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घृतप्रकरणम् ]
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पञ्चमी भागः
अथ सकारादिघृतप्रकरणम्
(७९४६) सप्तप्रस्थघृतम् ( च. द. | रक्तपित्ता. ९ ) शतावरी पयो द्राक्षाविदारीक्ष्वामले रसैः । सर्पिषा सह संयुक्तैः सप्तमस्थं पचेद्धतम् ॥ शर्करापादसंयुक्तं रक्तपित्तहरं पिवेत् । उरःक्षते पित्तशुले योनिवातेऽप्यसृग्दरे ॥ बल्यमूर्जस्करं वृष्यं सुधाहृद्रोगनाशनम् ॥
१ सेर घी और १-१ सेर शतावर का रस, दूध, मुनक्काका क्वाथ (या अंगूर का रस ), बिदारीकन्दका रस, ईखका रस और आमलेका रस लेकर सबको एकत्र मिला कर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाए तो उसे छान लें; और फिर उसमें पाव सेर ( २० तोले ) खांड मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
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यह घृत रक्तपित्त, उरःक्षत, पित्तशूल, योनिगत वायु, रक्तप्रदर और हृद्रोगको नष्ट करता तथा बलवीर्य और ओज एवं क्षुधाकी वृद्धि करता है ।
( मात्रा - १ तोला । )
(७९४७) सप्ताङ्गघृतम् ( ग. नि. । घृता. १ ) शङ्खपुष्पीगुडूच्युग्राशतावर्यवल्लिकाः । मलपूं ब्रह्मसोमां च कल्कीकृत्य घृतं पचेत् ॥ दुग्धं चतुर्गुणं दत्रा वातश्लेष्महरं च तद् । मेधाकरं तथायुष्यं सप्ताङ्गमिति कीर्तितम् ॥
कल्क -- शंखपुष्पी, गिलोय, बच, शतावर, हुलहुल, कठूमरकी छाल और ब्राह्मी ।
सब
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समान भाग मिलित ४० तोले ले कर बारीक पीस लें ।
४ सेर घी में यह कल्क और १६ सेर दूध मिला कर पकायें। जब दूध जल जाए तो घृतको छान लें।
यह घृत वातकफ-नाशक, बुद्धिवर्द्धक और आयुवर्द्धक है ।
(७९४८) समङ्गादिघृतम् (ग. नि. । बालरो. ११ ; वा. भ. । उ. अ. २) समङ्गाधातकीरोत्रकुट नटवलाहयैः । महासहाक्षुद्रसहा मुद्ग बिल्बशलादुभिः || सकार्पासीफलैस्तोये साधितैः साधितं घृतम् । क्षीरमस्तुयुनं हन्ति शीघ्रदन्तोद्भवान् गदान् ॥ विविधानामयानेतान्वृद्धकाश्यपनिर्मितम् ॥
कल्क - लज्जालुकी जड़ ( या मजोठ ); धायके फूल, लोध, नागरमोथा, खरैटीकी जड़, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, मूंग और बेलगिरी समान भाग मिलित ४० तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
क्वाथ - लाल कपासके फल ८ सेर ले कर ६४ सेर पानीमें पकायें और १६ सेर रहने पर 'छान लें।
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४ सेर घीमें उपरोक्त कल्क, काथ तथा ४-४ सेर दूध और मस्तु मिला कर पकायें। जब जलांश शुष्क हो जाए तो घृतको छान लें।
यह घृत बच्चोंके दांत निकलने के समय होने वाले समस्त रोगोंका नष्ट करता है ।
( मात्रा - १॥ से ३ माशे तक । )