर्णमाक्षिक-भस्म, गोलियां बना कर छायामें सुखा लें। अभ्रक-भस्म, कपूर, स्वर्ण-भस्म, शुद्ध हरताल, इन्हें प्रसारणीके रसके साथ प्रातः काल चांदी-भस्म, शुद्ध अफीम, जावत्री और जायफल सेवन करनेसे सूतिका रोग, जीर्णज्वर, शोथ, | समान भाग ले कर प्रथम पारे-गंधककी कज्जली संग्रहणी, प्लीहा और कासका नाश होता है। बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर नागरमोथे, खरैटी और सेंभलकी छालके (८२७०) मूतिकारोगनाशनरसः रसमें खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां ( र. चं. । सूतिका. ; र. र. स. । उ. अ. २२) बना लें। स्वर्णतारघनभानुतीक्ष्णकं इसके सेवनसे सूतिका रोग, कष्ट साध्य ग्रहणी तेषु चैकमतिमात्रमारितम् । रोग, प्रबल अतिसार, दुर्बलता और अग्निमांद्यका मृतिकासकलरोगनाशनं नाश हो कर पुष्टि, कान्ति, मेधा और धृतिकी रोगहारि विहितानुपानतः ॥ वृद्धि होती है। स्वर्ण-भस्म, चांदी-भस्म, अभ्रक भस्म, (८२७२) मूतिकाविनोदरसः(१) (वृहद) ताम्र-भस्म और तीक्ष्ण लोह-भस्म समान भाग ले (भै. र. ; र. रा. सु. ; रसे. सा. सं. : र. कर सबको एकत्र मिला कर खरल करें। र.। खोरोगा.) इसके सेवनसे सूतिका रोग नष्ट होता है। शुण्ठयाभागो भवेदेको द्वौ भागौ मरिचस्य च । ( मात्रा-१ रत्तो ।) पिप्पल्याश्च त्रिभागाः स्युर भागश्च व्योमकम्।। जातीकोषस्य भागौ द्वौ द्वौ भागौ तुत्थकस्य च । (८२७१) मृतिकावल्लभो रसः (वृहद्) सिन्धुवारजलेनैव मर्दयेदेकयामतः ॥ ( भै. र. । स्त्रीरोगा.) मधुना सह भोक्तव्यः मूतिकातङ्कनाशनः ॥ सूतं गन्धं माक्षिकश्च व्योमेन्दु हेमतालकम् ।। सेठ १ भाग, काली मिर्च २ भाग, पीपल रजतं फणिफेनश्च जातीकोषफले तथा ॥ ३ भाग, अभ्रक भस्म आधा भाग, जावत्री २ मुस्तकस्य बलायाश्च शाल्मल्याः स्वरसेन च । भाग और शुद्ध तूतिया २ भाग ले कर सबको भावयित्वा वटीः कुर्याद् द्विगुआपरिमाणतः ।। एकत्र मिला कर १ पहर संभालू के रस में घोट कर मूतिकावल्लभो नाम प्रयुक्तोऽयं महान् रसः। | सुखा ले । निहन्यात् मूतिकारोगान् दुर्वारं ग्रहणीगदम् ॥ इसे शहदमें मिला कर सेवन करनेसे सूतिकाअतीसारं सुघोरञ्च दौर्बल्यं हिमन्दताम। | रोगका नाश होता है । जनयेदाशु पुष्टिश्च कान्ति मेधां धृति तथा ॥ (मात्रा-२ रत्तो।) For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - . भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि सूतिकाविनोदरसः (२) . जातीफलं केशराज वरा भृङ्गला मुस्तकम् । ( रसे. सा. सं. । सूतिका. : रसे. चि. म.। धातकीन्द्रयवं पाठा शृङ्गी बित्वं च वालकम् ।। अ. ९ ; र. रा. सु.) कर्षप्रमाणं सञ्चूर्ण्य सर्वमेकत्र कारयेत् । प्र. सं. १५५९ " गर्भ विलास रसः" रक्तिकैकप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिपक ॥ देखिये । गन्धालिकापत्ररसैरनुपानं प्रदापयेत् । सर्वातिसारशमनः सर्वशूलनिवारणः ॥ (८२७३) सूतिकाहरो रसः (१). | सूतिकाहरनामायं सूतिका नाशयेद्धृवम् ।। ( भै. र. । स्त्रीरोगा.) लौंग, शुद्ध पारा, गंधक, जवाखार, अभ्रकहिङ्गलं हरितालश्च शङ्खभस्मायसो रजः। भस्म, लोह-भस्म, ताम्र-भस्म और सीसा-भस्म ५-५ खर्परं धूर्तबीजश्च यवक्षारश्च टङ्गणम् ॥ तोले तथा जावत्री, भंगरा, हर्र, बहेड़ा, आमला,काला भंगरा, इलायची, नागरमोथा, धायके फूल, इन्द्रजौ, विभोतककपायेण भावयित्वा विधानतः ।। पाठा, काकड़ासिंगी, बेलगिरी और सुगन्धबालामर्दयित्वा विदध्याच गुञ्जकामिता वटीः॥ इनका चूर्ण १।-१।तोला लेकर प्रथम पारे गंवककी यथादोषानुपानेन प्रयुक्तोऽयं रसोत्तमः ।। कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका निहन्यात् मूतिकातकान् वह्निस्तृणगणानिव ।।। चूर्ण मिलाकर प्रसारणी ( या जायफल ) के काथमें शुद्र हिंगुल, हरताल, शंख--भस्म, लोह- खरल करके १-१ रत्तोकी गोलियां बना लें। भस्म, खपरिया, धतूरेके बीज, जवाखार और इसे प्रसारणी या जायफलके काथके साथ सुहागेकी खील समान भाग ले कर सबको एकत्र देनेसे समस्त प्रकारके अतिसार, समस्त शूल और मिला कर बहेड़ेके काथमें खरल करके १-१ सूतिकारोगका नाश होता है। रत्तीकी गोलियां बना लें। (८२७५) सूतेन्द्ररसः इसे यथोचित अनुपानके साथ देनेसे सूतिका (र. चं. । वाजीकरणा. ; र. र. स.। रोग इस प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार चाजीकरणा.) अग्निसे तृणसमूह । मुक्ताफलं प्रवालं च सुवर्ण रौप्यमेव च । (८२७४) मूतिकाहरो रसः (२) रसोगन्धश्च तत्सर्व तोलैकैकं प्रकल्पयेत् ।। ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. र. । सूतिका. ; | रक्तोत्पलैः पत्रासमंदयेत्पत्तलीकृते । भै. र. । स्त्री. ; रसे. चि. म. । अ. ९) मर्दयेत्तत्पुनर्दत्वा गन्धं माषचतुष्टयम् ।। लवङ्ग रसगन्धौ च यवक्षारं तथाभ्रकम् । । तन्मध्ये गन्धकं दत्वा पर्दयेत्तदनन्तरम् । लौह ताम्र सीसकश्च पलमानं समाहरेत् ॥ क्षिप्त्वा काचघटीमध्ये सन्निरुध्य मुखं ततः ।। For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः वालुकायन्त्रमध्यस्थां कृत्वा काचघटीं ततः। पथ्य-शालि चावलका भात, मूंगकी दाल, पाकस्तत्र तथा कार्यों भवेद्यामत्रयं यथा ॥ गेहूं, गोदुग्ध, गोघृत और अन्य स्निग्ध पदार्थ । काचपात्रे समाकर्षे सिद्धं सूतं ततः परम् । (८२७६) मूर्यकान्तरसः भक्षयेद्रक्तिकाः पञ्च रोगैराकान्तमानवः ।। ( र. र. । कुष्ठा.) पथ्यादि पूर्वरोगोक्तं यत्नतः कारयेद्भिषक् । ताप्यं गन्धं शुद्धं मृत शिलाजत्वम्लवेतसम् । दुर्बलं वपुरत्यर्थ बलयुक्तं करोत्यसौ ॥ मृतनाम्राभ्रकं तुल्यं मध्वाज्यगुडमिश्रितम् ॥ शुक्रवृद्धि कगेत्येष आजभङ्गं च नाशयेत् । । माकं जिह्मगं हन्ति सूर्यकान्ता महारसः । मासेनैकेन मूतेन्द्रो रोगनाशाय कल्पते ॥ मुण्डीपश्चाङ्गचूर्णश्च वाकुचीतुल्यचूर्णकम् ।। शालयो मुद्गयुक्ताश्च गोधूमा भोजने हिताः। मध्वाज्यसंयुतं कर्ष लेहयेदनुपानकम् ॥ घृतं गव्यं तथा क्षीरं स्निग्धं पथ्यं प्रयोजयेत् ॥ स्वर्णमाक्षिक-भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्र मोती-भस्म, प्रवाल, सुवर्ण-भस्म, चांदी पारद, शिलाजीत, अम्लवेतका चूर्ण, ताम्र-भस्म भस्म, शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक १-१ तोला और अभ्रक भस्म समान भाग ले कर प्रथम पारे-- ले कर प्रथम पारे-गन्धककी कज्जली बनाईं और गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर लाल कम औषधे मिलाकर खरल करें। लके पत्तों (पंखड़ियों) के रसमें खरल करके सुखा इसे गुड़में मिलाकर धी और शहदके साथ लें और फिर उसमें पुनः ४ माशे गन्धक मिलाकर । सेवन करनेसे जिह्मग ( ऋष्यजिह्वक ) कुष्ठ नष्ट अच्छी तरह खरल करें । तदनन्तर उसे कपड़मिट्टी होता है। की हुई आतशी शीशीमें भर कर उसका मुख मात्रा-११ माशा। बन्द करके ३ पहर बालुका-यन्त्रमें पकावें। (व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती ।) तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको अनुपान-औषध खानेके पश्चात् मुण्डीके निकाल कर कांचकी शीशी में भर कर सुर | पंचांग और बाबचीके समान भाग मिश्रित चूर्णको क्षित रक्खें। शहद और धीमें मिला कर चाटना चाहिये। मात्रा-१। तोला । ( व्य. मा.-३ मात्रा-५ रत्ती। (व्यवहारिक मात्रा | माशा ।) १ रत्ती।) इसके सेवनसे दुर्बल रोगी अत्यन्त बलवान (८२७७) मूर्यचन्द्रप्रभागुटिका हो जाता है । यह रस ध्वजभंगको नष्ट और (ग. नि. । गुटिका. ४) वीर्यवृद्धि करता है । इसे १ मास तक सेवन करना त्रिकत्रयं हरिद्रे द्वे तिक्ता तिक्तं शठी वचा। चाहिये। वेल्लचित्रकतालीसभार्गीपद्मकजीरकम् ।। ४८ For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि द्वौ क्षारौ पिप्पलीमूलं पनि त्रीणि सुम्बर।। सांठ, मिर्च, पोपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु वचा चव्यं धान्यकं गजपिप्पली।। दालचीनी, तेजपात, इलायची, हल्दी, दारुहल्दी, वत्सकातिविषादन्तीभ्यामापुष्करकामृताः ॥ कुटकी, चिरायता, कचूर, बच, बायबिडंग, चीताभागोऽमीषां सूक्ष्मचूर्णीकृतानां मूल, तालीस पर, भरंगी, पद्माक, जीरा, जवाखार, भागवार्धस्तापितीरोद्भवस्य । सज्जीखार, पीपलामूल, सेंधा नमक, सञ्चल ( काला तद्वद्वांश्ण, भागवृध्या परे स्यु नमक ), सामुद्र लवण, तुम्बरु, देवदारु, बच, रभ्र लोहं शैलजं कौशिकश्च ॥ | चव्य, धनिया, गजपीपल, कुड़ेकी छाल, अतीस, सम्मी गुटिका कार्या सूर्यचन्द्रप्रभाभिधा। दन्तीमूल, काली निसोत, पोखरमूल और गिलोयपूर्वा तां प्रयुञ्जीत मालिकेण परिप्लुताम् ॥ | इनका चूर्ण २-२ तोले; स्वर्णमाक्षिक-भस्म अनुपाने प्रयुञ्जीत तक्रं मधु रसोत्तमम् ।। और बंसलोचनका चूर्ण १-१ तोला; अभ्रक क्षीरं बदरतोयं वा शर्करामिश्रितं जलम् ॥ भस्म २ तोले, लोह - भस्म ४ तोले, शिलाजीत घृतं मूत्रं तथा चाम्लस्वादुदाडिमजं रसम् । नारलवादारियज ग्मम । ६ तोले और शुद्ध गूगल ८ तोले ले कर सबको कास श्वासं तथा शोषमरुचिं पार्थवेदनाम् ।। एकत्र मिला कर कूट कर (२-२ माशे ) की अशीसि कामलां मेहं पाण्डुरोगं हलीमकम। | गोलियां बना लें। हृद्रोगं मूत्रकृच्छं च श्वयधुं ग्रहणीगदम् ॥ (गूगलमें थोड़ा धी मिला कर उसे पतला यकृत्प्लीहाभिवृद्धि च कृमि ग्रन्थि भगन्दरम् । । करके उसमें समस्त चूर्ण मिला कर कूटना श्लीपदं गण्डमालां च व्रणानाडीव्रणानपि ॥ चाहिये ।) अतिस्थौल्यातिकाश्य च विद्रधीपिटिकामपि । इनमेंसे १-१ गोली प्रातःकाल शहदमें मिला नासानेत्राश्रितान्रोगान् शिरोरोगान् कर खानी चाहिये। सुदारुणान् ।। मुखरोगानशेषांश्च रक्तपित्तं स्वरक्षयम् । अनुपान-तक्र, शहद, दूध, बेरका रस, ज्वरं च सन्निपातोत्थं वेषमं चापि पैत्तिकम ॥ खांडका पानी (शरबत), घी, गोमूत्र और खट्टे विंशति श्लेष्मिकांश्चैव संसृष्टान् सान्निपानिकान। | मीठे अनारका रस-इनमेंसे कोई एक पदार्थ । निजानृतुभवांश्चैव ये चान्ये नात्र कीर्तिताः। इसके सेवनसे श्वास, कास, शोष, अरुचि, तान् तान् प्रशमयत्येषा वृक्षमिन्द्राशनि था ॥ पार्श्वपीड़ा, अर्श, कामला, प्रमेह, पाण्डु, हलीमक, मेघ स्मृति कान्तिमनामयत्व हृटोग, मूत्रकृल, शोथ, संग्रहणी, यकृत् , प्लीहा, ___ मायुःप्रकर्ष पवनानुलोम्यम् । कृमिरोग, प्रन्थि, भगन्दर, श्लीपद, गण्डमाला, स्त्रीषु महर्षे बलमिन्द्रियाणा ब्रण, नाडीव्रण, अति स्थूलता, अति कृशता, विद्रधि, मग्नेश्च कुर्याद्विधिनोपयुक्ता ।। | पिडका, नासारोग, नेत्ररोग, शिरोरोग, समस्त For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् पञ्चमो भागः - मुख रोग, रक्तपित्त, स्वरक्षय, सन्निपात घर, सम्पिष्याशु शुभं सार्ण निहितं विषम ज्वर, पैत्तिक ज्वर, द्वन्द्वज ज्वरे, २० रक्तित्रयं योजयेत् । प्रकारके कफ रोग, एवं दोषज और ऋतुके तत्कालोचित वक्त्र शुद्धिरुचिता प्रभावसे उत्पन्न होने वाले अन्य रोग शीघ्रही नष्ट चूर्ण विना प्रत्यहम् ।। हो जाते हैं। हन्त्येतद्मनाम्लपित्तज___ यह रस मेधा, स्मृति, कान्ति, आरोग्य, गदान्याण्ड्वाग्निमान्यज्वरान् । आयु, कामशक्ति, इन्द्रियबल और अग्निकी वृद्धि | रक्तीवर्धित माष एव नियतो तथा वायुको अनुलोम करता है। लोहोक्त सेवाविधिः ।। सूर्यचन्द्रात्मकरसः शुद्ध गंधक ५ तोले और शुद्ध पारद २॥ तोले ले कर दोनोंकी कञ्जली बनावें और फिर (र. चं. ; र. रा. सु. । पाण्डु.) उसमें १। तोला संचल ( काले नमक ) का चूर्ण प्र. सं. १८९८ " चन्द्रसूर्यात्मको रसः" | निला कर सूर्यावर्त (हुलहुल) और कर्णमोरटके देखिये। रसमें खरल करें एवं ५ तोले शुद्ध नेपाली ताम्रके कण्टकवेधी पत्रोंपर उसका लेप कर दें और उन्हें (८२७८) सूर्यपाकतानम् पत्थरके खरलमें डाल कर उसमें जम्बीरी नीबूका (र. का. धे.। अम्लपित्ता. ; रसे. रस डाल कर धूपमें रख दें । जब ताम्रपत्र चि. म. । अ. ९) भस्मीभूत हो जाएं तो उन्हें खरल करके धूपमें रिपूर्ण्य गन्धाश्म पलं विशुद्ध सुखा लें। रसद्विकर्षण समं च खल्वे । मात्रा-३ रत्ती । (व्यवहारिक मात्रारसाईसौवर्चलचूर्णयुक्तं १ रत्ती।) ____तत्खल्वितं सल्वशिलामु यनात् ॥ सूर्यावर्तककर्णमोस्ट इसे बिना चूनेके पानमें रख कर खानेसे रसैराप्लान्य तकज्जलीं। वमन, अम्लपित, पाण्डु, अग्निमांध और ज्वरका नेपालोद्भवताम्रक पलमितं | नाश होता है। तत्कण्टवेधायितम्॥ इसकी मात्रा थोड़ी थोड़ी बढ़ाते हुवे १ माषा तेनालिप्य च कज्जलेन कर देनी चाहिये और इस पर पथ्यादिकी व्यवस्था मुचिरं जम्बीरनीरस्थितं । लोह सेवनके समान करनी चाहिये । खल्लाश्मार्पितमेतदातप (१ माषा मात्रा अधिक है, योग्य चिकिधृतं पिण्डीकृतं घट्टनैः ।। | त्सकको सम्मतिसे सेवन करना चाहिये :) For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि मूर्यप्रभरसः और चमेली आदि आठ प्रकारके पुष्प ( चमेली, प्र. सं. ५५८४ "महासूर्यप्रभरसः"देखिये। जूहा, मालती, चम्पा, संवती, मौलसिरी, मोगरा और कदम्ब ) समान भाग ले कर प्रथम पारे (८२७९) मूर्यप्रभागुटिका (१) गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य (र. र. स. । उ. अ. १९) औषधेांका चूर्ण मिला कर अण्डीके तेल में खरल भाीवहिजयायुगाभ्र करके (१-१ माशेकी) गोलियां बना लें । कदलीपाठावचारोचना इनके सेवनसे अग्नि दीत होती है। श्चव्यं पत्रकचित्रकं त्रि___ कटुकं क्षारद्वयं गन्धकम् । (८२८०) मर्यप्रभागुटिका (२) त्रायन्ती हरबीज केसरि ( यो. र. । क्षय. ; वृ. यो. त. । त. ७६. ) विषद्वन्द्वं लवङ्गं कणा दाव: व्योपविडङ्गचित्रकवचापीताकरामृताकुष्ठं शल्यफलं फल त्रय देवाहातिविषा त्रिवृत्सकटुका कुस्तुम्बरु:कारवी। युतं फेनः समुद्रादपि ॥ द्वौ क्षारौ लवणत्रयं गजकणा चव्यं तथा पुष्कर ब्रह्मबीज लताबीज तालीसं कणमूलपुष्करजटाभूनिम्बसंज्ञैर्युतम् ॥ बालविल्वं विरूढकम् । भार्गी पद्मकजीरकोशकुटनो दन्ती वचा भद्रकं लवणानि तथा पश्च सर्व कर्षसमांशकं मुभिपना सूक्ष्मं च संचूर्णितम् । जात्यादि कुसुमाष्टकम् ॥ तद्वत्पञ्चपलं वरं गिरिजतु स्यात्पञ्चमुष्टिः पुरोवातारितैले नैतेषां लॊहस्य दिपलं पलट्यमयोताप्यस्य संमिश्रितम्।। कल्पिता भिषजां वरैः। क्षिप्त्वा पञ्च पलानि शुभ्रसिकता वांशीपलं एषा सूर्यप्रभा नाम योजितमे कैकं त्रिमुगन्धिवस्तु पलिकं गुटिकाऽग्निप्रदीपनी ॥ क्षौघृतलेहवत् । भरंगी, चीतामूल, जैत, हर, अभ्रक- एकीकृत्य समांशमेव गुटिका कार्या सुवर्णोंभस्म, कदलीकन्द, पाठा, बच, गोरोचन, चव्य, मिता सा च ब्रह्ममुखाम्बुजमकटिता तेजपात, चीतामूल सांठ, काली मिर्च, पीपल, सूर्यप्रभा नामतः॥ जवाखार, सज्जीखार, शुद गंधक, त्रायमाणा, शुद् ! शोषं कासमुरःक्षतं सतमकं पाड्डामर्थ कामलाम् पारद, महा बला, दो प्रकारका बछाग, लौंग, गुल्मं विद्रधियार्थशूलमुदरं खीपु क्षयं च क्रिमीन् । पीपल, कूर, मैनफल, हरी, बहेडा, आमला. कुठा विषमज्वरग्रहणिकामूत्रग्रहं नाशयेत् समुद्रफेन, पलाश ढाक) के बीज, मालकगनीके भुक्त्वैकां गुटिका प्रहटमनसा योज्यं धीज, कञ्ची बेलगिरी, अंकुरित धान्य, पांचो नमक, यथेष्टाशनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ३८१ नास्त्येतत्सममौषधं त्रिजगतीचक्रे हितं प्राणिना- इसके ऊपर यथेष्ट आहारादि किया जा सकता मुद्दामप्रमदामदद्विपदरासिंही तु मूर्यप्रभा॥ है। किसी विशेष प्रकारके परहेजकी आवश्यकता दारुहल्दी, सांठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, नहीं है । चीतामूल, बच, हल्दी, करञ्जबीज, गिलोय, देव- (८२८१) सूर्यप्रभागुटिका (३) दारु, अतीस, निसोत, कुटकी, कुस्तुम्बरु, काला (वृ. नि. र. ; र. रा. सु. । वातव्या. ; व. जीरा, जवाखार, सजीवार, सेंधानमक, काला नमक, से. । वातरक्ता.) सामुद्र लवण, गजपीपल, चव, पोखरमूल, तालोस पत्र, पीपलामूल, पोखरमूल, चिरायता, भरगी, चित्रकं त्रिफला निम्बं पटोलं मधुयष्टिका । पद्माक, सफेद जीरा, जावत्री, कुड़ेकी छाल, दन्तीमूल, वराज केशरश्चैव यवानी' चाम्लयेतसम् ।। बच और नागरमोथा; इनका चूर्ण १।। तोला भूनिम्बकश्च दायेला मुस्तापपटकन्तथा । तथा शुद्ध शिलाजीत २५ तोले, शुद्र गूगल २५ तुत्यकं कटुका भाजी चव्यपाकदीप्यकाः ॥ तोले, लोह-भस्म १० तोले, स्वर्ण माक्षिक-भस्म पिप्पली मरिचं दन्ती शटो शुण्ठी च पुष्करम् । १० तोले, सफेद खांड २५ तोले, बंसलोचनका विडङ्गं पिप्पलीमूलं जीरकं देवदारु च ॥ पूर्ण ५ तोले, तथा दालचीनी, इलायची और तेज पत्रकं कुटज रास्ना दुरालम्मामृतां त्रिवत् । पातका चूर्ण ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र लतारुष्कर तालीसं वृक्षाम्लं लवणत्रयम् ॥ मिला कर घी और शहदकी सहायतासे १५-१। धान्यकश्चाजमोदा च कारवी धातुमाक्षिकम् । तोलेकी गोलियां बना लें। जातीफलं तुगाक्षीरो वाजिगन्धा च दाडिमम ॥ - ककोलकमुशीरश्च द्विक्षारं रेणुका तथा। ( प्रथम गूगल और शिलाजीतको थोड़े घीमें प्रत्येकं पलमात्राणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ मिला कर कूट कर पतला करें और फिर उसमें गिरिजस्य पलान्यष्टौ द्वे पले चैव गुग्गुलोः । अन्य औषधे मिला कर आवस्यकतानुसार शहद . प्रस्थमेकं सितायाश्च घृतस्य कुडवन्तथा ॥ डाल कर गोलियां बना लें। गिरिजस्य समं लोहं प्रस्थाई माक्षिकस्य च । ( व्यवहारिक मात्रा--१॥ माशा ।) सर्वमेकत्र सम्मिश्य स्निग्यभाण्डे निधापयेत् ॥ इसके सेवनसे शोष, कास, उरःक्षत, तमक- ऊरुस्तम्भ वातरोगं हन्त्यदितश्च गृध्रसीम् । श्वास, पाण्डु, कामला, गुल्म, विदधि, पार्श्वशूल, पत्र विद्रधीं श्लीपदं गुल्मं पाण्डुरोग हलीमकम् ।। उदर रोग, स्त्री समागमसे उत्पन्न क्षीणता, कृमि- कास पश्चविधं घोरं मूत्रकृच्छ गलग्रहम् । रोग, कुष्ट, अर्श, विषम ज्वर, ग्रहणी रोग और आनाइमरमरी वर्भ ग्रहणीमपवाहुकम् ।। आनाइमा मूत्राघातका नाश होता है । यह गुटिका अत्यन्त पाठान्तर-१ जीवन्ती । २ पत्मकं । वाजीकरण है। .. ३ कटुकं । ४ तुरुष्क । ५ मरिच । For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org रत-भैषज्य रत्नाकरः ३८२ अरोचकं पार्श्वशूलमुदरं सभगन्दरम् । हृद्रोगं शूलमुत्कम्पविषमज्वरनाशनम् ॥ उरःक्षतभने दोषे मुखरोगे च दारुणे । महौषधरादस्माद्ग्राह्यं पाणितलोन्मितम् || विविधानानि भुञ्जीत यथेष्टञ्च यथासुखम् । गुटिका भाकरी नाम्ना सृष्टा देवेन शम्भुना ॥ प्रमेहं रक्तपित्तच वातरक्तं सामलम् । सन्दीपनं हृद्यं दीर्घायुः पुष्टिदा भवेत् ॥ ये वातप्रभवा रोगा ये च पित्तसमुद्भवाः । कफरोगाश्च ये केचिद्वन्द्वजाः सान्निपातिकाः । ते सर्वे शमं यान्ति भास्करेण तमो यथा । रोगविद्राविणी कार्या गुटिका सूर्यवत्प्रभा || चीतामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, पटोल, मुलैठी, दालचीनी, नागकेसर, अजवायन, अम्लवेत, चिरायता, दारूहल्दी, इलायची, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, शुद्ध नीलाथोथा, कुटकी, भरंगी, कव्य, पद्मा, अजवायन, पीपल, काली मिर्च, दन्तीमूल, कचूर, सोंठ, पोखरमूल, बायबिडंग, पीपलामूल, जीरा, देवदारु, तेजपात, कुड़ेकी छाल, रास्ना, धमासा, गिलोय, निसोत, लता कस्तूरी, शुद्ध भिलावा, तालीसपत्र, तिन्तड़ीक, सेंधानमक, संचल ( काला नमक ), सामुद्र लवण, धनिया, अजमोद, काला जीरा, स्वर्ण माक्षिक भस्म, जायफल, बँसलोचन, असगन्ध, अनारदाना, कंकोल, खस, जवाखार, सज्जीखार और रेणुका - इनका घूर्ण ५-५ तोले, शुद्ध शिलाजीत ४० तोले, शुद्ध गूगल १० तोले, मिश्री ८० तोले, घी ४० तोले, लोह - भस्म ४० तोले और शहद ४० तोले ले कर प्रथम घी में शिलाजीत और गूगलको मिला कर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि घोटें और फिर उसमें समस्त औषधोका चूर्ण तथा मधु मिला कर स्निग्ध पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खे | इसके सेवन से ऊरुस्तम्भ, अर्दित, गृध्रसी, विद्रधि, स्लीपद, गुल्म, पाण्डु, हलीमक, ५ प्रकार की भयंकर खांसी, सूत्र - कृष्छू, गलग्रह, आनाह, अश्मरी, वर्ध्य, ग्रहणी रोग, अपबाहुक, अरुचि, पार्श्वशूल, उदर रोग, भगन्दर, हृद्रोग, शूल, कम्प, विषमज्वर, उरःक्षत और दारुण मुख रोग नष्ट होते हैं । यह गुटिका प्रमेह, रक्तपित्त, वातरक्त, कामला और वातज, पित्तज, कफज, द्वन्द्वज तथा सान्निपातिक अन्य अनेक रोगों में भी गुणकारी है । यह अग्निदीपक, हृद्य, पौष्टिक और आयुवर्द्धक है । इस पर किसी विशेष परहेजकी आवश्यकता नहीं है । मात्रा - १| तोला । मात्रा - २ माशे । ) ( व्यवहारिक (८२८२) सूर्यप्रभावटी ( र. सं. क. | उल्ला. ५ ; यो. र. । शूला. ; यो. तृ. । त. ४३ ; बृ. यो. त. । त. ९४ ) व्योषग्रन्थिवचानि हिङ्गुजरणद्वन्द्वं विषं निम्बुकद्वा वैरार्द्रकजै रसेर्विदितं तुल्यं मरीचोपमा । कर्तव्या वटिकाऽथ सा दिनमुखे कत्रोष्णाम्बुना शूलं त्वष्टविधं निहन्ति सहसा सूर्यप्रभा नामतः ।। For Private And Personal Use Only सोंठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, बच, चीतामूल, हींग, जीरा, काला जीरा और शुद्ध बछनाग Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः ३८३ इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र | शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, मिला कर नीबू और अदरकके रसकी एक एक | स्वर्ण माक्षिक-भस्म ३ भाग, शुद्ध हरताल ५ भावना दे करे काली मिर्च के समान गोलियां | भाग, अभ्रक भस्म ४ भाग तथा बच, कूठ, बना लें। हल्दी, चीतामूल, सुहागेकी खील, सेंधा नमक, इन्हें प्रातःकाल मन्दोष्ण जलके साथ सेवन शुद्ध बछनाग, पाठा; कलियारीकी जड़, सेठ, करनेसे आठ प्रकारके शूल नष्ट होते हैं । मिर्च, पीपल और बहेड़ा-इनका चूर्ण १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और (८२८३) सूर्यरसः (१) फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर (र. र. स. । उ. अ. १३) १ दिन भंगरेके रसमें घोट कर १-१ माशेकी रसगन्धक ताम्रानं कणाशुण्ठयूषणं समम्। गोलियां बना लें। भूतमेकं विषं चैकं मूर्यः कासादिनाशनः ॥ ___ इनके सेवनसे हिक्का (हिचकी), श्वास और शुद्ध पारद, गंधक, ताम्र-भस्म, अभ्रक कासका नाश होता है। भस्म, पीपल, सोंठ, काली मिर्च, नागरमोथा और | ( व्यवहारिक मात्रा–२ रत्ती । ) शुद्ध बछनाग-इनका चूर्ण १-१ भाग ले कर प्रथम पारे-गन्धककी कजली बनावें और फिर (८२८५) सूर्यरसः (३) उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर खरल करें। (र. चं. । ज्वरा. ; र. प्र सु. । अ. ८ ) यह रस कासादिको नष्ट करता है। एक भागं वत्सनाभं च कुर्याद्( मात्रा--१ रत्ती।) - द्वौ भागौ चेट्टङ्कणं दन्तिबीजम् ॥ (८२८४) मूर्यरसः (२) त्रियवेते हिङ्गलस्याऽपि तुर्यः ( र. का. धे. । हिक्का. ; र. रा. सु. ; वृ. नि. सद्यो जूति नाशयत्येष सूर्यः ॥ र । कासा.) शुद्ध बछनाग १ भाग, सुहागेकी खोल २ रसमेकं द्विधा गन्धं त्रिताप्यं पश्च तालकम् । | भाग, शुद्ध जमालगोटा ३ भाग और शुद्ध हिंगुल सर्व शुद्ध विचूाथ चतुर्भागं मृताभ्रकम् ॥ १॥ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर वचा कुष्ठं हरिद्राग्निटङ्कणं सैन्धवं विषम् ।। | खरल करें। सपाठं लाङ्गली व्योषमक्षं प्रत्येकभागकम् ॥ इसके सेवनसे ज्वर शीघही नष्ट हो जाता है। भावितं भृङ्गसारेण दिनैकं तं च भक्षयेत् । माष सूर्यरसो नाम हिमा वैश्वासकासजित् ।। (मात्रा--१-२ रत्ती।) For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि (८२८६) सूर्यशेखररसः (१) पथ्यमें मधुर रस युक्त हितकारी पदार्थ देने (र. चि. म. । स्त. ४ ; र. का. धे. । सन्नि- । चाहिये । पाता. ; र. च. । वातरो.) सूर्यशेखररसः (२) रसो द्वादशगधाणो गन्धकश्चात्र षोडश । (भा. प्र. म. खं. २ । ज्वरा. ) शुद्धहिङ्गल चत्वारो वृष्ट्वा काचघटे क्षिपेत् ।। प्र. सं. ७६३८ "शीतारि रसः (१)" | देखिये । द्वात्रिंशदमृतं दद्यात्तस्मिन्सते विशोधिते ।। मृदा प्रलिप्य तं कूपं शोपयित्वा खरातपे । (८२८७) सूर्यसिद्धरसः धृत्वाऽथ वालुकायन्त्रे वह्नि षट् प्रहरावधिम् । ( रस. चि. म. । स्त. २) दत्वोत्तार्य स्वयं शीतं सतं माणिक्यसत्रिभम् ।। गुडूची भृङ्गराजश्व कुमारी कण्टकारिका । सन्निपाते च दातव्यस्त्रिदोषोत्थे च सूतकः ।। त्रिफला काकमाची च कदली वाजिगन्धिका ॥ एकैव गुञ्जिका मात्रा चोत्तमा सन्निपातके । वर्गस्यास्य रसैश्वापि मुसल्याश्च पुनर्नवैः। रोगोद्रेक समीक्ष्याऽथ वर्धयेद्वा विचक्षणः।। प्रत्येकं मर्दयेदेतः पारदं प्रतिवासरम् ॥ यदि दाहो भवेदेनं स्नापयेद्वोचितं चरेत् ।। तोलेन शेरमात्रेण गाढं गाढं निरन्तरम्। भोजनं वोचितं कुर्यान्मधुरपायमेव च ॥ अनन्तरं सैन्धवेम शेरद्वयमितेन च ॥ एकैकं गैरिकं शेरं खटिक पिष्टरूपिणम् । शुद्ध पारद १२ गद्याण (७॥ तोले), गन्धक १६ गद्याण (१० तोले), शुद्ध हिंगुल ४ गद्याण कन्यकारससंयुक्तं सरसं मर्दयेच तत् ॥ (२॥ तोले) और शुद्ध बछनागका चूर्ण ३२ गद्याण दिनत्रयमतिश्लक्ष्णं नष्टपिठं च खल्बके । (२० तोले) ले कर सबको एकत्र मिलाकर खरल तापिकायन्त्रमारोप्य मुद्रयेच्च मुखें ततः ॥ करें और उसे कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें त्रयोदशदिनं यावदि कुर्यान्निरन्तरम् । भर कर ६ पहर बालुकायन्त्र में पकावें । तदनन्तर यन्त्रादादाय मृतेन्द्रं कर्तव्यं तस्य पूजनम् ।। उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकालकर गुरूणां महतां पश्चाद्योगिनां क्रोधवर्जितः। सुरक्षित रक्खें । यह देखने में माणिक्यके समान मदमात्सर्यमुत्सृज्य मानं चाहङ्कति तथा ॥ ब्रह्मचर्य च कर्तव्यमम्लं द्रव्यं विवर्जयेत् । होगी। दानं शक्रया प्रकर्तव्यं वैद्यतोषणमेव च ॥ इसके सेवनसे सन्निपात, ज्वर नष्ट होता है। ३। अर्धगुआं रसं दद्यात्सतत क्रमवर्धितम् । मात्रा-१ रत्ती । यदि रोगका वेग प्रबल | रक्तिकां नवपर्यन्तं दद्य वैद्यो विचक्षणः ॥ हो तो मात्रा बढ़ा भी सकते हैं । भक्तदुग्धं च भुनीत मुद्गदुग्धं शृतं घृतम् । ___ यदि इससे दाह हो तो रोगीको स्नान कराना शर्करा धुखण्डानि पथ्यार्थ तत्र योजयेत् ॥ तथा अन्य उचित उपचार करने चाहियें। एकविंशदिनस्यान्ते नखानि निपतन्ति च । For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्सप्रकरणम् पश्चमो भागः चत्वारिंशदिनेऽतीते तत्केशाः प्रक्षरन्ति च। काव्योऽवश्यकर्त्तव्यो निश्चित्य मनसि धुवम् । एवं पण्ठिदिने क्रान्ते मला नाशं व्रजन्ति च ॥ मोहमुत्सृज्य तेन स्यादीप्सितं सफलं सदा ।। अशीतिदिवसस्यान्ते तस्य दन्ताः पतन्ति धै। सूर्यसिदो रसो ह्येष कुर्यान्नृन्देवसनिभान् ॥ एवं स्वयं पाश्यमानं रसायनं रसेश्वरम् ॥ १ सेर शुद्ध पारदको एक एक दिन गिलोय, मासत्रये समायान्ति नन्दाः केशा न संशयः। भंगरे, घृतकुमारी, कटेली, त्रिफला, मकोय, केला, दृढा दन्ताश्च जायन्ते नवीनाश्च पुनर्नवाः ॥ असगन्ध, मूसली और पुनर्नयाके रसमें खरल करें पुनर्नववपुर्भूत्वा द्वितीयो मीनकेतनः । और फिर उसमें १-१ सेर गेरु और खिड़िया मिट्टी तथा २ सेर सेंधा नमकका चूर्ण मिला कर सिद्धमण्डलसिद्धाको ब्रह्मायुः कालपारगः ॥ घी कुमारके रसमें इतना खरल करें कि पारद हढाङ्गो बलवान्सौम्यो हरिवेगो दृढेन्द्रियः । निरामयो महोत्साहो महाशी च मनोहरः ॥ अदृश्य हो जाए । कमसे कम ३ दिन तक खरल करना चाहिये । तत्पश्चात् उसे कपडमिट्टी की हुई वनितानां शतं गच्छेत्पुत्राणां शतमाप्नुयात् । आतशी शीशीमें भर कर उर का मुख बन्द कर दें कालभ्रमरसङ्काशाः केशाः स्युर्गुच्छरूपिणः ॥ और उसे १३ दिन (बालुकायन्त्रमें ) पकावें । विशालबाहुशोभी स्यादृढोरःस्थलशोभनः । इसके पश्चात् जब यन्त्र स्वांगशीतल हो जाय कपाटमतिमं प्रौदं हृदयं स्त्रीमनोहरम् ॥ तो रसको निकाल कर सुरक्षित रक्खें । अत्युन्नतवपुर्यष्टिविशालनयनाम्बुजः। इसे सेवन करनेसे पूर्व रस (पारद) और निर्गुण्डिकापत्ररसं त्रिकालं वानु पाययेत् ॥ गुरु जनोंका पूजन करना चाहिये। इसके सेवन औषधस्य क्षणं स्थित्वा काले ताम्बूलचर्वणम् । | कालमें क्रोध, मद, मात्सर्य, मान और अहङ्कारका कर्पूरकुसुमामोदे निर्मले विनिवेशयेत् ॥ त्याग कर देना चाहिये । अम्ल पदार्थोसे अनल्पे सुखदे तल्पे निर्मलास्तरणैयुते । परहेज करना चाहिये। ब्रह्मचर्य पालन करना गीतसङ्गीतशास्त्रीयं रामायणपरायणः ॥ आवश्यक है तथा यथा शक्ति दान देना और नाटक हाटकं चापि शृणोति च निरीक्षते ।। वैद्यको सन्तुष्ट रखना चाहिये। महासुगन्धसंयुक्तं हारं कुमुमसंयुतम् ॥ मात्रा--आधी रत्तीसे प्रारम्भ करके थोड़ी मनोऽभिरामा रामाश्च निर्विकाराः सदोत्सुकाः। थोड़ी मात्रा बढ़ाते हुवे ९ रत्ती तक कर देनी ताभिः सह मुखं सेव्यः कामोऽनाकुलचेतमा ॥ चाहिये । अनल्पस्यास्य कल्पस्य सेवनं कुरुतेऽनिशम् । पथ्य-दूध भात, मूंग, पका हुवा दूध, घी. अपथ्यं न च कर्तव्यं पथ्ये स्थेयं सदा बुधैः ॥ खांड, शहदकी खांड । अनिष्ठां देहिनां शास्त्रे दौमनस्यं मुकर्मणि। इसे सेवन करनेसे २१ दिन पश्चात् नख दृष्ट्वा बुधैरयं प्रोक्तो योगो विश्वासहेतवे ॥ गिर जाते हैं; ४० दिन पश्चात् बाल गिरने लगते For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रस्नाकरः [सकारादि हैं; ६० दिनमें शरीरके समस्त मल नष्ट हो जाते ] दौर्मनस्य देख:कर विश्वास दिलानेके लिये इस हैं और ८० दिन बीत जाने पर दांत भी गिर | योगकी रचना की गई है। जाते हैं । इस प्रकार पुरातन नखादि नष्ट हो कर । यह रस मनुष्यको देवसदृश बना देता है। ३ मासमें नवीन केश और दृढ़ दांत निकल | (८२८८) सूर्यावर्तरसः (१) आते हैं । (शा. सं । खं. २ अ. १२ ; र. र. ; र. शरीर नवीन हो जाता है। रूप कामदेवके का. धे. ; धन्व. ; रसे. सा. सं.। हिक्का श्वासा. ; समान सुन्दर; शरीरावयव दृढ़ और बलवान तथा र. प्र. सु. । अ. ८; र. रे. स. । उ. अ. १३; गति घोड़ेके समान तीव्र हो जाती है । भूख र. चं. । श्वासा; रसे. चि. म. । अ. ९; र. रा. अत्यधिक बढ़ जाती है। कामशक्ति इतनी तीव्र सु. ; वृ. नि. र. ; वै. र. । श्वासा. ) हो जाती है कि मनुष्य १००-१०० स्त्रियोंसे सूताओं गन्धको म? यामैकं कन्यकाद्रवैः । समागम कर सकता है । बाल भौं रेंके समान काले द्वयोस्तुल्यं ताम्रपत्रं पूर्वकल्केन लेपयेत् ।। और धुंघराले हो जाते हैं। बाहु विशाल और दिनैकं स्थालिकायन्त्रे पक्वमादाय चूर्णयेत् । छाती दृढ़ तथा शोभायमान हो जाती है। शरीर | सूर्यावर्तो रसो होष द्विगुञ्जः श्वासजिद्भवेत् ।। उन्नत और नेत्र विशाल हो जाते हैं। ___ शुद्ध पारद २ भाग और शुद्ध गन्धक १ भाग ले कर कज्जली बनावें और उसे १ पहर औषध खाने के पश्चात् संभालुके पत्तोंका रस घृतकुमारीके रसमें खरल करके ३ भाग शुद्ध पीना चाहिये । इस प्रकार दिनमें ३ बार यह ताम्रके पत्रों पर लेप कर दें । इन्हें हांडीमें बन्द औषध खानी चाहिये । औषध भक्षणके थोड़ी देर करके एक दिन पाक करें और स्वांगशीतल होने बाद पान खाना चाहिये। पर पीस कर सुरक्षित रक्खें । इसके सेवन कालमें सुगन्धियोंसे भरपूर, ___मात्रा-२ रत्ती। निर्मल और सुखद विस्तृत शैया पर आराम करना ___ यह रस श्वासको नष्ट करता है । चाहिये । गीत, संगीत और रामायण सुनना तथा ( यदि ताम्र कच्चा रह जाए तो पुनः इसी नाटकादि देखना चाहिये । सुगन्धयुक्त पुष्ोकी | प्रकार पकाना चाहिये । ) माला पहिरनी चाहिये । सुन्दर रमणियोंके साथ सूर्यावर्तरसः (२) प्रसन्नता पूर्वक दिन व्यतीत करना चाहिये परन्तु (र. का. धे. । कुष्टा. ; र. रा. मु. । कुष्ठा.) मनमें विकार न आने देना चाहिये। " सूर्यकान्त रसः" प्र. सं. ८२७६ देखिये । इस पर अपथ्य कदापि न सेवन करना *र. र. स. में शुद्ध ताम्रके स्थानमें ताम्र भस्म चाहिये। लोगोंकी शास्त्रोंमें अनिष्ठा और सुकर्ममें | लिखी है। For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ३८७ सूर्येश्वररसः (८२९०) सैन्धवादिवटी (र. का. धे. । सन्निपाता.) (र. र. । बध्नवृद्ध्य.) प्र. सं. ३२९ " अर्केश्वरो रसः" देखिये ।। ससैन्धवकुष्ठकरेण्वजाजी र. का. धे. में तालका अभाव है। सत्रैफलारुष्करवालकश्च। (८२८९) सूर्योदयरसः विडङ्गविश्वौषधचित्रकामृता ( र. र. । शिरोरोगा.) भार्गावचातस्करदेवदारुकम् ॥ मृतमताभ्रकं तीक्ष्णं गन्धं तानं मृतं समम् । सनीलिनी सातिविषाजमोदा स्नुही क्षीरैर्दिनं मर्थ भक्षयेन्माषमात्रकम् ।। यवानिका पिप्पलीमूलमुस्तकम् । मधुना मर्दितं भक्षेल्लोहपात्रे दिने दिने । चव्यं सकृष्णा शठि चन्दनद्वयं सप्ताहात्सूर्यावर्तादीञ्छिरोरोगानिवर्तयेत् ।। सकट्फलावल्गुन बिल्वजं स्थिरम् ॥ सूर्योदय रसो नाम्ना सर्वमूर्द्धगदापहः ॥ दन्ती शताहा कटुकाजगन्धा सवाजिगन्धागज पिप्पलीनाम् । पारद-भस्म, अभ्रक भस्म, तीक्ष्ण लोह-भस्म, मरीचत्रिजातलवङ्गन्धं शुद्ध गन्धक और ताम्र-भस्म १-१ भाग ले कर जातीफलं शैलजजातिपत्री ॥ सबको एकत्र मिला कर ? दिन स्नुही (सेंडथूहर ) के दूधमें खरल करें और सुखाकर सुर ककमा क्रमश्लक्ष्णचूर्ण पलाष्टकं गुग्गुलुनामधेयम् । क्षित रक्खें। पलटूयं लौहरजस्तथैव मात्रा-१ माशा । (व्यवहारिक मात्रा शिलाजतुश्चैव पलं चतुष्कम् ॥ १-२ रत्ती) सर्वैः समश्चैव सिता च योज्या इसे लोहपात्रमें शहदके साथ मर्दन करके विमर्थ कृत्वा वटिताक्षमात्रम् । सेवन करनेसे १ सप्ताहमें सूर्यावर्तादि समस्त शिरो प्रत्येकशो भक्ष्यमथो विधेयं रोग नष्ट हो जाते हैं । मधं तथोष्णं पयसा च क्षीरम् ॥ सेतु रसः निहन्ति बध्नानुदरं सकृच्छं प्र. सं. ५५८५ " महासेतु रसः ( मेहसेतु __पावामयं कामलाराजरोगम् । रसः) ” देखिये। प्लीहोदरं कुष्ठविकारजश्च मूत्रामवातं स्वयथून्यकल्पम् ।। सेवन्ती पाकः अत्यग्निकारि ज्वरनाशनं परं प्र. सं. ७५६५ "शतपत्रिका पाकः” देखिये।। बलं सुपुष्टिं कुरुते नराणाम् । For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि प्रमेह विशं कफरोगविशं (८२९१) सोमनाथरसः (१) चत्वारिंशत्पित्तगदं निहन्यात् ।। | ( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु.। अशीतिवातामयजान्विकारान् बहुमूत्रा. ; रसे. चि. म. । अ. ९) नश्यन्ति ते सर्वमिदं नराणाम् ॥ कर्ष जारितलौहश्च तदद्ध रसगन्धकम् । सेंधा नमक, कूठ, रेणुका, जीरा, हरे, बहेड़ा, एलापत्रं निशायुग्मं जम्बुवीरणगोक्षुरम् ॥ आमला, शुद्ध मिलावा, सुगन्धवाला, बायबिडंग, विडङ्ग जीरकं पाठा धात्री दाडिमटङ्कणम् । सोंठ, चीतामूल, गिलोय, भरंगी, बच, चोरक, चन्दनं गुग्गुलुलोध्रशालार्जुनरसाउनम् ॥ देवदारु, नीलका पंचांग, अतीस, अजमोद, छागीदुग्धेन वटिकां कारयेद्दशरक्तिकाम् । अजवायन, पीपलामूल, नागरमोथा, चव्य, पीपल, निम्मितो नित्यनाथेन सोमनाथरसस्त्वयम् ।। कधूर, सफेदचन्दन, लालचन्दन, कायफल, बाबची, सोमरोग बहुविधं प्रदरं हन्ति दुर्जयम् । बेलगिरी, धव, दन्तीमूल, सोया, कुटकी, बनतुलसी, योनिशूलं मेद्रशूलं सर्व चिरकालजम् । असगन्ध, गजपीपल, कालीमिर्च, दालचीनी, इलायची, बहुमूत्रं विशेषेण दुर्जयं हन्त्यसंशयः ॥ । तेजपात, लौंग, काला अगर, जायफल, भूरिछरीला ____ लोह-भस्म ११ तोला तथा शुद्ध पारद और और जावत्री-इनका चूर्ण १।-१। तोला; शुद्ध गन्धक एवं इलायची, तेजपात, हल्दी, दारुहल्दी, गूगल ४० तोले, लोह-भस्म १० तोले शुद्ध जामन की छाल, खस, गोखरु, बायबिडंग, जीरा, शिलाजीत २० तोले और खांड सबके बराबर | पाठा, आमला, अनारकी छाल, सुहागेकी खील, ले कर ११-१। तोलेकी गुटिका बना लें। सफेदचन्दन, शुद्ध गूगल, लोध, शालवृक्षकी छाल (या सार), अर्जुनको छाल और रसौत; इनकाचूर्ण (प्रथम गूगलको थोड़े घीके साथ कूटकर ७॥-७|| माशे लेकर प्रथम पारे-गन्धककी कज्जली पतला करें और फिर उसमें शिलाजीत मिलाकर बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर कूटें, तदनन्तर अन्य औषधे मिलाकर अच्छी तरह बकरीके दूधमें खरल करके १०-१० रत्तीकी कूट लें। (व्यवहारिक मात्रा-२-३ माशे ।) गोलियां बना लें। अनुपान-मद्य या उष्ण जल, अथवा दूध। यह रस अनेक प्रकारके सोम रोग, कष्टसाध्य इसके सेवनसे ब्रन, उदर रोग, मूत्रकृच्छ, प्रदर, सर्वदोषज और पुराने योनिशूल तथा लिङ्गपाण्डु, कामला, राजयक्ष्मा, प्लीहोदर, कुछ, आमवात, शूलको नष्ट करता है । विशेषतः कष्टसाध्य बहुशोथ, ज्वर, प्रमेह, वातरोग, कफरोग और पित्त- मूत्रको तो अवश्य ही नष्ट कर देता है । रोगों का नाश होता तथा अग्नि, बल और पुष्टिकी (गूगलको पृथक् बकरीके दूधमें पीसकर वृद्धि होती है। मिलाना चाहिये ।) For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसंभकरणम् पश्चमी भागः - (८२९२) सोमनाथरसः (बृहद्) (२) । मिलाकर १-१ दिन घृतकुमारी और मण्डूकपणीक ( रसे. सा. सं.; र. रा. सु. ; धन्व. । सोमरोगा. रसम खरल करके २-२ स्तीकी गोलियां बनावें। रसे. चि. म. । अ. ९) इसे शहदके साथ सेवन करनेसे सोमरोग, हिालसम्भवं मृतं पालिधारसमर्दितम् ।। २० प्रकारके प्रमेह, बहुमूत्र, मूत्रकृच्छ , मूत्राघात, | अनेक प्रकारका मधुमेह, हस्तिमेह, इक्षुमेह, लालारण्डाशोधितगन्धश्च तेनैव कज्जलीकृतम् ॥ मेह और वातिक पैत्तिक तथा कफज बहुमूत्र का तद्वयोर्द्विगुणं लौह कन्यारसक्मिदितम् । | अवश्य नाश हो जाता है। अभ्रक वङ्गकं रौप्यं खपरं माक्षिकन्तथा ॥ सोमनाथी ताम्रम् मुवर्णश्च समं सर्व प्रत्येकच रसाकम् । तत्सर्वं कन्यकाद्रावैर्मईयेद्भावयेत्ततः ॥ (र. रा. सु. ; वै. र. । कासा. ; यो. र.) भेकपोरसेनैव गुआद्वयवटीं ततः। प्र. सं. २५८७ ताम्रभस्मविधिः (सोमनाथी) मधुना भक्षयेचापि सोमरोगनिवृत्तये ॥ ) देखिये । प्रमेहान्विशति हन्ति बहुमूत्रश्च सोमकम् । (८२९३) सोमपाणि रसः मूत्रातिसारं कृच्छ्रश्च मूत्राघातं सुदारुणम् ॥ (र. रा. सु. । सन्निपाता. ; र. चि. म. । स्त. ११) बहुदोषं बहुविधं प्रमेहं मधुसनकम् । | सूतनिष्कं गन्धनिष्कं मर्दयेच्चित्रकद्रवैः । हस्तिमेहमिक्षुमेह लालामेहं विनाशयेत् ॥ मापैकं मृततीक्ष्णस्य मृतशुल्वं च माक्षिकम् ॥ वातिकं पैत्तिकश्चैव श्लैष्मिकं सोपसज्ञकम् । माकं च विमिश्रेत पूर्वसूतेऽय मर्दयेत् । नाशयेद्बहुमूत्रश्च प्रमेहमविकल्पतः ।। धत्तरत्रिफलाकन्यादृद्धदादिकद्रवैः॥ पारिभद्र (फरहद) के रसमें ( कई दिनतक) केशभद्रस्य माण्डुक्या निर्गुण्ड्या भृङ्गिचित्रकैः। खरल किया हुवा पारद और मूषाकर्णीके रस द्वारा वायसीनिम्बवातारिशक्राशनद्रवैरपि । शुद्ध* गन्धक १-१ भाग लेकर कज्जली बनावें | प्रतिद्रावपलैकैकं दत्वा खल्वे विमर्दयेत् । और फिर घृतकुमारीके रसमें खरल की हुई लोह- रसांशं व्यूषणं क्षिप्त्वा चणकामा वटिं कुरु ।। भस्म ४ भाग तथा अभ्रक-भस्म, बंग-भस्म, चतस्रः सनिपाताते दापयेज्जीरकद्रवैः। रौप्य-भस्म, खपरिया, स्वर्णमाक्षिक-भस्म और | कषायं पञ्चमूलोत्थमनुपानं प्रशस्यते ॥ स्वर्ण-भस्म आधा आधा भाग लेकर सबको एकत्र दध्यन्नं दापयेत्पथ्यं तृषातौँ शीतलं जलम् ।। * गन्धकको घृतलिप्त कढाईमें पिघलाकर शुद्ध पारद ३।। माशे और शुद्ध गंधक । मूषाकणकि रसमें डाल दें। इसी प्रकार ३ बार या माशे ले कर कज्जली बनावें और उसे १ दिन सात बार बुझावें । चीतामूलके क्वाथमें खरल करें तदनन्तर उसमें For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९० भारत-भैषज्य-रलाकरः [ सकारादि ११-१। माशा तीक्ष्णलोह-भस्म, ताम्र-भस्म और गौरीपाषाण (सोमल-संखिया) दो प्रकारस्वर्णमाक्षिक-भस्म मिलाकर उसमें धतूरा, त्रिफला, का होता है, एक श्वेत और दूसरा रक्त । घृतकुमारी, विधारा, अद्रक, सुगन्धबाला, नागरमोथा, श्वेत सोमल शंखके समान होता है और मण्डूकपर्णी, संभालु, भंगरा, चीता, मकोय, नीम, लाल अनारके दानेके समान । अरण्डमूल और भांग इनका ५-५ तोले स्वरस या श्वेत सोमल कृत्रिम होता है और लाल क्वाथ मिलाकर खरल करें तदनन्तर उसमें ३॥ पर्वतसे निकलता है। माशे त्रिकुटे (सोंठ, मिर्च, पीपल) का चूर्ण मिलाकर दोनों प्रकारके सोमल विष हैं और पारदअच्छी तरह घोटकर चनेके समान गोलियां बना लें। कर्ममें काम आते हैं। इनमें से ४-४ गोली जीरेके पानी के साथ सोमल पारेको बांधने वाला, स्निग्ध, सर्व दोषमिलाकर देनेसे सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। नाशक ( अथवा पारदके दोष दूर करने वाला) अनुपान-पञ्चमूल (बेल, श्योनाक, खम्भारी, और पारदकी शक्तिको बढ़ाने वाला है । पाढल और अरणी ) का क्वाथ । सोमलको कपड़ेकी पोटलीमें बांधकर दोलाप्यास लगे तो शीतल जल देना चाहिये। यन्त्र विधिसे, एक दिन, चौलाईके काथमें मन्दाग्नि पर पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है । पथ्य-दही भात । सोमलको पीस कर कपड़ेकी पोटलीमें बांध (८२९४) सोमलशोधनम् कर दोलायन्त्र विधिसे एक दिन चूनेके पानीमें . ( यो. र. । प्रथम भा.) पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है। गौरी पाषाणकः प्रोक्तो द्विविधः श्वेतरक्तकः। (८२९५) सोमानलरसः श्वेतः शमसदृश रक्तो दाडिमाभः प्रकीर्तितः॥ (र. का. धे. । कुष्ठा.) श्वेतः कृत्रिमकः प्रोक्तो रक्तः पर्वतसम्भवः। गोमूत्र कुची बीजं त्रिसप्ताहं विभावयेत । विषरूपधरौ तौ हि रसकर्मणि पूजितौ ॥ त्वग्वज्य शोषितं चूर्ण तुल्यांशा चाभया तथा ॥ रसबन्धकरः स्निग्धो दोषघ्नो रसवीर्यकृत ॥ ततः खदिरवीजोत्यकषाये मर्दयेत्क्षणम् । घननादरसान्विते च मल्लः ककुष्ठं मृतलोहं च तुल्यांशं मधुमिश्रितम् ॥ परिपाच्यः किल दोलकाहयन्त्रे । ककं सर्वकुष्ठातः खादेत्सोमानलो ह्ययम ॥ भुभवहिरथो दिनं च मन्दः दो घड़ी तक कांजी या गोदुग्धमें पकानेसे परिदेयः परिजायते स शुद्धः॥ भी सोमल शुद्ध हो जाता है । उल्लीपाषाणसंशुद्धिर्वक्ष्यते शास्त्रसम्मता। इसका सत्व हरताल सत्वकी विधिसे निकाला चूर्णीकृतं पटे बवा शिलाक्षारोदकेन च ॥ जाता है । सोमल वातज और कफज रोगोंमें तथा दोलायन्त्र दिनैकं तु पाचितःशृद्धिमाप्नुयात् ।। शीतमें दिया जाता है । For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पचमो भागः बाबचीके बीजोंको २१ दिन तक गोमूत्रमें | उपद्रवसमायुक्तं चिरकालसमुद्भवम् । भिगोए रक्खें । ( हर रोज़ नया गोमूत्र बदलना | मूत्राघातं मूत्रकृच्छं कामलाच हलीमकम् ॥ चाहिये । ) तदनन्तर उनके छिलके अलग करके | भगन्दरोपदंशौ च विविधान् पिडकावणान् । सुखा लें और चूर्ण कर लें । फिर १ भाग यह | विस्फोटार्बुदकण्डूश्च वातपित्ताम्लपित्तके ।। चूर्ण और १ भाग हर्र का चूर्ण एकत्र मिला कर यकृत्प्लीहोदरं गुल्मं शूलार्श: कासावद्रधीः । उसे खैरके बीजोंके काथमें खरल करें। तत्पश्चात् सोमरोगं निहन्त्याशु चिरकालानुवन्धिनम् ।। उसमें १-१ भाग कंकुष्ट और लोहभस्म मिलाकर बलवर्णाग्रिजननो ग्रहवैगुण्यनाशनः । खरल करें। छागीदुग्धानुपानेन नारिकेलोदकेन वा ॥ इसे शहदके साथ सेवन करनेसे समस्त शीतेन पाकतैलेन यवयूषादियोगतः । प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं। युक्तथा प्रयोज्यो भिषजा रसो दोषविदा ह्ययम् ॥ ( शास्त्रीय ) मात्रा-१। तोला. | शाल वृक्षकी छाल, अर्जुन छाल, लोध, कदम्ब (८२९६) सोमेश्वरो रसः (१) वृक्षको छाल, अगर, लाल चन्दन, अरणी, हल्दी, दारुहल्दी, आमला, अनारदाना, गोग्वरु, जामनकी (भै. र. । प्रमेहा. ; धन्य । प्रमेहा., सोमरोगा. : र. | गुठली और खस; इनका चूर्ण २॥-२॥ तोले; रा. सु. । सोमरोगा.; रसे. सा. सं. । सोमरो.; | शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, धनिया, नागरमोथा, रसे. चि. म. । अ. ९.) इलायची, तेजपात, पनाख, लोहभस्म, रसौत, पाठा, बायबिडंग, सुहागा और जीरा .५-५ माशे शालार्जुनकलोध्रश्च कदम्बागुरुचन्दनम् । (पाठान्तरके अनुसार ५-५ तोले ) तथा शुद्ध अग्निमन्थनिशाद्वन्द्वधात्री दाडिमगोक्षुरम् ॥ गूगल २॥ तोले ले कर प्रथम पारे गंधककी जम्बू वीरणमूलश्च भागमेषां पलार्द्रकम् । कज्जली बनावें और फिर गूगल में थोड़ा घी डालकर रसगन्धकधान्यान्दमेलापत्रश्च पद्मकम् ॥ उसे पतला करें । तदनन्तर उसमें उपरोक्त समस्त लौह रसाधनं पाठा विडङ्ग टगजीरकम् । । औषधे मिला कर १६-१६ रत्तीकी गोलियां प्रत्येकं शाणकं 'ग्राह्यं पलाई गुग्गुलोरपि ॥ बना लें। घृतेन वटिकां कृत्वा खादेच्छोडशरक्तिकाम् । ___ इसके सेवनसे वातज प्रमेह; एक दोषज, गहनानन्दनाथेन रसो यत्नेन निर्मितः ।। द्विदोषज और सन्निपातज उपद्रवयुक्त पुराना मूत्रासोमेश्वरो महातेजो वातमेहानिहन्त्यलम् । घात, मूत्रकृच्छ्, कामला; हलीमक, भगन्दर, उपएकजं द्वन्द्वजं चोग्रं सभिपातसमुद्भवम् ।। दंश, अनेक प्रकारको पिडिकाएं और व्रण, विस्फो १ पलिकमिति पाठान्तरम्.. | टक, अर्बुद, कण्डू, वातपित्त, अम्लपित्त, यकृत, For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः ३९२ प्लीहा, गुल्म, शूल, अर्श, कास, विद्रधि और पुराने सोमरोमका शीघ्र ही नाश होता तथा बल, वर्ण और अग्नी वृद्धि होती है । अनुपान - बकरीका दूध, नारियलका पानी, शीत वीर्य पक्व तैल तथा जौका यूष इत्यादि । यह रस ग्रहविकार को भी नष्ट करता है (८२९७) सोमेश्वरो रस: (२) (र. स. सु.; र. का. घे. । कुष्ठा. ) शुद्धं सूतं मृतञ्चाभ्रं गन्धकं मर्दयेत्समम् । दिनं निर्गुण्डीका द्रावै रुद्ध्वाहो भूधरे पचेत् ॥ उद्धृत्य वाकुचीतैले वाकुच्या वा कषायतः । दिनैकं मावयेद्धर्मे निष्कमात्रं च भक्षयेत् ॥ बाकुची काकमाची च त्रिफला चूर्णयेत्समम् । मध्वाज्यैः कर्षमात्रञ्च अनुपानमिदं लिहेत् ॥ कपालविषमं कुष्ठं हन्ति सोमेश्वरो रसः ॥ शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म और शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके कजली बनायें और उसे १ दिन संभालुके रसमें खरल करके गोला बना कर सुखा लें तथा उसे शरावसम्पुट में बन्द करके ९ दिन भूधरयन्त्र में पकावें । तत्त्पश्चात् उसके स्वांगशीतल होने पर गोलेको निकाल कर दिन बाबचीके तेल या क्वाथमें धूपमें खरल करें । मात्रा - १ निष्क ( ३ ॥ माशे ) अनुपान - बाबची, मकोय और त्रिफला समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसमेंसे १/१। तोला चूर्ण शहद में मिलाकर उपरोक्त रस खाने के पश्चात् चाटें । इसके सेवन से कपाल कुष्ट नष्ट होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि (८२९८) सौगतवदी (सौस्तगुटिका) (बृ. यो. त । त. १४७ ; यो त । त. ८० ) पारदगन्धकचम्पक केसर सुरकुसुमकरहाटाः । अजमोदाम्बुधिशोषौ जातीपत्रं च जातिफलम् ॥ प्रत्येकं भागैकं भागद्वितयं च शुद्धमहिफेनम् । वनवदरसदृशगुटिकाः कार्या मधुनाऽथ भक्षयेदेकाम् || यामेsaid ललनासविधे fter after कर्षम् । तैलाई भुञ्जीयादनुपानं चेत्तदेतस्य ॥ लिङ्गं कठिनतरं स्याद्वीर्यस्तम्भं भवेद्यामम् । एषा सौगतगुटिका सत्यं सत्यं च शुक्ररोधकरी ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, चम्पाके फूलकी केसर, लौंग, अकरकरा, अजमोद, समुद्रशोष, जावित्री और जायफल १-१ भाग तथा शुद्ध अफीम २ भाग ले कर प्रथम पारे, गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य सब चीजोंका चूर्ण मिला कर पानी के साथ खरल करके जंगली are समान गोलियां बना लें 1 रात्रि के समय शहद के साथ १ गोली खा | कर १ पदर पस्चात तेल में मुनी अजवायन १ । तो. ( व्यवहारिक मात्रा - ३ माशे) खावें । यही इसका अनुपान है। इसके प्रभाव लिंग अत्यन्त कठिन हो जाता है और १ प्रहर तक वीर्यम्नम्भन होता है । यह बात बिल्कुल सत्य है । For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः - - (८२९९) सौभाग्यवटी (१) (लघु) पसीने आते हों या घोर निद्रामें पड़ा हो तथा समस्त इन्द्रियां निष्क्रिय हो गई हों और रोगी ( सौभाग्यचिन्तामणिरसः) शूल, श्वास, कफ, कास, मूर्छ, तृषा और अरुचि(र. चं. ; रसे. सा. सं. ! ज्वरा., भै. र. ; रे. रा.. से पीड़ित हो तो इस रसके देनेसे यह समस्त सु.; धन्व. 1 ज्वरा.) उपद्रव नष्ट हो कर रोगी मृत्युके मुखमेंसे निकल सौभाग्यामृतजीरपश्चलवणव्योषाभयाक्षामला'. आता है। निश्चन्द्राभ्रक शुद्ध गन्धक (८३००) सौभाग्यवटी (२) (वृहद्) रसानेकीकृतान्भावयेत् । __ (र. रा. सु. । ज्वरा.) निगुण्डीयुगभृङ्गराजकषापामार्गपत्रोल सत्प्रत्येक सौभाग्यं विषहिङ्गु वहिस्वरसेन सिद्धवटिका नन्ति त्रिदोषोदयम् । त्रिफलाव्योषं च जीरद्वयम् । येपां शीतमतीव देहमखिलं स्वेदद्रयाद्रीकृतं एलाकुष्ठलवङ्गगन्धकरसान् निद्रा घोरतरा समस्त करणव्यामोहमूढं मनः । जातिफलं चाभ्रकम् ।। शूलं श्वासबलाशकाससहितं मूरुिचिं तड द्वौ क्षारौ चायसं मुस्तं कट्फलं लवणत्रयम् । ज्वरं तेषां वै परिहत्य । एतानि समभागानि श्लक्ष्णं चूर्ण तु कारयेत् ।। जीवितमसौ गृह्णाति मृत्योर्मुखात् ॥ | अपामार्गस्य निर्गुण्ड्या भृङ्गराजस्य च द्रवैः। आर्द्रकस्य रसेनापि नागवल्ली रसेन च । सुहागेकी खील, शुद्ध बछनाग, जीरा, पांचों भावयेद्भावना सप्त लोहदण्डेन मर्दयेत् । नमक, सांठ, मिर्च, पीपल, हरी, बहेड़ा, आमला', माषयानुमानेन वटिकां कारयेद्बुधः ॥ अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारद आर्टकस्य रसेनापि भक्षयेत्यातरेव हि । समान भाग ले कर प्रथम पारे, गन्धककी कजली ज्वरं चाविधं हन्ति सशीतं सन्निपातकम् ।। बना और फिर उसमें अन्य औषधेका चूर्ण मिलाकर दोनों प्रकारको निर्गुण्डी ( संभालू ) के सुहागेकी खील, शुद्ध बछनाग, हींग, चीता, पत्तोंके रस, भंगरेके पत्तोंके रस बासापत्रके रस हर, बहेड़ा, आमला, सांठ, मिर्च, पीपल, सफेद और अपामार्गके पत्तों के रसकी १-१ भावना दे जीरा, काला जीरा, इलायची, कूठ, लौंग, शुद्ध कर ४-४ रत्तोकी) गोलियां बना लें। गन्धक, शुद्ध पारद, जायफल, अभ्रक भस्म, जवा खार, सज्जीखार, लोह भस्म, नागरमोथा, कायफल, - इसके सेवनसे सन्निपातका नाश होता है। सेंधानमक, काला नमक और विड नमक समान यदि रोगीका शरीर अ यन्त शीतल हो गया हो। भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें १ पाठान्तरके अनुसार 'चीता'। और फिर उसमें अन्य औषधांका चूर्ण मिला कर, ५० For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि सबको लोह खरलमें डाल कर अपामार्ग (चिर- कसेरु, सिंघाड़ा, कमलगट्टा, नागरमोथा, सफेद चिटा), संभाल, भंगरा, अदरक और पानके रसमें | जीरा, काला जीग, जायफल, जावित्री, लौंग, लोहेकी मूसलीसे ७-७ बार खरल करें (७-७ | शिलाजीत, नागकेसर, तेजपात, दालचीनी, कचूर, जावना दें) तत्पश्चात २-२ माशेकी गोलियां | धायकेफूल, इलायची, सोया, धनिया, गजपीपल, बना कर सुरक्षित रक्खें। पीपल, काली मिर्च और शतावर २॥-२॥ तो.; इनमेंसे १-१ गोली अद्रकके रसके साथ | लोह भस्म और अभ्रक भस्म ५-५ तोले; सोंठका प्रांतःकाल सेवन करनेसे ८ प्रकारके ज्वर और | चूर्ण ४० तोले; सफेद खांड १५० तोले और धी शीतांगसन्निपातका नाश होता है। ८ पल (४० तोले) तथा दूध ४ सेर ले कर प्रथम व्यवहारिक मात्रा-५ से ८ रत्ती तक। घीमें सेांठको भूनें और फिर उसमें दूध तथा खांड (८३०१) सौभाग्यशुण्ठी मिलाकर पकावें । जब चाशनी तैयार हो जाय तो ( मै. र. । स्त्री. ; धन्व. । सूतिका ) उसमें उपरोक्त सब चीजोका चूर्ण मिलाकर सुरकशेरुकाटवराटमुस्तं क्षित रक्खें । द्विजीरकं जातिफलं सकोषम् । __ मात्रा-४-६ माशे से १। तोला तक । लवनशैलेयसनागपुष्पं इसके सेवनसे सूतिका रोग, समस्त प्रकार के पत्रं वराङ्गं शटिधातकी च ॥ अतिसार और ग्रहणी-रोगका नाश होकर अग्नि एला भताहा धनिकेभपिप्पली दीप्त होती है। सपिप्पली सोषणका शतावरी । (८३०२) सौभाग्यशुण्ठीपाकः प्रत्येकमेषामिह कर्षयुग्मं लौह तथाभं पलभागयुक्तम् ॥ (वृ. यो. त. । त. १४७ ; यो. र. । सूतिका ) महौषधाच्चूर्णपलानि चाष्टौ नागरं कणशः कृत्वा प्रस्थमात्र भिषग्वरः । पलानि त्रिंशत्सितशर्करायाः। अजादुग्धाढकद्वन्द्वे विपचेन्मन्दवहिना ॥ पलानि चाष्टावपि सर्पिषश्च घनीभृते तु पयसि तस्माच्छुण्ठी समुदरेत् । __ प्रस्थद्वयं क्षीरमिह प्रयुक्तम् ॥ अतिसूक्ष्मं विनिष्पिष्य शोषयेदातपे खरे ॥ पचेद्विधिज्ञः परमादरेण घृतमानी समावाप्य तद्दग्धं तु पुनः पचेत् । ___ खादेदिदं शाणमयापिकोलम् । यावत्पिण्डत्वमायाति ततस्तत्र विनिक्षिपेत् ।। कर्षोंन्मितं वापि समीक्ष्य शस्तं चातुर्जातं तुगावेल्लं धान्यकं जीरकद्वयम् । सौभाग्यशुण्ठी कथिता भिषग्भिः ॥ | मिशिमाकल्लकं शुण्ठी लवङ्गं च शतावरीम् ॥ अग्निपदा सूतिगदापहा च तालमूलीत्रिकटुकं कपिकच्छं च षटकटु । सर्वातिसारग्रहणीहरा च ॥ । जातीफलं जातिपत्रीं शृङ्गाट उद्धदारुकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः - - त्रिवृतां पद्मवीजं च त्रिफलां च बलात्रयम् । ! जोरा, सौंफ, अकरकरा, सांठ, लौंग, शतावर, जलं सेव्यं वाजिगन्धाचन्दनागरुकारवीः ।। तालमूली (मूसली), त्रिकटु (सांठ, मिर्च, पोपल), ककोलमजगन्धां च द्राक्षामाक्षोरखारिजे। कौंचके बीज, पोपल, पोपलामूल, चय, चीता, अजमोदं च बादामं नारीकेलगतं तथा ।। सेठ, काली मिर्च, जायफल, जावित्री, सिंघाड़ा, कर्पूरमभ्रकं लोहं वङ्गं तानं शिलाजतु।। विधारा, निसोत, कमलगट्टा, हर्र, बहेड़ा, आमला, स्वर्णमाक्षिकमप्येतत्मत्येकं कर्पमात्रकम् ॥ खरैटी, कंधी, गंगेरन, सुगन्धवाला, खस, असगन्ध, चूर्णीकृत्य क्षिपेत्तत्र पाणिभ्यां मर्दयेद् दृढम् । सफेद चन्दन, अगर, काला जीरा, कंकोल, अज. ततः खण्डतुलां पक्त्वा तथा तच्च क्रियां चरेत् ।। मोद, किशमिश, अखरोटकी गिरी. कमलपुष्प, खण्डनागरकं नाम्ना भैषज्यमिदमुत्तमम् ।। | अजमोद, बदाम, खोपरा, कपूर, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, वंग भस्म, ताम्र भस्म, शिलाजीत और यथावलमिदं खादेत्भातः सायं च भेषजम् ।। । स्वर्णमाक्षिक भस्म १।-११ तोला । स्त्रीणामतिहितं नात्र पथ्यापथ्यविचारणा। क्षये पाण्डौ ज्वरे कासे श्वासे मन्दानले तथा इन वस्तुओं के चूर्णको उपरोक्त खोवेमें संग्रहण्यां रक्तगुल्मे प्रदरे सोमरोगके। मिलाकर दोनों हाथोंसे अच्छी तरह मिला दें। तदनन्तर ६। सेर खांडकी चाशनी बना कर उसमें दुग्धक्षये मूत्रकृच्छ्रे कामलायां गलग्रहे ॥ पित्तरोगेषु सर्वेषु वातपित्तगदेषु च । इस सब मसालेको मिला दें। सूतिकापवनव्याधी शस्तमेतन संशयः॥ यह स्त्रियों के लिये अत्यन्त हितकारी है । अश्विभ्यां पूर्वमुदितः सेव्यो योगोऽयमुत्तमः। इस पर किसी विशेष पथ्यको आवश्यकता नहीं है। एषा सौभाग्यदा शुण्ठी स्त्रीणां पुत्रपदा शुभा॥ इसके सेवनसे क्षय, पाण्डु, ज्वर, कास, श्वास, १ सेर सेठिके बारीक टुकड़े करके १६ सेर | अग्निमांद्य, संग्रहणी, रक्तगुल्म, प्रदर, सोमरोग, बकरीके दूधमें मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध गाढ़ा । दुग्ध-क्षय (दूध कम उतरना). मूत्रकृच्छ, कामला, होने लगे तो उसमें से सांठको निकालकर पत्थर पर गलग्रह, पित्तरोग, वातपित्तजरोग, सूतिकाके वातज बारीक पीसलें और तेज़ धूपमें सुखावें तदनन्तर । रोग इत्यादि का नाश होता है। यह स्त्रियोंके लिये इस शुण्ठी चूर्णको ४० तोले घीमें भूनें और फिर | पुत्र देने वाली है। उसमें उपरोक्त गाढ़ा दूध मिलाकर पुनः पकावें और जब उसका खावा हो जाय तो उसमें निम्नलिखित ___ (८३०३) सौभाग्यशुण्ठीमोदकः चूर्ण मिलावे-- (भै. र. ; धन्व. । अम्लपित्ता.) दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, | त्रिकटु त्रिफला भृङ्गजीरकद्वयधान्यकम् । बंसलोचन, बायबिडंग, धनिया, सफेद जीरा, काला । कुष्ठाजमोदा लौहानं शृङ्गी कट्रफलमुस्तकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org -यैषज्य -‍ ३९६ एला जातीफलं मांसी पत्रं तालीशकेशरम् । गन्धमात्रा शटी यष्टी लव रक्तचन्दनम् || एतानि समभागान शुण्ठीचूर्णन्तु तत्समम् । सिता द्विगुणिता तत्र गव्यक्षीरं चतुर्गुणम् ॥ तोलप्रमाणं दातव्यं दुग्धेनापि जलेन वा । अम्लपित्तं निहन्त्येतदरोचक: नेसूदनम् ॥ शूलहृद्रोगमनं कण्ठदाहं नियच्छति । etter शिरःशूलं मन्दानि विनाशयेत् ॥ हृच्छूलं पार्श्वकुक्षिस्वस्तिशूलं गुदे रुजम् । बलपुष्टिकरश्चैव वशीकरणमुत्तमम् ॥ विशेषादम्लपित्तश्च मूत्रकृच्छ्रं ज्वरं भ्रमम् । निहन्ति नात्र सन्देहो भास्करस्तिमिरं यथा ।। सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, भंगरा, सफेद जीरा, काला जीरा, धनिया, कूठ, अजमोद, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, काकड़ासिंगी, कायफल, नागरमोथा, इलायची, जायफल, जटामांसी, तेजपात, तालीसपत्र, नागकेसर, गन्धमात्रा, कचूर, मुलैठी, लौंग और लाल चन्दन १-१ भाग; सेटका चूर्ण सबके बराबर (२८ भाग) और खांड ११२ भाग ले कर प्रथम समस्त चूर्ण से चार गुने (८ गुने) दूधमें खांड मिलाकर चाशनी बनावें और फिर उसमें उपरोक्त समस्त औषधोंका चूर्ण मिलाकर १-१ तोलेके मोदक बना लें । | भारत १- १ मोदक दूध या पानी के साथ सेवन करनेसे अम्लपित्त, अरुचि, शूल, हृद्रोग, वमन, दाह, हृद्दाह, शिरशूल, अग्निमांध, हृदयशूल, पार्श्वगूल, कुक्षिशूल, वस्तिशूल और गुदपीड़ा का नाश होता तथा बलवृद्धि होती है । [ सकारादि यह मोदक उत्तम पौष्टिक और विशेषतः अम्लपित्त, मूत्रकृच्छ्र, ज्वर और भ्रमको नाश करने वाला है । यह इन रोगों को इस प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार सूर्य अंधकार को इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । (८३०४) सौभाग्यशुण्ठय वलेहः (मध्यम) ( यो त । त. ७५; यो. र. | सूतिका रोगा. ; वृ. यो त । त. १४२ ) नागरस्य पलान्यष्टौ घृतस्य च चतुष्पलम् । क्षीराढकेन संयुक्तं खण्डस्यार्धतुलां पचेत् ॥ शाहाजीरकव्योषत्रि सुगन्धिजवानिका । कारवी मिशिचव्यानि मुस्तानां च पलं पलम् ॥ शुद्धाभ्रका संयोज्यं त्रिपलं च पृथक्पृथक् । स्वर्ण तारं ततो योज्यं यथा चाग्निबलं भवेत् ।। लेहीभूतमिदं सिद्धं घृतभाण्डे निधापयेत् । तथाविलं खादेत्सूतिका तु विशेषतः ॥ बल्यं वर्ण्य तथा पृष्टं वलीपलित नाशनम् वयसः स्थापनं हृद्यं मन्दाग्नेर्दीपनं परम् ॥ आमवातप्रशमनं सौभाग्यकरमुत्तमम् । मक्कलशूलशमनं सूतिका रोगनाशनम् ॥ ४० तोले सोंठ चूर्णको ४० तोले' घीमें भूनें और फिर उसे ८ सेर दूधमें मिलाकर उसीमें ३ सेर १० तोले खांड मिलाकर पकायें । जब पाक तैयार हो जाय तो उसमें निम्नलिखित चीजे का चूर्ण मिला दें - रत्नाकरः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ यो. र. ; यो त में घृत २० पल है। ( जो अधिक प्रतीत होता है ) तथा भस्मांका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः सोया, जीरा, सेांठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, तदनन्तर उसे मानकन्दके भीतर भरें और उसके इलायची, तेजपात, अजवायन, काला जीरा, सौंफ, मुंहको सूरणके टुकड़ेसे बन्द करके उस पर (मानचव्य, चीता तथा नागरमोथा ५-५ तोले'; अभ्रक कन्द पर) सब ओर मिट्टीका लेप करदें और उसे भस्म, लोह भस्म, स्वर्णभस्म और चांदी भस्म सुखाकर गजपुट में रखकर १२ पहर तक पका।। १५-१५ तोले । तत्पश्चात् जब अग्नि सर्वथा शीतल हो जाय तो इसके सेवनसे मृतिका रोगका नाश होता है। गोलेको निकालकर उसकी मिट्टी दूर करके पीस लें यह लेह बल्य, वर्ण संस्कारक, पौष्टिक, वलीपलित और उसमें उसका पांचवां भाग शुद्ध हरताल तथा नाशक, आयुको स्थिर करने वाला, हृदयके लिये तीसरा भाग शुद्ध पारद मिलाकर आकके दूधकी हितकारी, अग्निदीपक, आमवातनाशक और मक्कल- | सात भावना दें और फिर ७ दिन अरण्डीके तेलमें शूलको न करने वाला है। | घोटकर आतशी शीशीमें डालकर १२ पहर बालुका ( मात्रा-१ माशा ) यन्त्रमें पकावें । इसके बाद जब शीशी स्वांगशीतल सौभाग्यशुण्ठिके अन्य पाठ अवलेहमक- हो जाय तो उसमें से तैयार रसको निकाल लें। रणमें देखिये। इसका रंग पीला होगा। (८३०५) सौभाग्यसुन्दरटङ्कणरसः ____ यह रस समस्त रोगों को नष्ट करता है। (र. का. धे. । स्वरभेदा.) टणं मर्दयेद् द्रावे निशालशुन सौरणे। (८३०६) सौराष्ट्रीशोधनमारणम् मानकन्दे त्रित्रिदिनं मानकन्दान्तरे न्यसेत् ।। विमुद्रय मृरणेनैव लिप्ता मृत्तिकया पुनः । सौराष्ट्री तुवरी काङ्क्षी मृत्तालकसुराष्ट्रजे । आढकी सापि च ख्याता मृत्स्ना च सुरमृत्तिका ।। पुटेद जपुटेनैव वहिदशयामकम् ॥ तत्पश्चमांशं तालं च तृतीयांशं च मूतकम् ।। स्फटिकाया गुणाः सर्वे सौराष्ट्रयामपि कीर्तिताः । विमिश्य मूर्यक्षीरेण मर्दयेत्सप्त सप्त च ॥ तस्मात्परस्पराभावे प्रयोज्याऽन्यतरा बुधैः ॥ एरण्डस्य च तैलेन कुप्यां द्वादशयामकम् । आ. वे. प्र. । अ. १०. निक्षिप्य दत्त्वा वह्नि च पीतवर्ण भवेदिति ॥ । सौभाग्यसुन्दरं नाम सौभाग्यं सर्वरोगजित || धान्याम्ले तुवरी क्षिप्ता शुद्धयति त्रिदिनेन वै। सुहागेको हल्दी, ल्हसन, मूग्ण (जिमिकन्ड) क्षाररम्लैश्च मुदिता माता सत्वं विमुञ्चति ॥ और मानकन्दके स्वरसमें ३-३ दिन ग्वरल करें। तत्सत्वं धातुवादार्थ, चौषधे नोपपद्यते ।। १ यो त. में पीपलामूल, काला जीरा, मुलगी, सौराष्ट्रोको तुवरी, कांक्षी, मृत्तालक ?, बायबिडंग, लौंग, धनिया, जटामांसी, तालीसपत्र सुराष्टूजा, आढकी, मृत्स्ना और सुरमृत्तिका और नागकेसर अधिक हैं। कहते हैं। For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [ सकारादि सौराष्ट्री और फिटकरीमें समान ही गुण होते पिप्पली मधुना सार्धं चैतदगुञ्जाद्वयं भजेत् । हैं इसलिये इनमेंसे किसी एकके अभावमें दूसरी स्थूलदुर्दिनविनाशने मरुत् वस्तु काममें ला सकते हैं। स्थूलपर्वतविनाशने हरिः । सौराष्ट्रीको ३ दिन तक कांजीमें रखनेसे स्थूलदोपरसशोषणक्षमः वह शुद्ध हो जाती है। ___ स्थूलराजगजकेसरीरसः ॥ __ सौराष्ट्रीको क्षार और अम्ल पदार्थों के साथ रस सिन्दूर १ भाग, चांदी भस्म २ भाग, खरल करके धमानेसे उसका सत्व निकल आता है। स्वर्ण माक्षिक भस्म ३ भाग, अभ्रक भस्म ४ भाग, यह सत्व धातुवादमें ही काममें आता है, औषधोंमें | ताम्र भस्म ५ भाग, लोह भस्म ६ भाग और व्यवहृत नहीं होता। स्वर्ण भस्म ७ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके प्रथम बिजौ र नीबूके रसमें खरल करें और (८३०७) सौवीराजनादिशोधनम् फिर सात दिन तक अन्य अम्ल बर्गके रसमें (रसे. सा. सं.) खरल करें । तदनन्तर उसे आतशी शीशीमें भर सौवीरं टङ्कणं शङ्ख ककुष्ठं गैरिकन्तया । कर १६ पहर बालुका यन्त्रमें पकावें । इसके पश्चात् शीशीके स्वांगशीतल होने पर उसमें से एते वराटवच्छोध्या भवेयुर्दोषवर्जिताः ॥ औषधको निकाल कर अदरकके स्वरस, गूमाके सौवीराञ्जन, सुहागा, शंख, कंकुष्ठ और स्वरस और बड़ी कटेलीके पत्तोंके स्वरस तथा बड़ी गेरुको वराट (कौड़ी) की भांति शुद्ध करनेसे वे | कटेलीके बीजोंके रसमें १-१ दिन खरल करके दोष-रहित हो जाते हैं। सुरक्षित रखें। (८३०८) स्थूलराजगजकेसरी रसः मात्रा-२ रत्ती । (र. प्र. सु. । अ. ८) इसे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन रसेन्द्रं रजतं ताप्यं गगनं ताम्रलोहकम। । करमेसे स्थूलताका नाश होता है ।। स्वणे च क्रमद्धानि मर्दयेत्पूरवारिणा ॥ (८३०९) स्थौल्यापकर्षणो रसः अन्येन चाम्लवर्गेण मर्दयेत्सप्तवासरान् । (र. प्र. सु. । अ. ८) काचकूप्यां निधायाय पञ्चामाष्टकद्वयम् ॥ सूतबोलमृततालताम्रकं स्वागशीतलतां ज्ञात्वा गृहोयात्तं च मर्दयेत् । आईकस्वरसेनैव द्रोणपुष्पी रसेन च ॥ चाकेदुग्धरसकेनमर्दितम् । बृहत्याः पत्रतोयेन बीजतोयेन वा पुनः ।। १ चांगेरी, लकुच, अम्लवेत, जम्बीरी, ना. प्रत्येक दिनमेकं हि भावनां दापयेत्पाद ॥ । रंगी, अनार, कैथ इत्यादि। For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पनमो भागः - सौद्रयुक्तमपि वल्लमात्र निबद्धय तां सेक्य मासयुग्म भक्षितं च ह्यति ,हितं जयेत् ॥ दिनोदये स्पर्शविकारशान्त्यै ॥ तोयमेकपलमत्र मात्रया शुद्ध हरताल ८ भाग, रससिन्दूर १ भाग पानतोऽप्यखिल मेहहारकम् ॥ और भांगका चूर्ण १ भाग ले कर सबको एकत्र रस सिन्दूर, बीजाबोल, हरताल भस्म और / मिला कर खरल करें और फिर सबके बराबर गुड़में ताम्र भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र | | मिला कर गोलियां बना लें। मिलाकर आकके दूधमें अथवा उसके पत्तोंके रसमें इन्हें प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । खरल करके सुरक्षित रक्खें। इनके सेवनसे स्पर्शवातका नाश होता है। मात्रा-३ रत्ती ( व्यवहारिक मात्रा- | ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती ।) १ रत्ती) स्पर्शवातान्तकृद्धटी इसे शहदके साथ सेवन करनेसे स्थूलता और प्र. सं. ६१०५ “ रसादि गुटी (२)" समस्त प्रमेहोंका नाश होता है। देखिये। अनुपान-५ तोले पानी। (८३११) स्पर्शवातारिरसः (१) स्पर्शगजसिंहरसः (पलाशादि वटी) (स्पर्शवातारि रसः) (र. सा. सं. , र. चं. , र. रा. सु. । वात रो. , र. (र. को. धे. । कुष्टा.) र. स. । अ. २१) प्र. सं. ६१०५ “ रसादि गुटी (२)" पलाशबीजोत्यरसेन सूतं देखिये। गन्धेन युक्तं त्रिदिनं विमर्च । र. का. धे. में आठ भाग पारद भस्म और श्लक्ष्णीकृतन्तद्विषतिन्दुबीजं ३ भाग शुद्ध पारद है तथा कुचला १२ भाग है संयोजयेदस्य कलापमाणम् ।। एवं चीते और भिलावेके स्थानमें १-१ भाग मासद्वयं निष्कमितं प्रयवातेजपात और इन्द्रायणकी जड़ है। दीसि हन्त्याशु नियोजनीयम् । वातरक्तं तथा शोथमस्पर्शाख्यानिलामयम् ॥ (८३१०) स्पर्शवातमरसः ___ समान भाग शुद्ध पारे और गंधककी कज्जली (र. र. स. । उ. अ. २१) करके उसे पलाशके बीजोंके रसमें खरल करें और तालं रसेनाष्टगुणं जयांचं फिर उसमें उस चूर्णका सोलहवां भाग शुद्ध विमर्च यवादगुलिकां मुडेन। 'कुचलेका चूर्ण मिला कर खरल करें। For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि इसे ३॥ माशेकी मात्रानुसार दो मास तक रंगने में उपयोगी है और मजीठके रंगको पक्का सेवन करनेसे अर्श, वातरक्त, शोथ और स्पर्शवातका करती है । नाश होता है। ___ फिटकरी दो प्रकारकी होती है । एक प्रका. रकी कुछ पीली, भारी और स्निग्ध होती है । यह ___ स्पर्शवातारिरसः (२) "पीतिका' कहलाती है और विषको नष्ट करती प्र. ६१०५ " रसादि गुटी (२)" तथा है । यह व्रण तथा कुष्ठमें विशेष उपयोगी है। ७६४२ " शीतारि रसः (५)" देखिये। दूसरे प्रकारकी फिटकरी हल्को, श्वेत, स्निग्ध ___स्पर्शवातारिरसः (३) | और अम्लरस युक्त होती है, उसे “फुल्ल तुवरी" प्र. सं. ७६४२ शीतारि रसः (५) । ( फूल फिटकरी ) कहते हैं। लेप करनेसे यह देखिये। ताम्रको खा जाती है ( जीर्ण कर देती है । ) फिटकरी ( दानों प्रकारकी ) कषैली, कटु, (८३१२) स्फटिकाशोधनम् अम्ल, कण्ठ और केशों के लिये हितकारी, बणनाशक, (र. र. स. । अ. ३) विषनाशक, स्वित्रनाशक, नेत्रों के लिये हितकारी, सौराष्ट्राश्मनि सम्भूता मृत्स्ना सा तुवरी मता। त्रिदोषको शान्त करनेवाली और पारदजारण में उपयोगी है। वस्त्रमारायेद्यासौ मनिष्ठारागबन्धिनी ॥ फटकी फुल्लिका चेति द्वितीया परिकीर्तिता। फिटकरीको ३ दिन तक कांजीमें रखनेसे ईषत्पीता गुरुः स्निग्धा पीतिका विषनाशिनी। वह शुद्ध हो जाती है। वणकुष्ठहरा सर्वकुष्ठन्नी च विशेषतः । "सत्व पातनम् " निर्भारा शुभ्रवर्णा च स्निग्धा साम्लाऽपरामता | फिटकरीको क्षार और अम्ल पदार्थोके साथ सा फुल्लतुवरी प्रोक्ता लेपात्तानं चरेदियम् ॥ खरल करके मृषामें रख कर ध्मानेसे उसका सत्व कांक्षी कषाया कटुवः लकण्ठ्या | निकल आता है। केश्या व्रणनी विषनाशिनी च । (८३१३) स्मृतिसागररसः श्वित्रापहा नेत्रहिता त्रिदोष | ( यो. र. ; वृ. नि. र. । अपस्मारा. ; वृ. यो, शांतिपदापारदजारणी च ॥ त. तं ८९) नुवरी कांजिके क्षिप्ता त्रिदिनाच्छुद्धिमृच्छति । रसगन्धकतालानां सशिलाताम्रभस्मनाम् । क्षाराम्लैमर्दिताध्माता सत्त्वं मुश्चति निश्चितम् ॥ | शुद्धानां मूर्छितानां च चूर्ण भाव्यं वचाशृतैः॥ तुवरी (फिटकरी ) सौराष्ट्र देशमें पर्वतोंमें एक विंशतिधा पश्चाद्ब्राह्मीवारा तथैव च । जाने वाली एक प्रकारकी मिट्टी है । यह वस्त्र । कटभीबीजतैलेन भावयेदेकवारकम् ।। For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पचमो भागः स्मृतिसागरनामाऽयं रसोऽपस्मारनाशनः । सौवीराजन पाही, मधुर, नेत्रों के लिये हितसर्पिषा माषमात्रोऽयं भुक्तो हन्यादपस्मृतिम् ॥ कारी, कफपित्त नाशक, शीतल तथा हिका, क्षय उन्मादोक्तो विधिः सर्वोह्यपस्मारे प्रयुज्यते ॥ और रक्तपित्तको नष्ट करने वाला है । स्रोतोञ्जनमें शुद्र पारद, शुद्र गंधक, शुद्ध हरताल, शुद्ध मा यही गुण भी यही गुण हैं। मनसिल और ताम्र भस्म समान भाग ले कर प्रथम (८३१५) स्वच्छन्दनायकरसः पारे गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य | (र. र. ; र. का. धे.। वातव्या. ) औषधे मिला कर बचके काथकी २१ भावना दें मृतं सूतं तीक्ष्णकान्तं तालं माक्षिकगन्धकम् । तदनन्तर ब्राह्मीके रसकी २१ भावना दे कर तुल्यांशं मर्दयेद्रावैर्विदाकिसम्भवैः ॥ सुखाकर १ भावना मालकंगनीके तेलकी दे कर भइयत्यैः कोकमाच्युत्थैगिरीकर्णीद्रवैर्दिनम् । सुरक्षित रखें। सम्पर्य भाण्डगं रुद्ध्वा पचेन्मन्दाग्निना दिनम् ॥ __मात्रा-१। मापा ( व्यवहारिक मात्रा- व्योषाग्निगन्धकविषः सरण्याभयाटङ्गणैः। १-२ रत्ती ।) समांशैश्चूणितं मित्रैस्तुल्यांशं पूर्व पातितम् ।। अनुपान-धीमें मिला कर सेवन करें। त्रिदिनं मर्दयेद्रावैर्मुण्डीनिर्गुण्डीभाजः । इसके सेवनसे अपस्मारका नाश होता है। अष्टगुआमितं खादेद्रसः स्वच्छन्दनायकः ।। अपस्मारमें उन्मादोक्त समस्त विधियां हित सर्ववातहरः ख्यातो ह्यनुपानमिदं पिबेत् । . कारक हैं। लशुनं सैन्धवं तैलं कर्षमात्रं सुखावहम् ।। (८३१४) स्रोतोअनशोधनम् पारद भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, कान्त लोह (वृ. यो. त. । त. ४२) भस्म, शुद्ध हरताल, स्वर्ण माक्षिक भाम और शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर स्रोतोञ्जनं च द्विविधं श्वेतकृष्णप्रभेदतः । १-१ दिन विदारीकन्द, अदरक, भंगरा, मकोय त्रिफलावारिणा स्वेद्यं तवयं शुद्धिमृच्छति ॥ और कोयलके रसमें खरल करके गोला बनावें और सौवीरं ग्राहि मधुरं चक्षुष्यं कफपित्तजित् । । उसे सुखाकर शरावसम्पुट में बन्द करके १ दिन हिमाक्षयास्रनुच्छीतं स्रोतोअनमपीशम् ।। ( बालुका यन्त्रमें ) मन्दाग्नि पर पकावें और उसके ___ स्रोतोञ्जन दो प्रकारका होता है एक श्वेत स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल लें। और दूसरा कृष्ण । तदनन्तर सांठ, मिर्च, पीपल, चीता, शुद् गन्धक, दोनो प्रकारका स्रोतोञ्जन (दोलायन्त्र वि- | शुद्ध बछनाग, प्रसारणी, हर्र और सुहागेकी खील धिसे) त्रिफलाके क्वाथमें स्वेदित करनेसे शुद्ध हो समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और पूर्वोक्त तैयार जाता है। रसमें यह चूर्ण उसके बराबर मिलाकर मुण्डी, પી For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि संभालू और भंगरेके रसमें ३-३ दिन खरल करके (८३१७) स्वच्छन्दभैरवरसः (२) ८-८ रत्तीकी गोलियां बना लें। (रसे. सा. सं. । ज्वरा.) इसके सेवनसे समस्त वातव्याधियां नष्ट होती हैं। रसगन्धकयोः शाणं प्रत्येकं कजलीकृतम् । सुवर्णमाक्षिकं शाणं शुद्धश्चैकत्र कारयेत् ॥ अनुपान-लहसन, सेंधानमक और तेल रुद्रजटा निशुन्दा च नागदामलकी तथा । समान भाग ले कर तीनोंको एकत्र मिला कर १। विषकण्टालिका चैषां स्वरसं शाणमात्रकम् ॥ तोलेकी मात्रानुसार खाना चाहिये । दत्वा संशोध्य सम्म कार्या मुद्गसमा वटी। ( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ रत्ती) आर्द्रकस्य रसैः पेया जीरकश्चानुभक्षयेत् ॥ (८३१६) स्वच्छन्दभैरवरसः (१) स्वच्छन्दो भैरवाख्योयं सन्निपातोग्रहन्मतः । (र. प्र. सु. । अ. ८) | ग्रहणी मूतिकातङ्कं नाशयेदविचारतः ॥ सूतं गन्धं ताप्यकं तालकं वै ____ शुद्ध पारद और गन्धक ५-५ माशे ले कर निर्गुण्डीवड्यूषणं चाग्निमन्यम् । कज्जली बनावें फिर उसमें ५ माशे स्वर्णमाक्षिक पथ्योपेतं शाणमा पृथक् स्यात् भस्म मिला कर उसमें ५-५ माशे रुद्रजटा, खल्वे पिष्ट्वा बीजपूरद्रवेण ॥ निशुन्दा (निर्गुण्डी ?), हर्र, आमला और विषकचूर्ण कृत्वा भक्षयेन्मापमात्र ण्टालिकाका रस मिलाकर खरल करें तथा मूंगके ____कृष्णासर्पिः क्षौद्रयुक्तं प्रलीढम् । समान गोलियां बनावें । सर्वान् हन्याच्चातिसारान् सुघोरा इनमेंसे १ गोली अदरकके रसमें मिलाकर नाम वर्मान्धतां चापि सद्यः ॥ । पिलावें और ऊपरसे जीरेका चूर्ण खिलावें । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण गाक्षिक भस्म, इसके सेवनसे उग्र सन्निपात, ग्रहणी और शुद्ध हरताल, संभालु, चीता, मिर्च, अरणी और सूतिका रोगका नाश होता है। हर्र ५-५ माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी । (८३१८) स्वच्छन्दभैरवरसः (३) कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका | (भै. र. ; वै. र. ; र. का. घे. । ज्वरा ) चूर्ण मिला कर जम्बीरी नीबूके रसमें खरल करें। | समभागांश्च सय पारदामृतगन्धकान् । मात्रा-१ माशा। | जातीफलस्य भागार्द्ध दवा कुर्याच कज्जलीम् ।। • इसे पीपलके चूर्ण तथा शहद और धीके साथ सर्वार्द्ध पिप्पलीचूर्ण खल्लयित्वा निधापयेत् । सेवन करनेसे समस्त प्रकारके घोर अतिसार, आम गुञ्जार्द्धपमितं चैव नागवल्लीदलैः सह । और अग्निमांधका नाश होता है। | आर्द्रकस्य रसेनापि द्रोणपुष्पीरसेन वा ॥ For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पश्चमो भागः ४०३ शीतज्वरे सन्निपाते विरच्यां विषमज्वरे। ले कर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें और फिर पीनसे च प्रतिश्याये ज्वरेऽजीर्ण तथैव च ॥ उसमें उसके बराबर शुद्र गन्धक मिलाकर कजली मन्देऽनौ वमने चैव शिरोरोगे च दारुणे। बनावं तथा उसे आतशी शीशी में डालकर बालुकाप्रयोज्यो भिषजा सम्यगरसः स्वच्छन्दभैरवः॥ यन्त्रमें पकायें और फिर उसके स्वांगशीतल होने पथ्यं दध्योदनं दद्याद्वीक्ष्य दोषबलाबलम् ॥ पर रसको निकालकर पीस लें। तदनन्तर उसमें शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और शुद्ध बछनाग उसके बराबर सोंठ, मिर्च, पीपल, अरणी, तुलसी, २-२ भाग तथा जायफलका चूर्ण १ भाग ले कर जिमीकन्द (सूरण), काकडासिंगी, हर्र और शुद्ध कज्जली बनावें और उसमें ३।। भाग पीपलका बछनाग का समान भाग मिश्रित चूर्ण मिलाकर चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करें । ३-३ दिन मुण्डी और निर्गुण्डीके रसमें खरल करके सुरक्षित रखें । मात्रा-आधी रत्ती। मात्रा-६ रत्ती । इसे पानके साथ अथवा अदरकके रस या गूमाके रसके साथ देनेसे शीतज्वर, सन्निपात, विसू इसे अदरकके रसके साथ सेवन करनेसे चिका, विषमज्वर, पीनस, प्रतिश्याय, जीर्ण ज्वर, समस्त वातरोगों का और विशेषतः वातरक्तका नाश अग्निमांद्य, वमन और दारुण शिरोरोगका नाश होता है। होता है। ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती ।) पथ्य-दोष और रोगीका बलाबल देखकर (८३२०) स्वच्छन्दभैरवरसः (५) दही भात आदि देना चाहिये। ( रसे. सा. सं. । कासा. ; र. चि. म. । स्त. (८३१९) स्वच्छन्दभैरवरसः (४) ७ ; र. रा. सु. ; र. का. धे. | ग्रहण्य. ; र. (र. र. स. । उ. अ. २१) चं. ; धन्व. । कासा.) तीक्ष्णाऽयस्कान्तगोदन्तमाक्षिकैर्मदितो रसः। रसमेकं द्विधा गन्धं गन्धतुल्यश्च सैन्धवम् । समांशगन्धकः पक्वो हण्डिकायन्त्रमध्यगः ॥ | ज्वालामुखीरसैः पञ्चदिनानि परिमर्दयेत् ॥ व्योषामिमन्यसुरसाकन्दम्पभयाविषैः। मूषिकायां निरुध्याथ पुटेदात्रौ च मध्यमम् । समैः समं त्र्यहं मुण्डी निर्गुण्डी रसपिण्डितः ॥ सर्व भस्म यदा याति वल्लमेनं प्रयच्छति ।। सेवितः शमयेवातान्नाम्ना स्वच्छन्दभैरवः। ग्रहण्यां सङ्ग्रहण्याञ्च कासे श्वासे विशेषतः। विशेषाद्वातरक्तं च दि वल्लं चाकैर्ददेत् ॥ उग्रासु ज्वरतन्त्रासु निद्रास्वल्पासु योजयेत् ॥ तीक्ष्ण लोहभस्म, चुम्बक भस्म, गोदन्ती भस्म, अन्यरोगेषु तं दद्याद्रसं स्वच्छन्दभैरवम् । वर्णमाक्षिक भस्म और शुद्ध पारद १-१ भाग । तुष्टिं पुष्टिमसौ कुर्यात्सौकुमार्यञ्च कारयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग भूख लगने पर ईख, द्राक्षा, मिसरी और दही और सेंधानमक २ भाम ले कर सबको एकत्र आदिके साथ पथ्याहार देना चाहिये । मिलाकर खरल करें । जब कजली हो जाय तो (८३२२) स्वच्छन्दभैरवरसः (७) उसे ५ दिन ज्वालामुखो (कलियारी)के रसमें खरल करें और फिर मूषामें बन्द करके मध्यपुट में फूंक (र. चि. म. । स्त. ४ ; र. का. धे. । ज्वरा.) दें। तदनन्तर इसके स्वांगशीतल होने पर भस्मको वेदतोला रसो ग्राह्यो गन्धको द्वादशात्र च । निकालकर सुरक्षित रखें। कृत्वा कज्जलिकामादौ क्षिपेत्ताम्रकटोरिके ॥ मात्रा-२-३ रती। अष्टतोलाप्रमाणेऽस्मिन् धृत्वा मृतं विशोधितम् । सन्धिलेपं विधायाऽथ वालुकायन्त्रके क्षिपेत् ।। इसके सेवन से ग्रहणी रोग, संग्रहणी, विशेषतः | ऊर्ध्व ढङ्कणिकां दच्या तां मृदा लेपयेत्ततः । कास, श्वास, उग्र ज्वर और निद्राकी कमी आदि । अहोरात्रं विधेयः स्याद्वह्निस्तत्र च पारदे ।। रोग नष्ट होते तथा तुष्टि, पुष्टि और सुकुमारताकी उत्तार्य शीतलं तं च मधुना सम्पदापयेत् । वृद्धि होती है। श्लेष्मिके च ज्वरे देयस्त्रिगुझो मरिचैः सह ॥ (८३२१) स्वच्छन्दभैरवरसः (६) वातिकेऽथ ज्वरे दधाद्विगुञ्जः पिप्पलीयुनः । ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. का. घे.।। रोगयोग्यानुपानेन देयः स्वच्छन्दभैरवः ॥ त्रिफलारससंयुक्तः सर्वरोगे प्रयुज्यते ॥ __ ज्वरा. ; रसे. चि. म. । अ. ९) शुद्ध पारद् ४ तोला और शुद्ध गन्धक १२ ताम्रभस्म विषं हेम्नः शतधा भावितं रसैः । तो. ले कर कज्जली बनावें और उसे तांबेकी कटोरीगुञ्जाद सन्निपातादिनवज्वरहरं परम् ।। में डालकर उस पर ८ तो. शुद्ध पारद रख दें आम्बुशर्करासिन्धुयुतः स्वच्छन्दभैरवः । तथा उस पर दूसरी तांबेकी कटोरी ढक कर दोनों के इक्षुद्राक्षासिताश्चापि दधि पथ्यं रुचौ ददेत् ॥ । जोड़को अच्छी तरह बन्द कर दें। फिर इस सम्पुटताम्रभस्म और शुद्ध बछनागका चूर्ण समान को बालुकायन्त्रमें रख कर उसके ऊपर ढकना भाग ले कर दोनोंको एकत्र मिलाकर धतूरेके रसकी ढक कर जोड़पर मिट्टीका लेप कर दें और उसके १०० भावना दें और आधी आधी रत्तीकी गोलियां नीचे २४ घंटे अग्नि जलावें । तदनन्तर उसके : बना लें। स्वांगशीतल होने पर रसको निकाल कर सुर क्षित रक्खें । १-१ गोली अदरकके रस, खांड और सेंधा । नमकके साथ देनेसे नवीन सन्निपातादि ज्वरोंका इसे कफज ज्वर में शहद और काली मिर्च के नाश होता है। चूर्ण के साथ ३ रत्ती की मात्रानुसार देना चाहिये। For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् पञ्चमो भागः ४०५ तथा वातज्वरमें २ रत्तीकी मात्रानुसार पीपलके | (८३२४) स्वयमग्निरसः (२) चूर्ण और शहदके साथ देना चाहिये । (र. चि. म. । स्त. ११ ; वृ. नि. र. । क्षय.; इसे त्रिफला के क्वाथ के साथ समस्त रोगों । कासा. ; र. र. रसायन खं.। उप. २ ; र. में दे सकते हैं। का.धे. । कासा.; शा. सं । खं. २ अ. १२) स्वच्छन्दभैरवरसः (८) शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं कुर्यात्खल्वेन कजलीम् ॥ तयोः समं तीक्ष्णचूर्ण मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः । (यो. त. । त, ४० ; र. र. स. । उ, अ. २१; | 'द्वियामान्ते कृतं गोलं ताम्रपात्रे विनिक्षेपेत् ॥ र. का. धे. ; र. रा. सु. । वातव्या. ; र. सं. | आच्छाद्यैरण्डपत्रेण यामार्धेऽत्युष्णता भवेत् । क. 1 उल्लास ४ ; वृ. यो. त. । त. ९०; धान्यराशौ न्यसेत्पश्चात् अहोरात्रात्समुद्धरेत् ॥ शा. सं. । ख. २ अ. १२ ; यो. र. ; र. चं. ; र. र. ; वृ. नि. र. । सञ्चये गालयेद्वस्त्रे सत्यं वारितरं भवेत् । वातव्या.) भावयेत्कन्यकाद्रावैः सप्तधा भृङ्गजैस्तथा ॥ काक पाचीकुरण्टोत्यद्रवैर्मुण्डयाः पुनर्नवैः । प्र. ६९८२ "वातगजाङ्कुशरसः (२)” देखिये सहदेव्यमृतानीलीनिर्गुण्डीचित्रजैस्तथा ।। इसमें (स्वच्छन्द भैरव में) शृङ्गी ( काकड़ा- सप्तधातु पृथग्द्रावैर्भाव्यं शोष्यं तथातपे । सिंगी ) के स्थानमें निर्गुण्डी है। | सिद्धयोगो ह्ययं ख्यातः सिद्धानां च मुखागतः॥ (८३२३) स्वयमग्निरसः (१) अनुभूतो मया सत्यं सर्वरोगगणापहः । स्वर्णादीन्मारयेदेवं चूर्णीकृत्य तु लोहवत् ॥ ( र. रा. सु. । अजीर्णा.) त्रिफलामधुसंयुक्तः सर्वरोगेषु योजयेत् । मरिचान्द वचाकुष्ठं समांशं विषमेव च । त्रिकटु त्रिफलैलाभिर्जातीफललवङ्गकैः ॥ आर्द्रकस्य रसैः पिष्ट्वा मुद्गमात्रन्तु कारयेत् ॥ नवभागोन्मितैरेतैः समः पूर्वरसो भवेत् । स्वयमग्निरसो नाम सर्वाजीर्णप्रशान्तये ॥ सञ्चूमे लोडयेत्क्षौर्भक्ष्यं निष्कद्वयं द्वयम् । काली मिर्च, नागरमोथा, बच, कूठ और शुद्ध । स्वयमग्निरसो नाम्ना क्षयकासनिकृन्तनः ।। बछनाग का चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र शुद्ध पारा १ भाग, और शुद्ध गंधक २ भाग मिलाकर अदरकके रसमें खरल करके मूंगके समान ले कर कज्जली बनावें फिर उसमें उसके बराबर गोलियां बनावें । तीक्ष्ण लोह (फौलाद) का चूर्ण मिलाकर घृतकुमारी इनके सेवनसे समस्त प्रकारके अजीर्ण का | १ "दिनैकं गोलकं कृत्वा" इति पाठान्तरम् । नाश होता है। २ "द्वि दिनान्ते समुद्रेत्" इति पाठान्तरम् । For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि के रस में २ पहर (पाठान्तरके अनुसार १ दिन)। सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, खरल करके गोला बनावें और उसे ताम्र पात्रमें इलायची, जायफल और लौंग का चूर्ण १-१ भाग रखकर अरण्डके पत्तों में लपेट दें । ( इसे धूप में | तथा उपरोक्त लोहभस्म ९ भाग ले कर सबको रखदें ) आधा पहर पश्चात् जब गोला अत्युष्य एकत्र मिलाकर खरल करें। हो जाय तो उसे अनाजके ढेर में दबा दें और इसे शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे क्षयकास १ दिन (पाठान्तरके अनुसार २ दिन ) पश्चात | का नाश होता है । निकालकर बारीक चूर्ण करके वस्त्रसे छान लें । वह ! मात्रा-२ निष्क निस्सन्देह वारितर हो जायगा। तदनन्तर उसे धृत- (व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती।) कुमारी, भंगरा, मकोय, पियाबासा, मुण्डी, पुनर्नवा, (८३२५) स्वरप्रसादको रसः सहदेवी, गिलोय, नील, संभालू और चित्रकके (र. रा. सु. । स्वर मेदा.) रसकी ७-७ भावना दें। हर भावनाके पश्चात् पारदं गन्धकं तुल्यं तालकच मनःशिला । धूपमें सुखा लेना चाहिये । सर्व तुल्यश्च कङ्कोलजलैस्तु दिवसत्रयम् ॥ ततः पुटेद्गजपुटे शरपुडाजलैः पुनः। यह सिद्धयोग सिद्ध महानुभावांसे प्राप्त हुवा सम्मर्च पाचयेद् भूयस्ततः सिद्धो भवेद्रसः ॥ है और बिल्कुल सत्य है । मैं परीक्षा कर चुका हूं स्वरमसादको नाम रसोयं दृष्टविक्रमः । यह समस्त रोगोंको नष्ट करता है। पर्णखण्डेन दातव्यो गुनादयमितो युधैः॥ इसी प्रकार स्वर्णादि धातुओंका चूर्ण करके गुडाकेन मधेन पिप्पली मधुनायवा ॥ उनकी भी भस्म की जाती है। शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्र हरताल और इस लोह-भस्मको त्रिफला चूर्ण और शहदके शुद्ध मनसिल समान भाग ले कर सबको एकत्र साथ समस्त रोगों में देना चाहिये। खरल करके कज्जली बनावें और उसे कंकोलके क्वाथमें ३ दिन खरल करके गोला बनावें और * र. चि. म. में तथा वृ. नि. र. के कासाधि. उसे सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजकारोक्त पाठ तथा अन्य कई ग्रन्थों में भावनाओं का पुटमें पकावें। अभाव है। तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर र. र. रसा. खं. के अनुसार तीक्ष्य लोह, औषधको निकालकर उसे ३ दिन शरपुंखा ( सरकान्त लोह, और मुण्डलोहमें से कोई एक ले सकते | फोका ) के रसमें खरल करके उपरोक्त विधिसे हैं तथा भावना-द्रव्य निम्नलिखित लेने चाहिये:- गजपुट में पकायें। घृतकुमारी, भंगरा, मकोय, मुण्डी, संभालु, | इसके सेवनसे स्वरभेद रोग नष्ट होता है यह चीता, पियांवासा, बाबची, ब्राह्मी, सहदेवी, पुनर्नवा, बात प्रत्यक्ष देखी गई है। सेंभल, भांग, धतूरा और त्रिफला । मात्रा-२ रती। For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ४०७ - इसे पानमें रखकर अथवा गुड़ और अदरकके मुद्रां दत्त्वा भूतिसामुद्रकेण साथ या मद्यके साथ अथवा पीपलके चूर्ण और यामं चैकं मन्दवह्नौ विपाच्य । शहदके साथ देना चाहिये। वल्लं चैकं भक्षितं क्षौद्रयुक्तं स्वजिक्षारादियोगः यक्ष्मारोगं नाशयेद्धि प्रसव ॥ प्र. सं. ८१५९ “सर्जीक्षारादियोगः” देखिये __ सीसा भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक और (८३२६) स्वर्णक्षारीरसः शुद्ध बछनाग १-१ भाग ले कर सबको एकत्र ( शा. सं. । खं. २ अ. १२ ; र. र. स. खरल करके कजली बनावें और उसे १ दिन उ. अ. २०) घृतकुमारीके रसमें खरल करके गोला बनावें तथा हेमाहां पञ्चपलिकां क्षिप्त्वा तक्रघटे पचेत् ।। उसे हाण्डीमें रख कर शरावसे ढक कर तके जीर्णे समुदघृत्य पुनः क्षीरघटे पचेत् ।। सन्धिको राख और समुद्र नमकके मिश्रणसे बन्द क्षीरे जीर्ण समुद्धृत्य क्षालयित्वा विशोधयेत् ।। कर दें । तदनन्तर उसे १ पहर मन्दाग्नि पर तच्चूर्ण पञ्चपालिकं मरिचानां पलद्वयम् ॥ पका और स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पलैकं मृच्छितं मूतमेकीकृत्य तु भक्षयेत् । पीस लें । निष्कैकं सुप्तिकुष्ठातः स्वर्णक्षीरीरसो ह्ययम् ॥ । मात्रा-३ रनी। २५ तोले स्वर्णक्षीरीकी जड़को १ घड़ा तक में पकावें । जब तक सूख जाय तो उसे इसे शहदके साथ सेवन करनेसे क्षयरोग निकालकर दूधके घड़ेमें पकावें । जब दूध भी जल अवश्य नष्ट हो जाता है। जाय तो स्वर्णक्षीरी मूलको निकाल कर धा डालें __( व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती।) और चूर्ण कर लें । अब २५ तोले यह चूर्ण, १० (८३२८) स्वर्णपर्पटी तोले काली मिर्च और ५ तोले मूञ्छित पारद ले कर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। (वृ. यो. त.। तं. ७६ ; वृ. नि. र. ; यो. मात्रा-१ निष्क ( ३॥ माशे।) र. । ग्रहण्य. ; र. रा. सु. ; भै. र. ; रसे. सा. इसके सेवनसे सुप्तिकुष्ठका नाश होता है। सं. । ग्रहण्य. ; रं. चं. । ग्रहण्य. , राजयक्ष्मा.; (८३२७) स्वर्णपत्ररसः वृ. नि. र. । क्षय. ; वृ. यो. त. । त. ६७ ; यो. (र. प्र. सु. । अ. ८) र. । राजयक्ष्मा.) नाग मृतं गन्धकं वत्सनाभं शुद्धसूतं पलमितं तुयशस्वर्णसंयुतम् । रसैर्मर्य कन्यकाया दिनैकम् । मर्दयेनिम्बुनीरेण यावदेकत्वमाप्नुयात् ॥ गोलं कृत्वा निक्षिपेद्भाण्डमध्ये प्रक्षाल्योष्णाम्बुना पश्चात्पलमात्रे तु गन्धके। सम्छायं वै श्रावकेनापि सम्यक् ॥ द्रुते लोहमये पात्रे बादरानलयोगतः ॥ For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि प्रक्षिप्य चालयेल्लोखां मन्द लोहशलाकया। इसके सेवनसे ग्रहणी, शोष, क्षय, कास, श्वास सतः पाकं विदित्वा तु रम्भापत्र शनैः क्षिपेत् ॥ | प्रमेह, शूल, अतिसार और पाण्डुका नाश होता गोमयस्थे तदुपरि रम्भापत्रेण यन्त्रयेत् । तथा बल, वी और अग्निको शोघ्र हो वृद्धि हो शीतं तच्चूर्णितं गुजाक्रमद्धं निषेवयेत् ॥ जाती है ।* माषमात्रं भवेद्यावत्ततो मात्रां न वधयेत् ।। (८३२९) स्वर्णपर्पटोरसः सक्षौद्रेणोषणेनैव लेहयेद्भिषगुत्तमः ॥ (र. रा. सु. । कासा.) ग्रहणी हन्ति शोषं च मुवर्णरसपर्पटी। शुद्धं मृतं भवेत्कर्ष गन्धकं द्विगुणं तथा । सघोषलकरी शुक्रवर्धिनी वह्निदीपनी ॥ भस्महाटक मृतांशं त्रयं खल्वे विमर्दयेत् ॥ क्षयकासश्वासमेहशूलातीसारपाण्डुनुत् ॥ कजलाभं लोहपात्रे कदल्याद्रावभावयेत् । ___ शुद्ध पारद ५ तोले और सोनेके वर्क १।। ऊर्ध्वाधो गोमयं दत्त्वा हेमपर्पटिका रसः ॥ तोला ले कर पारेमें १-१ वर्क डाल कर नीबूके | कासं क्षय सकृच्छं च मूत्रघातं तथाश्मरीम् । रसके साथ खरल करें । जब दोनों मिल जावें तो सिद्धा पर्पटिका ख्याता सर्वरोगविनाशनी ॥ गर्म पानीसे धो डालें । तदनन्तर लोह पात्रमें (घी | रसायिनी त्वियं श्रेष्ठा शिशूनाश्च गदापहा ।। पोत कर) ५ तोले शुद्ध गंधक डाल कर बेरीके | शुद्ध पारद श तोला, शुद्ध गंधक २॥ तोले कोयलों पर रखें । जब गंधक पिघल जाय तो और स्वर्ण भस्म ११ तोला ले कर तीनोंको एकत्र उसमें उपरोक्त स्वर्णमिश्रित पारद डाल कर लो मिला कर खरल करें जब कजली हो जाय तो हेकी सलाईसे अच्छी तरह चलावें। जब पाक उसे लोहपात्रमें पिघला कर गायके गोबर पर बिछे तैयार हो जाय तो उसे गायके गोबर पर बिछे हुवे हुवे केलेके पत्ते पर फैला दें और उसके ऊपर केले के पत्ते पर फैला कर उसके ऊपर पुनः केलेका दूसरा पत्ता रख कर उसे गोबरसे ढक दें । जब पत्ता ढक दें और गोबरसे दबा दें। जब शीतल हो शीतल हो जाय तो निकाल कर पीस लें। जाय तो पीसकर रखें। सेवन विधि-प्रथम दिन १ रत्ती पर्पटी इसके सेवनसे कास, क्षय, मूत्रकृच्छ्, मूत्राकाली मिर्चके चूर्ण और शहदके साथ खिलावें।। धात और अश्मरीका नाश होता है। यह पर्पटी | बालरोग-नाशक तथा रसायन है। दूसरे दिन इसी अनुपानके साथ दो रत्ती पर्पटी | दें। इसी प्रकार प्रतिदिन १-१ रत्ती पर्पटी *पाठान्तरके अनुसार पारद स्वर्णसे आठ बढ़ाते रहें। | गुना है और पित्तज रोगोंमें खांडके साथ, वातज . जब १ माषा (११ माशा-१० रत्ती) रोगोंमें बंसलोचनके साथ एवं कफज रोगों में हो जाय तब प्रतिदिन १-१ रत्ती घटाना | वंसलोचन, पीपल और शहदके साथ देना शुरु करें। लिखा है। For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः (८३३०) स्वर्णभूपतिरसः मिला कर सबको हंसपदीके रसमें एक दिन खरल ( र. चं. , वृ. नि. र. ; २. रा. सु. ; यो. र. । करें और उसकी गोलियां बना कर सुखा लें । राजयक्ष्मा.) तत्पश्चात् उन गोलियोंको कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर कर (१ दिन ) बालुकाशुद्धं मूतं समं गन्धं मृतशुल्ब तयोः समम् । अभ्रलोहकयोर्भस्म कान्तभस्म सुवर्णजम् ।। यन्त्रमें मन्दाग्नि पर पकावें । तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर निकाल कर पीस लें । रजतं च विषं सम्यक् पृथक् मृतसमं भवेत् । हंसपादीरसैमध दिनमेकं वटीकृतम् ॥ मात्रा---४ रत्ती। काचकूप्यां विनिक्षिप्य मृदा संलेपयेदहिः । (व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती । ) शुष्का सा वालुकायन्त्रे शनैर्मह मिना पचेत् ॥ इसे अदरक के रस और पीपलके चूर्णके साथ चतुर्गुअमित देयमादकद्रवपिप्पली । सेवन करना चाहिये। इसके सेवनसे त्रिदोषज क्षय, क्षयं त्रिदोषज हन्ति सन्निपातांस्त्रयोदश ॥ १३ प्रकारके सन्निपात, आमवात, धनुर्वात, श्रृंख लावात, आढयवात, पंगुता, कफवात, अग्निमांथ, आमवातं धनुर्वात शृङ्खलावातमेव च । कटिवात, शूल, गुल्म, उदावर्त, दुस्तर ग्रहणी, आढयवातं पङ्गुवातं कफवाताग्निमांद्यनुत् ॥ | प्रमेह, उदर रोग, अश्मरी, मूत्राघात, भगंदर, कुष्ठ, कटिवातं सर्वशूलं नाशयेन्नात्र संशयः । विद्रधि, श्वास, कास, अजीर्ण, आठ प्रकारके गुल्मशूलमुदावर्त ग्रहणीमतिदुस्तराम् ॥ । | ज्वर, कामला, पाण्डु, शिरोरोग और अनुपान प्रमेहमुदरं सर्वामश्मरी मूत्रविग्रहम् । विशेषके साथ देनेसे अन्य समस्त रोग नष्ट भगन्दरं सर्वकुष्ठं विद्रधी महतीं तथा ।। होते हैं। श्वासकासमजीणे च ज्वरमष्टविधं तथा।। जिस प्रकार सूर्यके सम्मुख अंधकार नहीं रह कामलां पाण्डुरोगं च शिरोरोगं च नाशयेत् ॥ सकता इसी प्रकार इस रसके सम्मुख रोग नहीं अनुपानविशेषेण सर्वरोगान् विनाशयेत् । टहर सकते । यथा सूर्योदये नश्येत्तमः सर्वगतं तथा ॥ (८३३१) स्वर्णमाक्षिकद्रावणम् सर्वरोगविनाशाय सर्वेषां स्वर्णभूपतिः ॥ (र. र. स. पू. अ. २) शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक १ भाग, . एरण्डोत्थेन तैलेन गुना क्षौद्रं च टङ्कणम् । ताम्र भरम २ भाग तथा अभ्रक भस्म, लोह भस्म, | मर्दिनं तस्य वापेन सत्वं माक्षिक द्रवेत् ॥ कान्तलोहभस्म, स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म और चौंटली (गुंजा), शहद और सुहागा समान शुद्ध बछनाग १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गंधक भाग ले कर, सबको एकत्र मिला कर अरण्डीके की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे । तेलमें खरल करें। ५२ For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - स्वर्ण माक्षिकके सत्वको अग्नि पर तपाकर टिकिया बना कर सुखावें और शरादरम्मुट में बन्द उसमें उपराक्त मिश्रण डालनेसे वह द्रवित (पतला) करके गजपुट में फूंक दें। इस विधिसे स्वर्णमाक्षिक हो जाता है। अवश्य मर जाती है। (८३३२) स्वर्णमाक्षिकमारणम् (१) (८३३४) स्वर्णमाक्षिकयोगः ( आ. वे. प्र. । अ. १२ ; र. मं. : यो. र. : वृ. ( शा. ध. । खं. २ अ. १२) यो. त. । तं. ४१ : रसे. सा. सं.) काञ्चनारत्ववोत्थेन क्वाथेन परिशीलितम् । माक्षिकस्य चतुर्थीशं दत्त्वा गन्धं विपर्दयेत । ताप्यमन्तः प्रविष्टान्तु बहिः कुर्यान्ममूरिकाम् ॥ उरुबूकस्य तेलेन ततः कार्याऽस्य चक्रिका ।। कचनारकी छालके काथके साथ " स्वर्ण शरावसम्पुटे धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च । माक्षिक भस्म ” देनेसे ( निकल कर ) भातर धान्यस्य तुषधिो दत्वा शीतं समुद्धरेत् ॥ घुसी हुई मसूरिका बाहर निकल आता है। सिन्दूराभं भवेद्भस्म माक्षिकस्य न संशयः ॥ (मात्रा-१-२ रत्ती ।) ४ भाग स्वर्ण माक्षिकके चूर्णमें १ भाग शुद् (८३३५) स्वर्णमाक्षिकरसायनम् गंधक मिला कर अरण्डीके तेल में खरल करें और । ( र. र. स. । पू. अ. २) टिकिया बना कर उन्हें, नीचे ऊपर धानकी भूमी रख कर शराव-सम्पुट में बन्द करें तथा गजपुटमें माक्षीकसत्वं च रसेन पिष्ट कृत्वा विलीने च बलि निधाय । सम्मिथ्य सम्मर्थ च खल्बमध्ये इस विधिसे स्वर्णमाक्षिककी सिन्दुरके समान निक्षिप्य सत्वं द्रुतिमभ्रकस्य ॥ लाल भस्म हो जाती है । विधाय गोलं लवणाख्ययन्त्र (८३३३) स्वर्णमाक्षिकमारणम् (२) पचेदिनार्ध मृदुवह्निना च । ( आ. वे. प्र. । अ. १२; शा. ध. : वृ. यो. स्वतः सुशोतं परिचूर्ण्य सम्यत. । त. ४१ ; यो. चि. म. | अ. ७ ; यो.. . गल्लोनिमतं व्योपविडङ्गयुक्तम् ।। - र. ; भा. प्र. ; र. चं.) संसवित क्षाद्रचुत निहन्ति . - जरां सरोगामपमृत्युमेव । कुलत्यस्य कपायेण घृष्ट्वा तैलेन वा पुटे । :साध्यरोगानपि सप्तवासरअजामूत्रेण वा नूनं म्रियते स्वर्णमाक्षिकम् ॥ तेन तुल्योस्ति सुधारसोपि ॥ स्वर्णमाक्षिकके चूर्णको कुलथीके काथ या स्वर्णमाक्षिकसत्व और शुद्ध पारद १-१ (अरण्डीके) तेल अथवा बकरीके मूत्रमें खरल करके | भाग ले कर दोनोंको एकत्र ।मला कर खरल करें। For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् पञ्चमो भागः ४११ जब दोनों मिल जाएं तो उसमें १ भाग शुद माझीकधातुः सकलाम यन्नः गंधक मिला कर खग्ल करें और कजली हो जाने प्राणो रसेन्द्रस्य परं हि वृष्यः । पर उसमें १ भाग अभ्रक सबको दुति मिलाकर ' दुर्मेललोहद्वयमेलनश्व खरल करें और गोला बना कर (शरावसम्पुटमें गुणोत्तरः सर्वरसायनाय्यः ॥ बन्द करके ) उसे १२ घटे लवणयन्त्रमें मन्दाग्नि एरण्डतैललगाम्बुमिद्धं सिद्धयति माक्षिकम् । पर एकावें और फिर स्वांग-शोतल होने पर सिद्धं वा कदलीकन्दतोयेन घटिकाद्वयम् ॥ औषधको निकाल कर पीस लें। तप्तं क्षिप्तं वराक्वाथे शुद्धिमायाति माक्षिकम् ॥ मात्रा-३ रत्ती । ( व्यवहारिक मात्रा-- सुवर्णमाक्षिक सुमेरु पर्वतमें होने वाले १ रत्ती) । सोने के रसके योगले उत्पन्न होती है और ताप्ती इसे सांठ, मिर्च. पीपल और बायबिडंगके नदी के निकट, चीन देश तथा यवन देश (अस्व) ( १॥ माशा ) चूर्णमें मिला कर शहद के साथ में पाई जाती है । जय वैशाख मासमें सूर्य सेवन करनेसे जरा, रोग और अपमृत्युका नाश ! खूब तपता है तब (पर्वत में ) स्वर्णमाक्षिक होता है। यह दुःसाध्य रोगोंको भी सात दिन में ! दिखलाई देती है । नष्ट कर देता है । यह रस सुवासे भी अधिक जो स्वर्णमाक्षिक स्वर्णके समान चमकवाली गुणकारी है। होती है वह मधुर तथा जो चांदी के समान चमक वाली होती है वह अम्ल होती है। (८३३६) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् (१) । स्वर्णमाक्षिक (साधारणतः) कुछ कषैली (र. र. स.। पू. अ. २) और मधुर होती है तथा शीतल, पाकमें कटु एवं सुवर्णशैलप्रभवो विष्णुना काश्चनो रसः। ला है। तापी करातचीनेषु यवनेषु च निर्मितः ।। इसे सेवन करने वाले पर जरा (वृद्धावस्था), ताप्यः मुर्गाशु सन्तप्तो माधवे मासि दृश्यते । व्याधि और विषका प्रभाव नहीं पड़ता। मधुरः काश्चनाभासः साम्लो रजतसन्निभः ॥ माशिक दो प्रकारकी होती है, एक स्वर्णकिश्चित्कषायमधुरः शीतः पाके कटुर्लघुः । माक्षिक और दूसरी तार माक्षिक । जो स्वर्गतत्सेवनाज राव्याधिषिपैर्न परिभूयते ॥ माक्षिक कान्यकुब्ज (कनौज) में उत्पन्न होती है माक्षिको द्विविधो हेमपाक्षिकस्तारमाक्षिकः । उसमें सोने की सो चमक पाई जाती है, और जो तत्राद्यं माक्षिकं कान्यकुब्जोत्थं स्वर्णसन्निभम् ।। तापी नदी के किनारे हाती है उसमें स्वर्णकी सी चमक तातोतीरसम्भूतं पञ्चवर्ण सुवर्ण रत् । तथा पांच रंग दिखलाई देते हैं। पापाणबहलः प्रोक्तस्ताराख्योल्पगुणात्मकः॥ . जिस स्वर्णमाक्षिकमें पत्थर अधिक होता है For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४१२ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः उसे तारमाक्षिक कहते हैं, उसमें दूसरीकी अपेक्षा अल्प गुण होते हैं । स्वर्णमाक्षिक सर्व रोगनाशक, पारदकी प्राण स्वरूप, अत्यन्त वृष्य, दो अनमेल धातुओंको मिला कर एक करदेने वाली और श्रेष्ठ रसायन औषध है 1 स्वर्णमाक्षिक के चूर्णको अण्डीके तेल और बिजौरेके रस में पकाने से अथवा केलेकी जड़के रसमें २ घड़ी पकाने से अथवा तपा तपा कर (७ बार) त्रिफला काथमें बुझाने से वह शुद्ध हो जाती है । (८३३७) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् (२) ( यो. चि. म. । अ. ७ ) माक्षिकं स्वेदयेत्पूर्व कुलत्थ क्वाथ योगतः । अथवा नरमूत्रेण दोलायन्त्रे विशुध्यति ॥ स्वर्णमाक्षिकके चूर्ण को कपड़ेका पोटली में बांधकर दोलायन्त्रविधिसं कुलथीके क्वाथ या मनुष्य के मूत्र में स्वेदित करनेसे वह शुद्ध हो जाती है। (८३३८) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् (३) : ( आ. वे. प्र. अ. १२ यो. चि. म. । अ. ७; र. मं. ; भा. प्र.; यो. र., रसे. सा. सं.; वृ. यो त । त. ४१ ; शा. ध. ) माक्षिकस्य त्रयो भागा भागेकं सैन्धवस्य च । मातुलुङ्गवैर्वाऽथ जम्बीरस्य द्रवैः पचेत् ॥ चालयेल्लोहजे पात्रे यावत्या लोहितम् । भवेत्तस्तु संशुद्धं स्वर्णमाक्षिकमत्र तु ॥ ३ भाग स्वर्णमाक्षिके चूर्ण में १ भाग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि सेंधानमक का चूर्ण मिला कर लोहे की कढ़ाई में डाल कर तेज अग्नि पर पकायें और थोड़ा थोड़ा मातुलुंग या बिजौरेका रस डालते हुवे लोहे की करछी से चलाते रहें । जब लोह पात्र ( और स्वर्ण माक्षिक) खूब लाल हो जाय तो अनि बन्द कर दें । इस विधि से स्वर्णमाक्षिक शुद्ध हो जाती है। 1 ( बार बार पानी से धो कर सेवानमक निकाल देना चाहिये । ) (८३३९) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् ( ४ ) (रसे. सा. सं.) स्वर्णमाक्षिकचूर्णन्तु वस्त्रे बद्ध्वा विपाचयेत् । कालमारिषशा लिक्वाथे दोलाविधानतः || तदधः पतितं शस्तमेवं शुध्यति माक्षिकम् || स्वर्ण- माक्षिक के बारीक चूर्णको कपड़ेकी पोटली में बांधकर दोलायन्त्र विधि कालमारिष (जल चौलाई) के क्वाथ में स्वेदित करें । जब सब चूर्ण कपड़े से छान कर क्वाथ में गिर जाय तो उसे इसी प्रकार पोटली में बांध कर शालिञ्चशाक के काथमें स्वेदित करें । जब सब चूर्ण कपडेसे छन कर काथमें गिर जाय तो उसे सुखा लें। इस प्रकार स्वर्ण माक्षिकशुद्ध हो जाती है। 1 (८३४०) स्वर्णमाक्षिकशोधनमारणम् (र. प्र. सु. अ. ५ ) मुत्रे तक्रे च कौलत्थे मर्दितं शुष्कमेव च । गन्धाश्मवीजपूराभ्यां पिष्टं तच्छ्रावसम्पुटे || पञ्चवाराहपुटकर्दग्धं मृतिमवाप्नुयात् ॥ For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ४१३ स्वर्णमाक्षिकके चूर्णको क्रमशः गोमूत्र, तक ! (८३४१) स्वर्णमाक्षिकसत्वपातनम् (१) और कुलथीके क्वाथमें घोट घोट कर सुखा लें (र. प्र. सु.। अ. ५) फिर उसमें (चतुर्थीश) शुद्ध गंधक मिलाकर नीबूके लोहपात्रे सुसंदिग्धं लोहदण्डेन घर्षितम् । रस में खरल करें और टिकिया बना कर सुखा लें यदा रक्तं धातुनिभं जायते निम्बुकद्रवैः ।। तथा शरावसम्पुट में बन्द करके वराहपुट में घर्षयेत्रिगुणं मूतं मुक्त्वा सङ्घर्षणं कुरु । फूंक दें । इसी प्रकार ५ पुट देनेसे भस्म हो दिनैकं घर्ष येत्वा तु दृद्धवस्त्रेण गालयेत् ॥ जाती है । * वस्त्रस्था पिष्टिका लग्ना वधः पतति पारदः । *अशुद्ध स्वर्णमाक्षिककेदोष अनेनैव प्रकारेण द्वित्रिवारेण गालयेत् ॥ मन्दानलत्वं बलहानिमुना तत्पिष्टी गोलकं ग्राह्यं यन्त्रे डमरुके न्यसेत् । विष्टम्भितां नेत्रगदान सकुष्ठान् । प्रहरद्वयमानं चेदग्निं प्रज्वालयेदधः ॥ मालां विधत्तेऽपि च गण्डपूर्वी इन्द्रगोपसमं सत्वमधःस्थं ग्राहयेत्सुधीः । शुध्यादिहीनं खलु माक्षिकं तु ॥ अनेनैव विधानेन ताप्यसत्वं समाहरेत् ॥ ( आ. वे. प्र.) टङ्कणेन समायुक्तं द्रावितं मूषया यदा । अशुद्ध माक्षिकं कुर्यादान्ध्यं कुष्ठं क्षयं कृमीन् । तदा ताम्रमभं सत्वं जायते नात्र संशयः ॥ शोधनीयं प्रयत्नेन तस्मात्कनकमाक्षिकम् ।। देहलोहकरं सम्यग्देवीशास्त्रेण भाषितम् ॥ स्वर्णवर्ण गुरु स्निग्धमीपनीलच्छविच्छटम् । स्वर्णमाक्षिकके चूर्णको लोहपात्रमें डालकर कषे कनकवद् घृष्टं तद्वरं हेममाक्षिकम् ।। आगार रक्खें और लोहदण्डसे रगड़ते रहें । जब माक्षिकं तिक्तमधुरं मेहार्शः क्षयकुचनुत् ।। वह लाल हो जाय तो नीबूका रस डाल कर धोटें कफपित्तहरं शीत योगवाहि रसायनम् || | और उसमें स्वर्णमाक्षिकसे ३ गुना पारद मिला (वृ. यो. त.) कर १ दिन घोट कर मज़बूत कपड़ेसे छान लें । छाननेसे कपड़ेमें पिष्टी रह जायगी और नीचे पारद अशुद्ध स्वर्ण माक्षिक सेवन करनेसे अग्निमांद्य, | निकलेगा। इसी प्रकार २-३ बार छान लें। बलहास, विष्टम्भ (कब्ज), नेत्ररोग, कुष्ट, गण्ड तदनन्तर उस पिष्टीके गोलेको डमरुयन्त्रमें रख माला, अन्धता, क्षय और कृमि रोग उत्पन्न कर दो पहर अग्नि पर पकावें । तत्पश्चात् यन्त्रके होते हैं। सांगशील होने पर उसे खोलकर नीचे के पात्रजो स्वर्णमाक्षिक सोनेके समान रंगवाली भारी, स्निग्ध, और कुछ नोलापन लिये हो तथा र्ण माक्षिक तिक्त, मधुर, प्रमेहनाशक, जो कसौटी पर घिसनेसे स्वर्ण के समान दिख ई है। अर्शहर तथा क्षय, कुष्ट, कफ और पित्तको नष्ट वह उत्तम होती है। करने वाली; शीतल एवं योगदादी रसायन है। For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - मेंसे बार बहूटी के समान लाल रंगके सत्वको स्वर्णमाक्षिकको शहद, अरण्डीके तेल, गो. निकाल लें। मूत्र, घी और केलेकी जड़के रसकी अनेक भावनाएं इस सबमें सुहागा मिलाकर मूषामें रखकर दे कर मूषामें रख कर ध्मानेते उसका सत्य निकल ध्मानेसे वह ताम्रके समान हो जाता है। आता है। स्वर्ण माक्षिक-सत्व ताम्रके समान होता यह सत्व देह को लोहके समान दृढ़ कर देता है, उसका रंग चौंटली के समान लाल होता है और है । यह विधि " देवी शास्त्र" में वर्णित है। वह मृदु होता है तथा शीव पिघल जाता है । । स्वर्णमाक्षिक सत्य शीतल और देहको दृढ़ (८३४२) स्वर्णमाक्षिकसत्वपातनम् (२) | करने वाला है । ( र. र. स. । पू. अ. २) (८३४४) स्वर्णमाक्षिकसत्वपातनम् (४) त्रिशाशनागर्सयुक्तं क्षाररम्लेश्च मादतम् । ( आ. वे. प्र. ! अ. १२ ; र. चं. ) मातं प्रकटमूपा गं सत्वं मुश्चति माक्षिकम् ॥ सप्तवार परिद्राव्य क्षिप्तं निर्गुण्डिकादवे । | एरण्डोत्थेन तैलेन गुञ्जा क्षौद्रं च टङ्कणम् । माक्षिकसत्व सम्मिश्रं नागं नश्यति निश्चितम् ॥ मर्दितं तस्य वापेन सत्वं माक्षिकजं भवेत् ।। स्वर्णनाक्षिकके चूर्ण में तीसवां भाग सीसा ___गुञ्जा (चौंटली), शहद और सुहागा समान मिलाकर क्षार और अम्लद्रों के साथ खरल करें। | भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर अरण्डीके तदनन्तर उसे खुली हुई मू में रख कर ध्मानसे तेलके साथ खरल करें। स्वर्णमाक्षिकको तपाकर उसमें इस मिश्रणका प्रक्षेप देनेसे स्वर्णमाक्षिकका उसका सत्व निकल आता है। सत्व निकल आता है। इस सत्वको पिघला पिघला कर सात बार संभालुके गसमें वुझानेसे उसमें मिला हुवा सीसा । (८३४५) स्वर्णमाक्षिकादिचूर्णम् नष्ट हो जाता है। । (व. यो. त. । त. १४७; व. से. । वाजीकरणा.) (८३४३) स्वर्णमाक्षिकसत्वपातनम् (३) माक्षीकधातुगदपारदलोहचूर्ण (र. र. स. । पू. अ. २) पथ्याशिलाजतुविडङ्गवृतानि योऽद्यात् । क्षौद्रगन्धर्वतैलाभ्यां गोमत्रेण घतेन च । एकोनविंशति दिनानि गदार्तितोऽपि कदल कन्दसारेण भावितं माक्षिकं मुहुः ॥ साशीतिकोऽपि रमत्यबलां युवे ।। भूषायां मुञ्चति तं स वं शुल्बनिभं मृदु।।। स्वर्णमाक्षिक भस्म, कूर, पारद भम्म, लोह गुनादीजसमच्छायं दूनद्रावं च शील ॥ भस्म, ह, शिलानौत और बायबिडंग सनान तापसत्वं विशुद्धं तदेहलोहकरं परम् ।। भाग ले कर चूर्ण बनावें। For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः ४१५ इसे २१ दिन तक घृतके साथ सेवन करने- नीचे ऊपर उसके बराबर गंधकका चूर्ण विछाकर, से रोगी और ८० वर्षका वृद्ध पुरुष भी युवाके | शरावसम्पुट में बन्द करें । तत्पश्चात् उसे २० समान स्त्री--समागम करने में समर्थ हो जाता है। जंगली उपों में फूंक दें। ( मात्रा-२-३ रस्ती ) इसी प्रकार (गंधकके बीचमें रख कर ) (८३४६) स्वर्णमाक्षिकादियोगः । | सात पुट देनेसे निरुत्थ भस्म हो जाती है । . (वृ. नि. र. । क्षय. ) (८३४८) स्वर्णमारणम् (२) मधुताप्यविडङ्गाश्मजतु लोहं घृतं मतम् । (र. चं. ; र. प्र. सु.। अ. ४) हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमानं हिताशिनः ॥ हेम्नःमूक्ष्मदलानि भूर्जसदृशान्यादाय संलेप्य वै । ___स्वर्ण माक्षिक भस्म, बायबिडंग, शिलाजीत | वज्रीदुग्धकहिङ्गहिङ्गलसमैरेकत्र पिष्टीकृतैः ।। और लोहभस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र सत्यं सम्पुटके निधाय दशभिश्चैवं पुटै कुकुटैः। मिला कर सेवन करनेसे उग्र राजयक्ष्मा भी नष्ट हो पाच्य हेम च रक्तगैरिकसमं समायते निश्चितम् ॥ जाता है। सोनेके, भोजपत्रके समान बारीक पत्रों पर ( मात्रा-२ रत्ती) समान भाग मिलित थूहरका दूध, हींग और अनुपान-घी और शहद. शिंगरफका लेप करें ( यह मिश्रण स्वर्णके बराबर (८३४७) स्वर्णमारणम् (१) तथा अच्छी तरह घुटा हुवा होना चाहिये । ) तदनन्तर उन्हें शराबसम्पुट में बन्द करके कुक्कुट ( भा. प्र । पृ. खं. १ ; वृ. यो. त. । त. ४१; पुटमें फंकें । रसे. सा. सं. ; यो. र.; शा. ध.) इस प्रकार दस पुट देनेसे सोनेकी, गेरूके काश्चने गलिते नाग पोडशांशेन निक्षिपेत् । समान लाल रंगकी भस्म हो जाती है । चूर्णयित्वा तथाम्लेन घृष्ट्वा कृत्वा तु गोलकम् ॥ । (८३ ४९) स्वर्णमारणम् (३) गोलकेन समं गन्धं दत्त्वा चैवाधरोत्तरम् । (वृ. यो. त. । त. ४१ ; आ. वे. प्र. । अ. । शरावसम्पुटे धृत्वा पुटे द्विंशद्वनोपलैः ।। ११ ; र. रा. सु.) एवं सप्तपुरैर्हम निरुत्थं भस्म जायते ॥ रसस्य भस्मना वाऽथ रसेनाऽऽलिप्य तद्दलम्। स्वर्णको गलाकर उसमें उसका १६ वां भाग हिलिसिन्दरशिलासाम्येन मेलयेत् ॥ सीसार मिलाकर खरल करें और फिर नीबूके । सम्पर्य काश्चनद्रावैर्दिनं कृत्वाऽथ गोलकम् । रसमें खरल के गोला बना लें । इस गोलेको, तंभाण्डस्य तले दत्त्वा भस्मना पूरयेवम् ।। xआ. वे. प्र. के मतानुसार स्वर्णके बराबर अग्नि प्रज्वालयेदगाढं द्विनिशं स्वाङ्गशीतलम् । पारद भी डालना चाहिये । | उद्धृत्य सावशेष चेत्पुनर्देयं पुटद्वयम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः . [ सकारादि अनेन विधिना स्वर्ण निरुत्थं जायते मृतम् ॥ और ज्वरको नष्ट करने वाली है । इसमें मधुर तिक्त स्वर्ण शीतं पवित्र क्षयवमि | और कषाय रस होता है । यह वृष्य, लघु, सर कसनश्वासमेहासपित्त (सारक-दोषों को बाहर निकालने वाला ), हण देण्यश्वेडक्षतास्रप्रदर एवं मेधा, अग्नि और कान्तिको बढ़ाने वाला है। गदहरं स्वादुतिक्तं कषायम् । नेत्रों के लिये हितकारी है !x वृष्यं मेधाग्नि कान्तिप्रद (८३५०) स्वर्णमारण (४) मगुरुसरं काहारि त्रिदोषो ( भा. प्र. । प. खं. १ ; आ. वे. प्र. । अ. न्मादापस्मार शुलज्वरजयि वपुपो वृंहणं नेत्रपथ्यम् । ११ ; शा. ध. ) काञ्चनाररसैघृष्टा समसूतकगन्धयोः । स्वर्ण के बारीक पत्रोंपर पारद भस्म या पार कजली हेमपत्राणि लेपये समया तया ॥ दका लेप करें और फिर होग, हिंगुल, सिन्दूर। काञ्चनारत्वचः कल्कैमूषायुग्मं प्रकल्पयेत् । तथा मनसिल समान भाग ले कर सबको एकत्र । धृत्वा तत्सम्पुटे गोलं मृन्मूषासम्पुटे च तत् ॥ मिलाकर कचनारको छालके रसमें खरल करें तथा विधाय सन्धिरोधं च कृत्वा संशोष्य गोलकम । ( स्वर्णके बराबर ) यह मिश्रण उसमें मिला कर । वह्नि खरतरं कुर्यादेवं दत्त्वा पुट त्रयम् ।। कचनारकी छालके रसके साथ १ दिन खरल करें । निरुत्थं जायते भस्म सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ तदनन्तर उसका एक गोला बना कर उसे एक समान भाग शुद्ध पारद और गंधककी कज्जली मज़बूत और कपड़ेमिट्टी की हुई हांडीमें रख कर । बना कर उसे कचनारकी छालके रसमें खरल करें ( उसे शरावसे ढक कर ) हांडीमें मुंह तक अरने और १ भाग स्वर्णपत्रों पर १ भाग इस कज्जलीउपलोंकी भस्म दबा दबा कर भर दें और उसे का लेप कर दें। तत्पश्चात् कचनारकी छाल को उल्हे पर चढ़ा कर दो दिन तीवाग्नि पर पकावें । बारीक पीस कर उसकी दो मूपा बनावें और उनमें तदनन्तर स्वांगशीलन होने पर गोलेको निकाल उपरोक्त स्वर्णपत्रों को बन्द कर दें । इस कर देखें, यदि स्वर्ण कचा हो तो उपरोक्त विधिसे मूषाको मिट्टीके शराव-सम्पुट में बन्द करके उसके २ पुट और लगा दें। जोड़को अच्छी तरह बन्द कर दें और उस पर इस विधिसे स्वर्ण की निरुत्थ भस्म हो ४सर्वोषधिप्रयोगेग व्याधयो न गता यदा। जाती है। कर्म भपञ्चभिश्चापि स्वर्ण तेषु योजयेत् ॥ स्वर्ण भस्म शीतल, पवित्र तथा क्षय, वमन, जो व्याधियां पञ्चकर्म तथा अन्य समस्त कास, श्वास, प्रमेह, रक्तपित, क्षीणता, विष, धाव, औषधोंसे नहीं मिटतीं वे स्वर्णसे नष्ट हो जाती हैं। रक्त प्रदर, कृषता, त्रिदोष, उन्माद, अपस्मार, शूल | (र. रा. सु.) For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पशमो मागः कपडमिट्टी करके मुम्बा लें। इसे नीवाग्निमें पकायें। शुद मनसिल और सिन्दूर वरावर बराकर इस प्रकार ३ पुट देनेसे स्वर्णको निरुत्थ भस्म ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर आकके दूधकी हो जाती है। ७ भावना दें। हरेक भावनाके पश्चात् अच्छी तरह ' (८३५१) स्वर्णमारणम् (२) सुखाने रहना चाहिये। ( मा. प्र. पू. सं. १ : आ. वे. प्र.। अ. ११) तदनन्तर १ माग स्वर्णको गला कर उसमें काश्चनारप्रकारेण लाली इन्ति कानमा १ भाग उपरोक्त मिश्रण डाल दें और तीवाग्नि पर ज्वालामुखी तथा हन्याद्ययान्ति मनःशिला रख कर इतना धमाव कि वह मनसिल आदिका । मिश्रण अदृश्य हो जाय । इसो प्रकार यह मिश्रण जिस प्रकार कचनारकी छाल से स्वर्ण भस्म । ३ बार मिला कर मानेसे स्वर्णकी भस्म हो मनाई जाती है ( देखो प्र. सं. ८३५०) उसी : प्रकार लांगली और जाननामुम्बासे भी बनाई __ स्वर्ण, शीतल, वृष्य, बलवर्द्धक, भारी, रसा__स्वर्मा, मनसिलके बोगसे भी मर जाता है। पिच्छिल, पवित्र, हग, नेत्रोंके लिये हित( मनसिल को नीबूके रसमें घोट कर स्वर्ण पत्रोंपरा , मेवा वर्द्धक, बुद्धि वर्दक, स्मृति वर्दक, लेप करें और शाव-सम्पुटमें क्द करके लघु .. लिये हितकारी, आयु वईक, कान्तिकारक, पुरमें फूक दें।) | बागी शाधक, तथा स्थावर और जंगम विष ___ (८३५२) स्वर्णमारणम् (६) नाशक एवं भय, उन्माद, त्रिदोष, चर और शाषको नष्ट करने वाला है । उसमें मधुर, ( मा. प्र. । . बं. १ : आ. के. प्र.। अ. ' तिक्त और कपाय रस होता है । पाकमें ११ : र. ग. मु. : शा. घ.) स्वादु है। भिलामिन्दुग्योश्चून समयोरर्कदुग्यकैः ।। समया भावनां दद्याच्छोपयेच पुनः पुनः॥ (८३५३) स्वर्णमारणम् (७) ततस्तु गलिते इम्नि कल्कोऽयं दीयते समः। (र. प्र. मु. । अ. ४) पुनर्धमेदतितरां यथा कल्को बिलीयते ॥ लोहपर्पटिका कई मृतं नृतं समांशकम् । एवं वेलावयं दद्याकलं हेममनिर्भवेत् । विदुने हेम्नि निक्षिप्त स्वर्ण भूतिप्रभं भवेत् ॥ मुवर्ण शीतलं वृष्यं बल्यं गुरु रसायनम् । तदस्म पूरतोयेन दरदन समन्वितम् । स्वादु तिनं च तुवरं पाके च सादु पिच्छिलम् । मईयेहिनमेकं तु सम्पुटे धारयेत्तनः ॥ पवित्रं इणं ने मेधाम्मृतिपनिषदम्॥ पुटिनं दशवारेण स्वर्ण सिन्दरसन्निभम् । इयमायुष्करं कानिवाग्विदिस्थिरत्वकृत। जायते नात्र सन्देहो रञ्जनं कुरुते ध्रुवम् ॥ विषद्वयक्षयोन्मादत्रिदोषचरशोपनिन् ।॥ दे लोहं च मनिमान मुचनो साधयेद्ध्वम् ।। ५३ For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि स्वर्णको पिघला कर उसमें उसके बराबर स्वर्ण-पत्र और सीसेकी भस्म समान भाग ले लोहपर्पटिकाबद्ध पारद भस्म डाल दें । इससे कर सीसा भस्मको नीबूके रेसमें खरल करके स्वर्ण भस्मके समान हो जायगा । तत्पश्चात् उसमें स्वर्ण-पत्रों पर लेप करें और उन्हें शराव सम्पुटमें शिंगरफ ( हिंगुल ) मिला कर बिजौ रके रसमें १ बन्द करके गजपुटमें फेंक दें। इस प्रकार ३ पुट दिन खरल करें और शरावसम्पुटमें बन्द करके देनेसे स्वर्णकी भस्म हो जाती है। (लघु) पुटमें फूंक दें । इसी प्रकार दस पुट देनेसे (८३५७) स्वर्णमारणम् (११) सिन्दूरके समान लाल भस्म हो जाती है । ( भा. प्र. । पू. खं. १ ; रसे. सा. सं.; र. चं.; (८३५४) स्वर्णमारणम् (८) वृ. यो. त.। त. ४१ ; शा. ध. ; आ. वे. (र. चं.) प्र.। अ, ११: रसे. चि. म. | अ.३६) स्वर्णाधं पारदं दत्वा कुर्यात्नेन पिष्टिकाम् ।। | स्वर्णाच द्विगुणं मूतमम्लेन सह मर्दयेत् । दत्वोर्धाधो नागचूर्ण पुटनान्म्रियते ध्रुवम् ॥ तद्गोलकसम गन्धं निदध्यादधरोसरम् ॥ २ भाग स्वर्णमें १ भाग पारद मिला कर अच्छी तरह खरल करें और उस पिष्टीको, ऊपर गोलकं च ततो रुन्ध्याच्छरावदृढसम्पुटे । नीचे सीसेका चूर्ण बिछा कर, शरावसम्पुट में त्रिंशद्वनोपलैर्दधात्पुटान्येवं चतुर्दश ॥ बन्द करें तथा (लघु) पुटमें फूक दें। इस प्रकार निरुत्थं जायते भस्म गन्धो देयः पुनः पुनः ।। (कई) पुट देनेसे स्वर्ण मर जाता है। १ भाग स्वर्ण-पत्र, २ भाग शुद्ध पारदx (८३५५) स्वर्णमारणम् (९) और ३ भाग शुद्ध गंधक ले कर प्रथम पारद और (रसे. सा. सं. ; र. रा. सु.) स्वर्णको पक्के खरल में डाल कर थोड़ा थोड़ा नीबूका माक्षिकं नागचूर्णश्च पिष्ट रर्करसेन च । रस डालते हुवे खरल करें और जब दानों अच्छी हेमपत्रं पुटेनैव म्रियते क्षणमात्रतः ॥ तरह मिल जाएं तो सबका एक गोला बना लें। स्वर्ण माक्षिक और सीमेका चूर्ण १-१ तदनन्तर एक मिट्टीकी प्यालेमें आधा गंधकका भाग ले कर दोनोंको आकके पत्तोंके रस ( या । चूर्ण बिछा कर उस पर उपरोक्त गोला रवखें और अर्क दुग्ध ) में खरल करें और फिर समान भाग उसके ऊपर शेष गंधकका चूर्ण डाल कर गोलेको स्वर्ण-पत्रों पर उसका लेप करके उन्हें शराव- उससे आच्छादित कर दें । तत्पश्चात् उस पर सम्पुटमें बन्द करके पुट लगा दें । इस विधिसे | दूसरा प्याला ढक कर सन्धिको बन्द करके सम्पुट शोघ ही स्वर्णकी भस्म हो जाती है। बनावें और उस पर ३-४ कपरमिट्टी दे कर सुखा (८३५६) स्वर्णमारणम् (१०). लें । इस सम्पुटको ३० बनकण्डोंकी आगमें फूंके। (यो. र.) इसी प्रकार बार बार गंधक डालकर १४ पुट देनेसे स्वर्णपत्रसमं नागभस्म निम्बूविलेपितम् ।। सोनेकी निरुत्थ यस्म हो जाती है। त्रिवारं वै गजपुटे सुवर्ण भस्मतां व्रजेत् ॥ xपाठान्तरके अनुसार पारद स्वर्ण के बराबर. For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४१९ (८३५८) स्वर्णमारणम् (१२) ४ भाग स्वर्ण-पत्रों पर १ भाग पारद ( यो. र. ; शा. घ. ; र. रा. सु.) । भस्मको नीबूके रस आदिमें खरल करके लेप करें पारावतमलैलिम्पेदथवा कुक्कुटोद्भवैः । और शराव-सम्पुट में बन्द करके पुट दें । इसी हेमपत्राणि तेषां च प्रदद्यादन्तरान्तरम् । प्रकार ( पारद भस्मके योगसे ) ८ पुट देनेसे गन्धचूर्ण समं धृत्वा शरावयुगसम्पुटे । स्वर्णकी भस्म हो जाती है। प्रदद्यात्कुक्कुटपुटं पञ्चभिगोमयोपलैः ॥ इसे २ रत्ती मात्रानुसार त्रिकुटेके चूर्ण और एवं नवपुटं दद्यादशमं च महापुटम् । घीके साथ सेवन करनेसे क्षय, अग्निमांद्य, श्वास, त्रिंशद्वनोपलैर्दयं जायते हेमभस्म तु ॥ | कास, अरुचि, पाण्डु, विषविकार, गरविष और ग्रहणी रोगादिका नाश तथा ओज और बलकी स्वर्णपत्रों पर कबूतर अथवा मुरगेकी विष्टा वृद्धि होती है। का ( पानीमें पीसकर ) लेप कर दें और फिर उन्हें नीचे ऊपर समान भाग गंधक दे कर शराव (८३६०) स्वर्णमारणम् (१४) सम्पुटमें बन्द करें और कुक्कुट पुटमें ५ बनकण्डों (र. र. स. । पू. अ. ५) ( अरने उपलों ) में फूंक दें। इसी प्रकार गंधक द्रुते विनिक्षिपेत्स्वर्णे लोहमानं मृतं रसम् । साथ ९ पुट दें और फिर दसर्वी पुट ३० उपलों विचूर्ण्य लुङ्गतोयेन दरदेन समन्वितम् ॥ (कण्डों) की दें। इस विधिसे स्वर्णकी भस्म हो जायते कुङ्कुमच्छायं स्वर्ण द्वादशभिः पुटैः॥ जाती है। १ भाग स्वर्णको पिघलाकर उसमें १ भाग ( १ तोला सोनेके वों के लिये ५ कण्डे | पारदभस्म मिलावें और फिर उसमें १ भाग शुद्ध लेने चाहिये। स्वर्ण अधिक हो तो कण्डे भी हिंगुल मिलाकर नीबूके रसमें खरल करके शरावअधिक लें।) सम्पुट में बन्द करें और पुट लगा दें । इसी विधिसे १२ पुट देनेसे स्वर्णकी केसरके समान (८३५९) स्वर्णमारणम् (१३) । रंगवाली भस्म हो जाती है । (र. र. स. । पू. अ. ५) हेम्नः पादं मृतं मूतं पिष्टमम्लेन केनचित् । | (८३६१) स्वर्णमारणम् (१५) पत्रे लिप्त्वा पुरैः पच्यादष्टभिर्मियते ध्रुवम् ॥ ( रसे. वि. म. । अ. ६) एतद्भस्म सुवर्णनं कटुघृतोपेतं द्विगुञ्जोन्मितम् । | हेमपत्राणि मूक्ष्माणि जम्भाम्भो नागभस्मतः। लीढं हन्ति नृणां क्षयात्रि | लेपतः पुटयोगेन त्रिवारं भस्मतां नयेत् ॥ सदनं श्वासं च कासारुचिम् । पुनः पुटेत् त्रिवारं तत् म्लेच्छतो नागहान ये॥ ओजोधातुविवर्धनं बलकरं पावामयध्वंसनम्। (१६ भाग ) स्वर्ण पत्रों पर नीबूके रसमें पथ्यं सर्व वेषापहं गरहरं दुष्टग्रहण्यादिनुत् ॥ । घुटी हुई (१ भाग) सीसेकी भस्मका लेप करके For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि शराव-सम्पुटमें बन्द करके पुट दें। इसी प्रकार | (८३६४) स्वणेमारणम् (१८) ३ पुट देनेसे स्वर्णकी भस्म हो जाती है । इस । ( र. रा. सु. ; र. चं.) भस्ममें ( समान भाग ) हिंगुल मिला कर (नीबूके रसमें घोट कर) पुनः पुट दें । इसी प्रकार हिंगुल सूतस्य द्विगुणं गन्धमम्लेन कृतकज्जलिम् । के साथ ३ पुट देनेसे स्वर्णके साथ मिलाया हुवा द्वयो समीकृतं स्वर्ण सम्यगम्लेन मर्दयेत् ।। सीसा नष्ट हो जाता है । शरावसम्पुटान्तस्थमध ऊद्ध व सैन्धवम् । (८३६२) स्वर्णमारणम् (१६) - | अष्टयामाद्भवेद्भस्म सर्वयोगेषु योजयेत् ॥ । . (रसे. चि. म. । अ. ६ ) १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गंधकस्वर्णमावर्त्य तोलैकं मापैकं शुद्धनागकम् ।। की कज्जली बनावें और उसे ३ भाग स्वर्णक्षिप्त्वा चाम्लेन सञ्चूर्ण्य तत्तुल्यौ गन्धमासिकौ ॥ पत्रोंमें मिला कर नीबूके रसमें स्वरल करें तथा अम्लेन मर्दयेद्यामं रुद्ध्वा लघुपुटे पचेत् ।। गोला बनाकर ऊपर नीचे सेंधानमकका चूर्ण बिछागन्धः पुनः पुनर्देयो म्रियते दशभिः पुरैः ।। कर शराव-सम्पुटमें बन्द करें । उसे ८ पहर तक १ तोला स्वर्णको पिघलाकर उसमें १ माशा पकानेसे सुवर्णकी भस्म हो जाती है । शुद्ध सीसेका चूर्ण डालकर नीबूके रसमें घोटें फिर (८३६५) स्वर्णमारणम् (१९) उसमें ११-१। तोला शुद्ध गंधक और स्वर्ण माक्षि (र. रा. सु.) कका चूर्ण मिला कर पुन: नीबूके रसमें १ पहर घोटें और फिर उसका गोला बनाकर शराव- सुशुद्ध पारदं दत्वा कुर्याद्यत्नेन पिष्टिकाम् । सम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें फंक दें। इसी प्रकार दत्वोद्धोधो नागचूणे पुटेन म्रियते ध्रुवम् ॥ हरबार १। तोला गं कके साथ खरल करके १० शुद्ध पारद और सोनेके वर्क समान भाग ले पुट देनेसे स्वर्णकी भस्म हो जाती है । कर दोनोंको एकत्र मिला कर खरल करें । जब (८३६३) स्वर्णमारणम् (१७) | दोनों मिलकर पिटी (पिष्टिका) हो जाय तो उसे, ( र. रा. सु.) ऊपर नीचे सीसेका चूर्ण रख कर शरावसम्पुटमें सौवीरमञ्जनं पिष्वा मार्कवस्वरसै दिहेत । बन्द करें और पुट लगा दें। इस विधिसे स्वर्ण जातरूपस्य पत्राणि शरावे सम्पुटे पुटेत् ॥ अवश्य मर जाता है। गजाख्येन पुटेनैव सुवर्ण याति भस्मताम् ॥ (८३६६) स्वर्णमारणम् (२०) १ भाग काले सुरमेको भंगरके रसमें खरल करके उसका १ भाग सोनेके पत्रों पर लेप कर दें और (र. र. स. । पू. अ. ५; र. प्र. सु. । अ. ४) उन्हें शराव-सम्पुटमें बन्द करके गजपुट में फंक कृत्वाकाटकवेध्यानि स्वर्णपत्राणि लेपयेत् । दें। इस विधिसे स्वर्णकी भस्म हो जाती है। लुङ्गाम्बुभस्ममूतेन म्रियते दशभिः पुरैः ॥ For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः ४२१ %3 स्वर्णके कण्टकवेधी पत्र बना कर उन पर | आमले का चूर्ण तथा स्वर्ण एकत्र मिला कर पारद-भस्मको नीबूके रसमें घोट कर लेप करें शहदके साथ सेवन करने से अरिष्ट लक्षणयुक्त और शराव-सम्पुट में बन्द करके पुट लगा दें। व्यक्ति की आयु भी स्थिर हो जाती है। इसी प्रकार दस पुट देनेसे स्वर्णकी भस्म हो (८३७०) स्वर्णयोगः (४) जाती है। (८३६७) स्वर्णयोगः (१) अपक्वं हेम सघृष्टं शिलायां जलयोगतः । ( आ. वे. प्र. । अ. ११) द्रवरूपं तु तत्पेयं मधुना गुणदायकम् ।। मेघाकामस्तु वचया श्रीकामः पदकेसरैः। यद्वा च वरखाख्यं तु स्वर्णपत्रं विचूर्णितम् । शङ्खपुष्प्या वयोर्थी च विदार्या च प्रजार्थकः ॥ मधुना सङ्ग्रहीतं च सयो हन्ति विषादिकम् ॥ स्वर्णको बचके साथ सेवन करने से मेधा की; कच्च स्वर्णको पानीके साथ पत्थर पर घिसकर कमल-केसरके साथ सेवन करने से कान्ति की; शहद मिला कर पीने से अथवा सोनेके वरोंको शंखपुष्पी के साथ सेवन करने से आयु की, और शहदमें घोट कर खाने से विषादि शीघ्र ही नष्ट विदारीकन्द के साथ सेवन करने से सन्तानकी वृद्धि हो जाता है। होती है। (८३६८) स्वर्णयोगः (२) (८३७१) स्वर्णयोगः (५) (र. चं. । राजयक्ष्मा. ; वै. मृ.) ( यो. त. । त. ३८) नवनीतसीतामधुपयुक्तो ब्राह्मीरसः स्यात्सवचः सकुष्टः वरखो हेमभवः क्षयं क्षिणोति । __ सशङ्खपुष्पः ससुवर्ण चूर्णः । वितयः प्रभवेदयं प्रयोगो उन्मादिनामुन्मदमानसानायदि तन्मे शपथः सदाशिवस्य ॥ मपस्मृतौ भूतहतात्मनां हि ॥ सोनेके वर्क, मक्खन, मिश्री और शहदमें नस्येजने पानविधौ न शस्तो मिलाकर सेवन करने से क्षय रोग अवश्य नष्ट हो ब्राह्मीरसोऽयं सवचादि चूर्णः ।। जाता है । मैं शिवकी शपथ खाकर कहता हूं कि । ब्राह्मीके रसमें बच, कूठ, शंखपुष्पी और यह प्रयोग सत्य है। (८३६९) स्वर्णयोगः (३) स्वर्णका चूर्ण मिला कर सेवन करने से उन्माद, (सु. सं. । चि. स्था. अ. २८ ; आ. वे. चित्तभ्रम, अपस्मार और भूतवाधा का नाश | होता है। मध्वामलकचूर्णानि सुवर्णमिति च त्रयम् । | इस प्रयोगको नस्य और अंजन द्वारा भी माश्यारिष्ट गृहीतोऽपि मुच्यते माणसंशयात् ।। प्रयुक्त करना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि (८३७२) स्वर्णयोगः (६) कमल और नीलोत्पल के काथ तथा मुलैठीके (सु. सं.। चि. अ. २८ ; ग. नि. । | कल्कके साथ गोघृत सिद्ध करें। इस धृतके साथ रसायना. १) स्वर्ण सेवन करने से अलक्ष्मी का नाश और आयुको | वृद्धि होती है तथा हाथी के समान महा बल सुवर्ण पद्मवीजानि मधु लाजाः प्रयङ्गवः । | प्राप्त होकर मनुष्य देवताके समान हो जाता है । गव्येन पयसा पीतमलक्ष्मी प्रतिषेधयेत् ॥ स्वर्ण, कमलगट्टे की गिरी, धानकी खील और । अनुपान-कमल, नीलात्पल और मुलैठीके फूलप्रियङ्गु; इनके चूर्ण को शहदके साथ खाकर साथ पकाया हुवा दूध। ऊपर से गायका दूध पीने से अलक्ष्मी का नाश प्रयोग बनानेमें जहां मन्त्र न बतलाया गया होता है। हो वहां त्रिपदो गायत्री मन्त्रका जाप करके प्रयोग सिद्ध करना चाहिये। (८३७३) स्वर्णयोगः (७) (सु. सं. । चि. अ. २८) (८३७५) स्वर्णयोगः (९) शतावरीघृतं सम्यगुपयुक्तं दिने दिने । ( वा. भ. । उ. अ. १) सक्षौद्रं ससुवर्णश्च नरेन्द्र स्थापयेद्वशे ॥ | हेमश्वेतवचाकुष्ठमर्कपुष्पी सकाञ्चना । शतावरी के साथ पकाये हुवे घृत और शहद हेममत्स्याक्षकः शङ्कः कैण्डर्यः कनकं वचा ॥ के साथ स्वर्ण सेवन करने से ( शरीर इतना स्वस्थ चत्वार एते पाहोक्ताः पाश्या मधुघृतप्लुताः। सुन्दर और बलवान् हो जाता है कि ) राजा भी वर्ष लीढा वपुर्मेधावलवर्णकराः शुभाः ।। वशमें हो जाते हैं। (१) सोने के वर्क, सफेद बच और कूठ (२) (८३७४) स्वर्णयोगः (८) अर्कपुष्पी और सोनेके वर्क (३) सोनेके वर्क, (सु. सं. । चि. स्था. अ. २८) मत्स्याक्षी (मछेछी) और शंख का चूर्ण (४) पद्मनीलोत्पलक्वाथे यष्टीमधुकसंयुते। कैडर्य, सोनेके वर्क और बच, ये चारों प्रयोग सर्पिरासादितं गव्यं ससुवर्ण सदा पिबेत् ॥ | बल, वर्ण, मेधा और शरीरकी वृद्धि करने वाले हैं। पयश्चानुपिबेसिद्धं तेषामेव समुद्भवे। इन्हें घी और शहदमें मिला कर १ वर्ष तक सेवन अलक्ष्मीनं सदायुष्यं राज्याय सुभगाय च ॥ | करना चाहिये। यत्र नोदीरितो मन्त्री योगेषु तेषु साधने । । . स्वर्णराजवङ्गेश्वरः शब्दिता तत्र सर्वत्र गायत्री त्रिपदी भवेत् ॥ पाप्मानं नाशयन्त्येता दयश्चौषधयः श्रियम् । प्र. सं. ५५२७ “ मस्कमृगाको रसः" कुर्युनागबलं चापि मनुष्यममरोपमम् ॥ देखिये । For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ४२३ (८३७६) स्वर्णशोधनम् (१) बल्मीक मृत्तिका ( बांबीकी मिट्टी ), घरका ( आ. वे. प्र. । अ. ११ ; वृ. यो. त.।। धुंवां, गेरु, ईंटका चूर्ण और सेंधा नमक समान भाग त. ४१ ; यो. र.) ले कर चूर्ण करें और उसे जम्बोरी नीबूके रस या कांजीमें पीस कर स्वर्णपत्रों पर लेप कर दें। तदस्वर्णमुत्तमं वह्नौ विद्रुतं निक्षिपेत्रिशः। नन्तर उन्हें शराव सम्पुट में बन्द करके एक बड़ी काञ्चनाररसे शुद्धं काञ्चनं जायते भृशम् ।। अंगीठीमें निर्वातम्थान में २० उपलोंकी आग दें। स्वर्णको आगपर पिघला पिघला कर ३ बार यदि स्वर्ण अधिक हो तो उपले भी अधिक लगाने कचनार के रसमें बुझाने से वह शुद्ध हो जाता है। चाहिये । जब तक स्वर्ण का रंग उत्तम न हो जाए (८३७७) स्वर्णशोधनम् (२) तब तक अग्नि देनी चाहिये । इस प्रकार स्वर्ण भली ( आ. वे. प्र. । अ. ११) भांति शुद्ध हो जाता है। वर्णमृत्तिकया लिप्त्वा मुनिशो ध्यापितं वसु। (८३७९) स्वर्ण शोधनम् (४) विशुध्यति वरं किञ्चिद्वर्णवृद्धिश्च जायते ॥ ( भा. प्र. । पू. खं. १) ___यया कुम्भकाराः भाण्डानि रयित्वा पत्तलीकृतपत्राणि हेभ्नो वह्नौ प्रतापयेत् । पाचयन्ति सा वर्णमृत्तिकेत्युच्यते, "कावीस" निषिश्चेत्तप्ततप्तानि तैले तक्रे च काधिके । इति भाषा। गोमूत्रे च कुलत्थानां कषाये तु त्रिधा त्रिधा । जिस मिट्टी से कुम्हार बर्तन रंग कर पकाते एवं हेम्नः परेषाञ्च धातूनां शोधनं भवेत् ॥* हैं उसको ( पानीमें पीस कर ) स्वर्ण पत्तों पर लेप करें और उन्हें आगमें रख कर ध्मावें । इसी प्रकार ___ स्वर्णके पत्रों को आगमें तपा तपा कर ३--३ ७ बार लेप करके ध्भाने से स्वर्ण शुद्ध हो जाता है बार तेल, तक, कांजी, गोमूत्र और कुलथीके काथमें तथा उसका रंग भी कुछ उत्तम हो जाता है । | बुझाने से वह शुद्ध हो जाता है। अन्य धातु भी इसी प्रकार शुद्ध होती हैं ।* (८३७८) स्वर्णशोधनम् (३) ( आ. वे. प्र. । अ. ११ ; र. चं.) . * यद्यपि भाव प्रकाश ने स्वर्णकी शुद्धि भी अन्य वल्मीकमृत्तिका धूमं गैरिकं चेष्टिका पटु ।। धातुओं के अनुसार तैल तक्रादिमें लिखी है परन्तु इत्येता मृत्तिकाः पञ्च जम्बीरैरारनालकैः ।। आयुर्वेद प्रकाश कारका कथन है कि स्वर्णको तैल पिष्ट्वा कण्टकवेध्यानि स्वर्णपत्राणि लेपयेत् । | तकादि में शुद्ध करनेको आवश्यकता नहीं है। पुटेत्पृथुहसन्त्यां तु निर्वाते विंशदुत्पलैः ॥ इयमेव सुवर्णस्य शुद्धिर्नान्या हि विद्यते । अधिकैर्वाऽधिके हेम्नि यावद्वर्णो विवर्धते । । तैले तक्रादिके या तु रूप्यादीनामुदाहृता ।। इत्येवं पुटनैर्युक्त्या सम्यक शुध्यति काञ्चनम् ॥ । ( आ. वे. प्र. । अ. ११) For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२४ भारत-अवब्य-रत्नाकरः [सकारादि (८३८०) स्वर्णसिन्दूरम् (८३८१) स्वर्णादिगुटिका ( मै. र. । वाजीकरणा.) (र. का. थे. । नेत्रगेगा.) पलं रसेन्द्रस्य च गन्यम्य स्वर्ण रूप्या मुलार्को वार्षिफेनवरापवाः ! हेम्नोऽपि कर्ष परिणव सम्या। शमच्योप निशानुत्ववालं मधुपष्टिका ।। स्टमरोहस्थ रसेन याम सर्व च क्लीतकाम्भोधिः अपिष्टं बटिका हरेन् । यामं विमर्धाय कुमारिकायाः || । अशेषनयनातवास्तदुपदबदुस्वरान् ।। तत्काचप्यां निहितं प्रयत्नान । स्वर्ण मस्म, चांदी भस्म, ताम्र भस्म, मोती पचेद विषिज्ञः सिकनारूप यन्वे । । भस्म, लामभस्म ( अश्या आककी जड़को छाल ) सतो रजश्चोर्ध्वगतं मुरम्यं समुद्रफेन, हरं, बहेडा, आमला, गिलोय, शंखभस्म, अमृता यबादरुणभं यन् ।। सोंठ, मिर्च, पीपल, हल्दी, तुत्य मम्म, प्रचाल भस्म क्योजयेत्सर्वगदेषु वीक्ष्य और मुलैठी; इनका चूर्ण समान भाग रेकर सबको धातुं बलं वहिमयो वयश्च । एकत्र मिलाकर मुलेठोक क्वाथमें म्बरल करें और रसायनं दृष्यतरच बल्यं । (२-२ रत्तोकी ) गोलियां बनाकर सुखा लें। मेषाधिकान्तिस्मरवर्दनश्च ।। इनके सेवनसे उपद्रवयुक्त समस्त नेत्ररोग शुद्ध पारद ५ तो., शुद्ध गन्धक ५ तो नष्ट होते हैं। और सोनेके कर्कश तो. ले कर प्रथम स्वर्ण और ___ स्वल्पकस्तृरी भैरवो रसः पारेको एकत्र मिला कर खरल करें । जब दोनों ( भै, र. : र. ग. सु. : धन्द. ! चर) अच्छी तरह मिल जाएं तो गन्धक मिला कर बाल करें और कजली हो जाने पर उसे १-१ पहर प्र. सं. ९७१ “करतूरी मैग्यो रसः" देखिये। वटांकुरोंके रस और घृतकुमारीके रसमें स्करल करें स्वल्प ग्रहणीकपाटो रसः तथा सुखाकर आतशी शीशी में डालकर बालुका- प्र. सं. १६०२ "ग्रहणी कपाटो रसः” देखिये स्त्रमें (१२ पहर ) पावें । तदनन्तर यन्त्रके (८३८२) स्वल्पचन्द्रोदयमकरध्वजः स्वांगशीतल होने पर शीशीके गले में लगे हुवे (मै. र. । वाजीकरणा.) स्सको शोशी तोड़ कर निकाल लें ( शांशी को जातीफन लाच रं मरिचं तथा । स्लीमें स्वर्णभस्म मिलेगी उसे पृथक रक्खें ) प्रत्येक बोलकं दत्त्वा मुवर्णस्य च मापकप ।। इसके सेवनसे समस्त रोगों का नाश और धातु, अण्डनं पापपाना सर्वतुरावेघरम् । क्ल, अग्नि, आयु, मेधा, कान्ति और काम शक्ति । मलतो मर्दयेन् सल्ले द्विमुञां तु वटीं चरेत् ।। की वृद्धि होती है। यह अत्यन्त रसायन और एष चन्द्रोदयो नाम रसो वाजीकरः परः। हन्ति रोमानशेषांथ क्लवीर्याशिवर्दनः ॥ For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मित्रपकरणम् ] पञ्चमो भागः ४२५ जायफल, लौंग, कपर और काली मिर्चका स्वल्पमृगाङ्करसः चूर्ण १-१ तोला, (५-५ माशे) तथा स्वर्णभम्म । (र. चं. ; रसे. सा. सं. ; धन्व. ; र. रा. और कस्तूरी 1-21 माशा एवं रससिन्दूर सबके सु. । राजय.) बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर (पानके रसमें) सरल करके २-२ रत्तीको गोलियां बनावें। प्र. सं. ५६३९ "मृगांकरसः” (७) देखिये। यह रस अत्यन्त वाजीकरण; क्ल, वीर्य और स्वल्पवडवानलरस: अग्निवर्दक तथा समस्त रोग नाशक है। ( रसे. सा. सं. । ज्वरा.) स्वल्दावकरसः प्र. सं. ६९५६ “वडवानलरसः ( स्वल्प) “ महागावकरम ” देखिये । (११)" देखिये। इति सकारादिरसपकरणम् - - अथ सकारादिमिश्रप्रकरणम् (८३८३) सक्तुयोगः (८३८४) सोचनयोगाः (वै. म. र. ! पट.२) (धन्व. । वाजीकरणा.) पक्वेन दाडियफलस्वरसेन वाऽपि • मोचरससूक्ष्मचूर्ण क्षिप्तं योनौ स्थितं प्रहरम् । सक्तून पिकेत प्रवलपित्तमवज्वः । शतवारं मूताया अपि योनिः मूक्ष्मरन्ध्रा स्यात् ।। वदन् पडामृतमम्नु पिवेन सिताढयं बब्बूलकुसुमं लोभ्रं दाडिमीमूलवल्कलम् । तृड्दाइनूर्तिशमनाय च दीपनाय ॥ चूर्णीकृत्य क्षिपेयोनौ योनिसङ्कोचनं परम् ॥ तोत्र पित्तज चर में दाह, तृषा और चरका माजूफलं च त्रिफला खदिरोन्मत्तनी तथा । वेग कम करनेके लिये पके हुवे अनारके रसमें पटपूतं च सौराष्ट्री पूगं चैव समं समम् ॥ (जौका) सत मिला कर पोना चाहिये अथवा षडंग जलेन गुटिकां कृत्वा योनौ स्थाप्या घटी द्वयम्॥ क्वाथ (नागरमोथा, पित्त पापड़ा, सस, लाल चन्दन, (१) मोचरसके बारीक चूर्णको योनिमें छिड़सुगन्धवाला, सोंठ-इनका समान माग मिलित मोटा कनेसे १ पहरमें ही सौ बारकी प्रसूता स्त्रीकी योनि चूर्ण ११ तोला लेकर १ सेर पानीर्म पकाकर | भी सूक्ष्मछिद्र वाली हो जाती है। आषासेर रहे हुवे क्वाथ ) में मिश्री मिलाकर पीना । (२) बबूलके फूल, लोध, और अनारकी जड़की चाहिये। ये दोनों प्रशेम अग्रिको मी दीप्त करते हैं। । छाल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे (पोट For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२६ भारत-भज्य-रत्नाकरः [ सकारादि लीमें बांधकर) योनिमें रखनेसे वह संकुचित हो वर्र (ततैन) के दंशसे उसका डंक निकालकर जाती है। वहां शालवृक्षका रस ( या तारपीनका तेल ) लगा (३) माजूफल, त्रिफला, कत्था, धायके फूल, देना चाहिये। फिटकरी और सुपारी समान भाग ले कर चूर्ण (८३८८) सर्पकञ्चुकी योगः बनावें और उसे पानीमें धोट कर बड़ी बड़ी गोलियां बना लें। (रा. मा. : स्त्रीरोगा. ३०) इनमें से १ गोली २ घडी तक योनिमें पुटदग्धभुजगकञ्चुककज्जलमधुपूरिते क्षणद्वन्द्वात्। रखनेसे योनि संकुचित हो जाती है । सद्यो भवति विशल्या विमूढगर्भाऽपि गर्भवती ॥ (८३८५) समङ्गादियवागू सांपकी कांचलीको सम्पुटमें बन्द करके भस्म (व. से. । बालरोगा.) करें और फिर बारीक पीसकर शहद में मिला लें। समगाशाल्मलीवेष्टं धातकीपमकेसरैः ।। । इसे योनिमें भरनेसे मूढगर्भ भी तुरन्त बाहर पिष्टैरेतयेवाग्रः स्यादतीसारविनाशिनी ॥ आ जाता है । लज्जालुमूल, सेंमलकी छाल, धायके फूल और (८३८९) सर्वगन्धम् कमलकेसर समान भाग ले कर पीसकर इनसे यवागू ( भै. र.) सिद्ध करें। | चातुर्जातककर्पूरकक्कोलागुरुशिहकम् । यह यवागू अतिसारको नष्ट करती है। | लवङ्गसहितश्चैव सर्वगन्धं विनिर्दिशेत् ॥ (८३८६) सर्जकाद्यो योगः दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, (व. से. । बालरो.) कपूर, कंकोल, अगर, शिल्हक ( शिलारस ) और अभयाज्य तिलतैलेन सर्जचूर्णावचूर्णिताम् । लवङ्ग-इनको सर्वगन्ध कहते हैं । विच्छिन्ननश्येत्स्थिरैरण्डबीजाभ्याश्च प्रलेपनात् ।। ___(८३९०) सहदेवीमूलबन्धनम् - बालकके विच्छिन्न नामक रोग (ब्रण विशेष) में तिलका तेल मल कर ऊपरसे रालका चूर्ण छिड़क | ( रा. मा. । नेत्ररोगा. ३ ; ग. नि. । नेत्ररो. ३ ) देने से लाभ होता है अथवा शालपर्णी और अरण्डके कर्णे निबद्धं नयनामयन्नं बीजोंको पीस कर लेप करने से भी विच्छिन्न रोग दण्डोत्पलायाः प्रवदन्ति मूलम् । नष्ट हो जाता है। क्षौद्रान्वितः शिग्रुदलोद्भवो वा (८३८७) सर्जरसयोगः रसोऽक्षिण दत्तोऽक्षि रुजापहः स्यात् ॥ (व. से. । विषा.) सहदेवीकी जड़को कानमें बांधने से अथवा सर्जरसेन सेको संदंशेनापि कण्टकोद्धरणम् । सहजनेके पत्तोंके रसमें शहद मिला कर आंखमें वरटीदंष्ट्रविषस्य प्रशमनमेतद् द्वयं दृष्टम् ॥ । लगानेसे नेत्रपीड़ा शान्त हो जाती है। For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४२७ (८३९१) सहदेवीमूलयोगः तदर्द्ध पारदं शुद्धं कज्जलीकृत्य निक्षिपेत् । (व. से. । ज्वरा.) श्वेतशाल्मली तोयेन सप्तधा भावयेत्पुनः ॥ सहदेवाया मूलं विधिना कण्ठनिबद्धमपहरति । माहिषेण च दुग्धेन तच्चूर्ण भावयेत् पुनः। एकद्वित्रिचतुर्मिदिवसै भूतज्वरं पुंसाम् ॥ शुष्कं तच्चूर्णयेद् यत्नाल्लेहयेन्मधुसर्पिपा ॥ सहदेवीकी जड़को विधिपूर्वक कण्ठमें बांधनेसे अनेनाशीति वर्षोऽपि शतधा रमते स्त्रियाः । १,२,३ या ४ दिनमें भूत-वर नष्ट हो जाता है। ऊध्वलिङ्गः सदा तिष्ठेत् कामदेव इव स्वयम् ।। (८३९२) सहदेवीमूलिकाबन्धनम् । ज्वरादिरोगनिर्मुक्तः संसारसुखमश्नुते । माषमेकन्तु कर्तव्यं, दुग्यमात्रानुपानकम् ॥ (वृ. मा. । ज्वरा.) विदारीकन्द, तालमूली (मूसली), आमला, नखेनोत्पाटिताः सहदेवीमूला कर्णबन्धनात् । और पुनर्नवाकी जड़ २-२ भाग, शुद्ध गंधक १ ज्वरं चातुर्थिकं हन्ति भानुवारे न संशयः ॥ भाग और शुद्ध पारद आधा भाग ले कर प्रथम पारे रविवारके दिन सहदेवीकी जड़ नाखूनसे गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य निकालकर कानमें बांधनेसे चातुर्थिक वर अवश्य औषधांका चूर्ण मिलाकर सबको सफेद संभलको नष्ट हो जाता है। जड़के रसकी सात भावना दें और फिर मैंसके दूधमें (८३९३) सामुद्रादिवर्तिः खरल करके सुखा लें। (वृ. यो. त. । त. ९८ ; व. से. । गुल्मा. ; इसे शहद और धीके साथ सेवन करनेसे ८० यो. र. । गुल्मा.) वर्षको वृद्ध पुरुप भी १०० स्त्रियांसे रमण करनेमें वातव) निरोधेषु सामुद्राईकसर्षपैः । समर्थ हो जाता है। कृत्वा पायौ विधातव्या वर्तयो मरिचान्वितैः ॥ इसे सेवन करने वाले का लिङ्ग कभी शिथिल यदि मल और अपान वायु रुक गया हो तो नहीं होता और वह ज्वरादि रोगांसे मुक्त होकर समुद्र लवण, अदरक, सरसे और काली मिर्च | संसार सुखका उपभोग करता है। समान भाग ले कर चूर्ण बना कर ( उसे पानीमें इसे १ मास तक सेवन करना चाहिये । पकाकर कपड़ेकी पट्टी पर लेप करके ) बत्तियां अनुपान-दूध । बनावें और १-१ बत्ती मलमार्गमें रक्खें । ( मात्रा-१ माशा।) (८३९५) सिद्धार्थागुद्वर्तनम् (८३९४) सिद्धशाल्मलोकल्पः ( यो. र. ; ग. नि. । शीतपित्ता. २ ; रसे. ( भै. र. । वाजीकरणा.) चि. म. । अ. ९ ; वृ. नि. र. शीतपित्ता; भूकूष्माण्डं तालमूली धात्री चैव पुनर्नवा । वृ यो. त । त. १२१ ) । समभागं समाहत्य भागाई गन्धकं तथा ।। सिद्धार्थरजनीकुष्ठपपुन्नाटतिलैः सह । For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ४२८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि कटुतैलेन सम्मिश्रमेतदुद्वर्तनं हितम् ॥ पलैकं तत्समादाय लोहचूर्ण पलद्वयम् । शीतपित्ते उदर्दै च तथा कोठाभिधे गदे ॥ त्रिपलं त्रिफलाचूर्ण दाडिमस्य फलत्वचः ॥ सफेद सरसों, हल्दी, कूठ, पंवाड़के बीज और शुष्कं चूर्ण पलेकं तत्सर्वेषां काक्षिकं समम् । तिल समान भाग ले कर वर्ण बनावें । इसे सरसोंके । भाण्डे सय पचेत्किचित्तं क्षिपेल्लोहभाजने ॥ तेल में मिलाकर मलनेसे शत पित्त, उदर्द और भृङ्गराजकुरण्टोत्थद्रवं दवाऽऽतपे क्षिपेत् । कोठका नाश होता है। त्रिसप्ताहं प्रयत्न द्रवो देयः पुनः पुनः ॥ ततस्तं रक्षयेत्तेन लेपात्स्याकेशरञ्जनम् । (८३९६) सिंहिकादिपेया उक्तानुक्तेषु लेपेषु वेष्टयमेरण्डपत्रकैः ।। (व. से. । ज्वरा. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) । | शिरो रात्रौ दिवा स्नानं युक्तिरेषा प्रशस्यते ॥ सिंही व्याध्यमता द्राक्षा अजाजी सकत्रिकम । सीसेको पात्र में डालकर वासा (अडूसा ), शृङ्गी विडङ्गश्च समं पक्त्वा विसाव्य साधयेत ॥ पलाश, इमली और अश्वत्थ-इनमेंसे किसी वृक्षके घृताक्तैस्तण्डलै पेयामष्णां ज्वरी पिबेत। डंडेसे रगड़ते रहें । जब सीसा मूछित (चूर्ण रूप) हिक्काश्वासी चकासी च तथाभिन्यास पीडितः।। हो जाय तो ५ तोले यह चूर्ण, १० तोले लोह विवदवातविण्मूत्रः पानमेतत्प्रयोजयेत ॥ चूर्ण, १५ तोले त्रिफला चूर्ण, और ५ तोले अनारके फलका शुष्क छिलका लेकर बारीक चूर्ण बनावें और बासा (अडूसा), कटेली, गिलोय, मुनक्का, !' | उसमें सबके बराबर काजी मिलाकर थोड़ी देर जीरा, सेांठ, मिर्च, पीपल, काकड़ासिंगी और बाय- । आग पर पकावें एवं उसे लोहपात्रमें डालकर उसमें बिडंग, समान भाग लेकर अधकुटा करलें । इसमें भंगरे और कुरण्ट ( पियाबांसे ) का रस भर कर से ११ तोला चूर्ण १ सेर पानीमें पकाकर आध सेर धूप में रख दें। जब रस सूख जाय तो पुनः डाल पानी रहने पर छान लें। इस पानीमें धी लगाकर दें; इसी प्रकार बार बार रस डालते हुवे २१ दिन भूने हुवे चावल पकाकर येया बनावें। धूप में रक्खें । यह पेया ज्वर, हिक्का, स्वास, कास, अभिन्यास रातको बालों पर इसका लेप करके अरण्डका ज्वर, वायुका अवरोध, मूत्रावरोध और मलावरोध में | पत्ता बांध दें और प्रातःकाल खोलकर धो डालें । गुणकारी है। इसे गरम गरम ही पीना चाहिये । इससे केश काले हो जाते हैं। (८३९७) सीसकादियोगः (८३९८) सीसकादियोगः ( र. र. रसा. ख. । उपदे. ५) ( र. र. रसा, खं. । उप. ५ ) वासापलाशचिश्चोत्थैदण्डैर्वाऽश्वत्थ दृढम् । नागचूर्ण पलेकं तु शङ्कचूर्ण पलद्वयम् । नागं पात्रगतं चाल्यं यावद्भवति मूच्छितम् ॥ । पथ्याचूर्ण निष्कमेकं सर्व पेष्यं दिनावधि । For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः •४२९ अम्लदना युतं यत्रात्स्नात्वाऽऽदौ शिरसि क्षिपेद् सूरणकन्द (जिमीकन्द) को चाकूसे छीलकर मर्दयेद्धटिकाध तु वेष्टयमेरण्डपत्रकैः ।। चिकनी बत्ती बनावें । इसे नीबूके रसमें भिगोकर शिरः संवेष्टय वस्त्रेण प्रातः स्नानं समाचरेत् । | फिर घीमें भिगोकर गुदामें रखने से अर्शके मस्से इत्येवं त्रिदिनं यत्नात्कृत्वा केशांश्च रञ्जयेत् ॥ और गुदाके कृमि नष्ट हो जाते हैं। __सोसेका चूर्ण ५ तोले, शंख चूर्ण १० तोले (८४०१) सैन्धवादियोगः और हर्र का चूर्ण ३॥ माशे लेकर सबको एकत्र मिलाकर १ दिन खट्टी दहीके साथ मर्दन करें । (वृ. नि. र. । बालरोगा.) तदनन्तर स्नान करके ( बालोंको अच्छी तरह साफ़ बालो यश्चिरजातः स्तन्य करके ) यह लेप लगावें और आधी घड़ी तक गृह्णाति नोदितस्तस्य । मालिश करनेके बाद अरण्डका पत्ता बांध दें। सैन्धवधात्रीमधुघृतपथ्यादूसरे दिन प्रातःकाल स्नान कर लें। इसी प्रकार कल्केन घर्षयेजिहाम् ॥ ३ दिन करनेसे बाल काले हो जाते हैं। यदि नवजात शिशु उत्पन्न होनेके पश्चात् (८३९९) सूत्रवति योगः यथेष्ट समय बीत जाने पर भी दूध न पिये तो सेंधा नमक, आमला, और हर के समान भाग (यो. त. । त. ६०) मिलित चूर्णको घी और शहदमें मिलाकर उसकी आरग्वधनिशा कालाचूर्णाज्यक्षौद्रसंयुता। जिहापर मलना चाहिये। सूत्रवर्तिव्रणे योज्या शोधिनी गतिनाशिनी ॥ __ अमलतासकी छाल, हल्दी और मजीठ समान (८४०२) सैन्धवाद्याश्च्योतनम् (१) ८ भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसमें शहद तथा घी ( ग. नि. । नेत्र. ३) मिलाकर उसे सूतकी बत्ती पर लपेट लें । यह बत्ति सिन्धूत्थरोधसितजीरकतिन्तिडीकब्रणमें रखनेसे ब्रण शुद्ध हो जाता है और आगे पत्रं नवं दृषदि चूर्णितमम्बरस्थम् । नहीं बढ़ता। आश्चोतनं नयनयोरसकृत्प्रयुक्त -- (८४००) मुरणवतिः मेतद्धि रुक्श्वयथुरोगविकारहारि ॥ ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) सेंधा नमक, लोध, सफेदजीरा और इमलीके मूरणकन्दकवर्तिर्विधेया नवीन पत्र (कोंपल) समान भाग ले कर पत्थर पर चाम्लरसेन घृतेन च लिप्त्वा । (पानीके साथ) पोसकर कपड़े में बांधे। इस पोटलीको रोगगुदे गुदकीलकमाशु बार बार आंखमें निचोड़ने से आंखांकी पीड़ा और नाशयते गुदजांश्च क्रिमीश्च ॥ सूजनका नाश होता है । For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - (८४०३) सैन्धवाद्याइच्योतनम् (२) मूत्र रोकनेसे उत्पन्न हुवे उदावर्त में शराबमें ( ग. नि. । नेत्ररो. ३ ; वृ. मा. । नेत्र.) काला नमक मिलाकर पिलाना या इलायचीका चूर्ण ससैन्धवं रोधमथाज्यभृष्टं (गुड़के साथ) खिलाना या दहीके पानीके साथ ___ सौवीरपिष्टं सितवस्त्रबद्धम् । भात देना अथवा दूध या त्रिफलाका क्वाथ पिलाना ह्याश्चोतनं तन्नयनस्य कुर्या चाहिये। कण्डूं च दाहं च रुजं च हन्यात् ॥ । (८४०६) स्नुक्क्षारयोगः सेंधा नमक और घी में भुना हुवा लोध (वै. म. र. । पटल ११) समान भाग ले कर दोनोंको सौवीरक कांजीमें पीस क्षारो महावृक्षज आशु हन्याकर सफेद कपड़े में बांधकर आंखमें निचोड़ने से | देरण्डतैलेन सहानुलिप्तः । आंखकी खाज, दाह और पीडाका नाश होता है। कण्डूतिमन्तं किटिभं पुराणं (८४०४) सोमलचूर्णयोगः सर्प कठोरो गरुडो यथैव ।। ( र. का. धे. । अर्शी.) स्नुही ( सेंड-थूहर ) के क्षारको अरण्डीके सोमक्षारस्य चूर्ण वै कार्पासान्तरसंस्थितम् । । । तेलमें मिलाकर लेप करनेसे खुजलीयुक्त पुराना धारयेद्गुदतो दूरे त्रिदिनं तच्च भेषजम् ॥ किटिभ रोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । पक्वानि स्फाटयित्वाशु तथापक्वानि नाशयेत। (८४०७) स्नुक्क्षीरयोगः न पीडा जायते तत्र न व्यथाऽपि भवेदगुदे॥ ( रा. मा. । स्त्रीरोगा.) न रोहन्ते पुनर्देहे गुदपावलित्रये ॥ न्यस्तेन मूर्धनि सुधापयसाऽल्पकेन संखयेके चूर्णको रुई में लपेटकर गुदा पर बांध स्त्रीणामुपैति सहसैव हि गर्भशल्यम् । दें । रुई इस प्रकार लगानी चाहिये कि संखियका स्त्रीके शिर पर जरासा थूहर ( सेंड-स्नुही ) चूर्ण गुदाको स्पर्श न करे । इस रुईको ३ दिन तक का दूध लगानेसे मूढ गर्भ तुरन्त निकल आता है। बंधा रहने दें। (८४०८) स्नुक्क्षीरशोधनम् इस विधिसे अर्शके पक्के मस्से फट जाते हैं । (रसे. सा. सं.) और अपक्व नष्ट हो जाते हैं । इस प्रयोगसे तनिक चिश्चापत्ररसे कर्षे वस्त्रपूते पलद्वयम् । भी कष्ट नहीं होता और गुदाकी तीनो बलियों के । स्नुहीक्षीरं रौद्रयन्त्रे भावयेद्यत्रतः सुधीः ।। मस्से नष्ट हो जाते हैं तथा फिर नहीं उभरते। द्रवे शुष्के समुत्तार्य सर्वयोगेषु योजयेत् ॥ (८४०५) सौवर्चलादियोगः १० तोले स्नुही (सेहुंड-सेंड) के दूध १॥ ( यो. र. । उदावर्ता.) तोला इमलीके पत्तोंका कपड़ेसे छना हुवा रस मिला सौवर्चलाढयां मदिरां मूत्रे त्वभिहते पिवेत् ।। कर मिट्टीके पात्र में भरकर धूपमें रख दें । जब दूध एलां वाऽयथ मस्त्वन्नं क्षीरं वाऽथ वराम्बु वा ।। शुष्क हो जाए तो सुरक्षित रक्खें । For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४३१ (८४०९) स्नुपत्रयोगः इसे भगन्दरमें सूराख की ओरको लगावें । इससे ( वै. म. र. । पटल ६ ) समस्त शरीरगत नाड़ोत्रण भी न हो जाता है। स्विनं निष्पीडितं स्नुह्याः पत्रं पायौ निधापयेत्। (८४१२) स्नुहीस्वेदः दुर्नामकृमिकण्डूतिशोफरुक्शान्तिकृत् परम् ॥ ( व. से. । श्लीपदा.) ___ स्नुही ( सेंड-थूहर ) के पत्तोंको आग पर | स्नुहीगण्डीरिकास्वेदो नाशयेदवुदानि च । सेककर मलकर गुदा पर बांधनेसे अर्श, कृमि, खाज, शोथ और पीडाका नाश होता है। | लवणेनाऽधवा स्वेदः सीसकेन तथैव च ॥ (८४१०) स्नुपत्रयोगः स्नुही (सेंड-थूहर) के टुकड़ोंसे स्वेदित कर नेसे अथवा सेंधा नमकसे स्वेदित करनेसे या ( वै. म. र. । पट. १६ ) | सीसेसे स्वेदित करनेसे अर्बुद (रसौली)का नाश द्रुतजातपति सुकठिनं नाश । हो जाता है। __ यति व्रणं चिरन्तनं चापि । (सेंडके टुकड़ोंको पानीमें उबालकर उस स्विनं विमृज्य लिप्तं पानीकी भाप देनी चाहिये या उन्हें भापकी सहास्नुपत्रं पञ्चशैदिवसैः ॥ यतासे बार बार गरम करके रसौली पर रखना नवीन अथवा पुराने कठिन व्रण पर स्नुही या बांधना चाहिये । सेंधानमक और सीसेके टुकड़े (सेंड) के पत्तेको उबालकर पीस कर लेप करनेसे को सहने योग्य गरम करके कपड़ेमें लपेटकर रसौली वह ५-६ दिनमें नष्ट हो जाता है । पर रखना चाहिये। (८४११) स्नुहीक्षीराद्या वतिः (८४१३) स्वगुप्ताद्यो योगः (ग. नि. । भगन्दरा. ; व. से. । नाडीव्रणरो. : (वृ. यो. त. । त. १०१; वृ. मा.। मूत्राघाता.; वृ. मा. । भगन्दरा, ; भा. प्र. । मं. ग. नि. । मूत्राघाता. २८; यो. र. । मूत्राघाता.) खं. २ नाडीव्रणा.) स्वगुप्ताफलमृद्वीकाकृष्णेक्षुरसितारजः। स्नुपर्कदुग्धदा:भिर्वति कृत्वा विचक्षणः । समानमर्धभागानि क्षीरक्षौद्रघृतानि च ॥ भगन्दरगति ज्ञात्वा पूरयेत्तां प्रयत्नतः॥ सर्व सम्यग्विमथ्याक्षमात्र ली पयः पिबेत । एषा सर्वशरीरस्थां नाडी हन्यादसंशयम् ॥ हन्ति शुक्रक्षयोत्यांश्च दोषान्वन्ध्यासुतपदम् ॥ __दारुहल्दीका चूर्ण, स्नुही (सेंड-थूहर)का कौंचके बीज, मुनका, काली ईखका रस और दूध और आकका दूध समान भाग लेकर सबको मिश्री समान भाग लेकर सबको एकत्र पीस लें। एकत्र मिला कर (कपड़ेपर लगाकर) बत्ती बनावें। इसमें इससे आधा दूध, शहद और घीका मिश्रण For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि (समान भाग मिलित) मिलाकर अच्छी तरह मथे। स्वर्जिकाचूर्णसंयुक्तं वीजपुररसं तिपेत् । इसमेंसे ११ तोला खाकर दूध पीनेसे शुक्र-क्षय कर्णस्रावस्त्रादाहाः प्रणश्यन्ति न संशयः ।। सम्बन्धी समस्त विकार नष्ट होते तथा बन्ध्या को पुत्र प्राप्त होता है। विजो रेके स्समें सजीका चूर्ण मिलाकर (८४१४) स्वजिकादियोगः कानमें डालनेसे कर्णसाच, कर्णपोड़ा और दाहका ( शा. सं. । खं. ३ अ. ११) । नाश होता है। इति सकारादिमिश्रप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir WWWS अथ हकारादिकषायप्रकरणम् (८४१५) हरिद्रादिकषायः (१) हल्दी, नागरमोथा, हर, बहेड़ा, आमला, (ग. नि. । अर्को. ४) कुटकी, नीमकी छाल, पटोल, देवदारु और कटेली पलानि पञ्च कुर्वीत रजन्यास्तु प्रमाणतः । समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।। कौटजस्याथ वल्कस्य द्विपलं मूक्ष्मकुट्टितम् ।। यह क्वाथ सन्निपात ज्वर, अग्निमांद्य, द्वयाढके वारिणः साध्यमष्टभागावशे पितम् । मुख प्रसेक (थूक अधिक आना), शोष, खांसी तत्कषायं पिवेद्युक्त्या शीतं माक्षिकसंयतम ॥ और अरुचिको नष्ट करता है। एतेन पित्तनातानि रक्तजान्यपि सर्वशः। (८४१७) हरिद्रादिकषायः (३) रक्तातिसारश्च तथा रक्तपित्तं च शाम्यति ॥ (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१, ग. नि. । ___ हल्दी २५ तोले और कुड़ेकी छाल १० तोले लेकर बारीक कूट लें और १६ सेर पानीमें पकायें __प्रमेहा. ३०) जब २ सेर रह जाय तो छानकर ठंडा कर लें। हरिद्राद्वितयं शुण्ठी विडङ्गानि हरीतकी। इसमें शहद मिलाकर पीनेसे पित्तज और कफममेहे विहितः क्याथोऽयं मधुना सह ॥ रक्तज अर्शका नाश होता है । यह क्वाथ ग्ता- हल्दा, दारुहन्दी, सोंठ, बायबिडंग और तिसार और रक्तपित्तको भी नष्ट करता है। हर्र समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । (मात्रा-प्रातः, दोपहर और सायं १०- , इसमें शहद मिलाकर पीनेसे कफज प्रमेहका १० तोले । मधु ? तोला ।) । नाश होता है। (८४१६) हरिद्रादिकषायः (२) (८४१८) हरिद्रादिकषायः (४) (ग. नि. । वग. १) (ग. नि. । कुष्टा. ३६ ) हरिद्रा भद्रमुस्तं च त्रिफला कटुरोहिणी। निशोत्तमानिम्बपटोलमूल पिचुमन्दः पटोली च देवदारु निदिग्धिका ॥ तिक्तावचालोहितयष्टिकाभिः । एषां कषायः पीतस्तु सन्निपातज्वरं जयेत् । कृतः कषायः कफपित्तकुष्ठं अविपक्ति प्रसेकं च शोषं कासमरोचकम् ॥ । सुसेवितो धर्म इवोच्छिनत्ति ॥' ૫૫ For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३४ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः हल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमको छाल, पटोलकी जड़, कुटकी, बव और मजीठ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । हल्दी, चीतामूल, नीमकीछाल, खस, अतीस, चच, कूठ, इन्द्रजौ, मूर्वा और पटोल समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । यह क्वाथ कफपित्तज कुछको नष्ट करता है । (८४१९) हरिद्रादिकषायः (५) (भै. र. । बालरोगा .; वृ. मा. व. से.; च. द. । बालरोगा. ६३; यो. त. । त. ७७ ) हरिद्राद्वययष्टयाह सिंही शक्रयवैः शिशोर्ज्वरातिसारघ्नः : कपायः स्तन्यदोषनुत' हल्दी, दारूहल्दी, मुलैठी, कटेली और इन्द्रजौ : कृतः । ૧ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें 1 यह क्वाथ बालकोंके ज्वरातिसार और स्तन्य- हरिद्राकल्कसंयुक्तं गोमूत्रस्य पलद्वयम् । दोषको नष्ट करता है । पिवेन्नरः कामचारी कण्डूपामाविनाशनम् ॥ (८४२०) हरिद्रादिक्काथः १० तोले गोमूत्र में पत्थर पर पिसी हुई हल्दी (३ माशा) मिलाकर पीनेसे कण्डू और पामाका नाश होता है । ( ग. नि. । ज्वरा. १ ) हरिद्रां चित्रकं निम्बशीरातिविषे वचाम् । कुष्ठमिन्द्रयवान् सूत्र पटोलं चापि साधितम ॥ पिवेन्मरिच संयुक्तं सक्षाद्रं कफजे ज्वरे ॥ इसमें काली मिर्च का चूर्ण और शहद मिलाकर पीने से कफज्वर नष्ट होता है । (८४२१) हरिद्रादिगणः (सु. सं. 1 सू. अ. ३८ ) हरिद्रा दारूहरिद्रा कलशी कुटजबीजानि मधुश्चेति । १ श्वासकासवमीहर मिति पाठभेदः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ हकारादि eat वचाहरिद्रादिगणौ स्तन्यविशोधनौ । आमातीसारशमनौ विशेषाद्दोषपाचनौ ॥ हल्दा, दारूहल्दी, शालपर्णी, इन्द्रजौ और मुलैठी । इन ओषधियोंके योगको “हरिद्रादिगण" कहते हैं । हरिद्रादि गण और वचादि गण स्तन्यशोधक, (त्रियोंके दूधको शुद्ध करनेवाले), और आमातिसार नाशक एवं विशेषतः दोष पाचक हैं । (८४२२) हरिद्रादियोगः ( ग. नि. । कुष्ठा. ३६; व. से.; वृ. नि. र. । कुष्टा. ) इस पर किसी विशेष परहेज़ की आवश्यकता नहीं है। (८४२३) हरीतकीयोगः (भै. र. । वातरक्ता.) हरीतकीमाय समं गुडेन एकाथवा द्वे च ततो गुडूच्याः । Farrisनुपोतः शमयत्यवश्यं प्रभिन्नमाजानुजवातरक्तम् ॥ १ या दो हरों को पीसकर गुड़के साथ ara और फिर गिलोयका क्वाथ पीवें । इससे जानु तक फैला और स्फुटित वातरक्त भी अवश्य नष्ट हो जाता है । For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कषायप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४३५ (८४२४) हरीतक्यादिकषायः हर्र, फूलप्रियंगु, पीपल, लोध, दारुहल्दी, ( धन्व. । उरुस्तम्भा.) | हल्दी और तेजबल समान भाग लेकर क्वाथ बनावें हरीतकी शृङ्गवेरं देवदारु च चन्दनम् । इसमें शहद मिलाकर उससे कुल्ले करनेसे ज्वरमें क्वाथयेच्छागदुग्धेन अपामार्गस्य मूलकम् ।। होनेवाली मुखकी कटुता और मुखरोग नष्ट होकर जाशूलमुरुस्तम्भं सप्तरात्रेण नाशयेत् ॥ मुख शुद्ध हो जाता है और भोजनमें रुचि उत्पन्न हर, अदरक (सांठ), देवदारु, लाल चन्दन, होती है। और अपामार्गको जड़ समान भाग मिलित (२॥ (८४२७) हरीतक्यादिकाथः (३) तोले) लेकर कूटकर (२० तोले) बकरीके दूधमें (वृ, नि. र. । सन्निपाता.) डालें और उसमें (१ सेर) पानी मिलाकर पकावें ।। हरीतकीपर्पटहारहूराजब पानी जल जाए तो दूधको छान लें । शम्बूकपुष्पैः काकीपयोदैः। इसे पीनेसे सात दिनमें जंघाशूल और उरु- शम्पाकदेवायभारतीभिः स्तम्भका नाश होता है। श्चित्तभ्रम हन्ति कृतः कषायः ।। (८४२५) हरीतक्यादिकाथः (१) हर्र, पित्तपापड़ा, मुनक्का, शंखपुष्पी, कुटकी, (भै. र. । वृद्ध्य.) | नागरमोथा, अमलतासका गूदा, देवदारु और ब्राह्मी हरीलकी वचा शुण्ठी त्रिता स्वर्णपत्रिका।। समान भाग लेकर क्याथ बनावें । एलाद्वयं देवपुष्पं क्याथयित्वा जलं पिबेत् ॥ ___यह क्वाथ चित्तभ्रम सन्निपातको नष्ट कअनेन प्रशमं यान्ति अध्नकासज्वरा धुवम् ।। ___ हरै, बच, सांठ, निसोत, सनाय, छोटी और (८४२८) हरीतक्यादिकाथः (४) बड़ी इलायची तथा लौंग समान भाग लेकर क्वाथ (भै. र. । उदरा. ; यो. र. ; वृ. मा. । शोथोदरा.; बनावें। वृ. नि. र. । उदरा.; वृ. यो. त. । त. १०५) ___ यह क्वाथ अध्न, कास और चरको अबस्य हरातकानागरदेवदारुनष्ट कर देता है । पुनर्नवाच्छिन्नाहाकपायः। (८४२६) हरीतक्यादिकाथः (२) सगुग्गुलुमूत्रयुतन्तु पेयः शोथोदराणां प्रवरः प्रयोगः ॥ (व. से. । ज्वरा.) हर्र, सेांट, देवदारु, पुनर्नवा और गिलोय हरीतकी प्रियङ्गश्च पिप्पलीलोध्रमेव च ।। समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । दार्वी हरिद्रा तेजोहा सक्षौद्रं मुखधावने ॥ इसमें गोमूत्र और शुद्र गूगल मिलाकर पीनेसे एतेन कटुभावाच्च मुखरोगश्च शाम्यति । शोथोडर का नाश होता है । शोथोदरके लिये वा विशदतामेति भक्तच्छन्दश्च जायते ॥ । यह एक श्रेष्ट योग है । For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org त-भैषज्य - ४३६ (८४२९) हरीतक्यादिकाथः (५) ( भै. र. । मूत्रकृच्छ्रा. ; यो. त. । त. ५०; यो. र. । मूत्रकृच्छ्रा. ; ग. नि. । मूत्रकृच्छा. २७; बृ. मा. ; व. से. ; यो. चि. म. । अ. ४ ; वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छा; शा. सं. । खं. २ अ. २) हरीतकीगोक्षुरराजवृक्ष भारत पाषाणभिन्वयत्रासकानाम् । क्वाथं पिवेन्माक्षिकसम्प्रयुक्तं कुच्छ्रे सदाहे सरुजे विबन्धे ॥ हर्र, गोखरू, अमलतास, पखानभेद और धमासा समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । इसमें शहद मिलाकर पीनेसे दाह और पोड़ा युक्त मूत्रकृच्छ तथा मूत्राघातका नाश होता है । (८४३०) हरीतक्या दियोगः (१) ( वै. म. र । पट ११ ) rtant मूलकुलत्थैः साधुसाधितः । क्वाथस्तु रुबुतैलाढ्यः शोफदाहोदरापहः || हर्र, निसोत और कुलथी समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । इसमें अरण्डीका तेल मिलाकर पीने से शोथ, दाह और उदर रोगका नाश होता है । (८४३१) हरीतक्यादियोगः (२) ( वै. म. र. । पटल ११ ) हरीतकी नागररात्रिसिद्धं जलं ज्वरोत्थश्श्यथुं निहन्यात् || हर्र, सोंठ और हल्दी समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । - रत्नाकरः [ हकारादि यह क्वाथ ज्वर के कारण उत्पन्न होनेवाले करता है | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८४३२) हरेणुकादिकाथः (वैद्यामृत । विषय ११ भा. प्र. म. खं. २ हिका । ) हरेणुका पिपलिका कषायो हिन्वितोsपोहति पञ्च हिकाः । नस्यं तथालक्तकसम्भवं च स्तन्येन वाऽपोहति मक्षिकाविट् ॥ रेणुका और पीपलके क्वाथमें हींग मिलाकर पीसे अथवा लाख रसकी नस्य लेनेसे या स्त्रीके दूधमें मक्खीकी विष्टा मिलाकर उसको नस्य लेनेसे ५ प्रकारकी हिचकी नष्ट हो जाती है । (८४३३) हिक्कानिग्रहणो दशको महाकषायः (च. सं. 1 सू. स्था. १ अ. ४ ) शटी पुष्कर मूलबदरबीजकण्टकारिकावृहतीवृक्षरुहाभयापिप्पलीदुरालभाकुली र शृङ्ग्य इति दशेमानि हिकानिग्रहणानि भवन्ति ॥ कचूर, पोखरमूल, बेरकी गुठली की मांग, छोटी कटेली, बड़ी कटेली, बन्दा, हर्र, पीपल, धमासा और काकड़ासिंगो - ये दश औषधियां हिक्कानाक क्वाथ त्योंमें मुख्य हैं । (८४३४) हिग्वादिकाथः (१) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ७ ) हिङ्गुपौष्करसठी सुवर्चलं वामेवमपि शूलिनां हितम् । For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायमा पञ्चमो भागः ४३७ वातशूलशमनाय शस्यते । (८४३७) हृद्यो दशको महाकषायः पाचनं निगदितं च वर्तते ॥ (च. सं. । सू. स्था. १ अ. ४ ) हींग, पोखरमूल, कचूर और काला नमक आम्राम्रातकनिकुचकरमर्दवृक्षाम्लाम्लवे(संचल) समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । तसकुवलबदरदाडिममातुलुङ्गानीति दशेमानि यह क्वाथ शूल और विशेषतः वातज शलको हृयानि भवन्ति । नष्ट करता है तथा पाचक है । ____ आम, अम्बाड़ा, लकुच, करोंदा, तिन्तडीक ( काला नमक क्वाथ तैयार होने पर मिलाना (इमलो), अम्लवेत, कुवल (बड़ा बेर), झाडोका बेर, चाहिये।) अनार और बिजौरा-ये दश चीजें हृदयके लिये (८४३५) हिङ्ग्वादिकाथः (२) हितकारी हैं। (हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) (८४३८) ह्रीबेरादिकषायः (१) हिङ्गुनागरसठीसुवर्चलं (भै. र. । स्त्रीरोगा. ; च. द. । स्त्रीरोगा. ६२; . दारुपौष्करघनं पुनर्नवा । र. र. । स्त्री, वृ. यो. त. । त. १४० ; व. क्वाथपानमिति शूलिनां से. । स्त्री. ; धन्व. । सूतिका. ; यो. र. | स्त्री.) हितं पाचनं जठरगुल्मिनामपि ॥ हीवेरारलुरक्तचन्दनबलाहींग, सांठ, कचूर, काला नमक (संचल), धन्याकवत्सादनीदेवदारु, पोखरमूल, नागरमोथा और पुनर्नवाकी जड़ मुस्तीशीर यवासपर्पटविषासमान भाग ले कर क्वाथ बनावें । __ क्याथं पिबेद् गर्भिणी। यह क्याथ शूल, उदररोग और गुल्मको नष्ट नानावर्णरुजातिसारकगदे करता है तथा पाचक है। रक्तस्रतौ वा ज्वरे ( काला नमक क्वाथ तैयार होने पर मिलाना | योगोऽयं मुनिभिः पुरा चाहिये ।) निगदितः मूत्यामयेष्त्तमः ॥ (८४३६) हिज्जलपत्रस्वरसः सुगन्धबाला. अरलुकी छाल, लाल चन्द, (ग. नि. । अतिसारा. २) खरे टी, धनिया, गिलोय, नागरमोथा, खस, जवासा, दलोत्थः स्वरसः पीतो हिज्जलस्य समाक्षिकः। पित्तपापड़ा और अतीस समान भाग ले कर जयत्याममतीसारं क्वाथो वा कुटजोद्भवः ।। क्वाथ बनावें । हिज्जल वृक्षके पत्तोंके स्वरसमें शहद मिला यह क्वाथ गर्भिणी और प्रसूताके पंडायुक्त कर पीने या कुडेको छालका (या इन्द्रजौका) क्याथ अनेकरंगों वाले अतिसार, रक्तस्राव और ज्दरको नष्ट पीनेसे आमातिसारका नाश होता है । - करता है। For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारांदि (८४३९) होबेरादिकषायः (२) (८४४१) होबेरादिक्वाथः (२) ( रा. मा. । ज्वरा. २० : ग. नि. । ज्वरा. १) । (वै. र. । अतीसारा. ; यो. चि. म. । अ. ४ ; वृ. यो. त. । त. ६५ ; वं. से. ; ग.नि.। हीबेरपर्पटचन्दनशुण्ठत्युशीर , ज्वरातिसारा. १ ; वृ. मा. ; भै. र. । मुस्तैः कृतं पिबति यः पुरुषः कषायम् ।। ___ ज्वराति.) तडदाहस्वेदजननं जयति ज्वरं स . हीबेरातिविषामस्ताबिल्वधान्यकनागरैः। पित्तोत्थमुग्रमपि दत्तदुरन्तमूच्र्छम् ॥ पिवेपिच्छाविबन्धनं शूलदोषामपाचनम् ।। सुगन्धबाला, पित्तपापड़ा, लाल चन्दन, सेठ, सरक्तं हन्त्यतीसारं सज्वरं वाथविज्वरम् ॥ खस और नागरमोथा समान भाग ले कर सुगंधवाला, अतीस, नागरमोथा, बेलगिरी, क्वाथ बनावें । | धनिया और सांठ समान भाग लेकर काथ बनावें । यह क्वाथ तृषा, दाह और पित्तज उग्र ज्वरको यह क्वाथ ज्वर सहित और ज्वर रहित अतिनष्ट करता है। सार, रक्तातिसार, शूल, पिच्छल अतिसार और मलावरोधको नष्ट करता तथा आमको पचाता है। (८४४०) हीबेरादिक्वाथः (१) ___ (८४४२) हीबेरादिक्वाथः (३) ( वृ. यो. त.। त. ६४; व. से. । अतिसारा. ; (वृ. नि. र. । स्त्री रोगा.) र. र. । ज्वराति.) हीबेरातिविषामुस्तामोचशः शृतं जलम् । हीबेरातिविषा मुस्तं बिल्बधान्यकवत्सकम् । दद्याद्गर्भे प्रचलिते प्रदरे कुक्षिरुज्यपि ॥ समगा धातकी लोधं विश्वं दीपनपाचनम् ।। सुगन्धबाला, अतीस, नागरमोथा, मोचरस हन्त्यरोचकपित्तामविबन्धं चातिवेदनम् ।। | और इन्द्रजौ समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । सशोणितमतीसारं सज्वरं वाऽथ विज्वरम् ॥ यह क्वाथ गर्भके चलित होने ( हिलने )में, सुगन्धबाला, अतीस, नागरमोथा, बेलगिरी, प्रदरमें और कुक्षिशूलमें उपयोगी है । धनिया, इन्द्रजौ, मजीठ, धायके फूल, लोध और (८४४३) हीबेरादिवाथः (४) सेठि समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।। (वृ. नि. र. । आमातिसारा. ) यह क्वाथ दीपन पाचन है और अरुचि, हीबेरशृङ्गवेराभ्यां मुस्तापर्पटकेन च । पित्त, आम, मलावरोध, पेटकी पीड़ा ( मरोड ) । मुस्तोदीच्यशृतं तोयं देयं वापि पिपासिते ॥ रक्तातिसार, ज्वरयुक्त अतिसार और ज्वररहित अति- ___आमातिसारमें रोगीको प्यासमें सुगन्धबाला सारको नष्ट करता है। और सेठका या नागरमोथा और पित्तपापड़ेका For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कषायप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४३९ अथवा नागरमोथा और सुगन्धवालाका पानी देना पाययेत्तेन सद्यो हि रक्तपित्तं प्रणश्यति । चाहिये । रक्तपित्तं जयत्युग्रं तृष्णां दाहं ज्वरं तथा ॥ ( १ तोला औषधको १ सेर पानी में पकाकर आध सेर रहने पर छान लें । ) (८४४४) हाबेरादिक्रवाथ : ( ५ ) ( वृ. नि. र. । अतिसारा; शा. सं. । खं. २ अ. २ ) हीरात कीलोपाठाल जालवत्सकैः । धान्यकातिविषामुस्तगुडू वीबिल्वनागरैः || कृतः कषायः शमयेदती सारं चिरोत्थितम् । अरोचकामशूलास्त्रज्वरघ्नः पाचनः स्मृतः ॥ सुगन्धवाला, धायके फूल, लोध, पाठा, लज्जालु की जड़, इन्द्रजौ, धनिया, अतीस, नागरमोथा, गिलोय, बेलगिरी और सांठ समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । यह क्वाथ पुराने अतिसार, अरुचि, आम, शूल, रक्तस्राव और ज्वरको नष्ट करता है एवं पाचन है । ; (८४४५) ह्रीवेरादिक्वाथः (६) ( भै. र. । रक्तपित्ता. ; वृ. नि. र. । रक्तपित्ता. व. से. । रक्तपित्ता. ) हीबेरमुत्पलं धान्यं चन्दनं यष्टिकामृता उशीरच त्रिवृचैषां क्वाथं समधुशर्करम् || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुगन्धबाला, नीलोत्पल, धनिया, लाल चन्दन, मुलैठी, गिलोय, खस और निसोत समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । इसमें खांड और शहद मिलाकर पीने से उम्र रक्तपित्त, तृष्णा, दाह और ज्वरका शीघ्र ही नाश हो जाता है । (८४४६) ह्रीवेरादिक्वाथः ( ७ ) ( यो. र. । रक्तपित्ता. ; वृ. नि. र. । रक्तपित्ता. ; व. से । ज्वरा. ) हीबेरं वान्यकं शुण्ठीं चन्दनं मधुयष्टिका । वृषोशोरयुतः क्वाथः शर्करामधुयोजितः || रक्तपित्तं जयत्युग्रं तृष्णां दाहं ज्वरं तथा ।। सुगन्धवाला, धनिया, सोंठ (पाठान्तर के अनुसार नागरमोथा), लाल चन्दन, मुलैठी, बासा (अडूसा) और खस समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । इसमें खांड और शहद मिला कर पीने से प्रबल रक्तपित्त, तृष्णा, दाह और ज्वर का नाश होता है । १ ह्रीबेरं धान्यकं मुस्तमिति पाठान्तरम् ॥ इति हकारादिकषायप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ४४० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि अथ हकारादिचूर्णप्रकरणम् -re are(८४४७) हरिद्रकवृक्षयोगः हल्दी, काली मिर्च, मुनका, गुड़, रास्ना, ( वृ. नि. र. । ज्वरा.) पीपल और सांठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । सहरिद्रयवक्षारौ पीत्वा चोष्णेन वारिणा।। है इसे सरसों के तेलमें मिला कर सेवन करनेसे भयंकर स्वास भी नष्ट हो जाता है । नानादेशसमुद्भूतं वारिदोषपपोहति ॥ हल्दी और जवाखार समान भाग ले कर। (मात्रा-|-२ माशा।) चूर्ण बनावें। (८४५०) हरिद्रादिचूर्णम् (२) इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे नाना (वृ. नि. र. । कामला.) देशांके जलका विकार नष्ट हो जाता है। निशाचूर्ण कर्पमितं दध्नः पलमितं तथा । (मात्रा-१॥ माशा) प्रातः संसेवनं कुर्यात् कामलानाशनं परम् ॥ ... (८४४८) हरिद्रादिक्षारः प्रातःकाल ११ तोला ( व्यवहा. मा. ३-४ (च. सं. । चि. स्था ६ अ. १९ ग्रहण्य. ; | माशा ) हल्दीके चूर्ण को ५ तोले दहीमें मिलाकर । सेवन करनेसे कामला रोग नष्ट हो जाता है। व. से. । ग्रहण्य.) द्वे हरिद्रे वचा कुष्ठं चित्रकः कटुरोहिणी। (८४५१) हरिद्रादियोगः (१) मुस्तं च वस्तमत्रेण सिद्धः क्षारोऽग्निवर्द्धनः ॥ ( वृ. यो. त. । त. १०२; यो. र. । अश्मय. ; _हल्दी, दारुहल्दी, बच, कूठ चीता, कुटकी यो. र. ; 2. नि. र. । मूत्रकृ.) और नागरमोथा समान भाग ले कर यथाविधि भस्म । यः पिबेद्रजनी सम्यक्सगुडां तुषवारिणा । करके बकरीके मूत्रमें घोलकर क्षार बनावें । तस्याऽऽशु चिररूढाऽपि यात्यस्तं मेढ़ शकेरा॥ इसे बकरीके मूत्रके साथ सेवन करनेसे अग्नि (३-४ माशा) हल्दी के चूर्णको (१ तोला) की वृद्धि होती है। गुड़में मिला कर कांजीके साथ सेवन करनेसे पुरानी (मात्रा-२-३ माशे । ) शर्करा भी नष्ट हो जाती । (८४४९) हरिद्रादिचूर्णम् (१) (८४५२) हरिद्रादियोगः (२) ( यो. र. । श्वासा.) (वै. म. र. । पटल ७ ) हरिद्रा मरिचं द्राक्षा गुडो स्ना कणा सटी।। प्रातरेव रजनी मुभक्षिता कटुतैले लिहन्हन्याच्छासान्प्राणहरानपि ॥ मेहविंशतिविनाशिनी ध्रुवम् ।। For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चूर्णमकरणम् ] पञ्चमाः ४४१ प्रातःकाल हल्दी ( ३ माशा ) चूर्णको विवातकफपित्तानामानुलोम्येन निर्मले । शहदके साथ सेवन करने से २० प्रकारके प्रमेह : गुदेऽशांसि प्रशाम्यन्ति पावकश्चाभिवर्द्धते ॥ अवस्य नष्ट हो जाते हैं । (८४५३) हरिद्राचं चूर्णम् ( वैद्यामृत । विषय ३५ ) गोमूत्रेण निशाचूर्ण सगुडं यः पिबेत्सखे । वर्षोत्थं श्लीपदं तस्य दद्रु कुष्ठं च नश्यति ॥ हल्दीके ( ३ - ४ माशा ) चूर्णको गुड़में मिला कर गोमूत्र के साथ सेवन करने से १ वर्षका पुराना श्लीपद और दाद तथा कुष्ठ रोग नष्ट हो जाता है। (८४५४) हरिद्रावर्तनम् ( ग. नि. । कुष्टा. ३६ ) निशासुधारग्वधकाकमाचीपत्रैश्च दावप्रपु भाटबीजैः । तक्रेण पिष्टैः कटुतैलमित्रैः पामादिषूद्वर्तनमेतदिष्टम् || हल्दी, थूहर (स्नुही) का दूध, अगलतास के पत्ते, मकोय के पत्ते, दारूहल्दी और पंवाड़ के बीज समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे टाळके साथ पीसकर सरसों के तेलमें मिला कर मालिश करने से पामा आदि का नाश होता है। (८४५५) हरीतकीयोगः (१) ( च. सं. । चि. ६ अ. ९ ) गुडां पिप्पलीयुक्तां घृतभृष्टां हरीतकीम । त्रिन्तीयुतां वापि भक्षयेदानुलोमिकीम् ।। પદ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हर्रको घी में भूनकर चूर्ण करें और फिर उसमें उसके बराबर पीपलका चूर्ण या निसोत और दन्तीमूलका चूर्ण मिला कर, गुड़में मिला कर सेवन करने से मल, वायु, कफ और पित्त स्वमार्गगामी होते और गुदा निर्मल हो जाती है तथा अर्शका नाश हो जाता है I ( मात्रा - ३ माशा | ) (८४५६) हरीतकीयोग: ( २ ) ( भै. र. । वृद्धय : व. से. । अन्त्रवृद्रय ) etani मूत्रसिद्धां सतैां लवणान्विताम् । प्रातः प्रातरच सेवेत कफवातामयापहाम् ॥ हर्रोको गोमूत्र में पका कर चूर्ण करें । ( ३ माशे) इस चूर्ण में ( १ माशा ) सेंधानमक और तिलका तेल मिला कर प्रातःकाल सेवन करनेसे कफवातज वृद्धिका नाश होता है । (८४५७) हरीतक्यादिकल्कः (१) ( ग. नि. । ऊरुस्तम्भा. २१ ) हरीतकी च चव्या च चित्रको देवदारु च । कल्कं मधुयुतं पीत्वा ऊरुस्तम्भाद्विमुच्यते ॥ हर्र, चव, चीतामूल और देवदारु समान भाग ले कर सबको पत्थर पर पानीके साथ पीसकर शहद में मिलाकर पीने से ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट हो जाता है । मात्रा - ६ माशे । ) For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि (८४५८) हरीतक्यादिकल्कः (२) ! (८४६१) हरीतक्यादिचूर्णम् (३) (यो. र. । बाला. ; वा. भ. । उ. अ. २; (यो. र. । कृम्य.) . मा. । बाला.) - हरीतकी चैव तथा हरिद्रा हरीतकीवचाकुष्ठकल्कं माक्षिकसंयुतम् । ! सौवचलं चैव समं विचूर्णितम् । पीत्वा कुमारः स्तन्येन मुच्यते तालुकण्टकात्॥ इन्द्रवारुणिजलेन भावितं हर, चव और कूठ समान भाग लेकर पत्थर कीटसङ्गविनिवारणं परम् ॥ पर पानी के साथ पीस लें और शहद में मिला लें। ___ हर्र, हल्दी और संचल ( काला नमक ) ___इसे बच्चेकी माके दूधमें घोलकर उसे पिला- ! कर उसे पिला- ! समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे इन्द्रायण नेसे तालुकण्टकरोग नष्ट होता है। के स्वरसमें खरल करके सुखा लें। (मात्रा-३-४ रत्ती ।) ___यह चूर्ण कृमियों को नष्ट करता है । (८४५९) हरीतक्यादिचूर्णम् (१) . (मात्रा-३ माशा ।) ( भा. प्र. म. खं. २ । अम्लपित्ता.) (८४६२) हरीतक्यादिचूर्णम् (४) अभया पिप्पली द्राक्षा सिता धान्ययवासकम् । a (ग, नि. । छर्य. १४ ; वृ. नि. र. । बाला. : मधुना कण्ठदाहघ्नं पित्तश्लेष्महरं परम् ॥ । वृ. नि. र.। छZ. ; यो. र. । छर्य. ; वृ. मा. ; वृ. यो. त. । त. ८३ : व. से. छई.) हर, पीपल, मुनक्का, मिश्री, धनिया और . र हरीतक्याः कृतं चूर्ण मधुना सह लेदयेत् । जवासा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। __अधस्ताद्विहिते दोषे शीघ्र छर्दिः प्रशाम्यति ॥ इसे शहदके साथ सेवन करनेसे कण्ठकी दाह । हर के चूर्णको शहद में मिलाकर सेवन करने तथा पित्त और कफका नाश होता है । । से अधोगत दोप नष्ट होते और छर्दि शान्त हो (मात्रा-~-१॥-२ माशा ।) जाती है । (८४६०) हरीतक्यादिचूर्णम् (२) । ( यह योग पित्तज छर्दि में उपयोगी है।) (यो. र. ; वृ. नि. र. । जीर्णचरा.) (मात्रा-थोड़ी थोड़ी देग्में १ .-१ माशा हरीतकी निम्बपत्रं नागरं सैन्धवोनलः। चटावें ।) एषां चूर्ण सदा खादेद् दुर्जलज्वरशान्तये ।। (८४६३) हरीतक्यादिचूर्णम् (५) हर, नीमके पत्ते, सोंठ, सेंधा नमक और (वृ. नि. र. । आमातिसारा. : शूला. : यो. र. : चीता समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।। व. से. । आमाति.; शा. ध. । खं. २ श. ६) इसके सेवन से दुर्जल दोषसे उत्पन्न होने हरीतकी प्रतिविषासिन्धुसौवर्चलं वचा। वाला ज्वर नष्ट हो जाता है । हिङ्ग रेति कृतं चूर्ण पिबेदुष्णेन वारिणा ।। ( मात्रा--२ माशा ।) आमातीसारशमनं ग्राहि चाऽग्निप्रबोधनम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] हर्र, अतीस, सेंधा नमक, काला नमक ( संचल ), बच और हींग समान भाग चूर्ण बनावें । कर पञ्चमो भागः इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे आमातिसार का नाश होता है । यह चूर्ण ग्राही और दीपन है । पाठान्तर के अनुसार स्थान पर " इन्द्रजौ " है । ( मात्रा - ६ माशे । ) (८४६५) हरीतक्यादिचूर्णम् (७) ( ग. नि. । ज्वरा. १ ) चूर्ण हरीतकी हिङ्गुपिप्पलीनागरान्वितम् । मातुलुङ्गरसाक्तं तु सन्निपातज्वरे हितम् || हर्र, हींग, पीपल और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे बिजौरेके रस में मिला कर सेवन करने से सन्निपात वर नष्ट होता है । ( मात्रा - ४ रत्ती । ) ( मात्रा - ६ रत्ती । ) (८४६४) हरीतक्यादिचूर्णम् (६) ( वृ. मा. 1 उदावर्ता; यो र.; वृ. नि. र. ग. नि. । उदावर्ता. १४ ) हरीतकी यवक्षार: पीलूनि त्रिवृता तथा । घृतैश्चूर्णमिदं मुदावर्तविनाशनम् ॥ ( मात्रा -- २ - ३ माशे 1 ) (८४६७) हरीतक्यादिचूर्णम् (९) (ग. नि. । हृद्रोगा. २६; भै. र. । हृद्रोगा. ; वृ.नि. र. | हृद्रोगा. ) हरीतकी वचा रास्ना पिप्पली विश्वभेषजम् । इसे घृतमें मिलाकर पीनेसे उदावर्तका नाश | शठीपुष्करमूलं च चूर्ण हृद्रोगनाशनम् ॥ हर्र, जवाखार, पीलुके फल और निसोत समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । होता है। हर्र, बच, राना, पीपल, सोंठ, कचूर और पोखरमूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे सेवन करने से हृद्रोग का नाश होता है। ( मात्रा --- २ - ३ माशे । ) (८४६८) हरीतक्यादिचूर्णम् (१०) " सेंधा नमक " के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४३ (८४६६) हरीतक्यादिचूर्णम् (८) (व. से. । वातव्या . ; वृ. नि. र. । वातव्या . ) हरीतकी वचा रास्ना सैन्धवं चाम्लवेतसम् । घृतमार्द्रक संयुक्तमपतन्त्र कनाशनम् ॥ हरी, बच, राना, सेंधा नमक, अम्लवेत और अदरक (सोंठ) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे घी में मिला कर चाटने से अपतन्त्रक रोग नष्ट होता है । ( रा. मा. । ज्वरा. २० ) चूर्ण शिवामलकचित्र पिप्पलीनां लक्ष्णीकृतं पिबति यः शिशिरोदकेन । दीप्तिं करोति च परां जठरानलस्य क्षीणेन्द्रियस्य कुरुते रतिशक्तिमेतत् ॥ हर्र, आमला, चीतामूल और पीपल समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनावें । For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि - इसे शीतल जलके साथ सेवन करने से जठ- हरों को गोमूत्रमें पका कर अण्डीके तेल में राग्नि दीप्त होती तथा इन्द्रियोंकी निर्बलता नष्ट भून कर चूर्ण कर लें और उसमें ( स्वाद योग्य ) हो कर कामशक्ति बढ़ती है। सेंधा नमक का चूर्ण मिला लें। (मात्रा-२-३ माशे । ) इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे पुराना (८४६९) हरीतक्यादिचूर्णम् (११) : वृद्धि रोग भी नष्ट हो जाता है। ( ऋ. मा. , व. से.। अजीर्णा : ग. नि. (मात्रा-६ माशे । ) अजीर्णा. ५) हरीतकी भक्ष्यमाणा नागरेण गुडेन वा। (८४७२) हरीतक्यादिचूर्णम् (१४) सैन्धवोपहिता वापि सातत्येनानिटीपनी (वृ. नि. र. । अन्तर्विद्रध्य.; वृ. यो. त. । हर्र और सोंठ के समान भाग मिश्रित त. ११० ; यो. र. । अन्तर्वि.) (१॥ माशा) चूर्णको या हर्र और गुड़के (६ माशा) हरीतकीसैन्धवधातकीनां चूर्णको ( गरम पानीसे ) सेवन करने से या हरके रजो घृतक्षौद्रयुतं तु शीघ्रम् । चूर्ण में सेंधा नमक मिलाकर ( गरम पानीसे ) सेवन निहन्ति लीढं ध्रुवमेव पुंसाकरने से अग्नि दीप्त होती है। मन्तर्भवं विद्रधिमुग्ररूपम् ॥ (८४७०) हरीतक्यादिचूर्णम् (१२) हर, सेंधा नमक और धायके फूल समान (हा. सं. । स्था. ३ अ. १४ ) भाग ले कर चूर्ण बनावें। हरीतकी सनागरं पियेत् सुखोष्णवारिणा। इसे घी और शहदके साथ सेवन करने से निहन्ति कासश्वासौ च जयेच कामलामयम् ॥ भयंकर अन्तर्विदधि भी अवश्यमेव शीघ्र ही नष्ट __ हर्र और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। हो जाती है । इसे मन्दोण जलके साथ सेवन करनेसे कास, (मात्रा-३-४ माशे । ) श्वास और कामलाका नाश होता है। (८४७३) हरीतक्यादिपूर्णम् (१५) ( मात्रा --२-३ माशा । ) (८४७१) हरीतक्यादिचूर्णम् (१३) ( यो. २. । श्लीपदा.) ( ग. नि. । वृदय. ३५ : यो. र. । वृदय : । गन्धर्वतेलभृष्टां हरीतकी गोजलेन यः पिबति। . यो. त. । न. ५५) श्लीपदबन्धनमुक्तो भवत्यसौ सप्तरात्रेण ।। गोमूत्रसिद्धा रुबुतैलभृष्टां हर को अरण्डीके तेलमें भूनकर गोमूत्रके साथ ___ हरीतकी सैन्धवचूर्णयुक्ताम् । ; सेवन करने से सात दिन में श्लीपद रोग नष्ट खादेन्नरः कोष्णजलानुपानां । हो जाता है। निहन्ति वृद्धि चिरतः प्रवृद्धाम ।। ( मात्रा-६ माशे ।) For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ४४५ - (८४७४) हरीतक्यादिचूर्णम् (१६) पिप्पली मधुसमन्विताऽभया ( व. से. । अजीर्णा. ; ग. नि. । परि. चूर्णा.. रक्तपित्तमतिदुजेयं जयेत् ॥ ३; अजीर्णा. ५) ' हरं को बासे (अडूसे) के रसकी सात भावना हरीतकी धान्यतुषोदसिद्धा । दें। हर भावनाके पश्चात् सुखाते रहना चाहिये । सपिप्पलीसैन्धवहिायुक्ता। । तदनन्तर उसमें उसके बराबर पीपलका चूर्ण मिला सोद्गारधूमं भृशमप्यजीर्ण : कर रखें। विजित्य सद्यो जनयेत्क्षुधां च ॥ ___ इसे शहद के साथ सेवन करनेसे दुर्जय रक्त हरको कांजी में पकाकर चूर्ण कर लें फिर पित्त भी नष्ट हो जाता है। उसमें पीपल, सेंधा नमक और हींगका चूर्ण (प्रत्येक (मात्रा--२-३ माशा ।) उसके बराबर) मिला लें। (८४७७) हरीतक्यादियोगः (२) इसके सेवनसे प्रवृद्ध अजीर्ण और धूमोद्गार (ग. नि. । उदरा. ३२) का नाश होकर भूख लगती है। हरीतकी पुष्करतैलपक्यां (मात्रा-८ रत्ती) ___ सञ्चूयं गोमूत्ररसैः पिबेतै। (८४७५) हरीतक्ष्यादिचूर्णम् (१७) सपिप्पलोसैन्धवमिश्रितां च (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४) जलोदराक्रान्तजनः सुखाय ॥ हरीतकी पिप्पलीदीप्यकं सठी ___ हर को पोखरमूलके तेलमें पकाकर चूर्ण करें सनागरं तुम्बरु हिज सैन्धवम् । और फिर उसमें पीपल और सेंधा नमकका चूर्ण सौवर्चलेनापि युतं तु चूर्ण । (प्रत्येक उसके बराबर ) मिला लें। त्वजीर्णकं हन्ति सदैव सेवितम् ॥ इसे गोमूत्रके साथ सेवन करने से जलोदरका हर, पीपल, अजवायन, कचर, सोंठ, तुम्बुरु. नाश होता है। हींग, सेंधानमक और संचल ( काला नमक) (मात्रा-६ माशे । ) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । (८४७८) हरीतक्यादियोगः (३) इसे सेवन करनेसे अजीर्णका नाश होता है। (वा. भ. । उ. अ. ३९ रसायना.) (मात्रा-१। माशा । ) हरीतकीमामलकं सैन्धवं नागरं वचाम् । • (८४७६) हरीतक्यादियोगः (१) । हरिद्रां पिप्पली वेल्लं गुडं चोष्णाम्बुना पिबेत् ।। ( हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) स्निग्धः स्विन्नो नरः पूर्व तेन साधु विरिच्यते॥ आटरूषकरसेन सप्तधा हरें, आमला, सेंधा, सोंठ, बच, हल्दी, पीपल, भाविता च पुनरेव शोषिता । बायबिडंग और गुड़ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [इकारादि रोगीकों स्निग्ध करके खेदित करनेके पश्चात् . ॐ गरविष दृष्टौ गृहामि स्वाहा" हस्तिउष्ण जलसे यह चूर्ण पिलानेसे सुख पूर्वक विरेचन कर्णग्रहणमन्त्रः ॥ "ॐ अमृतकुटीजातानां हो जाता है। अमृतं कुरु कुरु स्वाहा" अनेन पूजयेत् । ( मात्रा-६ से ९ माशे तक।) - 'ॐ अमृतोद्भवाय अमृतं कुरु कुरु नित्यं नमो (८४७९) हरीतक्यादिरसायनम् नमः' भक्षणमन्त्रः ॥ शुक्ल पक्षकी त्रयोदशी को हस्तिकर्ण पलाशके (हा. सं. । स्था. ३ अ. ६ ; वै. र. । अग्निमांद्या.; वृ. नि. र. । अजीर्णा.) पत्र ला कर छायामें सुखा लें और बारीक चूर्ण कर लें। हरीतकी हरिहरतुल्य! षड्गुणा इसमें से नित्य प्रति ५ तोला चूर्ण गायके चतुर्गुणा चतुर्विशाल ! पिप्पली । दूधके साथ १ वर्ष तक सेवन करनेसे वृद्धावस्थाका हुताशनं सैन्धवहिङ्गुसंयुतं नाश होता और आयु अत्यन्त दीर्घ हो जाती है । रसायनं हे नृप ! वहिदीपनम् ।। - हस्तीकर्ण पलाशके पंचांगको छायामें सुखाकर हर्र ६ भाग, पीपल ४ भाग तथा चीता, . सेंधा नमक और होंग १-१ भाग लेकर चूर्ण करें। । चूर्ण करें। इसमें से नित्य प्रति ११ तोला चूर्ण १ मास तक पानीके साथ सेवन करें। फिर १-१ यह चूर्ण अग्निदीपक और रसायन है । (पाठा मास क्रमशः कांजी, तक्र, दही, दूध, घी और न्तरके अनुसार चौता २ भाग तथा होगका शहदके साथ सेवन करें। अभाव है।) इस प्रयोगसे वृद्धावस्थाका नाश होकर शरीर ( मात्रा-१॥ माशा ।) वनके समान दृढ़ और आयु अत्यन्त दीर्घ हो (८४८०) हस्तिकर्णकल्पः जाती है। ( र. र. रसा. . । उपदेश ४ ) (८४८१) हस्तिकर्णरसायनम् ग्राह्यं सोमत्रयोदश्यां हस्तिकर्णस्य पत्रकम् । (३. मा. । रसायना. ; र. र. । रसायना.) छायाशुष्कं तु तच्चूर्ण गवां क्षीरैः पिबेत्पलम् ॥ हस्तिकर्णरजः खादेमातरुत्थाय सर्पिषा । वर्षमात्राज्जरां हन्ति जीवेद्ब्रह्मदिनं नरः। यथेष्टाहारचारोऽपि सहस्रायुर्भवेन्नरः ॥ हस्तिकर्णस्य पञ्चाङ्ग छायाशू-कं विचूर्णितम् ॥ मेधावी बलवान्कामी स्त्रीशतानि व्रजत्यसौ । कर्षमात्रं पिबेन्नित्यं मासैकमुदकैः सह । मधुनात्वश्ववेगः स्यादलिष्ठः स्त्रीसहस्रगः ॥ आरनालस्ततस्तक्रैर्दधिक्षीराज्यक्षौद्रकैः ।। प्रातः काल हस्तिकर्ण पलाश (के पत्तों) का प्रत्येकन क्रमात्सेव्यं मासकेन जरापहम् । चूर्ण घीके साथ खाने और इच्छानुसार आहार करने जीवब्रह्मदिनं साधे वनकायो महाबलः ॥ से आयु अत्यन्त दीर्घ होती है। मेधा, बल और For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४४७ - - काम शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है । इसके प्रभावसे . भाग, इमली ९ भाग, चीनामूल १० भाग, सोंठ पस्य सौ स्त्रियों से समागम करने में समर्थ हो ११ भाग, और धनिया १२ भाग लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें। इसे शहदके साथ सेवन करने से भी अत्यन्त (हौंग को थोड़े घी में भून लेना चाहिये । बल बढ़ता है; चाल घोड़ेके समान तेज़ हो जाती । इमलीको पानीमें भिगोकर मलकर वह पानी चूर्णमें है और हज़ार स्त्रियों के साथ समागम का बल मिलाकर सुखा लेना चाहिये ।) आ जाता है । (?) ( मात्रा-२-३ माशे ।) यह चूर्ण अरुचि, गुल्म, हृद्रोग, अष्ठीला, (८४८२) हारहूरादिचूर्णम् आध्मान, शूल और शुष्कार्श तथा रक्तार्शको नष्ट (वृ. नि. र । हृद्रोगा. ) : करता है। हारहूराहरीतक्योस्तुल्यं शर्करया रजः । (८४८४) हिजनवकचूर्णम् पीतं हिमाम्बुना हन्ति पित्तहृद्रोगमअसा ॥ (यो. २. ; व. से. । गुल्मा. : च. द. । गुल्मा. ___मुनक्का और हर का चूर्ण समान भाग ले कर २९. ; ग. नि. । गुल्मा. २५) पत्थर पर पीस लें । इसमें सबके बराबर खांड मिला हिजपुष्करमूलानि तुम्बरूणि हरीतकी। फर ठंडे पानीसे सेवन करनेसे पित्तज हृद्रोग का श्यामा बिडं सैन्धवं च यवक्षारं महौषधम् ॥ नाश होता है। यवक्वाथोदकेनैतद् घृतभृष्टं तु पाययेत् । ( मात्रा-९ माशे ।) : तेनास्य भिद्यते गुल्मः सशूलः सपरिग्रहः ।। (८४८३) हिवादशकं चूर्णम हींग, पोखरमूल, तुम्बरु ( नेपाली धनिया ), हरे, काली निसोत, बिड नमक, सेंधा नमक, जवा(ब. से. । अजीर्णा. ) खार और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । हिसैन्धवकृष्णानां कृष्णामूलककोलयोः। इसे धीमें सेककर जौके क्वाथके साथ पिलानेसे यवान्याश्च हरीतक्या दाडिमाम्लिकयोस्तथा ॥ उपद्रवयुक्त गुल्म और शूलका नाश होता है । वाहिनागरकोग्राणां भागाः संवधिताः क्रमात् । (मात्रा-१। माशा।) हिङ्गद्वादशकं नाम चूणे ब्रह्मविनिर्मितम् ॥ (८४८५) हिडपश्चकं चूर्णम् (१) अरुचिं पञ्चगुल्मांश्च हृद्रोगं संनियच्छति । (हिङ्ग्वादिचूर्णम् ) आध्मानशूलानां द्वन्द्वमशीसि नाशयेत् ॥ (व. से. । हृदोगा. ; ग. नि. । चूर्णा. ३ ; यो. हींग १ भाग, सेंधा नमक २ भाग, पीपल चि. म. । अ. २ ; वृ. नि. र. । हृद्रोगा. ) ३ भाग, पोपलामूल ४ भाग, काली मिर्च ५ भाग, : हिङ्गुसौवर्चल विश्व दाडिमं साम्लवेतसम् । अजवायन ६ भाग, हा ७ भाग, अनारदाना ८ चूर्णमुष्णाम्बुना पेयं श्वासहृद्रोगशान्तये ।। For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४८ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः हींग, सचल ( काला नमक ), सोंठ, अनारदाना और अम्लवेत समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे उष्ण जलके साथ सेवन करने से श्वास और हृद्रोग का नाश होता है । ( मात्रा - ५ रत्ती ) (८४८६) हिङ्गुपञ्चकं चूर्णम् (२) ( यो. र. । गुल्मा. ; वृ. यो त । त. ९८ ) हिङ्गुसैन्धववृक्षाम्लराजिकानागरैः समैः 1 चूर्ण गुल्मप्रशमनं स्यादेतद्भिङ्गपञ्चकम् ॥ हींग, सेंधा नमक, तिन्तडीक, राई और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसके सेवन से गुल्मका नाश होता है । ( मात्रा - ५ रत्ती । ) (८४८७) हिङ्ग्वष्टकं चूर्णम ( भै. र. । अग्निमांद्या. ; र. र. ; यो. र. भा. प्र. म. खं. २ । अजीर्णा ; च. द. । अग्निमांद्या. ६; यो. चि. म. । अ. २ ; वृ. यो. त. । त. ७१ : धन्व. । वातरोगा. ; ग. नि. | चूर्णा. ३ ) त्रिकटुकमजमोदा सैन्धवं जीरके द्वे । समरणघृतानामष्टमो हिङ्गुभागः ॥ प्रथमकबलभुक्तं सर्पिषा चूर्णमेत ज्जनयति जठरात्रिं वातरोगांश्च हन्ति || सोंठ, मिर्च, पीपल, अजमोद ( अजवायन ), सेंधा नमक, सफेद जीरा, काला जीरा और हींग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे भोजनके समय वृतमें मिलाकर प्रथम ग्रास के साथ खाने अनि दीप होती और वातरोगका नाश होता है । [ हकारादि उत्तम ( हांगको घी में भून लेना चाहिये । यदि सोंठ और जीरको भी भून लिया जाय तो अधिक है । इस योग में प्रायः वैद्य १ भाग हींग ते हैं परन्तु इतना हींग डालने से चूर्ण अधिक गरमी करता है अतः मेरी सम्मति में आठवां भाग हींग डाला जाय तो उत्तम है । ) ( मात्रा - १ माशा | ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८४८८) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१) ( यो. र. । अजीर्णा. ) ai fes fani fasar मारचं सैन्धवं विश्वकृष्णादीप्याजीराजमोदासित जरण विभीताभया वेदकर्षाः । अष्टौ मार्कण्डयोरथ बदरकपित्थोद्भवाः षोडश स्युः सलुङ्गोका हर रुचिवधा मानबन्धाग्रिसादान् || हींग १ तोला, बिड नमक २ ॥ तोले, तथा मिर्च, सेंधा नमक, सोंठ, पीपल, अजवायन, जीरा (काला), अजमोद, सफेद जीरा, बहेड़ा और हर्र ५- ५ तोले एवं सनाय और आमला १० - १० तोले और बेर तथा कैथका गूदा २०-२० तोले लेकर चूर्ण बनावें और उसे बिजौर नीबू के रस में घोटकर सुरक्षित रक्खें । इसके सेवन से अरुचि, अफारा, मलावरोध और अग्निमांद्य का नाश होता है । ( मात्रा - ५ माशे । . ) For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ४४२ - (८४८९) हिग्वादिचूर्णम् (२) क्रमथा जनितरजः ( ग. नि. । ग्रहण्य. ३) __ कासं वासं जयेत्सघृतम् ॥ हिपृक्षारौ समौ पथ्याशुण्ठीपिप्पलिचित्रकाः । हींग १ भाग, बच २ भाग, चीतामूल ३ द्वयंशास्तत्पूर्ववत्पीतं श्लेष्मग्रहणिदोषजित् ॥ भाग, सोंठ ४ भाग, अजवायन ५ भाग, हर्र ६ हींग और जवाखार १-१ भाग तथा हर्र, भाग, पीपल ७ भाग और निसोत ८ भाग लेकर सोंठ, पीपल और चीतामूल २-२ भाग ले कर चूर्ण बनावें। चूर्ण बनावें। __इसे घोके साथ सेवन करने से कास और इसे सेवन करने से कफज ग्रहणी रोग नष्ट । श्वासका नाश होता है। होता है। (मात्रा-१॥ माशा ।) (अनुपान-दही या मद्य । ) (८४९२) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (५) मात्रा-१। माशा । (वैद्यामृत । वि. ५ विषूचिका.) (८४९०) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (३) हितग्रगन्धाविडनागरदीप्यपथ्या (भै. र. ; वृ. मा. ; व. से. । गुल्मा.; वृ. नि. र.। ___ चूर्ण विभागपरिवदितमेतदाशु । वातव्या. उदावर्ता.; यो. र. । गुल्मा.) आनाहशूलगुदजानलमान्यगुल्महिङ्गनगन्धा विडशुण्ठयजाजी विष्टम्भकोदरविचिहरं समस्तम् ॥ हरीतकीपुष्करमूलकुष्ठम् । हींग १ भाग, बच २ भाग, बिडनमक ३ भागोत्तरं चूर्णितमेतदिष्टं . भाग, सेठ ४ भाग, अजवायन ५ भाग और हरै गुल्मोदराजीर्णविसूचिकासु ॥ ६ भाग लेकर चूर्ण बनावें । हींग १ भाग, बच २ भाग, विडनमक ३ यह चूर्ण अफारा, शूल, अर्श, अग्निमांद्य, गुल्म, भाग, सोंठ ४ भाग, जीरा ५ भाग, हर्र ६ भाग, । मलावरोध और विसूचिकाको शीघ्र ही नष्ट कर पोखरमूल ७ भाग और कूठ ८ भाग लेकर चूर्ण देता है। बनावें। . (मात्रा-१॥ माशा ।) यह चूर्ण गुल्म, उदररोग, अजीर्ण, और (८४९३) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (६) विसूचिका को नष्ट करता है। ( भै. र. । शूला.; वृ. मा.; च. द. । शूला. २६; (मात्रा-१॥ माशा ।) - ग. नि. | वाता. १९) (८४९१) हिग्वादिचूर्णम् (४) हिङ्गु सौवर्चलं पथ्या विडसैन्धवतुम्बुरु। (वै. म. र. । पटल ३) पौष्करश्च पिबेच्चूर्ण दशमूलयवाम्भसा ॥ हिगुवचामिमहौषधदीप्य पार्श्वहृत्कटिपृष्ठां सशूले तन्द्रापतानके । __ कपथ्याकणात्रिवृताम् । शोथे श्लेष्मप्रसेके च कर्णरोगे च शस्यते ॥ For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि हींग, काला नमक, हर, बिडनमक, सेंधानमक, इसके सेवनसे वात कफज ग्रहणी रोग और तुम्बरु ( नेपाली धनिया) और पोखरमूल समान | गर विषका नाश होता है। भाग लेकर चूर्ण बनावें। (व्यवहारिक मात्रा–११ से ३ माशे तक । ) इसे दशमूलके क्वाथ या जौ के क्वाथके (८४९५) हिवादिचूर्णम् (८) साथ सेवन करनेसे पार्च, हृदय, कमर, और पीठके शल; तन्द्रा, अपतानक, शोथ, कफ, आनाह और (हा. सं । स्था. ३ अ. ७) कर्णरोगोंका नाश होता है। हिङ्गु सौवर्चलं पथ्या यवानी सपुनर्नवा । (मात्रा-१ माशा।) | बालेरण्डो बृहत्यौ दे तुम्बरं व्योपसंयुतम् ॥ (८४९४) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (७) क्षारसौवर्चलोपेतं क्वाथं वा चूर्णकं तया । (वा. भ. चि. अ. १०। ग्रहण्य.) सयो वातात्मकं शूलं हन्ति सद्यो विचिकाम्॥ हिङ्गु विक्ता वचा माद्री पाठेन्द्रयवगोधुरम् । हींग, सञ्चल (काला नमक), हर्र, अजवायन, पञ्चकोलं च कर्भाशं पलांशं पटुपश्चकम् ॥ पुनर्नवा ( बिसखपरा), सुगन्धबाला, अरण्डमूल, घृततैलद्विकुडवे दनः प्रस्थद्वये च तत् ।। बड़ी कटेली, छोटी कटेली, तुम्बरु, सोंठ, मिर्च, आपोध्य क्वाययेदग्नौ मृदावनुगते रसे ॥ पीपल, जवाखार और सञ्चल समान भाग लेकर अन्तर्धमं ततो दग्ध्वा चूर्णीकृत्यघृताप्लुतम् । चूर्ण बनावें। पिवेत्याणितलं तस्मिश्रीणे स्यान्मधुराशनः ।। यह चूर्ण वातज शूल और विचिकाको वातश्लेष्मामयान्सर्वान्हन्याद्विषगरांश्च सः॥ तुरन्त नष्ट करता है। _हींग, कुटकी, बच काला अतीस, पाठा, . (मात्रा-२ माशे ।) इन्द्रजौ, गोखरु, पीपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल और सैठ ११-१॥ तोला तथा पांचों नमक ५-५ (८४९६) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (९) तोले लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसमें २०-२०तोले (व. से. । बालरोगा.; वृ. नि. र. । बालरोगा.) घी तथा तिलका तेल एवं ४ सेर दही मिलाकर अग्नि हिसैन्धवपालाशचूर्ण माक्षिकसंयुतम् । पर पकावें । जब पकते पकते लेही सी हो जाय लीढं निवारपत्याशु शिशूनामुद्धतां दृषाम् ॥ मिनाएedi तो उसे हाण्डीमें बन्द करके जलावें । तत्पश्चात् ___हींग, सेंधा नमक और पलाश (ढाक) की हाण्डीके स्वांगशीतल होने पर उसमें से भस्मको जड़ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। निकालकर चूर्ण करलें। इसमें से ११ तोला औषध घी में मिलाकर इसे शहद के साथ चटाने से बच्चोंकी प्रबल पीती बाहिर और उसके पास आया तृषा नष्ट हो जाती है। करना चाहिये। (मात्रा-१ रत्ती ।) For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www. kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] पञ्चमो भागः ४५१ (८४९७) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१०) (८४९९) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१२) (वृ. नि. र. । बालरोगा.) (भै. र. । शूला.) हिङ्ग कर्कटपको च गैरिकं मधजेनिका । हिङ्ग सौवर्चलं शुण्ठी पथ्या च द्विगुणोत्तरा। त्रुटि क्षौद्रं नागरं च हिक्काश्वासनिवारणम् ॥ एतच्चूर्ण कटीकुक्षिपाचहरस्तिशूलनुत् ॥ हींग, काकडासिंगी, गेरु, मुलैठी, छोटी इला होंग १ भाग, संचल (काला नमक) २ भाग, | सांठ ४ भाग और हरं आठ भाग लेकर चूर्ण बनावें। यची और सांठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । । ___यह चूर्ण कमर, कुक्षि, पार्श्व, हृदय, और इसे शहद में मिलाकर चटानेसे बालकों की बस्ति के शूलको नष्ट करता है । हिचकी और श्वास का नाश होता है । (मात्रा-२ माशा ।) __(मात्रा–२-३ रत्ती।) (८५००) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१३) (वृहद्) (८४९८) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (११) । ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३ ) | हिनागरषड्ग्रन्था यवानी चाभया त्रिवत् । (वृ. यो. त.। त. ९४ ; वृ. मा. । शूला. ; ग. नि.। शूला. २३ ; भै. र. । शुला. ; व. विडङ्गं दारु चव्यं च तुम्बुरुकुष्ठमुस्तकाः ॥ हपुषा कलशी रास्ना वत्सका सदुरालभा। से. । अतिसारा. ; भा. प्र. म. खं. २।। | शतावरी बृहत्यौ च त्वगेला पत्रजीरकम् ॥ अतिसारा. ; वृ. नि. र. । अति.) पुष्करं तिन्तिडीकं च वृक्षाम्लं चाम्लवेतसम् । शले निरन्त्रकोष्ठेऽद्भिरुष्णाभिश्चूर्णिताः पिवेत्। वो शारौ पश्चलवणं समं चैकत्र मिश्रयेत् ॥ हिङ्गपतिविषाव्योषवचा सौवर्चलाभयाः ॥ मत्रेण भावनां चैकां दया छायाविशोषितम् । हींग, अतीस, सोंठ, मिर्च, पीपल, बच, वीजपूरकतोयेन भावयेच दिनत्रयम् ॥ संचल (काला नमक) और हरै समान भाग लेकर बिडालपदिकां मात्रां युञ्जीत शूलशान्तये । चूर्ण बनावें। वाते चोष्णोदकेनापि पित्ते शर्करयान्वितः ।। इसे प्रातःकाल खाली पेट ( निरन कोष्ठमें ) | त्रिफलाकाथमधाभ्यां श्लेष्मरोगे प्रशस्यते । गरम पानीके साथ पीनेसे शूल नष्ट होता है ।* शूलानाइविबन्धेषु मन्दाग्नौ गुल्मविद्रधौ । प्लीहोदराणां पाण्डूनां ज्वरिणां च विशेषतः । . (मात्रा-१ माशा।) | निहन्ति रोगसङ्घातं मेघद्वन्द मरुद् यथा ॥ ___ * भा. प्र. तथा वं. से. में इसी प्रयोगको हींग, सांठ, बच, अजवायन, हरं, निसोत, श्लेष्मातिसारमें गरम पानीसे सेवन करने के लिये बायबिडंग, देवदारु, चव्य, तुम्बरु, कूठ, नागरमोथा, लिखा है। हाऊबेर, शालपर्णी, रास्ना, इन्द्रजो, धमासा, शतावर, For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ हकारादि छोटी कटेली, बड़ी कटेली, दालचीनी, 'लायची, तुम्बुरुपुष्करविश्वमुराई तेजपात, जीरा, पोखरमूल, तितडीक, इमली, क्षारयुगं लवणानि च पश्च ।। अम्लवेत, जवाखार, सज्जीखार और पांचों नमक वातिकगुल्मविनाशनहेतोः समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे शुलरुजश्च निहन्ति नराणाम् ॥ गोमूत्रकी १ भावना देकर छायामें सुखा लें। ___ होग, हर्र, बहेड़ा, आमला, सफेद जीरा, तदनन्तर बिजौरे नीबूके रस में ३ दिन खरल | कालाजीरा, चीतामूल, भरंगी, कूठ, बायबिडंग, करके सुखाकर सुरक्षित रखें । तुम्बरु, पोखरमूल, सोंठ, देवदारु, जवाखार, सज्जी. मात्रा-११ तोला । व्यवहारिक मात्रा खार, और पांचों नमक समान भाग ले कर १॥-२ माशे) चूर्ण बनावें। ___इसके सेवनसे शूल, अफारा, मलावरोध, ___यह चूर्ण वातज गुल्म और शूलको नष्ट अग्निमांद्य, गुल्म, विद्रधि, प्लीहा, पाण्डु और विशे करता है। षतः ज्वरका नाश होता है। (मात्रा-२ माशे ।) __ अनुपान-वातमें उष्ण जलके साथ, पित्तमें खांडके साथ, कफमें त्रिफलेके काथ और सुराके साथ (८५०३) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१६) सेवन करना चाहिये। | ( भै. र. ; व. से. ; वृ. मा. । शूला. ; ग. नि.। (८५०१) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१४) शूला. ३) (ग. नि. । शूला. २३ ; वृ. मा. ; व. से. । | सहितुम्बुरुव्योषयमानीचित्रकामयाः । ___ शूला. ; च. द. । शूला. २६; व. सक्षारलवणाश्चूर्ण पिबेत्पात: मुखाम्बुना ।। से. । उदरा.) विण्मूत्रानिलशूलनं पाचनं वहिदीपनम् ॥ हिमु त्रिकटुकं कुष्ठं यवक्षारोऽथ सैन्धवम् । हींग, तुम्बरु, सोंठ, मिर्च, पीपल, अजवायन, मातुलुङ्गरसे पेयं प्लीहशूलरुजापहम् ॥ | चीतामूल, हर, जवाखार और पांचों नमक समान . हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, कूठ, जवाखार और भाग लेकर चूर्ण बनावें । सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। इसे प्रातःकाल मन्दोष्ण जलके साथ सेवन इसे बिजौ रे नीबूके रसके साथ सेवन करनेसे । करनेसे मल मूत्र और वायुका रुकना तथा शूलका प्लीहा और शूलका नाश होता है । नाश होता है एवं यह पाचन और दीपन है । (मात्रा-१ माशा ।) . (मात्रा-२ माशे।) (८५०२) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१५) ___ (८५०४) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१७) (हा. सं. । स्था. ३ अ. २८ ) (वृ. नि. र. । शूला. ) हिशफलत्रिकजीरकयुग्म हिङ्ग्यक्षाकुबेराक्षादाः शूलेम्बुना सुखाः । चित्रकभार्गीसकुष्ठविडङ्गम् । । गुडाभयं वा सघृतो रसोनः शूलनुत्परः ॥ For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www. kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ४५३ हींग १ भाग, बहेड़ा २ भाग, अदरक (सांठ), भावितं मातुलुङ्गस्य चूर्णमेतद्रसेन वा। ३ भाग और करञ्ज बीज ४ भाग लेकर चूर्ण बनावें। बहुशो गुटिका कार्याः कार्मुकाः स्युस्ततोऽ. इसे जलके साथ सेवन करने से शूल नष्ट । धिकाः॥ होता है। । हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, पाठा, हपुषा गुडमें हर्र का चूर्ण मिला कर खानेसे या घी के । हर्र, कचूर, अजमोद, अजवायन, तिन्तडीक, साथ ल्हसन खानेसे भी शूल नष्ट हो जाता है। अम्लवेत, अनारदाना, पोखरमूल, धनिया, जीरा, ( मात्रा-२-३ माशे।) चीतामूल, बच, जवाखार, सज्जीखार, सेंधानमक, सञ्चल ( काला नमक ), और चव्य समान भाग (८५०५) हिङ्ग्वादिचूर्णम् (१८) लेकर चूर्ण बनावें । (ग, नि. । चूर्णा. ३; व. से. । गुल्मा. ; यो.. इस चूर्णको नीबूके रसकी अनेक भावनाएं त.। त. ४६; वृ. नि. र.। वातव्याध्य. ; देकर गोलियां भी बना सकते हैं। भा. प्र. म. खं. २ । वातव्या. गुल्मा. ; । इसे भोजनके आरम्भ में मद्य अथवा उष्ण यो. र. । गुल्मा.; भा. प्र. म. खं. २ । जलके साथ सेवन करामा चाहिये । गुल्मा. ; सु. सं. । चि. स्था. अ. ५; इसके सेवनसे पार्श्वशल, हृदयशूल, वस्तिशूल, वै. जी. । वि. ३; वृ. यो. त.त. वातकफज गुल्म, अफारा, मूत्रकृच्छ, गुदपीड़ा, ९०, ९४ ; मै. र. ; धन्व. ; र. योनिशल, ग्रहणी विकार, अर्श, प्लीहा, पाण्डु, र. । गुल्मा.; च. सं. । चि. अ. अरुचि, छातीकी जकड़ाहट, हिचकी, श्वास, कास ५ गुल्मा. ; शा. ध.। । और गलग्रहका नाश होता है ।* खं. २ अ. ६) (मात्रा-२ माशे ) हिशु त्रिकटुकं पाठां हवुषामभयां शटीम् । *पाठान्तर-- अजमोदाजगन्धे च तिन्तिडीकाम्ळवेतसौ॥ । सुश्रुत तथा ग. नि. के मतानुसार पीपलामूल दाडिमं पौष्करं धान्यमजाजी चित्रकं वचाम् । और भिलावा अधिक हैं तथा अद्रकके रसकी द्वौ क्षारौ लवणे द्वे च चव्यश्चैकत्र चूर्णयेत् ॥ भावनायें भी लिखी हैं। चूणेमेतत्पयोक्तव्यमनुपानेष्वनत्ययम् । . वै. जीवन में शटी के स्थान पर करंज है पाग्भक्तमथवा पेयं मधेनोष्णोदकेन वा ॥ और दाडिमका अभाव है। पार्थहृदस्तिशूलेषु गुल्मे वात कफात्मके। वृ. नि. र. के मतानुसार दाडिम ( अनार . आनाहे मूत्रकृच्छेषु गुदयोनिरुजासु च ॥ दाने )के स्थानमें सारिवा है तथा अभ्रकभस्म, ग्रहण्यर्थीविकारेषु लोहि पाण्डवामयेऽरुची। । तीक्ष्णलोहभस्म, लौंग और तुम्बरु अधिक है । शा. उरोविवन्धे हिकायां पासे कासे गलाहे ॥ ध. के मतानुसार पंच लवण लेने चाहिएं। For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Di w an ४५४ भारत-भैषज्य-रत्नाकर [हकारा (८५०६) हिग्वादिचूर्णम् (१९) हींग, सांठ, बायबिडंग और सञ्चल (का (व. से. । स्त्रीरोगा.) नमक ) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । हिडपिप्पलिपाटल्यौ भाजीमेदामहौषधम् । । इसे २॥ तोले पानीमें मिलाकर पीनेसे भस्रा. रास्नामतिविषाचव्यमेभिर्दोषः प्रसिध्यति ॥ | तिसारका नाश होता है। योनिश्च मृद्वी भवति योनिशूलश्च शाम्यति ॥ | (मात्र हींग, पीपल, दो प्रकारका लोध, भरंगी, मेदा, (८५०९) हिग्वादियोगः (१) सेठ, रास्ना, अतीस और चव समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । (इ. नि. र. । छर्य.) __ इसके सेवनसे योनि दोष और योनिशल नष्ट | हिर्जुना सारिवामूलं सर्ववान्तिहरं परम् । होकर योनि मृदु हो जाती है। जातीफलं वमौ शोषे जागरे विप्रयोजयेत् ॥ (मात्रा-१॥ मोशा ।) हींग और सारिवामूल समान भाग ले कर (८५०७) हिग्वादिचूर्णम् (२०) चूर्ण बनावें । ( भै. र. ; ३. मा. ; व. से. | शूला.) ___ यह चूर्ण हर प्रकारको वमनको नष्ट करता है। हिवम्लकृष्णामलकं यवानी (मात्रा-१-१ रत्ती चूर्ण १-१ धंटाबाद क्षाराभयासैन्धवतुल्यभागम् । पानीसे दें ) जायफल भी वमन, शोष और निद्राचूर्ण पिधेद्वारुणिमण्डमिश्रं नाशको नष्ट करता है। शूले प्रवृद्धेऽनिलजे शिवाय ।। • मात्रा-१ रत्ती । पानीमें घिसकर १-१ हींग, अम्लवेत, पीपल, आमला, अजवायन, घंटा बाद पिलावें ।) जवाखार, हर्र और सेंधा नमक समान भाग लेकर (८५१०) हिङ्ग्वादियोगः (२) चूर्ण बनावें । (वा. भ. । चि. अ. १५) इसे सुरामण्ड (मथके ऊपरके स्वच्छ भाग) के हिपकुल्ये त्रिफलां देवदारु निशाद्वयम् । साथ सेवन करने से प्रवृद्ध वातज शूल नष्ट भल्लातकं शिग्रुफलं कटुका तिक्तकं वचाम् ॥ होता है। शुण्ठी माद्री घनं कुठं सरल पटुपश्चकम् । (मात्रा-१ माशा।) दाहयेज्जर्जरीकृत्य दधिस्नेहचतुष्कवत् ।। (८५०८) हिङ्ग्वादिजलयोगः अन्तधूमं ततः क्षाराढिडालपदकं पिबेत् ( वृ. नि र. । अतिसारा.) मदिरादधिमण्डोष्णजलारिष्ट मुरासवैः ॥ डिङ्गुशुण्ठीविडङ्गं च सौवर्चलसमन्वितम् । उदरं गुल्ममष्ठीला तून्या शोफ विचिकाम् । कर्षयुग्ममितं तोयं भक्षितं भसरापहम् ।। । प्लीहाद्रोगगुदनानुदावत च नाशयेत् ।। a wwameenCATIODERARMARREARRINTERA For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org चूर्णप्रकरणम् ] हींग, दन्तोमूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु हल्दी, दारूहल्दी, भिलावा, सहजनेकी फली, कुटकी, चिरायता, बच, सांठ, काला अतीस, नागरमोथा, कूठ, सरलकाष्ठ (चीर) और पांचां नमक १-१ भाग लेकर चूर्ण करें और फिर उसमें सबसे ४ गुना दही तथा उतना ही घी मिलाकर हाण्डीमें वन्द करके इस प्रकार जलावें कि धुंवा बाहर न निकले । तदनन्तर हाण्डीके स्वांगशीतल होनेपर निकाल कर पीस लें । पञ्चमो भागः इसे १ | तोलेकी मात्रानुसार मदिरा, दही, माण्ड, उष्ण जल, अरिष्ट और आसवमें से किसीके साथ मिलाकर पीने से उदररोग, गुल्म, अष्ठीला, तूनी, प्रतितूनि, शोफ, विसूचिका, प्लीहा, हृद्रोग, अर्श और उदावर्तका नाश होता है । ( व्यवहारिक मात्रा - १ - १० माशा । ) (८५११) हिङ्ग्वादियोगः (३) ( भै. र. ; व. से. । अम्लपित्ता. ) हिङ्गु च कतकफलानि चिश्चा " त्वचो घृतश्च पुटदग्धम् । शमयति तदम्लपित्तमम्ल जो यदि ययोत्तरं द्विगुणम् ।। हॉंग १ भाग, कतकफल ( निर्मली के बीज ) २ भाग और इमली की छाल ४ भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसमें ८ भाग घी मिलाकर हाण्डीमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। तदनन्तर स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पीस लें। इसके सेवन से अम्ल पदार्थ खानेवाले रोगीका अम्ल पित्त नष्ट होता है । ( मात्रा -- १॥ - २ माशा । ) | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५५ (८५१२) हिङ्ग्वादियोगः (४) (व. से. । मुखरोगा. ; वा. भ. । उ. अ. २२ ) हिङ्गुकट्फलकासीसस्वर्जिकाकुष्ठवेल्लजम् । रदरुजं जयत्याशु वक्रस्थं दशने धृतम् ॥ होग, कायफल, कसीस, सज्जी, कूठ और काली मिर्च समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसमें से जरासा चूर्ण पीड़ावाले दांतके नीचे रखने (या मलने) से दन्त पीड़ा शीघ्र ही शान्त हो जाती है । (८५१३) हिङ्ग्वाद्यं चूर्णम् (१) ( ; वृ. यो. त. । त. ९९; भै. र. । हृद्रोगा. ग. नि. । हृद्रोगा. २६, धन्व. ; वृ. मा. । हृद्रोगा; यो. त. । त. ४७ ; वृ. नि. र. । हृद्रोगा. ; शा. सं. । खं. २ अ. ६ ) हेशग्रगन्धाविडविश्वकृष्णा कुष्ठाभयाचित्रकयावशूकम् । पिवेत्ससैौवर्चल पुष्करादर्थं यवाम्भसा शूलहृदामयनम् ॥ हींग, बच, बिड़लवण, सोंठ, पीपल, कूठ, हर्र, चीता, जवाखार, संचल ( काला नमक) और पोखरमूल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे जौ के क्वाथ के साथ सेवन करने से शूल और हृद्रोगका नाश होता है । ( मात्रा -- १ || माशा । ) (८५१४) हिङ्ग्वाथं चूर्णम् (२) ( यो. र.; भै. र.; वृ. नि. र. ; वृ. मा. | आमवाता.; ग. नि. । आमवाता. २२; भा प्र. म. खं. २ आम.; च. द. | आमवाता. २५) हिङ्ग चव्यं । वढं शुण्ठी कृष्णाजाजी सपैौष्करम् । | भागोत्तरमिदं चूर्ण पीतं वातामजिद् भवेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४५६ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः हींग १ भाग, चव्य २ भाग, बिडलवण ३ भाग, सांठ ४ भाग, काला जीरा ५ भाग और - पोखरमूल ६ भाग लेकर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण आमवातको नष्ट करता है । ( मात्रा -- २-३ माशा । ) (८५१५) हिङ्ग्ग्वाद्यं द्विरुत्तरं चूर्णम् (ग. नि. । चूर्णा. ३ ; बृ. मा. । आनाहा. ; वृ. नि. र. । आनाहा. ) द्विरुत्तरं हिङ्गुवचामिकुष्ठं सुवर्चिका चैव विडङ्गचूर्णम् । सुखाम्बुनानाहविषूचिकार्ति हृद्रोगुल्मोर्ध्वसमीरणनम् ॥ हींग १ भाग, बच २ भाग, चीतामूल ४ भाग, कूठ ८ भाग, संचल ( काला नमक ) १६ भाग और बायबिडंग ३२ भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करने से अफारा, विसूचिका, हृद्रोग, गुल्म और ऊर्ध्ववायुका नाश होता है । ( मात्रा – ३ माशा | ) १ वृ. मा. में. चीतामूलका अभाव है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८५१६) हुताशः चूर्णम् (वै. म. र. । पटल ६ ) मणिमन्थजीरकाजमोदमागधौषधैवर्धितैः क्रमेण तैः समं हरीतकीरज: । पाचनं विरेचनं प्रदीपनं प्ररोचनं पायुकीलनाशनं हुताशनाहयं तु तत् ॥ सेंधा नमक १ भाग, जीरा २ भाग, अजमोद ३ भाग, पीपल ४ भाग, सोंठ ५ भाग और हर्र १५ भाग लेकर चूर्ण बनावें । [ हकारादि यह चूर्ण पाचन, रेचक, अनि दीपक, रोचक और अर्शके मस्सोंको नष्ट करने वाला है । ( मात्रा -- ३-४ माशे । ) (८५१७) हीबेरादिचूर्णम् ( व. से. ; वृ. नि. र. । बालरो. ) बेरशर्कराक्षौद्रं पीतं तण्डुलवारिणा । शिशोः सर्वातिसारनं तृट्छर्दिज्वरनाशनम् सुगन्धवाला और खांड समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे शहद में मिलाकर चावलोंके पानी के साथ सेवन करनेसे बच्चोंका अतिसार, तृषा, छर्दि और ज्वर नष्ट होता है। इति इकारादि चूर्णमकरणम् ( मात्रा - - १ रत्ती से १ माशा तक । ) (बृहन्निघण्टु रत्नाकर में इस योगको रक्तातिसार, कास, श्वास और वमन नाशक लिखा है | ) For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गुटिकाप्रकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमो भागः अथ हकारादिगुटिकाप्रकरणम् -1-01 exercraftar (र. चं. | रसायना. ) " प्र. सं. ३४४ “ अश्वकञ्चुकी " देखिये (८५१८) हरीतक्यादिगुटिका (१) ( र. र. । कासा. ) हरीतकी नागरमुस्तचूर्ण गुडेन तुल्यं गुटिका विधेया । निवारयत्यास्य विधारितेयं श्वासं प्रवृद्धं प्रबलञ्च कासम् ॥ हर्र, सांठ और नागरमोथेका चूर्ण १-१ भाग लेकर ३ भाग गुड़में मिलाकर गोलियां बनावें इनमें से १-१ गोली मुंह में रखने से प्रवृद्ध श्वास और कासका नाश होता है । । ( मात्रा - - दिन भर में १ तोला तक । ) (८५१९) हरीतक्यादिगुटिका (२) ( हरीतक्यायो मोदकः ) ( वै. र. । कासा ; यो. र.; बृ. नि. र.; च. द. । कासा. ११ ; र. र. ; व. से. । कासा ; वृ. यो. त. । त. ७८ ; भा. प्र. म. खं. २ । कासा. ) हरीतकी कणा शुण्ठी मरिचं गुडसंयुतम् । कासनो मोदकः प्रोक्तः परं चानलदीपनः ॥ हर्र, पीपल, सेठ, और काली मिर्चका समान ५८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाग चूर्ण लेकर सबको गुड़में मिलाकर ( ३-३ माकी) गुटिका बना लें 1 ४५७ इनके सेवन से खांसी का नाश होता और अनि दीप्त होती है । (८५२०) हरीतक्यादिगुटी ( भा. प्र. म. खं. २ । ज्वरा. ; वृ. नि. र. । ज्वरा. ) हरीतकीविदारकाणां पृथग्भवेत् । पद्वयं कणाशुण्डी गुडूची गोक्षुरो वरी ॥ सहदेवी विडङ्गञ्च प्रत्येकं पळसम्मितम् । कासं श्वासं मलस्तम्भं वह्निमान्यं नियच्छति ॥ मधुना achi कृत्वा खादज्वरमपोहति ।।. हर्र, निसोत और विधाराका चूर्ण १०-१० तोले, तथा पीपल, सोंठ, गिलोय, गोखरु, शतावर, सहदेवी और बायबिडंगका चूर्ण ५-५ तोले लेकर सबको आवश्यकतानुसार शहद में मिलाकर गोलियां बनावें | इनके सेवनसे ज्वर, कास, श्वास, मलावरोध और अग्निमांद्यका नाश होता है । For Private And Personal Use Only ( मात्रा - ४ - ५ माशे । ) (८५२१) हरीतक्यादिवटिका (ग. नि. । उदरा. ३२ ) हरीतकी रोहितकं वचा च मन्वितानां गुटिकां विधाय । G Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ४५८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि सम्भाव्य गोमूत्ररसेन तां तु _ हिग्वादिगुटिका (२) सर्वोदरे सोष्णजलेन सेवेत् ॥ (भै. २. ; वृ. मा. ; व. से. । गुल्मा. ; वृ. हर, रोहितक ( रुहेडेकी छाल ) और बचः | यो. त. । त. ९८) इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला- प्र. सं. ८४८८ "हिङ्ग्वादि चूर्ण" देखिये । कर गोमूत्रकी (३ या सात ) भावना दें और ! (८५२३) हिनावाचा वटी फिर उसमें शहद मिला कर गोलियां बना लें। । (हिरवाचवटका) इन्हें उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे समस्त । (वृ. यो. त. । त. ९४ ; र. र. ; व. से. । शूला.) प्रकारके उदर रोग नष्ट होते हैं। हिङ्गु सौवर्चलं पाठां द्वौ क्षारौ लवणत्रयम् । ( मात्रा-२-३ माशा । ) | चूर्णीकृत्य विधातव्यं भिषजा लशुने रसे ॥ (८५२२) हिग्वादिगुटिका (१) । | कर्षमात्रा वटीः कृत्वा तासामेकां नियोजयेत् । (धन्च. । शूला.) | इच्छले पाचशूले च मन्यास्तम्मे च दारुणे॥ प्रयोज्या कुतिशूले वा भिषजा सिद्धिमिच्छता ॥ हिड्चम्लवेतसव्योषयमानीलवणत्रिकैः। ___ हींग, संचल ( काला नमक ), पाठा, जवापीजपूररसोपेतैर्गुटिकावातशूलनुत् ॥ खार, सज्जीखार, सेंधा नमक, काला नमक और हींग, अम्लवेत, सांठ, काली मिर्च, पीपल, . बिड नमक; इनका चूर्ण समान भाग लेकर ल्हसनअजवायन, सेंधा नमक, बिड लवण और संचल के रसमें खरल करके गोलियां बना लें। ( काला नमक ); इन का चूर्ण समान भाग लेकर इनके सेवनसे हृदयशूल, पार्श्वशल, मन्यासबको एकत्र मिलाकर बिजौ रेके रसमें घोटकर कर | स्तम्भ, और कुक्षिशलका नाश होता है । गोलियां बनावें। मात्रा-११ तोला । इनके सेवनसे वातज शूल नष्ट होता है। । __(व्यवहारिक मात्रा-१-१॥ माशा । (मात्रा-१-१॥ माशा। अनुपान-उष्णजल) । अनुपान-उष्ण जल) इति हकारादिगुटिकाप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org गुग्गुलुपकरणम् ] पञ्चमो भागः ४५९ - अथ हकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (८५२४) हरीतक्यादिगुग्गुलुः । हरं, सोंठ और विधारेकी जड़का चूर्ण १-१ (वृ. नि. र. । आमवाता.) भाग लेकर सबको ६ भाग शुद्ध गूगलमें मिला कर आवश्यकतानुसार अण्डीका तेल मिलाकर १ हरीतकी नागरं च वृद्धदारुसमं समम् । दिन खरल करे। द्विगुणं गुग्गुलं दवा तैलमेरण्डजं तथा ॥ इसके सेवनसे आमवातका नाश होता है । मदयेदिनमेकं तु भक्षयेदामवातनुत् ॥ (मात्रा--३ माशे। अनुपान--उष्ण जल।) इति हकारादिगुग्गुलु-प्रकरणम् - MHअथ हकाराद्यवलेहप्रकरणम् हरिद्राखण्डः हन्त्यम्लपित्तं शूलञ्च पडशीस्यनिलामयम् । रस प्रकरणमें देखिये कोष्ठवातं कटीशूलमानाइमपि दारुणम् ॥ . हरिद्राचवलेहः हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, अजवायन, सेठ, (ग. नि.। पाण्ड्वा .) कालीमिर्च, पीपल, धनिया, मुलैठी, सोया और रस प्रकरणमें देखिये। लौंग; इनका चूर्ण ११-१तोला तथा निसोत (८५२५) हरीतकीखण्डः (१) और सनायका चूर्ण १०-१० तोले एवं हरंका (भै. र. ; धन्व. । शूला.) चूर्ण सबके बराबर ( ४० तोले ) और खांड इन त्रिफलाब्द चतुर्जातं यमानीकटुकत्रयम । सबसे दो गुनी ( २ सेर ) लेकर खांडकी चाशनी धान्यं मधुरिका चैव शतपुष्पा लवङ्गकम् ॥ बनाकर उसमें समस्त चूर्ण मिला दें। प्रत्येकं कार्षिकं ग्राह्यं त्रिता स्वर्णपत्रिका। इसे उष्ण दूधके साथ सेवन करनेसे अम्लपलद्वन्द्वप्रमाणेन सर्वतुल्या हरीतकी ॥ पित्त, शूल, ६ प्रकारको अर्श, वातज रोग, कोष्ठ यावन्त्येतानि चूर्णानि सिता तद्विगुणा मता। गत वायु, कटिशूल, और आनाहका नाश होता है। दत्त्वैतानि विधानेन क्षीरेणोष्णेन सम्पिबेत् ॥ ( मात्रा-~-१ तोला । ) For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४६० www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः हरीतकीखण्डः (२) रस- प्रकरण में देखिये । हरीतकीखण्डः (३) रस- प्रकरण में देखिये । (८५२६) हरीतक्यवलेह : (१) ( ग. नि. । लेहा. ५ ) भार्गीजटापलशतं सलिलार्मणाभ्यां युक्तं च मूलतुलया सहितं विपाच्य । पादस्थिते तु शतमत्र हरीतकीनां पक्तव्यमुज्ज्वलगुडस्य शतेन सार्धम् ॥ उत्तार्य तत्र शिशिरे मधुनः पलानि चत्वारि च त्रिगुणितानि पलत्रयं च । व्योषं त्रुटित्वगिभकेसरपत्रकाणा मेषां पलं खलु निधेयमथोपयुज्य ॥ श्वासं सकासमपि शोषमथातिहिक्का मेकाहिकं ज्वरमपीनसमुत्कटं च । हन्याद्रसायनमिदं हि पुरन्दरस्य प्रोक्तं सहस्रकरपुत्रभिषग्वराभ्याम् || ६। सेर भरंगीकी जड़ और ६।सेर दशमूलको कूटकर एकत्र मिलाकर ३२ सेर पानीमें पकायें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें ६। सेर सफेद गुड़ और १०० हरें डालकर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे नीचे उतार लें और ठंडा होने पर उसमें ९५ तोले शहद एवं ५ - ५ तोले सांठ, काली मिर्च, पीपल, इलायची, दालचीनी, नागकेसर, और तेजपात; इनका चूर्ण मिला दें । [ हकारादि इसके सेवन से श्वास, कास, शोष, हिचकी, एकाहिक ज्वर और पीनस का नाश होता है। ( मात्रा -- २ हर्र और १ तोला लेह । ) (८५२७) हरीतक्यवलेह : (२) (ग. नि. । लेहा. ५ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशमूलकषायस्य कंसे पथ्याशतं पचेत् । दत्त्वा गुडतुलां तस्मिल्लेहे दद्यात्सु चूर्णितम् ॥ जितकं त्रिकटुकं किञ्चिच्च यवशुकजम् । प्रस्थार्ध च हिमे क्षौद्रात्स निहन्त्युपयोजितः ॥ वृद्ध शोफज्वरमेहगुल्म Sarfarartosरक्तपित्तम् | वैवर्ण्यमुत्रान शुक्रदोष श्वासारुचिप्लीहगरोदरांश्च ॥ दशमूल ८ सेर क्वाथमें १०० हरें (साबित) और ६ | सेर गुड़ मिलाकर पकावें । जब लेह तैयार हो जाय तो उसमें दालचीनी, तेजपात, इलायची, सोंठ, काली मिर्च, पीपल और जवाखार; इनका १ - १ तोला चूर्ण मिला दें एवं ठंडा होने पर आधा सेर शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें । इसके सेवनसे प्रवृद्ध शोथ, ज्वर, प्रमेह गुल्म, कार्य, आमवात, अम्लपित्त, रक्तपित्त विवर्णता, मूत्रदोष, अग्निविकार, शुकदोष, श्वास, अरुचि, प्लीहा, गरदोष और उदररोगोंका नाश होता है । ( मात्रा -- २ हर्र और १ तोला लेह । ) हरीतक्यादिपाकः रसप्रकरण में देखिये । इति हकाराचवले हमकरणम् For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra घृतप्रकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमी भागः अथ हकारादिघृतप्रकरणम् (८५२८) हरिद्रादिघृतम् ( च. सं. चि. स्था. ६ अ. २० पाण्डवा. ; व. से. ; ग. नि. । पाण्ड्वा. ; च. द.; भै. र. ; वृ. मा. ; यो. र. । पाण्ड्वा.) हरिद्रात्रिफलानिम्बवळामधुकसाधितम् । सक्षीरं माहिषं सर्पिः कामलाहरमुत्तमम् ॥ कल्क - - हल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, बला ( खैरैटी की जड़ ), और मुलैठी समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर पानीके साथ बारीक पीस लें । क्वाथ - - उपरोक्त वस्तुएं समान भाग मिश्रित २ सेर लेकर १६ सेर पानी में पकावें और ४ सेर रहने पर छान लें। २ सेर भैंस के घीमें उपरोक्त कल्क और काथ तथा ४ सेर गोमूत्र मिलाकर मन्दानि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाए तो घीको छान ले 1 यह घृत कामलाको नष्ट करता है । ( मात्रा -- १-२ तोला । ) (८५२९) हरीतक्यादिघृतम् ( व. से. । हृद्रोगा. ) हरीतकी पुष्कर नागराहयैadrस्थालवणैश्च कल्कैः । सहिङ्गुभिः साधितमेव सर्पिहितञ्च हृत्पार्श्वगदेऽनिलोत्थे ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६१ कल्क-- हर्र, पोखरमूल, सांठ, जौ, आमला, सेंधा नमक और हींग, समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर पानी के साथ पीस लें । २ सेर घी में यह कल्क और ८ सेर पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें। जब पानी जल जाय तो घीको छान है । यह घृत वातज हृद्रोग और पार्श्व शूलादिमें उपयोगी है। (मात्रा -१ से दा तोले तक । ) (८५३०) हवषादिघृतम् र. ; ( च. सं. । चि. स्था. ६ अ. ५ गुल्मा. ; वृ. मा. ; धन्व. ; र. र. । गुल्मा. २९ ; ग. नि. । घृता. १; वा. भ. । चि. अ. १४ गुल्मा. ; व. से. । गुल्मा. ) For Private And Personal Use Only हषा व्योषपृथ्वीकाचव्य चित्रक सैन्धवैः । साजाजीपिप्पलीमूलदीप्यकैर्विपचेद् घृतम् ॥ मातुलुङ्गदधिक्षीरकोलमूलकदाडिमैः । रसैस्तद्वातगुल्मानं शूलानाहविमोक्षणम् ॥ योन्यर्शो ग्रहणीदोषश्वासका सारुचिज्वरान् । वातहृत्पार्श्वशूलश्च घृतमेतद्वयपोहति ॥ कल्क - - हपुषा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हिगुपत्री ( पाठान्तरके अनुसार मुनक्का ), चव, चीतामूल, सेंधा नमक, जीरा, पीपलामूल और अजवायन समान भाग मिलित २० तोले लेकर पानीके साथ 'बारीक पीस लें I Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [हकारादि द्रव पदार्थ-बिजौरेका रस, दही, दूध, (८५३२) हिङ्ग्वादिघृतम् (२) बेरका क्वाथ, मूलीका क्वाथ, और अनारका रस ( वृ. मा. ; व. से.; यो. र.; र. र. । उन्मादा.; २-२ सेर । ग. नि. । उन्मादा. १; यो. त. । त. ३८ ; २ सेर घी में उपरोक्त कल्क और द्रव पदार्थ । व पदाथ वृ. यो. त. । त. ८८ ; च. द. । उन्मादा. . मिला कर मंदाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क २०; वा. भ. । उ. अ. ६) हो जाय तो घीको छान लें। __यह घृत वातज गुल्म, शूल, आनाह (अफारा) हिशुसौवर्चलव्योपैपिलांशै ताटकम् । है योनिरोग, अर्श, ग्रहणी विकार, श्वास, कास, अरुचि, चतुर्गुणे गवां मूत्रे सिद्धान्मादनाशनम् ॥ ज्वर, वातरोग और पार्श्वशूलको नष्ट करता है। कल्क-हींग, संचल ( कालानमक ), सोंठ, (मात्रा--१-२ तोला ।) मिर्च और पीपल १०-१० तोले । (८५३१) हिङ्ग्वादिघृतम् (१) ८ सेर धीमें यह कल्क और ३२ सेर गोमूत्र (च. सं. । चि. स्था. अ. ५ गुल्मा. ; व. से.; मिलाकर पकावें। वा. भ. । चि. अ. १४ ; सु. सं. । चि. अ. यह घृत उन्मादको नष्ट करता है। ४२ गुल्मा.) हिङ्गुसौवर्चलाजाजीविडदाडिमदीप्यकैः । ( मात्रा-१-२ तोला।) पुष्करव्योषधान्याम्लवेतसक्षार चित्रकैः॥ (८५३३) हिरवादिघृतम् (३) शठीवचाजगन्धैलासुरसैश्च विपाचितम् ।। (वा. भ. । उ. अ. ५; ग. नि. । शूलानाहहरं सर्पिर्दध्ना चानिलगुल्मिनाम् ॥ . भूतोन्मादा. १) कल्क- हींग, संचल, (काला नमक), जीरा, विड नमक, अनारदाना, (गा अनारकी जड़की छाल), हिसर्षपषड्ग्रन्था व्योषैरईपलोन्मितैः । शुरू अजमोद, पोखरमूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, धनिया, चतुर्गुणे गवां मूत्रे घृतपस्थं विपाचयेत् ।। अम्लवेत, जवाखार, चीतामूल, कचूर, वच, अजमोद, तत्पाननावनाभ्यङ्गैर्देवग्रहविमोक्षणम् ॥ इलायची और तुलसी समान भाग मिश्रित २० तोले। कल्क-हींग, सरसों, बच, सोंठ, मिर्च २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर दही और पीपल २॥-२॥ तोले । मिलाकर पकावें। २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर गोमूत्र ___ यह घृत वात-गुल्म, शूल और आनाहको मिलाकर पकावें । नष्ट करता है। इसे पीने, तथा इसको नस्य लेने और मालिश (मात्रा-१-२ तोला ।) करनेसे देवग्रहजनित उन्माद नष्ट होता है । For Private And Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः घृतमकरणम् ] (८५३४) हिग्वादिघृतम् (४) (बृ. यो. त. । त. ९८; यो. र. । गुल्मा. ) हि पुष्करमूलानि तुम्बरूणि हरीतकी । श्यामा बिडं सैन्धवं च यवक्षारं महौषधम् ॥ यवक्वाथोदकेनैतद् घृतप्रस्थं विपाचयेत् । तेनास्य भिद्यते गुल्मः सथूलः सपरिग्रहः ॥ कल्क — हींग, पोखरमूल, तुम्बरु ( नेपाली धनिया ), हर्र, काली निसोत, बिड नमक, संधा नमक, जवाखार और सोंठ समान भाग मिलित २० तोले । २ सेर धीमें यह कल्क और ८ सेर जौका क्वाथ मिलाकर पकावें । यह घृत शूल और उपद्रवयुक्त गुल्मको नष्ट करता है । (८५३५) हिंस्रादिघृतम् ; (वृ. मा. व. से. ; च द । हिक्काश्वासा. १२ ) हिंस्राविडङ्गपूतीकत्रिफलान्योषचित्रकैः ः । द्विक्षारं सर्पिषः प्रस्थं चतुर्गुणजलान्वितम् ॥ कोलमात्रैः पचेतद्धि श्वासकासौ व्यपोहति । अशस्यरोचकं गुल्मं शकृद्भेदं क्षयं तथा ॥ कल्क — कटेली, बायबिडंग, पूतिकरञ्जकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, जवाखार और सज्जीखार ११ - १ तोला । २ सेर घीमें ८ सेर पानी और यह कल्क मिलाकर पकावें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६३ (८५३६) हिंस्राद्यघृतम् ( हा. सं. । स्थान ३ अ. १४ ) हिंस्रात्रिगन्धकृमि शत्रु कर अकारच व्योषंफलत्रिकमथाजपयोजलेन । पक्वाज्यपानकविधानमपि प्रशस्तं श्वासं च पञ्चविधमाशु निहन्ति हिकाम् ।। कल्ककटेली, दालचीनी, इलायची, तेजमिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और आमला समान भाग पात, बायबिडंग, करञ्जकी छाल, सोंठ, काली मिलित २० तोले २ सेर घी में यह कल्क और ४-४ सेर बकरीका दूध तथा पानी मिलाकर पकावें । इसे पीनेसे पांच प्रकार के श्वास और हिचकी का शीघ्र ही नाश हो जाता है । ( मात्रा - १ - २ तोले । ) (८५३७) ह्रीबेरादिघृतम् (च. सं. । चि. स्था. ६ अ. ९ अर्शो. ; व. से. ; यो र । अर्शो. ) ही बेरमुत्पलं रोधं समङ्गाचव्यचन्दनम् | पाठा सातिविषा बिल्वं धातकी देवदारु च ॥ दार्वीत्वङ्नागरं मांसीं मुस्तं क्षारो यवाग्रजः । चित्रकश्चेति पेष्याणि चाङ्गेरीस्वरसो घृतम् ॥ ऐकध्यं साधयेत्सर्वं तत्सर्पिः परमौषधम् । अर्शोऽतिसारग्रहणीपाण्डुरोगज्वरारुचौ ॥ यह घृत श्वास, कास, अर्श, अरुचि, गुल्म, मूत्रकृच्छ्रे गुदभ्रंशे बस्त्यानाहे प्रवाहने । अतिसार और क्षयको नष्ट करता है । पिच्छात्रावेऽर्शसां शूले योज्यमेतत्रिदोषनुत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि - - कल्क-सुगंधबाला, नीलोत्पल, लोध, मजीठ, यह धृत अर्श, अतिसार, संग्रहणी, पाण्डु, चव, सफेद चन्दन, पाठा, अतीस, बेलगिरी, धायके ज्वर, अरुचि, मूत्रकृच्छ, गुदभ्रंश, पेडू फूलना, फूल, देवदारु, दारुहल्दी, दालचीनी, सोंठ, जटा प्रवाहिका, पिच्छास्राव, शूल और त्रिदोषज अर्शकी मांसी, नागरमोथा, जवाखार और चीतामूल समान महौषध है। भाग मिलित २० तोला। २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर चांगेरीका (मात्रा-१-२ तोला।) स्वरस मिलाकर पाक सिद्ध करें। इति हकारादि घृतप्रकरणम् - --- अथ हकारादितैलप्रकरणम् (८५३८) हरिद्रादितलम् (१) २ सेर तिलके तेल में यह कल्क और ८ सेर (व. से. । क्षुद्ररोगा.) हल्दीका स्वरस तथा ४ सेर दूध मिलाकर पकावें। हरिद्रागुल्मकालीयफल्कैश्च सरसाअनैः। यह तेल २० प्रकारके प्रमेहों को नष्ट सिद्धेन तिलतैलेन ततस्तु रोपयेवणम् ॥ करता है । कल्क-हल्दी, गठीवन, दारुहल्दी और । (८५४०) हरिद्रादितैलम् (३) रसौत समान भाग मिलित २० तोले ले कर (र. र. । कुष्ठा.) कल्क बनावें। हरिद्रे पथ्याकुष्ठश्च घनं सहरितालकम् । २ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और आठसेर । विभीतकं मुस्तकश्च कटुतैलं मनःशिला ॥ पानी मिलाकर पाक करें। एतद्विचूर्य सम्मिथ्य रौद्रे तु परिपाचयेत् । यह तैल ब्रोंको नष्ट करता है। विचर्चिकापामादद्रुखअकुष्ठहरं परम् ।। (८५३९) हरिद्रादितैलम् (२) हल्दी. दारुहल्दी, हर, कूठ, मोथा, हरताल, (यो. र. । प्रमेहा.) | बहेड़ा, नागरमोथा और मसिल का ( समान भाग निशारसं चतुष्पस्थं द्विपस्थक्षीरसंयुतम् ।। | मिलित २० तोले ) चूर्ण ले कर सबको २ सेर कुष्ठाश्वगन्धालशुननिशापिप्पलिकल्कितम् ॥ सरसोंके तेलमें मिलाकर धूपमें रक्खें (और एक या विपक्वं तिलजप्रस्थं मेहानां विंशतिं जयेत् ॥ दो सप्ताह पश्चात् छान लें।) . कल्क-कूठ, असगन्ध, ल्हसन, हल्दी और यह तैल विचर्चिका, पामा, दाद और कुष्ठको पीपल ४-४ तोले ले कर कल्क बनावें । नष्ट करता है। For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www. kobatirth.org तैलपकरणम् ] पश्चमो भागः माणमयुर नाम : (८५४१) हरिद्रादितैलम् (४) क्ल, लाङ्गली ( कलियारी ), पंवाड़, गुंजा, इन्द्रा( भा. प्र. । म. खं. २ मुखरोगा.: यो. र. . ! यन, और नीमके पत्ते समान भाग मिलित २० व. से. । मुखरोगा. ; दृ. नि. र. । मुस्वरोगा.) । तोले लेकर बारीक चूर्ण करके उसे आकके दूधकी भावना दें। हरिद्रानिम्बपत्राणि मधुकं नीलमुत्पलम् । २ सेर तेलमें यह कल्क (और ८ सेर पानी) तैलमेभिर्विपक्तव्यं मुखपाकहरं परम् ॥ मिलाकर तैल सिद्ध करें। कल्क-हल्दी, नीमके पत्ते, मुलैठी और यह तैल कुष्ट, पामा ( खुजली ) और विचनीलोफर २॥२॥ तोले लेकर पानीके साथ बारीक चिंका को नष्ट करता है। पीस लें। (८५४३) हरिद्रादितैलम् (६) क्वाथ-उपरोक्त द्रव्य ४०-४० तोला (वै. म. र । पटल १२ ) लेकर १६ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर शेष जानुप्रदेशजनितानिलनाशनायरहने पर छान लें। १ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और क्वाथ । तैलं निशामिशिमुरद्रुमदेवधूपैः । सिद्धं जले लिकुचजन्मनि शस्तमेतमिलाकर पकावें। पानी जल जाने पर तेलको छान लें। च्छोफोग्रतोदसहिते रुधिरसुतौ च ॥ यह तेल मुखपाकको नष्ट करता है। कल्फ-हल्दी, सौंफ, देवदारु और धूप सरल ५-५ तोला लेकर कल्क बनावें । (८५४२) हरिद्रादितैलम् (५) २ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और ८ सेर ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४२) : लकुच ( बढ़ल )का रस मिलाकर पकायें। हरिद्रासमङ्गा सुराहं सचित्रं यह तेल जानु की वायु, शोथ, उग्र पीड़ा विडङ्गानि कृष्णां विषालाबु कुष्ठम् । और रुधिरस्रावको नष्ट करता है। तथालाङ्गली चक्रमदं च गुञ्जा (८५४४) हरिद्रादितैलम् (७) विशालातथारिष्टपत्राणि चैतत् ।। (हरिद्रादयतैलम् ) विचूर्ण कृतं भावितं चार्कदुग्धे ( ग. नि. । क्षुद्ररोगा. १० ; वृ. मा. ; च. न तैलं विपाध्यं नरस्यातिशीघ्रम् । . द. । क्षुद्ररोगा. ५४ ; व. से.) हितं लेपेन कुष्ठपामाविचर्चि हरिद्राद्वययष्टयाहकालीयककुचन्दनैः । निहन्ति तथेदं हरिद्रादितैलम् ॥ प्रपौण्डरीकमभिष्ठापद्मपद्मककुङ्कुमैः ॥ कल्क-हल्दी, मजीठ, देवदारु, चीतामूल, कपित्थतिन्दुकप्लक्षवटपत्रैः पयोन्वितैः । बायबिडंग, पीपल, अतीस, कड़वी तूंबीके बीज, लेपयेत्कल्कितैरेभिस्तैलं वाऽभ्यञ्जनं चरेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६६ भारत-भेषज्य-रलाकरः [हकारादि पिप्लुकान् नीलिकाव्यगां कल्क--हल्दी, दारुहल्दी, पीपल, सेंधा नमक, स्तिलकान्मुखदक्षिकान् । | देवदारु, बायबिडंग, चीतामूल, बेलकी छाल, रोहिष नित्यसेवी जयेक्षिमं मुखं कुर्यान्मनोरमम् ॥ घासके पत्ते, अगर, संचल ( कालानमक ), दाख, कल्क-हल्दी, दारुहल्दी, मुलैठी, कालीयक | - मजीठ, मुलैठी, खरैटी, बेतकी जड़, पनाख, खस (काला चन्दन), लालचन्दन, पुण्डरिया, मजीठ, और सफेद चन्दन ५-५ तोले लेकर कल्क बनावें। २ सेर तैलमें यह कल्क और ४ सेर दूध कमलपुष्प, पनाक, केसर, कैथके पत्ते, तेन्दुके पत्ते, पिलखनके पत्ते, और बड़के पत्ते समान भाग मिलित मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध जल जाए | तो तेलको छान लें। २० तोले लेकर कल्क बनावें । ____ यह तैल कफज और सान्निपातिक शिरो रोग, २सेर तिलके तेलमें यह कल्क और ८ सेर उपजिहा. गण्डमाला, कण्ठशालूक, अबुद, विदारिका, दूध मिलाकर पाक सिद्ध करें। मांसपाक, मुखकी सूजन, गलग्रह, दन्तचालन और इस तेलकी हमेशा मालिश करनेसे पिप्लु हनुस्तम्भ को नष्ट करता है। . (जतुमणि ), नीलिका, व्यङ्ग ( झांई ), तिल और (८५४६) हंसपादीतैलम् मुखदूषिका आदिका शीघ्र नाश होकर मुख सुन्दर (च. द. । नाडीत्रणा. ४४ ; भै. र. । नाडीव्रणा.) हो जाता है। इंसपाधरिष्टपत्रं जातीपत्रं ततो रसैः । कल्ककी औषधियोंको दूधमें पीसकर लेप | तत्कल्कैविपचेतैलं नाडीव्रणविरोहणम् ॥ करनेसे भी यही लाभ होता है। कल्क-हंसपादी, नीमके पत्ते और चमेलीके पत्ते समान भाग मिलित २० तोला। - (८५४५) हरिद्रायतैलम् द्रव पदार्थ-उपरोक्त तीनों प्रकारके पत्तों (व. से. । मुखरोगा., शिरोरोगा. ) | का रस समान भाग मिलित ८ सेर । उमे हरिद्रे पिप्पल्या सैन्धवं देवदारु च।। २ सेर तेल में उपरोक्त कल्क और रस मिलाकर विड चित्रकं बिल्वं रोहिषस्य च पल्लवाः ॥ यथाविधि तैल पाक करें । गन्धं सौवर्चलं द्राक्षा मनिष्ठा मधुकं बला। यह तैल नाडीव्रण (नासूर)को भरता है। वेतसस्य च मूलानि पद्मकोशीरचन्दनैः॥ (८५४७) हिङ्ग्वादितैलम् (१) बिल्वप्रमाणैः कल्कैस्तु तैलपस्थं विपाचयेत्।। (ग. नि. । नासा. ४ ; वृ. नि. र. ; यो. र. द्विगुणं च पयो दद्यात् तत्सिद्धं नश्यतां नयेत् ॥ वृ. यो. त. । त. १३०; यो. त. । त. ७२) श्लेष्मजं सभिपातोत्यं शिरोरोग नियच्छति । हिङ्गुव्योषविडाकट्फलबचारुतीक्ष्णगन्धायुतैउपजिहां च मालाच कण्ठशालूकमधूदम् ॥ लाक्षाहेमवतीकलिङ्गकयवै पुष्पोद्भवैः सौरसैः। विदारिका मांसपाकं मुखशोफं गलग्रहम् । १ पाठान्तर-लाक्षा श्वेतपुनर्नवा कुटजैः दन्तचालं हनुस्तम्भं तैलमेतभियच्छति ॥ पुष्पो....। For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org तैलप्रकरणम् ] इत्येभिः कटुतैलमेतदनले मन्दे समूलं शृतं पीतं नासिकया यथाविधि भवेन्नासामयिभ्यो हितम् | कल्क—हांग, सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, कायफल, बच, कूठ, छोटी इलायची, लाख, स्वर्णजीवन्ती, इन्द्रजौ, और तुलसी के फूल समान भाग मिश्रित २० तोला । पञ्चमो भागः २ सेर सरसों के तेल में यह कल्क और ८ सेर गोमूत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पाक सिद्ध करें । होते हैं। इसे नासिका द्वारा पीने से नासारोग नष्ट ( (८५४८) हिङ्ग्वादितैलम् (२) भै. र. ; व. से.;.वृ. नि. र.; यो. र. ; र. र.; वृ. मा. । कर्णरोगा. ; वृ. यो. त. । त. १२९; यो त । त. ७० ; शा. सं. । खं. २ अ. ९ ; भा. प्र. म. खं. २ । कर्णरोगा. ) तुम्बुरुण्डीभिः साध्यं तैलन्तु सार्षपम् । कर्णले प्रधानन्तु पूरणं हितमुच्यते ॥ कल्क - - हींग, तुम्बरु ( नेपाली धनिया ) और सांठ समान भाग मिलित २० तोले । २ सेर सरसोंके तेलमें यह कल्क और ८सेर पानी या (इन्हीं द्रव्योंका क्वाथ ) मिलाकर तैल सिद्ध करें । कान में भरनेसे कर्णशूल नष्ट होता है । ( नोट -- पाठान्तर के अनुसार तुम्बरुके स्थान में सेंधा नमक है । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ४६७ (८५४९) हिमसागर तैलम् ( भै. र. ; धन्व. । वातव्या . ) शतावरीरप्रस्थे विदार्य्याः स्वरसे तथा । कूष्माण्डकरसप्रस्थे धात्र्याश्च स्वरसे तथा ॥ शाल्मल्याः स्वरसप्रस्थे तथा गोक्षुरकस्य च । नारिकेलरसमस्थे तिलतैलस्य प्रस्थतः ।। कदल्याः स्वरसप्रस्थे क्षीरप्रस्थचतुष्टये । अस्यौषधस्य कल्कस्य प्रत्येकं कर्षसम्मितम् ॥ चन्दनं तगरं वाप्यं मञ्जिष्ठा सरलागुरुः । मांसी मुरा च शैलेयं यष्टी दारु नखी शिवा ॥ पूतिका पोतिकापत्रं कुन्दुरुर्नलिका तथा । वरी लोधं तथा मुस्तं त्वगेलापत्र केशरम् ॥ लवङ्ग जातिकोषञ्च तथा मधुरिका शटी । चन्दनं ग्रन्थिपर्णञ्च कर्पूरं लाभतः क्षिपेत् ॥ अस्य तैलस्य सिद्धस्य शृणु वीर्यमत: परम् उच्चैः प्रपततो वायोर्गजतो वाजिनस्तथा ॥ उष्ट्रतो लोष्टपाताच्च पहूनां पीठसर्पिणम् । एका शोषिणाञ्चैव तथा सर्वाङ्गशोषिणाम् || क्षतानां क्षीणशुक्राणामत्यन्तक्षयरोगिणाम् । हनुमन्याहतानाञ्च दुर्बलानान्तथैवच ॥ शोषिणां लल्ला जिल्हानां तथा मिन्मिनभाषिणा । अत्यन्तदाहयुक्तानां क्षीणानां वातरोगिणां ॥ एतत्तैलं परं श्रेष्ठं विष्णुना परिकीर्तितम् । हिमसागरमाख्यातं सर्ववातविकारनुत् ॥ ये वातप्रभवा रोगा ये च पित्तसमुद्भवा । शिरोमध्यगता ये च शाखामाश्रित्य ये स्थिताः॥ सर्वे शमं यान्ति तैलस्यास्य प्रसादतः ।। द्रव पदार्थ - शतावर का रस २ सेर, विदाकन्दका रस २ सेर, कुष्माण्ड (भूरे कुम्हड़े - पेठे) Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि - - - का रस २ सेर, आमलेका स्वरस २ सेर, सेंमलकी कल्क-जटामांसी, बच, गिलोय, हर, बहेड़ा, जड़का रस २ सेर, गोखरू का रस (या क्वाथ) आमला, चीतामूल, देवदारु और पीपल समान भाग २ सेर, नारियलका पानी २ सेर, केलेका रस २ . मिलित २० तोला लेकर कल्क बना। सेर और दूध ८ सेर । २ सेर तेलमें यह कल्क और ८ सेर भंगरेका कल्क-सफेद चन्दन, तगर, कूठ, मजीठ, रस मिलाकर यथाविधि तैल पाक करें । इसमें शहद मिलाकर प्रयुक्त करनेसे गल. सरलकाष्ट, अगर, जटामांसी, मुरामांसी, शैलज(भूरि । - गंडका नाश होता है। छरीला ), मुलैठी, देवदारु, नखी, हरं, पूतिका । (इसे पीना और गलगण्ड पर मलना चाहिये ।) (खट्टाशी-जुन्दबेदस्तर ), हल्दीके पत्ते, कुन्दर, (८५५१) हिंस्राद्यं तैलम (२) नलिका, शतावर, लोध, नागरमोथा, दालचीनी, । (व. से. ; भै. र.। नाडीव्रणा.) इलायची, तेजपात, नागकेसर, लौंग, जावत्री, सौंफ, . कचूर, लालचन्दन, गठिवन और कपूर ११-१। ' हिंस्रां हरिद्रां कटुकां वचाश्च गोजिदिकाश्चापि सबिल्वमूलम् । तोला लेकर कल्क बनावें। संहृत्य तैलं विपचेद् व्रणस्य २ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और उपरोक्त : संशोधनपूरणरोपणश्च ।। समस्त द्रव पदार्थ मिलाकर यथाविधि तैल सिद्ध करें। कल्क-जटामांसी, हल्दी, कुटको, बच, गुण-यह तैल ऊंचे स्थानांसे या घोड़े, गोजिला और बेलकी जड़की छाल (पाठान्तरके अनुहाथी अथवा ऊंट आदि से गिरनेसे उत्पन्न हुई सार वृहत्पं चमूल) समान भाग मिलित २० तोले वातज वेदनाको नष्ट करता है । पत्थर आदिसे लेकर कल्क बनावें। लगी चोटको आराम करता है । पंगुता, पीठसर्पिता, क्याथ-उपरोक्त ओषधियां समान भाग एकाङ्गशोष (किसी अङ्गका सूखना ), और सर्वांग- मिलित ४ सेर लेकर ३२ सेर पानीमें पकायें और शोषमें यह तैल गुणकारी है तथा क्षत, शुक्र, क्षय, ८ सेर रहने पर छान लें। २ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और क्वाथ उग्र राजयक्ष्मा, हनुस्तम्भ, मन्यास्तम्भ, निर्बलता, "' मिलाकर यथाविधि तैल पाक करें। तोतला बोलना, मिनमिनाना, अत्यन्त दाह, क्षीणता, यह तेल व्रणोंको शुद्ध करके भरदेता है । समस्त वातविकार, पित्तज रोग, शिरोरोग और (८५५२) हेमसुन्दरतेलम् शाखाओंकी व्याधियों में अत्युत्तम है । (यो. त. । त. ७५) (८५५०) हिंस्राद्यं तेलम् (१) आईहेयफलं पिष्ट्वा कटुतैलं चतुर्गुणम् । । व. मे. । गलगण्डा. ) विपद्घटिकायुग्मं तत्तलं हेमसुन्दरम् ॥ हिंस्रावचागुडचीत्रिफलाऽनलदारुपिप्पलीकल्कैः। दुष्टप्रस्वेदशमनं मूतिका दोषनाशनम् ॥ भास्वरसेः सिद्धं तैलं गलगण्डजिन्मधुना ॥ १ स पञ्चमूलमिति पाठान्तरम For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तैलप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४६९ धतूरेके ताजे फलोंका रस १ सेर और कड़वा | कासं पश्चविधं हन्ति तथा श्वासमुरःक्षतम् । तेल ४ सेर लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर २ घड़ी हीवेराद्यमिदं तैलं बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ तक पकावे ( इतने समयमें पानी जल जायगा ) श्रीमद्गहननाथेन निर्मितं विश्वसम्पदे ॥ फिर तेलको छान लें। ___ कल्क--सुगन्धबाला, खस, लोध, कमलकेसर, ___यह तेल दुष्ट प्रस्वेद (पसीने) और सूतिका तेजपात, नागकेसर, बेलगिरी, नागरमोथा, कचूर, विकारोंको नष्ट करता है। सफेद चन्दन, पाठा, कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ, त्रिफला, (८५५३) हीवेरायं तैलम् सोंठ, बहेड़ेकी छाल, आमकी गुठली, जामनकी ( भै. र. । रस.पि.) गुठली और लाल कमलकी जड़ ११-१। तोला लेकर कल्क ननावें । हीवेरं नलदं लोभ्रं पद्मकेशरपत्रकम् । नागपुष्पश्च बिल्वञ्च भद्रमुस्तां तथा शठी ।। २ सेर तिलके तेलमें यह करक और ८ सेर चन्दनचव पाठा च कटजस्य फलत्वचम। । लाखका रस तथा २ सेर दूध मिलाकर यथाविधि त्रिफला शृङ्गवेरश्च भृतवासत्वचस्तथा ॥ पाक सिद्ध करें। आम्रास्थिजम्बुसारास्थि मूलं रक्तोत्पलस्य च । यह तेल तीनों प्रकारके रक्तपित्तको अवश्यही पतेषां कार्षिकै गैस्तैलपस्थं विपाचयेत् ।। | नष्ट कर देता है । इसके अतिरिक्त यह पांच प्रकालाक्षारसाढकञ्चैव क्षीरं स्नेहसमं भवत् । रकी खांसी, उरःक्षत और श्वासको भी नष्ट करता रक्तपित्तश्च त्रिविधं नाशयेदविकल्पतः ॥ तथा बलवर्ण और अग्निकी वृद्धि करता है। इति इकारादितैलप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः . [हकारादि अथ हकाराधासवारिष्टप्रकरणम् हपुषादितकारिष्टः धातुक्षयं जयेत्पीतः कासं पञ्चविधं तथा। ( यो. र. । अर्शो.) अशांसि षट्पकाराणि तथाष्टावुदराणि च ।। प्रमेहं च महाव्याधिमरुचिं पाण्डुतां तथा। प्र. सं. २४८३ तक्रारिष्ट देखिये । सर्वान् वातान् तथाप्यामं श्वासं छदि तथैव च। (८५५४) हरीतक्यासवः अष्टादशैव कुष्ठानि शोषं शूलं भगन्दरम् । (ग. नि. । आसवा. ६) शर्करां मूत्रकृच्छं च घश्मरी च विनाशयेत् ।। हरीतकीनां प्रस्थाधै धात्रीप्रस्थद्वयं तथा। कृशानां च महापुष्टिं कुरुते च महाबलम् । महावेगो महातेजा महावीर्यबलोदतः ॥ दशमूलशताधे च पौष्करं च तदर्धकम् ॥ सत्तुल्यं चित्रकं दद्याचित्रकाओं दुरालभा । कामपुष्टिं करोत्येष क्न्ध्यानां पुत्रदो भवेत् ॥ गुडूच्या विंशतिपलं विशाला पलपञ्चकम् ॥ हर्र की बकली आधा सेर, आमला २ सेर, खदिरस्य पलान्यष्टौ तदधै बीजपूरकम् । | दशमूल ३ सेर १० तोले, पोखरमूल १॥ सेर ५ मभिष्ठा मधुकं कुष्ठ कपित्थं देवदारुकम् ॥ तोले, चीतामूल १॥ सेर ५ तोले, धमासा ६२॥ विडङ्गं चविका रोधं भागी स्यादेलवालुकम् । तोले, गिलोय १। सेर, इन्द्रायनकी जड़ २५ तोले, संवर्तकं पिप्पली च क्रमुकं शठिसुप्रभम् ॥ खैरसार ४० तोले, बिजौ रेकी छाल २० तोले तथा प्रियङ्गुसारिवामांसीनागकेसररेणुकम् । मजीठ, मुलैठी, कूठ, कैथकी छाल, देवदारु, बायत्रिवृतां रजनों रास्नां मेषशृङ्गीं पुनर्नवम् ॥ बिडंग, चव, लोध, भारंगी, एलवाल, नागरमोथा, शताहां रोहिणी दन्ती पलांशान्काथयेजले। पीपल, सुपारी, कचूर, पद्माख, फूलप्रियंगु, सारिवा, चतुर्थपादशेषे तु द्राक्षां षष्टिपलां क्षिपेत् ॥ जटामांसी, नागकेसर, रेणुका, निसोत, हल्दी, राना, त्रिंशत्पलानि धातक्या गुडाच्छुद्धाचतुः शतम् । मेढासिंगी, पुनर्नवा (बिसखपरा), सोया, कुटकी द्वात्रिंशत्पलिकं क्षौद्रं सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ और दन्तीमूल ५-५ तोले लेकर सबको कूटकर भाण्डे पुराणे सुस्निग्धे मांसीमरिचधूपिते ।। ८ गुने पानी में पकावे और चौथा भाग शेष रहने धूपिते च पुनर्दद्यात्पिप्पलीनां पलद्वयम् ।। पर छान लें । तदनन्तर उसमें ३॥ सेर मुनक्का जातीफलं लवङ्गं च त्वगेलापत्रकेसरान् । कूट कर डाल दें और फिर १ सेर ७० तोले धायके कर्षमात्रां च नेपालों दत्त्वा पक्षं निधापयेत् ॥ फूलोंका चूर्ण तथा २५ सेर शुद्ध गुड़ और २ सेर कतकफलचूर्णेऽपि क्षिप्ते निर्मलता भवेत् । शहद मिलाकर सबको जटामांसी और काली मिरपक्षाय पिवेद्यस्तु मात्रया च यथाबलम् ॥ चसे धूपित मिट्टोके घृतलिस पुराने पात्रमें भरदें तद For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ४७१ नन्तर उसमें पीपलका चूर्ण १० तोले तथा जायफल, क्षय, ५ प्रकारकी खांसी, ६ प्रकारका अर्श, ८ लौंग, दालचीनी, इलायची तेजपात और नागकेसर प्रकारके उदर रोग, प्रमेह, अरुचि, पाण्डु, समरर इनका चूर्ण एवं कस्तूरी ११-१॥ तोला मिलाकर वातव्याधि, आम, श्वास, छर्दि, अठारह प्रकारक मुख बन्द करके रख दें और १५ दिन पश्चात् । कुष्ट, शोष, शूल, भगन्दर, शर्करा, मूत्रकृच्छू और उसमें निर्मलीके बीजोंका चूर्ण डाल दें कि जिससे अश्मरीका नाश होता है। यह अत्यन्त बलवीर्य आसव निर्मल हो जायगा। इसके १५ दिन पश्चात् और कामशक्ति वर्द्धक तथा कृषोंको पुष्ट करनेवाल छान कर बोतलों में भर दें। __ है । इसके प्रभावसे वन्ध्या स्त्रीको भी पुत्र प्राप्ति इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे धातु- होती है । इति हकाराघासवारिष्टप्रकरणम् । अथ हकारादिलेप-प्रकरणम् (८५५५) हयादिलेपः ( पानीमें घोलकर ) इसका लेप करनेसे बाल (वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.) गिर जाते हैं। इयवेल्लाग्निभल्लातदन्तीम्पाकनिम्बजैः। (८५५७) हरितालादिलेपः (२) कालिक पेषितैर्लेपः श्वेतकुष्ठविनाशकृत ॥ (वै. म. र. । पट. १८) ___ असगन्ध, बायबिडंग, चीता, भिलावा, अम. हरितालवचाकुष्ठचूर्ण पीतवटच्छदम् । लतासकी छाल, और निबौली (नीमके बीज) समान , अद्भिः पिष्ट्वा मुखे लिम्पेदव्यालोपनलोलुपः । भाग लेकर कांजीमें पीसकर लेप करनेसे श्वेत कुष्ट हरताल, बच, कूठ, और बड़के पीले पत्ते नष्ट होता है। समान भाग लेकर पानीमें पीसकर लेप करनेसे (८५५६) हरितालादि लेपः (१) मुखव्यंग (झांई)का नाश होता है । (व. से. । स्त्रीरोगा.) (८५५८) हरितालादिलेपः (३) हरितालभाग एको भागाः पञ्चैव शक्तचूर्णस्य। (ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ; रा. मा. । कुष्ठा. ८) भागः पलाशभस्मत एतल्लेपाकचा न स्युः॥ गोमूत्रपिष्टैईरिताला हरताल का चूर्ण १ भाग, शंखका चूर्ण ५ भाग, सिन्धृद्भवैलेपितमादरेण । और पलाश (ढाक)की राख १ भाग लेकर सबको प्रयाति नाशं रकसं नराणां एकत्र खरल कर लें। दद्रुश्च यायाचिरसंभरूदा॥ For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि हरताल, दूर्वा घास और सेंधा नमक समान (८५६२) हरिद्रादिलेपः (४) भाग लेकर गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे रकस (यो. र. । व्रणा.) ( खाजबाली स्रावहीन फुसियों ) का तथा पुराने हरिद्राभस्मचूर्णाभ्यां प्रलेपो दारणः परः ॥ दादका शीघ्रही नाश हो जाता है। हल्दीकी भस्म और पत्थरका चूना समान (८५५९) हरिद्रादिलेपः (१) भाग लेकर (पानी या शहदमें मिलाकर ) लेप कर नेसे बण फट जाता है। (वै. म. र. । पटल ११) (८५६३) हरीतक्यादिलेपः (१) निशामरिचसिन्धृत्यैः सार्ध नृजलपेषिता। (यो. त. । त. ७१) लेपात् किटिभसंहन्त्री कुलत्थशरपुसिका ॥ | हरीतकीसैन्धवताक्ष्यशैलैः हल्दी, काली मिर्च, सेंधानमक, कुलथी और सगैरिकैः स्वच्छजलमपिष्टैः। सरफोंका समान भाग लेकर मनुष्यके मूत्रमें पीसकर | | बाह्ये प्रलेपं नयनस्य कुर्याद लेप करनेसे किटिभ कुष्ट नष्ट होता है । सघोऽक्षिरोगोपशमार्यमेनम् ॥ हर, सेंधानमक, रसौत और गेरु समान भाग __(८५६०) हरिद्रादिलेपः (२) लेकर स्वच्छ जलमें पीसकर आंखोंके बाहर लेप ( व. से. । अर्बुदा. : वृ. मा. :। यो. र । करनेसे नेत्ररोग (अक्षिपाकादि)का नाश होता है । अर्बुदा.) (८५६४) हरीतक्यादिलेपः (२) हरिद्रालोध्रपतगृहधुममनःशिलाः । (ग. नि. । कुष्टा. ३६ ; ग. मा. । कुष्टा. ८) मधुप्रगाढो लेपोऽयं मेदोऽर्बुदहरः परः ॥ | हरीतकीसैन्धवसोमराजी विडङ्गसिद्धार्थकरनबीजैः। हल्दी, लोध, पतङ्ग काष्ट, घरका धुंवां और . करोति गोमूत्रयुतैः प्रपिष्टैः मनसिल समान भाग ले कर चूर्ण करके शहदमें कुष्ठपणाशं विहितः प्रलेपः॥ मिलाकर लेप करनेसे मेदजनित अर्बुद नष्ट होता है। हर्र, सेंधानमक, बाबची, बायबिडंग, सफेद (८५६१) हरिद्रादिलेपः (३) सरसों और करञ्जबीज समान भाग लेकर गोमूत्रमें ( भा. प्र. । म. खं. २) पीस कर लेप करनेसे कुष्ठ नष्ट होता है । (८५६५) हरीतक्यादिलेपः (३) हरिद्राजालिनी चूर्ण कटुतैलसमन्वितम् । (वै. म. र. । पटल १६).. एष लेपो वरः प्रोक्तो दर्शसामन्तकारकः ॥ हरीतकीशिगुकरञ्जभास्वत ___ हल्दी और कड़वी तूंबी (या देवदाली ) के पुनर्नवासैन्धवमिश्रमूत्रैः। चूर्णको सरसोंके तेलमें मिलाकर लेप करनेसे अर्शके पिष्टैः प्रशस्तः पिटकासु लेपो मस्से नष्ट हो जाते हैं। ग्रन्ध्यामपच्यामथ विद्रधौ च ।। For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेपप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४७३ हरे, सहजनेकी छाल, करञ्जकी छाल (या (८५६९) हस्तिकर्णपलाशादिलेपः बोज), आककी जड़, पुनर्नवा ( बिस खपर ) की ( व. सं. । गलगण्डा.) जड और सेंधा नमक; इनका चूर्ण समान भाग तण्डलोदकपिष्टेन मूलेन परिलेपतः । लेकर गोमूत्रमें पीसकर पिटिका तथा कच्ची और हस्तिकर्ण पलाशस्य गलगण्डः प्रशाम्पति ॥ पक्की ग्रन्थि एवं विद्रधि पर लेप करना लाभदायक है। ___ हस्तिकर्ण पलाशको जड़को चावलोंके पानीमें (८५६६) हरेण्वादिलेपः (१) पीसकर लेप करनेसे गलगण्डका नाश होता है। (वृ. मा. । विसर्पा.) (८५७०) हस्तिदन्तादिलेपः (१) हरेण्वो ममूराश्च मुद्गाश्चैव सशालयः।। पृथक्पृथक्पदेहाः स्युः सर्वे वा सर्पिषा सह ॥ (या. र. } बगशाथ. ; वृ. नि. र. । व्रणशोथा. ; रेणुका, मसूर, मूंग और शाली चावल; इन वृ. मा. । गशोथा. ) में से किसी एकके या सबके चूर्णको घीमें मिलाकर हस्तिदन्तो जले घृष्टो बिन्दुमात्रः प्रलेपितः । लेप करनेसे विसर्प का नाश होता है। । अत्यन्तकठिने चापि शोफे पाचनभेदनः ॥ (८५६७) हरेण्वादिलेपः (२) हाथीदांतको पानीके साथ घिस कर एक बिन्दु (शा. सं. । खं. ३ अ. ११) मात्र लेप करनेसे अत्यन्त कठिन ब्रणशोथ भी पक हरेणुनत शैलेयमुस्तैलागरुदारुभिः। कर फूट जाता है। मांसीरास्नास्बूकैश्च कोष्णो लेपः कफातिनुत् ॥ (८५७१) हस्तिदन्तादिलेप: (२) रणुका, तगर, छरीला (पत्थर फूल), नागर- (र. र. ग्मायन खं. । उप. '५ ) मोथा, इलायची, अगर, देवदारु, जटामांसी, रास्ना हस्तिदन्तस्य दग्धस्य समं योज्य रसाञ्जनम् । और अरण्डमूलकी छाल; इनका चूर्ण समान भाग अजाक्षीरेण तपिष्टा लेपनात्केशरञ्जनम् ।। लेकर सबको (पानीमें) पीसकर मन्दोष्ण करके लेप : करनेसे कफज शिर पोड़ा नष्ट होती है। हाथीदांतकी भस्म और रसौत बराबर बराबर लेकर बकरीके दृधमें पीसकर लेप करनेसे सफेद (८५६८) हलिन्यादियोगः - बाल काले हो जाते हैं। (ग. नि. । विस्फोटा. ४०) मूलबीजान्विता पिष्टा काञ्जिकेन प्रलेपतः। (८५७२) हास्तदन्ताधा लपः हलिनी देवदाली वा दग्धिका स्फोटनाशिनी ॥ (रा. मा. । शिरो रोगा. १ ; वृ. मा. । क्षुद्र लांगली ( कलियारी ) या देवदाली (बिंडाल) रोगा. ; व. से. । क्षुद्ररो. ; शा. ध.। खं. ३ अथवा दुग्धिका ( दूधी ) और मूलीके बीज समान अ. ११) भाग लेकर कांजीमें पीसकर लेप करनेसे विस्फोटका द्विपदचनः पुटदग्धः साजक्षीरो रसाअनोपेतः । नाश होता है। दिनसप्तकं प्रलेपात् खलतेरपि केशसअननः।। For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ४७४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि हाथीदांतको सम्पुटमें बन्द करके भस्म करें। हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल और सेंधा नमक यह भस्म और रसौत बराबर बराबर लेकर बकरीके समान भाग लेकर ( पानीके साथ ) पोस कर पेट दूधमें पीसकर सात दिन तक रोज लेप करने से पर लेप करके दिनमें सोनेसे समस्त प्रकारके अजीर्ण गजेंके भी बाल निकल आते हैं। नष्ट हो जाते हैं। (८५७३) हिङ्ग्वादिलेपः (१) (८५७६) हिलमोचिकादिलेपः ( यो. र. । सन्निपाता.) हिलमोची रसो युक्तश्चूर्णैरुदधिफेनजैः । हि द्विनिशा विशाला सैन्धवसुरदारुकुष्ठ- प्रलेपेन निहन्त्याशु देहदौर्गन्ध्यमुत्कटम् ॥ रविग्या समुद्रफेनके चूर्णमें हिलमोची (हुरहुर )का दत्तः क्रमेण लेपो हन्ति महाकर्णकग्रन्थिकम् ॥ रस मिलाकर लेप करने से शरीरको तीव्र दुर्गन्ध भी हींग, हल्दी, दारुहल्दी, इन्द्रायणकी जड. सेंधा नष्ट हो जाती है। नमक, देवदारु और कूठके समान भाग मिलित (८५७७) हेमक्षीर्यादिलेपः (१) चूर्णको आकके दूध पीसकर लेप करनेसे कर्णमूल (शा. सं. । खं. ३ अ. ११) ( सन्निपात ज्वरमें होनेवाली कानके पीलेकी सूजन) हेमक्षीरी विडङ्गानि दरदं गन्धकस्तथा । का नाश होता है। ददूनः कुष्ठसिन्दुरे सर्वाण्येकत्र मर्दयेत् ॥ (८५७४) हिजवादिलेपः (२) धत्तूरनिम्बताम्बूलीपत्राणां स्वरसैः पृथक । (यो. र. । शूला.) | अस्य प्रलेपमात्रेण पामादविचर्चिकाः ।। हि तैलं सलवणं गोमूत्रेण विपाचितम् ।। कण्डूश्च रकसश्चैव प्रशमं यान्ति वेगतः॥ ___स्वर्णक्षीरी की जड़ (चोक), बायबिडंग, हिंगुल, नाभिस्थाने प्रदातव्यं यस्य शूलं सवेदनम् ॥ होग, तेल, सेंधा नमक और गोमूत्रको एकत्र गंधक, पमांडके बीज, कूठ और सिन्दूर ; इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र करके धतूरेके मिलाकर पकाकर ( गाढ़ा लेपसा बनाकर ) नाभि पत्तोंके तथा नीम और ताम्बूली ( पान )के पत्तोंके पर लेप करनेसे शूल नष्ट होता है । रसमें पृथक् पृथक् एक एक दिन खरल करें। ( अथवा-हींग और सेंधा नमकके कल्क इसे ( पानी या तेलमें मिलाकर ) लेप करतथा गोमूत्रके साथ तेल पकाकर नाभि पर लगाने नेसे पामा, दाद, विचर्चिका (खुजली ), खाज और या नाभिमें भरनेसे भी लाभ होगा। ) रकस (स्राव सहित खुजली युक्त पिडिका)का नोश (८५७५) हिवादिलेपः (३) होता है। (च. द. । अग्निमांद्या. ६) . (८५७८) हेमक्षीर्यादिलेपः (२) आलिप्य जठरं प्राज्ञो हिङ्गुन्यूषणसैन्धवैः। (शा. सं. । खं. ३ अ. ११) दिवास्वमं प्रकुर्वीत सर्वाजीर्णप्रणाशनम ॥ हेमक्षीयर्यास्तथा लेपो व्रणे परमदारणः ॥ . For Private And Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लेपप्रकरणम् ] मक्षी की जड़ (चोक) का लेप व्रणशोथको फाड़नेके लिये उत्तम उपाय है । (८५७९) हीवेरादिलेप: www.kobatirth.org (८५८०) हरिद्रादि धूमः ( यो. र. 1 कासा. ) पञ्चमो भागः रात्रिद्वयं शिलाधूमपानात्कासश्रुतिः कृतः । जलपानादपि तथा क्षणेन क्षणदाक्षये ॥ ( रा. मा. । कुष्ठा. ८ ) ड्रीवेरोशी रद लैर्मलयज काश्मीरकाञ्जिकैर्लेपात् । गोरखमुंडीका चूर्ण सेवन करने से भी शरीर अपगच्छति दौर्गन्ध्यं मुण्डीचूर्णस्य पानाद्वा ॥ की दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है । इति हकारादिलेप-प्रकरणम् अथ हकारादिधूम्र-प्रकरणम् हल्दी, दारूहल्दी, और मनसिल; इनका धूम्र पान करनेसे खांसी अवश्य नष्ट हो जाती है । उष:पान करनेसे भी खांसी नष्ट होती है । ४७५ सुगन्धवाला, खस, तेजपात, सफेद चन्दन और केसर के समान भाग मिलित चूर्णको कांजी में पीसकर लेप करने से शरीर को दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है । ܟܐ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इति हकारादिधूम्र-प्रकरणम् (८५८२) हरितालादि प्रतिसारणम् ( यो. र.; वृ. मा. | नेत्ररोगा . ) हरितालवचादारु सुरसारसपेषितम् । अभयारसपिष्टं वा तगरं पिल्लनाशनम् ॥ हरताल, बच और देवदारुके समान भाग मिलित बारीक चूर्णको तुलसी के रसमें खरल करके (८५८१) हिङ्ग्वादिघूम्रः ( भा. प्र. म. खं. २ हिक्का . ) निर्धूमाङ्गारनिक्षिप्तहिनुमापरजोभवः । हिक्काः पञ्चापि हन्त्याशु धूमः पीतो न संशयः ।। निर्धूम अंगारों पर होंग और उर्द का चूर्ण डालने से जो धुवां निकले उसे पीनेसे पांच प्रकारकी हिचकी निस्सन्देह नष्ट हो जाती है । ( चिलममें रखकर आसानीसे धूम्र-पान किया जा सकता है । अथ हकाराद्यञ्जन-प्रकरणम् या तगर बारीक चूर्णको हर के रसमें खरल करके रोहां पर लगाने से वे नष्ट हो जाते हैं । (८५८३) हरिद्रादिवर्तिः ( . मा. | नेत्ररोगा. ) हरिद्रामलकी कृष्ण केतकश्वेतसर्षपैः । व्योमवारियुता वर्तिः सर्वनेत्रामयापहा ॥ For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि हल्दी, आमला, कृष्ण केतकीका फूल और । (८५८६) हरिद्राद्यञ्जनम् (३) सफेद सरसों; इनके समान भाग मिलित चूर्णको (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) । बरसातके पानीमें खरल करके वर्तियां बनावें। जातीपत्ररसे पिष्टं निशायुग्मं रसाञ्जनम् । यह वर्ति समस्त नेत्ररोगोंको नष्ट करती है। निशान्ध्यं नाशयत्येव यथा पापं जिनः स्मृतः ।। (८५८४) हरिद्राद्यञ्जनम् (१) हल्दी, दारुहल्दी और रसौतके बारीक चूर्णको (बृ. मा. । नेत्ररोगा. : र. र. । नेत्ररोगा.) । । चमेलीके पत्तों के रसमें खरल करके अंजन बनावें। हरिद्रे त्रिफला लोभ्रं मधुकं रक्तचन्दनम् ।। यह अंजन नतान्थ्य ( रतौंधे ) को अवश्य भृङ्गराजरसे पिष्ट्वा घर्षयेल्लोहभाजने ॥ _ नष्ट करता है । तथा ताने च सप्ताहं कृत्वा वति रजोऽथवा। पिच्चटी धूमदर्शी च तिमिरोपहतेक्षणः ॥ (८५८७) हरिद्राद्यवतिः मातनिश्यं जयेन्नित्यं सर्वनेत्रामयापहम् ।। ( भै. र. ; वृ. मा. । नेत्ररोगा. ) हल्दी, दारुहल्दी, हर, बहेड़ा, आमला, लोध, हरिद्वानिम्बपत्राणि पिप्पल्यो मरिचानि च । मुलैठी और लाल चन्दन; इनके समान भाग मिलित भद्रमुस्तं विडङ्गानि सप्तमं विश्वभेषजम् ।। बारीक चूर्णको भंगरेके रसमें सात दिन लोहके खरल गोमूत्रेण गुडी कार्या छागमूत्रेण चाअनात् । में और सात दिन ताम्र पात्रमें मर्दन करके बतियां बना लें या बारीक चूर्ण करके रखें। ज्वरांश्च निखिलान हन्ति भूतावेशं तथैव च ॥ यह अञ्जन पिच्चिट, धूमदर्शन और तिमिर वारिणा तिमिरं हन्ति मधुना पटलं तथा । रोग तथा अन्य समस्त नेत्ररोगांको नष्ट करता है। नक्तान्ध्य भृङ्गराजेन नारीस्तन्येन पुप्पकम् ।। इसे प्रातःकाल तथा रात्रिको लगाना चाहिये। शिशिरेण परिस्रावमबुदं पिञ्चटं तथा ।। (८५८५) हरिद्राद्यञ्जनम् (२) हल्दी, नीमके पत्ते, पीपल, कालीमिर्च, नागर(व. से. । नेत्ररोगा. ; : नि. । नेत्ररोगा. ३: मोथा, बायबिडंग और सांठ; इनके समान भाग यो. र. ; र. र. । नेत्ररोगा.) | मिलित बारीक चूर्णको गोमूत्रमें पीसकर गोलियां बनालें हरिद्रां मधुकं पथ्यां' देवदारु च पेपयेत् । इसे बकरीके मूत्रमें घिसकर अंजन करनेसे आजेन पयसा श्रष्ठभिष्यन्दे तदअनम् ॥ घर और भूतावेशका: पानीमें घिसकर अंजन कर हल्दी, मुलैठी, हर (पठान्तरके अनुसार नेसे तिमिरका; शहद में घिसकर आंख में लगानेस दाख ), और देवदारु; इनके समान भाग मिलित ! पटलकाः भंगरे के रस में घिसकर लगानेसे रतौंधे बारीक चूर्ण को बकरीके दूधमें खरल करके अंजन (नतान्ध्य )का; स्त्रीके दूधमें घिसकर लगानेसे फूलेका ब -जन नेत्राभिप्यन्दमें उतम गुणकारी है। और शीतलजल में घिसकर आंखमें लगानेसे नेत्रस्राव, रक्षा इति पाउन्तरम् अर्बुद और पिच्चिटका नाश होता है। -- . . . For Private And Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अञ्जनप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः (८५८८) हरीतक्यञ्जनम् (१) लेप कर दें । इसे शरावसम्पुटमें बन्द करके भस्म ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४८ ) करें । धुंवा बाहर न निकले, यह ध्यान रखें। हरीतकी वचाकुष्ठं पिप्पली मरिचानि च । इसे बारीक पीसकर आंखमें लगाने से हर विभीतकस्य मज्जा वा शङ्खनाभिर्मनःशिला॥ प्रकार का तिमिर रोग नष्ट होता है । एतानि समभागानि अजाक्षीरेण पेषयेत् । (८५९०) हरीतक्यादिवतिः नाशयत्तिमिरं कण्डूं पटलान्यर्बुदानि च ॥ . ( भै. र. । नेत्ररोगा. ; व. से. ; वृ. मा. ; हन्ति पुष्पं सपटलं रात्र्यान्ध्यं च नियच्छति । धन्व । नेत्ररोगा.) क्षताभिधातशोकेन अग्निदग्धं च वा पुनः ॥ .. . हरीतकी हरिद्रा च पिप्पल्यो लवणानि च । काचं च नीलिकां चैव सिद्धिमिच्छन्ति नेत्रयोः।। कण्डूतिमिरजिद् वतिर्न क्वचित्पतिहन्यते ॥ हर्र, बच, कूठ, पीपल, काली मिर्च, बहेड़ेकी हर, हल्दी, पीपल, सेंधा नमक, काला नमक मज्जा ( गुठलीकी मींग), शंखकी नाभि और मन- (संचल ). विड लवण, काच लवण और सामुद्रसिल; इनका समान भाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र लवण: इनका चूर्ण समान भाग लेकर (पानीके साथ) मिलाकर बकरीके दूधमें खरल करके अत्यन्त महीन खरल करके बत्तियां बना लें। कर लें और मुखाकर सुरक्षित रखें। इसे आंखमें आंजनेसे कण्डू (खाज ) और यह अंजन तिमिर, कड् (खाज ), पटल, तिमिर का नाश होता है। यह वार्त कभी निष्फल अर्बुद, फूला, गत्र्यान्ध्य ( रतौंधा ), क्षत, आंख नहीं होती। पर चोट लगना, अत्यन्त शोक जनित नेत्र रोग, आंखका आगसे जल जाना, काच और नीलिकाका __(८५९१) हिङ्ग्वाद्यञ्जनम् नाश करता है। ( रा. मा. । नेत्ररोगा. ३) (८५८५) हरीतक्यञ्जनम् (२) हिङ्गुना द्रोणपुष्प्या वा रसेनाभितलोचनः । ( ग. नि. । नेत्ररोगा.) अचिरात्कामलाव्याधि नरो विजयते ध्रुवम् ॥ हांगका या द्रोणपुष्पी (गूमा ) के रसका अअनमधुघृतगर्भा धात्रीकल्केन वाह्यतो लिप्ता। ___ अंजन लगानेसे कामला रोग शीघ्रही नष्ट हो जाता है। अन्तधूमविदग्धा हरीतकी सर्वतिमिरनी ॥ ___ हर्र को बीचसे चीरकर उसकी गुठली निकाल (८५९२) हिताञ्जनम् दें और उसके भीतर मुरमे का चूर्ण तथा शहद और . ( रसायनसार) घी (समान भाग मिलित जितना आ सके उतना) नीलपुष्पाञ्जनांशी द्वौ समौ मर्देद रसाधने । भर दें एवं उसके ऊपर आमलेको पानीमें पीसकर · वराक्वाथद्रते चक्रीं शोषितां पलमानिताम् ।। For Private And Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि षण्मासान् निम्बमूलान्तसिं रम्भातरौ क्षिपेत् । | टिकिया रख दें तथा उस गढ़ेमें से जो नीमका भीमकर्पूरकस्तूर्योर्योगादान्ध्यं रुणद्धि सा | बुरादा निकला है उसीसे उसे भरकर गोबरसे बन्द कर दें। ६ मास बाद उस टिकियाको निकालकर १ भाग रसौतको त्रिफलाके क्वाथमें घोलकर केलेकी जड़में गाढ दें और फिर १ मास पश्चात् उसमें १-१ भाग काला और सफेद सुरमा बारीक निकालकर छाया में सुखा लें। तदनन्तर उसे बारीक पीस कर मिला दें तथा उसकी ४-४ तोलेकी पीसकर उसमें [चौथाई ( चतुर्थाश )] कपूर और टिकिया बना कर धूपमें सुखा लें।। (कपूर से छठा भाग ) कस्तूरी मिलाकर बारीक इनमें से १ टिकियाको कपड़ेमें लपेटें और | सुरमा बना लें। इसे आंखमें लगाने से अन्धता फिर नीमकी जड़में एक गढ़ा करके उसमें वह | नहीं आती। इति इकारायञ्जनपकरणम् अथ हकारादिनस्यप्रकरणम् (८५९३) हरीतक्यादिनस्यम् अदरकके रस में खांड मिलाकर उसकी, या (ग. नि. । रक्तपित्ता. ८ ; वृ. नि. र. ; यो. गोमूत्र में खरल किये हुवे गेरुकी अथवा अद्रकके र. । रक्तपिता. : रा. मा. । नासा. ४) रसमें गुड मिलाकर उसकी नस्य लेनेसे हिचकी नष्ट हरीतकीदाडिमपुष्पदूर्वा हो जाती है। लाक्षारसो नस्यविधानयागात् । निवारयत्येव चिरप्रवृत्त (८५९५) हिग्वादिनस्यम् मप्याशु नासान्तरशोणितौघम् ।। (वै. जी. । वि. १ ; वृ. नि. र. । वरा.) हरै, अनारके फूल, दूर्वा (दूब घास ) और लाख; इनके ( पृथक पृथक् अथवा सम्मिलित ) चातुर्थिको नश्यति रामठस्य रसकी नस्य लेने से पुराना नासाप्रवृत्त रक्तस्राव घृतेन जीणेन युतस्य नस्यात् । (नकसीर ) भी नष्ट हो जाता है। लीलावतीनां नवयौवनानां (८५९४) हिक्काहरयोगाः मुखावलोकादिव साधुभावः ॥ ( ग. नि. । हिक्का. ११) शर्कराशृङ्गबेरं च, गैरिकं मूत्रभावितम् । पुराने घृतमें हींग मिलाकर उसकी नस्य लेनेसे गुडाईकं च पादोक्तं हिक्कानं नावनत्रयम् ॥ चातुर्थिक ञ्चर (चौथिया) नष्ट हो जाता है। इति हकारादिनस्यप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ४७९. - - - अथ हकारादिरसप्रकरणम् (८५९६) हरगौरीरसः : श्लक्ष्णचूर्ण ततः कृत्वा सर्व क्षीरेण गोलयेत् । (र. का. धे. । वातव्या. ; र. सं. क. । उ. अ. ४) निष्कद्वयं वटी कुर्याघृतमध्ये विपाचयेत् ।। पारदं तत्तृतीयांशं गन्धं दत्त्वा तु मईयेत। स्वाङ्गशीतलतां खादेत्प्रत्यहं पाचितां धतः । दशांशनवसारेण दुतं चोन्मत्तवारिणा॥ महिषीक्षीरककमनुपानश्च सर्वदा ॥ खल्वे सम्म तत्सर्व काचकुप्यां निवेशयेत् । हरगौरीसृष्टिरसः सर्वमेहकुलान्तकः । गुरुक्तसम्प्रदायेन वालुकायन्त्रमध्यगम् ॥ दुग्धोदनं घृतं पथ्यं शाकं चिश्चाफलम्भवेत् ॥ पचेषोडशयामांश्च मन्दमध्यहठानिना। शुद्र पारद ४ भाग, ताम्रभस्म २ भाग और पक्यः सुशीतलो प्रायो हरगौरीरसो भवेत् ॥ शुद्ध गंधक ६ भाग लेकर तीनोंको एकत्र खरल शुद्ध पारद ३ भाग, शुद्ध गंधक १ भाग और करके कजली बनावें और उसे १ दिन मस्तु (दही नवसादरका चूर्ण दशवां भाग लेकर तीनोंको एकत्र के तोड़) में खरल करें । तदनन्तर सबका एक मिलाकर कजली बनावें और उसे धतूरे के रस में गोला बनाकर उसे ( सुखाकर ) चार तह किये खरल करके सुखा कर कपर मिट्टी की हुई आतशी हुवे कपड़ेमें बांधकर, बालुकायन्त्रमें रखकर मन्दाग्नि शीशीमें भरें एवं उसे बालुका यन्त्रमें रखकर क्रमशः पर इतना पकावे कि बालू खूब गरम हो जाए। मृदु, मध्यम और तीब्राग्नि पर १६ पहर पकावें। जब बालू इतनी गर्म हो जाए कि हाथसे न छई तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर शोशीसे जा सके तो अग्नि देनी बन्द करदें और यन्त्रके स्वांग रसका निकाल लें। शीतल होने पर रसको निकालकर पीस लें तथा उसे आमले के स्वरस और गोखरुके रसकी सात ( यह रस वातव्याधिको नष्ट करता है।) सात भावना देकर दूधमें खरल करके २-२ निष्क (८५९७) हरगौरीसृष्टिरसः की गोलियां बना लें। (र. र. । प्रमेहा.) ( व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती ।) शुद्धमृतं चतुर्भागं मूताई मृतताम्रकम् । इनमें से १-१ गोली प्रति दिन धीमें पकाकर गन्धकञ्च द्वयोस्तुल्यं मस्तुना मर्दयेद्दिनम् ॥ । ठंडा करके १। तोला भैसके दूधके साथ खानेसे गोलकं वन्धयेद्वस्त्रे वालुकायन्त्रगं पचेत् ।। मन्दाग्निना पचेतावद्यावत्तप्ताश्च वालुकाः ।। | समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट होते है । स्पष्टुं न शक्यते तापमयोद्धृत्यो विचूर्णयेत् ।। पथ्य-दूध, भात, घी, और इमली के (पक्के) धात्रीफळरसैर्भाव्यं सप्तधा गोक्षुरस्य च ॥ । फलोंका शाक। For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८० www. kobatirth.org (८५९८) हरनेत्रो रसः ( र. र. 1 राजयक्ष्मा. ) भारत त-भैषज्य - रत्नाकरः टङ्कणं शुद्धगन्धं तु सुवर्ण माक्षिकं पृथक् । एकं द्वित्रिचतुः पञ्चक्रमाच शुद्ध सूतकम् ॥ चाङ्गेय्यश्च द्रवैर्म दिनेकं गोलकीकृतम्। गन्धकं ताम्रपथ गोलकांशं प्रमर्दयेत् ॥ गोलकं लेपयेत्तेन ततो वस्त्रेण वेष्टयेत् । मृगाङ्कं पाचयेत्स्याल्यां वालुकाभिश्च पूरिते ॥ उद्धृत्य चूर्णयेच्छ्रलक्ष्णं हरनेत्री रसोत्तमः । मृगाङ्कवत् क्षयं हन्ति तद्वन्मात्रानुसारतः ।। सुहागेकी खील १ भाग, शुद्र गंधक २ भाग, स्वर्णभस्म ३ भाग, स्वर्णमाक्षिक भस्म ४ भाग, और शुद्ध पारद ५ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके कजली बनावें और उसे १ दिन चांगेरीके समें खरल करके सबका एक गोला बना लें | तदनन्तर गोलेके बराबर शुद्ध गंधकको मजीठके रसमें खरल करके इस गोले पर लेप कर दें। और फिर उसे कपड़े में लपेटकर मृगाङ्क रसके समान बालकायन्त्र में पकावें । यह रस क्षयमें मृगाङ्कके समान गुणकारी है। इसकी मात्रादि भी मृगाङ्गके समान ही है । (८५९९) हररुद्ररसः ( वृ. नि. र. । क्षया. ) तीक्ष्णं शुल्वं नागतारं स्वर्ण च मारितं पृथक् । एकद्वित्रिचतुपञ्चक्रमात्षट् शुद्धमृतकम् ॥ चाङ्गेर्याश्च द्रवैर्म दिनैकं कृतगोलकम् । मृगाङ्कवत्पचेत् स्थाल्यां वालुकाभिः प्रपूरितम् उधृत्य चूर्णयेत् लक्ष्णं हररुद्रो रसोत्तमः । मृगाङ्कवत्क्षयं हन्ति तद्वन्मात्रानुपानकम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ हकारादि तीक्ष्ण लोहभस्म १ भाग, ताम्र भस्म २ भाग, सोसा भस्म ३ भाग, चांदीभम्म ४ भाग, स्वर्णभस्म ५ भाग और शुद्ध पारद ६ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके एक दिन चांगेरीके उसमें घोटकर सबक! एक गोला बनावें और उसे मृगांक के समान बालुकायन्त्र में पकावें । यह रस में 'मृगाङ्क रस ' के समान गुणकारी है एवं इसकी मात्रा तथा अनुपानादि भी मृगाङ्कके समान ही हैं । (८६००) हरशशाङ्करसः (१) ( भै. र. | वाजीकरणा . ) शाल्मल्यास्त्वचमादाय श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । शुद्धगन्धकचूर्णानि तद्रसेनैव भावयेत् ॥ मासमात्र प्रयोगेण शृणु वक्ष्यामि ये गुणाः । मकरध्वजरूपोऽपि स्त्रीशतानन्दवर्द्धनः ॥ शतायुश्च भवेद्देवि वलीपलितवर्जितः । तेजस्वी बलसम्पन्नो वेगेन तुरगोपमः || सततं भक्षयेद्यस्तु तस्य मृत्युर्न जायते ॥ मलकी छालका चूर्ण और शुद्ध गंधक बरावर बराबर लेकर दोनों को एकत्र मिलाकर सँभलकी छालके रसकी सात भावना दें और फिर बारीक चूर्ण करके सुखाकर रख लें । I इसे १ मास तक सेवन करनेसे मनुष्य कामदेवके समान रूपवान हो जाता है तथा कामशक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है । उसको बलि - पलित रहित १०० वर्षकी आयु प्राप्त होती है; तेज और बल बढ़ जाता है और गति अत्यन्त तीव्र हो जाती है। यदि इसे निरन्तर सेवन किया जाय तो ( अकाल ) मृत्यु नहीं होती । ॥ i ( मात्रा - २ - ३ रत्ती | खांड और शहदके साथ खाकर ऊपरसे दूध पीना चाहिये । ) For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४८१ (८६०१) हरशशाङ्करसः (२) कण्डूविस्फोटदद्रूणां नाशनं परमौषधम् । ( र. रा. सु. । वाजीकरणा.) प्रतप्तकाश्चनाभासो देहो भवति नान्यथा ॥ गन्धकामलकं चूर्ण धात्रीरसविभावितम् । शीतपित्तोदईकोठान् सप्ताहादेव नाशयेत् । सप्तधा शाल्मलीतोयैः शर्करामधुयोजितम् ॥ | हरिद्रानामतः खण्डः कण्डूनां परमौषधम् ।। लीढ्वा चानुपयः पानं प्रत्यहं कुरुते तु यः। हन्दीका चूर्ण ४० तोले, गायका घी ३० एतेनाशीतिवर्षोऽपि शतधा रमते स्त्रिया ॥ तोले, गोदग्ध ८ सेर और खांड ३ सेर १० तोले शुद्ध गंधक और आमलेका चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम हल्दीको घी में भूनें और फिर उसमें लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर आमले और संभल दूध तथा खांड मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब की छालके स्वरसकी ७-७ भावना देकर बारीक पाक तैयार होनेके निकट आ जाय तो उसमें सोंठ, चूर्ण करके रखें। मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, बायइसे खांड और शहदके साथ सेवन करनेसे बिडंग, निसोत, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागकेसर, अस्सी वर्षका वृद्ध भी युवाके समान १०० बार नागरमोथा और लोह भस्म; इनका ५-५ तोले स्त्रीसमागममें समर्थ हो जाता है । चूर्ण मिला दें। अनुपान-दूध । इसे मिट्टीके बर्तनमें बनाना चाहिये । ( मात्रा-२ रत्ती।) jatt.tttt.tt.ttttttttttittential मात्रा-आधा तोला। हरिताल शोधन मारण सत्व इसके सेवनसे कण्डू ( खुजली ), विस्फोट, पातनादि के लिए ताल | और दाद का नाश होकर शरीर तप्त कांचन के समान (निर्मल और उज्ज्वल ) हो जाता है। शोधनादि देखिये ___यह हरिद्राखण्ड शीतपित्त, उदर्द और कोठ EPFFFFFFFFFFFFFFFFFFF को एक सप्ताहमें ही नष्ट कर देता है । कण्डू (८६०२) हरिद्राखण्डः (१) (खाज) की तो यह परमौषध है। (भै. र. । शीतपित्ता. ; धन्व. । अम्लपित्ता.) (८६०३) हरिद्राखण्डः (२) (वृहत् ) हरिद्रायाः पलान्यष्टौ षट्पलं हविषस्तथा। क्षीराढकेन संयुक्तं खण्डस्यार्द्धशतं तथा ॥ (भै. र. । शीतपि०) पचेन्मृद्वग्निना वैद्यो भाजने मृण्मये दृढे । निशाचूर्णस्य कुडवं त्रिवृत्पलचतुष्टयम् । त्रिकटुश्च त्रिजातश्च क्रिमिन्नं त्रिवृता तथा ॥ अभया तत्समं देयं सार्द्धप्रस्थद्वयं सिता ॥ त्रिफला केशरं मुस्तं लौह प्रति पलं पलम् । दार्वी मुस्ता यमान्यौ द्वौ चित्रकं कटुरोहिणी। सञ्चूर्ण्य प्रक्षिपेत्तत्र तोलकार्दन्तु भक्षयेत् ॥ । अजाजी पिप्पली शुण्ठी त्रिजातं क्रिमिकण्टकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि अमृता वासकं कुष्ठं त्रिफला चव्यधान्यकम्। हल्दी १ भाग, पीपल २ भाग; सोंठ ३ भाग, मृतलोई मृताम्रा प्रत्येकं कोलसम्मितम् ॥ | बायबिडंग ४ भाग, तुवरक ( चाल मोगरा ) ५ पचेन्मृमिना वैयो भाजने मृण्मये नये । भाग, चीतामूल ६ भाग और सुवर्णमाक्षिक भस्म कादश्च तत: खादेदुष्णतोयानुपानतः ॥ | ७ भाग लेकर सबको गोमूत्रमें खरल करके (४-४ शीतपित्तोदर्दकोठकण्डूणमाविचर्चिकाः। | रत्तीकी ) गोलियां बना लें। जीर्णज्वरक्रिमीन् पाण्डूशोथादींश्च विनाशयेत् ॥ इन्हें सेवन करने से भयंकर कुष्ठ भी नष्ट हो हल्दीका चूर्ण २० तोले, निसोतका चूर्ण २० जाता है। तोले, हर्र का चूर्ण २० तोले, मिश्री २॥ सेर और अनुपान-गोमूत्र । दारुहल्दी, नागरमोथा, अजवायन, अजमोद, चीतामूल, कुटकी, जीरा, पीपर, सोंठ, दालचीनी, इला (८६०५) हरिद्रायवलेहः यची, तेजपात, बायबिडंग, गिलोय, सुगन्धबाला, ( ग. नि. । पाण्डवा. ७) कूठ, हर, बहेड़ा, आमला, चव, धनिया, लोहभस्म और ताम्रभस्म, प्रत्येकका चूर्ण १॥ माशे ले कर हरिद्रा त्रिफला दन्ती व्योषं चित्रक आहुली। उसमें. मिट्टीके पात्रमें मन्दाग्नि पर मिश्रीकी चाशनी कटुकारोहिणी श्यामा पिप्पलीमूलमेव च ॥ मनावें और फिर उसमें अन्य औषधियों का वचा विडङ्ग त्रिफला त्रिहता हस्तिपिप्पली। चूर्ण मिला दें। चूर्णान्येषां तु तुल्यानि द्विगुण स्यादयोरजः॥ मात्रा-आधाकर्ष ( ७॥ माशे ) तानि क्षीरानुपानानि लेहयेन्मधुसर्पिषा। पाण्डुरोगं नुदत्येप श्वयधुं चापकर्षति ॥ अनुपान-उष्ण जल हल्दी, हर', बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, सोंठ, इसके सेवनसे शीत पित्त, उदर्द, कोड, खाज, मिर्च, पीपल, चीतामूल, आहुली (तरवट नामसे खुजली, विचर्चिका, जीर्णज्वर, क्रिमि, पाण्डु और काश्मीरमें प्रसिद्ध ), कुटकी, काली निसोत, पीपलाशोधादिका नाश होता है। मूल, बच, ब,यबिडंग, हरं, बहेड़ा, आमला, निसोत (८६०४) हरिद्रादिवटिका और गज पीपल; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा (ग. नि. । कुष्ठा. ३६) | लोहभस्म, सबसे दो गुनी ले कर सबको एकत्र निशाकणानागरवेल्लतौवरं | मिलाकर खरल करें। सहिताप्य क्रमशो विवर्धितम् । इसे शहद और घीके साथ सेवन करने से गवाम्बुपीतं वटकीकृतं तथा | पाण्डु और शोथका नाश होता है । निहन्ति कुष्ठानि सुदारुणानि ॥ अनुपान-दूध । For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ४८३ (८६०६) हरियोलाङ्कुशरसः तीक्ष्ण लोहभस्म १ भाग, ताम्रभस्म २ भाग सीसा भस्म ३ भाग, चांदी भस्म ४ भाग, स्वर्ण ( र. र. स. । उ. अ. २०) भस्म ५ भाग और कालीमिर्च का चूर्ण ६ भाग घनभवमृतसत्त्वं कान्तलोहाभस्म तथा शुद्ध पारद (या रसासंदूर )७ भाग ले कर त्रिगुणरससमेत तुल्यगन्धेन युक्तम् ।। सबको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह खरल करें समतुलकृतमेभिष्टकणं ताप्यचूर्ण । और फिर उसे चांगेरीके रसमें घोटकर गोला हरिदलमथ बोलं खण्डसझं मनोज्ञम् ॥ बनाकर सुखा लें । तदनन्तर उस गोलेके बराबर __ अभ्रकसत्वकी भस्म १ भाग, कान्तलोह भस्म | शुद्ध गंधकको चांगेरीके रसमें खरल करके उस गोले १ भाग, ताम्र भस्म १ भाग, शुद्ध पारद ३ भाग, पर लेप कर दें। अब उसे कपड़े में लपेटकर मृगाङ्कशुद्ध गंवक ३ - भाग, सुहागेकी खील ९ भाग, रसकी भांति बालकायन्त्रमें पकावें । स्वर्णमाक्षिक भस्म ९ भाग, शुद्ध हरताल ९ भाग) इसे यथोचित मात्रा और अनुपानसे सेवन हीराबोल ९ भाग और खांड ९ भाग लेकर प्रथम करनेसे क्षय का नाश होता है। पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका बारीक चूर्ण मिलाकर खरल करलें। (८६०८) हरिशङ्कररसः (१) (र. र. स. । उ. अ. १७; र. र. ; र. रां. ( यह रस समस्त प्रकार के कुष्ठोंको नष्ट | सु. ; रसे. सा. सं. । प्रमेहा.; रसे. चि. म.। करता है। अ. ९; यो. रं. ; वृ. नि. र. । प्रमेहा. ; मात्रा-२-३ रत्ती ।) ' वृ. यो. त. ।त. १०३ ; र. का. धे.। प्रमेहा. ; यो. त. । त. ५१) (८६०७) हरिरुद्ररसः मृत सूताभ्रक तुल्यं धात्रीफलनिज द्रवैः । ( र. का. धे. । राजयक्ष्मा.) सप्ताहं भावयेत्वल्वे रसोयं हरिशङ्करः ॥ तीक्ष्णं शुल्वं नागतारं स्वर्ण च मरिचं पृथक् । माषमेकां वटी खादेनीलमेहपशान्तये । एकद्वित्रिचतुष्कं च क्रमद्धं च मूनकम् ॥ पूर्वयोगानुपाने स्यादसाध्यं साधयेत्क्षणात् ॥ चाङ्गेरीद्रवसम्पर्घ दिनैकं तच्च गोलकम् । पारद भस्म और अभ्रक भस्म समान भाग लेकर गन्धकं चाल्पमर्यादगोलकं च विमर्दयेत् ।। | दोनोंको एकत्र मिलाकर एकसप्ताह तक आमलेके गोलकं लेपयेत्तेन ततो वस्त्रेण वेष्टयेत् । १ " निशाद्वैः” इति पाठभेदः मृगावत्पचेत्स्थाल्यां वालुकाभिः प्रपूरिताम् ॥ महानिम्बस्य बीजानि षनिष्कं पेषितानि च । उद्धृत्य चूर्णयेच्छ्लक्ष्णं हरिरुद्रो मृगाङ्कचत् । पलतण्डुलतोयेन घृतनिष्कद्वयेन च । रसोऽयं च क्षयं हन्ति यथामात्रानुपानतः ॥ एकीकृत्य पिबेच्चानु हन्ति मेहं चिरन्तनम् ।। For Private And Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि स्वर में (पाठान्तरके अनुसार हल्दीके स्वरसमें ! जातीकोष लवङ्गश्च लौहमभ्रश्च टङ्गणम् । भी ) खरल करें और फिर सुखाकर सुरक्षित रक्खें। प्रत्येकं कर्षमानेन श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥ मात्रा-१॥ माशा (व्यवहारिकमात्रा- प्रस्थेन गन्यदुग्धस्य पचेन्मृद्वग्निना भिषक् । ३-४ रत्ती।) ' शर्करायाः दशपलं पाकसिद्धिविधानवित् ।। अनुपान-५ तोले चावलोंके पानी में ६ दामलेपावस्थायां क्षिपेच्चूर्ण विचक्षणः। निष्क (व्यवहारिक मा. ११ से ३ माशे) बकायनके पूजयेद्भास्करं शम्भु द्विजातीनभिवादयेत् ॥ बीजों को पीसकर उसमें ७॥ माशे घी मिलाकर शूलमष्टविधं हन्तिं अम्लपित्तं सुदुर्जयम् । पिलावें । अन्नद्रवभवं शूल कासं श्वासं तथा वमिम् ।। इसके सेवनसे नीलमेह नष्ट होता है। कान्तिपुष्टिकरो यो बलमेधाग्निवर्द्धनः। (८६०९) हरिशङ्कररसः (२) (वृहद्) ख्यातो हरीतकीखण्डः सर्वशूलनिकृन्तनः । ( र. रा. सु. । प्रमेहा. ; रसे. चि. म. । अ. ९) । हर्रका चूर्ण २० तोले, निसोतका चूर्ण २० तोले, तथा दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागरसगन्धकलौहं च स्वर्णवङ्गश्च माक्षिकम् ।। केसर, नागरमोथा, तालीसपत्र, जीरा, जावत्री, लौंग, समभागन्तु सम्पिष्य वटिकां कारयेद्भिषक् ॥ लोहभस्म, अभ्रकभस्म और सुहागेकी खील, प्रत्येसप्ताहमामलद्रावैर्भावितोयं रसेश्वरः। कका चूर्ण ११ तोला; गोदुग्ध २ सेर और खांड हरिशङ्करनामायं गहनानन्द भाषितः ॥ ५० तोले लेकर प्रथम दूधको पकावें जब १ सेर प्रमेहान् विंशति हन्ति सत्यं सत्यं न संशयः।। . दूध रह जाय तो उसमें खांड डालकर चाशनी ___ शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, लोहभस्म, स्वर्णभस्म, बनावें और उसमें उपरोक्त समस्त द्रव्योंका चूर्ण बंगभस्म और स्वर्णमाक्षिकभस्म समान भाग लेकर , मिला दें। प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें । अन्य ओषधियां मिलाकर सात दिन आमलेके रसमें : .. सूर्यदेव और शंकरकी पूजा करके तथा द्विजाखरल करके (२--२ रत्तीकी ) गोलियां बना लें। तियाँको नमस्कार करके इसे सेवन करना चाहिये। यह रस २० प्रकारके प्रमेहको नष्ट कर देता इसके सेवनसे दुर्जय अम्लपित्त, अन्नद्रवशूल, है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तथा अन्य सब प्रकारके शूल, कास, श्वास और (८६१०) हरीतकीखण्डः वमनका नाश तथा कान्ति, पुष्टि, बल, मेधा (भैः र. । शूला.) और अग्निकी वृद्धि होती है। यह हरीतकी खण्ड चतुः पलं हरीतक्याखितायाश्चतुःपलम् ।। हृद्य भी है। चतुर्जातं समुस्तश्च तालीशं जीरकं तथा ॥ . (मात्रा-१ तोला । ) For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसमकरणम् ] www. kobatirth.org पञ्चमो भागः (८६११) हरीतकीयोगः ( ग. नि. । रसायना. १ ) आज्येनासपात्रस्थां सायश्चूणां हरीतकीम् । खादतः प्रत्यहं जन्तोर्जरानाशमवाप्नुयात् ॥ ह के चूर्ण में लोह भस्म मिलाकर उसे घी में मिलाकर लोहपात्रमें रख दें । इसे सेवन करने से वृद्धावस्था का नाश होता है । (८६१२) हरीतक्पवलेहः (ग. नि. । परि. अवलेहा. ५ ) हरीतक्याः शतं द्रोणे पयसि परिसाधयेत् । घृतावशेषमुत्तार्य निष्कुलीकृत्य च क्रमात् ॥ रसगन्धकलोहानां चूर्णेनापूर्य वेष्टयेत् । सूत्रेण मासमेकं तु मधुमध्ये निधापयेत् ॥ पथ्याशी भक्षयेदेकां सर्वरोगविमुक्तये || १०० हर्रोको ३२ सेर दूधमें पकायें। जब दूधका मावा हो जाय और वह घी छोड़ दे तो अग्निसे नीचे उतारकर हरौको चीरकर गुठली दूर करदें और समान भाग पारे, गन्धक तथा लोह भस्मको एकत्र खरल करके कज्जली बनाकर उपरोक्त ह के भीतर भरदें और उन पर सूत लपेट कर शहदमें डाल दें तथा एक मास पश्चात् सेवन करें। पथ्य - पालन पूर्वक इनके सेवन से समस्त रोग नष्ट होते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८५ (८६१३) हरीतक्यादि चूर्णम् ( वृ. नि. र. । वातव्या . ) पथ्याविभीतधात्रीणां चूर्ण चूर्ण मृतायसः । मधुना सह संलीढं मुहुर्मूत्रस्य शान्तिकृत् ॥ र, बहेड़ा और आमलेका चूर्ण तथा लोह भस्म समान भाग लेकर एकत्र खरल करें । इसे शहदके साथ सेवन करने से बहुमूत्र रोग होता है। For Private And Personal Use Only ( मात्रा - ४ रत्ती । ) (८६१४) हरीतक्यादिपाकः ( वृ. नि. र. । ज्वरा . ) प्रस्थमेकं शिवानां च जलद्रोणे निधापयेत् । द्विमस्थं दशमूलस्य सार्धप्रस्थयवाः स्मृताः ॥ ग्रन्थिकं चित्रकं भार्गी शङ्खपुष्पी बला सढी । विश्वापामार्गमेघाश्च पुष्करं गजपिप्पली ॥ इमानि तत्र योज्यानि प्रत्येकं च पलं पलम् । अष्टांशे निसृते चैषा पथ्या पिष्टा पचेत्ततः ॥ गुडप्रस्थत्रयं योज्यं गोघृतं पलपञ्चकम् । जातीफलं केसरं च चतुर्जातं च धात्रिका ॥ दीप्याक्षौ जातिपत्रीं च ताम्रं लोहं कटुत्रिकम् । चूर्णमेषां क्षिपेत्तत्र प्रत्येकं च पलार्धकम ।। पथ्या पाक इति ख्यातः कथितो भृगुणा पुरा । जीर्णज्वरहरः सद्यस्तुष्टि पुष्टिबल मदः ॥ रसको ग्रहण्यां च क्षीणधातौ च निःसृतौ । गुदामये श्वासकासे वातरक्ते हितो मतः ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि १ सेर हर्र, २ सेर दशमूल, १॥ सेर जौ इसे गुड़में मिलाकर सेवन करने से समस्त तथा ५-५ तोले पीपलामूल, चीता, भरंगी, शंख- प्रकार के शल नष्ट होते हैं । पुष्पी, खरैटी, कचूर, सोंठ, अपामार्ग (बिसखपरा), ( मात्रा–२-३ रत्ती।) नागरमोथा, पोखरमूल और गजपीपल लेकर हरों के (८६१६) हरीतक्यादिरसायनम् अतिरिक्त सबको एकत्र कूट लें और ३२ सेर पानीमें पकावें । हरौंको पोटलीमें बांध कर इस ( ग. नि. ! रसायना. १) पानी में डाल देना चाहिये । जब ४ सेर पानी रह जाय तो उसे छान लें और हरौंकी गुठली दूर करके हरीतकीमाधिकाक्षधाव्यउन्हें पीस लें और २५ तोले गोधृतमें भून लें । ___चूर्णीकृता लोहरजो विमिश्राः । तत्पश्चात् उनमें उपरोक्त छना हुवा क्वाथ और सर्पिर्मेधुभ्यां लिहतः शरीरे ३ सेर गुड़ मिलाकर पकावें । जब अवलेह तैयार जराग्रदूतं पलितं निहन्युः॥ होने के करीब हो तो उसे अग्निसे नीचे उतारकर | हरं, पीपल, बहेड़ा और आमला; इनका चूर्ण उसमें जायफल, केसर, दालचीनी, इलायची, तेज- १-१ भाग तथा लोह-भस्म सबके बराबर लेकर पात, नागकेसर, आमला, अजवायन, बहेड़ा,जावित्री, सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। सेठ, काली मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण तथा | इसे घी और शहदके साथ सेवन करनेसे ताम्रभस्म और लोहभस्म प्रत्येक २॥ २॥ तोले पलित का नाश होता है। मिला दें। (मात्रा-२-३ रत्ती ।) यह पाक जीर्णज्वरनाशक, तृप्तिकारक, बल- (८६१७) हरीतक्यादिवटी दायक, पौष्टिक एवं रसविकार, संग्रहणी, धातुक्षीणता, | धातुस्राव, अर्श,श्वास,कास और वातरक्तमें गुणकारीहै। ( वृ. नि. र. । शूला.) (८६१५) हरीतक्यादियोगः हरीतकी त्रिकटुकं कुचिला गन्धं हिमु च । सैन्धवं च समं सर्व वटी कुर्यात्सुखावहाम ।। ( यो. र. । शूला. ; वृ. मा. ; व. से.। शूला.) लघुकोलप्रमाणां तां भक्षयेत्मातरेव हि । मूत्रान्तः पाचितां शुष्कां लोहचूर्णसमन्विताम् । एकैका वटिका भुक्ता जन्मशूलनिवारिणी ।। सगुडामभयां दद्यात्सर्वशूलोपशान्तये ॥ ग्रहण्यामतिसारे बाजीणे मन्दे च पावके । हरौंको (४ गुने) गोमूत्रमें इतना पकावें । उष्णोदकानुपानेन सुखमामोति नित्यशः ।। कि मूत्र शुष्क हो जाय । तदनन्तर उनका हर, सोंठ, काली मिर्च, शुद्ध कुचला, शुद्ध चूर्ण करके उसमें समान भाग लोहभस्म मिला लें। गंधक, होंग और सेंधा नमक: इनके समान भाग For Private And Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः चूर्ण को एकत्र मिलाकर ( पानी के साथ ) खरल | तद्गोलं बन्धयेद्वत्रे पचेगोक्षीरपूरिते । करके छोटे बेर के समान गोलियां बना ले 1 दोलायन्त्रे दिवारात्र गुटिका हाटकेश्वरी ॥ जायते धारिता बक्त्रे जरामृत्युविनाशिनी । वर्षमात्रान्न संदेहो जीवेद्वर्षायुतं नरः ॥ दिनैकं त्रिफला चूर्ण काथैः खदिरवीजकैः । भावितं मधुसर्पिभ्यां पलैकं क्रामकं लिहेत् ॥ १ निष्क शुद्ध स्वर्णपत्र और ३ निष्क शुद्ध पारदको एकत्र मिलाकर १ दिन जम्बीरी नींबू और शरपुंखाके रस में खरल करके गोली बना लें तथा उसे कपड़े में लपेटकर दोलायन्त्र विधिसे २४ घंटे गोदुग्ध में पकावें और फिर स्वांगशीतल होने र निकालकर सुरक्षित रक्खे | इनमें से १-१ गोली प्रातःकाल सेवन करनेसे जन्मका शूल भी नष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह वटी ग्रहणी, अतीसार, अजीर्ण और अग्निमांद्यको भी नष्ट करती है । अनुपान - उष्ण जल । (८६१८) हरीतक्याचवलेहः । ( च. सं. 1 चि. स्था. ६ अ. २२ कासा. ; चा. भ. । चि. अ. ३) हरीतकीर्यवक्वाथद्वाढके विंशति पचेत् । स्विन्ना मृदित्वा तास्तस्मिन्पुराणं गुडषट्पलम् || दधान्मनःशिला कर्षं कर्षांर्द्धं च रसाञ्जनात् । कुडवा च पिप्पल्याः स लेहः श्वासकासनुत् २० हरों को जौके १६ सेर क्वाथमें पकावें । जब वे मृदु हो जायं तो उनकी गुठली अलग कर दें और हरौको पीसकर पुनः उसी क्वाथमें मिला लें तथा उसमें ३० तोले पुराना गुड़ मिलाकर पुनः पकावें । जब अवलेह तैयार होने के करीब हो तो उसमें १ | तोला शुद्ध मनसिल, ७॥ माशे रसौत और १० तोले पीपलका चूर्ण मिला दें । यह अवलेह श्वास कासको नष्ट करता है । ( मात्रा - ३ माशेसे ६ माशे तक । ) (८६१९) हाटकेश्वरीगुटिकाः ( र. र. रसा. खं । उप. ३ ) freeमेकं स्वर्णपत्रं त्रिनिष्कं शुद्धपारदम् । वीरशरोत्थद्रवैर्म दिनावधि ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८७ इसे १ वर्ष तक मुखमें रखनेसे जरा मृत्युका नाश हो जाता है । (?) त्रिफला चूर्णको १ दिन खैरके बीजोंके क्वाथ में खरल करके रक्खें । इसमें से ५ तोळे चूर्ण घी और शहद के साथ सेवन करनेसे रसका शरीर में क्रामण होता है । (८६२०) हिक्कानाशनरसः ( र. र. स. । उ. अ. १३ ; २. चं. ) रसगन्धकधान्याभ्रं वाळताप्यो पलं क्रमात् । भागवृद्धं वचाकुष्ठहरिद्राक्षारचित्रकैः || सपाठालाङ्गली व्योष सैन्धवाक्षविषैः समम् । भावितं भृङ्गनीरेण हिक्कावै स्वर्य कासनुत् ॥ For Private And Personal Use Only शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, धान्याभ्रक भस्म ३ भाग, शुद्ध हरताल ४ भाग, स्वर्णमाक्षिक भस्म ५ भाग, उपल ( शुद्ध गंधक या Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ इकारादि - पाषाणभेद ) ६ भाग तथा बच, कूठ, हल्दी, जवा- | पूरयेदाकरसं द्विगुणं तत्र बुद्धिमान् । खार, चीतामूल, पाठा, कलियारी, सेठ, कालीमिर्च, पुष्पाणि माषमागाणि परितः स्थापयेत्ततः ॥ पीपल, सेंधा नमक, बहेड़ा और शुद्र बछनाग; इनका | शरावसम्पुटं दचा चुल्ल्यां मध्याग्निना परेत् । चूर्ण १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली घटिका त्रयपर्यन्तं तत उत्तार्य पेषयेत् ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण | ताम्बूले गुञ्जमात्रं तु देयं पुष्टिकरं मतम् । मिलाकर भंगरेके रसकी १ भावना देकर सुखाकर पाण्डौ क्षये च शूले च सर्वरोगेषु योजयेत् ।। सुरक्षित रक्खें। ____एक मिट्टीके शरावमें ३ रत्ती हरतालका चूर्ण यह रस हिचकी, स्वरभंग और कासको नष्ट | बिछाकर उसके बीचमें श तोला हिंगुलकी डली रख करता है। दें और फिर उस पर २॥ तोले अदरकका रस डाल ( मात्रा-२ रत्ती ।) दें तथा उसके चारों ओर १ माषा लौंग रख दें। (८६२१) हिकान्तक रसः तदनन्तर उसे दूसरे शरावसे ढककर सन्धिको भली (सुवर्णभस्मादि योगः) भांति बन्द कर दें और उस सम्पुटपर कपरमिट्टी (र. चं. ; र. रा. सु. । हिक्का.) करके सुखा लें। हेयमुक्तार्ककान्तानां भस्म वल्लमितं वरम् ।। __अब इस सम्पुटको चूल्हे पर रखकर उसके बीजपूररसक्षौद्रसौवर्चलसमन्वितम् ॥ नीचे ३ घड़ी तक मध्यमाग्नि जलावें और फिर इन्ति हिकाशतं सत्यमेकमात्रादयवतः।। स्वांग शीतल होने पर हिंगुलकी भस्मको निकालकर का कथा पश्चहिकानां हरणे सूत उच्यते ॥ पीस लें। स्वर्ण भस्म, मोती भस्म, ताम्र भस्म, और इसमेंसे १-१ रत्ती पान में रखकर खिलाने कान्तलोह भस्म १-१ भाग लेकर सबको एकत्र से शरीर पुष्ट तथा क्षय, पाण्डु और शूलादिका खरल करके रखें। नाश होता है। इसमेंसे २-३ रत्ती रस बिजौ रे नीबू के रस, शहद और संचल (काले नमक) के साथ मिलाकर (८६२३) हिङ्गुलशोधनम् (१) सेवन करने से सैकड़ों प्रकारकी हिक्का ( हिचकी) (र. प्र. सु. । अ. ६) केवल एकही मात्रासे नष्ट हो जाती है फिर पांच कूष्माण्डखण्डमध्ये तु स्वेदितो लकुचाम्बुना। प्रकारकी हिचकी की तो बात ही क्या है ? । | सकृत्सञ्जायते शुद्धः सर्वकार्येषु योजयेत् ॥ (८६२२) हिङ्गुलभस्मविधिः हिंगुलकी डलीको पेठे ( भूरे कुम्हड़े )के (यो. र.) टुक डेके भीतर रखकर (दोलायन्त्र विधिसे १ दिन) वरसमा तालपिष्टं शरावे स्थापयेत्ततः।। लकुच (बढल) के रसमें स्वेदित करनेसे वह शुद्ध तस्मिन्कर्षसमं देयं शकलं दरदस्य च ।। हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४८९ - (८६२४) हिङ्गुलशोधनम् (२) (८६२७) हिङ्गलशोधनम् (५) ( शा. सं. । खं. २ अ. १२) (रसे. सा. सं.; यो. त. । त. १७) निम्बूकस्वरसेनेह । हगुलं श्लक्ष्णचूर्णितम् । अम्लवर्गद्रवैः पिष्वा दरदो माहिषेण च । विभावयेत्सप्तवारं क्षालये हुशोऽम्भसा ॥ दुग्धेन सप्तधा पिष्टा शुष्कीभूतो विशुध्यति । ततः संशोषयेद्ध, रसतन्त्रविधानवित् । हिंगलको अम्लवर्गमें खल करनेके पश्चात् एवं संशोधितं रक्तं वीतशङ्कः प्रयोजयेत् ॥ ! भैसके दूधमें ७ बार घोट घोट कर सुखा लेने से हिंगुलको बारीक पीसकर नीबूके रसकी। वह शुद्ध हो जाता है। सात भावना दें और फिर कई बार पानीसे धो (८६२८) हिङ्गलशोधनम् (६) डालें ( जिससे उसकी अम्लता जाती रहे ) तद (रसे. सा. सं.) नन्तर उसे धूप में सुखा कर रख लें। दरदं दोलिकापन्ने पक्वं जम्बीरजैर्देवैः । (८६२५) हिंगुलशोधनम् (३) सप्तवारमजामत्र वितं शुद्धिमेति हि ।। ( शा. ध. । खं. २ अ. १२ ; भा. प्र.; यो. . हिंगुलको दोलायन्त्र विधिसे (१ दिन) र. ; र. म. ; र. र. स. । अ. ३; आ. वे.. जम्बीरी नीबूके रसमें स्वेदित करके बकरीके मूत्रकी प्र. । अ. ३ ; रसें. सा. स.) । सात भावना देनेसे वह शुद्ध हो जाता है । मेषीक्षीरेण दरदमम्लवगैश्च भावितम् ।। (८६२९) हिङ्गुलात्पारदनिस्सारण सप्तवारं प्रयस्नेन शुद्धिमायाति निश्चितम् ॥ विधिः (१) हिंगलको भेड़ के दूध और अम्लवर्गके रसकी (शा. ध । ३. २ अ. १२; भा. प्र.; र. रा. सात सात भावना देने से वह शुद्ध हो जाता है। सु. ; आ. वे. प्र. । अ. ३ ; रसे. सा. सं.) (८६२६) हिङ्गलशोधनम् (४) निम्बूरसैनिम्बपत्ररसैर्वा याममात्रकम् ।। ( र. र. स. । पू. अ. ३ ; आ. वे. प्र. | अ. पिष्ट्वा दरदमूर्ध्वं च पातयेत्सूतयुक्तिवत् । ३ ; रसे. सा. सं.) ततः शुद्धरसं तस्मानीत्वा कार्येषु योजयेत् ॥ सप्तकृत्वाऽऽकद्रावैलकुचस्याम्बुनाऽपि वा। हिंगुलको १ पहर नींबूके या नीमके पत्तोंके शोषितो भावयित्वा च निर्दोषो जायते खलु ॥ रसमें खरल करके डमरुयन्त्रमें ऊर्ध्व पातन करलें। हिंगुलको अदरकके या लकुच (बढल)के (नीचेकी हांडीमें हिंगुल रखकर उसपर दूसरी हांडी रसकी सात भावना देकर सुखा लेनेसे वह शुद्ध उल्टी ढक दें और संधिको मजबूतीसे बन्द करके हो जाता है। ! आग पर चढ़ा दें । ऊपर वाली हांडीके पेंदे पर For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि - भीगे हुवे कपड़ेकी गद्दी रक्खें और उसे बार बार हिंगुलको नीबूके रसमें घोटकर सुखाले। ठंडा करते रहें। इस विधिसे पारद ऊपरकी| तदनन्तर जितने तोले हिंगुल हो उतने ही तोले हांडीमें आ लेगेगा।) स्वच्छ वस्त्रके टुकड़े लेकर उनमें से एक टुकड़ेको इस प्रकार निकाला हुवा पारद शुद्ध होता है। बिछाकर उस पर हिंगुलके चूर्णको फैला दें और (८६३०) हिङ्गुलात्पारदनिस्सारण । | फिर कपड़ेको इस प्रकार लपेट कर गेंदसी बनावें विधिः (२) कि हिंगुल इकट्ठा न हो जाय । तत्पश्चात् उस (रसायन सार) गेंदपर बाकी रहा हुवा कपड़ा लपेटकर उस पर यावत्ममाणन्दरदं गृहीत सुतली या डोरा लपेट दें। अब भूमि पर एक सावत्पमाणश्च पटम्प्रगृह्य । अच्छा लम्बा चौड़ा कागजका तख्ता बिछाकर उस प्रसार्य चूर्ण खलु हिङ्गुलस्य पर ४ अंगुल ऊंची दो ईटें रखकर उन पर लोहे निधौंतवस्त्रेऽम्ल सुभावितस्य ।। का तवा रख दें और उस तवे पर उपरोक्त गोला वस्त्रन्तथाऽऽकुश्चयता बुधेन रख कर उसके चारों ओर मिट्टीके ठीकरे लगा दें यथा न सङ्घातमुपैति चूर्णम् । कि जिससे गोला इधर उधर न खिसक सके। कार्यन्तयोर्वर्तुलगोलकञ्च इसके पश्चात् दियासलाईसे उस गोलेमें आग लड्डूकवद्धिगुलवस्त्रयोस्तत् ॥ | लगादें (या उस पर दो चार अंगारे रख दें अथवा बवा पुनस्सूत्रमुखेन सम्यम् मिट्टीका तेल छिड़ककर दियासलाई जलाकर लगा लोहस्य तापे निदधीत धीमान् । दें और गोले में अच्छी तरह आग लग जाने पर तथा यथानति चलत्ववृत्ति लपट बुझा दें।) जब गोला अच्छी तरह सुलग ___ गतिङ्कपालैः कतिभिः सुरुध्य ॥ जाए और आग बुझनेका भय न रहे तो तवेके वेदप्रमाणाङ्गुलमुच्छिते द्वे ऊपर एक नाद ढकदें । इस नांदको ठीकरियोंके ____ दृढेष्टके भूमितले निदध्यात् । ऊपर इस प्रकार रखना चाहिये कि नांद भूमिसे लम्बेन पत्रेण समास्तृते च आध अंगुल ऊंची रहे कि जिससे वायु आ जा तयोर्कजीर्ष ह्युपवेशयेत ॥ _ सके । (नांद भूमिसे अधिक ऊंची रहेगी तो पारद प्रज्वाल्य दीपस्य शलाकया तद् बाहर निकल जायगा ।) दरोत्थ नान्या पिदधीत धीमान् । (चार छः पहर पश्चात् ) जब नांदको पेंदी यन्त्रे सुशीते स्वयमेव नान्दी- स्वांग शीतल हो जाय तो धीरेसे उसे सीधा करलें मुत्याप्य गृह्णातु विशुद्धसूतम् ॥ और उसके भीतर लगे हुवे पारको छुड़ा लें। नान्द्यावक्षसि मनं लग्नन्तस्मिन्नृजीपात्रेऽपि। ( यदि बीच ही में आग बुझ जानेसे गोला गोलकमध्ये नग्नं कञ्चुकसप्तकविनाभावे ॥ कञ्चा' रह गया हो तो उस पर थोड़ा कपड़ा लपेट For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ४९१ कर पुनः उक्त विधिसे पारद निकालें । जले हुवे पानी बदला जा चुके तो आग देनी बन्द करदें कपड़ेकी राखको खरलमें घोटकर फूंकसे उड़ा और हांडीके स्वांगशीतल होने पर उसे आहिस्ता देनेसे या बार बार पानी डालकर नितारनेसे उसमें से खोलकर ऊपरके प्यालेमें लगे हुवे पारदको मिला हुवा शेष पारदभी निकल आयेगा। इस छुड़ा लें । विधिसे ८० तोले हिंगुलसे ७५ तोले तक पारद (८६३२) हिङ्गलेश्वररसः (१) निकल आता है।) ( र. रा. सु. । ग्रहण्य.) (८६३१) हिङ्गालात्पारद निस्सारण- | तोलकैकं समादाय शुद्धं हिङ्गलगन्धयोः। विधिः (३) माषद्वयं जीर्णतानं सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ शिलायां शिलया याम शाल्मलीसत्वभावितम्। ( रसे. सा. सं.) गुनाद्वयं वटीं कुर्यात्प्रयत्नेन भिषग्वरः ॥ दरदं तण्डुलस्थूलं कृत्वा मृत्पात्रके त्रिदिनम्। सम्मर्च मधुना खादेदतिसारनिपीडितः । भाव्यं जम्बीररसैश्चाङ्गा वा रसैबहुधा ॥ ग्रहणीरोगसंयुक्तः सहग्रहणीयुतः ॥ ततश्च जम्बीरवारिणा चाङ्गेारसेनपरिप्लुतम्। प्रवाहिकां क्लान्ततनुरनिमान्दादिकं जयेत् । कृत्वा स्थालीमध्ये निधाय तदुपरि कठिनी घृष्टम्।। धान्यकं जीरकं काथमनुपानं प्रयोजयेत् । चारुशरावं तत्र त्रिंशद्वारं जलं देयम् । रिङ्गलेश्वरनामोयं रसः सर्वगदापहः ।। उष्णे हेयं तथैव तदूर्ध्वपातनेन निर्मलः शिवजः। शुद्ध हिंगुल और शुद्ध गंधक १-१ तोला हिंगुलके चावलोंके समान बारीक टुकड़े करके मिट्टीके | तथा ताम्रभस्म २ माशे लेकर सबको पत्थरके बरतन में रख कर उसमें जम्बीरी नीबूका या चांगेरीका खरल में १ पहर सेंभलकी जड़के रस में खरल रस इतना डालें कि हिंगुल उसमें डूब जाय । उसे करके २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। ३ दिन तक इसी प्रकार भिगोए रहें । ज्यों ज्यों इनमेंसे एक एक गोली शहदमें मिलाकर रस कम होता जाए और डालते रहें । तदनन्तर सेवन करनेसे अतिसार, ग्रहणी, प्रवाहिका और उसमें और नया रस डालकर उस बरतन पर एक अग्निमांद्यादिका नाश होता है। ऐसा शराव सीधा ढक दें कि जिसकी तली पर खिड़िया मिट्टीका लेप किया हुवा हो। तत्पश्चात् अनुपान-धनिये और जीरेका क्वाथ । सन्धिको अच्छी तरह बन्द कर दें । ( हाण्डी पर (८६३३) हिङ्गुलेश्वररसः (२) पहिले से ही ३-४ कपड़मिट्टी करलेनी चाहियें।) ' (वृद्धज्वराङ्कुशरसः) अब इस हाण्डीको अग्नि पर चढ़ा दें और ऊपरके । (र. र. स. । उ. अ. १२) शरावमें पानी भरदें । जब पानी गरम हो जाए रसहिङ्गलजेपालद्धया दन्त्यम्बुमर्दिनः । तो उसे बदल दें । इसी प्रकार जब ३० बार दिनार्धन ज्वरं हन्याद् गुञ्जकं सितया सह ॥ . For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९२ भारत-भैपज्य-रत्नाकरः [हकारादि शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग, | सात भावना दें । तदनन्तर इसी प्रकार दूर्वा (दूब और शुद्ध जमालगोटा ३ भाग लेकर सबको घास)के रसमें साठ बार घोटें। तत्पश्चात् उसमें एकत्र मिलाकर दन्तीमूलके क्वाथमें खरल करके ७॥ माशे सुहागे की खील और ११-१। तोला सुखाकर सुरक्षित रक्खें । कत्था तथा कपूर मिलाकर चन्दनके पानीके साथ इसमें से १ रत्ती रस मिश्रीके साथ देनेसे इतना खरल करें कि चिकनाहट आ जाए । तब (विरेचन होकर) ज्वर जाता रहता है। रेणुकाके समान ( आधी आधी रत्तीकी ) गोलियां - हिङ्गलेश्वररसः (३) बनाकर छायामें सुखा लें। ( रसे. सा. सं. ; भै. र. ; र. का. p. ; र. चं. ; इनमेंसे १-१ गोली प्रातः दोपहर और धन्व. ; र. रा. सु.। ज्वरा. ; रसे. चि. म. । अ, ९) शामको खानेसे प्रमेह, मुखशोष, सोमरोग, प्रमेह प्र. सं. ५६५० “मृतसञ्जीवनीवटी” देखिये पिडिका, तृष्णा और दाहका नाश होता है। इसमें हिंगुल भी एक भाग है तथा जम्बीर (८६३५) हिरण्यगर्भपोहलीरसः रस की भावना का अभाव है। । ( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु. । ___ (८६३४) हिमांशुरसः ग्रहण्य.) (र. र. स. । उ. अ. १७ ; र. च. । प्रमेहा.) एकांशो रसराजस्य ग्राह्यौ द्वौ हाटकस्य च । रसस्य कर्षमादाय खल्वे निक्षिप्य बुद्धिमान् । मुक्ताफलस्य चत्वारो भागाः षड् दोघेनिः रक्तागस्त्यप्रसूनस्य स्वरसेन विमर्दयेत् ।। स्वनात् ॥ सप्तवारं तथा साधु श्वेतर्वारसेन च । व्यंशं बलेवराटयाश्च टङ्गणो रसपादिकः। निष्कद्वयं टङ्कणं च कर्ष खादिरसारतः ॥ पकनिम्बूकतोयेन सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ करिं रसतुल्यं च सर्वमेकत्र मर्दयेत् । मूषामध्ये न्यसेत् कल्कं तस्य वक्त्रं निरोधयेत्। यावचिक्कणतां याति युक्त्या चन्दनवारिणा ॥ गर्नेऽरनिप्रमाणे तु पुटेत्रिंशद्वनोपलैः ।। . हरेणुमात्रान्वटकान् छायायां परिशोषितान् । स्वाङ्गशीतलतां ज्ञात्वा रसं मूषोदरानयेत् । प्रातः प्रातश्च सेवेत मध्याह्ने च विशेषतः ॥ ततः खल्लोदरे मी सुधारूपं समुद्धरेत् ॥ . निशायां च विशेषेण सेवनीयः प्रयत्नतः।। एतस्यामृतरूपस्य दद्यात् द्विगुञ्जसम्मितम् । एतद्धि मेहनुद द्रव्यं मुखशोपहरं परम् घृतमाध्वीकसंयुक्तमेकोनत्रिंशदूषणैः ॥ सोमरोगहरं सर्वपिटिकानाशनं मतम् । मन्दानौ रोगसङ्घ च ग्रहण्यां विषमज्वरे । हिमांशुनामतः ख्यातं तृष्णादाह निवारकम् ॥ गुदाङ्करे महामूले पीनसे श्वासकासयोः ।। १ तोला शुद्ध पारद ( या रस सिन्दूर )को अतिसारे ग्रहण्याश्च श्वययौ पाण्डुके गदे। खरलमें डालकर लाल अगस्तिके फूलोंके रसकी सर्वेषु कोठरोगेषु यकृत्प्लीहादिकेषु च ॥ For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः वातपित्तकफोत्थेषु द्वन्द्व जेषु त्रिजेषु च । त्रिक्षारं पश्चलवणसोरतोरीविषैरपि । दद्यात् सर्वेषु रोगेषु श्रेष्ठमेतद्रसायनम् ॥ सर्वतुल्यैः शोषयित्वा संरोध्य च शरावके ।। __शुद्ध पारद १ भाग, स्वर्ण भस्म २ भाग, विमुद्रय गजगते तु वहिर्यामाष्टकं भवेत् । मोती भस्म ४ भाग, शंख भस्म ६ भाग, शुद्ध | शीतानि च गृहीत्वाऽथ रसभस्मालभस्मकम् ॥ गंधक ३ भाग, कौड़ी भस्म ३ भाग और सुहागेकी गन्धं शुद्धं षोडशकद्वादशाष्टविभागतः। खील भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली अर्कक्षीरेण संमद्य वन्हिरेकोनविंशतिम् ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर यामान्सिद्धो रसो नाम्ना सर्वरोगहरः परः । सबको पके नीबूके रसमें खरल करके मूषामें बन्द | हिरण्यगर्भो गुजैकः क्षयरोगनिवारणः ॥ करदें । तदनन्तर उसे ३० उपलों की अग्निमें | श्वासकासौ सङ्ग्रहणीं वातव्याधीं च सर्वशः। गढेमें रखकर पकावें । जब पुट स्वांगशीतल विशेषान्नाशयत्येव यथारोगानुपानतः ॥ हो जाय तो औषधको निकालकर पीस लें। शुद्ध ताम्रके बारोक पत्रोंको तपा तपाकर नवसामात्रा-२ रत्ती। दर मिले हुवे संभालुके रसमें सात बार बुझावें। तदनइसे घी, शहद और २९ काली मिर्चीके न्तर १ भाग ये पत्र लेकर उनपर गोमूत्र और आकके चूर्णके साथ सेवन करनेसे अग्निमांद्य, ग्रहणीरोग, दूधमें एकत्र खरल किये हुवे १-१ भाग हरतालसत्व विषमज्वर, अर्श, पीनस, श्वास, कास, अतिसार, | सोमल सत्व, शुद्ध पारद और गंधकके तेल का लेप पाण्डु, शाथ, उदररोग, यकृत्विकार और प्लोहा- कर दें । तत्पश्चात् जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, विकारोंका नाश होता है । यह रस एक दोषज, पांचों नमक, शोग, फिटकरी और शुद्ध बछनाग; द्वन्द्वज और सान्निपातिक अनेक रोगों में अमृतके इनका चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र मिलावें और समान गुणकारी है। यह मिश्रण उपरोक्त औषधोंके बराबर (५ भाग) ***************** लेकर आकके दूध और गोमूत्रमें खरल करके उप* हिरण्यगर्भ पोटलीके अन्य प्रयोग * रोक्त पत्रों पर लेप करदें और सुखाकर शराव* हेमगर्भपोटली' नामसे दिये गये हैं। * सम्पुट में बन्द करें। फिर इस सम्पुटको गजपुटके गढ़ेमें रख कर ८ पहर तक पकावें। इसके पश्चात् (८६३६) हिरण्यगर्भरसः (१) जब वह स्वांगशीतल हो जाय तो औषधको (र. का. थे. । क्षय.) | निकाल कर उसमें १६ भाग पारदभस्म, १२ भाग शुद्धताम्रस्य पत्राणि कुर्यात्तनुतराणि च ।। हरिताल भस्म और ८ भाग शुद्ध गंधकका चूर्ण निर्गुण्डीनवसाराभ्यां शोधयित्वाऽथ तानि तु ॥ मिलाकर आकके दूधमें खरल करें और गोला तालसोमलसत्वाभ्यां रसगन्धकतैलतः। बनाकर सुखाकर उसे शरावसम्पुट में बन्द करके समैः समैः मुपिष्टैश्च मूत्रार्कक्षीरतः पुनः॥ पहिलेकी भांति गजपुटके गढ़ेमें रखकर १९ पहर For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि पाक करें और फिर स्वांगशीतल होने पर निकाल बारम्बारं पुटैकैकं दद्यात्कनकपश्चकम् । कर खरल करके सुरक्षित रक्खें । बदर्याः पत्रपिण्डायैन्यूनैन्यूनमुहुर्विधः ।। मात्रा-१ रत्ती। एकविंशतिवारांश्च युक्त्या दद्यात्पुटस्तथा । ___ इसके सेवनसे क्षय, श्वास, कास, वातव्याधि स्वेदस्य कर्मणाऽनेन खटिकासन्निभो रसः ॥ और संग्रहणीका नाश होता है। भूमावालेखिता रेखा श्वेता निःसरति स्फुटा। क्षिप्त्वा तं भूधरे यन्त्रे चतुर्भि छाणकैः पुटः॥ (८६३७) हिरण्यगर्भरसः (२) । प्रदद्यात्स्वागशीतेत्र युक्त्येत्थं पुटपञ्चकम् । . (र. चि. । स्त. ७) पञ्चभिश्छाणकैः पञ्च पञ्च पड्भिश्च छाणकैः॥ उच्चवर्णसुवर्णस्य गाल्य गवाणका दश ।। छाणकैः सप्तभिः पश्च त्वष्टभिः पञ्च गोमयः । तेषां सूक्ष्माणि पत्राणि कुर्यादकाङ्गुलानि च ॥ एवं पञ्चपुटः प्रान्ते छाणैकैकं विवर्धयेत् ॥ यावन्त्येतानि पत्राणि तत्तुल्यः शुद्धपारदः। एकवृदयादिकं देयं यावत्पुटशतं भवेत् । मिश्रं विंशति गद्याणं निम्बुकस्य रसेन च ॥ छाणकानि च पञ्चाशच्छतानीह चतुर्दश । खल्वे दृढं विभाव्यं हि यामयुग्मात्मपीयते।। गणितानि भवन्त्येव दत्ते शतपुटे ध्रुवम् । शुष्के शुष्के रसं क्षेप्य स्वेद्या पिष्टी दिनाष्टकम।। षोडशांशविभागेन ह्यधस्ताविपुटे पुटे ।। आरनालं क्षिपेत्स्थाल्यां खण्डैनिम्बुकजैः समम् । षड्गुणो जीर्यते यावदातव्यः शुद्धगन्धकः । शिक्षस्य पत्रैश्च नित्यं नित्यं च नूतनैः ॥ एवं पुटशते दत्ते लाक्षासिन्दूरसनिभः ।। वर्तितैः कुहरों कुर्यात्तद्गर्भ हेमपिष्टिकाम् । जपाकुसुमसंकाश उद्यदर्कसमप्रभः। क्षिप्त्वा वक्त्रं तयाऽऽच्छाद्य कृत्वा वर्तुलगो. अतीवारुणतां प्राप्तस्तच्चूर्ण कूपके क्षिपेत् ॥ लकम् ॥ सिद्धो हिरण्यगर्भोऽभूत्तज्ज्ञैः प्रोक्तः पुरा रसः। दोलायन्त्रे ततः स्थाल्यां विन्यसेद्वस्त्रवेष्टितम्। विधाय रक्तिकामात्रस्ताम्बूलेन च भक्षयेत् ॥ इत्थमष्टदिनं स्वेद्यं यावनश्यति काञ्जिकम् ॥ द्वीपसंख्येषु मेहेषु ज्वरेषु विविधेषु च। चणकाख्यबदर्याश्च मदपत्राणि वर्तयेत् । अतिसारेषु सर्वेषु शूलेऽजीर्ण च दुस्तरे ।। तत्पिण्डं प्रक्षिपेद्धीमान्प हिरिकान्तरे ॥ कामलायां पाण्डुरोगे हलीमकगदेष्वपि । विष्णुक्रान्ताजटानां च श्रीखण्डस्य च वल्कलम्। अशी तिवातरोगेषु जीर्णदेहेषु दीयते ॥ पिण्डस्योपरि मुक्त्वाऽथ श्रीखण्डोपरि पिष्टकम्॥ सम्यग्रोगं परिज्ञाय देयो वैद्येन रोगिषु । श्रीखण्डं च पुनर्दद्यापिण्डं बादर्यकं क्षिपेत् । क्रमाद्रोगा विलीयन्ते प्रत्यहं सेविते रसे ॥ ब्रध्ने कोडीयकं वेध्यं सूचीवेधप्रमाणकम् ॥ देहकान्तिः मुवर्णाभा प्रत्यहं जायतेऽधिका ॥ अधोवक्त्रं च तदेयं पिधानं कुहिकोपरि। ऊंची जातिके ५ तोले स्वर्णके एक एक खपरे कुहिकां क्षिप्त्वा वेष्टितां वस्त्रमृत्स्नया॥ अङ्गुल लम्बे चौड़े सूक्ष्म पत्र करावें और फिर For Private And Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] उसमें ५ तो. शुद्ध पारद मिलाकर खरल करें । जब दोनों मिल जाएं तो उसमें नींबूका रस डालकर तप्त खल्वमें खरल करें । रस इतना डालना चाहिये कि दो पहर में सूख जाय। फिर नया रस डालकर दोपहर खरल करें । इसी प्रकार दो दो प्रहर पश्चात् नया रस डालते हुवे ८ दिन तक तप्त खल्बमें मर्दन करें | तत्पश्चात् सहजने की नवीन कोंपलोंको पीसकर उसकी मूषा बनाकर उसमें उपरोक्त स्वर्ण और पारदकी पिष्टी डालकर उसके मुखको इसी (सहंजने के पत्तों की ) लुगदीसे बन्द कर दें । तदनन्तर एक मजबूत हाण्डीमें नींबू के टुकड़े और कांजी भर कर चूल्हे पर चढ़ावें। तथा उसमें उपरोक्त पिष्टियुक्त संहजने के पत्तोंकी मूष को कपड़े में लपेट कर दोलायन्त्रविधिसे ८ दिन तक स्वेदित करें। ज्यों ज्यों कांजी सूखती जाए नई डालते जाएं। इसके बाद कांजी के सूख जाने पर अग्नि देनी बन्द करदें और स्वांगशीतल होने पर औषधकी पोटलीको निकाल लें । अब चणिबोर (झड़बेरा)के कोमल पत्तोंको पीस कर लुगदी बनावें । और एक पक्की मूषामें इस लुगदीको रखकर उसके ऊपर विष्णुक्रान्ता ( कोयल) की जड़की लुगदी रक्खें और उस पर मलयागिरी सफेद चन्दनके वृक्षकी छालका एक टुकड़ा रखकर उस पर उपरोक्त स्वर्ण पारद वाली पिष्टी रख दें एवं उसके ऊपर चन्दन की छालका टुकड़ा रखकर उसे बेरीके पत्तोंकी लुगदीसे ढक दें। इसके पश्चात् इस मूषा पर एक ढकना ढक दें कि जिसमें सुई के समान छेद हो और उस मूषा पर ३-४ कप मिट्टी करदें तथा उसे सुखा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९५ कर एक मिट्टी कूण्डे में रक्खें और उस पर ५ कण्डे रखकर पुट लगादें इसीप्रकार २१ पुट दें । हर बार बेरीके पत्ते की लुगदी आदि थोड़ी थोड़ी कम करते रहना चाहिये । इस विधि से २१ पुट पूरी हो जानेके बाद पारद खड़िया के समान सफेद हो जायगा और उससे भूमिपर रेखा खींची जायगी तो वह भी स्पष्ट और सफेद होगी । अब इस खिड़िया के समान तैयार हुवे स्वर्ण पारद के मिश्रणको भूधरयन्त्रमें रख कर निम्नलिखित प्रकारसे १०० पुट दें (१) ५ पुट ४-४ कण्डे में; (२) ५ पुट ५-५ कण्डों में (३) ५ पुट ६-६ कण्डोंमें (४) ५ पुट ७-७ कण्डे (५) ५ पुट ८ -८ कण्डों में (६) ५ पुट ९ - ९ कण्डों में (७) ५ पुट १०१० कण्डोंमें; इसी प्रकार हर ५ पुटके बाद १-१ Mast बढ़ाते जाएं | इस विधि से १०० पुट पूरी करने में कुल १४५० कण्डे खर्च होंगे। (हिसाब लगाने पर १३५० होते हैं ।) उपरोक्त पुटो में हर बार औषध का सोलहवां भाग शुद्ध गंधक भी औषधके नीचे रखना चाहिये । इस विधिसे १०० पुट में षड्गुण (६। गुना) गंधक जाति हो जाया और अत्यन्त रक्तवर्ण तथा तेज युक्त रस तैयार होगा उसे खरल करके सुरक्षित रक्खें । ! इससे १ रत्ती रस पान में रखकर खाना चाहिये । For Private And Personal Use Only इसके सेवन से समस्त प्रकारके प्रमेह, अनेक प्रकार के ज्वर, अतिसार, शूल, अजीर्ण, कामला, पाण्डु, हलीमक, वातव्याधि, और शरीरकी क्षीणता आदिका नाश होता है । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि रोगका ठीक ठीक निदान करनेके पश्चात् । और उसे तपोकर घोड़ीके मूत्रमें बुझा दें। इसी उचित रीति से यह रस सेवन कराया जाय तो प्रकार हरतालके गोलेमें रखकर तपा तपा कर २१ धीरे धीरे रोग नष्ट होकर शरीरकी कान्ति बढ़ बार घोड़ीके मूत्रमें बुझानेसे उसकी भस्म हो जाती है। जाती है। (८६३८) हिरण्याख्यवलेहः यह भस्म रोग समूहको नष्ट करके बल, आयु (बृ. मा. । बाला.) और सौग्य की वृद्धि करती है तथा शरीरको वज्रके समान दृढ़ बना देती है। कुष्ठं वचाऽभया ब्राह्मी कनकं क्षौद्रसर्पिषा। (८६४०) हीरकमारणम् (२) वर्णायुष्कान्तिजननं लेहं बालस्य दापयेत् ।। (र. र. स. । पू. अ. ४) कूठ, बच, हर्र और ब्राह्मी; इनका चूर्ण तथा ब्रह्मज्योतिमुनीन्द्रेण क्रमोयं परिकीर्तितः । स्वर्ण भस्म १-१ भाग लेकर सबको एकत्र मिला नीलज्योतिर्लताकन्दे घृष्टं घर्मे विशोषितम् ॥ कर खरल करलें । वन भस्मत्वमायाति कर्मवज्ज्ञानवहिना ॥ इसे शहद और घीके साथ मिलाकर बाल होरेको नीलज्योति नामक लताके कन्दके फको चटानेसे वर्ण, आयु और कान्तिकी वृद्धि (रसके) साथ खरल करके धूपमें सुखा लें । इस होती है। विधिसे उसकी भस्म हो जाती है। यह विधि (मात्रा-१ रत्ती।) ब्रह्म-योति नामक मुनिकी बतलाई हुई है । (८६३९) हीरकमारणम् (१) . (८६४१) हीरकमारणम् (३) ( रसे. सा. सं. ; र. मं.) (र. र. स. । पू. अ. ४) त्रिसप्तकृत्वः सन्ततं खरमूत्रेण सेचयेत् । कुलत्यक्वाथसंयुक्तलकुचद्रवपिष्टया । मुद्गरैस्तालक पिष्ट्वा तद्गोले कुलिशं क्षिपेत् ।। शिलया लिप्तमूषायां वनं क्षिप्त्वा निरुध्य च ॥ प्रध्मातं वाजिमूत्रेण सिक्तं पूर्वक्रमेण तु। अष्टवारं पुटेसम्पग्विशुष्कैश्च वनोपलैः । भस्मी भवति तदनं वज्रवत्कुरुते तनुम् ॥ शतवारं ततो ध्मात्वा निक्षिप्त शुद्धपारदे ॥ आयुष्यं सौख्यजननं बलरूपप्रदं तथा । निश्चितं म्रियते वज्र भस्म वारितरं भवेत् ॥ रोगघ्नं मृत्युहरणं वज्रभस्म भवत्यलम् ॥ शुद्ध मनसिलको कुलथीके क्वाथमें मिले हुवे होरे को तपा तपा कर २१ बार गधीके लकुच ( बढल ) के रसमें घोटकर दो शरावों के मूत्रमें वुझावें । तदनन्तर हरतालको (पानीके साथ) भीतर उसका लेप कर दें और उन्हें सुखाकर उनमें पीसकर उसमें वह हीरा रखकर गोला बनावे । हीरे को रखकर यथाविधि सम्पुट बनावें एवं उसे For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] सुखाकर अरण्य उपलों (वन कण्डों ) में फूंक दें। इसी प्रकार ८ पुट दें । ( हर बार सिलका लेप कर लेना चाहिये । ) तदनन्तर उस हीरे को तपा तपा कर १०० बार शुद्ध पारद में बुझावें । ४९७ कुलथीके क्वाथ में हींग और सेंधा नमकका . शरावांमें मन | चूर्ण मिलाकर उसमें हीरेको तपा तपाकर २१ बार बुझाने से ही रेकी भस्म हो जाती है । इस विधि से हीरेकी अवश्य ही वारितर भस्म हो जाती है 1 (८६४२) हीरकमारणम् (४) ( भा. प्र. पू. अ. १ ) मेषशृङ्गास्यि कूर्मपृष्ठाम्लवेतसम् । शशदन्तं समं पिष्ट्वा वचीक्षीरेण गोलकम् ॥ कृत्वा तन्मध्यगं वज्रं म्रियते ध्मातमेव हि । आयुः पुष्टिं बलं वीर्य वर्ण सौख्यं करोति च सेवितं सर्व रोगनं मृतं वज्रं न संशयः ॥ । भेड़का सींग, सांपकी हड्डी, कछुवेकी पीठकी हड्डी, अमलबेत और खरगोशका दांत समान भाग लेकर चूर्ण करके सेहुंड के दूधमें खरल करें और उसका गोला बनाकर उसमें ही रेको रखकर ध्मावें । इस विधि से हीरकी भस्म हो जाती हैं। हीरा - भस्म, आयुवर्द्धक, पौष्टिक, बलवीर्यवर्द्धक, वर्णदायक और सर्वरोग नाशक है । (८६४३) हीरकमारणम् (५) ( भा. प्र. पू. खं. १ ; यो. र. र. चं. ; आ. वे. प्र. अ. १३ ; शा. सं. । खं. २ अ. ११ ) हिङ्गुसैन्धवसंयुक्ते क्षिपेत्क्वाथे कुलत्थजे । तप्तं तप्तं पुनर्वजं भवेद्भस्म त्रिसप्तधा ॥ ૬૩ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८६४४) हीरकमारणम् ( ६ ) (रसे. सा. सं. ; शा. सं. । खं. २ अ. ११ ; आ. वे. प्र. । अ. १३ ; र. मं. ) मण्डूकं कांस्यजे पात्रे निगृह्य स्थापयेत्सुधीः । सभीतो मूत्रयेत्तत्र तन्मूत्रे वज्रमावपेत् ॥ तप्तं तप्तं च बहुधा वज्रस्यैवं मृतिर्भवेत् ॥ एक मेंढक को पकड़कर कांसीके पात्र में रक्ख वह भयभीत होकर मूत्र त्याग कर देगा । उस मूत्रको पृथक् पात्रमें लेकर उसमें हीरेको तपा तपा कर बहुत बार बुझानेसे ही की भस्म हो जाती है । (८६४५) हीरकशोधनम् (१) ( शा. सं. । खं. २ अ. ११ ) तप्तं तप्तं तु तद्वज्रं खरमूत्रनिषेचयेत् । पुनस्ताभ्यं पुनः सेच्यमेवं कुर्यात्त्रिसप्तधा ॥ हरेको तपा तपाकर २१ बार गधेके मूत्र में बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है । (८६४६) हीरकशोधनम् (२) ( भा. प्र. पू. खं. १ ; आ. वे. प्र. | अ. १३) गृहीत्वाहि शुभे वज्रं व्याघ्रीकन्दोदरे क्षिपेत् । महिषीविष्ठया लिप्त्रा करीषान्नौ विपाचयेत् ॥ त्रियामायां चतुर्यामं यामिन्यन्तेऽश्वमूत्रके । सेचयेत्पाचयेदेवं सप्तरात्रेण शुद्धयति ॥ हीरको शुभ दिन में कटेली की जड़के भीतर रखकर उसके मुखको उसीके ( कटेलीकी जड़के ) For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि इकडेसे बन्द करके उसके ऊपर भैसके गोबरका । मृतं नीत्वा तदा तैले वसुमात्र विनिक्षिपेत । लेप कर दें और उसे रात्रिमें ४ पहर तक अरने प्रतमे हण्डिकामध्ये रसोर्धस्तत्र दीयते ॥ उपलोंकी आगमें पकावें एवं प्रातःकाल घोड़ेके मूत्रमें नागहेम्नोश्च पत्राणि षण्माषप्रमितानि च । बुझा दें। इसी प्रकार सात रात पाक करके घोड़ेके | पृथक् पृथक निधाप्यन्ते हीरमूषमुखे ततः ।। सूत्रमें सात बार बुझानेसे हीरा शुद्ध हो जाता है। अति सूक्ष्माणि जायन्ते पिष्टयः सर्वस्य वस्तुनः। (८६४७) हीरकशोधनम् (३) पुनरर्धममुं मृतं पूर्वमर्द्धधृतं च यत् ।। ( भा. प्र. पू. खं. १ ; आ. वे. प्र. । अ. १३; । नि:स्नेहे हण्डिकामध्ये कृत्वाग्निं ज्वालयेत्ततः । र. मं. ; रसे. सा. सं. ; शा. सं. । खं. चुल्लिकोपरि विन्यस्य किश्चित्तप्ते च पिष्टिकम् ॥ २ अ. ११) क्षिप्त्वा तामेकतः कृत्वा खोटरूपो रसस्तदा। खल्वे निष्पिष्य किञ्चिच्च मृत्तिकायाश्च सम्पुटे।। कुलत्यकोद्रवक्वाथे दोलायन्ने विपाचयेत् । निवेश्य भूतले किश्चित्कोकिलैः परिपूर्यते । व्याघ्रीकन्दगतं वजं त्रिदिनात्तद्विशुद्धथति ॥ स्वल्पकैस्तैश्च यावत्स्याज्ज्वलदग्निप्रदीपनम् ॥ ___ हीरेको कटेलीके कन्दमें बन्द करके कपड़े में एवं सिद्धो भवेदेष रसराजश्च साधितः।। लपेटकर कुलथी और कोदोंके क्वाथमें दोलायन्त्र हीरावेध्यो रसो नाम यत्नतः प्रतिपादितः॥ विधि से ३ दिन तक पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है। यत्र तत्र न वक्तव्यो योक्तध्यो रोगशान्तये। (८६४८) हीरावेध्यो रसः निसंज्ञः सन्निपाते यस्तस्य तालुनि दीयते ॥ (हीरबद्धरसः) | रक्तिकार्धाधमात्रश्च सनिपातं नियच्छति। । र. चि. म. । स्त.७ ; र. का. धे. । सन्निपाता.) शर्करा कोशकारं च खण्डमिक्षुप्रियालकान् ॥ टङ्काष्टकरसः शुद्धः क्षारिका टङ्कषोडश। पयश्च पायसं चैव कदलीफलमुत्तमम् । बरमूत्रेण सप्ताहं कृत्वा तन्मदयेवयम् ॥ रसालां च परूषांश्च पानकं पथ्यमीरितम् ॥ इण्डिकायां निरुध्याऽथ काञ्जिके स्वेदयेद्दिनम्। अतिलौल्यकरं देयं शीतलं सलिलं तृषि । शुद्धं हीरमथो नीत्वा गुञ्जायुग्मं द्विजातिकम् ॥ अग्नेलमसौ कुर्यादग्रहणीरोगनाशनः ॥ तिवेलमिदं तप्तं म्रियते हीरकं ध्रुवम् । दुष्टकुष्ठक्षयादींश्च विकारान्नाशयत्यसौ । अथ नो म्रियते चैव कदाचिदपि हीरकम् ॥ हीरावेध्यो रसो नान्ना यत्रयत्र प्रयुज्यते ॥ xण्टकारीरसे चैव पञ्चवेलं प्रकल्पयेत् । | तान्रोगानाशयेन्नूनं रोगयोग्यानुपानतः ॥ प्रत्वाग्नौ लोहमूषायां म्रियते नान्यथा हि तत्॥ आठ टंक ( ४० माशे) शुद्ध पारद और १ पाठान्तराणि-नरमूत्रेण १६ टंक क्षारिका (ऊप-रेह मिट्टी) लेकर दोनोंको २ चुलुमात्रे १ सप्ताह तक गधेके मूत्रमें खरल करें और फिर ३ नभोहेम्नश्च उसे कांजीसे भरी हुई हांडी में डालकर उसका मुख For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४९९ बन्द करके १ दिन स्वेदित करें। (तदनन्तर अवश्य करनी चाहिये । ) अग्निके स्वांग शीतल हांडीके स्वांगशीतल होने पर उसमें से पारदको | होने पर औषधको निकालकर सुरक्षित रखें। निकालकर कपड़ेसे कई बार छान कर स्वच्छ कर इस उत्तम रसकी जहां तहां चर्चा करनेकी लें। बची हुई कांजीको धीरेसे निकाल देना चाहिये आवश्यकता नहीं है, केवल समय पड़ने पर इसका कि जिससे पारद उसके साथ न चला जाय।) चमत्कार दिखलाना चाहिये । ___अब उतम जातिका २ रत्ती शुद्ध हीरा लेकर | जब कोई रोगी सन्निपातसे मूञ्छित हो तो उसे तपा तपा कर सात बार उक्त पारदमें बुझावें । | उसकेशिरभे तालु पर (छुरे आदिसे जरा सा घाव करके) इससे होरेको भस्म हो जायगी। यदि इस प्रकार २ चावल भरसे आधी रत्ती तक यह रस उस भस्म न हो तो फिर उसे लोहेके मूषामें रख कर जगह मल दें। इससे उसे चेत आ जायगा और तथा तपा कर पांच बार कटेलीके रसमें बुझावें । सन्निपात नष्ट हो जायगा। इससे वह अवश्य भस्मी भूत हो जायगा। पथ्य-खांड, कोषकार (ईख भेद ), मिश्री, __ तत्पश्चात् एक मूषामें १ चुल्लु तेल डालकर | ईख, प्रियाल (चिरौंजी फल ), दूध, खीर, उत्तम उसमें वह हीरक भस्म डालकर गरम करें और केले की फली, रसाला, फालसे और हितकर अच्छी तरह तत हो जाने पर उसमें उपरोक्त पारद शरबत आदि । का (जिसमें सात बार हीरा बुझाया था उसका ) आधा भाग डाल दें और उसके ऊपर शुद्र सीसे प्यास में शीतल जल देना चाहिये । तथा स्वर्णके ६-६ माशे ( वर्तमान तोलसे प्रत्येक यह रस अग्निवल-वर्द्धक, ग्रहणीरोग नाशक ७।। माशे ) बारीक पत्र डाल दें। ( इस मूषाको है एवं दुष्ट क्षय और कुष्ठको भी नष्ट कर देता है अग्नि पर तपानेसे ) सब वस्तुओंकी सूक्ष्म पिट्ठी सी तथा उचित अनुपानसे जिस रोगमें दिया जाता है हो जायगी । तत्पश्चात् पूर्वोक्त आधा बचा हुवा उसीका नाश करता है। (जिसमें हीरेको तपा तपा कर बुझाया था वह ) (८६४९) हीरावेध्यो रसः पारद चिकनाई रहित हाण्डी ( मूषा ) में डालकर आगपर रखें और उसके कुछ गरम हो जाने पर (रसें. चि. म. । अ. ७) उसमें यह पिट्टी डाल दें एवं सबको अच्छी तरह द्वौ भागौ मृतहीरस्य ह्यभ्रकस्य त्रयः पुनः । मिलाकर उतार लें और खरलमें डालकर थोड़ी देर | भस्म मूतस्य चत्वारः षट्शुद्धगन्धकस्य च ।। घोटकर मिट्टीके सम्पुटमें बन्द करें तथा उसे भूमिमें मृतलोहस्य द्वौ भागौ चत्वारस्तारकस्य च । दबाकर ( बहुत गहराई में नहीं ) उसके ऊपर रोचनाया भवन्त्यत्र भावनाः पश्च सूतके ॥ कोयलों की अग्नि जलावें । ( कोयले अधिक न हों तथा सुवर्चलायाश्च दातव्या भावनाः क्रमात् । परन्तु उनसे ज्वाला निकलने लगे इतनी तेज आग अथो दृढायां मूषायां मध्ये दत्वा च तं रसम ॥ For Private And Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि पुनः शरायद्वितये दच्या पश्चाद्विमुद्रयेत् । कि जिससे २ पहरमें अग्नि शान्त हो जाय । हस्तप्रमाणके कुण्डे पुटो देयः शनैर्लधुः ॥ नत्पश्चात् उसके स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे द्वियामं यावदेवतच्छीतमादाय तं रसम् । | औषधको निकाल कर भैरव और वैद्य का पूजन विधाय भैरवस्याऽथ पूजनं भिषजस्ततः ॥ करके उसे सुरक्षित रखें । गुलामेकममुं दद्यादीरावेध्यं रसेश्वरम् । इसमेंसे १ रत्ती रस काली मिर्चके चूर्णके साथ मरिचेन समं प्रातस्ततस्ताम्बूलभक्षणम् ॥ (उचित अनुपान से ) प्रातःकाल खिलाकर ऊपरसे क्रोधमात्सर्यमुत्सार्य व्यायामं धर्मसेवनम् ।। पान खिलाना चाहिये। असिमलपनं चिन्तामभ्यस्यां च वर्जयेत् ।। इसके सेवनकालमें क्रोध, मात्सर्य, व्यायाम, असत्यभाषणं चैव पथ्यं सेव्यं निरन्तरम् । धूपमें जाना, अधिक बोलना, चिन्ता, चुगली और अनेन जायते पुष्टिदृष्टयारोग्यश्च जायते ॥ असत्यभाषण का त्याग करके सदा पथ्य सेवन भनेन मुखमामोति पुत्रं चानेन चोत्तमम् । करना चाहिये। अनेन नश्यते वायुरनेनायुश्च वर्धते ।। __इसके सेवनसे पुष्टि, दृष्टि, आरोग्य, सुख, अनेन लभते कान्तिमनेनापि जराश्रयेत् । सन्तान, आयु, और कान्तिकी वृद्धि होती तथा अनेन पलितं याति खालित्यश्च विशेषतः॥ वायुका नाश होता है। यह रस जरा (वृद्धावस्था), अनेन वज्रकाया स्याद्विशेषेण निरामयः । पलित, और विशेषतः खालित्य को नष्ट करता है। स्थावरं जगमश्चापि कृत्रिमश्चापि यद्विषम् ।। यह शरीरको निरोग और वज्रके समान दृढ बना अनेन न प्रभवति सेवमानस्य न क्वचित् । देता है । इसे सेवन करने वाले पर स्थावर, जंगम अनेन देवरूपः स्याज्जायते बुदिरुत्तमा ।। या कृत्रिम विषका प्रभाव नहीं पड़ता। क्षयं कासं प्रमेहश्च रक्तपित्तं सुदारुणम् । यह रस बुद्धिको बढ़ाता और क्षय, कास, विद्रध्यष्ठीलिके गुल्मं ग्रहणीमपि दुस्तराम् ॥ प्रमेह, दारुण रक्तपित्त, विद्रधि, अष्ठीला, गुल्म, अतिसारं महाघोरं सर्वान् व्याधींश्च नाशयेत् ॥ | संग्रहणो, और घोर अतिसारादिको नष्ट करता है। हीरा भस्म २ भाग, अभ्रक भस्म ३ भाग, (८६५०) हुताशनरसः (१) पारद भस्म ४ भाग, शुद्ध गंधक ६ भाग, लोहभस्म २ भाग और चांदी भस्म ४ भाग लेकर सबको । (र. रा. सु. ; वृ. यो. त.। त. ५९ ; भा. एकत्र खरल करके गोरोचन के पानी की तथा प्र.। म. खं. २) हुलहुलके स्वरसकी ५-५ भावना दें । तदनन्तर नागरं कर्षमात्रश्च टणं कर्षकद्वयम् । उसे एक दृढ मूषामें रखकर उस मूषाको २ शरा- | मरिचं साईकर्ष स्यात्तावदग्धवराटकम् ।। कि सम्पुटमें बन्द करके १ हाथ गहरे और इतने विषं कर्षचतुर्थाशं सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । ही लम्बे चौड़े गढे में रखकर इतने कण्डोंमें फूकें । रसो हुताशनो नाम्ना खाधो गुनामितो ज्वरे।। For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः सोंठ का चूर्ण १ तोला, सुहागेकी खील २॥ इनमेंसे १-१ गोली अदरकके रस में मिलाकर तोले, कोली मिर्चका चूर्ण १।। कर्ष ( १ तोला चाटनी चाहिये । १०॥ माशे ), कौड़ी भस्म १॥ कर्ष और शुद्ध (८६५२) हुताशनरसः (३) बछनागका चूर्ण ३॥ माशे लेकर सबको एकत्र (र. चं. ; यो. र. ; वृ. नि. र.; वै. र . । मिलाकर खरल करें। अग्निमांद्या. ; वृ. यो. त. । त. ७१ ; रसे. यह रस ज्वरोंको नष्ट करता है। सा. सं. । अग्निमांद्या.) मात्रा-१ रत्ती। एकद्विकद्वादशभागयुक्तं (८६५१) हुताशनरसः (२) योज्यं विषं टकणमूषण च। ( र. चं. ; यो. र, । अजीर्णा. ) हुताशनो नाम हुताशनस्य करोति वृद्धि कफजिमराणाम् ॥ एकांशकाः पारदगन्धटकाः शुद्ध विष १ भाग, सुहागेकी खील २ भाग कपर्दशनामृतगेहधमा । और काली मिर्चका चूर्ण १२ भाग लेकर सबको त्र्यंशा इमेऽथो मरिचं विमांशं एकत्र मिलाकर खरल करें। सम्मर्दितं जृम्भरसेन गाढम् ॥ गुल्मारोचकशूलवद्विसदनाजीणे विधूची कफम। यह रस अग्निकी वृद्धि और फफका नाश जाडयं शीर्षसमुद्भवं च मुदगप्रमाणा वटी करता है । लीढाऽऽर्द्रस्य रसेन हन्ति कथितानेतान् (मात्रा-१ माश ।) गदान्ब्रह्मणा । (८६५३) हुताशनो रसः पूर्व निर्मित एष यत्रशतकैर्नाम्ना हुताशो रसः।। (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; इ. का. शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक और सुहागेकी खील, धे. । अग्निमांथा.) १-१ भाग तथा कौड़ी भस्म, शंख भस्म, शुद्ध | गन्धेशटङ्गणेकै विषमत्र त्रिभागिन् । विषका चूर्ण, घरका धुंवा और काली मिर्चका चूर्ण अष्टभागन्तु मरिचं जम्भाम्भोमर्दिन दिनम् ।। ३-३ भाग लेकर प्रथम पार गंधककी कज्जली तटीं मुद्गमानेन कृत्वाण प्रयोजयेत् । बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर शूलारोचकगुल्मेषु विमुच्यामपिमान्यके। जम्बीरी नीबूके रसमें अच्छी तरह घोटकर मूंगके | अजीणे सभिपातादौ शैत्ये जारचे विरोगदे ।। समान गोलियां बना लें। शुद्ध गंधक, शुद्ध पारद और सुहागेको खील इसके सेवन से गुल्म, अरुचि, शूल, अग्निमांद्य, १-१ भाग तथा शुद्ध विष (बछनाग) ३ भाग अजीर्ण, कफ और शिरकी जड़ताका नाश होता है। एवं काली मिर्च का चूर्ण आठ भाग लेकर प्रथम For Private And Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५०२ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः पारे गंधक की कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको जंभीरी नीबू के रस में खरल करके मूंग समान गोलियां बना लें । इनमें से १-१ गोली अदरक के रसके साथ देनेसे शूल, अरुचि, गुल्म, विसूचिका, अग्निमांद्य, अजीर्ण, सन्निपात, शीत और जड़ता का नाश होता है । (८६५४) हृदयार्णवरसः ( रसे. सा. सं. ; धन्व. ; र. र. र. का. घे. ; यो. र. र. रा. सु. ; ; भै. र.; रसे. चि. म. ; र. चं. । हृद्रोगा. ) शुद्धसूतं समं गन्धं मृतात्रं तयोः समम् । मर्दयेत्रिफलाक्वाथैः काकमाचीद्रवैर्दिनम् ॥ चणमात्रां वटीं खादेद्रसोऽयं हृदयार्णवः । काकमाचीफलं कर्षं त्रिफलापलसंयुतम् ॥ द्वात्रिंशत्तोलकं तोयं क्वाथमष्टावशेषितम् । अनुपानं पिबेचात्र हृद्रोगे च कफोत्थिते ॥ शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक १-१ भाग तथा ताम्र भस्म २ भाग ( पाठान्तरके अनुसार १ भाग ) ले कर तीनों को एकत्र मिलाकर १-१ दिन त्रिफला क्वाथ और मकोय के रसमें खरल करके चने के समान गोलियां बना लें । यह रस कफज हृद्रोगको नष्ट करता है । अनुपान - मकोय के फल १| तोला और त्रिफला चूर्ण ५ तोला लेकर दोनों को एकत्र मिलाकर ४० तोले पानी में पकाकर ५ तोले शेष रहने पर छान लें। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ हकारादि (८६५५) हृद्रोगहररसः ( र. का. घे. । उरोग्रहा. ) बाहूलीक विश्वदहनामययावशूकपथ्यावचा बिडकणारुवुकैर्निहन्यात् । सृतः सपुष्करजटो यववारिपिष्टोहृद्रोगममिविकलत्वमतिप्रवृद्धम् || हींग, सोंठ, चीतामूल, कूठ, जवाखार, हर्र, बच, बिडनमक, पीपल; अरण्डमूल और पोखरमूल; इनका चूर्ण तथा पारद भस्म १-१ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर जौके क्वाथमें खरल करके सुखाकर सुरक्षित रक्खें । यह रस प्रवृद्ध हृद्रोग और अग्निमांद्यको नष्ट करता है । - १ माशा । ) ( मात्रा(८६५६) हेमगर्भपोटलीरस: (१) ( र. चं. ; रसे. सा. सं. ; धन्व. ; र. रा. सु. 1 राजयक्ष्मा ) रसभस्म त्रयो भागाभागैकं हेमभस्मकम् । मृतताम्रस्य भागैकं तोलैकं गन्धकस्य च ॥ मर्द्दयेच्चित्रकद्रावैर्द्वियामान्ते समुद्धरेत् । पूर्या वराटिका तेन टङ्कणेन विलेपयेत् ॥ वरा पूरयेद्भाण्डे रुद्धा गजपुटे पचेत् । विचूर्णयेत्स्वाङ्गशीते पोट्टली हेमगर्भिकाम् ॥ मृगाङ्कवचतुर्गुआभक्षणाद्राजयक्ष्मनुत् ॥ For Private And Personal Use Only पारद भस्म ३ भाग, स्वर्ण भस्म १ भाग, ताम्र भस्म ? भाग, और शुद्ध गंधक १ भाग (प्रत्येक १ - १ तोला ) लेकर सबको एकत्र मिलाकर चीते के Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पश्चमो भागः ५०३ क्वाथमें २ पहर खरल करके उसे कौड़ियों के भीतर गोली बनाकर सुखा लें तथा एक मोटे कपड़े पर भर दें और उनके मुख ( दूधमें पिसे हुवे ) सुहागेसे थोड़ा शुद्ध गंधक का चूर्ण रख कर उस पर वह बन्द कर दें एवं उन्हें शरावसम्पुटमें बन्द करके गोली रख दें और कपड़ेको लपेट कर कड़ी पोटली गज पुटमें फूंक दें तथा स्वांग शीतल होने पर निकाल बनावें तथा उस पर थोड़ा वस्त्र और लपेट दें ! कर (कौड़ी समेत ) पीस लें । | तत्पश्चात् एक मिट्टीके प्याले में सम्पूर्ण औषधियों के मात्रा–४ रत्ती। समान शुद्ध गंधकका चूर्ण डालकर उस पर वह सेवन विधि आदि मृगाङ्ग रस के समान ।। पोटली रक्खें और उसे दूसरे प्याले से ढक का सन्धि बन्द करदें (तथा उस पर ३-४ कपड़मिट्टी इसे सेवन करनेसे क्षयका नाश होता है। करके सुखा लें।) ऊपर वाले प्याले में एक छिद्र (८६५७) हेमगर्भपोटलीरसः (२) कर देना चाहिये। ( यो. र. ; र. चं. । कासा.) अब इस सम्पटको बालुका यन्त्रमें रखकः मन्दाग्नि पर पकायें। आध पहरमें प्याले का गंधक शुद्धसूतं चतुर्भागं द्विभागं गन्धकस्य च । |-पिघल जायगा। ऊपर वाले छिद्रसे सलाई डाल ३.. भागमेकं सुवणे च त्रिभागं शुल्बभस्म च ॥ | देखें और गंधक पिघल गया हो तो अग्नि देत कुमारीरससंयुक्तं सप्ताहं मर्दयेद् दृढम् ।। बन्द कर दें तथा स्वांग शीतल होने पर गोलीक गुटिका कारयेत्तां तु बध्नीयात्खरकर्पटे ॥ | निकालकर सुरक्षित रक्खें । वस्त्रे किंचिद्वलिं स्थाप्य तत्र गोल निधाय च । बन्ध्नीयात्पोटलीं गाढा पश्चाद्वस्त्रण वेष्टयेत् ।। इसके सेवनसे कास, स्वास, क्षय, वायु, कप सर्वभागसमं गन्धं दत्वा मृन्मयभाजने। और संग्रहणी आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं । तन्मध्ये पोटलों न्यस्य मुखे मुद्रां च कारयेत् ॥ (८६५८) हेमगर्भपोटलीरसः (३) विधायच्छिद्र मुद्रास्थं द्रावं दृष्ट्वा शलाकया। (यो. र. ; वृ. नि. २. । कासा. ) पाचयेत्सिकतायन्त्रे रसोऽयं मृदुवह्निना ॥ शुद्धमृतं त्रिभागं च तत्समं शुल्बभस्म च । यामार्धन मुसंजातं स्वागशीतं समुद्धरेत् । भागैकं गन्धकं दद्यात्तदधै स्वर्णमेव च ।। कासे श्वासे क्षये बाते कफे ग्रह णिकागदे ॥ कज्जली कारयेत्तां तु खल्बके सप्तवासरम् । सर्वरोगेषु दातव्या हेमग ख्यपोटली ।। अथ निर्गुण्डिकाद्रवैमैदये दिनसप्तकम् ॥ ___ शुद्ध पारद चार भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, । अथवा कनकद्रावैर्गुटिकां कारयेत्ततः। स्वर्ण भस्म १ भाग, और ताम्र भस्म ३ भाग लेकर किंचिद्वलिसमायुक्ते वस्त्रे गोलं निधाय च ।। सबको एकत्र मिलाकर १ सप्ताह तक घृतकुमारी बध्नीयात्पोटलीं गाढामेवं च त्रिपुटं चरेत् । ( ग्वारपाठा) के रसमें खरल करें और फिर उसकी दृढमृन्मयपात्रे तु गन्धं दत्त्वाऽधरोत्तरम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि तन्मध्ये पोटली न्यस्य निर्वातभवनान्तरे। (८६५९) हेमगर्भपोटलीरसः (४) वितस्तिमित गर्ने तस्मिन्संस्थाप्य मुद्रयेत् ॥ (र. र. स. । उ. अ. १४ ; वृ. नि. र. । क्षय.) अङ्गलीसत्तिकाभिश्च ज्वालयेदिन्धनानि च। द्विनिष्क भस्म सुतस्य निष्ककं स्वर्णभस्मकम् । यामेन ।सद्धतां याति हेमगर्भाख्यपोटली ॥ शुद्धगन्धकनिष्कौ द्वो चूर्णित्वा चित्रकद्रवैः ॥ अनुपानानुसारेण सर्वरोगेषु योजयेत् ॥ बियामान्ते विशोष्याथ तेन पूर्या वराटिकाः । शुद्ध.पारद ३ भाग, ताम्र भस्म ३ भाग, शुद्ध वराटान्मृण्मये भाण्डे रुध्वा गजपुटे पचेत ।। गंधक १ भाग और स्वर्ण भस्म आधा भाग लेकर स्वाशीतं विचूाथ पोटली हेमगर्भिताम् । सबको खरलमें डालकर सात दिन तक घोटें और मृगावचतुर्मुझं भक्षितं राजयक्ष्मनुत् ।। पारद भस्म २ भाग, स्वर्ण भस्म १ भाग फिर उसे सात दिन संभालु या धतूरे के रसमें खरल और शुद्ध गंधकका चूर्ण २ भाग लेकर तीनोंको करके गोली बनावें और फिर एक कपड़ेपर थोड़ा । एकत्र खरल करके चीतेके क्वाथमें २ पहर घोट कर शुद्ध गंधकका चूर्ण बिछा कर उस पर वह गोली सुखा लें और उसे कौड़ियों में भरकर (उनके मुखको रखकर मजबूत पोटली बनावें तथा इस पोटलीको दूधमें पिसे हुवे सुहागेसे बन्द करके ) उन्हें शरावपुनः एक अन्य वक्ष पर गंधक विछाकर उसमें | सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें पकावें । तदनन्तर लपेटें और फिर उसपर भी एक कपड़ा इसी प्रकार स्वांग शीतल होने पर कौड़ियों सहित औषधको पीस लें। (गंधकके साथ ) लपेट दें। अब एक मजबूत इसके सेवन से क्षयका नाश होता है | मिट्टीके प्याले में ऊपर नीचे गंधकका चूर्ण रखकर । मात्रा-४ रत्ती। यह पोटली रखें और उस पर दूसरा प्याला ढक अनुपानादि-मृगाङ्कके समान् । कर सन्धिको बन्द करदें तथा इस सम्पुट पर ३-४ (८६६०) हेमग पोटलीरसः (५) कपड़मिट्टी कर के सुखा लें । तत्पश्चात् निर्वात (रसायनसार) स्थानमें १ बालिश्त गहरा गढ़ा खोदकर उसमें यह स्वर्णसिन्दूरक तजं स्वर्णभस्म सुमौक्तिकम् । सम्पुट रखकर उस पर १ अंगुल मिट्टी चढ़ा दें स्वर्णतुल्यं समं गन्ध त्रयाणामपि मर्दयेत् ।। और ऊपर १ पहर तक अग्नि जलावें । तदनन्तर ताम्रबाभुजङ्गानां भस्मान्यत्रानुपातयेत् । सिन्दरसममानानि मर्दयेदर्कदुग्धतः ।। स्वांग शीतल होने पर गोलीको निकालकर शुष्कां कजलिकामेतां वराटीष्वेव पूरयेत् । सुरक्षित रखें। मन्दारपयसा पिष्टटङ्कणेन च मुद्रयेत् ॥ यह रस अनुपान भेदसे समस्त रोगों को नष्ट शाचूर्णे धृता एता: पुटित्वा गजससके । करता है। पोटली पूर्ववत् कृत्वा दिष्टरोगेषु याजयेत् ।। For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः चन्द्रोदयमुखान् तालशिलामल्लादिचिह्नितान्। । भर दें तथा उनके मुखको आकके दूधमें पिसे हुवे ईपद्गोलादिजाम्भोभिस्तन्तुलैमर्दयेदृढम् ॥ सुहागे से बन्द करके शखके बारीक चूर्णके भीतर कुर्यात्पोटलिकां स्वेष्टां तन्मुद्रामुद्रितामपि। शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें । तदस्वसज्ञाचिह्नितां चापिच्छायाशुष्कां करोत्वपि ॥ नन्तर पुटके स्वांगशीतल होने पर उसमें से कौड़ियों कोषी कौशेय वस्त्रोत्थामर्द्धभागे प्रपूरयेत । को निकालकर पीस लें। तत्पश्चात् इस चूर्णकी गन्धकेनाऽन्तरस्थां तां पोटलीं गन्धकाऽऽवृताम्। एक वा अधिक शिखराकार वटी बनाकर कपड़े में कुनीताऽथ सोव्येत्ता कोषों कौशेयतन्तुभिः। बांधकर मजबूत पोटली बनावें और एक प्याले में पुनश्चापर कोपीस्थां गन्धकाऽऽवृतरूपिणीम् ॥ गंधकका चूर्ण रखकर उस पर वह पोटली रक्खें तथा कोषीं कृत्वा च तदवक्तं दृढं सीव्येचिकित्सकः। पोटलीको गंधकके चूर्णसे ढक दें एवं उस पर दूसरा ऊर्ध्वाधो गन्धर्फ दत्त्वा इण्डयां धृत्वा पचे- शराव ढककर १ पहर मन्दाग्नि पर पकायें । जब दिमाम || कपड़ा जल जाय तो शरावको आगसे नीचे उतार परीक्षेताऽथ घटयन्ते चोत्थाप्याऽयः शलाकया। लें और स्वांगशीतल होने पर गुटिकाको निकालकर वस्त्रे दग्धे तु निस्सायं पोटली स्वाङ्गशीत- ऊपर लगी हुई गंधकको घिसकर छुड़ा दें । लाम् ॥ इसके सेवनसे क्षय, संग्रहणी, ज्वर, खांसी घटा चेनां तु कुर्वीत पोटली मजुदर्शनाम् ॥ आदिका नाश होता है। कूपीसङ्ग्रहणे दुःखं दुःखं भारोवहे परम् । दुःखं वा दालिका भङ्गादौषधक्षयजं महत् ॥ (८६६१) हेमगर्भपोटलोरसः (६) विधिनाऽनेन भैषज्य प्रकारो भाति शोभनः ।। ( शा. सं.। खं. २ अ. १२ ; र. प्र. सु. । इत्याकलय्य निर्माति पोटलीं श्यामसुन्दरः ।। " श्यामसुन्दरः ॥ अ. ८ : र. रा. सु.। कासा. ; र. चं. । __ स्वर्ण सिन्दूर १ भाग, स्वर्णसिन्दूर बनाते राजयक्ष्मा. ; वृ. नि. र. ; यो. र.। कासा.) समय निकली हुई स्वर्ण भस्म १ भाग, मोती भस्म १ भाग और शुद्धगन्धकचूर्ण ३ भाग* लेकर तीनों रसस्य भागाश्चत्वारस्तावन्तः कनकस्य च । को एकत्र खरल करें और फिर उसमें १-१ भाग तयोश्च पिष्टिकां कृत्वा गन्धो द्वादशभागिकः ।। ताम्र भस्म, वङ्ग भस्म, और नाग भस्म मिलाकर कुर्यात्कजलिकां तेषां मुक्ता भागाश्च षोडश । आकके दूध में घोटें और सुखाकर पीली कौड़ियों में चतुर्विंशच शङ्कस्य भागैकं टङ्कणस्य च ।। * श्रीयुत् रसायनाचार्य श्यामसुन्दराचार्य वैश्य एकत्र मर्दयेत्सर्वं पक्वनिम्बूकले रसैः। ( रसायनसार के कर्ता ) ने स्वयं इन दलोकांकी | कृत्वा तपा तता गाल मूषासम्पुटक न्यसेत् ॥ हिंदी टीकामें स्वर्ण और मोती चौथाई भाग तथा मुद्रां दत्त्वा ततो हस्तमात्रे गर्ने च गोमयैः । गंधक १॥ भाग लिखा है। पुटेद् गजपुटेनव स्वाङ्गशीतं समुदरेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि पिष्ट्वा गुआ चतुर्मानं दद्याद्गव्याज्यसंयुतम् । कृत्वा गोलं क्षिपेन्मूषासम्पुटे मुद्रयेत्ततः । एकानत्रिंशदुन्मानमरिचैः सह दीयते ॥ | पचेद् भूधरयन्त्रेण वासरत्रितयं बुधः ॥ राजते मृण्मये पात्रे काश्चने वाऽवलेहयेत्। तत उद्धृत्य तत्सर्व दद्याद्गन्धं च तत्समम् । लोकनाथसमं पथ्यं कुर्याञ्च स्वस्थमानसः ।। मर्दयेदाकरसैश्चित्रकस्वरसेन च ।।। कासे श्वासे क्षये वाते कफे ग्रहणिकागदे । । स्थूलपीतवराटांश्च पुरयेत्तेन युक्तितः । अतीसारे प्रयोक्तव्या पोट्टली हेमगर्भिका ॥ एतस्मादौषधात्कुर्यादष्टमांशेन टङ्कणम् ॥ शुद्ध पारद ४ भाग और शुद्ध सोनेके वर्क ४ टङ्कणार्धं विषं दत्त्वा पिष्ट्वा सेहुण्डदुग्धकैः । भाग लेकर दोनोंको एकत्र खरल करें, जब स्वर्ण मुद्रयेत्तेन कल्केन वराटानां मुखानि च ॥ पारदमें मिल जाय तो उसमें १२ भाग शुद्ध गंधक भाण्डे चूर्णप्रलिप्ते च धृत्वा मुद्रां प्रदापयेत् । मिलाकर कजली बनावें और फिर उसमें १६ भाग | गते इस्तोन्मिते धृत्वा पुटेदगजपुटेन च ।। मोतीका चूर्ण, २४ भाग शंखका चूर्ण और १ स्वाङ्गशीतं रसं ज्ञात्वा प्रदघाल्लोकनाथवत् । भाग सुहागा मिलाकर पक्के नीबूके रसमें खरल करें पथ्यं मृगातवज्ज्ञेयं त्रिदिनं लवणं त्यजेत् ।। और फिर सबका एक गोला बनाकर उसे मूषाके सम्पुट में बन्द करके ( उस पर ३-४ कपरमिट्टी यदा छर्दिर्भवेत्तस्य दघाच्छिन्नाशृतं तदा । करके ) १ हाथ चौड़े, १ हाथ लम्बे और इतने मधुयुक्तं तथा श्लेष्मकोपे दद्याद्गुडाईकम् ॥ विरेके भजिता भङ्गा प्रदेया दधिसंयुता। ही गहरे गढ़े में रखकर बन कण्डों में फूक दें। तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर औषधको जयेत्कासं क्षयं श्वास ग्रहणीमरुचिं तथा ।। निकालकर पीस लें। | अग्निं च कुरुते दीप्तं कफवातं नियच्छति । इसमें से ४ रत्ती रस सोनेके या चांदी अथवा हेमगर्भः परो ज्ञेयो रसः पोलिकाभिधः ॥ मिट्टीके पात्रमें रखकर उसमें २९ काली मिचौंका ४ भाग शुद्ध पारद और १ भाग सोने के चूर्ण और थोड़ा गोघृत मिलाकर चाटना चाहिये । वर्क एकत्र मिलाकर खरल करें और जब स्वर्ण __इस पर पथ्यादिकी व्यवस्था 'लोकनाथ रस' पारदमें मिल जाय तो उसमें १० भाग शुद्ध गंधक के समान करनी चाहिये ।। मिलाकर कज्जली बनावें और उसे कचनारकी छालके - इसके सेवनसे कास, श्वास, क्षय, वायु, कफ, रसमें खरल करके सबका एक गोला बनावें तथा संग्रहणी और अतिसारका नाश होता है । उसे (सुखाकर) मूषाके सम्पुट में बन्द करके (उस (८६६२) हेमगर्भपोटलीरसः (७) पर ३-४ कपर मिट्टी करके ) ३ दिन भूधरयन्त्र में (शा. ध. । खं. २ अ. १२; र. प्र. सु.।। पकावें । तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर अ. ८; वृ. नि. र.। क्षय.; र. का. धे. । क्षय.) औषधको निकालकर उसमें उसके बराबर शुद्ध सूतात्पादप्रमाणेन हेम्नः पिष्टिं प्रकल्पयेत् । गंधक का चूर्ण मिलाकर अदरक के रस तथा चीता. तयोः स्यादद्विगुणो गन्धो मर्दपेत्काञ्चनारकैः।। मूलके स्वरस के साथ १-१ दिन खरल करके For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ५०७ बड़ी बड़ी पीली कौड़ियों में भरदें और फिर समस्त मृदुना वह्निना चैव स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत । औषधसे अष्टमांश सुहागा तथा सुहागेसे आधाशुद्ध बलिमेव च सम्यग्वै षड्गुणं जारयेत्सुधी ॥ विष लेकर दोनोंको सेहुंड (थूहर) के दूधमें घोटकर | हेमगर्भरसो नाम त्रिषु लोकेषु विस्रुतः । उससे उन कौड़ियों का मुख बन्द कर दें। तथा | कासश्वासेषु सर्वेषु शूलेषु च हितस्तथा ॥ उन्हें चूना पुते हुवे मृत्पात्रमें रखकर उस पर ढकना तत्तद्रोगानुपानेन सर्वान् रोगाधयेत्परम् ॥ ढक कर सन्धि बन्द करदें एवं उस पात्र पर ३-४ शुद्ध पारद ४ भाग, शुद्ध सोनेके वरक (या कपड़मिट्टी करके मुखोकर १ हाथ लम्बे चौड़े और | स्वर्णभस्म ) २ भाग तथा ताम्र भस्म, मोती भस्म उतने ही गहरे गढ़े में रखकर गजपुटकी अग्नि दें। और प्रवाल भस्म १-१ भाग एवं गंधक सबके जब वह स्वांगशीतल हो जाय तो रसको निकाल बराबर ( ९ भाग ) लेकर प्रथम पारे गंधक और कर पीस लें। स्वर्णको एकत्र मिलाकर खरल करें और फिर उसमें इसे लोकनाथ रसके समान सेवन कराना | अन्य ओषधियां मिलाकर घोटकर एकजीव कर लें। और मृगाङ्क रसके समान पथ्यादिकी व्यवस्था करनी । तदनन्तर उसे ( अदरक के रस में ) खरल करके चाहिये । सबका एक गोला बनावें और उसे शराव सम्पुट में ३ दिन तक लवणका त्याग करना चाहिये। बन्द करक मन्दाग्निस भूधरयन्त्रम पकाव आर फिर यदि वमन होने लगे तो गिलोयका क्वाथ ( जब समझें कि गंधक जीर्ण हो गया तब )उसके शहद मिलाकर पिलावें । यदि कफ का प्रकोप हो स्वांगशीतल होने पर रसको निकाल कर उसमें तो गुड़ और अदरक खिलावें । दस्त आने लगे तो पुनः उसके बराबर गंधक मिलाकर पहिलेकी तरह सेकी हुई भांग दही में मिलाकर सेवन करावें। | भूधरयन्त्र में पकावें। इसी प्रकार षड्गुण गंधक इस रसके सेवनसे कास, क्षय, स्वास, ग्रहणी जारण करें और अन्त में खरल करके सुरक्षित रखें। रोग, अरुचि, कफ और वायुका नाश होता तथा इसके सेवनसे कास, श्वास, शूल और रोगोअग्निकी वृद्धि होती है। | चित अनुपानके साथ देने से अन्य अनेक रोग नष्ट (८६६३) हेमगर्भरसः (१) होते हैं । यह एक अत्यन्त प्रसिद्ध रस है । ( वृ. नि. र. । कासा.) (८६६४) हेमगर्भरसः (२) रसस्य भागाश्चत्वारस्तदर्ध कनकस्य च । (यो. र. । कासा.) तदर्ध ताम्रकं चैव मौक्तिकं विद्रुमं समम् ॥ रसं च गन्धकं चैव समं खल्वे विमर्दयेत् । तत्समानेन बलिना सर्व खल्वे विमर्दयेत् । कजल्यां च तथा स्वर्ण संशुद्धं च विनिक्षिपेत।। कृत्वा तु गोलकं पश्चात्पचेद्भूधरयन्त्रके ॥ सुसूक्ष्मे सुदृढे वस्त्रे बद्ध्वा पोटलिका दृढाम् । For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०८ भारत-भैषज्य-रत्नाकर [हकारादि गन्धकेनाऽऽयसे पात्रे पक्त्वा पोटलिकां । हेमगर्भरसो नाना सर्वव्याधिनिवारणः । चिरम् ॥ रोगराजादिकं हन्ति इतरेषां तु का कथा ।। मन्दाग्निना पचेद्यावद् व्योमवणे भवेत्तु तत् ।। शुद्ध पारद ५ तोले, सोनेके वर्क ११ तोला हेमगर्भ इति ख्यातो रसोऽयं श्वासकासनुत् ॥ तथा शुद्ध गंधक ६। माशे लेकर तीनोंको एकत्र अनुपानविभेदेन सर्वरोगाअयत्यसौ ॥ खरल करके कज्जली बनावें और उसे कपड़ेमें लपेट १-१ भाग शुद्ध पारद और शुद्ध गंधककी कर (डोरसे बांधकर ) दृढ़ पोटली बनावें तथा उसे कजली बनाकर उसमें १ भाग शुद्ध स्वर्णके पत्र लोहेके सम्पुटमें रख कर उसके ऊपर ५ तोले मिलाकर स्वरल करें और फिर ( वासा आदि के शुद्ध गंधकका चूर्ण डालकर सम्पुटको बन्द कर दें। रसमें घोटकर गोली बनाकर ) उसे सूक्ष्म परन्तु तत्पश्चात् उसे भूधरपुटमें पकावें और स्वांगशीतल मनबूत वस्त्रमें बांधकर दृढ़ पोटली बनावें तत्पश्चात् होने पर उसे निकालकर ऊपर से जले हुवे गंधकको लोहपात्रमें गंधक डालकर उसमें इस पोटली को छुड़ा दें तथा उसे पुनः वस्त्र में लपेटकर पहिलेकी मंदाग्निपर पकावें | जब वह आसमानी रंगकी हो भांति लोहके सम्पुट में रखकर, उस पर उसके बराजाय तो अग्निसे नीचे उतार लें और स्वांगशीतल बर गंधकका चूर्ण डालकर सम्पुटको बन्द करदें एवं होने पर गुटिकाको निकाल कर सुरक्षित रक्खें। भूधरपुट में पकावें। यह रस श्वास कास और अनुपान भेदसे यह रस राजयक्ष्मा जैसे घातकरोगको भी नष्ट अन्य समस्त रोगोंको नष्ट करता है। कर देता है फिर अन्य रोगोंका तेा कहना (८६६५) हेमगर्भरसः (३) ! ही क्या है। ( यो. र. ; वृ. नि. र. । कासा.) (८६६६) हेमनाथरसः शुद्धमूतं पलैकं स्यात्पादांशं शुद्धहेमकम् । ( र. चं. । प्रमेहा. ; मै. र. । बहुमूत्रा.) शुद्ध गन्धस्य मापैकं प्रतिकर्ष प्रयोजयेत् ।। मूतं नन्, हेमताप्यं प्रत्येकं कोलसम्मितम् । त्रयमेकत्र कुति सूक्ष्मं खल्वे विमर्दयेत् ।। अयश्चन्द्र प्रवालं च वङ्गं चार्ध विनिक्षिपेत् ।। सुदृढ़ बन्धयेद्वस्त्रे स्थाप्यं लोहजसम्पुटे ।। फणिफेनस्य तोयेन कदलीकुसुमेन च । मर्दितं गन्धकपलं तस्योपरि प्रदापयेत् । | उदुम्बररसेनापि सप्तधा परिमर्दयेत् ॥ सम्पुटं मुद्रितं कृत्वा भूधराख्यपुटे पचेत् ॥ वल्लमात्रां वटि खादेद्ययाव्याध्यनुपानतः। स्वाङ्गशीतलमुद्धृत्य दग्धं गन्धं परित्यजेत् । प्रमेहाविंशति हन्ति बहुमूत्रं सुदारुणम् ॥ वेष्टयित्वा पुनर्वस्त्रं सूत्रे बध्वा च गोलकम् ॥ सोमरोगक्षयं चैव श्वासं कासमुरःक्षतम् । तत्तुल्यं च पुनर्गन्धं सम्पुटे निक्षिपेद् भिषक । हेमनाथरसो नाम्ना कृष्णात्रेयेण भाषितः ।। मुदितं सम्पुटं कृत्वा पुनर्यन्त्रेण पाचयेत् ।। प्रयोजितो भवेनृणां विशेषफलदायकः ।। For Private And Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंसप्रकरणम् पञ्चमो भागः शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, स्वर्णभस्म और स्वर्ण | पारद भस्म, स्वर्ण भस्म, शुद्ध गंधक और माक्षिक भस्म, १-१ भाग तथा अभ्रकभस्म, कपूर सुहागे की खील आधा आधा निष्क; ताम्रभस्म २ ( या चांदी भस्म ), प्रवाल भस्म और वंग भस्म निष्क, तथा शंखका चूर्ण २ निष्क लेकर सबको आधा आधा भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर एकत्र मिलाकर खरल करें और उस चूर्णको पोली खरल करें और कज्जली हो जाने पर उसे अफीमके | कौड़ियों में भरकर मृगांक रसके समान पकावें । पानी, केले के फूलोंके रस और गूलरके रस की सात | तदनन्तर औषधको निकाल कर अदरकके रसमें सात भावना देकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें। खरल करके शरावसम्पुट में बन्द करें और गजपुट ____इसे यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे | में फूंक लें। तत्पश्चात् बारीक चूर्ण करके सुर२० प्रकारके प्रमेह, दारुण बहुमूत्र रोग, सोम | क्षित रक्खें । रोग, क्षय, श्वास, कास और उरःक्षतका नाश इसमें ३२ काली मिर्ची का चूर्ण; इससे चार होता है। गुना शुद्ध गंधक और पांचवा भाग घी मिलाकर कृष्णात्रेय निर्दिष्ट यह रस विशेष फलदायकहै। सेवन करनेसे असाध्य राजयक्ष्मा रोग भी नष्ट हो जाता है। हेममात्रा (वृ. नि. र. । हिक्का.) यह रस शोथोदर, अर्श, ग्रहणी, ज्वर और गुल्मको भी नष्ट करता है। प्र. सं. ८६२१ हिक्कान्तक रसः देखिये । अनुपानादि मृगांक के समान । (८६६७) हेममृगाङ्करसः (१) हेममृगाङ्करसः (२) (र. र. । राजयक्ष्मा.) प्रयोगसंख्या ५६३६ देखिये । मृतं सूतं मृतं हेम शुद्धगन्धकटङ्कणम् । प्रत्येकमर्द्धनिष्कं स्यान्मृतशुल्वं द्विनिष्ककम् ।। . (८६६८) हेमयोगः शनिष्कद्वयं चूर्ण सर्वमेकत्र कारयेत् । (र. र. स. । उ. अ. २६) पूरयेत्पूर्वचूर्णेन पुटयेच मृगावत् ॥ ततश्चाकनि-सैः साई रुद्भवा पुटे पचेत । हेमधात्रीफलं क्षौद्रं गायत्रीरसमर्दितम् । आदाय चूर्णयेच्लक्ष्णं द्वात्रिंशन्मरिचैर्युतम् ॥ लिहन्मनु पिबन्क्षीरं दृष्टारिष्टोऽपि जीवति ॥ चूर्णाचतुर्गुणं गन्धमेकीकृत्य विचूर्णयेत् ।। __स्वर्णभस्म, आमलेका चूर्ण और शहद समान पञ्चमाशं घृत लेखमसाध्यं राजयक्ष्मनुत ।। भाग लेकर तीनों को एकत्र मिलाकर खैरके रसमें शोथोदरार्थीग्रहणीज्वरगुल्मांश्च नाशयेत् । । खरल करके चाटने से अरिष्ट लक्षणोंयुक्त रोगी भी बच रसो हेममृगाकोऽयं अनुपानं मृगाङ्कचन ॥ जाता है । अनुपान दूध । For Private And Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१० - भारत-भैषज्य-रत्नाकर [हकारादि (८६६९) हेमवज्ररसः - लेहयेन्मासषदकन्तु जरामरणनाशनम् । (र. रा. सु.। प्रमेहा.) वागुजीचूर्णक धात्रीफलरसाप्लुतम् ॥ भस्मसूतं मृतं कान्तलोहभस्मशिलाजतु । अनुपानं पिबेन्नित्यं स्याद्रसो हेमसुन्दरः ॥ शुद्धताप्यं शिलाव्योषं त्रिफला बिल्वजीरकम् ॥ पारद भस्म ४ भाग और स्वर्ण भस्म १ भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर खरल करें। कपित्थं रजनीचूर्ण भृजराजेन भावयेत् ।। त्रिंशद्वारं विशोष्याथ लिह्याच्च मधुना सह ॥ इसमें से १ माशा (व्यवहा. मात्रा-२ रत्ती) निष्कमा हरेन्मेहान् मूत्रकृच्छू सुदारुणम् । औषध कांसीके पात्रमें लेकर उसमें दूध, दही और महानिम्बस्य बीजश्च षड्निष्कं पेषितश्च यत् ।। घी मिलाकर चाटें । इसी प्रकार ६ मास तक सेवन " करनेसे जरामृत्युका नाश होता है। (?) पलं तण्डुलतोयेन घृतनिष्कद्वयेन च । एकाकृत्य पिषेच्चानु हन्ति मेहं चिरोत्थितम् ॥ अनुपान-११ तोला बाबचीके चूर्णको पारद भस्म, कान्तलोह भस्म, शिलाजीत, - आमलेके रसमें मिलाकर पिएं । आमल स्वर्णमाक्षिक भस्म, मनसिल, सोंठ, काली मिर्च, (८६७१) हेमसुन्दररसः (२) पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, बेलगिरी, जीरा, कैथ (र. का. धे. ; र. सं. क. । उल्ला. ४) और हल्दी; इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको हिङ्गुलं मरिचं गन्धं पिप्पली टङ्कणं विषम् । एकत्र मिलाकर भंगरे के रसकी ३० भावना दें और कनकस्य च बीजानि समांशं विजयाद्रवैः ॥ फिर सुखाकर सुरक्षित रक्खें । मर्दयेधाममात्रं तु चणमात्रा वटीकृता। इसे मधुके साथ सेवन करने से प्रमेह और ज्वरातीसारग्रहणी शये मसुन्दरः॥ भयंकर मूत्रकृच्छूको नाश होता है । शुद्ध हिंगुल, काली मिर्च, शुद्ध गंधक, पीपल, मात्रा-३।। माशे । (व्य. मात्रा-१ माषा) : सुहागेकी खील, शुद्ध बछनाग और शुद्ध धतूरबीज अनुपान-२१ माशे । (व्य. मा. ३ माशे) समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर बकायनके पिसे हुवे बीजों में ५ तोले चाव- भांगके रसमें १ पहर खरल करके चनेके बराबर लोंका धोवन और ७ माशे घी मिलाकर पियें। गोलियां बना लें। (८६७०) हेमसुन्दररसः (१) इसके सेवनसे ज्वरातिसार और संग्रहणी का ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । रसायना. ; रसे. नाश होता है। चि. म. । अ. ८ ; आ. वे. प्र. । अ. १) (८६७२) हेमसुन्दररसः (३) मृतसूतस्य पादांशं हेमभस्म प्रकल्पयेत् । (र. र. ; धन्व. । वाजीकरणा.) क्षीराज्यदधि सम्मिश्रं मापैकं कांस्यपात्रके' ॥ शुद्ध मृतं समं ग्राह्यं सुवर्ण गन्धकं ह्ययः । १ कान्तपात्रके कज्जलीकृत्य यत्नेन शुल्वपात्रे भिषग्वरः ।। For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पश्चमो भागः राजिका स्वरसं दत्वा कृष्णोन्मत्तस्य वै रसम्। रत्तीसे १। माशा तक घी और शहदके साथ खरल दत्वा दत्वा प्रयत्नेन मर्दयेच्च त्रिभिर्दिनैः ॥ | में घोटकर खाना चाहिये। त्रिभिश्च सार्षपं तैलं दत्वा कल्क विमर्दयेत् । अनुपान-औषध खानेके पश्चात् गोदुग्धमें शोषयेद्भानुभिर्भानोलिं दधाच्छनैः शनैः ॥ गोधृत डालकर पीना चाहिये । अथवा इस रसको वालुकायन्त्रयोगे तु मोक्तभेषजमध्यतः। चीतामूल, अदरक और सेंधा नमकके चूर्ण के साथ तावज्ज्वाला प्रदातव्या यावत्स्यादुष्णवालुका || मिलाकर भी दे सकते हैं। स्वागशीतलतां ज्ञात्वा कर्षयेत्तं भिषग्वरः।। इसे इस विधिसे प्रातःकाल सेवन करने से ततो गुञ्जाप्रमाणेन माषमाषाकं पुनः ॥ साध्यासाध्य समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं । ज्ञात्वा रोगं शरीरं च योजनीयं बुधैः सदा । घृतेन मधुना सार्दै मर्दयित्वा तु खल्वके । (८६७३) हेमादिपर्पटीरसः रसं वा भक्षयेत्पश्चादाज्यं गव्यं गवां पयः । ( र. प्र. सु. । अ. ८) सामान्येन तु कतैव्यं चित्रकाकसैन्धवैः॥ भागमेकमिह मूतभस्मनो रोगिणामनुपानीयं रसमाज्येन भोजनम् ।। भागयुग्ममपि गन्धकस्य च । एतेनापि विधानेन प्रातः पातनिषेवयेत॥ मूतमानमपि हेमभस्मकं साध्यासाध्येषु रोगेषु तथा व्याधिचयेषु च ॥ तारभस्म अपि चाभ्रसत्वकम् ॥ शुद्ध पारद, सुवर्ण भस्म, शुद्ध गंधक और | लोहभस्म अथ चार्कजं क्षिपेलोह भस्म समान भाग लेकर सबको ताम्रके खरलमें । ल्लोहपात्रजठरे प्रपाचयेत् । डालकर ताम्रकी मूसली से खरल करके कज्जली द्राव्यता भवति तत्र वै यदा बनावें । तदनन्तर उसे राई और काले धतूरे के निक्षिपेच्च कदलीदले तदा ॥ पत्तोंके स्वरस में ३-३ दिन खरल करें । फिर उसे आटरूष सुरसा जयन्तिका ३ दिन सरसों के तेलमें खरल करें और तेज धूपमें ___ मुण्डिकात्रिफलाकभृङ्गिकासुखावें । तत्पश्चात् उसे आतशी शीशी में भरकर मेघनादकटुकन्यकारसैः बालकायन्त्रमें आककी जड़की धीमी अग्नि पर पकावें। प्रत्यहं तु परिमर्दयेदृढम् ।। जब हाण्डीका रेत खूब गर्म हो जाय तो अग्नि देनी वत्सनाभजरसैदिनत्रयं बन्द कर दें और स्वांगशीतल होने पर औषधको लोहपात्रनिहितं पचेत्क्षणम् । निकालकर पीस कर सुरक्षित रक्खें ।। जायते हि वरपर्पटीरसः इसे रोगी तथा रोगके बलाबलके अनुसार १ / शृङ्गवेरकरसेन योजयेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि वल्लयुग्ममितमानतस्त्वयं पक्वमूषागतं याम पचेयः क्षिपन् द्रवम् । श्वासकासविनिवृत्तिदायकः।। केतकीकुष्ठनिर्गुण्डीशिग्रुग्रन्थाग्निचव्यजम् ॥ पिप्पलीभिरनुपाययेत्तथा वन्ध्याहिनेभकर्युत्थं व्याघ्रीलुङ्गबलोद्भवम् । क्वाथमत्र सुरसाटरूषजम् ॥ | अश्वगन्धाभवं वारान् विशद्वित्रीषु सागरान् ॥ पारदभस्म १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, षट्सप्तवसुदिग्वित्रियुगं भुवनतः क्रमात् । स्वर्णभस्म १ भाग, चांदा भस्म १ भाग, अभ्रकसत्व कुमार्याः पुटयेत् प्रौढो रसो हेमाद्रिसजनकः ॥ भस्म १ भाग, लोहभस्म १ भाग और ताम्र भस्म भुक्तो माषो निहन्त्याशु सर्वार्थोरोचकग्रहान् । १ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें। मन्दाग्न्युन्मादमेदांसि गण्डमालार्बुदापचीः॥ और फिर उसे ( धृत लिप्त ) लोहपात्र में डालकर | गलगण्डममेहादीन् मुष्कलिङ्गाक्षिकर्णजान् । मन्दाग्नि पर पिघलावें तथा गायके गोबर पर बिछे क्षुद्ररोगांश्च विविधान् गरुडः पनगानिव ।। हुवे केलेके पत्ते पर फुरती से फैलाकर उसपर दूसरा कृष्ण खर्पर ३।तोले, शुद्ध गंधकका चूर्ण १० कदली पत्र ढककर उसे गोबरसे दबा दें । एवं स्वांग तोले नागभस्म ५तोले और अभ्रक भस्म ५तोले लेकर शीतल होने पर पर्पटीको निकाल लें। एकत्र खरल करके खुली हुई मजबूत मूषामें रखकर तदनन्तर उस पर्पटीको १-१ दिन बासा, उस मूषाको बालकायन्त्रमें रखकर १ पहर पकावें और तुलसी, जयन्ती, गोरखमुंडी, त्रिफला, अदरक, भांगरा, . फिर उसमें निम्न लिखित ओषधियोंके रस की भावना चौलाई और घृतकुमारी; इनके स्वरसमें खरल करें दें अर्थात् एक ओषधिका रस डालकर जलावें जब तथा ३ दिन बछनागके क्वाथ में खरल करके ज़रा वह सूख जाय तो पुनः उसीका डालें । इसी प्रकार देर लोहपात्रमें मन्दाग्नि पर पकावें। तत्पश्चात् सुखा, जब एक ओषधिकी नियत भावनाएं पूरी हो जायं कर खरल करके रखें। तो दूसरी ओषधिके रसकी भावना दें। भावना द्रव्य मात्रा-४-६ रत्ती । (व्यवहारिक मात्रा- और भावनाओंकी संख्या इस प्रकार है२ रत्ती ।) ___ केतकी की २० , कूठकी २, संभालकी ३, इसे अदरकके रसमें मिलाकर सेवन करनेसे संहजनेकी ५, पीपलामूलको ७, चीतेकी ६, चव्यकी कास श्वासका नाश होता है। ७, बांझककोड़ेकी ८, जटामांसीकी ८, हस्तीकर्णी ____ अनुपान-तुलसी और बासेके क्वाथ में (कासाल) की २, कटेलीकी ३, बिजौ रेकी ४, पीपरका चूर्ण मिलाकर पिलावें । खरैटीकी १४, असगन्धकी १४, तथा घृत(८६७४) हेमादिरसः कुमारी की १४ । (रसे. चि. म. । अ. ९ ; र. का. थे. । क्षुद्ररोगा.) सम्पूर्ण ओषधियोंकी भावना पूर्ण होने पर वै कृष्णरसकञ्यक्षं पिष्ट्वा गन्धं पलद्वयम् । स्वांगशीतल होनेके बाद रसको निकालकर पीस लें। पलं नागाभ्रयोः सर्व सञ्चूर्ण्य सिकताघटे ॥ मात्रा-१ माशा। (व्य. मा. १-२ रत्ती।) For Private And Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ५१३ इसके सेवनसे अरुचि, अर्श, अग्निमांद्य, उन्माद, । बनावें और फिर उसमें अन्य औषधिर्या मिलाकर मेद, गण्डमाला, अर्बुद, अपची, गलगण्ड, प्रमेह; | | सबको जंबीरीके रसमें खरल करके सुखाकर रखें। तथा अण्डकोष, लिंग, आंख और कानोंके रोग एवं | यह रस ग्रहणी रोगको नष्ट करता है। अनेक प्रकारके क्षुद्र रोग नष्ट होते हैं। मात्रा-१॥ माशा | व्यवहा. मा. ३-४ (८६७५) हेमाभ्रकरससिन्दूरम् रत्ती ।) (यो. र. ; र. रा. सु. ; वृ. नि. र. । राजयक्ष्मा.) अनुपान-औषध खानेके पश्चात् धीमें अभ्रक रससिन्दूरमिश्रितं हेमभस्मना।। | काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर चाटना चाहिये । समभागं प्रवीत रसेनाऽऽकयोजितम् ॥ पथ्य-तक भात । क्षयं च क्षयपाण्डं च क्षयकासं च कुष्ठकम् । (८६७७) हंसपोग्लीरसः (२) जयेन्मण्डलपर्यन्तं पूर्वकर्मविपाककृत् ॥ (र. रा. सु. । ग्रहण्य.) अभ्रक भस्म, रससिन्दूर और स्वर्णभस्म समान | निष्कैकं मर्दितं मूतं द्विनिष्कं मृततीक्ष्णकम् । भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके रक्खें ।। शिखितुत्थं तीक्ष्णतुल्यं कर्षाई गन्धमौक्तिकम् ॥ विष निष्कं चेतत्सर्वं भृङ्गासुरसारसैः। इसे अदरकके रसके साथ सेवन करनेसे क्षय, अग्निपी हरिद्रा च लागलीकन्दजैवैः ॥ क्षयजनित पाण्डु, क्षयकी खांसी और पूर्व जन्मके मरिचैर्मधुना लेह्या माङ्गका हंसपोटलीम् । पार्कोसे उत्पन्न कुष्ठ नष्ट हो जाता है। हन्ति सङ्ग्रहणीं चैत्र अतिसारं च पाण्डुताम् ।। (मात्रा-१-२ रत्ती । ) दौर्बल्यं गुल्मश्वासं च कासं हिक्कामरोचकम् । (८६७६) हंसपोटलीरसः (१) क्षौद्रेण विजया निष्कं लेहयेदनुपानकम् ॥ शुद्ध पारद १ भाग, तीक्ष्णलोहभस्म २ भाग, ( रसें. चि. म. | अ. ८ ; रसें. सा. सं. । ग्रहणी.; तुत्थ भस्म २ भाग, शुद्ध गंधक १॥ भाग, मोती शा. ध. सं. । खं. २ अ. १२; र. चं. । ग्रहण्य.) भस्म १॥ भाग और शुद्ध वछनाग १ भाग लेकर दग्धान्कपर्दिकान् पिष्ट्वा त्र्युषणं टङ्कणं विषम्। प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें गन्धकं शुद्धसूतं च तुल्यं जम्बीरजेवैः ॥ अन्य औषधियां मिलाकर सबको अच्छी तरह खरल मर्दयेद्भक्षयेन्माषं मरिचाज्यं लिहेदनु । करके भंग, अदरक, तुलसी, अग्निपर्णी,* हल्दी, निहन्ति ग्रहणीरोग पथ्यं तक्रौदनं हितम् ॥ | और लांगली (कलियारी) की जड़ के रसमें (१-१ ___ कोडी भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, सुहागेकी | दिन) खरल करके सुखाकर सुरक्षित रक्खें । खौल, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गंधक, और शुद्ध पारद अनुभूत योगमाला द्वारा प्रकाशित वैद्यक समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली शब्द कोषमें अग्निपर्णीका अर्थ 'कौंच' किया है। ૬૫ For Private And Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि मात्रा-१ माषा ( व्यवहारिक मात्रा- ( सुखाकर शराव संपुटमें बन्द करके ) मन्दाग्निमें १ रत्ती।) इसे काली मिचौके चूर्ण और शहदके स्वेदित करें। साथ सेवन करनेसे संग्रहणी, अतिसार, पाण्डु, तत्पश्चात् स्वांगशीतल होने पर निकालकर निर्बलता, गुल्म, श्वास, कास, हिक्का और अरुचि | उसमें उसका चौथा भाग शुद्ध बछनागका चूर्ण का नाश होता है। तथा उसके (गोलेके) बराबर कौड़ी भस्म मिलाकर औषध खानेके पश्चात् ५ माशे ( व्य. मा. अदरक और जंबीरी नीबूके रसमें १-१ दिन खरल १-३ माशे) भांगका चूर्ण शहद में मिलाकर चाट- | करके सुखाकर सुरक्षित रखें। ना चाहिये। मात्रा-१ माषा ( व्यवहारिक मात्रा(८६७८) हंसपोटलीरसः (३) ४ रत्ती) इसे काली मिरचोंके चूर्ण और शहदके साथ (र. का. धे. । संग्रहण्य.) | सेवन करनेसे ग्रहणी रोग, अतिसार, पाण्डु, रसगन्धकमुक्तानां विषस्यैकं पलं भवेत् । गुल्म और कृशताका नाश होता है । तीक्ष्णतुत्थकयोश्चैकं पलं तत्सुरसारसैः॥ ___औषध खानेके पश्चात् १ निष्क (व्यवहारिक विष्णुकान्तावविवाहिहलीभृङ्गविमर्दयेत् । मात्रा ३ माशा) भांगके चूर्णको शहदमें मिलाकर गोलं संस्वेदयेदस्य मन्दामौ चरणांशकम् ॥ चाटना चाहिये। विषं दग्यकपर्दानां चूर्ण तुल्यं नियोजयेत् । (८६७९) हंसभैरवरसः आजम्बीरनीरेण पिष्टं स्याद्धंसपोटलिः ॥ सोषणो वा समधुको माषोऽस्य ग्रहणीगदम्।। . (र. का. धे. । प्रमेहा.) अतिसारं पाण्डुरोगं गुल्मं कार्य ध्रुवं जयेत् ॥ सूकरीक्षीरपुटिते शुक्तिक्षारेण शोधिते । क्षौद्रेण विजयानिष्कमनुपानेन योजयेत् । वरु द्रुते रसं क्षिप्त्वा तृतीयांशं च हिङ्गुलम् ।। उत्तमा विदिता चेयं क्रिया हंसपोरली ॥ छिकारसेन सम्म तदर्धार्धानि निक्षिपेत् । शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, मोती, शुद्ध वछनाग, सौम्यालासिन्दूरशिलाटङ्कणानि च प्रक्षिपेत् ॥ तीक्ष्ण लोहभस्म और तुत्थ भरम ५-५ तोला पलाशवल्कलरसैरफैक्षीरैश्च सप्तधा । लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और पलाशवटचिश्चानां क्षिप्त्वा क्षारांश्छरावके । फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर थोड़ी देर खरल सिद्धो हामिनाऽयं तु द्वात्रिंशत्महरं पुनः । करके तुलसी, विष्णुकान्ता (कोयल), चीता, भि-द्विगुञ्ज दापयेच्छीतं समान हंसभैरवम् ॥ लावा, हली (कलियारी) और भांगके रसमें १-१ १ रसशाला गोंडलद्वारा प्रकाशित पुस्तकमें दिन घोटकर सबका एक गोला बनावें और उसे | "सौम्वाल" पाठ है। For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः - - पथ्याऽर्जुनविडङ्गोत्यं क्वार्थ चानु मधुप्लुतम् । (८६८०) हंसमण्डूरम् शुक्रमेहादिकान्दन्ति रसोय हंसभैरवः ॥ (र. र. स. । उ. अ. १९; र. चं. ; यो. र. र. रा. सु. ; वृ. नि. र. र. का. धे. । पाण्डवा.) ३ भाग बंगको पिघला कर (कई कई बार) मण्डूरं मर्दयेच्लक्ष्णं गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् । सूरीके दूध और सीपकी भस्मके पानीमें बुझावें । त्र्यूषणं त्रिफला मुस्ता विडङ्गं चन्यचित्रको ।। फिर उसे पिघलाकर उसमें ३ भाग शुद्ध पारा दावी ग्रन्थी देवदारु तुल्यं तुल्यं विचूर्णयेत् । और १ भाग शुद्ध हिंगुल मिलाकर १ दिन नक घृतं मण्डूरतुल्यं च पाकान्ते मिश्रयेत्ततः ।। छिकनीके रसमें खरल करें और फिर उसमें आधा | भक्षयेत्कर्षमात्रं च जीर्णान्ते तक्रभोजनम् । आधा भाग चौंटली (गुंजा ), शुद्ध हरताल, रस. पाण्डुरोगं हलीमं च उरुस्तम्भं च कामलाम् ।। सिन्दूर, शुद्ध मंसिल और सुहागा; इनका चूर्ण | अशांसि हन्ति नो चित्रं हंसमण्डरकाहवम् ।। मिलाकर पलाशकी छालके रस और आकके दूध शुद्ध मण्डूरके बारीक चूर्णको आठ गुने की सात सात भावना दें । तत्पश्चात् उसमें गोमूत्रमें पकावें और जब वह गाढ़ा हो जाय तो आधा आधा भाग पलाश (ढाक) का, वट (वड़) | उसमें निम्न लिखित ओषधियां मिलादेंका और चिंचा (इमली)का क्षार मिलाकर शराव- सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, सम्पुट में बन्द करें और उसे ३२ पहर (बालुका नागरमोथा, बायबिडंग, चव, चीता, दारुहल्दी, यन्त्रमें ) तीब्राग्नि पर पकायें। जब स्वांग शीतल पीपलामूल और देवदार; इनमेंसे प्रत्येकका चूर्ण हो जाय तो रसको निकालकर सुरक्षित रक्खें। तथा पी मण्डूरके बराबर । मात्रा-२ रत्ती। मात्रा-११ तोला । (ब्यवहा. मा. २-३ माशे ।) अनुपान-हर, अर्जुनकी छाल और बाय ___औषध पचने पर तक भात खाना चाहिये । बिडंग इनका मधुमिश्रित क्वाथ । इसके सेवनसे पाण्डुरोग, हलीमक, उरुस्तम्भ, इसके सेवनसे शुक्रमेहादिका नाश होता है। कामला और अर्शका नाश होता है। १ यो. र. में दारुहल्दी का अभाव है तथा पीपल और सोंठ दो बार आई है एवं चीका अभाव है। इति हकारादिरसमकरणम् For Private And Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [हकारादि - अथ हकारादिमिश्रप्रकरणम् (८६८१) हरिद्रादिवतिः हल्दी और दारुहल्दी २-२ भाग तथा ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) घरका धुंवा और सरसों १-१ भाग लेकर सबको हरिद्रा मार्कवं कुष्ठं गृहधृमं सुवर्चला। एकत्र मिलाकर (तवे में) मंदाग्नि पर सेकें और सिद्धार्थकरसश्चैव कामिकेन पिष्यते ॥ फिर पानीके साथ पीसकर स्वच्छ कपड़ेसे निचोड़ कर रस निकालें। मधुना सह वर्तिः स्याद् गुदे सञ्चारिता यदि । इसे आंखमें डालनेसे कफाभिष्यन्द नष्ट असां नाशनं चैव करोति सहसा नृणाम् ॥ होता है। - हल्दी, मंगरा, कूठ, घरका धुंवा, सुवर्चला (८६८४) हरीतकीकल्प: (हुलहुल) और सफेद सरसोंका रस समान भाग (ग. मि. । ओषधिकल्पा. १) लेकर सबको कांजीमें पीसकर शहदमें मिलाकर (कपड़ेपर लगाकर) बत्ती बनावें । हरीतकी सर्पिषि पाचयित्वा इसे गुदामें रखनेसे अर्श (बवासीर)का नाश समश्नतः संपिवतोऽनुसपिः। होता है। घातात्मकास्तस्य न सन्ति (८६८२) हरिद्रावचादि शोधनम् रोगाः स्यात्पृष्ठजलोस्कटीवलं च ।। (व. से. । वातव्या.) गोमो चालम्बुषके पक्त्वा पञ्चदलोदके । एरण्डतैलेन विपाच्य पथ्यां पुनः सुरमितोयेन वाष्पस्वेदेन स्वेदयेत् ।। खादेत्तथा चानुपिबेच्च तैलम् । गन्योपा शुध्यते खेवं रजनी च विशेषतः॥ | सशूलविष्टम्भकृतान्विकारान् बचको क्रमशः गोमूत्र, गोरखमुण्डीके क्वाथ सजियेपित्तकफामिलोत्थान् ॥ और पञ्चपल्लव ( आम, जामन, कैथ, बिजौरा और बेलके पत्तों ) के काथमें पकाकर गोमूत्रकी मूत्रस्थिताः सप्तदिनं महिष्याः भाहरुले स्वेदित करमेसे वह शुद्ध हो जाती है। पश्चामया मूत्रपछानि पश्च । क्षीरैकतः सप्तदिनानि खावेत् हल्दा भी इसी प्रकार शुद्ध होती है।। क्षीरौदनाशी परतस्तथा च ।। (८६८३) हरिद्राद्याश्च्योतनम् एषस्त्रिसप्ताहपरः प्रयोगो (ब. से. । नेत्ररोगा.) बातोदर तीब्रमपीह हन्यात् । द्रौ द्वौ भागौ रजन्योश्च भागिको धूमसर्षपौ। प्लीहानमग्रं श्वयधुं त्रिदोष फफाभिष्यन्द जिभृष्टं पिष्टमाश्चयोतमम्भसा ॥ । शिरोग्रहं पाण्डुगरकृमींश्च ॥ For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रपकरणम् ] पञ्चमो भागः ५१७ इनमें से नित्य प्रति ५ हर्र खाकर २५ हरीतकी वा मधुनाऽवलिखा तोले ( भैसका ) मूत्र पीनेसे तीव्र वातोवर. उग्र दामातिसारे प्रथमं प्रवृत्ते । प्लीहा, शोथ, त्रिदोष, शिरोप्रह, पाण्ड, गरविष पवाहयेत्सा सवशिष्टदोषान् और कृमि रोगका नाश होता है। संशोधयेत्कोष्ठमशेषतश्च ॥ यह प्रयोग ३ सप्ताह तक करना चाहिये। प्रथम सप्ताह में केवल दुग्धाहार करना चाहिये द्वे पूर्वमधादशनादत्तो दे और उसके पश्चात् दो सप्ताह तक दूधभात खाना द्वे चापि भुक्त्वा च तथा स्वपस्तू । । चाहिये। अस्य प्रयोगादभयाष्टकस्य त्रिसप्तरात्रेण पुनर्नवः स्यात् ॥ आमातिसारके प्रारम्भमें शहद के साथ हर्रका मेधास्मृतिः शक्तिरतीव कान्तिः चूर्ण मिला कर चाटना चाहिये । इससे कोष्ठके श्रीमदपुर्नित्यमनामयत्वम् । दोष निकल कर वह शुद्ध हो जाता है। दीसामिता दृष्टिषलं परं स्यात् सर्वे च रोगाः प्रशमं प्रयान्ति ॥ दो हर भोजनके पूर्व, २ भोजन करते समय | (भोजनके मध्यमें ), २ भोजनान्त में और दो हरौंको धीमें भूनकर रक्खें । इन्हें यथोचित | सोते समय खावें । इस प्रकार ३ सप्ताह तक मात्रानुसार खाकर ऊपरसे षो पीनेसे वायुके रोग नित्य आठ हरें खानेसे शरीर में नवजीवन आ नहीं होते और पृष्ठ, जंघा उरु तथा कटिका जाता है, मेधा, स्मृति, शक्ति, कान्ति और शरीरबल बढ़ता है। श्रीकी वृद्धि होती है। शरीर नीरोग रहता है; अग्नि और दृष्टि बढ़ती है तथा समस्त रोग नष्ट हो हरौको एरण्ड (अण्डी) के तेलमें पकाकर जाते हैं। खाने और ऊपरसे तेल (अण्डीका तेल ) पीनेसे (८६८५) हरीतकीयोगः (१) शूल, विष्टभ्भ, तथा पित्त, कफ और वायुके समस्त । रोगोंका नाश होता है। (ग. नि. । उदरा. ३२) समादाय पलाशिन्या क्षारपस्थचतुष्टयम् । हरौंको सात दिन तक भैसके मूत्रमें भिगोए चतुर्गुणे समालोडप गोमूत्रे क्वाथयेद्भिषक् ।। रखें (मूत्र प्रति दिन बदल कर नवीन डालना | निःस्राव्य पादशिष्टं तु क्वायं पञ्चशतानि च । चाहिये।) निक्षिप्य तत्र पथ्यानां पुनरमावधियेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ हकारादि ! अर्धस्विन्नास्तु संस्थाप्याः क्वाथैन सह यत्रतः। १०० हरौंको ३२ सेर गोमूत्रमें पकावें और अद्यात्ततः सिन्धुयुता यवक्षारविमिश्रिताः ॥ गोमूत्र जल जाने पर हरौंको ठंडा करके सुरक्षित क्रमेणाग्निवलं लब्ध्वा प्रातरुत्थाय योगवित् । रक्खें । जीर्णं पथ्यां च युधानो मुच्यते तूदरामयात् ॥ इनमें से नित्य प्रति २ हर्र शहदके साथ खाने क्षारवारिपलं प्रातः पलाशिन्याः पिबेन्नरः। से कफज अर्श, ग्रहणी, कृमि, पाण्डु और शोथका यवक्षारस्य कर्षण मिश्रितं तूदरापहम् ॥ नाश होता है। __ पलाशी ( केले ) का क्षार ४ सेर लेकर १६ (८६८७) हरीतकीयोगः (३) सेर गोमूत्र में पकावें और ४ सेर रहने पर छान लें। तत्पश्चात् उसमें ५०० हरें डालकर पुनः पकावें (रा. मा. । मुखरोगा. ५) और जब हरे आधी उसीज जाएं तब (पककर : गोमूत्रमध्ये क्वयिता प्रगाढं बिल्कुल मुलायम होने से पहिले ही) अग्निसे नीचे । मांस्यन्विता' बालककुष्ठयुक्ता। उतार कर ठंडा करके उस शेष क्वाथ सहित हरेच्च पथ्या विहिता मुखान्ते सुरक्षित रक्खें । दौर्गन्ध्यमन्यानपिवक्त्ररोगान् ।। नित्य प्रति ये हरै सेंधा नमक और जवाखार गोमूत्रमें जटामांसी (पाठान्तरके अनुसार सौंफ) मिला कर बलानुसार सेवन की जायं तो उदररोग सुगन्ध बाला ( तगर ) और कूठका चूर्ण मिलाकर नष्ट होता है। औषध पचने पर पथ्याहार करना । उसमें हरें डाल कर पकावें । जब हर्र उसीज जाएं चाहिये। तो उन्हें गोमूत्रसे निकालकर ठंडा करके सुरक्षित पलाशी ( केले ) के ५ तोला क्षारजल में रक्खें । ११ तोला जवाखार मिलाकर प्रातः काल पीनेसे Ta मिलाकर प्रातः काल पीनेसे इन में से एक एक टुकड़ा मुंहमें रखनेसे भी उदररोग नष्ट होता है। दुर्गन्धि और ( मुखपाकादि ) मुंहके अन्य रोग नोट-क्वाथके साथ उबाली.हुई हरे रखनेसे | नष्ट होते हैं। उनके शीघ्रही खराब हो जानेका भय है। (हर्र १ सेर, गोमूत्र ८ सेर; तीनों ओषधि(८६८६) हरीतकीयोगः (२) योका चूर्ण २० तो०) ( ग. नि. । अर्शो. ४) (८६८८) हरीतकीयोगः (४) गोमूत्रद्रोणसंयुक्ते विपचेदभयाशतम् । (भै. र.। अग्निमान्द्या.) क्षीणे मूत्रे हरीतक्यौ खादेदवे मधुना सह ॥ हरीतक्याः शतं ग्रावं तक़: स्विमश्च कारयेत । एष प्रयोगः शमयेदर्शः श्लेष्मसमुत्थितम् । यवाद् बीजं समुद्धृत्य चूर्णानीमानि पूरयेत् ॥ ग्रहणीकृमिदोषांश्च पाण्डुत्वं श्वयथूनपि ॥ १ " मिश्यन्विता" : पाठान्तरम् For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ५१९ षडूषणं पञ्चपटु यमानीद्वयमेव च । । (प्रथम दिन १ हर्र खायें और फिर रोज त्रिक्षारं हिङ्गु दिव्यश्च कर्षद्वयमितं पृथक् ॥ १-१ बढ़ाते जावें इस प्रकार जहां तक सहन हो श्लक्ष्णचूर्णीकृतं सर्व चुक्राम्लेनापि भावयेत् । सके बढ़ाते रहें फिर १-१ घटाना शुरु करें और लिम्पाकस्वरसेनापि भावयेञ्च दिनत्रयम् ॥ १ पर आकर पुनः १-१ बढ़ावें । इसी क्रमसे खादेदभयामेकां सर्वाजीर्णविनाशिनीम् । सेवन करते हुवे १००० संख्या पूरी करें। पथ्य चतुर्विधमजीर्ण वहिमान्धं विसूचिकाम् ॥ में केवल दूध पीना चाहिये।) गुल्मशूलादिरोगांश्च नाशयेदविकल्पतः ।। (८६९०) हरीतकीयोगः (६) १०० हरौ को तक्रमें डालकर पकावें जब (वृ. मा. । कासा.) वे उसीजकर कोमल हो जाएं तो उन्हें बीचसे चीरकर गुठली निकाल दें और उनके भीतर निम्न मुखे धृताऽभया शुण्ठीकणया वा विभीतकम . लिखित चूर्ण भरकर सूतसे बांध दें। विभीतकमथैकं वा कासश्वासौ व्यपोहति ।। चूर्ण-पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ हर्र अथवो सोंठ, पीपल और बहेड़ा अथवा केवल बहेड़ा मुंहमें रखनेसे कास श्वासका नाश काली मिर्च, सेंधा नमक, काला नमक ( संचल), होता है। विड नमक, सामुद्र लवण, काच लवण, अजवायन, अजमोद, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, होंग ___(८६९१) हरीतकीरमायनम् और लौंग २॥-२॥ तोले लेकर बारीक चूर्ण बनावें (ग. नि. ! रसायना. १) और उसे चुक्राम्ल (कांजी भेद) तथा बिजौरे के हरीतकी सर्पिषि सम्प्रताप्य रस में ३-३ दिन खरल करके सुखा लें।। समश्नुतस्तत्पिवतो घृतं च । ____ उपरोक्त हरों में से १-१ हर्र रोज खानेसे | भवेचिरस्थायि बलं शरीरे चारों प्रकारका अजीर्ण, अग्निमांद्य, विसूचिका, सकत्कृतं साधु यथा कृतज्ञे॥ गुल्म और शूलादिका नाश होता है । हर को धीमें सेककर खावें और अनुपान (८६८९) हरीतकीयोगः (५) रूपमें वही घी पीवें । इस प्रयोगसे शरीरमें स्थायी बल प्राप्त होता है। (ग. नि. । उदरा. ३२) हरीतकी सहस्र वा विधिवचोपयोजयेत् । (८६९२) हरीतक्यादियोगः अनाम्बुवर्जी पित्तोत्थाज्जठराद्विप्रमुच्यते ॥ (वा. भ. । चि. अ. १५ उदरा.) अन्न जल बन्द करके १००० हर्र सेवन हरीतकीसूक्ष्मरजः प्रस्थयुक्तं घृताढकम् । करने से पित्तोदर नष्ट होता है ।। अग्नौ विलाप्यमथितं खजेन यवपल्लके । For Private And Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः ५२० निधापयेत्ततो मासादुद्धृतं गालितं पचेत् । हरीतकीनां क्वाथेन दध्ना चाम्लेन संयुतम् ॥ उदरं गरमहीलामानाहं गुल्मविद्रधिम् । इत्येतत्कुष्ठमुन्मादमपस्मारं च पानतः ॥ १ सेरे हर के बारीक चूर्णको ४ सेर शहद में मिलाकर गरम करके मथनीसे मर्थे और मृत्पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके अनाजके ढेरमें दबा दें। १ मास पश्चात् उसे निकालकर कपड़े से छान लें और उसमें हर्र का काथ, तथा खट्टी दही ( प्रत्येक उसके बराबर) मिलाकर पकावें । ( जब कुछ गाढ़ा हो जाय तो ठंडा करके सुरक्षित रक्खें । इसके सेवन से उदररोग, गरविष, अष्ठीला, आनाह, गुल्म, विद्रधि, कुष्ठ, उन्माद और अपस्मारका नाश होता है । (८६९३) हिक्काहरयोगाः (ग. नि. । हिक्काश्वासा. ११) श्वासावरोधिनी हिक्का शमं यात्यति वेगतः । चुकैर्वा जले पीते धृत्वा श्वासं निवर्तते ॥ मधुना कटुकीचूर्ण लीढं हिक्कानिवारणम् । शिलाघूमस्य पानं वा नलिका यन्त्रयोगतः ॥ (१) श्वासको रोककर चुल्लुसे जल पीने दम बन्द कर देने वाली हिचकी भी बन्द हो जाती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ हकारादि (८६९४) हिङ्गुशोधनम् ( यो. र. ) पद्मपत्ररसे याममातपे भावितं विदुः । राम शुद्धिमाप्नोति रसयोगेषु योजयेत् ॥ कमल के पत्तोंके रसमें १ पहर धूप में घोटने से हींग शुद्ध हो जाता है । (८६९५) हिङ्ग्वादि यवागू ( यो. र. वृ. नि. र. । हिक्का ; ) हिङ्गुसौवर्चलाजाजीविड पौष्करचित्रकैः । सटी कर्कटभृङ्गी च यवागूः श्वासहिकिनाम् || होंग, संचल, जीरा, बिडनमक, पोखरमूल, चीतामूल, कचूर और काकड़ासिंगी; इनसे बनाई हुई यवागू श्वास और हिक्का रोगमें हितकारक है। ( हींग, संचल और बिड नमक यवागू तैयार होने पर डालने चाहियें तथा शेष चीजोंका ङ्ग पानीय विधि क्वाथ बनाकर उसमें यवागू पकानी चाहिये । ) (८६९६) हिङ्ग्वादियोग ः (१) ( व. से. 1 मुखरोगा. ; भा. प्र. | म. खं. २ ) कृमिदन्तापहं कोष्णं हिदन्तान्तरे स्थितम् || first ज़रा गरम करके दांतके नीचे ( या उसके गढ़े में ) रखनेसे दन्तकृमि नष्ट हो जाते हैं। (८६९७) हिङ्ग्ग्वादियोगः (२) (२) कुटकी चूर्णको शहद में मिलाकर चाटने से अथवा (३) मनसिल को चिलममें रखकर हुक्के ( ग. नि. । चूर्णा. ३ ; वा. भ. । चि. अ. १४ गुल्मा. ) हिङ्गुत्रिगुणं सैन्धवमस्मात्रिगुणं च तैलमेरण्डम् । से धूम्रपान करनेसे भी हिचकी नष्ट हो जाती है । । तत्रिगुण रसोनरसं गुल्मोदावर्तशूलघ्नम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] पश्चमो भागः ५२१ हींग १ भाग, सेंधानमक ३ भाग, एरण्ड | वत्ती बनावें। इसे घी लगाकर गुदामें रखमेसे तैल ९ भाग और लहसनका रस २७ भाग लेकर । उदावर्त नष्ट हो जाता है। सबको एकत्र मिलाकर सेवन करनेसे गुल्म, उदावर्त और शूलका नाश होता है। (८६९९) हीवेरादियोगः (मात्रा-६ माशे) (वं. से ; यो. र. । दाहरोगा.) (८६९८) हिावादि वतिः ( यो. र. । उदावर्ता. ; भै. र. ; वृ. मा. ; वृ. हीबेरपाकोशीरचन्दनक्षोदवारिणा । नि. र. ; व. से. ; र. र. । उदावर्ता.) | सम्पूर्णामवगाहेत द्रोणी दाहार्दितो नरः ॥ हिमाक्षिकसिन्धूत्थैः पक्त्वा वति सुखा. सुगन्धवाला, पाक, खस और लाल चन्दन वर्तिताम् । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इस चूर्णको (८ घृताभ्यक्तां गुदे दनादुदावर्तविनाशिनीम् ॥ | गुने ) पानी में मिलाकर (२४ घंटे रखने के बाद) हींग, शहद और सेंधानमक समान भाग उस पानीमें डुबकी लगानेसे दाह शान्त हो लेकर सबको एकत्र पीसकर पकाकर गाढ़ा करके । जाती है । इति हकारादिमिश्रप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि NO अथ क्षकारादिकषायप्रकरणम् (८७००) क्षुद्रादिक्याथः (१) इसे प्रातः काल पीनेसे समस्त प्रकारके ( भा. प्र. । म. खं. २) शीतचर नष्ट होते हैं। क्षुद्रानागरपुष्कराऽमृतलताब्राह्मीवचास- (८७०२) क्षुद्रादिक्वाथः (३) व्रतामाङ्गीवासकयासतोयसुरसाक्वाथो जये- (वृ. नि. र. । ज्वरा. ; वृ. मा. । ज्वराः; च. द.! जिद्दकम् । ज्वरा. ; व. से. ; र. र.। ज्वरा. ; शा. सं. । ___ कटेली, सोंठ, पोखरमूल, गिलोय, ब्राह्मी, खं. २ अ. २; वृ. यो. त. । त. ५९; यो. चि. बच, सुव्रता ( गन्धशटी) भरंगी, बासा, धमासा, म.। अ. ४; ग. नि. । ज्वरो. १) सुगन्धबाला और तुलसी समान भाग लेकर क्वाथ क्षुद्राशुण्ठीगुडूचीनां कषायः पौष्करस्य च । बनावें। कफवाताधिके पेयो ज्वरे वापि त्रिदोषजे ॥ यह क्वाथ जिहवक सन्निपातको नष्ट करता है। कासवासारुचिहरो पार्धशूलविनाशनः ।। (८७०१) क्षुद्रादिक्वाथः (२) - कटेली, सोंठ, गिलोय और पोखरमूल समान ( यो. त. । त. २० ; शा. सं. । खं. २ अ. २: अ. भाग लेकर क्वाथ बनावें । यो. चि. म. । अ. ४ ; वृ. नि. र. ; यो.. यह क्वाथ कफवात प्रधान ज्वर तथा सन्निर. । ज्वरा.) . पातज्वर एवं कास, श्वास, अरुचि और पार्श्वशूलको नष्ट करता है। क्षुद्राधान्यकशुण्ठीभिर्गुडूचीमुस्तपद्मकैः । रक्तचन्दनभूनिम्बपटोलवृषपौष्करैः॥ (८७०३) क्षुद्रादिक्वाथः (४) कटुकेन्द्रयवारिष्टभाजीपर्पटकैः समैः । (शा. सं. । खं. २ अ. २) क्वाथं प्रातनिषेवेत सर्वशीतज्वरच्छिदम् ॥ क्षुद्रा किराततिक्तं च शुण्ठी छिन्ना च पौप्क कटेली, धनिया, सोंठ, गिलोय, नागरमोथा, पद्माक, लालचन्दन, चिरायता, पटोलपत्र, बासा, कषाय एषां शमयेत् पीतश्चाष्टविधं ज्वरम् ॥ पोखरमूल, कुटकी, इन्द्रजौ, नीमकी छाल, भरंगी . कटेली, चिरायता, सोंट, गिलोय और पोखरऔर पित्तपापड़ा समान भाग लेकर क्वाथ बनावें। मूल का क्वाथ आठ प्रकारके ज्वरोंको नष्ट करता है। For Private And Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपायप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ५२३ (८७०४) क्षुद्रादिक्वाथः (५) क्वाथ सेवन करनेसे प्रबल मूर्छा रोग नष्ट हो (शा. सं. । खं. २ अ. २; यो. चि. म. । अ. ४) जाता है । क्षुद्राकुलित्थवासाभिर्नागरेण च साधितः ।। (८७०६) क्षुद्रारसयोगः क्वाथः पौष्करचूर्णाढयः श्वासकासौ निवार- (यो. त. । त. १८) यत् ।। पचेत्क्षदां सपञ्चाङ्गां पुटपाकेन तद्रसः । कटेली, कुलथी, वासा (अडूसा) और सोंठ; पिप्पलीचूर्णसंयुक्तः कासश्वासक्षयापहः ।। इनके क्वाथमें पोखरमूलका चूर्ण मिलाकर सेवन । ____ कटेलीके पंचांगको कूटकर (गोला बनाकर करने से श्वास कासका नाश होता है । उसे अरण्ड या बासेके पत्तोंमें लपेट कर उस पर १ (८७०५) क्षुद्रादिक्वाथः (६) अंगुल मोटा मिट्टीका लेप करके ) पुटपाक विधिसे (बृ. नि. र. । मूर्छा.) पकावें और रस निकाल लें । क्षुद्रामृताग्रन्थिकनागराणां इसमें ( १ माशा) पीपलका चूर्ण मिलाकर मूछों जयेदारुणकां कषायः। सेवन करनेसे कास, श्वास और क्षयका नाश होता है। कटेली, गिलोय, पीपलामूल और सोंठ; इनका (मात्रा-२ तोला ।) इति क्षकारादिकषाय-प्रकरणम् - * HE अथ क्षकारादिचूर्णप्रकरणम् (८७०७) क्षारद्वयादिचूर्णम् इसे धीके साथ मिलाकर पीनेसे समस्त प्रकारके (यो. र. । गुल्मा., उदरा.; वृ. नि. र. । गुल्मा.) । गुल्म और उदर रोगोंका नाश होता है। क्षारद्वयानलव्योषनीलीलवणपञ्चकम् । ( मात्रा-२ माशे । ) चूर्णितं सर्पिपा पेयं सर्वगुल्मोदरापहम् ॥ __जवाखार, सञ्जीखार, चीतामूल, सोंठ, काली (८७०८) क्षारयोगः (१) मिर्च, पीपल, नीलकी जड़ और पांचों नमक (सेंधा. (सुश्रुत सं. । चि. अ. ७ अश्मर्य.) संचल, विड लवण, सामुद्र लवण और उद्भिदलवण) तिलापामार्गकदलीपलाशयववल्कजः । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । क्षारः पेयोऽविमूत्रेण शर्करानाशनः परः ॥ For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ५२४ तिल, अपामार्ग, केला, पलाश (ढाक), जौ और लोध; इनके क्षार समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर खरल कर ले 1 भारत-भैषज्य रत्नाकरः इसे भेड़के मूत्र के साथ सेवन करने से शर्करा रोग नष्ट होता है । (८७०९) क्षारयोगः (२) ( यो. र. । मूत्रकृच्छ्रा . ) अङ्कोल तिलकाष्ठानां क्षारः क्षौद्रेण संयुतः । दधिवार्यमुपानेन सूत्ररोधं नियच्छति ॥ मार्गरम्भातिला अंको की लकड़ी का और तिलके वृक्षों का क्षार ( एकत्र बना हुवा या समान भाग मिश्रित ) शहद में मिलाकर चाटने से मूत्रावरोध नष्ट होता है। अनुपान - दहीका पानी । ( मात्रा - १ || माशा | ) (८७१०) क्षारयोगः (३) (क्षारामृतचूर्णम् ) (बृ. नि. र. । शूला. ; यो. चि. म. | अ. २; हा. सं. । स्था. ३ अ. ४ ) क्षारं मुष्ककर्किकार्जुन जीवन्तीकमकार्थं च रजनी कूष्माण्डवल्ली तथा । वासासूरणमेव तीव्र दहने वा भस्मीकृतं तोयेन प्रतिसेव्य निःसृत पयः पानं विधेयं यकृत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ क्षकारादि शूलानाहविबन्धगुल्म कफजान् रोगान् जयेत्कामलां विद्रध्यो हृदिशुलपाण्डु ग्रहणीशोफार्शसां पीनसान् । मन्दाग्नौ ज्वरपीडने कृमिगुदभ्रंशे प्रमेहे तथा । शस्तं वृद्धिषु दाहशुलकसनोदूगारे वमौ प्ली िच ॥ पलाश (ढाक), मुष्कक (मोखावृक्ष), अर्जुन, धव, अपामार्ग, केला, तिल, जीवन्ती, धतूरा, हल्दी, पेठे (भूरे कुम्हड़े ) की बेल, बासा, और सूरण; इनका यथाविधि क्षार बनावें । इसे पानी के साथ सेवन करना और फिर यथेष्ट दूध पीना चाहिये । इसके सेवन से यकृतरोग, शूल, आनाह, विबन्ध गुल्म, कफज रोग, कामला, विद्रधि, हृदयशूल, पाण्डु, ग्रहणीरोग, शोथ, अर्श, पीनस, अग्निमांध, ज्वर, कृमि, गुदभ्रंश, प्रमेह, अण्डवृद्धि, दाह, शूल, कास, उद्गार अधिक आना, वमन और लीहावृद्धिका नाश होता है । (८७११) क्षारादियोगः (१) ( यो त । त. ४६ ) सक्षारत्र्यूषणं मद्यं प्रपिवदसगुल्मनुत् । पलाशक्षारतोयेन सिद्धं सर्पिः पिबेच सा ॥ जवाखार, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र मिलावें । यह चूर्ण मिलाकर मध पीनेसे रक्त गुल्म का नाश होता है। For Private And Personal Use Only अथवा पलाश के क्षारजलसे सिद्ध घृत पीने से भी रक्तगुल्म नष्ट होता है । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णपकरणम् ] पञ्चमो भाग ५२५ (८७१२) क्षारादियोगः (२) छोटा करौंदा, बरनेकी छाल, चीतामूल और (वृ. नि. र.; वृ. मा. । उदरा. ; यो. र. । यकृद्रोगा.) नागकेसर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । क्षारं वा बिडकृष्णाभ्यां पूतिकस्याम्बुमिश्रितम्। इसे दूधके साथ पीनेसे अन्त्रशूल नष्ट होता है। यकृत्प्लीहमशान्त्यर्थं पिबेत प्रातर्यथाबलम् ॥ अथवा रातको लहसन, सोंठ, करञ्जमूल और जवाखार, बिड लवण और पीपल; इनके | इन्द्रायण की जड़ का क्वाथ पीने से भी अन्त्रशूल नष्ट हो जाता है। समान भाग मिश्रित चूर्णको करंज ( कण्टक करंज ) के रसमें मिलाकर प्रातःकाल सेवन करने से यकृत ___ (८७१४) क्षुद्रकरवन्दयोगः (२) और प्लीहारोगका नाश होता है। (वै. म. र. पटल ७) (८७१३) क्षुद्रकरवन्दयोगः (१) । क्षुद्रकरवन्द (मर्द) मूलं पयसा पीतं प्रभात(वै. म. र. । पटल ९) कालेषु । क्षुद्रकरवन्दवरुणानलसुवर्ण निरुणदि मूत्रकृच्छू सन्तमसं भानुबिम्बमिव । दुग्धसहितं पिबति यो जयति शूलम्। प्रातःकाल क्षुद्रकरमर्द (छोटे करौंदे ) की अन्नजनितं, शुननागरकुबेरा जड़को दूधके साथ पीसकर पीनेसे मूत्रकृच्छ्रका क्षीन्द्रलतिकागृतजलं च निशि पीतम् ॥ नाश होता है । इति क्षकारादिचूर्णभकरणम् अथ क्षकारादिगुटिकाप्रकरणम् (८७१५) क्षारगुटिका (१) सपिप्पलीमूलविडङ्गसारं ( रसे. चि. म. । अ. ९; रसे. सा. सं; धन्व: मुस्ताजमोदामरदारुबिल्वम् ॥ च. द.; र. रा. सु. । शोथा.; ग. नि. । गुटिका. कलिङ्गकाश्चित्रकमूलपाठे __४; च. सं । चि. अ. १२ श्वयथु.) सयष्टिकं चातिविषं पलांशम् । क्षारद्वयं स्याल्लवणानि चत्वा सहिङ्गुकर्ष तु ससूक्ष्मचूर्ण र्ययोरजो व्योष फलत्रिके च । द्रोणं तथा मूलकशुण्ठकानाम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्ष कारादि स्याद्भस्मनस्तत् सलिलेन साध्य । (८७१६) क्षारगुटिका (२) मालोडय यावद्घनममदग्धम् । (च. सं. । चि. अ. १९ ग्रहण्य.) स्त्यानं ततः कोलसमां तु मात्रां कृत्वा सुशुष्कां विधिनोपयुज्यात् ॥ चतुष्पलं सुधाकाण्डं त्रिपलं लवणत्रयात् । प्लीहोदरश्वित्रहलीमकार्शः | वार्ताकीकुडवं चार्कादष्टौ द्वे चित्रकात्पले ॥ पाण्ड्वामयारोचकशोषशोफान् । | दग्धानि वार्ताकुरसे गुलिका भोजनोत्तराः। | भुक्तं भुक्तं पचत्याशु कासश्वासार्शसां हिताः॥ विसूचिकागुल्मगराश्मरीश्च विचिकापतिश्यायहद्रोगशमनाश्च ताः॥ सश्वासकासाः प्रणुदेव सकुष्ठाः ॥ जवाखार, सजीखार, चारों नमक* (सेंधा __थूहरका काण्ड (डंडा) २० तोले, सेंधा नमक १५ तोले, संचल (काला नमक ) १५ तोले, नमक, संचल, विड नमक और उद्भिद्लवण), बिड नमक १५ तोले, बड़ी. कटेली ( या बैंगन) लोहभस्म, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, २० तोले, अर्कमूल ४० तोले और चित्रकमूल आमला, पीपलामूल, बायबिडंगकी गिरी, नागरमोथा, १० तोले लेकर सबको जला कर भस्म करें और अजमोद, देवदारु, बेलकी छाल, इन्द्रजौ, चीतामूल, । | बैंगन के रसमें घोटकर गोलियां बना लें। पाठा, मुलैठी और अतीस; इनका चूर्ण ५-५ तोले इन्हें भोजनके पश्चात् सेवन करने से भोजन एवं हींग १ तोला लेकर सबको एकत्र मिला लें। शीघ्र पच जाता है। ये गोलियां कास, श्वास, अर्श, सूखी मूलीकी राख १६ सेर लेकर उसे विचिका, प्रतिश्याय और हृद्रोगका माश करती हैं। (६ गुने ) पानीमें घोलकर (क्षारनिर्माण विधिसे ) (८७१७) क्षारगुटिका (३) स्वच्छ पानी नितार लें और उसमें उपरोक्त चूर्ण (व. से.। उदरा. ; वा. भ.* चि. अ. १५ उदररो.) मिलाकर करछे से चलाते हुवे (मंदाग्निपर) पकावें। क्षारं वनकरीषाणां स्विन्नं वस्त्रेण गालयेत् । जब गोली बनाने योग्य गाढ़ा हो जाय तो अग्नि कार्षिक पिलीम पर लवणानि च ॥ से नीचे उतारकर बेरके समान गोलियां बना लें। पिप्पली चित्रकं शुण्ठी त्रिता त्रिफला वचाः। यह ध्यान रखना चाहिये कि औषध जल न जाए। द्वौ क्षारौ सातलादन्ती स्वर्णक्षीरी विषाणिका॥ ___ इनके सेवन से प्लीहा, उदररोग, श्वित्रकुष्ट, | कोलममाणां वटिकां पिबेत्सौवीरसंयुताम् । हलीमक, अर्श, पाण्डु, अरुचि, शोष, शोथ, बिषू- श्वयथावथ वक्त्रस्य प्रद्धे च दकोदरे ॥ चिका, गुल्म, गरविष, अश्मरि, श्वास, कास और | *वाग्भटके मतानुसारकुष्ठका नाश होता है। (१) बकरीकी मेंगनियांका क्षार लेना और * पाठान्तर के अनुसार पंचलवण और ४ / गोमूत्रमें पकाना चाहिये । प्रकारका लोह लेना चाहिये । । (२) चित्रकका अभाव है। For Private And Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटिकापकरणम् ] पञ्चमो भागः बन कण्डों की भस्म को पानीमें घोलकर | पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, तालीस यथाविधि क्षार बनावें । इस क्षारको पानी में घोलकर पत्र, तेजपात, इलायची, काली मिर्च, दारचीनी, पकाकर गाढ़ा करें और फिर ११-१। तोला पलाशक्षार, मुष्कक ( मोखावृक्ष) का क्षार और पीपलामूल, पांचों नमक (सेंधा नमक, संचल, बिड जवाखार इनका समान भाग चूर्ण लेकर सबको लवण, उद्भिद्लवण, सामुद्रलवण), पीपल, चीता- एकत्र मिलाकर खरल करें और फिर सब से दो मूल, सोंठ, निसोत हर, बहेड़ा, आमला, बच, गुने पुराने गुड़की चाशनी बनाकर उसमें वह चूर्ण जवाखार, सज्जीखार, सातला, दन्तीमूल, स्वर्णक्षीरी मिलाकर बेरके समान गोलियां बना लें और उन्हें (सत्यानाशीकी जड़-चोक), और मेढासिंगी; इनका सात दिन तक मुष्कक वृक्षकी राखमें दबाए रक्खें चूर्ण लेकर सबको एकत्र खरल करके उपरोक्त और फिर सेवन करें। क्षारमें धोटें और बेरके समान गोलियां बना लें। यह गुटिका कण्ठ रोगोमें अमृतके समान इन्हें सौवीर कांजी के साथ सेवन करने से गुणकारी है। १-१ गोली मुंहमें रखकर रस मुखशोथ और जलोदरका नाश होता है। चूसना चाहिये। (८७१८) क्षारगुटिका (४) क्षारवटी (महा) (यो. २.। उपदंशा.) (भै. र.; च. द.; व. से. । मुखरोगा.) प्र. सं. ५१६९ महाक्षारवटी देखिये पञ्चकोलकतालीशपत्रैलामरिचत्वचः। क्षीरवटी पलाशमुष्ककक्षारयवक्षाराश्च चूर्णिताः॥ (मै. र. । शोथा.) गुडे पुराणे क्वयिते द्विगुणे गुडिकाः कृताः। प्र. सं. ३२१४ दुग्धवटी (३) देखिये कर्कन्धुमात्राः सप्ताहं स्थिता मुष्ककभस्मनि ।। क्षुधावतीगुटिका कण्ठरोगेषु सर्वेषु धार्याः स्युरमृतोपमाः ॥ रस प्रकरणमें देखिये इति क्षकारादिगुटिकाप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि अथ क्षकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (८७१९) क्षतशुक्रहरगुग्गुलुः । लोहभस्म, मुलैठी, हर्र, बहेड़ा, आमला, और पीपल; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध (र. चं. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । नेत्ररोगा.) गूगल सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर अयः सयष्टित्रिफलाकणानां ( थोड़ा थोड़ा घी डालकर ) अच्छी तरह कूटें। चूर्णानि तुल्यानि पुरेण नित्यम् । इसे घी और शहदमें मिलाकर सेवन करने समिधुभ्यां सह भक्षितानि | से नेत्रकाच (मोतियाबिन्द) और नेत्र शुक्र शुक्राणि काचानि निहन्ति शीघ्रम् ॥ (फूले) का शीघ्र ही नाश हो जाता है। इति क्षकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् अथ क्षकारायवलेहप्रकरणम् (८७२०) क्षारगुटिका हिङ्ग्यम्लभल्लातकमक्षतुल्यं (क्षारगुडः) विपाचयेत्क्षारगुडं यथावत् ॥ ततोऽक्षमात्रा गुटिका प्रयोज्या (ग. नि. । गुटिका. ४) कायामिहीनैरबलैनरैश्च । दे पञ्चमूल्यौ नि निकुम्भा सश्लेष्मकासारुचिगुल्मवृद्धौ पाठा वचास्फोटबलाश्च रास्ना । कफश्च कण्ठोरसि यस्य तिष्ठेत् ।। सकारवीचित्रकममूलं कुष्ठप्रमेहान् श्वयधुं च हन्यापृथक पृथक् तानि पलैर्दशाख्यैः ॥ द्वातामयप्लीहयकृद्भवांश्च । भस्मीकृतान्यम्भसि गालयित्वा अन्नं हि भुक्तं जरयेच्च शीघ्र परेत्तुलां जीर्णगुडस्य सम्यक् । युक्तो रसैः क्षारगुडप्रयोगः ॥ दे पञ्चमूल्यौ यवशूकजं च दशमूलकी प्रत्येक औषध, निसोत, दन्तीमूल, क्षारं तथा स्वर्जिकसंज्ञिकं च ॥ पाठा, बच, आस्फोता (कोयल), खरैटी, रास्ना, व्योषं बचां चैव हरीतकी च कलौंजी, चीतामूल और आककी जढ़ १०-१० पल पृथक् पलानां सह चित्रकेण । । (५०-५० तोले ) लेकर सबको जलाकर भस्म For Private And Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवलेहमकरणम् ] पञ्चमो भागः करें और उस भस्म को पानीमें मिलाकर (क्षार- सिद्धं गुडन्तु विज्ञाय चूर्णानीमानि दापयेत् । निर्माण विधिसे ) छान लें । जब स्वच्छ पानी वृश्चिकाली द्विकाकोल्यो यवक्षारं समावपेत् ॥ निकल आवे तो उसे पकाकर कुछ गाढ़ा करें और एते पञ्चपला भागाः पृथक पश्च पलानि च । फिर उसमें ६। सेर पुराना गुड़ मिलाकर पुनः हरीतकी त्रिकटुकं सर्जिकां चित्रकं वचाम् ॥ पकावें । जब पाक तैयार हो जाय तो उसमें निम्न | हिवम्लवेतसाभ्याश्च द्वे पले तत्र दापयेत् । लिखित औषधियांका चूर्ण मिला दें- |. अक्षप्रमाणां गुडिकां कृत्वा खादेद् यथाबलम् ॥ दशमूल, जवाखार, सज्जीखार, सोंठ, मिर्च, अजीर्ण जरयत्येष जीर्णे सन्दीपयत्यपि । पीपल, बच, हर्र; और चीता इनमें से प्रत्येकका भुक्तं भुक्तञ्च जीयेत पाण्डुत्वमपकर्षति ॥ चूर्ण ५-५ तोले तथा होग, अम्लबेत और भिलावा प्लीहाशः श्वयथुश्चैव श्लेष्मकासमरोचकम् । ११-१। तोला। मन्दाग्निविषमानिनां कफे कण्ठोरसि स्थिते ।। कुष्ठानि च प्रमेहांश्च गुल्मश्चाशु व्यपोहति । इसके सेवन से शरीरकी कृशता, निर्बलता, अग्निमांद्य, कफ, अरुचि, गुल्म, कण्ठ और छातीमें रख्यातः क्षारगुडो ह्येष रोगयुक्ते प्रयोजयेत् ॥ स्थित कफ, कुष्ठ, प्रमेह, वातरोग, प्लीहा और दशमूलको प्रत्येक वस्तु, हर्र, बहेड़ा, आमला, यकृत् वृद्धि का नाश होता तथा आहार शीघ्र पच आककी जड़ (पाठान्तरके अनुसार निसोत), शतावर, जाता है। दन्तीमूल, चीता, आस्फोता (कोयल-अपराजिता), रास्ना, पाठा, थूहर, और कचूर ( पाठान्तरके मात्रा-११ तोला अनुसार हर्र भी) ५०-५० तोले लेकर सबको ( व्यवहारिकमात्रा-२ माशे । ) एकत्र जलाकर भस्म करें और उसे ३२ सेर पानीमें (८७२१) क्षारगुडः मिलाकर (क्षारनिर्माण विधिसे ) २१ बार वस्त्र से छान लें एवं उसे अग्निपर चढ़ाकर पकावें । जब (च. द.; व. से. । अग्निमांधा.) चतुर्थाश पानी रह जाय तो उसमें ६। सेर गुड़ द्वे पञ्चमूलं त्रिफलामर्कमूलं शतावरीम्।। मिलाकर पुनः मन्दाग्निपर पकावें । जब गुड़के दन्ती चित्रकमास्फोतां रास्नां पाठां सुधां समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्न लिखित शठीम् ॥ चीजोंका चूर्ण मिला देंपृथग्दशपलान् भागान् दग्ध्वा भस्म समाव- वृश्चिकाली (बहेटा), काकोली, क्षीरकाकोली, पेत् । और जवाखार २५-२५ तोले तथा हरं, सेठ, त्रिसप्तकृत्वस्तद्भस्म जलद्रोणे च गालयेत् ॥ । मिर्च, पीपल, सज्जी, चीतामूल और बच; इनका तद्रसं साधयेदग्नी चतुर्भागावशेषितम् । समान भाग मिलित चूर्ण २५ तोले, हींग ५ ततो गुडतुलां दत्त्वा साधयेन्मूदनामिना ॥ तोले एवं अम्लवेत ५ तोले । For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि ..इसके सेवन से अजीर्णका नाश होता और । मधुना लेहयेत्सर्व कासश्वासहरं परम् | अग्नि दीप्त होती है । तथा पाण्डु, प्लीहा, अर्श, | उरः क्षतक्षये तीब्रे कफरक्तवमीषु च ॥ शोथ, कफ, कास, अरुचि जठराग्निकी विषमता, कटेलीका पंचाग, पीपल, पीपलामूल, चिरचिकण्ठ और छातीका कफ, कुष्ठ, प्रमेह और गुल्मका | टेके बीज, जीरा और सामुद्रलवण समान भाग नाश होता है। लेकर चूर्ण करके शहदमें मिलाकर अवलेह बनावें। __ मात्रा- तोला । व्यवहारिक मात्रा-२ माशा । | इसे चाटनेसे खांसी, श्वास, उरःक्षत, तीब्र क्षय | और कफ तथा रक्त वमनका नाश होता है। (८७२२) क्षुद्रावलेहः (१) (वृ. नि. र. । कासा.) श्रुद्रावलेहः (२) समूलकण्टकारी च चपला चपलाजटा। (यो. र. । श्वासा. ) अपामार्गस्य बीजानि जीर्ण सामुद्रकं तथा ॥ । प्र. सं. ४८६७ “ भृगुहरीतकी ” देखिये । इति सकाराधवलेह-प्रकरणम् अथ क्षकारादिघृतप्रकरणम् (८७२३) क्षारघृतम् (१) । इसके सेवन से कास, श्वास, हृदयरोग, (वा. भ. । चि. अ. ३ कासा.) पावरोग, ग्रहणीरोग और गुल्मका नाश होता है। (मात्रा-१ से २ तोले तक । ) क्षाररास्नावचाहिडपाठायष्टयाइधान्यकैः। अनुपान-मण्ड । द्विशाणैः सर्पिषः प्रस्थं पञ्चकोलयुतैः पचेत् ॥ दशमूलस्य नियूहे पीतो मण्डानुपायिना।। (८७२४) क्षारघृतम् (२) (च. सं. । चि. अ. १९ ग्रहण्य.) सकासश्वासहृत्पार्श्वग्रहणीरोगगुल्मनुत् ॥ बिडं कालोत्थलवणं स्वर्जिका यावशूकजम् । कल्क-जवाखार, रास्ना, बच, हींग, पाठा, | सप्तला कण्टकारी च चित्रकश्चेति दापयेत् ।। मुलैठी, धनिया, पोपल, पीपलामूल, चव, चीता और सप्तकत्वः तस्यास्य क्षारस्य दयाढकेन तु। सेठ १०-१० माशे । आढकं सर्पिषः पक्त्वा पिबेदग्निविवर्दनम् ॥ २ सेर घी में यह कल्क और दशमूलका ८ बिड नमक, काला नमक, सज्जीखार, जवासेर क्वाथ मिलाकर पकावें । | खार, सप्तलाको भस्म, कटेली की भस्म और चीतेकी For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घृतपकरणम् ] पञ्चमो भागः - भस्म समान भाग लेकर सबको ( ६ गुने ) पानीमें (८७२६) क्षारद्वयायघृतम् घोलकर (क्षारनिर्माण विधिसे ) सात बार वस्त्र से (व. से. । बालरोगा.।) छान लें । फिर ८ सेर यह पानी और ४ सेर घी क्षारद्वयं देवदारु विश्वाजाजी सदीप्यकम् । एकत्र मिलाकर पकावें । ग्रन्थिकं पिप्पली तिक्ता द्रव्यैरेतैः समैघृतम् ।। यह घृत अग्निको दीप्त करता है। मौवीरदधिमद्यैश्च कल्कैरेतैः पचेद्भिषक् ।। (८७२५) क्षारघृतम् (३) प्रयुक्तं हन्ति तत्सपिः शिशोः परिभवाख्यकम्।। कल्क-जवाखार, सज्जीखार, देवदारु, (भै. र. । क्षुद्ररोगा.) सांठ, जीरा, अजवायन, पीपलामूल, पीपल और मुष्ककं कुटजं गुञ्जां चित्रकं कदली वृषम् । । कुटकी समान भाग मिलित २० तोले। अर्कस्नुखावपामार्गमश्वमारं विभीतकम् ॥ २ सेर घी में यह कल्क और समान भाग पलाशं पारिभद्रश्च नक्तमालश्च सन्दहेत् । मिलित ८ सेर सौवीरक कांजी, दही तथा मध ततः प्रस्थं समादाय क्षारस्प षड्गुणाम्भसा ॥ | मिलाकर पकावें । त्रिसप्तकृत्वो विस्राव्य पचेत्सपिस्तदम्बुना। यह घृत बालकोंके पारिगर्भिक रोगको नष्ट कल्क क्षारत्रयं दत्त्वा नातितीब्रेण वहिना ॥ करता है। क्षारसपिरिदं हन्यान्मशकं तिलकालकम् । क्षीरषट्पलघुतम् पषिनीकण्टकं चिप्पमलसं दसिध्मनी ॥ (यो. र. ; धन्व.। गुल्मा.; वृ.नि. र. र.र.; मै. र. । मुष्कक (मोखावृक्ष); कुड़ा, गुञ्जा (चौंटली) ज्वरा. ; च. द. । ज्वरा.; गुल्मा. ; व. से. । ज्वरा. चीता, केला, बासा, आक, थूहर, चिरचिटा, कनेर, गुल्मा. ; वृ. मा. । गुल्मा.; वृ. यो. त.। त. ९८; बहेड़ा, पलाश, नीम और करन; इनकी भस्म ___ ग. नि. । गुल्मा. २५) समान भाग मिलित १ सेर लेकर ६ गुने पानीमें प्र. सं. ७७५१ षट्पलघृतम् देखिये। मिलाकर २१ बार वस्त्र से छान कर स्वच्छ पानी कई ग्रन्थों में सेंधा नमकके स्थानमें जवा. निकालें। खार लिखा है तथा इसे कास, ग्रहणी एवं पांडु ४ सेर यह पानी, १ सेर घी और जवाखार, नाशकभी लिखा है। सज्जीखार तथा सुहागा (समान भाग मिलित १० (८७२७) क्षीरामलकघृतम् तोले ) एकत्र मिलाकर पानी जलने तक पकावें | (यो. र. । कासा.; वृ. यो. त. । त. ७८) और फिर छान लें। माहिष्यजाविगोक्षीरधात्रीफलरसैः समैः । ___ यह घृत ( लगाने से ) मशक, तिल, कालक, सर्पिःप्रस्थं पचेधुक्त्या पित्तकासनिबर्हणम् ॥ पद्मिनी कण्टक, चिप्प, अलस (खारवा), दाद और भैंस, बकरी, भेड़, और गाय; इनका दूध सिध्मको नष्ट करता है। तथा आमलेका रस १-१ सेर और घी १ सेर For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [सकारादि लेकर सबको एकत्र मिलाकर घृत मात्र शेष रहने (८७२९) क्षीरिद्रमाचं घृतम् तक पकावें और छान लें। (च. द.। अतिसारा. ४) यह घृत पित्तज कास को नष्ट करता है। भीरिद्रुमाभीरुरसे विपक्वं तज्जैश्च कल्कैः पयसा च सर्पिः । ( मात्रा-१ से २ तोले तक । ) सितोपलाधै मधुपादयुक्तं (८७२८) क्षीरिघृतम् रक्तातिसारं शमयत्युदीर्णम् ॥ ( यो. र. ; व. से. । कासा.) जीर्णेऽमृतोपमं क्षीरमतीसारे विशेषतः । छागं तु भेषजैः सिद्धं देयं वा वारिसाधितम् ॥ क्षीरिक्षाङ्गुरक्वाथे पचेत्क्षीरसमं घृतम् ।। क्षीरी वृक्षों (पीपल, पिलखन, बड़, गूलर पाययेत्पित्तकासनं मधुना वाऽवलेहयेत् ॥ और पारस पीपल) की कांपलेका क्वाथ २ सेर, क्षीरी वृक्षों (पीपल, पिलखन, बड़, गूलर, शतावरका रस २ सेर, दूध १ सेर और घी १ सेर पारस पीपल) की कांपल समान भाग मिलित २॥ | लेकर सबको एकत्र मिलावें तथा उसमें क्षीरी वृक्षां सेर लेकर कूटकर २० सेर पानीमें पकावें और ५ की कॉपलों और शतावरका १० तोले कल्क मिला सेर रहने पर छान लें । तत्पश्चात् १ सेर घी में कर पकावें । जब पानी जल जाय तो घी को यह क्वाथ और १। सेर दूध मिलाकर पकावें । जब छान लें। घृत मात्र शेष रह जाय तो छान लें। . इसमें इस से आधी खांड और चौथाई शहद मिलाकर सेवन करने से रक्तातिसारका नाश होता है। इसे पीने या शहद मिलाकर चाटने से पित्तज । | पुराने अतिसारमें उचित औषधियों से या कासका नाश होता है। | केवल पानी से सिद्ध किया हुवा बकरीका दूध (मात्रा-१ से २ तोले तक । ) अमृतके समान गुण करता है। इति क्षकारादिघृतप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ५३३ अथ क्षकारादितैलप्रकरणम् (८७३०) क्षारतलम् (१) (लघु) (८७३१) क्षारतैलम् (२) (ग. नि.! । तैला. २; यो. त.२ । त. ७०) । (शा. सं. । खं २ अ. ९, १. यो. त. । त. शुष्कमूलकशुण्ठीनां क्षारो हिङ्गु महौषधम् । १२९; वृ. मा. ; व. से. ; र. र.; च. द.; भै. र.; शतपुष्पा वचा कुष्ठं दारु शिनु रसाधनम् ॥ यो. र. ; वृ. नि. र. । कर्णरोगा. ; यो. त. । त. मातुलुङ्गरसश्चैव कदल्या रस एव च । | ७०; वा. भ. । उ. अ. १८; च. सं. । अ. २६ तैलमेभिर्विपक्तव्यं कर्णशूलारं परम् || त्रिमपीयचिकित्सा.) बाधिर्य कर्णनादश्च पूयास्रावश्च दारुणः। बालमूलकशुण्ठीनां क्षारः क्षारयुगं तथा । कुमयश्च विनश्यन्ति तैलस्यास्य प्रपूरणात् ।। | लवणानि च पञ्चव हिमु शिग्रु महौषधम् ।। कल्क-सूखी मूलीका क्षार, हींग, सेांठ, | देवदारु वचा कुष्ठं शतपुष्पा रसाअनम् । सोया, बच, कूठ, देवदारु, सहजनेकी छाल और प्रन्थिकं भद्रमुस्तं च कल्कैः कर्षमितै पृथक् ।। रसौत समान भाग मिलित २० तोले लेकर कल्क तैलमस्थं च विपचेत् कदलीवीजपूरयोः। बनावें। रसाभ्यां मधुसूक्तेन चातुर्गुण्यमितेन च ॥ द्रव पदार्थ-बिजौरे नीबूका रस ४ सेर पूयस्रावं कर्णनादं शूलं बधिरतां कृमीन् । और केलेका रस ४ सेर । अन्यांश्च कर्णजान् रोगान् मुखरोगांश्च ना. शयेत् ॥ २ सेर तेलमें उपरोक्त समस्त औषधियां जम्बीराणां फलरसः प्रस्थैकः कुडवोन्मितम् । मिलाकर पकावे और पानी जल जाने पर तेलको | माक्षिकं तत्र दातव्यं पलैका पिप्पली स्मृता ॥ छान लें। एतदेकीकृतं सर्वं मृद्भाण्डे च निधापयेत् ॥ इसे कानमें डालने से कर्णशूल, कर्णनाद, कच्ची मूलियांका क्षारे, जवाखार, सज्जीखार, . बधिरता, पीप निकलना और कर्ण कृमि आदि कर्ण पांचों नमक, (सेंधा, काला नमक, बिड नमक, रोगांका नाश होता है। सामुद्रलवण, काच लवण), हींग, सहजने की छाल, १ ग. नि. में इसी पाठको पुनः उदृत करके | सेठ, देवदारु, बच, कूठ, सोया, रसौत, पीपलामूल, उसका नाम वृहत्क्षार तैल दिया है, और नागरमोथा १०-११ तोला लेकर कल्क बनावें। २ यो. त. में केवल मूलीक्षार, हींग और तदनन्तर २ सेर तेलमें यह कल्क तथा सेांठ तथा शुस्तके सांय तेल पाक करने को लिखा है।। ८-८ सेर केलेका रस, बिजौरे नीबूका रस और For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि मधुसुक्त मिलाकर पकावें जब पानी जल जाए तो (मोखावृक्ष)का क्षार समान भाग मिलित १॥ सेर तेलको छान लें। लेकर सबको ९ सेर गधेके मूत्रमें घोलकर २१ यह तेल कानमें डालनेमे पीप निकलना, | बार वस्त्रसे छान लें । तदनन्तर ८ सेर यह पानी कर्णनाद, कर्णशूल, बधिरता, कर्णकृमि और अन्य और १ सेर सरसोंका तेल एकत्र मिलाकर पकावें। समस्त कर्णरोग नष्ट होते हैं। जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें । यह तेल मुखरोगोंको भी नष्ट करता है। इस तेलकी एक बूंद लगा देनेसे भी योनिके मधुशुक्त बनाने की विधि-जम्बीरी नीबू- बाल गिर जाते हैं और फिर उत्पन्न नहीं होते । का रस २ सेर, शहद ४० तोले और पीपलका यह तेल लिङ्गबण, अर्श, कुष्ठ, पामा, दाद, चूर्ण ५ तोला लेकर सबको मिट्टीके पात्र में भरकर विचचिका और क्लेद में भी गुणकारी है । मुख बन्द करदें और १ मास पश्चात् निकाल लें। (८७३३) क्षीरवृक्षायतैलम् (८७३२) क्षारतेलम् (३) । (व. से. । ज्वरा. ; सु. सं. । उ. त. अ. ३९) (भै. र. । खीरोगा. ; च, द. । स्त्रीरोगा. ; यो. चि. म. । अ. ६) क्षीरवृक्षासनारिष्टजम्बूसप्तच्छदार्जुनः । शुक्तिशम्बूकसानां दीर्घन्तात्समुष्ककात् । शिरीषखदिरास्फोतामृतवल्याटरूषकः ॥ कटुकापर्पटीशीरवचातेजोवतीचनैः।। दग्ध्वा क्षारं समादाय खरमूत्रेण भावयेत् ॥ क्षाराष्टभागं विपचेत्तैलं वै सापं बुधः।। साधितं तैलमभ्यादा जीर्णज्वरं जयेत् ।। इदमन्तः पुरे देयं तैलमात्रेयपूजितम् ॥ क्षीरवृक्ष (बड़, गूलर, पीपल, पिलखन, पारस बिन्दुरेकः पतेद्यत्र तत्र लोमापुनर्भवः। पीपल), असना, भीम, जामन, सतौना, अर्जुन मदनादिवणे तैलमश्विभ्यां परिकीर्तितम् ।। वृक्ष, सिरस, खैर और आस्फोता, इनकी छाल अर्शसां कुष्ठरोगाणां पामादद्रुविचर्चिनाम् । तथा गिलोय, बासा, कुटकी, पित्त पापड़ा, खस, क्षारतैलमिदं श्रेष्ठं सर्वक्लेदरुजापहम् ॥ वच, मालकंगनी और नागरमोथा । इनके क्वाथ सीपका चूना, शंख का चूना (भस्म), शम्बूक ! और कल्कके साथ सिद्ध किये हुवे तेलकी मालिश (घोंधे)का चूना (भस्म, अरलुका क्षार और मुष्कक करनेसे जोर्णध्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इति क्षकारादितैलप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेषाकरणम् ] पनामो भागः ५३५ - - - - - ___ अथ क्षकारादि-लेपप्रकरणम् (८७३४) क्षीरकाकोल्यादिलेपः प्रेक्ष्यमाननमतीव सुन्दरम् ।। ( भा. प्र. । म. सं. २ विध्य.) लोध, मुलैठी, सरसों और छिलके रहित जौ पैत्तिकं विद्रधि वैद्यः प्रदियात्सर्पिषा युतैः। समान भाग लेकर बारीक पीसकर शहदमें मिला पयस्यौशीरमधुकचन्दनैर्दुग्धपेषितैः ॥ लें। इसका लेप करनेसे मुख तप्त कांचनके समान पैत्तिक विद्रधिमें क्षीरकाकोली, खस, मुलैठी, शोभायमान हो जाता है । और लालचन्दनको दूधमें पीसकर उसमें घी मिला- (८७३६) क्षौद्रादिलेपः (२) कर लेप करना चाहिये। ( भै. र. । उरुस्तम्भा.) (८७३५) क्षौद्रादिलेप (१) क्षौद्रसर्षपवल्मीकमृत्तिकासंयुतं भिषक् । ( रा. मा. । मुखरोगा. ५) . गादमुत्सादनं कुर्यादूरुस्तम्भे प्रलेपनम् ॥ क्षौद्ररोध्रमधुकैः ससर्षपै सरसों और पल्मीकमृत्तिका (बांबीको मिट्टी) निस्तषीकृतयवैश्ष पेषितः। को बारीक पीस कर शहदमें मिलाकर गाढ़ा गादा लेपितं भवति तप्त काश्चनं | लेग करनेसे ऊरुस्तम्भ में लाभ होता है। इति सकारादि-लेपपकरणम् अथ क्षकारादिरसप्रकरणम् (८७३७) क्षयकुलान्तकरसः सर्वेक्षये जीर्णज्वरे च मेहे ॥ (र. चं. । राजयक्ष्मा.) पाण्डामये पित्तमये च कारे गुइचिकासश्वरसेन्द्रभस्म सरक्तपित्ते तमके तथैव । कृष्णाभ्रकं माक्षिकलोहबङ्गम् । यथाऽनुपाने खलु योजनीयं प्रवालमुक्ताफलहेमपत्रं पण्डत्वनाशं प्रकरोति सम्यक् ॥ सर्वैः समानं त्रिफलारसेन ॥ वाजीकरं पुष्टिबलं ददाति सम्मर्दयेत्सप्तदिनं भिषम्भि रसायनं सर्वक्षयापहारि॥ बल्लैकमात्रं मधुना समेतम् । गिलोयका सत, पारदभस्म, कृष्णाभ्रकभस्म, स्वभक्षेविकालं सकलामयन्नं | र्णमाक्षिक भस्म,लोहभस्म,बंगभस्म, प्रवालभस्म,मोती For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भेषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि - भस्म और सोनेके वर्क समान भाग लेकर सबको एकत्र | अश्मरों शर्करां शूलं प्लोहगुल्महलीमकम् ॥ मिलाकर सात दिन त्रिफलाके रसमें खरल करें | सर्वव्याधिहरो बल्यो वृष्यो मेध्यो रसायनः ॥ और ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें। अभ्रक भस्म, पारद भस्म, लोह भस्म, ताम्र इनमें से १-१ गोली शहदमें मिलाकर भस्म, सीसा भस्म, कांसी भस्म, मण्डूर भस्म, सुबहशाम सेवन करनेसे समस्त प्रकारका क्षयरोग, विमल ( माक्षिकभेद ) भस्म, बंग भस्म, खपरिया जीर्ण ज्वर, प्रमेह, पाण्डु, पित्तज कास, रक्तपित्त, भस्म, हरताल भस्म, शंख भस्म, सुहागेकी खील, तमकश्वास और षण्ढत्व का नाश होता है। यह स्वर्ण माक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म, कान्तलोह भस्म, रस वाजीकरण, पौष्टिक, बलवर्द्धक, और रसा वैक्रान्त भस्म, मूंगा भस्म, मोती भस्म, कौड़ी भस्म, यन है। शुद्धहिंगुल,राजपट्ट (चुम्बक पत्थर)की भस्म, और शुद्ध गंधक समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके (८७३८) क्षयकेसरीरसः (१) चीतामूल के क्वाथ और आककी जड़के क्वाथकी ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । राजयक्ष्मा.) १-१ भावना दें और फिर (शराव सम्पुट में बन्द मृतमभ्रं मृतं सूतं मृतं लौहश्च ताम्रकम् । करके ) ३ दिन लघु पुट में पकावें । इसी प्रकार मृत नागश्च कांस्यश्च मण्डूरं विमलं मृतम् ॥ उक्त दोनों ओषधियोंकी भावना दे दे कर ३ बार वर्ष खर्परकं तालं शटङ्कणमाक्षिकम् । पुटपाक करें । तदनन्तर बिजौ रेके रसमें १ दिन मृतं स्वर्ण मृतं कान्तं वैक्रान्तं विद्रुमौक्तिकम् ॥ खरल करके लघु पुटमें पकायें और फिर इसी प्रकार वराट मणिरागश्च राजपट्टश्च गन्धकम् ।। त्रिफला, चीतामूल, अम्लवेत, भंगरा, कनेर और सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य खल्लमध्ये विनिःक्षिपेत् ॥ | अदरकके रसमें १-१ दिन खरल करके हर बार मईयेत्त्वग्निभानुभ्यां प्रपुटेत्रिदिनं लघु । लघु पुटमें पकावें । भावयेत्पुटयेदेभिर्वारांखोंश्च पृथक्पृथक् ।। यह रस वातज, पित्तज, कफज और सन्निमातुलाबरावद्विस्वम्लवेतसमार्कवम् । पातज ज्वर तथा एकांग और सर्वांग गत वायु हयमाराईकरसैः पाचितो लघुवहिना ॥ | एवं एकादश विध क्षय, शोष, पाण्डु, कृमि, ५ वातपित्तकफोत्क्लेशाज्वरान्सम्मर्दितानपि।। प्रकारकी खांसी, श्वास, प्रमेह, मेद, उदरवृद्धि, सभिपातं निहन्त्याशु सर्वाङ्गकाङ्गमारुतान् ॥ अश्मरि, शर्करा, शूल, प्लीहा, गुल्म और हलीमक सेवितश्च सितायुक्तो मागधीरजसा युतः। | आदि रोगोंको नष्ट करता है। यह रस वृष्य, मधुकाकसंयुक्तस्तद्वयाधिहरणौषधः ॥ बलवर्द्धक, मेधावर्द्धक और रसायन है। सेवितो हन्ति रोगान्हि व्याधिवारणकेशरी। | अनुपान-मिश्री और पीपलके चूर्णके साथ क्षयमेकादशक्धिं शोषं पाण्डु क्रिमि जयेत् ॥ मिलाकर अदरकके रस और शहदके साथ या अन्य कासं पञ्चविधं श्वास मेहमेदोमहोदरम्। | रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] पञ्चमो भागः (८७३९) क्षयकेसरीरसः (२) शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक, १-१ भाग, (वृ. नि. र. ; र. चं. । राजयक्ष्मा.) त्रिकुटाचूर्ण २ भाग, शंख भस्म ४ भाग, कौड़ी भस्म नेत्रलोचनचन्द्रेन्दुप्रमाणं भागमाहरेत् । ४ भाग और सुहागेको खील चौथाई भाग तथा इन समस्त औषधियों के बराबर काली मिर्चका चूर्ण वल्लिजं फटकी भृष्टा गरलं नवसागरम् ॥ लेकर प्रथम पारद गंधककी कज्जली बनावें और चूर्णमेषां सितायुक्तं गुलाई योजयेद्भिषक् । | फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर क्षयकेसरीनामायं रसः परम दारुणः॥ भली प्रकार खरल करें। काली मिर्च २ भाग, फिटकी की खील २ इसे घीके साथ मिलाकर १ मास तक सेवन भाग, शुद्ध विष १ भाग और नौसादर १ भाग | करनेसे क्षयका नाश होता है। लेकर सबको एकत्र खरल करके चूर्ण बनावें।। ___ मात्रा-धीरे धीरे बढ़ाकर ५ माशे की मात्रा मात्रा-आधी रत्ती । से सेवन कराना चाहिये। इसे खांडमें मिलाकर सेवन करनेसे क्षयका (८७४१) क्षयान्तकरसः नाश होता है। क्षयकेसरीरसः (३) (र. च. । राजय.) (भै. र. ; र. चं. ; र. रा. सु. । राजयक्ष्मा.) | लोहं च रससिन्दूरं प्रत्येकं कर्षसम्मितम् । प्र. सं. ५८२७ यस्मकेसरी रसः देखिये ।। मौक्तिकं स्वर्णभस्म च प्रत्येकं शाणसम्मितम् ॥ पाठांतरके अनुसार पारद और रससिंदूर का अभाव सिंदर का अभाव अमृतायाः कर्षमात्रं सत्त्वं च त्रिफला तथा । है तथा बकरीके दूधमें भी घोटनेके लिये लिखा है। कषपाद कुङ्कुम च कस्तूरा माषसाम्मता ।। (८७४०) क्षयशामकरसः अटरूषकषायेण त्रिदिनं भावयेत्पृथक् । | रसः क्षयान्तको नाम गुञ्जामात्र मधुप्लुतम् ॥ (र. चं. । राजयक्ष्मा. ; र. र. स. । अ. १४ ) सघृतो राजयक्ष्माणं जयेत्पाण्डं शिरोग्रहम् । तुल्यं पारदगन्धकं त्रिकटुक जीर्णज्वरं मेहरुजं प्रदरं वह्निमान्धकम् ॥ ताभ्यां रजः कम्बुजम् । सोमरोगं धातुदोषं वातश्लेष्मोद्भवं गदम् । तैस्तुल्यं च भवेत्कपर्द उक्ता मयानुपानश्च सर्वरोगान् क्षयं नयेत् ॥ भसितं स्मात्पारदाटकणम् ॥ लौह भस्म और रस सिन्दूर १-१ तोला; पादांशं सकलैः समानमरिचं मोती भस्म और स्वर्ण भस्म ४-४ माशे, गिलोयका लियात्क्रमात्साज्यकम् । सत १ तोला, त्रिफला चूर्ण १ तोला, केसर ३ माशे यावषिष्कमितं भवेत्पति और कस्तूरी १ माशा लेकर सबको एकत्र मिलादिनं मासाक्षयः शाम्यति । कर ३ दिन बासा (अडूसा)के रसमें खरल करें। For Private And Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भेषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि - - मात्रा-१ रत्ती। चिरकालानुबन्धे च सेवयेन्मण्डलावधि । अनुपान-शहद और घी। । तत्तयाधिहरं पध्यं नियमेन समाचरेत् ॥ इसके सेवनसे राजयक्ष्मा, पाण्डु, शिरोग्रह, शंख भस्म, सज्जीखार, ताम्र भस्म, कौड़ी जीर्णज्वर, प्रमेह, प्रदर, अग्निमांद्य, सोमरोग, धातु- भस्म, लोह भस्म, मण्डूर भस्म, जवाखार, सुहाविकार और वात कफज रोगोंका नाश होता है। गेकी खील, सोंठ, मिर्च, पीपल और सेंधा नमक क्षयारिरसः समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर भंगरा, अडूसा और अदरक के रसमें पृथक् पृथक् १-१ (र. सं. क.। उ. ४) दिन खरल करके चनेके समान गोलियां बना लें। प्र. सं. ७५९३ "शिलाजतु योगः” देखिये। यह रस श्वास, खांसी, प्रतिश्याय, पुराने (८७४२) क्षारगुटिका ज्वरे, अग्निमांध और ग्रहणी विकारों को नष्ट ( र. का. धे. । उदरा.) करता है। शुक्तिका कदलीभस्म टङ्कणं तुत्यकं निशा।। ___ यह रस साधारण रोगोंको सात दिनमें और मरिचं गुटिका गुञ्जा यकृढद्धिहरा मता॥ | पुराने रोगों को ४० दिनमें नष्ट कर देता है। सीपको भस्म, केलेकी भस्म, सुहागेकी खील, ___ इस पर अनुपान और पथ्य रोगोचित देना तुत्थ भस्म, हल्दी और काली मिर्च समान भाग लेकर चाहिये। पानीके साथ खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां (८७४४) क्षारताम्ररसः (२) बनावें । इनके सेवनसे यकृवृद्धिका नाश होता है। (र. र. स. । उ. अ. १८; र. चं ; वृ. नि. र. । शूला.) (८७४३) क्षारताम्ररसः (१) पलमितमृतशुल्वं तन्मितं गन्धचूर्ण । ( यो. र. ; र. रा. सु.; वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) वसुमितपलमानं तिन्तिणीक्षारचूर्णम् । शङ्खक्षाराभूतिं च उराटं लोहभस्मकम् ।। त्रयमिदमभिदिष्टं क्षारताम्राख्यमेतअयोमलं यवक्षार टङ्कणक्षारमेव च ।। द्धरति सकलशूलं पीतमुष्णोदकेन ।। त्रिकटुं सैन्धवं तुल्यं भृतोयेन मर्दयेत । ताम्र भस्म ५ तोले, शुद्ध गंधक ५ तोले बाटरूपरसैमधमाईकस्वरसेन च ॥ और इमलीका क्षार ४० तोले लेकर सबको एकत्र घणमात्रां वटों कृत्वा रसोऽयं क्षारताम्रकः।। मिलाकर खरल करें। श्वासे कासे प्रतिश्याये पुराणज्वरपीडिते॥ इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे समस्त मन्दामौ ग्रहणीदोषे त्वनुपानं यथोचितम् । प्रकारके शूल नष्ट होते हैं। सेवयेत्सप्तरात्रेण नाशयेनात्र संशयः ॥ (मात्रा-१-१॥ माशा । ) For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः - (८७४५) क्षारताम्ररसः (३) (८७४६) क्षारयोगः (रे. र. स. । उ. अ. १८) (वृ. नि. र. । अजीर्णा.) रसेन ताम्रस्य दलानि लिप्त्वा द्वौ क्षारौ टङ्कणं मूतं लवङ्ग लवणत्रयम् । गंधेन ताम्रद्विगुणेन पश्चात् । पिप्पलीगन्धकं शुण्ठी मरीचं पलसम्मितम् ॥ वस्त्रेण बध्वाऽथ समुद्रजेन कर्षमेकं विषं दत्त्वा सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । क्षारत्रयेणापि च वेष्टयित्वा । अर्कदुग्धस्य दातव्या भावनयः सप्तवासरम ।। मृदा व संलिप्य पुटं ददीत अन्धमूषागजपुटे स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । दलानि ताम्रस्य विचूर्णयेत् । ततो लवङ्ग मरिचं स्फटिकानां पलं पलम् ॥ धत्तूरचित्राकटुत्रयैश्च सर्व सम्म सुदृढ ढभाण्डे निधापयेत् । विमर्दयेचत्रिगुणप्रमाणम् ॥ सोयं गुमाद्वयं खादेद्भुक्तं द्रावयति क्षणात् ॥ पुनर्भोजनवाञ्छां च जनयेत्पहरोपरि । कलाप्रमाणेन विषं च दत्वा आममांसं द्रावयति श्लेष्मरोगनिकृन्तनः॥ वल्लं ददीतास्य च वातशूले ॥ जवाखार, सज्जीखार, सुहागेकी खोल, शुद्ध शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध गंधक २ भाग | पारद, लौंग, सेंधानमक, कालानमक, बिडलवण, लेकर कजली बनावें और ( उसे नीबूके रसमें | पीपल, शुद्ध गंधक, सोंठ और काली मिर्च ५-५ खरल करके ) १ भाग शुद्ध ताम्रपत्रों पर उसका तोले तथा शुद्ध बछनाग १ तोला लेकर प्रथम पारे लेप करके उन्हें कपड़ेमें लपेटकर पोटली बनावें । गंधकको कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य तथा उसे सामुद्र लवण, जवाखार, सञ्जोखार औषधियोंका चूर्ण मिलाकर खरल करें । तदनन्तर और सुहागे के समान भाग मिश्रित चूर्णके बीचमें उसे आकके दूधकी सात भावना देकर अंधमूषामें रखकर शरावसम्पुटम बन्द करक गजपुटम बन्द करके गजपुट में पकायें तत्पश्चात् उसमें ५-५ पकावें । और फिर स्वांगशीतल होने पर पीसकर तोले लौंगका चूर्ण, काली मिर्च का चूर्ण और फिट. रख लें । ( यदि भस्म कच्ची हो तो पुनः पुट करीकी खील मिलाकर अच्छी तरह खरल करके लगावें । ) तत्पश्चात् उसे धतूरेके रस, चित्रकमूल सुरक्षित रक्खें । के क्वाथ, अदरकके रस और त्रिकुटेके क्वाथकी मात्रा-२ रत्ती। ३-३ भावना देकर उसमें उसका १६ वां भाग शुद्ध बछनाग मिलाकर खरल करें। यह अत्यन्त पाचक है । भोजनोपरान्त इसे खा लेनेसे १ पहर बाद पुनः भूख लग इसके सेवनसे वातज शूल नष्ट होता है। ' आती है। यह रस कच्चे मांस तकको भी पचा मात्रा-३ रत्ती। । देता है । कफरोगोंमें भी गुणकारी है। For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ सकारादि - - (८७४७) क्षारवटी सेर गोमूत्रमें पकावें और जब वह गाढ़ा हो जाय ( र. र. स. । उ. अ. १८) तो उसमें २ सेर गोदुग्ध मिलाकर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो उतारकर ठंडा करके सुरअमृतं मेघभस्माथ शङ्ख चिश्चा सुभास्करम् । क्षित रखें। क्रमाद्विगुणितं कृत्वा तत्तुल्यं च कटुत्रयम् ॥ इसके सेवनसे पक्ति शूल नष्ट होता है। तुलसीभृङ्गराजोत्थमातुलुङ्गाकद्रवैः । (मात्रा-१ माशा।) भावितं बहुशश्चूर्ण रजो वा गुटिकापि वा ।। गुलामात्रं तु सेवेत गुल्मशूलान्विनाशयेत् ।। क्षीरसारो रसः (क्षीरसागररसः ) मन्दाग्निं ग्रहणीमर्शो रक्तगलममरोचकम् ॥ (र. रा. सु. । ज्वरा. , रोचका. ; र. का. धे.। एषा क्षारवटी नाना कृशदेहेषु युज्यते ॥ दाहा. ; र. चं. । ज्वरा.) प्र. सं. १४९४ "गगनादि वटी" देखिये। शुद्ध वछनाग १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग, (८७४९) क्षुद्धोधकरसः (१) शंख भस्म ४ भाग, इमलीका क्षार ८ भाग और ( र. रा. सु. । अजीर्णा. ; वै. र. । अग्निमांद्या.) ताम्र भस्म १६ भाग तथा त्रिकुटा ( सेठ, मिर्च, पीपलका समान भाग मिलित चूर्ण) १६ भाग | व्योषसिन्धुबलिभिरेकवित्रिलवैः स्मृतः । लेकर सबको एकत्र मिलाकर तुलसी, भंगरा, निम्बाम्बुमर्दितो गाढं नाम्ना क्षुद्रोधको रसः ।। बिजौरा नीबू और अदरक; इनके स्वरसकी पृथक् । त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) १ भाग, पृथक् कई कई भावनाएं देकर या तो १-१ रत्ती : सेंधानमक २ भाग और शुद्ध गंधक ३ भाग लेकर की गोलियां बना लें या सुखाकर चूर्ण कर लें। । सबको एकत्र मिलाकर नीबूके रसमें खरल करके मुखाकर रक्खें । इसके सेवनसे गुल्म, शूल अग्निमांद्य, ग्रहणी, इसके सेवनसे क्षुधावृद्धि होती है। अर्श, रक्तगुल्म और अरुचिका नाश होता है। (मात्रा-२ रत्ती।) यह रस कृश पुरुषोंके लिये विशेष उपयोगी है। क्षुद्धोधकरसः (२) (८७४८) क्षीरमण्डूरम् ( र. रा. सु. । अजीर्णा.) ( भै. र. । शूला. ; यो. त. । न. ४४; च. द.; प्र. सं. २७८ अजीर्णकण्टकरस देखिये । __ वृ. मा. ; व. से. । शूला.) उसकी हिन्दी टीकामें भावना द्रव्योंमें कमलौहकिट्टपलान्यष्टौ गोमुत्रा ढके पचेत् । लका नाम छूट गया है अर्थात् मुलैठी की भावना क्षीरप्रस्थेन तत्सिद्धं पक्तिशूलहरं परम् ॥ के पश्चात् १ दिन कमलके रसमें भी घोटना ४० तोले लोहकिट (मंडूर)की भस्मको ४ चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः (८७५०) क्षुधावती गुटिका (१) (स्वल्प) प्रत्येक पलमेषान्तु घण्टकर्णपुनर्णवा। ( भै. र. । अम्लपित्ता.) माणकं ग्रन्थिकं चेन्द्रकेशराजसुदर्शना ॥ दण्डोत्पला त्रिदन्ती जामात रक्तचन्दनम् । रसगन्धकमभ्राणि यमानी त्र्यूषणं तथा। | भृङ्गापामार्गकुलका मण्डूकश्च पलार्द्धकम् ॥ त्रिफला शतपुष्पा च चविका जीरकद्वयम् ।। | आईकस्वरसेनाथ गुडिकां सम्प्रकल्पयेत् । पुनर्णवा वचा दन्ती त्रिता घण्टकर्णकम् । | बदरास्थिसमां चैषां भक्षयित्वा पिबेदनु । दण्डोत्पला शारिवे द्वे चाक्षमात्राणि कारयेत् ॥ मण्डूरं द्विगुणं दवा पेषणीयं प्रयत्नतः।। आईस्वरस आलोच्य गुडिकां कारयेद् बुधः ॥ वटी क्षुधावती नाम सर्वाजीर्णविनाशिनी ॥ प्रत्यहं भक्षयेदेकां भक्तवारि पिबेदनु । अनिश्च कुरुते दीप्तं भस्मकश्च नियच्छति । वटी क्षुधावती नाम्ना चाम्लपित्तविनाशिनी ॥ अम्लपित्तश्च शूलश्च परिणामकृतश्च यत् ॥ अग्निश्च कुरुते दीप्तं तेजोवृद्धिं बलन्तथा। तत्सर्व शमयत्याशु भास्करस्तिमिरं यथा । प्लीहानं श्वासमानाहमामवातं विनाशयेत् ॥ | मधुरं वर्जयेदत्र विशेषात् क्षीरशर्करे ॥ परिणामभवं शुलं कासं पञ्चविधं तथा।। शुद्ध पारद, लोह भस्म, शुद्ध गन्धक, जगतस्तु हितार्थाय वाग्भटेन प्रकीर्तिता ॥ | अभ्रक भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, - शुद्ध पारद, गन्धक, अभ्रक भस्म, अजवाइन, आमला, वच, अजवायन, सोया, चव, जीरा और सेठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, सोया, चव्य, जीरा, | काला जीरा ५-५ तोले तथा घण्टकर्ण, पुनर्नवा कालाजीरा, पुनर्नवा, वच, दन्तीमूल, निसोत, (बिसखपरा), मानकन्द, पीपलामूल, इन्द्रजौ, भंगरा, घण्टकर्ण, दण्डोत्पलामूल, अनन्तमूल, श्यामलता; सुदर्शना, दण्डोत्पला, निसोत, दन्तीमूल, जामातृ प्रत्येक ११ तोला, मण्डूर भस्म २॥ तोले । इन्हें (हुलहुल ), लाल चन्दन, भंगरा, अपामार्ग अदरख के रससे मर्दन कर गुटिका बनावें । मात्रा । (चिरचिटा), परवल और मंडूकपर्णी; इनका बारीक ४ रत्ती। अनुपान-कांजी। यह वटी अम्लपित्त, चूर्ण २॥-२॥ तोले लेकर प्रथम पारे गन्धककी प्लीहा, श्वास, आनाह, आमवात, परिणामशूल तथा कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका कास को नष्ट करती है । यह तेज एवं बलको चूर्ण मिलाकर सबको अदरकके रसमें घोट कर बढ़ाती तथा अग्नि को प्रदीप्त करती है। | बेरकी गुठलीके समान गोलियां बनालें। (८७५१) क्षुधावती गुटिका (२) इनमें से १-१ गोली पानी अथवा कांजीके ( भै. र. ; धन्च. । अम्लपित्ता.) साथ सेवन करनेसे अजीर्ण, भस्मक रोग, अम्लपित्त रसायोगन्धकाभ्राणि त्र्यूषणं त्रिफला वचा। और परिणाम शूलका नाश होता तथा अग्नि दीप्त यमानी शतपुष्पा च चविका जीरकद्वयम् ॥ होती है। For Private And Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [क्षकारादि इसके सेवन कालमें साधारणतया समस्त मधुर पदार्थ और विशेषतः दूध तथा खांड गन्धकं नवनीताख्यं क्षुद्रितं लौहभाजने ॥ वर्जित है। त्रिधा चण्डातपे शुष्कं भृङ्गराजरसाप्लुतम् । (८७५२) क्षुधावती गुटिका (३) (बृहद् ) ततो वह्नौ द्रवीभूतं त्वरितं वस्त्रगालितम् ॥ (रसे. सा. सं.; भै. र.; र. रा. सु.; च. द.; यत्नाभृङ्गरसे क्षिप्तं पुनः शुष्कं विशुध्यति || र. का. धे. । अम्लपित्ता.; रसे. चि. म. । अ. ९) | गगनाद्विपलं चूर्ण लौहस्य पलमात्रकम् । आशुभक्तोदकैः पिष्टमभ्रकं तत्र संस्थितम् । लोहकिटंपलार्द्धश्च सर्वमेकत्र संस्थितम् ।। कन्दमाणास्थिसंहारखण्डकर्णरसैरथ ॥ मण्डूकपर्णीवशिरतालमूलीरसैः पुनः । तण्डुलीयञ्च शालिञ्च कालमारिषजेन च । वरीभृङ्गकेशराजकालमारिषजैरथ ॥ वृश्चीरबृहतीभृङ्गलक्ष्मणाकेशराजकैः ॥ | त्रिफलाभद्रमुस्ताभिः स्थालीपाकाद्विचूर्णितम् । पेषणं भावनं कुर्यात्पुटश्चानेकशो भिषक् । रसगन्धकयोः कर्ष प्रत्येक ग्राह्यमेकतः॥ यावनिश्चन्द्रकं तत्स्याच्छुद्धिरेवं विहायसः ॥ | तन्मसृणशिलाखण्डे यत्रतः कजलीकृतम् । वचा चव्यं यमानी च जीरके शतपुष्पिका ॥ स्वर्णमाक्षिकसालिश्च ध्मातं निर्वापितं जले । | व्योषं मुस्तं विद्याश्च प्रन्थिकं खरमारी। त्रैफलेऽथ विचूर्यैवं लौहं कान्तादिकं पुनः ।। त्रिता चित्रको दन्ती सूर्यावर्त्तः सितस्तथा ॥ बृहत्पत्रकरीकर्णत्रिफलाद्धदारजैः । भृङ्गमाणककन्दाश्च खण्डकर्णक एव च । माणकन्दास्थिसंहारशृङ्गवेरभवै रसैः ॥ दण्डोत्पला केशराजकालाकर्कटकोपि च ।। दशमूलीमुण्डितिकातालमूलीसमुद्भवैः । | एषामर्द्धपलं गावं पटघृष्टं सूचूर्णितम् । पुटितं साधु यत्नेन शुद्धिमेवमयो व्रजेत् ॥ प्रत्येक त्रिफलायाश्च पलार्द्ध पलमेव च ॥ एतत्सर्वं समालोडय लोहपात्रे तु भावयेत् । वशिरं श्वेतवाटालं मधुपर्णी मयूरकम् ।। आतपे दण्डसंघृष्टमाईकस्य रसैविधा ॥ तण्डुलीयश्च वर्षाहं दत्त्वाऽधश्चोर्ध्वमेव च ॥ तद्रसेन शिलापिष्टं गुटिकां कारयेद्भिषक् । पाक्यं सुजीर्णमण्डूरं गोमूत्रेण दिनत्रयम् ।। बदरास्थिनिभां शुष्कां मुनिगुप्तां निधापयेत् ॥ अन्तर्वाष्पमदग्धश्च तथा स्थाप्यं दिनत्रयम् ॥ | तत्पातभॊजनादौ तु सेवितं गुटिकात्रयम् । विचूर्णितं शुद्धिरियं लोहकिट्टस्य दर्शिता । अम्लोदकानुपानश्च हितं मधुरवर्जितम् । (४) दुग्धश्च नारिकेलञ्च वर्जनीयं विशेषतः ॥ जयन्त्या वर्द्धमानस्य आर्द्रकस्य रसेन तु ॥ भोज्यं यथेष्टमिष्टश्च वारिभक्ताम्लकाधिकम् । मायस्याश्चानुपूर्वैवं मईनं रसशोधनम् । | हन्त्यम्लपित्तं विविधं शूलश्च परिणामजम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् पचमो भागः ५४३ पाण्डुरोगश्च गुल्मश्च शोथोदरगुदामयान् । मुख बन्द करदें और ३ दिन तक पकाते रहें। यक्ष्माणं पञ्चकासांश्च मन्दामित्वमरोचकम् ॥ तत्पश्चात् उसे सुखाकर पीसलें। प्पीहानं श्वासमानाइमामवातं सुदारुणम् । (४) शुद्ध पारदको क्रमश: जयन्ती पत्र, गुटी क्षुधावती सेयं विख्याता रोगनाशिनी ॥ अरण्ड, अदरक और मकोयके रसमें १-१ दिन (१) शुद्ध धान्याभ्रकको साठी चावलोंकी खरल करके धोकर सुखालें। कांजीमें पीसकर १ दिन उसीमें भिगोये रक्खें और । (५) आमलासार गंधकके चावलके समान फिर उसे सुखाकर जमीकन्द, मानकन्द, अस्थि- बारीक टुकड़े करके लोह पात्रमें रक्खें और उसमें संहार, खण्डकर्ण, (एक प्रकारका आल), कांटे वाली भंगरेका रस भरदें एवं उसे तेज धूपमें सुखा दें। चौलाई, शालिञ्च शाक, काला मरसा, सफेद पुनर्नवा, । इसी प्रकार भंगरेके रसकी ३ भावना दें। तत्पश्चात् कटेली, भंगरा, लक्ष्मणा और काला भंगरा; इनमेंसे | उसे मंदाग्निपर पिघलालें और भंगरेके रससे भरे प्रत्येकके रसमें घोट घोटकर बार बार पुट दें कि हुवे पात्रके मुख पर कपड़ा बांधकर उस पर वह जिससे अभ्रकको निश्चन्द्र भस्म हो जाय । । | पिघली हुई गंधक फुरतीसे डाल दें कि जिससे वह (२) सोनामक्खीका शालिञ्च शाकके रसमें | छनकर पात्रमें गिरजाय। तत्पश्चात् उस गंधकको खरल करके तपाकर त्रिफलाके क्वाथमें बुझावें। इसी | निकालकर सुखा लें। प्रकार अनेक बार बुझावें और फिर उस क्वाथमें उपरोक्त विधिसे बनाई हुई अभ्रक भस्म १० कान्त लोह या किसी अन्य प्रकारक उत्तम लाहका तो., लोह भस्म ५ तो. और मण्डूर भस्म २॥ तपा तपाकर बार बार बुझावें । जब लोह बारीक | | तो. लेकर सबको एकत्र खरल करके एक हाण्डीमें हो जाय तो उसे सफेद लोध, हास्तकण पलाश, डालें और उसमें मण्डूकपर्णी ( ब्राह्मी), लाल पुनत्रिफला, विधारा, मानकन्द, आस्थसहार, अदरक, | नवा और तालमलीका रस (समान भाग मिश्रित) दशमूल, मुंडी, और तालमूली (मूसली); इनके | इतना डालें कि सब ओषधियां रसमें डूब जाएं तदक्वाथ या रसमें पृथक् पृथक् खरल करके गजपुटमें नन्तर हांडीको चूल्हे पर चढ़ाकर मन्दाग्नि पर पकावें कि जिससे वारितर भस्म हो जाय। पकावें। जब सब रस सूख जाय तो उसमें शता(३) सफेद पुनर्नवा, सफेद फूलकी खरैटी, | वर, भंगरा, काला भंगरा और म(साका रस डालकर गिलोय, चिरायता, कांटेवाली चौलाई, और पुनर्नवा; - पुनः पकावें । जब यह रस भी सूख जाय तो इनके पंचांग लेकर सबको पीसकर लुगदीसी बनावें | त्रिफला और नागरमोथेका क्वाथ डालकर पकावें और उसे पुराने मण्डूरके ऊपर नीचे रखकर सम्पुट- और इसके सूख जाने पर आग देनी बन्द करदें तथा में बन्द करके पुटमें पकावें। तदनन्तर उस मंडूरको | हाण्डीके स्वांगशीतल होने पर औषधको निकालकर हाण्डोमें डालकर उसमें गोमूत्र भरकर उसका | पीसलें । - - - For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि - तदनन्तर उपरोक्त विधिसे शुद्ध किया हुवा (८७५३) क्षुधासागरो रसः पारा और गन्धक ११-१। तोला लेकर पत्थरके ___(मै. र. ; धन्व. ; र. रा. सु. ; वै. र. । उत्तम खरलमें कज्जली बनावें और फिर उसमें उपरोक्त ( हांडीमें पकाई हुई ) औषधोंका चूर्ण तथा ___ अग्निमांद्या.) बच, चव, अजवायन, जीरा, कालाजीरा, सोया, त्रिकटु त्रिफला चैव तथालवणपञ्चकम् । सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, बायबिडंग, पीपला- क्षारत्रयं रसं गन्धं भागैकं पूर्ववद्विषम् ॥ मूल, चिरचिटा, निसोत, चीता, दन्तीमूल, सफेद गुआमात्रां वटी कुर्याल्लवङ्गः पञ्चभिः सह । फूलको हुल हुल, भंगरा, मानकन्द, जिमीकन्द, क्षुधासागरनामायं रसः सूर्येण निर्मितः ॥ खण्डकर्णक, दण्डोत्पला, काला भंगरा, काला निसोत, और काकड़ासिंगी; इनका चूर्ण २॥२॥ तो. ___ सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, एवं त्रिफलाका चूर्ण ७॥ तोले मिलाकर लोहेके | सेंधा नमक, काला नमक, सामुद्र लवण, विड लवण, खरलमें घोटें और अदरकका रस डालकर धूपमें काच लवण, जवाखार, सज्जीखार, सुहागेकी खील, मर्दन करें। इसी प्रकार अदरकके रसकी ३ भाव शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और शुद्ध बछनाग समान नायें देकर बेरकी गुठलीके समान गोलियां बनावें भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और सुखा कर सुरक्षित रखें। और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण, मिलाकर (पानीके साथ) खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां इनमें से ३-३ गोली प्रातःकाल और भोजनके | बनावें। आरम्भमें कांजीके साथ खानी चाहिये (व्यवहारिक ____ इन्हें ५ लौंगोंके चूर्णके साथ सेवन करनेसे मात्रा-४ रत्ती) क्षुधा वृद्धि होती है। इसके सेवनकालमें साधारणतः समस्त मधुर पदार्थ और विशेषतः दूध तथा नारियल त्याज्य है। (८७५४) क्षेत्रपालरसः वारिभक्त (पतला भात) और कांजी विशेष (भै. र.; रं. चं. । शोथा) हिंगुलश्च विषं तानं लौह तालकटङ्गणम् । इसे सेवन करनेसे अनेक प्रकारका अम्लपित्त, जीरमाहूरफेनश्च समभाग विमर्दयेत् ॥ परिणाम शूल, पाण्डु, गुल्म, शोथ, उदररोग, गुद- यवार्दा वटिका कार्या पथ्यं दुग्धोदनं हितम् । रोग, राजयक्ष्मा, पांच प्रकारकी खांसी, अग्निमांद्य, | अलवणं वारिहीनञ्च दातव्यं भिषजां वरैः ॥ अरुचि, प्लीहा, श्वास, आनाह और दारुण आम- | गुरुशोयमग्निमान्य ग्रहणीमतिदुस्तराम् । वात रोग नष्ट होता है। | ज्वरश विषमं जीर्ण नाशयेनात्र संशयः ॥ For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मिश्रप्रकरणम् ] शुद्ध हिंगुल, शुद्ध बछनाग, ताम्र भस्म, लोह भस्म, शुद्ध हरताल, सुहागेकी खील, जीरा और अफीम समान भाग लेकर सबको एकत्र ( पानीके साथ) खरल करके आधे जौके समान गोलियां बना लें। पञ्चमो भागः (८७५५) क्षारनिर्माणविधिः इति क्षकारादिरस प्रकरणम् ( योगरत्नाकर) क्षारवृक्षस्य काष्ठानि शुष्काण्यमौ प्रदीपयेत् । तद्भस्म मृत्पात्रे क्षिप्त्वा नीरे चतुर्गुणे ॥ विमर्थ धारयेद्रात्रौ प्रातरच्छं जलं नयेत् । तीरं क्वाraat यावत्सर्वं विशुष्यति ॥ ततः पात्रात्समुद्धृत्य क्षारो ग्राह्यः सितप्रभः । चूर्णाभः प्रतिसार्यः स्यात्तैजसः क्वाथवत्स्थितः॥ इति क्षारद्वयं वीमान् युक्तकार्येषु योजयेत् ॥ अथ क्षकारादिमिश्रप्रकरणम् जिस वृक्षका क्षार बनाना हो उसके सूखे काठको जलाकर राख करें और उसे मिट्टीकी नांदमें डालकर उसमें 8 गुना पानी डालकर अच्छी तरह मिला दें एवं रात भर रक्खा रहने दें। फिर दूसरे दिन ऊपरसे स्वच्छ पानी नितार कर उसे इतना पकावें कि सब पानी सूख जाय और कढ़ाई में सफेद चूर्ण रह जाए । इसे " प्रतिसारणीय क्षार" कहते हैं । ૬૯ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनके सेवन से शोथ, अग्निमांद्य, दुस्तर संग्रहणी, विषम ज्वर और जीर्णश्वरका नाश होता है । पथ्य — दूध भात । अपथ्य - लवण और जल । ५४५ यदि सब पानी न जलाकर क्षारको द्रवरूप ही रक्खा जाय तो उसे " तैजस क्षार" कहते हैं। दोनों प्रकारके क्षार यथोचित अवसर पर प्रयुक्त करने चाहियें | (८७५६) क्षारपिप्पली (१) For Private And Personal Use Only (व. से. उदरा. ) चपलायाः पलं पञ्च यत्राग्रं तावदेव तु । सामुद्रलवणानाञ्च तावन्मात्रं प्रदापयेत् agrat | शिखर्यांस्तथैव च । शिरोषो लोधवृक्षश्च विशाखामाणकन्दकम् ॥ सुधा च सुरपुष्पञ्च शम्पा कदलसञ्चयम् । वरुणं शिग्रुमूलश्च वाटपालं चित्रकं तथा ॥ एषां पञ्चपलान्भागान्पलाशात्पञ्चविंशतिम् । क्षारं दत्त्वा तु सर्वेषां पचेत्तत्र जलाढके ॥ गोमूत्रं तावदेवात्र साधयेच्च यथाविधिः । भक्षयेद् घृतसंयुक्तां यकृत्प्लीहहरां पराम् ॥ वातमष्टीकाञ्चैव गुल्मं हन्ति त्रिदोषजम् ॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि बांसके पत्ते, अखरोटकी छाल, अपामार्ग यह प्रयोग रसायन है । इसे १ मास तक सेवन (चिरचिटा), सिरसकी छाल, लोध, पुनर्नवा, मान- | करनेसे कास, क्षय, श्वास, हिक्का, शोष, गलगेग, कन्द, थूहर, लौंग, अमलतासके पत्ते, बरनेकी । अर्श, संग्रहणी, पाण्डु, विषमज्वर, स्वरभंग, पीनस, छाल, सहजनेकी जड़, पीले फूलकी खरैटी और | शोथ, गुल्म, और वायु तथा कफके विकार नष्ट चीता २५-२५ तोले तथा पलाश (ढाक) १२५ / होते हैं एवं वेगावरोध -जनित क्षयका भय नहीं तोले लेकर सबको जलाकर क्षार बनावें । तदनन्तर | रहता। यह क्षार और लौंडी पीपल (बिनाकुटो), जवाखार (८७५८) क्षारपिप्पली (३) (वृहद्) तथा समुद्रलवण २५-२५ तोले लेकर सबको (व. से. । उदरा.) ८ सेर पानीमें मिलावें और उसमें ८ सेर गोमूत्र प्रशस्तेऽहनि नक्षत्रे वृक्षक लोधचित्रकम् । मिलाकर पकादें। जब पानी सूख जाय तो उतारकर वरुण शिग्रुमृलश्च वाटयालं चाय पुष्करम् ॥ सुरक्षित रक्खें। कन्दो विशाखापुष्पी च नथा ब्राह्मणयष्टिका । इसे घोके साथ सेवन करनेसे यकृत , प्लीहा, | पृथक्पश्च पलान्येषां पलाशात्पञ्चविंशतिः ।। घातष्ठीला, और त्रिदोषज गुल्मका नाश होता है । | क्षारं कृत्वा पचेद्वारि गोमूत्राढकयोस्तथा। सर्व विपाच्य सक्षारा समुस्ताऽनलपिप्पली॥ (८७५७) क्षारपिप्पली (२) पृथक्पञ्च पलै गैः पिप्पलीघृतमदिता। (व. से. । स्वरभेदा.) यकृत्प्लीहहरा श्रेष्ठा वाताष्ठीलामगुल्मनुत् ॥ तित्रस्तिस्रस्तु पूर्वाहे मुक्ताग्रे भोजनस्य च ।। सफेद कुडेकी छाल, लोध, चीता, बरनेकी पिप्पल्यः किंशुकक्षार राविता घृतभर्जिताः॥ छाल, सहजनेकी जड़की छाल, पीले फूलकी खरैटी, प्रयोज्या मधुसम्मिश्रा रसायनगुणैषिणा । पोखरमूल, सूरण, पुनर्नवा, शंखपुष्पी और भरंगी जेतुं कासक्षयचासहिकाशोषगलामयान् ॥ २५-२५ तोले तथा पलाश (ढाक) का काष्ठ अर्शीसि ग्रहणीदोषं पाण्डुतां विषमज्वरान् । १२५ तोले लेकर सबको जलाकर क्षार बनावें। वैस्वयंपीनसं शोफ गुल्मं वातवलासकम् ॥ तदनन्तर इसमें ८-८ सेर पानी और गोमूत्र मासमेवानतो युक्त्या माविकां पिबतोऽनु च। मिलाकर उसमें २५-२५ तोले जवाखार, नागरअवधारितगस्य यक्ष्मा न भवति ध्रुवम् ॥ मोथा, और चीता; इनका चूर्ण तथा २५ तोले ___ लौंडी पीपर को पलाश (ढाक) के क्षारजल (बिना कुटो) पिप्पली मिलाकर पकावें । जब की भावना देकर धीमें भूनकर रखें। पानी सूख जाए तो पिप्पली को निकाल कर घी इनमें से प्रतिदिन ३० पीपल प्रातःकालके में मसल लें। भोजनके पूर्व शहदके साथ खाकर ऊपरसे माध्वी इसके सेवनसे यकृत, प्लीहा, वातष्ठीला, आम सुरा पीनी चाहिये। | और गुल्मका नाश होता है। For Private And Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मिश्रमकरणम् ] (८७५९) क्षारपिप्पलीयोग: ( यो. र. । यकृद्रोगा. ; बृ. नि. र. । उदरा. ) पलाशक्षा रतोयेन पिप्पली परिभाविता । गुल्मलीहार्तिशमनी हिदीप्तिकरी मता ॥ लौंडी पीपरों को पलाश (ढाक) के क्षार की भावना देकर रक्खे | (८७६०) क्षारवर्ग: ( रसे. सा. सं . ) ये पीपर गुल्म और प्लीहा का नाश तथा अग्नि वृद्धि करती हैं । स्वर्जिकाटङ्कणञ्चैव यवक्षार उदाहृतः ॥ www. kobatirth.org पञ्चमो भागः सज्जीखार, सुहागा और जवाखार के समूहको क्षारवर्ग कहते हैं । (८७६१) क्षारसूत्रम् (१) ( वृ. यो त । त ६९ वृ. मा. व. च. द. । अर्शी. ५ ) से. भावितं रजनीचूर्ण स्नुही क्षीरैः पुनः पुनः । बन्धनात्सुदृढं सूत्रं छिनन्यर्शोभगन्दरम् || (८७६३) क्षारागदः ( सुश्रुत सं. । कल्प अ. ७ ) धवाश्वकर्णेति निशपलाश पिचुमर्दपाटलिपारिभद्रकाम्रो दुम्बरकरहाटकार्जुन ककुभ सर्जकपीत श्लेष्माकाङ्कोठामलकप्रग्रह कुटजशमीकपित्थाश्मन्त कार्क चिरबिल्व महावृक्षारुष्करारलुमधु शिशाकगोजी सूर्यातिल्ब के क्षुरगोपघोण्टारिमेदानां भस्मान्याहृत्य गवां मूत्रेण क्षारकल्पेन परिस्राव्य विपचेद्दद्याच्चात्र पिष्पलीमूलतण्डुलीयकवराङ्गचोच क्रमनिष्ठाकर जिकाहस्तिपिप्पलीमरिचोत्पलसारिवाविडङ्गगृह यह डोरा बांधने से अर्शके मस्सोका तथा धूमानन्तासोमसरलावाढीकगुहाकोशाम्र श्वेत भगन्दरका नाश होता है । सर्षपवरुणलवणप्लक्षनिचुलकवर्द्धमानवज्जुल ; हल्दीके चूर्णको सेहुंड (थूहर) के दूधकी अनेक भावनाएं देकर उसे डोरे पर लपेटकर सुखा लें । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४७ (८७६२) क्षारसूत्रम् (२) ( व. से. । अर्शो.) स्नुहीकाण्डगते क्षीरे भल्लातकसमन्विते । ज्योतिष्म त्रिफलादन्ती कोशातक्यऽग्निसैन्धवैः ॥ चूर्णैरेतैः समधृतैः बन्धयेत्सूत्रकं दृढम् । मूत्रं तत्पातयेदर्श: छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ भिलावा, मालकंगनी, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, कड़वी तोरीके बीन, चीता और सेंधा नमक समान भाग लेकर १र्ण बनायें और उसे स्नुही (सेंड) के दूध में घोटकर उसमें सूतके डोरे को भिगोकर सुखा लें | इस डोरेको घी लगाकर अर्शके मस्सों पर बांध देनेसे मस्से गिर जाते हैं । For Private And Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [क्षकारादि पुत्रश्रेणीसप्तपर्णदण्डकैलवालुकनागदन्त्य तवि- जलबेत, अरण्डमूल, वजुल (अशोक), पुत्रश्रेणी पामयाभदारुकुष्ठहरिद्रावचाचूर्णानि लोहा. (कृष्णदन्ती), सातविन, दण्डक (शर), एलवालक, नाश्च समभागानि ततः क्षारवदागतपाकमव- नागदन्ती, अतीस, हरी, देवदारु, कूठ, हल्दी और सार्या लोहकुम्भे निदध्यात् । बच; इनका चूर्ण तथा लोह चूर्ण (भस्म) समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर उपरोक्त क्षारमें अनेन दुन्दुभि लिम्पेत् पताका तोरणानि च । मिलावें एवं शुष्क हो जाने पर उसे उतार कर श्रवणादर्शनात्स्पर्शाद्विपात्सम्पति मुच्यते ॥ । लोहपात्रमें भर कर रख दें। एष क्षारागदो नाम शर्करास्वश्मरीषु च। दुन्दुभि, पताको, तोरण आदि पर इस क्षारका अर्शःसु वातगुल्मेषु कासशूलोदरेषु च ॥ लेप करना चाहिये। इस क्षारसे लिप्त बाजोंका अजीर्णे ग्रहणीदोषे भक्तद्वेषे च दारुणे।। शब्द सुनने और पताका तोरण आदिको देखने शोफे सर्वसरे चापि देयः श्वासे च दारुणे॥ | तथा स्पर्श करने आदिसे विषका प्रभाव नष्ट हो एष सर्वविषार्तानां सर्वथैवोपयुज्यते । जाता है। तथा तक्षकमुख्यानामयं दङ्गिशोऽगदः ॥ यह अगद, शर्करा, अश्मरी, अर्श, वातगुल्म, कास, शूल, उदर रोग, अजीर्ण, ग्रहणी दोष, अरुचि, धव, अश्वकर्ण, तिनिश, पलाश, नीम, पाढल, शोथ, सर्वसर, श्वास और सर्प-विष आदिको नष्ट पारिभद्र (फरहद), आम, गूलर, अकरकरा, अर्जुन, करता है। ककुभ (अर्जुन), सर्ज (गल), कपोतन (सिरस), (८७६४) क्षाराम्बुयोगः लहसोड़ा, अंकोट, आमलो, छोटा अमलतास, (यो. र. । शूला. ; वृ. यो. त.। न. ९४) कुड़ा, शमीवृक्ष, कैथ, अमन्तक (पाषाणभेद), | क्षारोदकं पिबेदुष्णं पिप्पलीलवणान्वितम् । आक, करञ्ज, सेहुण्ड (थूहर), भिलावा, अरलु, मुलैठी, वातश्लेष्मोद्भवं शूलं कुक्षिशूलं च नाशयेत् ।। सेहजना, शाक वृक्ष, गोजी (गोजिह्वा), मूर्वा, लोध, | क्षार (जवाखारके) (५ तोले) पानीको उष्ण तालमखाना, गोपघोंटा और रिमेद (दुर्गन्धित करके उसमें पीपल और सेंधा नमकका (१-१ माशा) खैर); इनके काष्ठोंकी भस्म समान भाग लेकर चूर्ण मिलाकर पीनेसे वातकफज शूल और कुक्षिसबको (४ गुने) गोमूत्र में मिलाकर क्षार बनानेको शूलका नाश होता है। विधिसे वस्त्रसे छानलें और फिर उसे पकाकर गाढा (८७६५) क्षाराष्टकम् करें तथा पीपलामूल, चौलाई, दालचीनी, लौंग, (वृ. नि. र । हृद्रोगा. ; वै. र.। गुल्मा. ; भा. मजीठ, करंज, गजपीपल, काली मिर्च, नीलोत्पल, प्र. म. खं. २ गुल्मा.) सारिवा, बायबिडङ्ग, घरका धुंवा, सोमलता, निसोत, | पलाशवजशिखरीचिश्चार्कतिलनालजः। केसर, शालपर्णी, कोशान (जंगली आम), सफेद | यावकः स्वर्जिका चेति क्षाराश्चाष्टौ प्रकीर्तिताः। सरसों, बरना, सेंधा नगक, पिलखन की छाल, । गुल्मशूलहराः क्षारा अजीर्णस्य च पाचनाः ।। For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ६४९ पलाश (ढाक)का क्षार, थूहरका क्षार, अपा- दोषानुसार औषधियोंके साथ पकाया हुवा मार्गका क्षार, इमलीका क्षार, आकका क्षार, तिल- | दूध जीर्ण ज्वर में उत्तम औषधका काम करता है। नालका क्षार, जवाखार और सज्जीखार; इस क्षार- (८७६९) क्षीरयोगः (३) समूहको "क्षाराष्टक" कहते हैं । (ग. नि. | ज्वरा. १) ये क्षार गुल्म, शूल और अ.र्णिको नष्ट | जीर्णज्वरे कफे क्षीणे क्षीरं स्यादमृतोपमम् । करते हैं। | तदेव तरुणे पीतं विषवद्धन्ति मानवम् ॥ (८७६६) क्षीरगण्डूषः कृशोऽल्पदोषो दीनश्च नरो जीर्णज्वरान्वितः। (व. से. । तृषा. ; वृ. नि. र. । तृषा.) पिपासातः सदाहो वा पयसा स मुखी भवेत् ।। क्षीणकफ जीर्ण ज्वरमें दूध अमृतके समान क्षीरेक्षुरसमाकक्षौद्रसीधुगुडोदकैः ।। गुणकारी है। परन्तु वही तरुण ज्वरमें विषके समान वृक्षाम्लाम्लैश्च गण्डूषास्तालुशोषप्रणाशनाः ॥ | मारक है। दूध, ईखका रस, मुनक्काका क्वाथ, शहद, । यदि दोष अल्प हों और पिपासा दाहादि सीधु और गुड़का शरबत समान भाग लेकर सबको अधिक हों तो जीर्ण ज्वरके कृश रोगीको दूध एकत्र मिलाकर वृक्षाम्ल (इमली)से खट्टा करें। | पिलानेसे लाभ होता है। इससे गण्डूष (कुल्ले) करनेसे तालुशोव नष्ट (८७७०) क्षीरयोगः (४) . होता है। (ग. नि. । वाजीकरणा.) (८७६७) शीरयोगः (१) | गृष्टीनां वृद्धवत्सानां माषचूर्णभृतां गवाम् । (ग. नि. । पाण्ड्डा. ८) | यत्क्षीरं तत्पशंसन्ति बलकामेषु जन्तुषु ।। लोहपात्रे शृतं क्षीरं सप्ताहं पथ्यभोजनः। । बड़े बछड़ेवाली प्रथम बारकी ब्याही हुई पिबेत् पाण्डामयी शोफी ग्रहणीदोषपीडितः॥ गायको चारेके साथ उड़दका आटा खिलाया जाय लोह-पात्रमें पकाया हुवा दूध एक सप्ताह तक तो उसका दूध अत्यन्त बलकारक हो जाता है। पीने और पथ्याहार करमेसे पाण्डु, शोथ और (८७७१) क्षीरयोगः (५) ग्रहणी विकारमें लाभ होता है। - (ग. नि. । उदरा. ३२) (८७६८) क्षीरयोगः (२) क्षीरं पित्तोदरं हन्ति पीतमुष्णं यथावलम् ॥ (ग. नि. । ज्वरा. १) ___बलानुसार उष्ण दूध पीनेसे पित्तोदर नष्ट यथादोषप्रशमनैरौषधैः साधितं पयः। होता है। सर्वज्वराणां जीर्णानां प्रोक्तं भैषज्यमुत्तमम् ॥ (अन्य खान पान बन्द रखना चाहिये।) For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्षकारादि (८७७२) क्षीरयोगः (६) क्षौद्रेण युक्तः कवलग्रहोऽयं (ग. नि. । अतिसारा. २; वृ. मा. । अतिसारा.)। समयान्वक्त्रगतानिहन्ति ।। यथाऽमृतं तथा क्षीरमतीसारेषु पूजितम् । कटेली, गिलोय, चमेलीकी कोंपल, दारुहल्दी चिरोत्थितेषु तत्पेयमपां भागैस्त्रिभिः शृतम् ।। | जवासा और त्रिफला समान भाग लेकर क्वाथ १ भाग गायके दूधमें ३ भाग पानी मिलाकर | बनावें। मन्दाग्नि पर पानी जलने तक पकावें। इसमें शहद मिलाकर कवल धारण करने यह दूध पुराने अतिसारमें अमृतके समान (कुल्ले करने ) से समस्त मुखरोग नष्ट होते हैं। गुणकारी है। (८७७६) क्षौद्रार्द्धभागघृतम् (८७७३-७४) क्षीरयोगः (७-८) (यो. र. ; व. से.। मूत्राघाता.) (ग. नि. | ज्वरा. १; रा. मा. । ज्वरा. २०) | क्षौद्रार्धभागः कर्तव्यो भागः स्यात्क्षीरसर्पिषोः। यः पिप्पलीमूलविमिश्रिताज्य शर्करायाश्च चूर्ण च द्राक्षाचूर्ण च तत्समम् ।। मध्वन्वितं सुक्वथितं च गव्यम् । स्वयंगुप्ताफलं चैव तथैवेक्षुरकस्य च । पयः पिबत्याशु विनाशमेतौ पिप्पलीनां तथा चूर्ण समभागं प्रदापयेत् ॥ हृद्रोगकासौ विषमज्वराश्च ॥ तदेकत्र मेलयित्वा खल्षेनोन्मध्य च क्षणम् । गव्यं पयो गोमयसारवारि | तस्य पाणितलं चूर्ण लिहेक्षीरं ततः पिबेत ॥ मिश्रं प्रदेयं विषमज्वरातौं । एतत्सर्पिः प्रयुधानः शुद्धदेहो नरः सदा । आज कदाचिन्ममृणप्रमृष्ट शुक्रदोषान येत्सर्वानेवापि भृशदुर्जयान् ॥ विश्वौषधोपेतमिम निहन्ति ।। जयेच्छोणितदोषांश्च पन्ध्यास्त्री गर्भमाप्नुयात्।। गायके पकाये हुवे दूधमें पीपलामूलका चूर्ण, | शहद आधा भाग, दूध १ भाग, घी १ भाग घी और शहद मिलाकर पोनेसे हृद्रोग, कास और | तथा खांड, द्राक्ष (किशमिश )का चूर्ण ( पिट्ठी), विषम ज्वरका नाश होता है। कौंचके बीजोंका चूर्ण, तालमखानेका चूर्ण और गायके अथवा बकरीके दूधमें गायके गोबरका | पीपलका चूर्ण १-१ भाग लेकर सबको एकत्र रस और सोंठका बारीक चूर्ण मिलाकर पीनेसे विषम मिलाकर मथनीसे मथें। ज्चरका नाश होता है। इसमेंसे १ तोला खाकर ऊपरसे दूध पोना (८७७५) क्षुद्रादिकवलग्रहः चाहिये । देहशुद्धिके पश्चात् इसे सेवन करनेसे (वा. भ. । उ. अ. २२) दुर्जय शुक्रदोष भी नष्ट हो जाते हैं । यह रक्तक्षुद्रागुडूची सुमनः प्रवाला दोषोंको भी नष्ट करता है एवं इसके सेवनसे दावीयवासत्रिफलाकषायः । वंध्याको पुत्र प्राप्त होता है। इति क्षकारादिमिश्र-प्रकरणम् D400 For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् पश्मो भागः - - - अथ ज्ञकारादिरसप्रकरणम् (८७७७) ज्ञानोदयरसः भांग १६ भाग, जायफल ४ भाग, रससिंदूर ( वै. र. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) १ भाग और खांड २१ भाग लेकर सबको एकत्र कलावेदार चन्द्रांशैः सर्वांशसितया युतैः। शक्रासनरजोजातीफलशुक्रैः सुमेलितैः॥ खरल करके रक्खें। मानोदयो भवेदेष साधकानन्दसिद्धिदः । सेवितः सात्म्यतो ग्राही जलदोषापनोदनः ।। ___ यह रस ग्राही, जलदोष नाशक, वातकफज वातश्लेष्मामयध्वंसी ज्वरातीसारनासनः ॥ रोगेको नष्ट करने वाला और ज्वरातिसार नाशक है। इति सकारादिरसप्रकरणम् For Private And Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Y याद रखिये देशी औषधोंका विशाल भंडार देशी औषधोंका वि ऊँझा आयुर्वेदिक फार्मेसी, अहमदाबाद ४० वर्षकी पुरानी संस्था है। अनेकों मेडल प्राप्त हैं। कई ब्रांचें हैं और देश केकोने कोनेमें एजेंसियां हैं। अपनेसे पुरानी फामसियोंसे भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। हर प्रकारकी देशी औषधों के लिये ऊँझा आयुर्वेदिक फार्मेसी, अहमदाबाद याद रखिये माल नापसन्द हो तो वापस लिया जाता है For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - GIZISIZSI252525252525252525252TITIO भारत-भैषज्य-रत्नाकर परिशिष्ट OSEसकसकस जससससससससससससार] चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी राजसमन ૧e For Private And Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर पांचवां भाग चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी (१) अग्निमान्याजीर्णविसूचिकाधिकारः नम्बर. नाम. प्रयोग संक्षिप्त गुण. ७८६९ सैन्धवादिचूर्णम् अग्निदीपक कषाय-प्रकरणम् | ७८७४ सैन्धवाचं, अग्निदीपक ७२७७ श्वेतपर्णासमूल अजीर्णको शीघ्र नष्ट क- ७८७५ , , अग्निको शीघ्र दीप्त योगः करता है। करता है। चूर्ण-प्रकरणम् | ७८८३ सौवर्चलाय, अग्निमांग ७२८८ शतपुष्पादि चूर्णम् भग्निसंदीपक ८४६९ हरीतक्यादि, अग्निवर्द्धक ७३११ शुण्ठ्यादि , क्षुधावक । सरल योग ८४७४ , , प्रवृद्ध अजीर्ण, धूमोद्दार ७३१७ , , अजीर्ण ८४७५ , , अजीर्ण ७३१८ , योगः , मलावरोध ८४७९ , रसायन अग्निदीपक । रसायन ७३१९ शुण्ठ्याचं चूर्ण अमिमान्य ८४८३ हिगुद्वादशकं अरुचि, अजीर्ण ७८४२ सिंहचूर्णम् ८४८७ हिङ्ग्वष्टकं , अग्निवर्द्धक, वातरोग७८४३ , , नाशक ७८४५ सिंहराज,चूर्णम् अजीर्ण, विपूचिका, प्लीहा ८४८८ हिङ्ग्यादि , अफारा, मलावरोध, ___ नाशक, अग्निदीपक अग्निमांध, अरुचि ७८४८ हरिद्रादिक्षारः अग्निवर्द्धक ८४९२ हिंग्वादि , विचिका, अफारा, ७८६७ सैन्धवादिपूर्णम् अग्निदीपक, रोचक, शूल, मलावरोध पार्श्वभूलनाशक " For Private And Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५६ भारत-भेषज्य-रत्नाकरः अग्निमांद्य 332 ७५५१ ," | ७५५२ , , • गुटिका-प्रकरणम् ७५५० शंखवटी अत्यन्त पाचक ७३४० शुण्ठ्यादिगुटी अग्निमांध अजीर्ण, शूल, विसूचिका ७९०७ सैन्धवादिगुटि० अत्यन्त पाचक . अजीर्ण, शूल, आम, अग्निमांद्य अवलेह-प्रकरणम् ७५५३ अजीर्ण, विसूची, शूल, ८७२१ क्षारगुडः अजीर्ण, अग्निमांद्य, शो अफारा , थादि अनेक रोग ७५५४ ,, ,, (महा) भस्मक, अग्निमांद्य, शूलादि अनेकरोग लेप-प्रकरणम् ७५५५ ,,, अजीर्ण, शूल, विषूचिका ८५७५ हिङग्वादिलेपः अजीर्ण ७५५६ ,, ,, (महा) अत्यन्त पाचक, दीपन ७५७४ शम्भुरसः अग्निमांद्य, अजीर्ण अञ्जन-प्रकरणम् ८१२५ संजीवनीवटी अजीर्ण, गुल्म । विपू. ७५०९ शिवावर्तिः विषूचिकाके वेगको शीघ्र चिकामें अत्यन्त गुणकारी शान्त करती है। ८१७५ सर्वरोगान्तकवटी अग्निमांद्य ८२३२ सुकुमारमोदकः वातज अजीर्ण, उदावर्त, रस-प्रकरणम् आनाह । विष्ठम्भको पर७५३२ शंखद्रावकः अग्निवर्धक मौषध ७५३३ शंखदावः अजीर्ण, गुल्म, अग्नि ८२७९ सूर्यप्रभा गु० अग्नि दीपक मांच, प्लीहादि, यकृत् ८३२३ स्वयमग्निरसः समस्त प्रकारके अजीर्ण । शूलादि. ८६५१ हुताशन रसः अग्निमांद्य, शिरकी जडता, ७५३४ शंखद्रायः अजीर्ण, शूलादि गुल्म ८६५२ हुताशन रसः अग्निवर्द्धक, कफनाशक ७५३८ , " अजीर्ण, ऊर्बवायु, ८६५३ , , अग्निमांध, अजीर्ण, अग्निमांद्यादि शूलादि । ७५४० शंखद्रावको रस आहारको तुरन्त पचा | ८७४६ क्षारयोगः भोजन के बाद खानेसे १ पहरमें पुनः भूख लग ७५४८ शंखवटी अजीर्ण, शूल, विसू आती है। चिका, अलसक ८७४९ क्षुद्बोधक रसः क्षुधावर्द्धक ७५४९ ,, शूल, अजीर्ण,अग्निमांध, माघ, ८७५३ क्षुधासागरो रसः , , अरुचि देता है For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निमांद्य] पञ्चमो भागः (चि.प.प्र.) -- ५५७ मिश्र-प्रकरणम् | ७७२४ शीताम्बु योगः विदग्धाजीर्ण ७७१२ शार्दूलकाजिक अजीर्ण, शूलादि अनेक ८६८८ हरीतकी योगः अजीर्ण. (मसालेकी हर रोग witter (२) अतिसाराधिकारः कषाय-प्रकरणम् ७१८८ शतावरीकल्कः रक्तातिसार । सरल चूर्ण-प्रकरणम् योग ७२८७ शतपुष्पादि चूर्णम् समस्त अतिसार ७२१६ शाल्मलीमूलकल्कः दाहयुक्त रक्तातिसार, ७२९८ शल्लकी वचादियो० रक्तातिसार शोष ७३१० शुण्ठ्यादिचूर्णम् आमातिसार ७२४२ शुण्ठ्यादिक्वाथः पित्तातिसार ७३१६ , , , शूल ७२६२ शोथन्यादिक्वाधः शोथातिसार ७३२१ शुण्याचं , उग्र अतिसार ७८२५ समङ्गादि , पित्तातिसार और शूल १७७५ समङ्गादिक्वाथः समस्त अतिसार को शीघ्र नष्ट करता है ७७७६ , , कफपित्तातिसार, ७८२७ समझादियोगरक्तातिसार चतुष्टयम् पित्तातिसार ८४२१ हरिद्रादिगणः आमातिसार.दोषपाचक ७८३८ सिताञ्जनादिचूर्णम् अतिसार, पित्तज्वर ८४३६ हिज्जलपत्रस्वरसः आमातिसार । ७८५३ सुवर्चलादि चूर्णम् वातातिसार ८४४० हीवेरादि क्वाथः रक्तातिसार, आम, ७८८१ सौवर्चलादि चूर्णम् आमातिसार, शूल । पीडा, मलावरोध, पित्त ग्राही, पाचक ८.४ ४१ , , रक्तातिसार, पिच्छाति- ८४६३ हरीतक्यादि , आमातिसार । ग्राही, सार, मलावरोध, आम, दीपक शूल, ज्वरातिसार ८५०८ हिंग्वादियोगः भनातिसार ८:४३ , आमातिसार, तृषा ८.४४४ , पुराना अतिसार, आम, गुटिका-प्रकरणम् शूल, रक्तस्राव, अरुचि, ७८९७ सर्वोतिसारहारिणी गुटिका समस्त अतिसार ज्वर For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकर [अतिसार अवलेह-प्रकरणम् । ८२४२ सुधासार रसः अन्य किसी औषध से ७९२८ समङ्गाद्यवलेहः रक्तातिसार आराम न होने वाले अति सारको भी नष्ट करता घृत-प्रकरणम् है । आम, आमरक्त, ७७५३ षडङ्गघृतम् भयंकर त्रिदोषज अतिसा- । आनाह, हिक्का, अरुचि, रको शीघ्र नष्ट करता है आदिको २-३ मात्रामें ७९६० सुनिषण्णकचा नष्ट करता है। ड्रेरी घृतम् त्रिदोषज अतिसार, र- ८३१६ स्वच्छन्द भैरव क्तस्राव, प्रवाहिका, पि- रसः समस्त घोर अतिसार, च्छातिसार, गुदभ्रंश, आम, अग्निमांद्य । शोथ, शूल, अन्नग्रह ८६३२ हिंगुलेश्वर रसः अतिसार, प्रवाहिका, प्र८५३७ हीवेरादिघृतम् अतिसार, प्रवाहिका, पि हणी, अग्निमांद्य च्छातिसार, गुदभ्रंश, शूल . ८६७७ हंसपोटली रसः अतिसार, कास, हिक्का, ८७२१ क्षीरिद्रुमाचं निर्बलता, ग्रहणी घृतम् रक्तातिसार मिश्र-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ७७१३ शालिपर्यादिपेया कफपित्तातिसार ७५४३ शंखपोटलीरसः आमातिसार, प्रवाहिका, ७७१४ शालिपादि अतिसार, कास, श्वास, योगः अतिसार निर्बलता, अग्निमांध ७७२६ शुण्ठिपुटपाकः सोपद्रव जीर्णातिसार ७५६१ शंखोदर रसः समस्त प्रकारके अति- ७७२९ शुण्ट्यादि - सारों में उत्तम । पुटपाकः आमातिसार, (अग्निदीपक) ७६२३ शीघ्रप्रभावरसः अतिसार, वायु, आध्मान, ७७३० , ,, शूल नाशक (दीपन) मल यागके पश्चात् भी ! ७७३४ श्योनाकादियोगः पश्वातिसार हाजत बनी रहना । ८७७२ क्षीर योगः पुराना अतिसार For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपस्मारोन्माद] पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) ५५६ - (३) अपस्मारोन्मादाधिकारः कपाय-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ७१९१ शतावरी योग: अपस्मार ७४११ शिग्रुतैलम् अपम्मार चूर्ण-प्रकरणम् ७८३७ सारस्वत चूर्णम् उन्माद नाशक । तुद्धि, __ स्मृति, मेधा वर्द्धक आसवारिष्ट-प्रकरणम् ८०१९ सारस्वतारिष्टः स्मृतिवर्द्धक, वाणशाधक अञ्जन-प्रकरणम् ७५०७ शिरीषाद्यञ्जनम् उन्माद ८०८३ सञ्ज्ञाप्रबोधनरसः अपस्मार घृत-प्रकरणम् ७३५७ शङ्कपुष्प्याय घृतम् अपस्मार, उन्माद ७९५१ सारस्वतघृतम् उन्मादनाशक मेवा, स्मृति और आयु वर्द्धक । ७९५२ सारस्वतवृतम् अत्यन्त स्मृतिवर्द्धक ७९६१ सूर्योदयधृतम् अपस्मार, घोर उन्माद, दाह, विष, भूतापशाच वाया। ७९६२ मैंन्धववृतम अपस्मार, ग्रहदोष ७९६३ सोम घृतम् अत्यन्तस्मृतिवर्द्धक ८५३२ हिग्वादि घृतम् उन्माद ८५३३ , , देवपहजनित उन्माद रस प्रकरणम् ८१५३ समीरगजकेसरी रसः अपस्मारमें उत्तम १८७ सागसन्दरग्सः अपस्मार वातव्यापि शूल ८२५८ सूतभस्मयोगः अपस्मार ८३१३ स्मृतिसागर ग्यः ८३७ अपस्मार, उन्माद, चित्त. भ्रम, भूतबाधा। (४) अम्लपित्ताधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् अवलेह-प्रकरणम ७८२९ समसप्तकं चू, अम्लपित्त, अरुचि.अब ७३५३ शुण्ठीखण्डः आलपित, शूल, वमन साद, परिणामशूल घृत-प्रकरणम् ८४५९ हरीतक्यादि ,, कण्ठकी दाह, पित्त, कफ ७३६९ शतावरी तम् अम्लपित्त, तुषा, मर्जी ८५११ हिंग्वादियोगः अग्लपित्त संताप १०२ For Private And Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६०. भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ अम्लपित्त तैल-प्रकरणम् । ८२६१ सूतशेखर रसः अम्लपित्त, वमन, अति७४२८ श्रीबिल्वतैलम् अम्लपित्त, शूल, दाह, सार, उदावर्त. 1. ज्वर आदि ८२७८ मूर्य पाकताम्रम् अम्लपित्त, पाण्डु, वमन, स्वा मोदकः रस-प्रकरणम् १५४६ शंखभरम शुल, अम्लपित्त,अग्निमांद्य ८३०३ सौभाग्यशुंठि - ७५५२ शंखवटी अम्लपित्त, शल, अजीर्ण. अम्लपित्त, शूल, कण्ठदाह, ७५५७ शंखादिचणम् , हृदाह, गुदपीड़ा " " । ७५६७ शतावरी ८७५० क्षुधावतीगु. ___ अम्लपित्त, शूल, आमण्डूरम् दारुण अम्लपित्त, वमन, नाहादि शूल, कास ८७५१ ,, , ,, अम्लपित्त, परिणाम शूल, ८१७३ सर्वतोभद्रलौहः सर्व उपद्रव युक्त अम्ल. भस्मक पित्त, शूल, आम, शोथ, | ८७५२ ,, ,, , अनेक प्रकारका अम्लवायु आदि पित्त, शोथ, गुदरोग, ८२१६ सितामण्डूरम् असाध्य अम्लपित्त,तजन्य आनाहादि। शूल, वमन, दाह, अफारा, पित्तज रुधिर विकार (५) अरोचकाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ७७४३ षाडवं चूर्णम् रोचक, हृद्य ! कास तथा ८२३७ सुधानिधिरसः सर्व प्रकारकी अरुचि, __ग्रहणी नाशक भक्तद्वेष,शूल, अग्निमांद्यादि ७८३७ सैन्धवादि चू०. अरुचि, अग्निमांद्य ८४८३ हङ्गुद्वादशकं ८२४८ सुलोचनाभ्रम् समस्त अरुचि, कास, चूर्णम् अरुचि, अजीर्ण श्वासादि ८४८८ हिड्वादि चू० अरुचि, अफारा, मला वरोध ८२५९ सूतभस्मयोगः अरुचि गुटिका-प्रकरणम् ८२६० सूतादिगुटिका अचि नाशक, जिहा शोधक ७९०० सितादिगुटिका अरुचि P For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अर्बुद ] ७४४३ शंखादिलेप: ७४५४ शरपुंखायोगः लेपप्रकरणम् " कषाय-प्रकरणम् ७८३९ सितासितादि चूर्णम् ७८४४ सिंहनपुरी, ७८६० सूरणादि ७८६२ 19 ७२२६ शिरीषमूलादि. कल्कः रक्तार्श ७७७८ समंगादिक्षीरम् रक्तार्शके रक्तको बन्द करता है ७८१२ सूरणपुटपाकः अर्श ८४१५ हरिद्रादिकषायः पित्तज और रक्तज अर्श चूर्ण-प्रकरणम् कफज अर्बुद अर्बुद, अपची 39 योगः ७८६३ " ७८६४ सूरणायं चू० ७८७० सैन्धवादिप्रति सारणम् www. kobatirth.org पञ्चमो भागः ( चि. प. प्र. ) (६) अर्बुदाधिकारः 99 (७) अर्शोधिकारः वातकफज अश अर्श, अफारा, वायु अर्शनाशक | सरलयोग अर्श वातविकार " शूल, कृमि, अग्निमांद्य कान, गला, नाभि, नासा, लिंग और गुदा के मस्से | ८४५५ हरीतकीयोगः अनुलोमन, मलसारक, अग्निवर्द्धक, अनाशक ७४६२ शिग्रुमूलादिलेपः अर्बुदादि ८०७६ स्वर्जिकादिलेपः अर्बुद, ग्रन्थि मेदन अर्बुद ८५६० हरिद्रादि ७९०४ ८५१६ हुताशनं चूर्णम् अर्श के मस्सोंको नष्ट करता है । पाचक, रेचक, रोचक, दीपक ७९०५ ७९०६ गुटिका-प्रकरणम् ७९०३ सूरणमोदकः अर्श, अतिसार, वायु, गुल, अग्निमांद्य, । बल वर्द्धक, बालकों और वृद्धों. के लिये विशेष उपयोगी । "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21 79 19 For Private And Personal Use Only " 11 ८७१६ क्षारगुटिका ५६१ वटक: अर्श अर्श में अत्युपयोगी, अ त्यन्त अग्निवर्द्धक, श्वास, कास नाशक अर्शन..क, उत्तम अग्निवर्द्धक, वातकफज ग्रहणी तथा कासादि नाशक अर्श, श्वास, कास । पाचक अवलेह - प्रकरणम् ७९३९ सैन्धवाद्यवलेहः वातवर्चोनुलोमक सरल योग Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६२ . . भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ अर्श D ... - घृत-प्रकरणम् रस--प्रकरणम् अर्शमें अत्यन्त प्रभाव७३८२ शुण्ठीघृतम् अर्श, पाण्डु, ज्वर, अरुचि ७५२६ शंकरलोहः । शाली, अग्निवर्द्धक,शूलादि ७३८३ शुण्ठीधान्यक नाशक । (प्रतिज्ञा की घृतन् अर्श, वातकफज रोग, है कि चाहे सूर्य चन्द्र श्वास, कास स्थान भ्रष्ट हो जावें यह ७९०७ सुनिषण्णक प्रयोग निष्फल नहीं होगा) चांगेरीघृतम् अर्श, अतिसार, गुदभ्रंश, । ७५५४ शंखवटी (महा) अजीर्ण, अर्शादि । रक्तस्राव, शोथ, अग्नमांद्य १२, शिलागंधकयोगः अर्श नाशक, वायु अनु. ८५३७ होवेरादिघृ० अर्श, गुदभ्रंश, आध्मा लोमक नादिमें उत्तम ७६२० शिव रसः अर्श ७७६५ षडानन रसः लेप-प्रकरणम् ८१७६ सर्वलोकाश्रय रसः अर्श पाण्डु, ज्वर, ७४६७ शिरीषबीजादि अग्निमांद्य लेपः ८१७८ सर्वसुन्दर रसः वातार्श, कफार्श, द्वन्द्व . ७४६८ शिरीषवीजायं जार्श, ग्रहणी लेपत्रयम् अर्शनाशक, उत्तम सरल ८२२४ सिद्ध सावरयोगः त्रिदोषज अर्श ३ योग। ८०५४ सुवर्चिकायो मिश्र-प्रकरणम् ७ दिन में मस्सोंको नष्ट / ८४०० सूरणवतिः मस्से, गुदकृमि करता है। ८४०४ सोमल चूर्णयोग: बिना कष्ट तीनों बलियों ८०५८ सूरणादिलेपः प्रवृद्ध अर्शके मस्से । के मस्से नष्ट कर देता है। ८४०९ स्नुपत्र योगः अर्श, गुदकण्डू, कृमि ८०६२ सैन्धवादिलेपः अर्श ८६.१ हरिद्रावर्तिः अर्श ८०७२ स्नुहीक्षीरलेपः ८६८६ हरीतकी योगः कफज अर्श, शोथ, पाण्डु ८०७४ स्नुह्यादि , , ८७६१ क्षारसूत्रम् मस्सोंको काटता है। ८५६१ हरिद्रादिलेपः ८७६२ " " " " " For Private And Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir অহমৰিকাৰ } पश्चमो भागः (चि. प. प्र.) - - - - %3 (८) अश्मरिशर्कराधिकारः कषाय-प्रकरणम् ८४५१ हरिद्रादियोगः पुरानी मेढ़शर्कराको शीघ्र ७१९० शतावरीमूलयोगः शर्करा नष्ट करता है । सरल योग ७२०१ शतावर्यादिरसः पुरानी अश्मरी । सरल ८७०८ क्षारयोगः शर्करा योग ७२२० शिक्वाथः कफज अश्मरी शीघ्र नष्ट , होती है। घृत--प्रकरणम् ७२२२ शिग्रमूलादिक्का० अश्मरीपातक ७३७५ शरादिपञ्चमूल- अश्मरि, शुक्रमार्गकी ७२४० शुण्ठ्यादिक्वाथः वातज अश्मरी, गुद घृतम् पीड़ा तथा मेदूगतवायु ७२७४ श्वदंष्ट्रादिक्वाथः अश्मरी रस-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् । ७६०० शिलाजतुयोगः अश्मरी तथा तजन्य मूत्र७३२४ शृङ्गवेरादियोगः पथरी टूटकर शीघ्र नि कल जाती है । (९) आमवाताधिकारः कपाय-प्रकरणम् । ७९२३ सिंहनादगुग्गुलुः कष्टसाध्य आमवात, ७१७४ शठ्यादिकल्क: आमवातको ७ दिन में कास, श्वास, वातरक्तादि नष्ट क ८५२४ हरीतक्यादिगुग्गुलुः आमवात ७१.८२ शठ्यादिक्वाथः आमवात घृत-प्रकरणम् ७२४१ शुण्ठ्यादिश्चा० आमवात, कटिशूल, ७३८६ शृङ्गवेराचं घृतम् आमवात, उदररोग, शरीरपीड़ा कटिग्रह आदि ७३८७ , , आमवात, विबन्ध, शूल चूर्ण-प्रकरणम् ८५१४ हिङ्ग्याचं चूर्णम् आमवात तैल-प्रकरणम् . । ८००५ सैन्धवाद्यं तै० आमवात, पार्श्वशूल, गुग्गुलु-प्रकरणम् बाह्यायामादि आमवात, कटिशूल,, । ८००६ , , ७३४६ शिवागुग्गुलुः आमवात, बहुविध शूल गृध्रसी लेप-प्रकरणम् ७९२२ सिंहनादगुग्गुलुः आमवात । ७४४७ शतपुष्पादिलेपः आमवात For Private And Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ उदररोग - (१०) उदररोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ७२२३ शिग्रुमूलादिक्षारः सर्वोदर | ७९७४ स्नुक्क्षीरयोगः उदररोग, (विरेचक) ८४२८ हरीतक्यादिक्वा० शोथोदरके लिये श्रेष्ठ ७९७५ स्नुहीक्षीराचं घृ० उदररोग, गुदरोग, गुल्म ८४३० , योगः उदररोग, शोथ, दाह। ७९७६ स्नुही , , उद रोग, प्लीहा, कच्छप (सरल योग) चूर्ण-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ७८३५ सामुदायं चूर्णम् वातोदर, गुल्म, अजीर्ण | ७५३२ शंखद्रावकः उदररोग ७८८७ स्नुहीयोगः उदररोग | ७६०२ शिलाजतुयोगः पित्तोदर ७८९१ स्वर्जिक्षारादियोगः समस्त प्रकारके उदर | ७६४४ शुक्तिक्षारादियोगः प्लीहावृद्धि रोग ८४७७ हरातक्यादियोगः जलोदर ७६४५ , , , उदररोग ८५१० हिंग्वादियोगः उदररोग, गल्म, अ. ८२०७ सामुद्रशुक्तिक्षारा दियोगः समस्त उदररोग ष्ठीला, उदावर्त । गुटिका-प्रकरणम मिश्र-प्रकरणम् ७३३५ शठ्यादिगुटिका प्लीहा, गुल्म, अफारा ८६८५ हरीतकीयोगः उदररोग ८५२१ हरीतक्यादि व. समस्त उदररोग, यकृ. ८६८९ , , पित्तोदर टिका तके लिये विशेष | ८६९२ हरीतक्यादियोगः उदररोग, अष्ठीला, उपयोगी आनाहादि ८७१७ क्षारगुटिका जलोदर, मुखशोथ । ८७७१ क्षीरयोगः पित्तोदर (११) उदावर्ताध्मानाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् ८५१५ हिङ्ग्वाधं८४६४ हरीतक्यादिचूर्णम् उदावर्त द्विरुत्तरं चूर्णम् ८४८३ हिंगुद्वादशकं चू० आमान, शूल, अ आध्मान, गुल्म, उर्ध्व वायु रुचि आदि For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदावर्ताध्मान] पश्चमो भागः (चि. प. प्र.) ५६५ - धृत-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ७७३२ श्यामादिगणः उदावर्त, आनाह, उदर रोग ७३८४ शुष्कमूलाचं ७७३३ , वतिः उदावर्त घृतम् उदावतको अवश्य नष्ट करता है ८४०५ सौवर्चलादियो० मूत्रावरोध जनित उदर रोग ७९२२ स्थिराधं घृतम् वातावरोध, आनाह ८६९८ हिंग्वादिवर्तिः उदावर्त (१२) उपदंशाधिकारः गुटिका-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् ८०८२ सम्प्रसारिणीगुटिका फिरंगरोगको अवश्य ८०३० सर्जिकादिलेपः उपदंशबण, विसर्प ____ नष्ट कर देती है ८०३१ सर्जिकाद्य , मांसाङ्कुर अवलेह-प्रकरणम् ७९३२ सारिवाधवलेहः उपदंश, पारदविकार, -प्रकरणम् रक्तदोष, प्रमेह, प्रमेहपि- ८१४७ सप्तशालिवटी फिरंग रोग डिका, मूत्रकृच्छ । ८२६४ सूतादिवटी समस्त प्रकारका उपदंश (१३) कण्ठरोगाधिकारः घृत-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ७३८० शुङ्गाद्यवृतम् स्वरभंग ७९५२ सारस्वत , एतत्प्राशितमात्रेण किन्नरैः ८२११ सारस्वतरसः स्वरभंग सह गीयते । ८३०५ सौभाग्यसुन्दर टंकणरसः स्वरभेदादि तैल-प्रकरणम् | ८३२५ स्वरप्रसादको र० स्वरभेदमें उत्तम ७४३६ श्वेतादितैलम् कफज गलशुण्डिका (१४) कफरोगाधिकारः रस-प्रकरणम् । ७६८५ श्लेष्मकुठाररसः ७६८४ श्लेष्मकालानलोरसः समस्त कफरोग कफविकार For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५६६ कषाय-प्रकरणम् ७८१४ सौभाञ्जनस्वरसयोगः कर्णशूल ७४२१ शृङ्गवेरादि ७४२५ इयोनाक ७९९९ सैन्धवाद्य ८०१४ स्योनाक चूर्ण-प्रकरणम् ७८३० समुद्रफेनचूर्णम् कर्णस्राव, कर्णत्रण ७८३१ सर्जत्वक्चूर्णम् कर्णस्राव 35 17 तैल-प्रकरणम् ७४०५ शतावर्यादितैलम् कर्णेपालीको पुष्ट करता है ७४१७ शुष्कमूलार्थतैलम् कर्णशूल, बधिरता, कर्ण नाद, कर्णस्राव, कर्ण कृमि "" 33 www. kobatirth.org भारत (१५) कर्णरोगाधिकारः महाकषायः ७८०९ सिंहीकषायः ७८०३ सिंहचादिक्वाथः - भैषज्य रत्नाकरः कर्णपीड़ा त्रिदोषज कर्णशूल कषाय-प्रकरणम् ७१७६ शठयादिकषायः पित्तकास ७१८६ शतमूली क्वाथः खांसी, शूल ७२४४ शुण्ड्यादिक्वाथः श्वास ७२५५ शृङ्गवेररसयोगः ७२७५ श्वासहरो दशको स्मरत कर्णरोग त्रिदोषज कण को तुरन्त नष्ट करता है । कफ, प्रतिश्याय, कास ८०१५ स्वर्जिकाद्यं तै० कर्णनाद, कर्णशूल, बधि रता, कर्णस्रावको शीघ्र करता है । ८५४८ हिंग्वादि ८७३० क्षार तैलम् ८७३१ "" (१६) कासश्वासहिकाधिकारः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 29 99 रस-प्रकरण ८२१२ सारिवादिवटी समस्त कर्णरोग. क्षयादि 22 मिश्र-प्रकरणम् ८४१४ स्वर्जिकादियोगः कर्णस्राव, कर्णपीड़ा, दाह For Private And Personal Use Only [ कर्णरोग कर्णशूल कर्णशूल, कर्णनाद, बधि रता, कर्णस्राव, कर्णकृमि आदि ऊपरके समान ८४३२ हरेणुकादिक्वाथः पांच प्रकारकी हिचकी ८४३३ हिकानिग्रहण दशको महाकषायः ८७०४ क्षुद्रादि क्वाथः ८७०६ क्षुद्रारस योगः " हिचकी श्वास कास, श्वास चूर्ण-प्रकरणम् कास नाशक सरलयोग ७२८१ शय्यादि चूर्णम् श्वास और खांसी दवास ७२८२ दवास और हिचकी , क्षय (सरलयोग) " "" Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कास, श्वास, हिका ] ७२८६ शय्याचं चूर्णम् तमक स्वास, हिचकी ७२९७ शर्करासमं चूर्णम् श्वास, अरुचि, अग्नि मांध ७३१२ शुण्ठ्या द वातजकास ७३२२ शुण्ठ्या हिचकी ७३२६ शृङ्गचादि हिक्का, श्वास, कास ७३२७ ★ ७३२८ " ८५१९ 31 13 "" ૧૦૩ 29 " " " 37 भयंकर श्वास ८४४९ हरिद्रादि ८४९१ हिङ्गवादि कास, श्वास " घृत-प्रकरणम् खांसीको शीघ्र नष्ट करता है. ७३५६ टचाद्यं घृतम् कास, हिक्का, श्वास, उरः ७८५२ सुरसाध कास, हिक्का, मलाशूल, पार्श्वशूल वरोध, श्वास, पार्श्वगूल | ७९५६ सिंहामृतघृतम् कास, श्वास, ज्वर, ७८८२ सौवर्चलादि, श्वास, हृद्रोग, अपत न्त्रक " www. kobatirth.org गुटिका-प्रकरणम् ७३४३ स्वासकासनी वटी श्वास, कास ८५१८ हरीतक्यादि पञ्चमो भागः ( चि. प. प्र. ) ७९३४ सितादिह: घोर श्वास को ३ दिनमें ०८७२२ क्षुद्रावलेहः करता है गुटिका प्रवृद्ध, श्वास, कास, नाशक सरल योग । ७९३८ स्वर्णैगैरिकादि लेहः ८५२६ हरीतक्यवलेहः ,, कासनाशक, अग्निदीपक सरल योग । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७९६८ सौवर्चलादिघृतम् ७९७१ स्थिरावतम् ८५३५ हिंस्रादि ८५३६ हिंस्र द्य ८७२३ क्षार 19 19 For Private And Personal Use Only " भयंकर वास को शीघ्र करता है | सरल योग । हिक्कानाशक उत्तम योग । श्वास, कास, हिचकी, पीनस, एकाहिक ज्वर । दवास, कास, ती क्षय । ८७२७ श्रीरामलकघृतम् पित्तज कास ८७२८ क्षीरिघृतम् ५६७ श्वास कास, ज्वर, दाह, क्षत क्षय दवास, कास, अतिसार, अरुचि, अर्श " धूप-प्रकरणम् ७४८९ शरपुंखादि धूपः कास क्षय, श्वास, हिक्का कास, श्वास, हृद्रोग, पार्श्व पीड़ा 39 अग्नि अवलेह - प्रकरणम् ७३४७ राठयादिलेहः कफजकास ७३४९ शर्करादिलेहः पित्तजकास धूम्र-प्रकरणम् ७३५१ शिखिपिच्छलेहः प्रबल हिचकी, श्वास और ८५८० हरिद्रादिधूमः कासको अवश्य नष्ट क दुस्तर छर्दि रता है मांच 1 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [कास, श्वास, हिका ८५८१ हिग्यादि . : ५ प्रकारकी हिका को ७६९४ स्वादु ठारसः हर प्रकार का श्वास . नष्ट करता है ।। ७६९५ ,,, पश्चकास, कफ, श्वास और शिरोरोगों को नस्य-प्रकरणम् अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता है। ९५१३ शर्करादि नस्यम् हिका ७६९६ श्वा पहरवटकः श्वास, कास, ज्वर अग्नि८११८ सैंधवादि , मांद्य, अरुचि ८५९४ हिकाहरयोगः ७६९७ ३वासहेमाद्रि महारवास ७६९.८ वा सान्त कासः श्वास, कास, शूल, पांडु रस-प्रकरणम् ७६९९ श्वासारिरसः श्वासको शीघ्र नष्ट क७५२९ शंखचूलरसः मुमुधु की हिक्का भी तुरन्ता नष्ट होती है। । ८१५१ समशर्क लौहम् सर्वदोषज क्षयज कास, ७५८६ शिखिपिच्छभस्मयोगः प्रबलहिक्का, श्वास, श्वास, रक्तपित्त दुस्साध्यठर्दि ८१९६ सर्वेश्वर रसः कास, श्वास, क्षय ८२१३ सार्वभौमरसः कास श्वासादि ७६१३ शिलातालो रसः श्वास, कास ८२८३ सूर्य रसः कासादि ७६१५ शिलाद्यवलेहः कास, श्वास, हिक्का ८२८४ ,,, कास, श्वास, हिका ७६१६ ,, कास, उदास, कफ । ८२८८ सूर्यावर्त रसः स्वास ७६१७ शिलाातरसः हिक्का ८३२९ स्वर्णपर्पटीरसः कास, क्षय, मूत्राघात, ७६५० शुल्वतालेश्वरः कास, श्वास, पीनस, मूत्रकृच्छ ज्वरादि ८६१८ हरीतक्याबवलेहः कास, श्वास ७६६८ श्रृंगाराभ्रम् कास, हृच्छूल, पार्श्वशल, ८६२० हिक्कानाशनरस: हिक्का, कास, स्वरभेद शिरशूल, स्वरभेदादि ८६२१ हिक्कान्तक रसः १ मात्रासे भयंकर हिक्का ७६७८ श्रीडामगनन्दा- कास, ज्वर, स्वरभंग, नष्ट होती है। भ्रम् हिचकी, क्षय, कफ, दाह, ८६६३ हेमगर्भरसः कास, श्वास, शूल ८६६४ , , श्वास कासादि अनेक ७६९१ ३वासकालेश्वर पञ्च श्वास, कास, क्षय रोग ७६९२ श्वासगजकेसरिः श्वास, कास कास क्षयाद ७६९३ श्वासकासपिता ८८६७३ हेमादिपर्पटीरसः कास, श्वास मणिरस पीनस ८६६५ " " For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ, रक्तविकार. ] पश्चमो भागः (चि. प. प्र.) ५६९ - - - मिश्र-प्रकरणम् ७७११ शरादिक्षीरम् पित्तज कास ८६९० हरीतकोयोगः कास, श्वास ८६९३ हिसाहरणयोगः हिका नाशक सरल योग। ८६९५ हिंग्यादि यवागू हिक्का, श्वास (१७) कुष्ठ-वातरक्त-रक्तविकाराधिकारः काय-प्रकरणम् ८४५३ हरिद्रायं चूर्णम् दाद, कुष्ठ ७२०५ शम्पाकादिक्वायः सर्वाङ्गगत वातरक्त ८४५४ हरिद्रायद्वर्तनम् पामा आदि ७२३९ शुष्ठ्यादिक्वाथः कुष्ठ गुटिका-प्रकरणम् ७२५२ शुण्ठ्यादिमहाक० १८ प्रकारके कुष्ठ । ७३४४ स्वित्रहरीवटी ८ दिनमें श्वित्रको नष्ट ८४१८ हरिद्रादिकषायः कफ पित्तज कुष्ठ करती है। ८४२२ हरिद्रादि योगः कण्डू, पामा नाशक ७८९५ सहसमावटी कुष्ठ नाशक, रसायन ___सरल योग . ७८९६ सर्वाङ्गसुन्दरी ८४२३ हरीतकीयोगः दूर तक फैला स्फुटित गुटिका उपकुठको शीव नष्ट क. वातरक्त रती है चूर्ण-प्रकरणम् गुग्गुलु-प्रकरणम् ७३३२ श्यामाधुद्वर्तनम् सिध्म ७९२० समशर्क'गुग्गु० वातरक्त, भगन्दर, क्षय, ७८२४ सप्तसमयोगः कुष्ठनाशक, मेव्य, वृष्य विषमवर, अग्निमांद्य, ७८३३ सर्वकुष्ठाङ्कुश समस्त प्रकारके कुष्ठ वातरोग ७८३४ सर्षपादि चूर्णम् स्फुटित कुष्ठ तथा तोद : ७९२१ सिंहनाद ,, कुष्ट, वातरक्त, नाड़ीबग आदि भेदादि कुष्ठ की पीड़ा .७९२६ स्वायम्भुवो ,, श्वित्र, वातरक्त, कोठ, ७८७७ सोमराजीयोगः श्वेत कुष्ठको शीघ्र नष्ट । श्लीपदादि करता है। ७९२७ , ,, श्वित्र, वातरक्त, कुष्टादि ७८७८ , रसायनम् १ वर्ष में तीव्र कुष्ठ को भी नष्ट कर देता है। अवलेह-प्रकरणम् ७९२९ सप्तसमोऽवलेहः कुष्ठनाशक, मेध्य, वृष्य ७८७९ सोमराज्यायुद्ध __ ७९३३ सितादि लेहः कः साध्य कुष्ठनाशक तनम् मर्दन करनेसे उग्र कुष्ठ सरलयोग नष्ट होता है। . For Private And Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५७० घृत-प्रकरणम् ७३५९ शतावरीगुडूच्यादि वातरक्त, कुछ ७३५६ शतावरी घृतम् ७३९२ श्रीवास वृतम् ७७५२ षट्पल घृतम् ७९६५ सोमराजी,, योगः ७९६६ "" ८७२५ क्षार वृतम् www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः 11 भयंकर कच्छू, कुछ कुष्ठ, पामा, कण्डू, विसर्प, गंड, ग, ज्वर, संग्रहणी आदि ७४३२ श्वित्रहर तेल ० ७४३३ श्वेतकरवीराद्यं, श्वेत कुष्टमें अत्यन्त प्रभावशाली गल कुष्ठ का नाश होकर नवीन उंगली आदि निकल आती हैं। दाद, सिम, अलस (खारखा) तेल-प्रकरणम् ७३९८ शतपाकबलातै० वातरक्त, रक्तविकार, वातव्याधिनाशक, इन्द्रिय प्रसारक ७३९९ शतपाकमधुपर्णी त्रिदोषज वातरक्त, दाह ७४०६ शताह्वादितैलम ७४०९ शारिवाद्यं तैलस वातरक स्फुटित, गलित, धोर वातरक्त, चर्मदल, विपादिका आदि ७४३१ दिवत्रगजसिंह,, सैकड़ों वैयों से व्यक्त || भयंकर श्वेत कुष्ट श्वेत कुष्ठ नाशक, अत्यन्त प्रभावशाली योग श्वेत कुष्ठ, कण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ कुष्ठ, रक्तविकार. ७४३४ श्वेतकरवीराचं तै ० चर्मदल, पामा, विस्फो टक, सिव्म ७४३५ श्वेतकरवीराचं ७७६१ षड्विन्दु तैलम् ७९८८ सिद्धार्थक कुष्ठ कुष्ठ, विचर्चिका ९८ प्रकारके कुष्टों को शीघ्र नष्ट करता है । ७९९० सिन्दूराद्यतैलम् पामा, विचर्चिका, खाज, ७९९१ सिन्दूराद्यतैलम् विसर्प कच्छू और विचर्चिका को शीघ्र नष्ट करता है। ७९९३ सिन्दूराद्यंतैलम् कपालकुष्ठ, किटिभ, पामा, विचर्चिका, दाद ८००७ सोमराजीतैलम् कच्छु, कंडू, दाद, पामा, दुष्ट, नाडीव्रण और गंभीर वातरक्त को शीघ्र नष्ट करता है । ८००८ सोमराजी तैलम् किटिभ कुष्ठ, दाद, कष्ट 17 For Private And Personal Use Only 17 ८०१० स्नुह्याचं तैलम् ८०११ स्नुह्याद्यं तैलम् १८५४० हरिद्रादि तैलम् ८५४२ हरिद्रादि तैलम् १४५१ शताह्लादि लेपः ७४६० शिखरि लेप: | ७४६४ शिवादिलेप: साध्य विसर्प, लिचपिचे चर्म और मांसादि में उपयोगी किटिमकुष्ठ, प्रबल वायु पामा, व्रण, राध (पीप) पामा, दाद, विचर्चिका पामा, विचर्चिका लेप-प्रकरणम् वातरक्त सिध्म वातरक्तनाशक सिद्ध योग Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सरल योग) कुष्ठ, रक्तविकार.] पञ्चमो भागः (चि.प.प.) ५७१ . ७४७७ शुण्ठ्यादि लेपः चकते और कोठ नाशक ८०६५ सैन्धवादिलेपः पैरोकी बिवाइ (पादसरल योग दारी) को नष्ट करके ७४८१ शृङ्गवेरादिलेपः दाद पैरोंको कोमल करता है। ७४८२ शैलेयादिलेपः स्रावयुक्त कुष्ठ ८०७० स्थौणेयकादिले० कण्डू । ७४८७ श्वित्रनाशकले० श्वित्र ८०७१ स्नुक् लेपः श्वित्र, दाद, ब्रण ७४८८ श्वित्रहर लेपः , (छाला डालने वाला ८०७३ स्नुह्यर्कादि लेपः कण्डू । ८५५५ हयादि लेपः श्वेत कुष्ठ । ८०२२ सप्तामृत लेपः वातरक्त तथा अन्य कुष्ठ ८५५८ हरितालादिलेपः पुराने दाद और रकस ८०२८ सर्जादि लेपः अण्डकोषों की खुजली (स्रावहीन कण्डू युक्त ८०३२ सर्षपकल्कलेपः विचर्चिका को अत्यन्त कुंसियों) को शीघ्र नष्ट शीघ्र नष्ट करता है। करता है। ८०३५ सवर्णकर्ता ले० श्वेत कुष्ठ । ८५५९ हरिद्रादिलेपः किटिभ कुष्ठ ८०४३ सिद्धार्थादिलेपः दाद ८५६४ हरीतक्यादिलेपः कुष्ठ ८५७७ हेमक्षीर्यादिलेपः पामा, दाद, खाज, ८०४५ सिध्महर लेपः सिध्म विचर्चिका, रकस ८०४६ सिध्महर लेपः सिध्म ८०४७ सिध्महर लेपः सिध्मकी उत्तम औषध ।। रस-प्रकरणम् ८०४८ सिमहर लेपः सिम ७५८० शशाङ्क रसः श्वेत कुष्ठ ८०५० सिन्दूराधो ले० पामा को शीघा नष्ट । ७५८२ शशाङ्कलेखादिले. समस्त कुष्ट करता है । ७५८३ शशिलेखावटी स्वित्र (सरल योग) ७५९४ शिलाजतुयोगः वातरक्त ८०५१ सिंहास्यादिले० कन्छू को ३ दिनमै अ- ७५९७ शिलाजतुयोगः वातरक्त वश्य नष्ट कर देता है। ७६२१ शिवा गुटी पुराना भयंकर वातरक्त, ८०५२ सुदर्शनामूल योगः स्वित्र । क्षय आदि बहुसंख्यक ८०५५ स्वर्णपुष्प्यादि लेपः स्वित्र । रोग ७७०० स्वित्र कुष्ठारिरसः श्वित्र कुष्ट ८०५७ सूतादि लेपः गजचर्म । ७७०१ श्वित्रा रियोगः श्वित्र कुष्ठ ८०६१ सैन्धवादिलेपः दादको शोधा नष्ट । ७७०२ रिवत्रारियोगः कुष्ठ जनित विकार ___करता है। ७७०३ स्वित्रारिरसः श्वित्र ८०६३ सैन्धवादिलेपः पामा, कण्डू । ७७०४ स्वित्रेभसिंहो रसः , For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५७२ ८१३१ सन्निपातकुष्ठ हर रस: ८२०२ सर्वेश्वर रसः ८२१७ सिद्धतालेश्वरः www. kobatirth.org ७७०५ श्वेतकुष्ठारिरस : छाले पड़कर ३ सप्ताह चित्र नष्ट होता है। ७७०६ श्वेतारि रसः श्वेत कुष्ठ ७७०७ श्वेतारि रसः श्वेत कुष्ठ ७७६४ षडाननगुटिका कुष्ठ, आमाशयका तीव्र शूल, रेचक ८१२० संकोचगोलरसः कुष्ठ, विसर्प, विष ८१२२ संकोच रसः उदुम्बर कुष्ठ ७१९८१ राज्यादिक्वाथः भारत-‍ - भैषज्य रत्नाकरः सन्निपातज कुष्ठ सुप्ति कुष्ठ, मण्डल कुष्ठ कुष्ठ कषाय-प्रकरणम् कृमिरोग, ज्वर चूर्ण-प्रकरणम् ७३३० शोभा• दिचू० कृमिरोग (१८) कृमिरोगाधिकारः रस-प्रकरणम् ८२४७ सुरेन्द्राभ्रवटी समस्त क्लोम रोग ८२१८ सिद्ध तालेश्वर रस: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१९) क्लोमरोगाधिकारः ८२१९ सिद्ध पंचानन रसः ८२७६ सूर्यकान्तरसः ८२८१ सूर्य गुटिका कुष्ठ, शोथ, शूलादि ऋष्यजिह्नक कुष्ठ वातरक्त, वातरोग समरत कुष्ठ कपाल कुष्ठ ८२९५ सोमानल रसः ८२९७ सोमेश्वर रसः ८३१९ स्वच्छन्दभै(वरसः वातरक्त, वातरोग ८३२६ स्वर्णक्षीरीरस : सुप्ति कुष्ठ ८६०४ हरिद्रादिवटिका भयंकर कुष्ठ ८६०६ हरिबोलांकुशर० समस्त कुष्ठ [ कुष्ठ, रक्तविकार. For Private And Personal Use Only १ मासमें कुष्ठको नष्ट करता है । | ७८५६ सुवर्चिकाद्यं चू० कृमिरोग लेष-प्रकरणम् ७४५५ शरपुङ्खायोगः कृमियों को निकाल देता है। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय, राजयक्ष्मा] पश्वमो भागः (चि. प. प्र.) - - - (२०) क्षयराजयक्ष्माधिकारः तैल-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ७३३४ श्वदं'ट्रादिचूर्णम् शोष, कास ७३९५ श्वदंष्ट्रादिघृतम् क्षय, ज्वर, दाह, कास, ७७४४ षाडवं , __ यक्ष्मान्तर्गत अग्निमांब, पार्श्वपीडा, शिरपीड़ा, मलभेदमें विशेष उप तृष्णा, छर्दि, अतिसार योगी, पार्व पीड़ा ७७५४ घडङ्ग घृतम् स्रोत-शोधक नाशक, रोचक, दीपन, स्वास कास नाशक ७८५६ सामुदाद्ययोगः यक्ष्मामें मल शुद्धिके । ७९९४ सुकुमारतैलम् क्षय और उसके उपलिये उपयोगी द्रवोंमें अत्यन्त उपयोगी, ७८४० सितोपलादिचू० क्षय, दाह, कास, जि रक्त और मांसवर्द्धक हाकी सुप्तता, पार्वशूल, अरुचि, ऊर्ध्वगत रक्त लेप-प्रकरणम् पित्त | ७४४८ शतपुष्पादिलेपः शिरशूल, पार्श्वशूल, __ अंशशूल अवलेह-प्रकरणम् ७३४८ शतावर्यादिलेहः क्षय रस-प्रकरणम् ७९३० सर्पिर्गुडः क्षय, ज्वर, कास, श्वास, ७५२८ शंख गर्भपोटली निद्रानाश, हिचकी, शुक्र ७५४४ शंख पोटली रसः क्षय क्षय, पांडु ७५६० शंखेश्वर रसः क्षय हाथ पैरोंका टूटना, ७५६२ शङ्खोदररसः क्षय, उदरस्थवायु, अतिपार्श्वशूल, शिरशूल, क्षत क्षीणता, श्रम, व्यवाय ७५६४ , , खांसी, श्वास, ज्वर, क्षय, और भारवहन जनित अजीर्ण, अतीसार रक्त निष्ठीवन, पीनस । ७५६५ शतपत्रिकापाकः जीर्णज्वर, क्षय, कास. ८७२२ क्षुद्रावलेहः तीब्र क्षय, रक्त वमन, अग्निमांद्य उरः क्षत, कास, श्वास . ७५९१ शिलाजतुचूर्णम् क्षय, कामला, अपस्मार, (बलवीर्य वर्द्धक क्षय ७९३१ , , सार For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [क्षय, राजयक्ष्मा - आदि ७५९३ शिलाजतुयोगः क्षयको शीघ्र नष्ट करता है। ८६३६ हिरण्यगर्भरसः क्षय, श्वास, कास, ग्रहणी, ७६०३ , , भय वातव्याधि ७६११ शिलाजत्वादि ८६५६ हेमगर्भ पोटली क्षय लौहम् क्षय ८६५७ ,, , , क्षय, कास, श्वास, वायु, ७६२१ शिवागुटिका क्षय, उबर, अतिकृशता कफ, संग्रहणी ८६५८ ,, ,, क्षय, कास, श्वासादि ८१५० सप्तामृतलौहम् अत्युग्र यमा ८६५९ हेमगर्भपोटली ८१७७ सर्वसुन्दररसः राजयक्ष्मा, वातरोग ८६६० हेमगर्भ ,, ज्वर, क्षय, संग्रहणी आदि ८१८४ सर्वांगसुन्दर राजयक्ष्मा, वातपित्त ज्वर, ८६६१ , , , क्षय, कास, श्वास, संग्रवातकफज रोग हणी, कफ ८२८० सूर्यप्रभागुटिका ऊरःक्षत, शोथ, कास, ८६६२ , , , (ऊपरके समान) पार्श्वशूल, विषमज्वरादि ८६६७ हेमभृगांक असाध्य राजयक्ष्मा, शोथो. ८३२४ स्वयमग्निरसः क्षय दर, ग्रहणी, अर्श ८३२७ स्वर्णपत्ररसः क्षयको अवश्य नष्ट करता है ८६७५ हेमानकरससिन्दूर क्षयज पाण्डु, कास, क्षय ८३२८ स्वर्णपर्पटी क्षय, शोथ, ग्रहणी, कास, ८७३७ क्षयकुलान्तक समस्त प्रकारका क्षय, श्वासादि जीर्णज्वर, पित्तजकास, ८३३० स्वर्णभूपति त्रिदोषज क्षय, वातरोगादि रक्तपित्त, षण्ढत्व ८३४६ स्वर्णमाक्षिकादि ८७३८ क्षयकेसरी रसः एकादशरूप क्षय, ज्वर, उग्रराजयक्ष्मा वायु, शोष, कृमि, १.३६८ स्वर्णयोगः क्षय मेदरोग ८५९८ हरिनेत्ररसः क्षयनाशक (मृगांक वत्) ८७३९ क्षयकेसरी रसः क्षय ८५९९ हरिरुद्र रसः क्षय, (मृगांक वत्) ८७४० क्षयशामक रसः क्षय ८६०७ हरिरुद्र रसः क्षय | ८७४१ क्षयान्तकरसः क्षय, जीर्णज्वर, शिरोग्रह, ८६२२ हिंगुल भस्म क्षय, पाण्डु, शल (पौष्टिक)। अग्निमांद्य, वातकफ विकार waala (२१) क्षुद्ररोगाधिकारः घृत-प्रकरणम् , ८७२५ क्षार घृतम् । मशक, तिल, कालक, ७९५० सहाचरघृतम् तिल, कालक, मुखदू पद्मिनी कंटक, अलस षिका, पाददारी, अंगुली (खारवा) वेष्ठ For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षुद्ररोग] पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) तैल-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम् ७९७७ सप्तश्छदादि तै० पद्मिनी कण्टक, चिप्प, ७४४१ शंखचूर्णादि . केश रंजक । व्यंग, जालगर्दभ ७४४६ शतपुष्पादि ,, , ८००९ स्नुही तैलम् विपादिका में चमत्कारी । ७४५९ शामलीकण्टकादि ८०१२ स्नुह्याचं रैलम् खालित्यमें अत्यन्त गुण लेपः सौन्दर्यवर्द्धक । कारी ७४७६ शिलापुष्पादि केशरंजक । ८५४४ हरिद्रादि ,, जतुमणि, नीलिका, ८०४४ सिद्वार्थादिलेपः मुखदूषिका । व्यंग, तिल, मुखदूषिका ८५५७ हरितालादि , व्यंग ->RoHKA(२२) गलगण्ड-गण्डमालाग्रन्थ्यधिकारः तैल-प्रकरणम् । ८०३३ सर्षपादि लेपः गण्ड, गण्डमाला, प्रन्थिको ७४०८ शाखोटकबिल्व तै० गण्डमाला शीघ्र नष्ट करता है। ८०३४ , , अपची घृत-प्रकरणम् | ८०६० सूर्यावर्तादि लेपः गलगण्डनाशक (छाला ७९६७ सौ रेश्वर घृतम् , अपची । डालता है।) ७९९२ सिन्दूराद्य , कष्टसाध्य गण्डमाला ८०६७ सौभाञ्जनादि ,, दुस्साध्य अपची ८५५० हिंस्राय , गलगण्ड ८५६९ हस्तिकर्णपला.... शादि लेपः गलगण्ड लेप-प्रकरणम् ८०७६ स्वर्जिकादि लेपः प्रन्थि, अर्बुद ७७४३ शंखादि लेपः कफज अर्बुदादि, ग्रन्थि ८५६५ हरीतक्यादि ,, कच्ची पक्की ग्रन्थि, विद्रधि (सरल योग) ७४५४ शरपुवायोगः अपची, अर्बुद ७४८३ शोभाञ्जनादि अपची को अवश्य नष्ट मिश्र-प्रकरणम् करता है। (सरल योग)। ७७३८ श्वेतापराजितामूलयोगः घोर अपची १०४ For Private And Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • ५७६ . भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [गुल्म سه سه (२३) गुल्माधिकारः कषाय-प्रकरणम् ७९७६ रनुहीक्षीरस० सोपद्रव वातज गुल्ममें ७१७८ शट्यादि क्वा० गुल्म घृतम् अत्यन्त प्रभावशाली • ७२०४ शताहादि क. रक्तगुल्म ८५३० हपुपादि घृतम् वातगुल्म, शूल, अफारा ८५३१ हिङ्वाद , , , " चूर्ण-प्रकरणम् ८५३४ , , सोपद्रव गुल्म, शल ७३३१ श्यामादि योगः गुल्म रस-प्रकरणम् ७८५९ सूरणादि क्षारः प्रवृद्ध गुल्म ७८७१ सैन्धवादि योगः ५ दिनमें गुल्मको नष्ट 0 ७५३३ शंखद्रावः गुल्म, शूलादि करता है । (सरल योग). ७८८४ सौवर्चलायं " , कफ, श्वास ७५३७ , गुल्म चूर्णम् गुलम ७५३९ ७८९० स्वर्जिकादि , गुल्म, प्लीहा, ग्रहणी ७५४१ शंखद्राव रसः गुल्म, प्रान्थ, शूलादि क्षारयोगः वातज गुल्म ७५५१ शंखवटी ५ प्रकारका गुल्म, अ८४८४ हिङ्गुनवकं चू० सोपद्रव गुल्म, शूल जीर्णादि ८४८६ ,, पञ्चकं , गुल्म ७५५५ , ,, गुल्म, शूलादि ८४९० हिङ्ग्यादि , गुम, विसूचिका, उदर ७५८७ शिखिवाडवरसः वातज गुल्म रोग ७५९९ शिलाजतुयोगः , , ८७०७ क्षारद्वयादि , समस्त गुल्म, उदररोग ८१९७ सर्वेश्वर रसः रक्त, गुल्म ८७११ क्षारादि योगः रक्त गुल्म ८२०३ , , वातज तथा पित्तज गुल्म, मलावरोध,अग्निमांद्य, ज्वर, गुटिका-प्रकरणम् कफ, वायु ७९०८ सैन्धवादि गुटि पित्तज गुज्म ८७४७ क्षारवटी गुल्म, शूल, अरुचि ७९१४ स्वर्जिका वटी गुन्म नाशक सरल योग मिश्र-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम् ८३९३ सामुद्रादिवर्तिः मल तथा अपान वायुका ७९७५ स्नुहीक्षीराय रुकना घृतम् गुल्म, उदर गेग, गर विष ८६९७ हिग्वादि योगः गुल्म, उदावर्त शूल For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रहणीरोंग ] पञ्चमो भागः ( चि. प. प.) ५७७ (२४) ग्रहणी-रोगाधिकारः कपाय-प्रकरणम् रस-प्रकरगम् ७२४६ शुण्ठ्यादिक्वायः आम, संग्रहणी, पेटमें ' ७५४३ शंखपोटलीरसः ग्रहणी, निर्बलता, शूल, सदा आम संचित होते श्वास, कास,आमातिसार रहना ७५५१ शंखवटी ग्रहणीमें उत्तम, शूल, ७२५४ शृङ्गवेरक्वाथः कफज ग्रहणी अजीर्ण नाशक ७२७२ श्रीफलादिकल्कः उग्र ग्रह गी । सरल योग ७५५२ , , ग्रहणी, शूल,अम्लपित्तादि ७५६३ शंखोदर रसः ग्रहणी, वायु, शूल, कफ, चूर्ण-प्रकरणम् मलावरोव ७२८५ शठ्यादि चूर्णम् कफज ग्रहणी ७५७१ शम्बूकादिवटी वातज संग्रहणी (सरल ७३१३ शुण्ठ्यादि चूर्णम् कफज ग्रहणी नाशक, योग) अग्निदीपक ७६२३ शीघ्रप्रभावरसः भयंकर ग्रहणी, आध्मान, ७८३२ सर्जरस , श्वेत तथा रक्त पक्व वायु, मलत्यागके पश्चात् ग्रहणी, ( सरल उत्तम भी हाजत बनी रहना। योग।) ८१२३ संग्रहणी रसः संग्रहणी, शूल, क्षय, ८४८९ हिंग्वादि । कफज ग्रहणी वातव्याधि ८४९४ , , वातकफ ग्रहणी, विष ८१५९ स्वर्जिक्षारादि योगः संग्रहणी, शोथ, शूल घृत-प्रकरणम् ८२०९ सारकल्पः ७३७० शतावरीघृतम् त्रिदोषज संग्रहणी रक्तस्राव समस्त ग्रहणी विकार, ७३८१ शुण्ठी , ग्रहणी, खांसी, ज्वर, तिल्ली शोथ, शूल ८७२४ क्षारघृतम् अग्निदीपक "८२३४ सुदर्शन रसः ग्रहणी आसवारिष्ट-प्रकरणम् ८२४२ सुधासार रसः आम, आमरक्त, संग्र७४३७ शर्करासवः संग्रहणी, उदावर्त,अरुचि, हणी, हिक्का, आनाह मल मूत्र तथा उकार का और अरुचि आदिको रुकना, अर्श, पाण्ड, २-३ मात्रामें नष्ट करता है। हृद्रोग ८२६० सूतराजः संग्रहणी, क्षय, अर्श For Private And Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ ग्रहणीरोग ८३२० स्वच्छन्द भैरव रसः ग्रहणी, कास, श्वास, ज्वर, निद्राकी कमी ८३२८ स्वर्णपर्पटी ग्रहणी, कास, श्वास, क्षय, पाण्डु ८६३२ हिंगुलेश्वर रसः ग्रहणी, प्रवाहिका, अग्नि० ८६३५ हिरण्यगर्भ पो- ग्रहणी, शोथ, जीर्ण टली रसः ज्वरादि ८६७६ हंसपोटली रसः संग्रहणी ग्रहणी, कास, हिका निर्बलता ८६७८ ,, , , ग्रहणी, पाण्डु, कृशता ८७४३ क्षारताम्र रसः ग्रहणी, प्रतिश्याय, श्वास, कास, जार्णज्वर (२५) ज्वरातिसाराधिकारः कषाय-प्रकरणम् ८२२० सिद्धप्राणेश्वरो घार त्रिदोषज ज्वराति ७२५० शुण्ठ्यादिक्वाथः ज्वरातिसार सार, शूलादि चूर्ण-प्रकरणम् । ८२४२ सुधासार रसः ज्वरातिसार, आमरक्त, ७८२६ समझादि चूर्णम् ज्वरातिसार आनाह, हिक्का रस-प्रकरणम् ८१५९ स्वर्जिक्षारादि ८६७१ हेमसुन्दररसः ज्वरातिसार, संग्रहणी योगः ज्वरातिसार, शोथ, शूल । ८७७७ ज्ञानोदय रसः ज्वरातिसार, जलदोष (२६) ज्वराधिकारः कषाय-प्रकरणम् | ७१८३ शठ्यादि गणः सन्निपात, कास, हृद्७१७१ शक्राहादिक्वा यः पित्तज्वर प्रह, पार्श्वपीड़ा ७१७२ , , शीतञ्चर ७१८४ , पाचनम् ज्वरकी तन्द्रा, श्वास, ७१७५ शठ्यादिकषायः सन्निपात, विषमञ्चर, शिरपीड़ा, जड़ता आदि जीर्णज्वर उपद्रव ७१७७ शठ्यादिक्वाथः कफजज्वर । ७१८५ शतपुष्पादिक० वातजज्वर ७१७९ , , समस्त वर । ७२०२ शतावर्यादि स्व० ,, (सरलयोग) ७१८० . , , सन्निपातज ज्वरमें । ७२१३ शालिपदि तीव्र वातज्वर - - दोषोंको पचाता है । ७२२८ शिशिरादिकषायः तृतीयक ज्वर For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर] पञ्चमो भागः (चि. प.प्र.) ५७६ ७२३२ शुण्ठीक्वाथः जीर्णज्वर, अरुचि, अ- ७७९२ सारिवादिगणः पित्तज्वर, दाह, पिपासा, ग्निमांद्य, काा, जल रक्तपित्त विकार। सरल योग ७७९५ सितादिक्वाथः अन्तर्दाह तथा पित्तज्वर ७२३३ शुण्ठयादिकल्कः सन्निपात, श्वास, भ्रम, को शीघ्र नष्ट करता है। अरुचि, हृदयकी नि अति सरल योग र्बलता ७७९६ सिन्धुवार , कफज्वर, जंघाबलहास, ७२३५ , , तीब्र शीतज्वर कानोंका बन्द होना। ७२३८ , क. कफवर सरल योग ७२४७ , क्वा० वातज्वर । ७७९७ सिंहास्यादि सन्निपात, शूल, श्वास, ७२४८ , , दाहज्वर, शीतज्वर, अरुचि, अतिसार ७२४९ , , तृतीय जीर्णज्वर, कास, । ७७९८ सिंहास्यादि पित्त कफवर, खांसी, ७२५६ शृङ्गवेरादि ज्वर, विस्फोटक, दाह, श्वास वमन, खुजली ७८०० सिंहिकादि कफवातज्वर, श्वास, ७२५७ शृङ्गया दिक्वा० अभिन्यास सन्निपात, कास, शूल, पीनस (सरल योग) ७२५८ , , कण्ठकुब्ज सन्निपात ७८०२ सिंह्यादिकषायः सन्निपात ज्वरान्तर्गत ७२५९ , , अभिन्यास सन्निपात, श्वास तन्द्रा, हिक्का, कर्णशूल ७८०४ सिंह्यादिक्वाथः जिह्वक सन्निपात ७२६७ श्रीखण्डादिक० पित्तज्वर ७८०६ सुनिषण्णादि ३ दिनमें तीब्र ज्वरको ७२६९ श्रीपादि क्वाथः । नष्ट करता है ७२७० श्रीपादिपाचन वातज्वर | ७८०७ सुरभ्यादिक० अभिन्यास सन्निपात, ७७४० पडङ्गपानीयम् ज्वर, दाह, पिपासा शूल ७७४१ षोडशाः उग्र सन्निपात ७८०८ सुरसादिक्वाथः वातज्वर ७७६९ सप्तच्छदादि कफज्वर ७८१९ स्थिरादिक्वाथः तीव्र चातुर्थिक ज्वर, ७७७३ सप्तमुष्टिक यूपः कफ, वायु, सन्निपात अग्निमांद्य नाशक, हृदय, मुख ८४१६ हारद्रादिकपायः मुखप्रसेक, सन्निपात, शोधक अग्निमांद्य, अरुचि, शोप, ७७९१ सारिवादिगणः ज्वर, दाह, पिपासा, कास रक्तपित्त ८४२० हरिद्रादिक्वाथः कफ ज्वर कफ For Private And Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८० भारत-भैपज्य-रत्नाकरः [ ज्वर ८४२६ हरीतक्यादि मुखकी कटुता, अरुचि, गुटिका-प्रकरणम् मुखरोग ७८९४ सप्तलाद्यो मोदकः वातकफ ज्वर, पक्वाशय ८४२७ हरीतक्यादि चित्तभ्रम सन्निपात __ शूल, ( रेचक) ८४३१ हरीतक्यादि ज्वरोत्थ शोथ ८५२० हरीतक्यादिगुटी ज्वर, कास, श्वास, ८४३९ होवेरादिकषायः उग्र पित्तज्वर,तृषा, दाह मलावरोध, अग्निमांद्य ८७०० क्षुद्रादि क्वाथः जिह्वक सन्निपात ८७०१ , , सम्स शीत ज्वर अवलेह-प्रकरणम् ८७०२ , , कफवात ज्वर, सन्नि- ७३५० शोरपावलेह वाणी-शोधक पात, कास, स्वास, पार्श्वशूल, अरुचि घृत-प्रकरणम् ८७०३ , , समस्त उवर , ७७५१ षट्पल घृतम् विषम ज्वेर, अग्निमांध, प्लीहा - ---- चूर्ण-प्रकरणम् ७३०३ शिरीषादिचूर्णम् विषम ज्वर तैल-प्रकरणम् ७७४५ षोडशाङ्ग , ज्वर, शूल ७७५७ षट्कर तैलम् वातकफ ज्वर, मेलेरिया, ७७४६ , , समस्त विषम ज्वर पाक्षिक मासिक द्वय. ७८४६ सुदर्शन , धातुगत, विषम, मानस मासिक ज्वर और मेले रिया आदि । ७७५८ इगुणतक तै० दाह, शीत अनेक ज्वर तन्द्रा, श्वास, ७७५९ पट्चरण , ज्वर । कास, तृपा, कामला, ७९८० सर्जरसाद्यं , दाह, ज्वर, संताप हृद्रोग, कटिशूल, पार्श्व . ८०१८ स्वर्जिकार्य , दाह शूल, जानुकूल ८७३३ क्षीरवृक्षाद्य , जीर्ण ज्वरको शीघ्र नष्ट । ७८४७ , , अनेकविध ज्वर करता है। ७८४८ ,, , सोपद्रव अनेकविध ज्वर ७८४९ सुरसादियोगः सन्निपातकी बेहोशी लेप-प्रकरणम् ७८९३ स्वेदशोषक चू० प्रस्वेद । ७४६५ शिवादि लेपः कर्णमूल शोथ नाशक ८४६० हरीतक्यादि ,, दुर्जल जनित ज्वर सरल योग ८४६५ , , सन्निपात ८०४१ सिद्धार्थादि लेपः कर्णमूलशोथ पीड़ा । ८०४२ , ,, समस्त ज्वर For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर] पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) ५८१ - ८०५६ सुवर्णादि लेपः सन्निपात के उपाय ८५७३ हिग्वादि , कर्णनूल ८११५ सैन्धवादि नभ्यम् ८५९५ हिंग्यादि , तन्द्रा । चातुर्थिक ज्वर । ज्वर . रस-प्रकरणम् धूप-प्रकरणम् ७५८५ शाङ्करीअराङ्कुशः शीतज्वर ८०७९ सर्पत्वगादिधूपः विषमयरमें रोगीकी ग्रह ७६२२ शीबवरारिरसः नवीन ज्वरनाशक, और राक्षसोंसे रक्षा क रेचक रता है। ७६२४ गीतकेसरी रसः घोर शीतज्वर • - ८०८१ सहदेव्यादि ,, विषमञ्चर ७६२५ शीतज्वरहर रसः शीतञ्चर अञ्जन-प्रकरणम् ७६२६ शीतञ्चगदि रसः घोरशीतज्वर " ७५०६ शिरीपाद्यञ्जनम् सन्निपातकी मळ ७६२७ शीतचरारि रसः शीतपूर्व तथा दाहपूर्व ८०८३ संज्ञा प्रबोधन सन्निपात ८०८४ सन्निपाताञ्जन सन्निपातको शीघ्र नष्ट । निपाको गीत ७६२८ शीतज्वरारि रसः शीतज्वर करता है। ७६२९ शीतभञ्जी रसः शीतचर ८०८६ सर्ववरहराञ्जनम् सर्वञ्चर ७६३० शीतभञ्जी रसः शीतज्वर ८०९५ सुप्रचेतना गु० मेलेरिया ज्वर, सन्नि. ७६३१ शीतभञ्जी रसः पातकी मूर्छा ७६३२ शीतभञ्जी रसः विषमज्वर (मेलेरिया) ८१०४ सैन्धवाद्यञ्जनम् सन्निपातकी मूर्छा ७६३३ शीतभञ्जी रसः ८१०५ , , विषमञ्चर ७६३४ शीतभञ्जी रसः ७६३५ शीतभञ्जी रसः ७६३६ शीतभञ्जी रसः महाघोर नवीन ज्वरको नस्य-प्रकरणम् १ पहरमें नष्ट करता है। ७५१६ शिग्रुमूलाधनस्यम् सन्निपातकी मूछो ७६३७ शीताकशरसः बारीसे आने वाले ज्वर ७५१८ शिरीषपुष्पादि , चातुर्थिक वर ७६३८ शीताार रसः वातकफ ज्वर ७५१९ शिरीपादिनस्यम् ग्रहभूत, पिशाच, राक्ष- ७६३९ शीतारि रसः ३ मात्रा में तीब्र शीत सों के उपद्रव, ज्वर ज्वरको अवश्य नष्ट ८११५ सर्ववरहर ,, जिस ओरके नासापुट करता है। में नस्य दीजाती है ७६४० शीतारि रसः बारीके ज्वर उसी ओरका ज्वर नष्ट ७६४१ शीतारि रसः शीतपूर्व तथा दाहपूर्व हो जाता है। विषमज्वर For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ५८२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ज्वर पात । ८१३६ , " - रसः ॥ ७६४३ शीतारि रसः पुराना शीतज्वर ८१३५ सन्निपातभैरवो सन्निपात में अत्यन्त ७६७९ श्री रसराजः आठ प्रकारके ज्वर प्रभावशाली ( सोमल ७६८० श्री वेष्ठादचूर्णम् असाध्य शीताङ्ग सन्नि और सर्पविषका योग) सर्व उपद्रवयुक्त सन्नि७६८३ श्लेष्म कालानलो पात, जीर्णज्वर, मेले. रसः वातकफ, पित्तकफ जीर्ण रिया, जलदोषजज्वर ज्वर, शोथ, कफोल्वण ८१३७ , , सन्निपात सन्निपात सन्निपात को अवश्य ७६८६ श्लेष्मशैलेन्द्र कफरोग, शरोरोग, ज्वर, नष्ट करता है। __ कंडू आदि ८१३९ ,, , सन्निपात ७७६६ षडानन रसः वातपित्तज्वर, तरुणज्वर, ८१४० सन्निपातवडवानल __ जीर्णज्वर, विषमज्वर ८१२४ सञ्जीवनाभ्रम् समस्त विषमज्वर, प्लीहा, ८१४१ सन्निपातविध्वंसकः सोपद्रव अत्युग्र सन्नियकृत्, वमन, श्वास, पात को भी अवश्य कास, अरुचि, शूल नष्ट करता है। ८१२५ सञ्जीवनीवटी सन्निपातके मृत्प्रायः | ८१४२ सन्निपातसूर्यरसः सन्निपात तथा तजन्य रोगीको भी जीवनदान कफविकार देती है। ८१४.३ सन्निपातहर ८१२६ सञ्जीवनो रसः सन्निपातमें विशेष उप- रसः सन्निपात योगी ८१४४ सन्निपातान्तक ८१३० सन्निपातकुठाररसः सन्निपात सन्निपातको शीन नष्ठ ८१३२ सन्निपातगजाङ्कुश करता है। रसः सन्निपातको शीघ्र नष्ट | ८१४५ ,,, अभिन्यास सन्निपात करता है। ८१४६ सन्निपातारि रसः तीव्र ज्वरको शीध्र नष्ट करता है। - ८१३३ सन्निपात , अत्यन्त दाह और स्वेद युक्त अभिन्यास सन्नि ८१६० सर्वज्वरहरो रसः समस्त ज्वर पात ८१६१ , , ग्वर . ८१३४ सन्निपातभैरवो घोर सन्निपात ८१६२ , , समस्त ज्वर रसः For Private And Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ] पञ्चमो भागः ( चि. प. प्र.) ५८३ ८१६३ सर्वज्वरहरलौ० सर्वज्वर, ज्वरके उपद्रव, ! ८२३१ सिंहनादरसः सन्निपात, अरुचि, श्वास, यकृत, प्लीहा, पाण्डु, कास आदि ८२३५ सुदर्शनरसः समस्त ज्वर ८१६४ सर्वज्वरहरलौ० प्रतिमास, प्रतिपक्ष, प्रति- ८२४६ सुरूपो रसः ।। कफवात ज्वर, नेत्रस्राव, वर्ष आनेवाला ज्वर, प्लीहा अग्निमांद्य. ८१६५ सर्वज्वरहरलौ० पुराना ८ प्रकारका ज्वर, ८२५० सूचिकाभरण कष्टसाध्य धातुगत ज्वर, रसः सन्निपात, सर्पदंश, (इंजेकास, प्लीहा, पाण्डु आदि क्शन देने से मूर्छा नष्ट ८१६६ सर्वज्वराङ्कुशवटी एकदोषज, द्वन्द्वज, होती है । सान्निपातिक, विषम, ८२५१ , , सन्निपात बहिर्गत, अन्तर्वेग, साम। ८२५२ सूचिकाभरण तथा निराम ज्वर रसः भयंकर मूको तुरन्त ८१६७ सर्वज्वरारिरसः सर्वज्वर नष्ट करता है। ८१६८ सर्वज्वरारिरसः जीर्णज्वर, आमज्वर, ८२ १३ , , सन्निपात विषमज्वर, अजीर्ण ८२.५ सूर्यरसः ज्वरको शीध्र नष्ट करता है ८१६९ सर्वतोभदरसः आमदोष, अफारा, जीर्ण ८२८६ सूर्यशेखररसः सन्निपात ज्वर, धातुगत विषम ८२९३ सोमपाणिरसः ज्वर, कास, पांइ. वमन, ८२९९ सौभाग्यवटी सन्निपात. शीतांग. प्र. संग्रहणा स्वेद आदि ८१८१ सर्वाङ्गसुन्दररसः जीर्णज्वर, अरुचि, बल ८३०० सौभाग्यवटी शीताङ्ग सन्निपात क्षय, हृदयपीडा, उदर ८३१७ स्वच्छन्दभैरव उग्र, सन्निपात, ग्रहणी रोग ८३१८ स्वच्छन्दभैरव शीतज्वर, सन्निपात, ८१९५ सर्वेश्वररसः समस्त विषमज्वर, सन्नि विषमञ्च प्रतिश्याय, जीर्णज्वर, वमन ८२०१ सर्वेश्वररसः सर्व ज्वर ८३२१ स्वच्छन्दभरव नवीन सन्निपात ८२०६ सामज्वरहररसः विरेचक, आमश्वरको शीघ्र ८३२२ ., , वातज तथा कफज ज्व नष्ट करता है। | ८६१४ हरीतक्यादिपाकः शीतज्वर, रसविकार, ८२१० सारणसुन्दररसः विरेचक, ज्वरनाशक वास, कास, धातुस्राव८२२२ सिद्धवटी सन्निपात आदि पात For Private And Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ ज्वर योगः ८६३३ हिंगुलेश्वरम् सः ज्वरनाशक, रेचक ८३९२ सहदेवीमूल. - ८६४८ हीराबेध्यो रसः तालुमें मलने से मूर्छा बंधनम् चातुर्थिक ज्वर. नष्ट होती है। ८३९६ सिंहिकादि। ज्वर, हिक्का, कासादि नाशक, मलमूत्र प्रवर्तक ८६५० हुताशनरसः ज्वर, पेया. । ८४४७ हरिद्रक वृक्ष मिश्र-प्रकरणम् योगः नानादेशज वारिदोष ८३८३ सक्तुयोगः दाह, तृषा, पित्तवर, नाशक। (ज्वरवेगको घटाता है।) ८७६८ क्षीरयागः जीर्णज्वर. ८३९१ सहदेवीमूल ८७६९ , क्षीणकफ जीर्ण वर. योगः भूतज्वर, ८७७३ । विषमज्वर, हृद्रोग, कास. (२७) छर्यधिकारः । कषाय-प्रकरणम् । ७८७२ सैन्धवादियो० वातठर्दि नाशक ७१७३ शङ्खपुष्पीरस सरल योग योगः छर्दि ७८८० सौवर्चलादि ७२५१ शुण्ठ्यादि वातछर्दि पाचनम् छर्दि, अरुचि, । ८५०९ हिंग्वादियोगः वमन ज्वरातिसार ७२७१ श्रीफलगुडू. अवलेह-प्रकरणम् च्यादिक्वाथः सर्वदोषज छर्दि । ७९३५ सितादि लेहः सोपद्रव पित्तजछर्दि ७७९० शारिवादि ( सरलयोग) क्वाथः छर्दि. ७९४४ सौवर्चलाद्यलेहः छर्दिनाशक उत्तमयोग. घृत-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ७९६१ सूर्योदयघृतम् घोर छर्दि, श्वास, क्षय. ७२८४ शट्यादिचू० त्रिदोषज छर्दि ७८२८ समशर्करचू० वमन, अरुचि, गुल्म, लेप-प्रकरणम् श्वास. ८०४४ सिद्धार्थादि वमननाशक For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृषा - ५८५ पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) (२८) तृषाधिकारः मिश्र-प्रकरणम् ८७६६ क्षीरगण्डूपः तालुशोष (२९) दाहाधिकारः लेप-प्रकरणम् ८०३६ सहस्रधौतसर्पि लेपः मिश्र-प्रकरणम् दाहनाशक ८६९९ f दिया अवगाहन दाह स्नान (३०) नासारोगाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् । ७९९६ सुमुखाद्यं तै० नासाश ७२८३ शल्यादिचू० घोर प्रतिश्याय, हृदयशूल | ७९९७ सुरसा दे , पूतिनासा । ८५४७ हिंग्यादि , नासारोग ___ गुटिका-प्रकरणम् ७९०१ सुधावटो प्रतिश्याय, श्वास, कास, नस्य-पकरणम् हृद्रोग। ७५२२ शुष्कगोमयादि योगः नकसीर घृत-प्रकरणम् ७७५६ षड् बिन्दुवृतम् पीनस, नासास्थिकरोग, | ७५२४ शृङ्गयादिनावन योगः अनेक शिरोरोग. ७९४९ सर्जादि , नासापाक ८५९३ हरीतक्यादि . नस्यम् पुरानी नकसीर तैल-प्रकरणम् ७४१० शिखरीतैलम् नासार्श मिश्र-प्रकरणम् ७४१२ शिग्रु , नासा रोग ७७२० शिशिरजल ३ दिनमें कठिन और ७४१३ शिवादि, पूति नासा रोग योगः पक्व पीनसको नष्ट ७४१५ शुण्ठी , क्षवथु रोग करता है। For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५८६ ७७३९ षडङ्ग क्वाथः कषाय-प्रकरणम् ७२६५ श्यामादिकषायः सत्रण नेत्रशुक्र ७२७३ श्रेष्ठादिक्वाथः नक्तान्ध्य, तिमिर, काच, ८७१९ क्षतशुक्रहर गुग्गुलुः भारत-भैषज्य रत्नाकरः (३१) नेत्र - रोगाधिकारः पटल, भ्रू अक्षि शिरपीड़ा शिव ७४९० शिपल्लवादि धूपः www. kobatirth.org भ्रू शूल, नक्तान्ध्य, चक्षुपीड़ा गुग्गुलु-प्रकरणम् ७७४८ षडङ्ग गुग्गुलुः आंखों की सूजन, अक्षि पाक, नेत्रशूल, पिल्ल, सव्रणशुक्र. तैल-प्रकरणम् ७९७८ सप्ताहादि तैलम् अश्रुस्राव ७९८३ सहचर तैलम् दिनान्ध्य, नेत्रकाच और नेत्रशुक्रको शीघ्र नष्ट करता है । नक्तान्ध्य, तिमिर, शिरपीड़ा लेप-प्रकरणम् ८०६४ सैन्धवादिलेप: अभिष्यन्द ८५६३ हरीतक्यादिलेप: अक्षिपाकादि नेत्ररोग धूप-प्रकरणम् नेत्रपीड़ा, खड़क, शोध अश्रस्राव, ७५२३ शृङ्गवेरादि नस्यम् नेत्रपटल " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नस्य-प्रकरणम् ७४९२ शङ्खनाभ्याद्या वर्तिः अञ्जन-प्रकरणम् तिमिर, पिच्चिट, फूला, पटल. ७४९३ शङ्खपुष्पादिवटी नेत्रपुष्प ७४९४ शङ्खादिवटिका ७४९५ वटी ७४९६ शङ्खाद्यञ्जनम् ७४९७ " ७४९८ शङ्खाद्यञ्जन " ७४९९ शम्बूकाद्यञ्जनम् ( श्यामावर्ति ः) शुक्र, काच, अर्म, पिष्टक अर्जुन रोग For Private And Personal Use Only ७५०० पुराना फूला ७५०१ शर्कराद्यञ्जनम् आंखों की रक्तता, लाल रेखा, अर्जुन ७५०२ शशिकलावर्तिः तिमिर, फूला, खाज पानी बहना, पिल्ल " ७५०३ शालपर्ण्यादि योगः नेत्ररो ७५०४ शिमुपयोगः ७५०५ शिरीष बीजा द्यञ्जनम् ७५०८ शिलाञ्जनम् ७५१० शीषशलाका जनम तिमिर, पटल नेत्रार्बुद, तिमिर, पटल नक्तान्व्य, दिवान्ध्य नेत्रप्रसादक पिल्ल रोग अनेक प्रकारकी नेत्रपीड़ फूला काच, शुक्र, अर्म, तिमिर ज्योतिवर्द्धक सलाई Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नेत्ररोग] पञ्चमो भागः (चि. प.प्र.) ५८७ - ७५११ शुक्लारि वर्तिः फूला, अर्म,तिमिर, पिल्ल। ८१०६ सैन्धवाद्यञ्जनम् पूयालप्स । ७५१२ श्रीपाद्यञ्जनम् रक्तज नेत्राभिष्यन्द । ८१०७ सौगताञ्जनम् समस्त नेत्ररोग । ७७६३ षडङ्गी वार्तः तिमिर ८१०८ सौवीराजनम् तिमिर । ८०८७ सर्वतोभद्रावर्तिः समस्त नेत्ररोग। ८१०९ सौवीराजनम् नेत्रशुक्र । ८०८८ सारिवादि वर्तिः पित्तज तिमिर । ८११० सौवीराजनयोगः तिमिर ( केवल सुरमेका ८०८९ सिताद्यननम् कफज तिमिर, पिल्ल, प्रयोग) अर्म, अक्षिशोष, शुक्र।। ८१११ स्नेहनीवटिका नेत्रस्राव और वातज ८०९० सुखाञ्जनम् अत्यन्त पीडायुक्त अक्षि तथा रक्तज नेत्रपीड़ाको पाक को तुरन्त आराम शीघ्र नष्ट करती है। करता है । नेत्रप्रसादक। ८११२ स्फाटिकादि वर्तिः फूला । काच, फूला। ८११३ स्रोतोञ्जनाद्या वर्तिः अभिष्यन्द के पश्चात् का धुंधलापन । ८०९१ सुखावतीवर्तिः क्लेद, तिमिर, नेत्रार्बुद, ८११४ स्वर्णमाक्षिकानेत्रमल। द्यञ्जनम् फूला । . ८०९२ सुदर्शनावर्तिः नेत्रमल, नेत्रकंडू, तिमिर, ८५८२ हरितालादि प्रति नेत्रार्बुद, पीडायुक्त अत्य- सारणम् पिल्ल धिक नेत्रनाव ८५८३ हरिदादि वर्तिः समस्त नेत्ररोग । ८०९३ सुदर्शनावर्तिः नेत्ररक्षक । ८८५८४ हरिद्राद्यञ्जनम् पिच्चिट, धूमदर्शन, तिमिर ८०९४ सुपर्णीवतिः अत्यन्त नेत्रज्योतिवर्द्धक।। ८५८५ हरिद्राद्यञ्जनम् नेत्राभिष्यन्दमें उत्तम । ८०९६ सूतकाद्यञ्जनम् नेत्रज्योति वर्द्धक । ८५८६ हरिद्राद्यञ्जनम् निशान्थ्यको अवश्य नष्ट ८०९७ सूर्यप्रभावर्तिः नेत्रमांस, नेत्रग्रन्थि, नेत्रा करता है। बुंदादि । ८५८७ हरिद्राद्यावर्तिः स्राव, तिमिर, पटल, नक्तान्ध्य । ८०९८ सैन्धवादि वर्तिः नेत्रशुक्र ८०९९ , , ८५८८ हरीतक्यञ्जनम् कण्डू, क्षत, आंख पर कफज नेत्ररोग। ८१०० सैन्धवाद्यञ्जनम् पिल्ल रोग । चोट लगना, आंग्वका जल जाना। ८१०१ सैन्धवाद्यञ्जनम् सद्यो नेत्ररुजापहम् । ८५८९ हरीतक्यञ्जनम् तिमिर .१०२ सैन्धवाद्यञ्जनम् अक्षिशूल । ८५९० हरीतक्यादिवतिः कण्डू और तिमिरकी ८१०३ सैन्धवाद्यञ्जनम् कफज नेत्ररोग, नेत्र अमोध औषध । पीडाको शीघ्र शान्त ८५९२ हिताञ्जनम् अन्धता नहीं आने देता। करता है। For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ नेत्ररोग रस-प्रकरणम् । ७७३६ श्वेतकरवीर ८१४९ सप्तामृतलौहम् तिमिर, क्षत, लालरेखा, रसयोगः नवीननेत्राभिप्यन्द नेत्रकंडू, नक्तान्थ्य, नेत्र ७७३७ श्वेतगिरिकण्यादि तोद, दाह, नेत्रशूल, योगः नेत्रपुष्प पटल,काचादि, दन्तरोग, गलरोग । ८३९० सहदेवीमूल ८३८१ स्वर्णादिगुटिका सोपद्रव समस्त नेत्ररोग बानम् नेत्रपीड़ा ८४०२ सैधवाद्याश्च्योमिश्र-प्रकरणम् तनम् , नेत्र शोथ ७७१६ शिग्रुपतरसाइच्योतनम् नेत्रपीड़ा ८४०३ सैन्धवाद्याश्च्यो७७१७ , पत्रादिपिंडी कफज नेत्राभिष्यन्द तनम् , नेत्रदाह, नेत्रकंडू ७७२८ शुण्ट्यादिपिंडी नेत्रशोथ, नेत्रकंडू, पीड़ा । ८६८३ हरिद्राद्याश्च्यो( सरल योग). तनम् कफाभिष्यन्द (३२) पाण्डुरोगाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ८४५० हरिद्रादि चूर्णम् कामला नाशक(सरलयो.) ७५४७ शंखयोगः कामलाको ७ दिनमें नष्ट ८४७० हरीतक्यादि करता है (सरलयोग) कामला, कास, स्वास । ७५९५ शिलाजतुयोगः कामला, क्षय, अपस्मार ( बलवीर्य वर्द्धक ) अवलेह-प्रकरणम् ७६१० शिलाजत्वादि ७९३७ सिताधवलेहः हलीमक कुम्भकामला ८१५८ सम्मोहलौहम् कामला, पाण्डु, शोथ, घृत-प्रकरणम् कृमि, अरुचि ८५२८ हरिद्रादिधृतम् कामला ८२१४ सावित्र वटकः पाण्डु, कामला, कृमि, अञ्जन-प्रकरणम् __ उदररोग, ज्वर, गुल्म ८५९१ हिंङ्ग्वाद्यञ्जनम् कामला नाशक सरलयोग | ८२२६ सिन्दूरभूषण रसः वातजपांडु, कामला । ८२४१ सुधापञ्चक रसः हलीमक For Private And Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमेहरोग] पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) ५८६ ८६०५ हरिद्राद्यवलेहः पाण्डु, शोथ मिश्र-प्रकरणम् ८६८० हंसमण्डूरम् पाण्डु, कामला, अर्श, ८७६७ क्षीरयोगः पाण्डु, शोथ, ग्रहणी हलीमक, ऊरुस्तम्भ ( सरलयोग ) वटी (३३) प्रमेहाधिकारः कषाय-प्रकरणम् । ७६०४ शिलाजतुयोगः प्रमेह ७१९२ शतावरीस्वरसः २० प्रकारके प्रमेह ७६०७ ,, ,, लोहः प्रमेह, शुक्रदोप, रक्तदोष, ७२०६ शम्पाकादिगणः प्रमेह, ज्वर, रक्तदोष ज्वर, मूत्राघातादि. ७२१७ शाल्मलीयोगः समस्त प्रमेह, सरल योग ७६१२ शिलाजत्वादि ८४१७ हरिद्रादिकषायः कफज प्रमेह शुक्रमेह " ८४५२ हरिद्रादियोगः २० प्रकारके प्रमेहोंको अवश्य नष्ट करता है।। ७६४७ शुक्रमातृवटिका बीस प्रकारके प्रमेह. मूत्रकृच्छ, अरमरि, ज्वर घृत-प्रकरणम् ७६८१ स्वदंष्ट्रादि लौ० प्रमेह, शोथ, अर्श, पाण्डु ७३७६ शाल्मलीघृतम् शुक्रमेह, क्लीवता,धातुक्षय ८१२७ संजीवनो रसः समस्त प्रमेह नाशक, ७९५७ सिंहामृतघृतम् प्रमेह, मधुमेह, आलस्य, अत्यन्त क्षुधावर्द्धक क्षय ८१८६ सर्वांगसुन्दर रसः प्रमेह ८२०० सर्वेश्वर रसः समस्त प्रमेह, कष्टसाध्य तैल-प्रकरणम् मधुमेह ८५३९ हरिद्रादितैलम् २० प्रकारके प्रमेह | ८२९६ सोमेश्वरो रसः प्रमेह, सोपद्रव मूत्रा घातादि आसवारिष्ट-प्रकरणम् ८५९७ हरगौरीसृष्टी रसः समस्त प्रमेह ७४३८ शारिवाद्यासवः प्रमेह, प्रमेहपिडिका, ८६०८ हरिशंकररसः नीलमेह उपदंश, भगंदर, वातरक्त ८६०९ हरिशंकररसः २० प्रकारके प्रमेहोंको निस्सन्देह नष्ट करता है। रस-प्रकरणम् ८६१३ हरीतक्यादि ७५९२ जिलाजतुयोगः समस्त प्रमेह चूर्णम् बहुमूत्र For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [बालरोग - - ८६३४ हिमांशु रसः प्रमेह, मुखशोष, सोम- ८६६६ हेमनाथ रसः रोग, प्रमेह पिडिका,दाह, | ८६६९ हेम वज्र रसः तृष्णा ! ८६७९ हंसभैरव रसः समस्त प्रमेह, दारुण बहुमूत्र, सोमरोग, क्षयादि प्रमेह, भयंकर मूत्रकृच्छ्र, शुक्रमेह (३४) बालरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् अवलेह-प्रकरणम् ७७७७ समङ्गादि क्वाथः भयंकर बालातिसार ७३५४ शृङ्गयादिलेहः कास, ज्वर, वमन ७७८७ सारिवादि , मुखसे लार बहना . ७३५५ , , बालकोंकी दुस्तर कास । ७१४० सैधवाद्यवलेहः अफारा, वातज शूल ७७८८ सारिवादि क्वाथः बालकोंका पित्तज्वर ८५१९ हरिद्रादि कषायः स्तन्यदोष, ज्वरातिसार, घृत-प्रकरणम् श्वास, कास, वमन | ७३८८ शृङ्गयाधं घृतम् बालकोंका सूखा रोग ७३८९ श्यामा , बोंकी खांसी, श्वास, चूर्ण-प्रकरणम् ___ रक्तपित्त, पिपासा, मूर्छा ७३२५ शृङ्गयादिचूर्णम् कास, ज्वर, चमन ७९४८ समङ्गादि , दन्तोद्भेदरोग ७८६६ सैन्धवादिचूर्णम् अफारा, वातज शूल ७९५४ सारिवादि , ग्रहविकार ७८९२ स्वर्णगैरिकयोगः छर्दि ८७२६ क्षारद्वयाद्य , पारिगर्भिक ८४५८ हरीतक्यादि तालु कण्टक तैल-प्रकरणम् ८४६२ हरीतक्यादि ७३९६ शङ्खपुष्पीतैलम् सर्व रोग नाशक पौष्टिक, चूर्णम् छर्दि कान्ति भेषा वर्द्धक ८४९६ हिङ्ग्वादिचू० प्रबल तृषा ७४२५ श्यामाद्यतैलम् स्वास्थ्यरक्षक ८४९७ , , हिक्का, श्वास लेप-प्रकरणम् ८५१७ हवेरादि , अतिसार,छर्दि,तृषा, ज्वर । । ८०३७ सारिवादि लेपः बालविसर्प गुटिका-प्रकरणम् धूप-प्रकरणम् १३३७ शिवामोदकम् समस्त रोग नाशक,८०७८ सर्पत्वगादि धूपः बालग्रह, ज्वर पौष्टिक अग्निवर्द्धक ८०८० सर्षपादि धूपः समस्त बालग्रह For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बालरोग] पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) - रस-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ७५५९ शंखादिचूर्णम् गुदपाक ८३८५ समंगादि क्वाथः बालातिसार ८२२९ सिन्दूरादि लेहः बालकोंका पश्चाद् रुज ___ रोग ८३८६ सर्जकायो योगः विच्छिन रोग ८६३८ हिरण्याख्यवलेहः बालककी आयु, कान्ति. / ८४०१ सैन्धवादि योगः नवजात शिशुका दूध और बलवर्द्धक न पीना (३५) भगन्दराधिकारः गुग्गुलु-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ७९१७ सप्तविंशतिको ८००० सैन्धवायतैलम् कृमियुक्त असाध्य भगंदर गुग्गुलुः भगंदर, बस्तिशूल, अर्श, ८०१३ स्यन्दन , भगंदरको शुद्ध करके अन्त्रवृद्धि, कास, श्वा भरता और त्वचाको सादि अनेक रोग सवर्ण करता है। - and_ (३६) मदात्ययाधिकारः घृत-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ७३६४ शतावरीघृतम् पानात्यय ८२६३ सूतादियोगः पानात्यय आसव-प्रकरणम् मिश्र-प्रकरणम् ७४४० श्रीखण्डासवः पानात्यय, परमद, पाना जीर्ण, अत्युग्र पानविभ्रक ७७२३ शीतजलपानयोगः सुपारीका नशा, छर्दि, अतिसार MEAKE(३७) मसूरिकाविस्फोटकाधिकारः कषाय-प्रव.रणम् | ७८१० सुषव्यादिस्वरसः विस्फोटक, मसूरिका, ७२७६ श्वेतचन्दनादियोगः मसूरिकाके आरम्भमें ज्वर (सरलयोग) उपयोगी For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५६२ ७४६९ शिरीषवल्कलादि लेपः चूर्ण-प्रकरणम् ७३०२ शिरीषादिचूर्णम् मसूरिका की फुंसियों का क्लेद लेप-प्रकरणम् ७४७१ शिरीषादिलेपः = ७४७३ 99 ७४७५ शिरीषाष्टकः " www. kobatirth.org समस्त प्रकारका विस्फो टक भारत - मैषज्य रत्नाकरः विस्फोटक विस्फोटकको शीघ्र नष्ट करता है । कषाय-प्रकरणम मसूरिका, प्रस्वेद, विस्फोटक, विसर्प, दुर्गन्ध ७२२९ शीतप्रशमनो दशको महाकषायः ७२३० शुक्रजननो दशको महाकषायः ७२३१ शुक्रशोधनो दशको महाकषायः ७२६६ श्रमहरो दशको महाकषायः [ मिश्रधिकार ८०२६ सर्जरसादि लेपः मसूरिकाके प्रारम्भमें लेप करने से वह नष्ट हो जाती है। ८५६८ हलिन्यादि लेपः विस्फोटक रस-प्रकरणम् ८१७० सर्वतोभद्ररसः मसूरिका, सर्वरोग ८२५३ सूतभस्म योग : विस्फोटक ८३३४ स्वर्णमाक्षिकयोगः छिपी हुई मसूरिकाको बाहर निकालता है । (३८) मिश्राधिकारः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेप-प्रकरणम् ८३९७ सीसकादि योग: केशकल्प ८३९८ केशकल्प و For Private And Personal Use Only 17 मिश्र-प्रकरणम् ८६८२ हरिद्रावचादि शोधनम् ८६८४ हरीतकी कल्पः हरेकी विविध सेवन विधियां ८७५५ क्षारनिर्माण विधिः ८७६० क्षारवर्गः ८७६५ क्षाराष्टकम् Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्लाफरः [ मेदरोग ८१७२ सर्वतोभद्ररसः प्लीहा, यकृत्, शोथ, मिश्र-प्रकरणम् ज्वर, पाण्ड, प्रमेह, । ७७१५ शाल्मली पुष्पयोगः प्लीहावृद्धि नाशक जलोदर सरल योग ८७४२ क्षारगुटिका यकृत्वृद्धि ८०५६ क्षार पिप्पली प्लीहा, त्रिदोषज, गुल्म, ८७५६ क्षारपिप्ली यकृत् , प्लीहा, गुल्मादि यकृत् , वातष्ठीला ८७५८ ॥ ८७५८ क्षारपिप्पली प्लीहा, त्रिदोषज, गुल्म, | ८७५९ " " " यकृत, वातष्ठीला ->>red (४४) रक्तपित्ताधिकारः कराय-प्रकरणम् ७३७३ शतावर्यादिघृ० रक्तपित्त, क्षय, श्वास ७१९३ शतावर्यादिकषायः रक्तपित्त ७३९० श्यामाघृतम् नासाप्रवृत्त रक्त ७२०० , योगः मूत्रमार्गगत पीडायुक ७९४६ सप्तप्रस्थघृतम् रक्तपित्त, उरःक्षत एवं हृद्रोग नाशक, बलवीर्य ८४४५ होवेरादिक्वाथः उग्र रक्तपित्त, तृषा, दाह अग्नि वर्द्धक और ज्वर को शीघ्र नष्ट करता है। तैल-प्रकरणम् ८४४६ , , प्रबल रक्तपित्त, तृषा, | ८५५३ होवेराध तैलम् रक्तपित, उरःक्षत, कास दाह, उवर । रस-प्रकरणम् पूर्ण -प्रकरणम् ७५६६ शतमूल्यादिलौ० रक्तपित्त, तृणा, दाह, ८४७६ हरीतक्यादियोगः दुर्जयरक्तपित्त छर्दि, ज्वर ७५७९ शर्कराय लौहम् रक्तपित्त, अम्लपित्त घृत-प्रकरणम् ८१५२ समशर्कर , तीव्र रक्तपित्त, क्षतक्षय, ८ ७३७१ शतावरीघृतम् रक्तपित्त, ज्वर, कास - अम्लपित्त ७३७२ , , , अंगदाह, शिरोदाह, | ८२३६ सुधानिधि रसः रकपित्त स्वर, योनिदाह ८२४० " " " रतलाव For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसायन] पश्चमो भागः (चि. प. प्र.) - - . (४५) रसायनवाजीकरणाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् ७९१२ स्तम्भन वटिका स्तम्भक, बल वीर्य वर्द्धक ७२८९ शतावर्यादिचूर्णम् अत्यन्त कामवर्द्धक | ७९१३ स्वयंगुप्तादि ७२९० ,, , बलवर्दक मोदकः अत्यन्त वाजीकरण ७२९१ , , , वीर्यवर्द्धक ७२९२ ,, जरा, व्याधिनाशक, वल अवलेह-प्रकरणम् बुद्धिवर्द्धक ७९३६ सितादि वृष्य ७२९३ " , अत्यन्त कामवईक योगः अत्यन्त वृष्य, बृंहण, ७२९४ , , नपुंस्कता नाशक कण्ठय ७३०८ शुक्रस्तम्भकरं ७९४५ स्तम्भनावलेहः वीर्यस्तम्भक चूर्णम् स्तम्भक ८७२० क्षारगुडः कृशता, निर्बलता, अग्नि७८६१ सूरणादि योगः स्तम्भक सरल योग मांद्य अरुचि,कण्ठ छातीमें ७८८५ स्तम्भक चूर्णम् स्तम्भक स्थित कफ, प्रमेह, वायु, .७८८८ स्वगुप्तादि , अत्यन्त वाजीकरण प्लीहा यकृत् (आहारको ७८८९ स्वयंगुप्तादि, शुक्ररक्षक सरल योग शीघ्र पचाता है।) ८४८० हस्तिकर्णकल्पः जरा नाशक, आयुवर्द्धक, घृत-प्रकरणम् शरीर को दृढ़ करनेवाला ७३६६ शतावरीघृतम् शुक्रशोधक ८४८१ , रसायनम् अत्यन्त वाजीकरण, | ७३६७ , , वृष्य ___ आयुवर्द्धक ७९४७ सप्ताङ्ग , वात कफ नाशक; आयु गुटिका-प्रकरणम् बुद्धि वर्धक ७३३८ शुक्र संजीवनीयो ७९५९ सुकुमारकुमारक मोदकः घृतम् कांति, लावण्य,पुष्टिवर्द्धक बल, वीर्य, तेज वर्द्धक ७३३९ शुक्रस्तम्भकरी तेल-प्रकरणम् वटिका पहर पश्चात् समागम | ७४२६ श्रीगोपालतैलम् अत्यन्त कामवईक, तथा करनेसे ४प्रहरका स्तम्भन ध्वजमंग प्रमेहादि ना. होता है। शक, कान्ति, बुद्धि, मेधा ७९१० स्तम्भन वटिका वीर्य स्तम्भक वर्द्धक ७९११ , , अत्यन्त स्तम्भक For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ रसायन - ८३७४ लेप-प्रकरणम् । ८२९८ सौगत वटी अत्यन्त स्तम्भक, लिंगको ८०६८ स्तम्भक लेपः अत्यन्त स्तम्भक दृढ़ करता है। ८०६९ स्थूली करण लेपः लिंग वर्द्धक ८३४५ स्वर्णमाक्षिकादि पूर्णम् अत्यन्त वाजीकरण रस-प्रकरणम् ८३६७ स्वर्णयोगः सन्तान वर्द्धक ८३६८ , , अरिष्ट लक्षणोंवाला व्यक्ति ७५२५ शक्रवल्लभो रसः वाजीकरण, स्तम्भक सुरक्षित रहता है । ७५६९ शतावरी मोदकः अत्यन्त वाजीकरण ८३७२ , , अलक्ष्मी नाशक ८५८१ शशाङ्क रसः , , ८३७३ , , प्रभाव (रोब) वर्द्धक ७५९६ शिलाजतु योगः १५ दिनमें दुर्बल शरीर " , अलक्ष्मी नाशक, आयु और क्षीणधातु व्यक्तिको बल वर्द्धक पुष्ट कर देता है। ८३७५ , , बल, वर्ण, मेधा, देहवर्धक ७६१९ शिलावीररसः जरा नाशक, आयुवर्तक ३८० स्वर्ण सिन्दरम् सर्वरोग नाशक, बलवीय ७६४८ शुक्रस्तम्भकरा वर्द्धक वटकाः अत्यन्त स्तम्भक . ८३८२ स्वल्पचन्द्रोदय ७७६७ षण्मुखो रसः नपुंसकता मकरध्वजः अस्यन्त वाजीकरण,बल ८१९३ सर्वेश्वरचूर्णम् शरीरको रोग रहित वीर्य अग्नि वर्द्धक ८६०० हरशशाङ्करसः काम वर्द्धक, आयु, तेज, ८२२१ सिद्धयोगेश्वरः १ वर्ष तक सेवन करनेसे बल और लावण्यको वृद्धावस्था नहीं आती बढ़ाता है। अत्यन्त स्तम्भक, वीर्य | ८६०१ , , अत्यन्त कामबर्द्धक वर्द्धक ८६११ हरीतकीयोगः जरा नाशक ८२२३ सिद्धशाल्मली | ८६१२ हरीतक्यवलेहः समस्त रोग कल्पः अत्यन्त वाजीकरण | ८६१६ हरीतक्यादि रसायनम् वजभंग नाशक बलवर्द्धक पलित नाशक ८२२५ सिद्धसूतः ८६१९ हाटकेश्वरी गु० जरामृत्यु नाशक ८२२० सिन्दूरादिवटी वर्यप्तम्भक ८६४९ हीरावेथ्यो रसः आयु सुख सन्तान पुष्टि : समुन्दरीगुटिका स्मायन आदि बढ़ाता है। गोड रस बलयदक वजभंगनाशक ८६७० हेमसुन्दररसः जरामृत्युनाशक मि. रसः पुगने के श. नख, दन्तादि गिरक : ८६७२ , , , समस्त रोग नाशक बनाते हैं । For Private And Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसायन ] पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) - - मिश्र-प्रकरणम् ८३९४ सिद्ध शाल्मली ७७२५ शीतोदकादि कल्पः अत्यन्त वाजीकरण योगः __ आयु स्थापक ८४१३ स्वगुप्ताद्यो योगः वाजीकरण ७७३५ श्रीसिद्धमोदकः सर्व रोग नाशक, सर्व ८६९१ हरीतकीरसायनम् अक्षय बल वर्द्धक शक्ति वर्द्धक, अदभुत् योग ८७७० क्षीर योगः अत्यन्त बलकारक (१६) रसोपरसादिशोधनमारणाधिकारः ७६०५ शिलाजतु मारणम् ८८३३ ८ स्वर्णमाक्षिकशोधनम् सैन्धव निम्बु ७६०९ , शोधनम् योगसे ७६४६ शुक्ति , ८३३९ ८९५७ समुद्रफेन , ८३४० स्वर्णमाक्षिकशेधनमारणम् ८२२८ सिन्दूर , ८३४१ , स पात सा पातनम् ८२९४ सोमल , ८३४२ , , ८३०६ सौराष्ट्रीशोधनमारणम् ८३४३ , ८३४४ ८३०७ सौवीराजनादि शोधनम् ८३४७०-८३६६ स्वर्ण मारणम् ८३१२ स्फटिका शोधनम् ८३१४ स्रोतोञ्जन , ८३७६-८३७९ स्वर्ण शोधनम् ८४०८ स्नुक् क्षीर शोधनम् ८३३१ स्वर्णमाक्षिक द्रावणम् ८६२३ हिगुल शोधनम् ८३३२ , मारणम् गंधकयोगसे ८६२९ हिंगुला पारदनिस्सारणम् सिन्दूराम भस्म " , कुलत्थ योगसे ८६३१ ८३३६ , शोधनम् ८६९४ हिंगु शोधनम् ८३३७ , कुलथ काथमें ८६४४ हीरक मारणम् दोलायन्त्रसे ८६४५-८६४७ ,, शोधनम् سه س For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६०० कषाय-प्रकरणम् ७१८७ शतावरीकल्कः शरीरगत वायु ७१९८ शतावर्यादि ७७८२ सहचरादि काथः ८४२४ हरीतक्यादिकषायः वातव्याधि द्वादशाङ्गः ७२६० शेफालिकाक्वाथः कष्टसाध्य गृध्रसी । सरल योग ७२६१ शेफालिकादिकाथः ऊरुस्तम्भ ७७७९, समीरदावानलक्काथः समस्त वातव्याधि भारत-भैषज्य रत्नाकरः (४७) वातव्याध्यधिकारः " www. kobatirth.org चूर्ण-प्रकरणम् ७३०९ शुण्ठीचूर्णम् ७३१५ शुण्टयादि चूर्णम् समस्त वातज रोग ७७४२ षड्धरण योगः आमाशयगत वायु ८४५७ हरीतक्यादिकल्क: ऊरुस्तम्भ | ८४६६ चूर्णम् अपतन्त्रक । (भल्लातकयोग) वातव्याधि जंघाशूल और ऊरु स्तंभको ७ दिन में नष्ट कर देता है । ७३३६ शित्वचादिवटिका पक्षाघात, हनुस्तम्भ, कटिभंग तीव्र बाहुपीड़ा गुटिका-प्रकरणम् गुग्गुलु-प्रकरणम् सर्वागवात ७७४७ षडङ्ग गुग्गुलुः ७७४९ षडशीति ७९२५ स्वायंभुव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७९५२ सारस्वत " ו' अवलेह -प्रकरणम् ७३५२ शिंशिपात्वगादियोगः गृध्रसी को २० दिन नष्ट करता है For Private And Personal Use Only घृत-प्रकरणम् ७३६० शतावरी घृतम् पंगुता, अर्दित, नपुंस्कता, वन्ध्यत्व मूकता, जडता और गद गद शब्द । 99 ७९५३ ७९५९ सुकुमारकुमारक घृतम् 29 वातव्याधि । समस्त धातु गत और समस्त अवयवों में ७३९७ शतकप्रसारिणी तैलम् ७४०० शतावरीतैलम् [ वातव्याधि स्थित वायु सन्धि, अस्थि और मजागत वायु " तैल प्रकरणम् 39 3: योनि और लिंगकी वातज पीड़ा, मलावरोध । वातव्याधि योनिशूल, अंगशूल, शिर ७३४५ शतावरी गुग्गुलुः वातव्याधि शूल, गृध्रसी आदि ७२४६ शिवा गुग्गुलुः कटिशूल, गृध्रसी, क्रोष्टु ७४०१ शतावरीतैलम् पंगुता, त्वग्गत वात, शिरा शीर्ष वातव्याधि | और स्नायु गत वायु Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वातव्याधि ‘पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) ६०१ नाशक ७४०२ शतावरीतैलम् कुजता, वामनता, पंगुता | लेप-प्रकरणम् पीठविसर्पण | ७४४९ शतपुष्पादि लेपः अस्थि, सन्धि और कटि ७४०३ , , पंगुता, अंगका सिकुड़ की वायुको ३ दिनमें जाना आदि अनेक रोग नष्ट करता है। ७४०४ , , वातव्याधि ७४७९ शुण्ट्यादि लेपः जानु तथा बाहूको पीड़ा। ७४३० श्वदंष्ट्रादितैलम् गृध्रसी, पादकम्पन, कटि ८७३६ क्षौदादि लेपः ऊरुस्तम्भ । पृष्ठ ग्रह ७९८१ सहचर तैलम् कुष्ठ नाशक, अस्थि, मज्जा रस-प्रकरणम् और कर्णगत वायु,मूकता, ७५३८ शंखद्रावः तूणि, प्रतूणि, तीव्र पीड़ा पीठविसर्पण, अस्थिभंग ७६०१ शिलाजतुयोगः ऊरुस्तम्भ आदि । ७९८४ , कष्ट साध्य वातव्याधि, ७६४२ शीतारि रसः वातव्याधि कम्प, आक्षेप, स्तम्भ, | ७६४९ शुण्ठि खण्डः आमवातनाशक, बलवशोषादि। र्णायु वर्द्धक, बलि पलित ७९८५ सहचराध, समस्त वातकफज रोग। ७९८६ , , अपबाहुक, शिरः कम्पन ८१२९ सन्धिवातारि अर्दित, मेदयुक्त वायु गुटिका कष्ट साध्य संधिवात, वातआदि । व्याधि ( सरल योग) ७९८९ सिद्धार्थक , सन्धिवात, एकांग शोथ, ८१५३ समीरगजकेसरी लड़खड़ाकर चलना। ( कुजता, खंजवात,गृध्रसी, द्धावस्थामें विशेष उप०) कम्प, शोषादि वातव्याधि ७९९५ सुगन्धिततैलम् वातव्याधि । में विशेष उपयोगी ७९९८ सूत , बाहू कम्प, जंघाकम्प, ८१५४ समीरपन्नग रसः सन्धिग्रह (सोमलयुक्त एकांग वात । ८००१ सैन्धवार्य ,, गृध्रसी, ऊरुस्तम्भादि। ८१५५ , मूर्छा, कष्ट साध्य वात ८००४ , , आमवात, शिरपीडा,पक्षा व्याधि घात, सन्धिवात, अण्डगत | ८१७९ साग कम्पारि रसः साग कम्प वायु, ऊरुस्तम्भ । ८१८० सर्वांगसुन्दर चिता८५४९ हिमसागर , चोट की वेदना, बहुतसे मणि रसः वातरोग। वातव्याधि, अतिसार, संग्रहणी, ज्वर रसः योग) For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वातव्याधि ८१९८ सर्वेश्वर रसः सुप्त वात | ८५९६ हरगौरी रसः वातव्याधि ८१९९ , , स्पर्श वात ८२३३ सुखभैरव रसः वात व्याधि मिश्र-प्रकरणम् ८३१० स्पर्श वातन्न रसः स्पर्श वात ७७०८ शंकरस्वेदः अंगोंकी वातज पीड़ा ८३११ स्पर्शवातारिरसः स्पर्शवात, शोथ, वातरक्त ८३१५ स्वच्छन्द नायक । ७७२७ शुण्ठ्यादिपायसः कटि शूल और गृध्रसीको समस्त वातव्याधि अवश्य नष्ट करता है। (४८) विद्रधि कषाय--प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ८४७२ हरीतक्यादि चू० उग्र अन्तर्विद्रधिको ७२२४ शिमूलादि अवश्य शीघ्र ही नष्ट योगः अन्तर्विदधि करता है। (सरल ७२२५ शिग्रवादि कपायः ॥ योग) ७२६४ शोभाञ्जनादि कन्कः , लेप-प्रकरणम् ७२८० श्वेतवर्षाभ्वादि क्वाथः ,, । ७४६६ शिवादि लेपः वातज विधि । ८५६५ हरीतक्यादि , विधि, कञ्ची पक्की प्रन्थि ७८१३ सौभाजनक क० विद्रधिको शीघ्र नष्ट ८७३४ क्षीरकाकोल्यादि करता है। सरल यो० __ लेपः पैतिक विधि । (४९) विरेचनाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ८१८२ सर्वांग सुन्दर रसः रेचक, ज्वर, आमवात ८४७८ हरीतक्यादि योगः मुख विरेचक श्वास नाशक For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषरोगाधिकारः] पञ्चमो भागः (चि. ५. प्र.) ६०३ - --- - - योगः योग) (५०) विषरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् अमन-प्रकरणम् ७२७८ श्वेतपुनर्नवामूल ८०८३ संज्ञाप्रबोधनरसः सर्पविष १ वर्ष तक सादि से रक्षा ८०८५ सर्पविषहराञ्जनम् , रहती है नस्य-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ७५१७ शिरीपपुष्पनस्यम् मण्डूक विष ७३०४ शिरीषादियोगः सर्पविष ८११७ सिन्दुवारादिन० मूषक विष । ७८७३ सैन्धवादि योगः स्थावर जंगम विष (सरल रस-प्रकरणम् ७५७५ शर्करादिलेहः उग्र कृत्रिम विष घृत-प्रकरणम् ७३७८ शिखरीवृतम् समस्त विषविकार, विषम ७६१४ शिलादिपानकम् तोब मूषक विष ८१२५ संजीवनीवटी सर्पदष्ट मृत्प्रायः रोगीको । ज्वर भी जीवन दान देती है। ७९६१ सूर्योदय , मकड़ीका विष ८२४३ सुरसादियोगः घोर मूषक विषको अवश्य पासवारिष्ट-प्रकरणम् नष्ट करता है। ७४३९ शिरीषारिष्टः समस्त विषविकार ८२५० सूचिकाभरणरसः मूर्छा नाशक ८३७० स्वर्ण योगः विषादि लेप-प्रकरणम् ७४७० शिरीषादिलेपः विष नाशक सरल योग। मिश्र-प्रकरणम् ७४७२ , , मूषक विषनाशक सरल ७७१८ शिरीषपुष्पादियोगः सर्पविष योग। बर्रका दंश ७४८६ स्वान विषहरो ,, श्वान विष , , ८७६३ क्षारागदः इसका लेप करके बाजे ८०६६ सोमवल्कलादि बजानेसे वायु विष रहित लेपः दन्तविष, नखविष होती है। - - . For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६०४ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य - रत्नाकरः (५१) विसर्पाधिकारः कषाय-प्रकरणम् ७७८६ सारिवादिकाथः विसर्पको शीघ्र नष्ट करता है । लेप७४४५ शतधौतसर्पिः लेप: हर प्रकारका विसर्प प-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् (५२) ८४५६ हरीतकीयोगः कफवातज वृद्धि नाशक सरल योग । ८४७१ हरीतक्यादिचू० पुराना वृद्धि रोग (स. यो. ) घृत-मकरणम् ७३५८ शतपुष्पाद्यं वृतम् अन्त्रवृद्धि, वातवृद्धि, पित्तवृद्धि मेद, श्लीपद, मूत्रवृद्धि कषाय-प्रकरणम् ७२०८ शरपुङ्खारसयोगः शस्त्राघात, सरलयोग ७२११ शास्खोटादियोगः व्रणका वातज शोथ वृद्धधिकारः गुग्गुलु -प्रकरणम् ७९१९ सप्तांग गुग्गुलुः नाड़ीत्रण, भगन्दर ७४७४ शिरीषादि लेपः ७४७५ शिरीषाष्टकः ८५६६ हरेण्वादि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५३) व्रणाधिकारः ७४५२ शम्बूकयोगः " ७९६७ सौ रवरघृ० अत्रवृद्धि, शोध, अर्श विसर्प और दाहको शीघ्र नष्ट करता है । For Private And Personal Use Only विसर्प, प्रस्वेद विसर्प लेप-प्रकरणम् [ विसर्प रस-प्रकरणम् ७५८४ शशि शेखर रसः अन्त्रवृद्धि ७६८८ श्वदंष्ट्रादि चूर्णम् वातज व कुरंड रोग घृत-प्रकरणम् ७३९१ श्यामाघृतम् ठाण ८०७५ स्वर्जिकादिधृ० ब्रणकी खाज, कृमि, शो धक, रोपण तैल-1 -प्रकरणम् ८००३ सैन्धवाथं तैलम् गम्भीर कफ वातज नाड़ी ब्रणको शीघ्र नष्ट करता है। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रण] पश्चमो भागः (चि. प. प्र.) ६०५ ८०१६ स्वर्जिकार्य तै० दुष्ट अण, कफज नाडीव्रण : ८०४० सिक्थकादि व्रण ८०१७ , , नाड़ी ब्रश ८०५३ सुधादि लेपः अग्निदग्ध व्रण. ( उत्तम ८५३८ हरिद्रादि , व्रण सरल योग) ८५४६ हंसपादी ,, नाड़ी ब्रण -८५६२ हरिद्रादि , बगको फाड़ देता है। ८५५१ हिंस्राय , शोधन रोपण ८५७० हस्तिदन्तादि ,, अत्यन्त कठिन ब्रणको फोड़ता है। लेप-प्रकरणम ८५७८ हेमक्षीर्यादिले० व्रणशोथको फाड़ देताहै। ७४४४ शणमूलादिलेपः कच्चे फोड़ेको पकाता है। " ७४५३ शरपुंखादियोगः रोपण ( सरल योग) मिश्र-प्रकरणम् ८०२१ सप्तदलादिलेपः ब्रण शोथ ८३९९ मूत्रवर्तियोगः ब्रणशोधक ८०२९ सर्जिकादि , , ८४१० स्नुकपत्रयागः कठिन ब्रण ८०३८ सारिवादि , ब्रणशोधक ८४११ स्नुहीशीराधा ८०३९ सिक्थकघृतम् ब्रण वर्तिः नाड़ीव्रण, भगन्दर (५४) शिरोरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम् ७२२७ शिरोविरेचनीयो ७४०७ शताहादितैलम् शिरशूल, वातकफज दशको महाकषायः शिरोरोग : तिमिर ७७३९ षडङ्गक्वाथः शिर भ्र कर्णशूल, अर्धा- ७४२९ श्लेष्मान्तकादि वभेद, सूर्यावर्त, शंखक, तैलम् पलित दन्तपात, दन्तपाड़ा ७७६० षडविन्दु, वातविकार, कृमिजन्य चूर्ण-प्रकरणम् शिरोरोग ७३३३ श्रीखण्डादियोगः शिरपीड़ा ७७६२ . " समस्त शिरोरोग, बाल गिरना (दन्त पौष्टिक) घृत-प्रकरणम् ७९८७ सारिवाचं , दारुणक रोग, खाज ७३७४ शतावर्यादियमकम् समस्त ऊर्ध्वजत्रुगतरोग; ८५४५ हरिद्राचं , कफज तथा सान्निपातिक ७७५५ षड्विन्दु घृतम् शिरशूल (नस्य) शिरोरोग For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०६ भारत-मेषज्य-रत्नाकरः [शिरोरोग - - अञ्जन-प्रकरणम् । ७४८४ श्यामादिलेपः त्रिदोषज शिरपीडाको ८०९५ सुप्रचेतना गुटिका शिरपीड़ा तुरन्त नष्ट करता है। ८०२४ सरलादि , कफज शिरपीड़ा नस्य-प्रकरणम् ८०२५ , , , "" ७५१४ शर्करादिनस्यम् वातज तथा रक्तज भ्र. ८०४९ सिन्दूरादि , बालोंको तुरन्त काला शूल, शंखमूल, अर्धाव करने वाला केशकल्प मेद, सूर्यावर्त ८०७३ स्तुह्यर्कादि , शिरोबण, कण्डू ७५९५ शालिपादि ८५६७ हरेवादि , कफज शिरपीड़ा ___ नस्यम् अर्धावभेद ८५७१ हस्तिदन्तादि केशकल्प (खिजाब) ७५२० शिरीषादियोगः । ८५७२ हस्तिदन्तायो खालित्य ७५२१ शिरोतिहररसः शिरपीड़ा ८११६ सितोपलादिनस्यम् अर्धावभेद रस-प्रकरणम् ७५८८ शिरोरोगारिरसः सूर्यावर्तादिको १सप्ताहमें लेप-प्रकरणम् नष्ट करता है. ७४५० शतावर्यादिलेपः सूर्यावर्त | ७५८९ शिरोवजरसः हर प्रकारको शिरपीड़ा ७४५६ शारिवादि , , अर्धावभेद में उत्तम है. ७४५७ , , , , । ८२८९ सूर्योदय रसः १सप्ताहमें सूर्यावर्तादि ७४८० शुण्ठ्यादि , कफज शिरपीड़ा को नष्ट करता है। (५५) शीतपित्ताधिकारः रस-प्रकरणम् ८६०३ हरिद्राखण्डः शीतपित्त, उदर्द, कोठ, ८२५७ सूतभस्मयोगः शीतपित्त कंडू, ज्वर, शोथ, कृमि • ८६०२ हरिद्राखण्डः शीतपित्त, उदर्द और । कोठको १ सप्ताहमें नष्ट मिश्र-प्रकरणम् करता है । खाजकी महौषध ८३९५ सिद्धार्थायुद्वर्तनम् शीतपित्त, उदर्द, कोठ For Private And Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूलरोगाधिकारः] पश्चमो भागः (चि. १. प्र.) ६०७ (५६) शूलाधिकारः कषाय-प्रकरणम् ८४९९ हिङ्ग्वादिचू० कुक्षि, पार्श्व, हृदय और ७१९५ शतावर्यादिक्वाथः दाह, शूल ज्वर बस्ति का शूल ७१९६ , , , , पित्त ८५०० , , शूल, अफारा, ज्वर, ७२१८ शिक्वाथः पार्च हद्वस्ति शूल मलावरोध ७२३६ शुण्ठ्यादिकल्कः परिणाम शूल, आमवात __ शल, प्लीहा ७२५३ शूलप्रशमनो दशको ८५०२ , __ शल, वातगुल्म महाकषायः ८५०३ ॥ ८४३४ हिङ्ग्यादि क्वाथः वातज शूल पार्श्व हृदय बस्ति और ८४३५ , , शूल, गुल्म योनि शूल, अक्षारा पूर्णपकरणम् ८५०७ , , प्रवृ वातज शल ८७१० क्षारामृत , शूल, आमाह, गुर्ब्रश, १२९६ शर्कराचं चूर्णम् शलके लिये अमृतोपम | दाह, उद्गार अधिक सरलयोग आना, वमन ७३०० शार्दूल , शूल, आनाह ८७१३ क्षुद्र करवन्दयोगः मन्त्र शल ७३.१ , , कोठरुजा इत्यादि ७३०६ शियादि , शल गुटिका-प्रकरणम् ७८५४ सुवर्चलादि योगः वातजशूल | ७९०२ सुवर्चलादिगुटिका वासज शूल ७८५५ , , शूल ८५२२ हिङ्ग्वादि , वातज , ७८६५ सैन्धवादि चूर्णम् शूल ८५२३ हिङ्वाचा वटी पार्व कुक्षि और ७८६८ , , वातज शूल हृदयशूल ७८८४ सौवर्चलायं, शूल, गुल्म ८४९३ हिग्यादि , पार्व हृदय कमर और तुल-प्रकरणम् पीठका शुल, शोथ, ७९१४ तविंशतिको आनाह गुग्गुलुः पार्श्व कटि वंक्षण कुक्षि ८४९५ ॥ ॥ वातज शूल, विचिका हृदयशूल ८४९८ , , शूल, अतिसार ૧૦૮ For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६०८ अवलेह- -प्रकरणम् ८५२५ हरीतकीखण्ड: शूल, आनाह, वायु, अम्लपित्त घृत-प्रकरणम् ७३८५ शलि घृतम् आसवारिष्ट-प्रकरणम् ८०२० सूक्ष्मैलायरिटः शूल ८०७७ सक्तुधूपः तैल-प्रकरणम् ७४२० शूलगजेन्द्रतैलम् उपद्रवयुक्त ८ प्रकारके शूल वमन, ज्वर लेप-प्रकरणम् ८५७४ हिङ्ग्वादि लेपः शूल हृदयशूल, पार्श्वशूल, वातव्याधि, हिक्का धूप-प्रकरणम् शूल ७५३० शंखचूर्णम् 33 ७५३१ ७५३८ शंखनाव: www. kobatirth.org भारत-भैषज्य रत्नाकरः " कोष्ठकी रस-प्रकरणम् यच्छूल, परिणाम शूल, अन्नद्रव शूल, अन्न शूल त्रिदोषज शूल तीव्र शूल, तूणि, प्रतूणि, अजीर्ण ७५४५ शंखभास्कररसः समस्त शूल ७५४८ शंखवटी ७५४९ ७५५० 22 " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " "3 "" " ७५५७ शं वादिचूर्णम् ७५५८ "1 ७५६७ शतावरीमण्डूरम् त्रिदोषज शूल, अम्लपित्त, वमन, कास, श्वास ७५६८ शतावरी वातपित्तज परिणाम शू० ७५७० शम्बूकयोगः पक्ति शलको तुरन्त नष्ट करता है | 39 For Private And Personal Use Only ७५७८ शर्करा लौहम् ७६१८ शिलाबद्धरसः ७६५१ शुल्वसुन्दररसः [ शुल शूल, अजीर्ण, विषूचिका, अलसकादि शूल, अजीर्ण, अग्निमांद्य, ७५७२ शम्बूकादिवटी परिणाम शूलको शीघ्र नष्ट करती है । ७६५२ शूलकुठाररसः ७६५३ गजकेसरी गुटिका मूत्रकृच्छ्र शूल, वातव्याधि, क्षय, कास, श्वास, अजीर्ण ७५७३ शम्बूकाद्यगुटिका पित्तज शूल, शोथ, गुल्म ७५७६ शर्करामण्डूरम् ७५७७ शर्करालौहम् पक्ति शूल, अम्लपित्तादि समस्त शलों में उत्तम " पित्तज शूल, हृदयशूल, पार्श्व शूल, कुक्षि शूल, चस्ति शूल, गुदपीड़ा, आनाह आदि समस्त शूल पित्तज शूल वातज पित्तज पक्तिशूलको शीघ्र नष्ट करता है । समस्त शूल शूल, अग्निमांद्य, विबन्ध, गुल्म, ज्वर Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शूल] पञ्चमो भागः ( चि. प. प्र.) ६०६ - - - ७६५४ शूल गजकेसरी ८१५६ समीरशूलेभहरिः वातजशूल रसः असाध्य शूल | ८१७४ सर्वतोभद्र लौहः त्रिक शूल, कटि शूल, ७६५५ , , , शूल मुखस्राव, नाभिसे ऊप७६५६ , , , शूल रका आम ज्वर | ८१८५ सर्वांगसुन्दररसः शल, गुल्म ७६५७ , , , समस्त उपद्रव युक्त शूल ७६५८ शूलगजकेसरीरसः समस्त शूल ८१८९ , , , समस्त शल, कफवातज ७६५९ शूलदावानलरसः रोग , " ७६६० शूलराजलौहम् सर्वदोषज कुक्षि शूल, ८१९२ सर्वेश्वर चूर्णम् समस्त शूल, उदररोग, हृदयः शूल, पार्श्व शूल, अग्निमांध ____ अम्लपित्त, विसूचिका ८२०८ सामुद्राय चूर्णम् परिणामांशल और नाभि७६६१ शूलवज्रिणी शूलमें अत्यन्त प्रभावशाली वटिका समस्त शूल, गुल्म, शोथ, ८२८२ सूर्यप्रभावटी आठ प्रकारके शूल पिपासादि ८६.१० हरातकी खण्डः दुर्जय अम्लपित्त, अन्न७६६२ शूलसिंहरसः कफज शूल द्रव शूल, समस्त शूल, .७६६३ शुलहरक्षारः शूलको तत्काल नष्ट क कासादि रता है। । ८६१५ हरीतक्यादि योगः समस्त शूल ७६६४ शूलहरणयोगः शूल, ग्रहणी, अतिसार, ८६१७ वटी पुराना भयंकर शूल, अग्निमांद्य अतिसार, अजीर्ण ७६६५ शूलान्तकरसः समस्त शूल नाशक, रेचक | ८७४४ क्षारताम्र रसः समस्त शूल ७६६६ , , परिणाम शूल, अम्लपित्त, ८७४५ , , वातज शूल वमन, अन्नद्रव शूल ८७४८ क्षीरमण्डूरम् पक्ति शूल ७६६७ शूलेभर्सिहिनीगु० शूल, नेत्रस्राव ७६८७ श्लेष्मान्तकरस. कफज शूल, अग्मिांध मिश्र-प्रकरणम् ७७६८ षण्मुखो रसः आमशूल ८७६४ क्षाराम्बु योगः वातकफज शूल For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१० कषाय-प्रकरणम् ७२४५ शुण्ठ्चादिकाथः वातज शोथ ७२६२ शोधन्यादिकाथः शोथ ७२६३ शोथहरो दशको www. kobatirth.org भारत - मैषज्य रत्नाकरः (५७) शोथाधिकारः महाकषायः शोथ ७७८० सरलादिकल्कः कफ वातज शोध ७७९९ सिंहास्यादिका० शोथ, कास, श्वास, ७८८६ स्तुक् क्षारभावित वर सर्वाङ्गशोध, लोहा ७८१८ स्थलपद्मकल्कः ८४३१ हरीतक्यादि यो ० ज्वरजनित शोध चूर्ण-प्रकरणम् ७३२९ शोधारिचूर्णम् दारुण शोथ, और पाण्डु शीघ्र नष्ट होता है । " ७८५७ सुवर्ण समकं, सर्व शरीरगत शोथ, ज्वर, पांडु, उदररोग पिप्पली तथा हर्र कफज शोध गुटिका-प्रकरणम् ८७१५ क्षार गुटिका शोथ, प्लीहा, उदररोग, पाण्डु, वास कासादि अवलेह - प्रकरणम् ८५२७ हरीतक्यवलेहः प्रवृद्ध शोध, ज्वर, अम्लपित्त, मूत्रदोष, श्वास, कास, गरदोष घृत-प्रकरणम् ७९६९ सौवर्चलादिघृतम् शोथ, अर्श, गुल्म, प्रमेह ७९७० स्थल पद्मक दारुण शोथ, वसी ७४१९ तैल-प्रकरणम् ७४१६ शुष्कमूला तै० शोथ, शूल ७४१८ " " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 99 " "1 ७४२२ शैलेयतैलम् ७४२३ शोथशार्दूलते ० For Private And Personal Use Only "" 97 [ शोध वातजशोथ सर्व देहगत भयंकर शोध, श्लीपद, अवर ७९७९ समुद्रशोषणतै ० कफपित्तज शोथ, शि दुष्ट विकार जनित तथा मलजनित अनेक शोथ विरुद्ध भेषज जनितशोथ व्रणशोथ लेप-प्रकरणम् ७४६१ शित्वगादिलेपः कफजशोथ ८०२३ समुद्रफेनजशो थन लेपः रकी सूजन, कर्णशोथ, दन्तवेशोथ, हनुमूल शोथ, नेत्रशोथ, श्लीपद समुद्रफेनके घर्षण से उत्पन्न मण्डल आदि रस-प्रकरणम् ७५९५ शिलाजतुयोगः त्रिदोषज शोथ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोय] पञ्चमो भागः (चि. प. प्र.) - ७६७० शोथकालानलो शोथको अवश्य नष्ट ७६७७ गोथोदरारिलौहम् हर प्रकारके कष्टसाध्य करता है। ज्वर, श्वास, पुराने शोथमें उत्तम. कासादि शोथोदरमें श्रेष्ठ, उदर७६७१ शोथभस्मलौहः उदरशोथ, समस्त श रोग, कामला अर्श और रीरगतशोथ, संग्रहणी ज्वरनाशक ७६७२ शोथाङ्कुशो सर्वाङ्गशोथ, ज्वर, पाण्डु ७६७३ शोथारिमं० सर्वदोषज सर्वाङ्ग शोथ ७६९० श्वयघातारि रसः शोथोदर ७६७४ , रसः शोथनाशक, मूत्रल ८२३९ सुधानिधिरसः शोथ, संग्रहणी, पाण्डु ७६७५ , रसः समस्त शोथ ८२४९ सुवर्चलाध लौ० शोथ, पाण्डु, कास ७६७६ , लौ० शोथको शीघा नष्ट क- ८७५४ क्षेत्रपाल रसः शोथ, दुस्तर संग्रहणी, रता है। घर, अग्निमांद्य (५८) श्लीपदाधिकारः घृत-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ७९६७ सौ रेश्वरघृतम् रक्त मांस और मेदमें ८४५३ हरिदाचं चूर्णम् १ वर्ष पुराना श्लीपद स्थित कफ वातज श्लो. (सरलयोग) पदको अवश्य नष्ट कर देता है। ८४७३ हरीतक्यादि, स्लीपदको ७ दिनमें | रस-प्रकरणम् नष्ट करता है। ७६८१ श्लीपदगजकेसरी कष्टसाध्य स्लीपद, (सरलयोग) प्लीहावृद्धि १ ७६८२ श्लीपदारि लौहम् स्लीपद For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रत्नाकरः [स्त्री रोग - (५९) स्त्रीरोगाधिकारः कपाय-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम् ७१८९ शतावरीकल्कः स्तन्यवर्द्धक ७२९५ शर्करादियोगः गर्भपात ७२०४ शताहादिकल्कः रक्तगुल्म ७३१५ शुण्ठयादिचू० प्रबल प्रदर नाशक, ७२१५ शालिपिष्टयागः गर्भपात सरलयोग ७२ ३७ शुण्ठयादिकषायः गर्भिणीकी छर्दि, अनि ! ७३२३ शूकरशिम्बीमूल योगः पुत्रोत्पादक सार ७७७४ समङ्गादिकल्कः रक्तप्रदर । ८५०६ हिङ्वादि चूर्णम् योनिदोष, योनिशूल योनि को मृदु करता है। ७७८१ सहचरादि सूतिका ज्वरको शीघा नष्ट करता है। गुटिका-प्रकरणम् ७७८४ " " प्रसूत ज्वर, शूल ७७८५ , , प्रसूतरोग, आमश्वर, ७३४२ श्रीफलकुसुमव० दुःसाध्य सूतिका रोग : (दीपन है) ७८०५ सुदर्शनामूलयोगः प्रदरनाशक सरल योग अवलेह-प्रकरणम् ७८११ सूतिकादशमूलम् ज्वर दाह युक्त सूतिका ७९४१ सौभाग्यशुण्ठिपाकः सूतिका रोग, छर्दि, दाह, ज्वर, दाह, श्वास, कास, प्लीहा ७८१६ स्तन्यजननो दशको महाकषायः स्तन्यवर्द्धक ७९४२ सौभाग्य शुण्ठिः समस्त स्त्रीरोग, कास, श्वास, अम्लपित्त (स्त७८१७ स्तन्यशोधनो दश नोंको दृढ करता है।) को महाकषायः स्तन्यशोधक ७९४३ , , सूतिका रोगमें विशेष ८४३८ होवेरादिकषायः गर्भिणी और प्रसूताका गुणकारी, योनि रोग, पीडायुक्त और नाना प्रदर, आर्तवदोष, शिरो वर्ण वाला अतिसार, वेदना, कटि शूल. रक्तस्राव, ज्वर ८४४२ होवेरादिक्वाथः गर्भचलन, कुक्षि शूल, घृत-प्रकरणम् ७३६१ शतावरी घृतम् रक्तप्रदर, दाह, मूत्रकृच्छ् | ७३६२ , , रक्तप्रदर, क्षय इत्याद रोग प्रदर For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्रीरोग] पञ्चमो भागः (चि. ए. प्र.) ६१३ - - - - --. कुष्ठ. ७३७७ शाल्मली धृ० समस्त प्रदर रस-प्रकरणम् ७३७९ शीतकल्याणकं | ७६०८ शिलाजतु वटिका रक्त प्रदर, पाण्डु, ज्वर घृतम् प्रदर, रक्तगुल्म, ज्वर, ८१२१ संकोच पिष्टिका अरुचि, अल्पातव, गर्भ रस: प्रसूत वात, वातव्याधि, न रहना ७९६३ सोमघृतम् गर्भावस्थामें सेवन करनेसे । ८१८३ सागसुन्दररसः अङ्गमर्द, पीडायुक्त बुद्धिमान् , नीरोग और समस्त प्रदर, कष्ट साध्य बाग्मी पुत्र उत्पन्न होता अग्निमांद्य,कास प्रतिश्या० है। बन्ध्यत्व और योनि- ८२६५ सूतिका न रसः सूतिका रोग, ज्वरातिसार, दोष नाशक । कास ७९६४ , ऊपरके समान । । ८२६६ सूतिकान्तकरसः सूतिका रोग, संग्रहणी, भयंकर अतिसार, कास तैल-प्रकरणम् ८२६७ सूतिकाभरणरसः प्रवृद् सूतिका रोग, ७४०० शतावरीतैलम् योनिशल, पदर विशेषतः धनुर्वात् ८२६८ सूतिकारि रसः नाशक तथा पु-दाता कष्ट माध्य सूतिका रोग, ७४२७ श्रीपर्णी तैलम् स्तनोंको कठोर और पुष्ट आर. ६षा, सरुचि, शोथ मन भूतिका गेग. जो चर करता है शोथ, यही, लोहा, ८५५२ हेम सुन्दर तैलम् सूतिका रोग, दुः स्वेद ८७३२ क्षार तैलम् बालोंको निर्मूल करता है। ८२७० मृतिकारोगनाशन रसूतिका रंग लेप-प्रकरणम् ८२७१ मृतिकावल्लभोरसः सतिका, कष्ट साध्य ७४४२ शंखादि लेपः लोम नाशक गहणी, प्रबल अतिसार, ७४४२(अ) , , लोम निर्मुलक ग्रहणी, दुर्बलता ७४५८ शालिपर्ष्यादि सुख प्रसवकारक | ८२७२ सूतिकाविनोदरसः सूतिका रोग ७४७८ शुण्ट्यादि योनि शूल नाशक, योनि ८२७३ निकाहरो रसः सूतिका रोगमें शीघ्र संकोचक सरल योग। "ल प्रद ८५५६ हरितालादि लोमनाशक । ८२७४ , सूर्तिका रोग, अतिसार 'रसः For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१४ ८२९१ सोमनाथ रसः ७७७२ सप्तपर्णयोगः ८ २९२ सोमनाथ रस: ८३०१ सौभाग्य शुंठी सूतिका रोग, अतिसार, ग्रहणी ८३०२ सौभाग्यण्टिपाकः सूतिका रोग, दुग्ध ७३२० शुण्ण्याचं चूर्णम् ७८५८ सूक्ष्मैलादि,” ८४६७ हरीतक्यादि, ८४८२ हारहूरादि ८४८५ ह ८५१३ हिवा ७९०१ सुधावटी 13 कषाय-प्रकरणम् ܙܕ भारत - भैषज्य रत्नाकरः अनेक प्रकारके सोम । ८३०४ सौभाग्यशुण्ट्य रोग, कष्ट साव्यप्रदर, चलेहः पुराना योनिशूल, कष्ट साध्य बहुमूत्रको अवश्य नष्ट करता है । सोमरोग, मधुमेह 91 कषाय-प्रकरणम् ८४३७ हृद्यो दशको महाकषायः हृद्य चूर्ण-प्रकरणम् हृद्रोग, श्वास कफज हृद्रोग हृद्रोग पित्तज होग www. kobatirth.org क्षय, ज्वर, रक्त गुल्म, प्रदर, सोमरोम (६०) स्नायुकरोगाधिकारः हृद्रोग, श्वास शूल बहुमूत्र 97 गुटिका-प्रकरणम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हृद्रोग, प्रतिश्याय, श्वास, कास ८४०७ स्नुक्क्षीर योगः ८३८८ सर्प कंचुकी योगः लेप-प्रकरणम् नहरुवा ( स्नायुक ) ७४६३ शिथ्रुमूलादिलेपः स्नायुक नाशक सरलयोग (६९) हृद्रोगाधिकारः मिश्र-प्रकरणम् ७७१० शरपुंखामूलयोगः सुखप्रसव कारक ७७२१ शीत जल कुंभ धारणम् ७५२७ शंकर वटी For Private And Personal Use Only सूतिका रोग,मकल शूल, निर्बलता " [ स्त्रीरोग घृत-प्रकरणम् ७३९३ श्रेयस्याद्य घृतम् पित्तज हृद्रोग ७९७३ स्थिराधं " ८५२९ हरीतक्यादि, वातज हृद्रोग, पार्श्वशूल ८६५४ हृदयार्णव रसः ८६५५ हृद्रोग हर रसः रक्त प्रदर में तुरन्त लाभ पहुंचाता है । मूढ गर्भ " रस-प्रकरणम् " हृद्रोग, फुफ्फुस रोग, जीर्णज्वर, प्रमेह, श्वास, आमवात कफज हृद्रोग प्रवृद्ध हृद्रोग, अग्निमांद्य. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Tara 20 ARMER हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन अष्टांगहृदयम् (वाग्भट कृत, हिन्दी अनु० सहित)-लालचन्द्र वैद्य (सजिल्द) ५५ (अजिल्द) ४५ क्लीनीकल मेडिसिन (दो भागों में) -अत्रिदेव कायचिकित्सा-धर्मदत्त वैद्य चरकसंहिता-श्री जयदेव विद्यालंकार (हिन्दी अनुवाद सहित) भाग १ (सजिल्द). ४५ (अजिल्द) ३० भाग २ (अजिल्द) ३०; (सजिल्द) ४५ बेहधात्वग्निविज्ञानम-हरिदत्त शास्त्री १५ भावप्रकाशनिघंटु-विश्वनाथ द्विवेदी कृत हिन्दी टीका सहित भैषज्यरत्नावली-श्री जयदेव विद्यालंकार कृत। हिन्दी टीका सहित, आठवां संस्करण (अजिल्द) ६०; (सजिल्द) १३५ माधवनिदान (मधुकोश संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद सहित)-नरेन्द्रदेव शास्त्री (अजिल्द) ३५; (सजिल्द) ५५ रसतरंगिणी (सदानन्द कृत हिन्दी टीका) -काशीनाथ शास्त्री (सजिल्द) ६० (अजिल्द) ३५ रसरत्नसमुच्चय (धर्मानन्द शर्मा कृत हिन्दी व्याख्या)-अत्रिदेव विद्यालंकार (अजिल्द) ३०; (सजिल्द) ४५ रसेन्द्रसारसंग्रह-नरेन्द्रनाथ (सजिल्द) २५ (अजिल्द) २० व्याधिविज्ञान-आशानन्द पञ्चरत्न, प्रथम भाग १५, द्वितीय भाग (सजिल्द) ४५ (अजिल्द) ३० सुश्रुतसंहिता (सम्पूर्ण) अनिदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी टीका सहित (सजिल्द) १२० (अजिल्द) ९० ohallion COM मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राधनिक चिकित्साशास्त्र धर्मवत्त वैद्य इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें आधुनिक काय-चिकित्सा के वर्णन के साथ-साथ प्रायुर्वेदिक काय-चिकित्सा का भी उल्लेख है। ये दोनों एक-दूसरे के सहायक सिद्ध हुए हैं। जहां प्राधुनिक काय-चिकित्सा How के प्रश्न का समाधान करती है वहां आयुर्वेदिक काय-चिकित्सा Why के प्रश्न का समाधान करती है, अर्थात् रोग का मूल कारण बताती है, जिसके फलस्वरूप चिकित्सा सुगम और ठीक होती है। यह स्पष्ट बताती है कि शरीर के तीन मूल तत्त्व देहाग्नि, देहप्राण, तथा देहवृद्धि हैं। इनके किसी अंग में मन्दता आ जाने से रोगोत्पत्ति होती है। आयुर्वेद का एक विशेष दृष्टिकोण है जिससे वेदोषिक या धातुक चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया जाता है और रोगों में प्रौषध, आहार, विहार आदि उपचारों का विधान किया जाता है। आयुर्वेद का मूल वैदोषिक दृष्टिकोण कभी नहीं बदला चाहे औषधियां भले ही बदलती रहें। अतः आयुर्वेद उपचारों के प्रयोग में स्वतन्त्रता देता है। इस प्रकार प्रायुर्वेद चिकित्साशास्त्र का छात्र धातुक या दोषिक दृष्टिकोण को कभी दृष्टि से प्रोझल नहीं होने देता। इसलिए इन दोनों चिकित्सामों के अध्ययन से अवश्यमेव लाभ ही होगा क्योंकि दोनों का लक्ष्य रोगी को रोगमुक्त करना ही है। (सजिल्द) ० १४० (अजिल्द) ० ९५ मानव-शरीर-रचना (दो भागों में) मुकुन्दस्वरूप वर्मा सम्पूर्ण चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद के जिन तीन मूल आधारों पर आश्रित है उन्हें शरीररचनाविज्ञान, शरीरक्रियाविज्ञान और विकृतिविज्ञान कहते हैं उनमें शरीररचनाविज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है । इसके बिना अन्य प्रायुर्वेदशाखामों का ज्ञान होना सम्भव ही नहीं। _इस विषय में पाश्चात्य वैज्ञानिकों के ही अनुसंधान उपयोगिता की दृष्टि से प्रत्यन्त लाभप्रद सिद्ध हुए हैं। पाश्चात्य भाषाओं से अपरिचित चिकित्सक इन अनुसंधानों से लाभ नहीं उठा सकते। इस अभाव की पूर्ति के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गई है। दुरूहता को हटाने के लिए अंग्रेजी पारिभाषिक शब्दों के अनुवाद में स्वीकृत वैज्ञानिक-तकनीकी-शब्दावली का प्रयोग किया गया है और सैकड़ों चित्रों से समझाया गया है। प्रथम भाग में ऊतकविज्ञान (Histology), भ्रूणविज्ञान (Embryology) और अस्थिविज्ञान (Osteology) विषयों का वर्णन है और द्वितीय भाग में सन्धिविज्ञान (Syndesmology), मांसपेशीविज्ञान (Myology) और वाहिकाविज्ञान (Angiology) विषयों का विवेचन हुआ है। यह कृति शरीर-रचना के जिज्ञासुत्रों के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगी। प्रथम भागः रु. ५० द्वितीय भागः (प्रजिल्द) रु० ७५; (सजिल्द) रु० १०० मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राधुनिक चिकित्साशास्त्र धर्मदत्त वैद्य इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें आधुनिक काय-चिकित्सा के वर्णन के साथ-साथ आयुर्वेदिक काय-चिकित्सा का भी उल्लेख है। ये दोनों एक-दूसरे के सहायक सिद्ध हुए हैं। जहां आधुनिक काय-चिकित्सा How के प्रश्न का समाधान करती है वहां आयर्वेदिक काय-चिकित्सा Why के प्रश्न का समाधान करती है. अर्थात् रोग का मूल कारण बताती है, जिसके फलस्वरूप चिकित्सा सुगम और ठीक होती है। यह स्पष्ट बताती है कि शरीर के तीन मूल तत्त्व देहाग्नि, देहप्राण, तथा देहवृद्धि हैं। इनके किसी अंग में मन्दता आ जाने से रोगोत्पत्ति होती है। आयुर्वेद का एक विशेष दृष्टिकोण है जिससे दोषिक या वैधातुक चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया जाता है और रोगों में औषध, आहार, विहार आदि उपचारों का विधान किया जाता है। आयुर्वेद का मूल वैदोषिक दृष्टिकोण कभी नहीं बदला चाहे औषधियाँ भले ही बदलती रहें। अतः आयुर्वेद उपचारों के प्रयोग में स्वतन्त्रता देता है। इस प्रकार आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र का छात्र वैधातुक या दोषिक दृष्टिकोण को कभी दृष्टि से अोझल नहीं होने देता। इसलिए इन दोनों चिकित्साओं के अध्ययन से अवश्यमेव लाभ ही होगा क्योंकि दोनों का लक्ष्य रोगी को रोगमुक्त करना ही है। (सजिल्द) ० १४० (अजिल्द) रु० ६५ मानव-शरीर-रचना (दो भागों में) । मुकुन्दस्वरूप वर्मा सम्पूर्ण चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद के जिन तीन मूल आधारों पर आश्रित है उन्हें शरीररचनाविज्ञान, शरीरक्रियाविज्ञान और विकृतिविज्ञान कहते हैं उनमें शरीररचनाविज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है । इसके बिना अन्य आयुर्वेदशाखाओं का ज्ञान होना सम्भव ही नहीं। इस विषय में पाश्चात्य वैज्ञानिकों के ही अनुसंधान उपयोगिता की दृष्टि से अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध हुए हैं। पाश्चात्य भाषाओं से अपरिचित चिकित्सक इन अनुसंधानों से लाभ नहीं उठा सकते। इस अभाव की पूर्ति के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गई है। दुरूहता को हटाने के लिए अंग्रेजी पारिभाषिक शब्दों के अनुवाद में स्वीकृत वैज्ञानिक-तकनीकी-शब्दावली का प्रयोग किया गया है और सैकड़ों चित्रों से समझाया गया है। प्रथम भाग में ऊतकविज्ञान (Histology), भ्रूणविज्ञान (Embryology) और अस्थिविज्ञान (Osteology) विषयों का वर्णन है और द्वितीय भाग में सन्धिविज्ञान (Syndesmology), मांसपेशीविज्ञान (Myology) और वाहिकाविज्ञान (Angiology) विषयों का विवेचन हुआ है। यह कृति शरीर-रचना के जिज्ञासुत्रों के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगी। प्रथम भागः रु० ५० द्वितीय भागः (अजिल्द) रु० ७५; (सजिल्द) रु० १०० मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन अष्टांगहृदयम् (वाग्भट कृत, हिन्दी अनु० सहित)-लालचन्द्र वैद्य (सजिल्द) 55 (अजिल्द) 45 क्लीनीकल मेडिसिन (दो भागों में) -अत्रिदेव शीघ्र कायचिकित्सा-धर्मदत्त वैद्य चरकसंहिता-श्री जयदेव विद्यालंकार (हिन्दी अनुवाद सहित) भाग 1 (सजिल्द) 45 (अजिल्द) 30 भाग 2 (अजिल्द) 30; (सजिल्द) 45 देहधात्वग्निविज्ञानम्-हरिदत्त शास्त्री 15 भावप्रकाशनिघंटु-विश्वनाथ द्विवेदी कृत हिन्दी टीका सहित भैषज्यरत्नावली-श्री जयदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी टीका सहित, पाठवां संस्करण (अजिल्द) 60; (सजिल्द) 135 माधवनिदान (मधुकोश संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद सहित)-नरेन्द्रदेव शास्त्री (अजिल्द) 35; (सजिल्द) 55 रसतरंगिणी (सदानन्द कृत हिन्दी टीका) -काशीनाथ शास्त्री (सजिल्द) 60 (अजिल्द) 35 रसरत्नसमुच्चय (धर्मानन्द शर्मा कृत हिन्दी व्याख्या)-अत्रिदेव विद्यालंकार / (अजिल्द) 30; (सजिल्द) 45 रसेन्द्रसारसंग्रह-नरेन्द्रनाथ (सजिल्द) 25 (अजिल्द) 20 व्याधिविज्ञान-आशानन्द पञ्चरत्न, प्रथम भाग 15, द्वितीय भाग (सजिल्द) 45 (अजिल्द) 30 सुश्रुतसंहिता (सम्पूर्ण)-अनिदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी टीका सहित (सजिल्द) 120 (अजिल्द) 10 मोती लाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only