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रसपकरणम्
पञ्चमो भागः
४११
जब दोनों मिल जाएं तो उसमें १ भाग शुद माझीकधातुः सकलाम यन्नः गंधक मिला कर खग्ल करें और कजली हो जाने
प्राणो रसेन्द्रस्य परं हि वृष्यः । पर उसमें १ भाग अभ्रक सबको दुति मिलाकर ' दुर्मेललोहद्वयमेलनश्व खरल करें और गोला बना कर (शरावसम्पुटमें
गुणोत्तरः सर्वरसायनाय्यः ॥ बन्द करके ) उसे १२ घटे लवणयन्त्रमें मन्दाग्नि एरण्डतैललगाम्बुमिद्धं सिद्धयति माक्षिकम् । पर एकावें और फिर स्वांग-शोतल होने पर सिद्धं वा कदलीकन्दतोयेन घटिकाद्वयम् ॥ औषधको निकाल कर पीस लें।
तप्तं क्षिप्तं वराक्वाथे शुद्धिमायाति माक्षिकम् ॥ मात्रा-३ रत्ती । ( व्यवहारिक मात्रा-- सुवर्णमाक्षिक सुमेरु पर्वतमें होने वाले १ रत्ती)
। सोने के रसके योगले उत्पन्न होती है और ताप्ती इसे सांठ, मिर्च. पीपल और बायबिडंगके नदी के निकट, चीन देश तथा यवन देश (अस्व) ( १॥ माशा ) चूर्णमें मिला कर शहद के साथ में पाई जाती है । जय वैशाख मासमें सूर्य सेवन करनेसे जरा, रोग और अपमृत्युका नाश ! खूब तपता है तब (पर्वत में ) स्वर्णमाक्षिक होता है। यह दुःसाध्य रोगोंको भी सात दिन में ! दिखलाई देती है । नष्ट कर देता है । यह रस सुवासे भी अधिक जो स्वर्णमाक्षिक स्वर्णके समान चमकवाली गुणकारी है।
होती है वह मधुर तथा जो चांदी के समान चमक
वाली होती है वह अम्ल होती है। (८३३६) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् (१) ।
स्वर्णमाक्षिक (साधारणतः) कुछ कषैली (र. र. स.। पू. अ. २) और मधुर होती है तथा शीतल, पाकमें कटु एवं सुवर्णशैलप्रभवो विष्णुना काश्चनो रसः। ला है। तापी करातचीनेषु यवनेषु च निर्मितः ।।
इसे सेवन करने वाले पर जरा (वृद्धावस्था), ताप्यः मुर्गाशु सन्तप्तो माधवे मासि दृश्यते । व्याधि और विषका प्रभाव नहीं पड़ता। मधुरः काश्चनाभासः साम्लो रजतसन्निभः ॥
माशिक दो प्रकारकी होती है, एक स्वर्णकिश्चित्कषायमधुरः शीतः पाके कटुर्लघुः ।
माक्षिक और दूसरी तार माक्षिक । जो स्वर्गतत्सेवनाज राव्याधिषिपैर्न परिभूयते ॥
माक्षिक कान्यकुब्ज (कनौज) में उत्पन्न होती है माक्षिको द्विविधो हेमपाक्षिकस्तारमाक्षिकः । उसमें सोने की सो चमक पाई जाती है, और जो तत्राद्यं माक्षिकं कान्यकुब्जोत्थं स्वर्णसन्निभम् ।। तापी नदी के किनारे हाती है उसमें स्वर्णकी सी चमक तातोतीरसम्भूतं पञ्चवर्ण सुवर्ण रत् । तथा पांच रंग दिखलाई देते हैं। पापाणबहलः प्रोक्तस्ताराख्योल्पगुणात्मकः॥ . जिस स्वर्णमाक्षिकमें पत्थर अधिक होता है
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