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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४९९ बन्द करके १ दिन स्वेदित करें। (तदनन्तर अवश्य करनी चाहिये । ) अग्निके स्वांग शीतल हांडीके स्वांगशीतल होने पर उसमें से पारदको | होने पर औषधको निकालकर सुरक्षित रखें। निकालकर कपड़ेसे कई बार छान कर स्वच्छ कर इस उत्तम रसकी जहां तहां चर्चा करनेकी लें। बची हुई कांजीको धीरेसे निकाल देना चाहिये आवश्यकता नहीं है, केवल समय पड़ने पर इसका कि जिससे पारद उसके साथ न चला जाय।) चमत्कार दिखलाना चाहिये । ___अब उतम जातिका २ रत्ती शुद्ध हीरा लेकर | जब कोई रोगी सन्निपातसे मूञ्छित हो तो उसे तपा तपा कर सात बार उक्त पारदमें बुझावें । | उसकेशिरभे तालु पर (छुरे आदिसे जरा सा घाव करके) इससे होरेको भस्म हो जायगी। यदि इस प्रकार २ चावल भरसे आधी रत्ती तक यह रस उस भस्म न हो तो फिर उसे लोहेके मूषामें रख कर जगह मल दें। इससे उसे चेत आ जायगा और तथा तपा कर पांच बार कटेलीके रसमें बुझावें । सन्निपात नष्ट हो जायगा। इससे वह अवश्य भस्मी भूत हो जायगा। पथ्य-खांड, कोषकार (ईख भेद ), मिश्री, __ तत्पश्चात् एक मूषामें १ चुल्लु तेल डालकर | ईख, प्रियाल (चिरौंजी फल ), दूध, खीर, उत्तम उसमें वह हीरक भस्म डालकर गरम करें और केले की फली, रसाला, फालसे और हितकर अच्छी तरह तत हो जाने पर उसमें उपरोक्त पारद शरबत आदि । का (जिसमें सात बार हीरा बुझाया था उसका ) आधा भाग डाल दें और उसके ऊपर शुद्र सीसे प्यास में शीतल जल देना चाहिये । तथा स्वर्णके ६-६ माशे ( वर्तमान तोलसे प्रत्येक यह रस अग्निवल-वर्द्धक, ग्रहणीरोग नाशक ७।। माशे ) बारीक पत्र डाल दें। ( इस मूषाको है एवं दुष्ट क्षय और कुष्ठको भी नष्ट कर देता है अग्नि पर तपानेसे ) सब वस्तुओंकी सूक्ष्म पिट्ठी सी तथा उचित अनुपानसे जिस रोगमें दिया जाता है हो जायगी । तत्पश्चात् पूर्वोक्त आधा बचा हुवा उसीका नाश करता है। (जिसमें हीरेको तपा तपा कर बुझाया था वह ) (८६४९) हीरावेध्यो रसः पारद चिकनाई रहित हाण्डी ( मूषा ) में डालकर आगपर रखें और उसके कुछ गरम हो जाने पर (रसें. चि. म. । अ. ७) उसमें यह पिट्टी डाल दें एवं सबको अच्छी तरह द्वौ भागौ मृतहीरस्य ह्यभ्रकस्य त्रयः पुनः । मिलाकर उतार लें और खरलमें डालकर थोड़ी देर | भस्म मूतस्य चत्वारः षट्शुद्धगन्धकस्य च ।। घोटकर मिट्टीके सम्पुटमें बन्द करें तथा उसे भूमिमें मृतलोहस्य द्वौ भागौ चत्वारस्तारकस्य च । दबाकर ( बहुत गहराई में नहीं ) उसके ऊपर रोचनाया भवन्त्यत्र भावनाः पश्च सूतके ॥ कोयलों की अग्नि जलावें । ( कोयले अधिक न हों तथा सुवर्चलायाश्च दातव्या भावनाः क्रमात् । परन्तु उनसे ज्वाला निकलने लगे इतनी तेज आग अथो दृढायां मूषायां मध्ये दत्वा च तं रसम ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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