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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[हकारादि
पुनः शरायद्वितये दच्या पश्चाद्विमुद्रयेत् । कि जिससे २ पहरमें अग्नि शान्त हो जाय । हस्तप्रमाणके कुण्डे पुटो देयः शनैर्लधुः ॥ नत्पश्चात् उसके स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे द्वियामं यावदेवतच्छीतमादाय तं रसम् । | औषधको निकाल कर भैरव और वैद्य का पूजन विधाय भैरवस्याऽथ पूजनं भिषजस्ततः ॥ करके उसे सुरक्षित रखें । गुलामेकममुं दद्यादीरावेध्यं रसेश्वरम् । इसमेंसे १ रत्ती रस काली मिर्चके चूर्णके साथ मरिचेन समं प्रातस्ततस्ताम्बूलभक्षणम् ॥ (उचित अनुपान से ) प्रातःकाल खिलाकर ऊपरसे क्रोधमात्सर्यमुत्सार्य व्यायामं धर्मसेवनम् ।। पान खिलाना चाहिये। असिमलपनं चिन्तामभ्यस्यां च वर्जयेत् ।।
इसके सेवनकालमें क्रोध, मात्सर्य, व्यायाम, असत्यभाषणं चैव पथ्यं सेव्यं निरन्तरम् ।
धूपमें जाना, अधिक बोलना, चिन्ता, चुगली और अनेन जायते पुष्टिदृष्टयारोग्यश्च जायते ॥
असत्यभाषण का त्याग करके सदा पथ्य सेवन भनेन मुखमामोति पुत्रं चानेन चोत्तमम् ।
करना चाहिये। अनेन नश्यते वायुरनेनायुश्च वर्धते ।।
__इसके सेवनसे पुष्टि, दृष्टि, आरोग्य, सुख, अनेन लभते कान्तिमनेनापि जराश्रयेत् ।
सन्तान, आयु, और कान्तिकी वृद्धि होती तथा अनेन पलितं याति खालित्यश्च विशेषतः॥
वायुका नाश होता है। यह रस जरा (वृद्धावस्था), अनेन वज्रकाया स्याद्विशेषेण निरामयः ।
पलित, और विशेषतः खालित्य को नष्ट करता है। स्थावरं जगमश्चापि कृत्रिमश्चापि यद्विषम् ।।
यह शरीरको निरोग और वज्रके समान दृढ बना अनेन न प्रभवति सेवमानस्य न क्वचित् ।
देता है । इसे सेवन करने वाले पर स्थावर, जंगम अनेन देवरूपः स्याज्जायते बुदिरुत्तमा ।।
या कृत्रिम विषका प्रभाव नहीं पड़ता। क्षयं कासं प्रमेहश्च रक्तपित्तं सुदारुणम् ।
यह रस बुद्धिको बढ़ाता और क्षय, कास, विद्रध्यष्ठीलिके गुल्मं ग्रहणीमपि दुस्तराम् ॥
प्रमेह, दारुण रक्तपित्त, विद्रधि, अष्ठीला, गुल्म, अतिसारं महाघोरं सर्वान् व्याधींश्च नाशयेत् ॥ |
संग्रहणो, और घोर अतिसारादिको नष्ट करता है। हीरा भस्म २ भाग, अभ्रक भस्म ३ भाग,
(८६५०) हुताशनरसः (१) पारद भस्म ४ भाग, शुद्ध गंधक ६ भाग, लोहभस्म २ भाग और चांदी भस्म ४ भाग लेकर सबको । (र. रा. सु. ; वृ. यो. त.। त. ५९ ; भा. एकत्र खरल करके गोरोचन के पानी की तथा
प्र.। म. खं. २) हुलहुलके स्वरसकी ५-५ भावना दें । तदनन्तर नागरं कर्षमात्रश्च टणं कर्षकद्वयम् । उसे एक दृढ मूषामें रखकर उस मूषाको २ शरा- | मरिचं साईकर्ष स्यात्तावदग्धवराटकम् ।। कि सम्पुटमें बन्द करके १ हाथ गहरे और इतने विषं कर्षचतुर्थाशं सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । ही लम्बे चौड़े गढे में रखकर इतने कण्डोंमें फूकें । रसो हुताशनो नाम्ना खाधो गुनामितो ज्वरे।।
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