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२९८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ सकारादि सौवीरांजन (सुरमे) को क्रमशः भंगरेके रस, समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर सहबकरीके दूध, गो मूत्र, गो दुग्ध, त्रिफलाके काथ जनेके पत्तोंके रसमें खरल करके वर्ति बना लें। और द्राक्षा (अंगूर) के रसकी भावनाएं दे कर |
इसे आंखमें लगानेसे शुक्र ( फूला ) नष्ट सुखा लें।
होता है। इसे आंखमें लगानेसे तिमिर रोग नष्ट
. (८११३) स्रोतोञ्जनाधावतिः होता है।
(ग. नि. | नेत्ररोगा. ३. ; वृ. मा. । नेत्ररोगा.) ___ (८१११) स्नेहनीवटिका
स्रोतोजं विद्रुमं फेनं सागरस्य मनःशिला । (भा. प्र. । म. खं. २ ; नेत्ररोगा.) मरिचानि च वा वर्तीः कारयेत्पूर्ववद्भिषक् ॥ पथ्याक्षधात्रीबीजानि एकद्वित्रिगुणानि च । ____ शुद्ध सुरमा, प्रवाल, समुद्रफेन, मनसिल पिष्ट्वाम्बुना वटीं कुर्यादञ्जनं द्विहरेणुकम् ॥ और काली मिर्च; इनका चूर्ण समान भाग ले कर नेत्रस्रावं हरत्याशु वातरक्तरुजं तथा ॥ सबको एकत्र मिला कर बकरीके दूधके साथ खरल हर्र की गुठलीकी गिरी १ भाग, बहेड़ेकी
करें और ताम्रपात्रमें भर कर रख दें। सात दिन गुठलीकी गिरी २ भाग और आमलेकी गुठलीकी
पश्चात् उसकी वर्तियां बना लें। गिरी ३ भाग ले कर सबको पानीके साथ खरल इन्हें आंखमें आंजनेसे नेत्र स्वच्छ होते हैं। करके वटी बनावें।
यह अंजन आंखें दुखनेके पश्चात नेत्रोंकी इसे आंखमें लगानेसे नेत्रस्राव और वातज
मलिनताको दूर करनेके लिये उपयोगी है । तथा रक्तज नेत्रपीडाका शीघ्र हो नाश हो (८११४) स्वर्णमाक्षिकाद्यञ्जनयोगाः जाता है।
(ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ; यो. र. । नेत्ररोगा.) (८११२) स्फटिकादिवतिः
ताप्यं मधूकसारो वा बीजं चाक्षस्य सैन्धवम् । (व. से. । नेत्ररोगा.)
मधुनाऽअनयोगाः स्युश्चत्वारः शुकशान्तये ।। स्फटिकोषणयष्टयाहशङ्खगोदन्तसैन्धवैः। ।
सोनामक्खी भस्म, महुवेका सार, बहेड़ेकी पिष्टैः सचन्दनैवर्तिः शुक्रन्नी शिग्रुवारिणा ॥ गुठलीकी गिरी और सेंधा नमकमेंसे किसी एकके
फिटकरी, काली मिरच, मुलैठी, शंख, गायका चूर्णको शहदमें मिला कर आंखमें लगानेसे शुक्र दांत, सेंधा नमक और लाल चन्दन; इनका चूर्ण | (फूला) नष्ट होता है।
इति सकाराबञ्चनमकरणम्
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