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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पश्चमो भागः ५०३ क्वाथमें २ पहर खरल करके उसे कौड़ियों के भीतर गोली बनाकर सुखा लें तथा एक मोटे कपड़े पर भर दें और उनके मुख ( दूधमें पिसे हुवे ) सुहागेसे थोड़ा शुद्ध गंधक का चूर्ण रख कर उस पर वह बन्द कर दें एवं उन्हें शरावसम्पुटमें बन्द करके गोली रख दें और कपड़ेको लपेट कर कड़ी पोटली गज पुटमें फूंक दें तथा स्वांग शीतल होने पर निकाल बनावें तथा उस पर थोड़ा वस्त्र और लपेट दें ! कर (कौड़ी समेत ) पीस लें । | तत्पश्चात् एक मिट्टीके प्याले में सम्पूर्ण औषधियों के मात्रा–४ रत्ती। समान शुद्ध गंधकका चूर्ण डालकर उस पर वह सेवन विधि आदि मृगाङ्ग रस के समान ।। पोटली रक्खें और उसे दूसरे प्याले से ढक का सन्धि बन्द करदें (तथा उस पर ३-४ कपड़मिट्टी इसे सेवन करनेसे क्षयका नाश होता है। करके सुखा लें।) ऊपर वाले प्याले में एक छिद्र (८६५७) हेमगर्भपोटलीरसः (२) कर देना चाहिये। ( यो. र. ; र. चं. । कासा.) अब इस सम्पटको बालुका यन्त्रमें रखकः मन्दाग्नि पर पकायें। आध पहरमें प्याले का गंधक शुद्धसूतं चतुर्भागं द्विभागं गन्धकस्य च । |-पिघल जायगा। ऊपर वाले छिद्रसे सलाई डाल ३.. भागमेकं सुवणे च त्रिभागं शुल्बभस्म च ॥ | देखें और गंधक पिघल गया हो तो अग्नि देत कुमारीरससंयुक्तं सप्ताहं मर्दयेद् दृढम् ।। बन्द कर दें तथा स्वांग शीतल होने पर गोलीक गुटिका कारयेत्तां तु बध्नीयात्खरकर्पटे ॥ | निकालकर सुरक्षित रक्खें । वस्त्रे किंचिद्वलिं स्थाप्य तत्र गोल निधाय च । बन्ध्नीयात्पोटलीं गाढा पश्चाद्वस्त्रण वेष्टयेत् ।। इसके सेवनसे कास, स्वास, क्षय, वायु, कप सर्वभागसमं गन्धं दत्वा मृन्मयभाजने। और संग्रहणी आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं । तन्मध्ये पोटलों न्यस्य मुखे मुद्रां च कारयेत् ॥ (८६५८) हेमगर्भपोटलीरसः (३) विधायच्छिद्र मुद्रास्थं द्रावं दृष्ट्वा शलाकया। (यो. र. ; वृ. नि. २. । कासा. ) पाचयेत्सिकतायन्त्रे रसोऽयं मृदुवह्निना ॥ शुद्धमृतं त्रिभागं च तत्समं शुल्बभस्म च । यामार्धन मुसंजातं स्वागशीतं समुद्धरेत् । भागैकं गन्धकं दद्यात्तदधै स्वर्णमेव च ।। कासे श्वासे क्षये बाते कफे ग्रह णिकागदे ॥ कज्जली कारयेत्तां तु खल्बके सप्तवासरम् । सर्वरोगेषु दातव्या हेमग ख्यपोटली ।। अथ निर्गुण्डिकाद्रवैमैदये दिनसप्तकम् ॥ ___ शुद्ध पारद चार भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, । अथवा कनकद्रावैर्गुटिकां कारयेत्ततः। स्वर्ण भस्म १ भाग, और ताम्र भस्म ३ भाग लेकर किंचिद्वलिसमायुक्ते वस्त्रे गोलं निधाय च ।। सबको एकत्र मिलाकर १ सप्ताह तक घृतकुमारी बध्नीयात्पोटलीं गाढामेवं च त्रिपुटं चरेत् । ( ग्वारपाठा) के रसमें खरल करें और फिर उसकी दृढमृन्मयपात्रे तु गन्धं दत्त्वाऽधरोत्तरम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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