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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[हकारादि
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अथ हकारादिमिश्रप्रकरणम् (८६८१) हरिद्रादिवतिः
हल्दी और दारुहल्दी २-२ भाग तथा ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) घरका धुंवा और सरसों १-१ भाग लेकर सबको हरिद्रा मार्कवं कुष्ठं गृहधृमं सुवर्चला।
एकत्र मिलाकर (तवे में) मंदाग्नि पर सेकें और सिद्धार्थकरसश्चैव कामिकेन पिष्यते ॥
फिर पानीके साथ पीसकर स्वच्छ कपड़ेसे निचोड़
कर रस निकालें। मधुना सह वर्तिः स्याद् गुदे सञ्चारिता यदि ।
इसे आंखमें डालनेसे कफाभिष्यन्द नष्ट असां नाशनं चैव करोति सहसा नृणाम् ॥
होता है। - हल्दी, मंगरा, कूठ, घरका धुंवा, सुवर्चला (८६८४) हरीतकीकल्प: (हुलहुल) और सफेद सरसोंका रस समान भाग
(ग. मि. । ओषधिकल्पा. १) लेकर सबको कांजीमें पीसकर शहदमें मिलाकर (कपड़ेपर लगाकर) बत्ती बनावें ।
हरीतकी सर्पिषि पाचयित्वा इसे गुदामें रखनेसे अर्श (बवासीर)का नाश समश्नतः संपिवतोऽनुसपिः। होता है।
घातात्मकास्तस्य न सन्ति (८६८२) हरिद्रावचादि शोधनम् रोगाः स्यात्पृष्ठजलोस्कटीवलं च ।।
(व. से. । वातव्या.) गोमो चालम्बुषके पक्त्वा पञ्चदलोदके ।
एरण्डतैलेन विपाच्य पथ्यां पुनः सुरमितोयेन वाष्पस्वेदेन स्वेदयेत् ।।
खादेत्तथा चानुपिबेच्च तैलम् । गन्योपा शुध्यते खेवं रजनी च विशेषतः॥ |
सशूलविष्टम्भकृतान्विकारान् बचको क्रमशः गोमूत्र, गोरखमुण्डीके क्वाथ
सजियेपित्तकफामिलोत्थान् ॥ और पञ्चपल्लव ( आम, जामन, कैथ, बिजौरा और बेलके पत्तों ) के काथमें पकाकर गोमूत्रकी
मूत्रस्थिताः सप्तदिनं महिष्याः भाहरुले स्वेदित करमेसे वह शुद्ध हो जाती है।
पश्चामया मूत्रपछानि पश्च ।
क्षीरैकतः सप्तदिनानि खावेत् हल्दा भी इसी प्रकार शुद्ध होती है।।
क्षीरौदनाशी परतस्तथा च ।। (८६८३) हरिद्राद्याश्च्योतनम् एषस्त्रिसप्ताहपरः प्रयोगो (ब. से. । नेत्ररोगा.)
बातोदर तीब्रमपीह हन्यात् । द्रौ द्वौ भागौ रजन्योश्च भागिको धूमसर्षपौ। प्लीहानमग्रं श्वयधुं त्रिदोष फफाभिष्यन्द जिभृष्टं पिष्टमाश्चयोतमम्भसा ॥ । शिरोग्रहं पाण्डुगरकृमींश्च ॥
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