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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[सकारादि
(७९४९) सर्जादिघृतम् काथ १२॥ सेर (३) इसी प्रकार बना हुवा सिर(यो. र. । नासा. ; व. से. । नासा. : वृ. यो. | सकी छालका काथ १२॥ सेर । त.। त. १३०)
कल्क-पञ्चकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, सर्जार्जुनोदुम्बरवत्सकानां
चीता, सोंठ ), बायबिडंग, पांचों नमक, जवाखार, त्वचा कषायैः परिधावनेन ।
सज्जी, सुहागा, बिछाटीकी जड़, सिन्दूर और गेरु; कषायकल्कैरपि चैभिरेव
सबका समान भाग मिलित चूर्ण २० तोले । सिद्धं घृतं घ्राणविपाकनाशि ॥
२ सेर धीमें उपरोक्त तीनों काथ तथा कल्क
मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो घृतको शालकी छाल, अर्जुन वृक्षकी छाल, गूलरकी
छोन लें । छाल और · कुड़ेकी छाल समान भाग ले कर
इसे मलनेसे न्यच्छ, नीलिका, तिल, कालक, सबको एकत्र कूट कर आठ गुने पानीमें पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर छान लें।
अंगुलीवेष्ट और पाददारी (बिवाई) तथा मुख इस काथसे धोनेसे . या इन्हीं ओषधियोंके
दूषिका ( मुहासों ) का नाश होता है । कल्क और क्वाथसे सिद्ध घृत लगानेसे नासापाकको | (७९५१) सारस्वातघृतम् (१) आराम होता है।
(व. से. । उन्मादा. ; वृ. नि. र. । उन्मादा.) ( उपरोक्त काथ ४ सेर, धी १ सेर, उपरोक्त | त्रिफला लक्ष्मणाऽनन्ता समका शारिवाऽमृता । ओषधियोंका कल्क १० तोले ।)
| ब्राह्मी पाठा द्विबृहती द्विस्थिरा द्विपुनर्नवा ॥ (७९५०) सहाचरघृतम्
सहदेवी सूर्यवल्ली वयस्था गिरिकर्णिका ।
| तोयकुम्भे पचेदेतत्पलांशं पादशेषिते ॥ (भै. र. । क्षुद्ररोगा. )
नतं कौन्ती वचा कुष्ठं कृष्णसर्षपसैन्धवैः । सहाचरतुलाक्वाथे क्वाथे च दशमूलजे। । निरुक्सवर्णवत्सायाः संसिद्धं पयसा च गोः॥ शिरीषस्य कषाये च घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ पुष्ययोगे घृतपस्यं मुहेमकलशे स्थितम् । कल्कान् दत्वा पञ्चकोलं कृमिघ्नं पटुपश्चकम् ।। पानाभ्यञ्जनतो मेधास्मृत्यायुःपुष्टिवर्धनम् ।। क्षारत्रयं दृश्चिकाली सिन्दूरमपि गैरिकम् ॥ रक्षोनश्च विषघ्नश्च सारस्वतमिदं घृतम् । हन्यादेतद् घृतं न्यच्छं नीलिकां तिलकालकम् ।। काथ-हर, बहेड़ा, आमला, लक्ष्मणा, अङ्गुलीवेष्टकं पाददारीश्च मुखदूषिकाम् ॥ अनन्तमूल, लज्जालकी जड़, सारिवा, गिलोय,
क्वाथ-(१) ६। सेर पियाबांसेको कूट कर ब्राह्मी, पाठा, छोटी और बड़ी कटेली, शालपर्णी, ५० सेर पानीमें पकावें और १२॥ सेर रहने पर पृष्ठपर्णी, सफेद और लाल पुनर्नवा, सहदेवी, क्षीरछान लें । (२) इसी प्रकार बना हुवा दशमूलका | काकोली, काकोली और कोयल ५-५ तोले लेकर
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