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रसप्रकरणम् ]
पञ्चमो भागः
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(७६८३) श्लेष्मकालानलो रसः (१) । (७६८४) श्लेष्मकालानलो रसः (२)
(रसे. सा. सं. ; र. रा. मु. | कफा. ; रसे. ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा.)
चि. म. । अ. ९) हिङ्गलसम्भवं मूतं गन्धकं मृतताम्रकम् । रसस्य द्विगुणं गन्धं गन्धका द्विगुणं विषम् । तुत्थं मनोहा तालश्च कट्फलं धूर्तबीजकम् ॥ विषात्त द्विगुणं देयं चूर्ण त्रिकटुसम्भवम् ॥ हिमु समाक्षिकं कुष्ठं त्रिवृदन्तीकदुत्रिकम् ।
रसतुल्या प्रदातव्या चाभया सविभीतकी । व्यापिघातफलं वर्ष दङ्गणं समभागिकम् ॥
धात्रीपुष्करमूलन चाजमोदानगन्धिका ॥ स्नुहीक्षीरेण वटिकां कारयेत् कुशलो भिषक् ।
विडॉ कट्फलं चव्यं पञ्चैव लवणानि च । विज्ञाय कोष्ठं कालश्च योजयेद्रक्तिकां कमात् ॥
लवङ्गं त्रिता दन्ती सर्वमेकत्र चूर्णयेत् ॥
भावयेत्सप्तधा रौद्रे स्वरसैः सुरसोद्भवः । बातश्लष्पणि मन्दाग्नौ पित्तश्माधिकेऽपि च। इन्ति सर्व कफोदभूतं व्याधि कालानलो रसः॥ जीर्णज्वरे च श्वययौ सन्निपाते कफोल्वणे ॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, बलासप्रबलं त्यक्त्वा धातुं वातात्मकं नयेत् । | शुद्ध बछनाग ४ भाग, त्रिकुटा ( मिलित ) का सेक्नात्सर्वरोगघ्नः श्लेष्मकालानलो रसः॥ चूर्ण ८ भाग, तथा हरं, बहेड़ा, आमला, पोखर
| मूल, अजमोद, बनतुलसी, बायबिडंग, कायफल, हिङ्गलोत्थ पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म,
चव्य, पांचो नमक, लौंग, निसोत और दन्तीमूल शुद्ध तूतिया, शुद्ध मनसिल, शुद्र हरताल, काय
। १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली फल, धतूरेके बीज, हींग, सोनामक्खीभस्म,
, बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण कूठ, निसोत, दन्तीमूल, सोंट, मिर्च, पीपल, अम
मिलाकर तुलसीके रसकी धूपमें सात भावना दें। लतासको मज्जा, बङ्ग भस्म और सुहागा समान
इसके सेवनसे समस्त कफज रोग नष्ट भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें
होते हैं। और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर
(मात्रा-४-६ रत्ती।) थूहर (सेहुंड) के दूधमें घोट कर १-१ रत्तीकी
श्लेष्मकालानलोरसः (३) गोलियां बना लें।
प्र. सं. ५५८१ “महा श्लेष्मकालानल रोगीके कोष्ठ और कालका विचार करके इसे रस" देखिये । यथोचित मात्रानुसार सेवन करानेसे वातकफज (७६८५) श्लेष्मकुठाररस: विकार, अग्निमांध, पित्तकफज विकार, जीर्ण- (र. चं. । कफरोगा. ; र. प्र. सु. । अ. ८) ज्वर, शोथ और कफोल्वण सन्निपातका नाश पारदं च मृतशुल्वगन्धक होता है।
नागबल्लिजरसेन पेषितम् ।
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