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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[इकारादि रोगीकों स्निग्ध करके खेदित करनेके पश्चात् . ॐ गरविष दृष्टौ गृहामि स्वाहा" हस्तिउष्ण जलसे यह चूर्ण पिलानेसे सुख पूर्वक विरेचन कर्णग्रहणमन्त्रः ॥ "ॐ अमृतकुटीजातानां हो जाता है।
अमृतं कुरु कुरु स्वाहा" अनेन पूजयेत् । ( मात्रा-६ से ९ माशे तक।) - 'ॐ अमृतोद्भवाय अमृतं कुरु कुरु नित्यं नमो (८४७९) हरीतक्यादिरसायनम्
नमः' भक्षणमन्त्रः ॥
शुक्ल पक्षकी त्रयोदशी को हस्तिकर्ण पलाशके (हा. सं. । स्था. ३ अ. ६ ; वै. र. । अग्निमांद्या.; वृ. नि. र. । अजीर्णा.)
पत्र ला कर छायामें सुखा लें और बारीक चूर्ण
कर लें। हरीतकी हरिहरतुल्य! षड्गुणा
इसमें से नित्य प्रति ५ तोला चूर्ण गायके चतुर्गुणा चतुर्विशाल ! पिप्पली ।
दूधके साथ १ वर्ष तक सेवन करनेसे वृद्धावस्थाका हुताशनं सैन्धवहिङ्गुसंयुतं
नाश होता और आयु अत्यन्त दीर्घ हो जाती है । रसायनं हे नृप ! वहिदीपनम् ।।
- हस्तीकर्ण पलाशके पंचांगको छायामें सुखाकर हर्र ६ भाग, पीपल ४ भाग तथा चीता, . सेंधा नमक और होंग १-१ भाग लेकर चूर्ण करें।
। चूर्ण करें। इसमें से नित्य प्रति ११ तोला चूर्ण
१ मास तक पानीके साथ सेवन करें। फिर १-१ यह चूर्ण अग्निदीपक और रसायन है । (पाठा
मास क्रमशः कांजी, तक्र, दही, दूध, घी और न्तरके अनुसार चौता २ भाग तथा होगका
शहदके साथ सेवन करें। अभाव है।)
इस प्रयोगसे वृद्धावस्थाका नाश होकर शरीर ( मात्रा-१॥ माशा ।)
वनके समान दृढ़ और आयु अत्यन्त दीर्घ हो (८४८०) हस्तिकर्णकल्पः जाती है।
( र. र. रसा. . । उपदेश ४ ) (८४८१) हस्तिकर्णरसायनम् ग्राह्यं सोमत्रयोदश्यां हस्तिकर्णस्य पत्रकम् । (३. मा. । रसायना. ; र. र. । रसायना.) छायाशुष्कं तु तच्चूर्ण गवां क्षीरैः पिबेत्पलम् ॥ हस्तिकर्णरजः खादेमातरुत्थाय सर्पिषा । वर्षमात्राज्जरां हन्ति जीवेद्ब्रह्मदिनं नरः। यथेष्टाहारचारोऽपि सहस्रायुर्भवेन्नरः ॥ हस्तिकर्णस्य पञ्चाङ्ग छायाशू-कं विचूर्णितम् ॥ मेधावी बलवान्कामी स्त्रीशतानि व्रजत्यसौ । कर्षमात्रं पिबेन्नित्यं मासैकमुदकैः सह । मधुनात्वश्ववेगः स्यादलिष्ठः स्त्रीसहस्रगः ॥ आरनालस्ततस्तक्रैर्दधिक्षीराज्यक्षौद्रकैः ।। प्रातः काल हस्तिकर्ण पलाश (के पत्तों) का प्रत्येकन क्रमात्सेव्यं मासकेन जरापहम् । चूर्ण घीके साथ खाने और इच्छानुसार आहार करने जीवब्रह्मदिनं साधे वनकायो महाबलः ॥ से आयु अत्यन्त दीर्घ होती है। मेधा, बल और
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