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मिश्रप्रकरणम् ]
पञ्चमो भागः
५१९
षडूषणं पञ्चपटु यमानीद्वयमेव च । । (प्रथम दिन १ हर्र खायें और फिर रोज त्रिक्षारं हिङ्गु दिव्यश्च कर्षद्वयमितं पृथक् ॥ १-१ बढ़ाते जावें इस प्रकार जहां तक सहन हो श्लक्ष्णचूर्णीकृतं सर्व चुक्राम्लेनापि भावयेत् । सके बढ़ाते रहें फिर १-१ घटाना शुरु करें और लिम्पाकस्वरसेनापि भावयेञ्च दिनत्रयम् ॥ १ पर आकर पुनः १-१ बढ़ावें । इसी क्रमसे खादेदभयामेकां सर्वाजीर्णविनाशिनीम् । सेवन करते हुवे १००० संख्या पूरी करें। पथ्य चतुर्विधमजीर्ण वहिमान्धं विसूचिकाम् ॥ में केवल दूध पीना चाहिये।) गुल्मशूलादिरोगांश्च नाशयेदविकल्पतः ।। (८६९०) हरीतकीयोगः (६) १०० हरौ को तक्रमें डालकर पकावें जब
(वृ. मा. । कासा.) वे उसीजकर कोमल हो जाएं तो उन्हें बीचसे चीरकर गुठली निकाल दें और उनके भीतर निम्न मुखे धृताऽभया शुण्ठीकणया वा विभीतकम . लिखित चूर्ण भरकर सूतसे बांध दें।
विभीतकमथैकं वा कासश्वासौ व्यपोहति ।। चूर्ण-पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ
हर्र अथवो सोंठ, पीपल और बहेड़ा अथवा
केवल बहेड़ा मुंहमें रखनेसे कास श्वासका नाश काली मिर्च, सेंधा नमक, काला नमक ( संचल),
होता है। विड नमक, सामुद्र लवण, काच लवण, अजवायन, अजमोद, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, होंग
___(८६९१) हरीतकीरमायनम् और लौंग २॥-२॥ तोले लेकर बारीक चूर्ण बनावें (ग. नि. ! रसायना. १) और उसे चुक्राम्ल (कांजी भेद) तथा बिजौरे के
हरीतकी सर्पिषि सम्प्रताप्य रस में ३-३ दिन खरल करके सुखा लें।।
समश्नुतस्तत्पिवतो घृतं च । ____ उपरोक्त हरों में से १-१ हर्र रोज खानेसे | भवेचिरस्थायि बलं शरीरे चारों प्रकारका अजीर्ण, अग्निमांद्य, विसूचिका, सकत्कृतं साधु यथा कृतज्ञे॥ गुल्म और शूलादिका नाश होता है ।
हर को धीमें सेककर खावें और अनुपान (८६८९) हरीतकीयोगः (५) रूपमें वही घी पीवें । इस प्रयोगसे शरीरमें स्थायी
बल प्राप्त होता है। (ग. नि. । उदरा. ३२) हरीतकी सहस्र वा विधिवचोपयोजयेत् ।
(८६९२) हरीतक्यादियोगः अनाम्बुवर्जी पित्तोत्थाज्जठराद्विप्रमुच्यते ॥ (वा. भ. । चि. अ. १५ उदरा.)
अन्न जल बन्द करके १००० हर्र सेवन हरीतकीसूक्ष्मरजः प्रस्थयुक्तं घृताढकम् । करने से पित्तोदर नष्ट होता है ।।
अग्नौ विलाप्यमथितं खजेन यवपल्लके ।
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