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मिश्रपकरणम् ]
पञ्चमो भागः
५१७
इनमें से नित्य प्रति ५ हर्र खाकर २५ हरीतकी वा मधुनाऽवलिखा
तोले ( भैसका ) मूत्र पीनेसे तीव्र वातोवर. उग्र दामातिसारे प्रथमं प्रवृत्ते ।
प्लीहा, शोथ, त्रिदोष, शिरोप्रह, पाण्ड, गरविष पवाहयेत्सा सवशिष्टदोषान्
और कृमि रोगका नाश होता है। संशोधयेत्कोष्ठमशेषतश्च ॥
यह प्रयोग ३ सप्ताह तक करना चाहिये।
प्रथम सप्ताह में केवल दुग्धाहार करना चाहिये द्वे पूर्वमधादशनादत्तो दे
और उसके पश्चात् दो सप्ताह तक दूधभात खाना द्वे चापि भुक्त्वा च तथा स्वपस्तू । । चाहिये। अस्य प्रयोगादभयाष्टकस्य
त्रिसप्तरात्रेण पुनर्नवः स्यात् ॥ आमातिसारके प्रारम्भमें शहद के साथ हर्रका मेधास्मृतिः शक्तिरतीव कान्तिः चूर्ण मिला कर चाटना चाहिये । इससे कोष्ठके
श्रीमदपुर्नित्यमनामयत्वम् । दोष निकल कर वह शुद्ध हो जाता है। दीसामिता दृष्टिषलं परं स्यात् सर्वे च रोगाः प्रशमं प्रयान्ति ॥ दो हर भोजनके पूर्व, २ भोजन करते समय
| (भोजनके मध्यमें ), २ भोजनान्त में और दो हरौंको धीमें भूनकर रक्खें । इन्हें यथोचित | सोते समय खावें । इस प्रकार ३ सप्ताह तक मात्रानुसार खाकर ऊपरसे षो पीनेसे वायुके रोग नित्य आठ हरें खानेसे शरीर में नवजीवन आ नहीं होते और पृष्ठ, जंघा उरु तथा कटिका
जाता है, मेधा, स्मृति, शक्ति, कान्ति और शरीरबल बढ़ता है।
श्रीकी वृद्धि होती है। शरीर नीरोग रहता है; अग्नि
और दृष्टि बढ़ती है तथा समस्त रोग नष्ट हो हरौको एरण्ड (अण्डी) के तेलमें पकाकर जाते हैं। खाने और ऊपरसे तेल (अण्डीका तेल ) पीनेसे
(८६८५) हरीतकीयोगः (१) शूल, विष्टभ्भ, तथा पित्त, कफ और वायुके समस्त । रोगोंका नाश होता है।
(ग. नि. । उदरा. ३२)
समादाय पलाशिन्या क्षारपस्थचतुष्टयम् । हरौंको सात दिन तक भैसके मूत्रमें भिगोए चतुर्गुणे समालोडप गोमूत्रे क्वाथयेद्भिषक् ।। रखें (मूत्र प्रति दिन बदल कर नवीन डालना | निःस्राव्य पादशिष्टं तु क्वायं पञ्चशतानि च । चाहिये।)
निक्षिप्य तत्र पथ्यानां पुनरमावधियेत् ॥
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