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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४१२ www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः उसे तारमाक्षिक कहते हैं, उसमें दूसरीकी अपेक्षा अल्प गुण होते हैं । स्वर्णमाक्षिक सर्व रोगनाशक, पारदकी प्राण स्वरूप, अत्यन्त वृष्य, दो अनमेल धातुओंको मिला कर एक करदेने वाली और श्रेष्ठ रसायन औषध है 1 स्वर्णमाक्षिक के चूर्णको अण्डीके तेल और बिजौरेके रस में पकाने से अथवा केलेकी जड़के रसमें २ घड़ी पकाने से अथवा तपा तपा कर (७ बार) त्रिफला काथमें बुझाने से वह शुद्ध हो जाती है । (८३३७) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् (२) ( यो. चि. म. । अ. ७ ) माक्षिकं स्वेदयेत्पूर्व कुलत्थ क्वाथ योगतः । अथवा नरमूत्रेण दोलायन्त्रे विशुध्यति ॥ स्वर्णमाक्षिकके चूर्ण को कपड़ेका पोटली में बांधकर दोलायन्त्रविधिसं कुलथीके क्वाथ या मनुष्य के मूत्र में स्वेदित करनेसे वह शुद्ध हो जाती है। (८३३८) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् (३) : ( आ. वे. प्र. अ. १२ यो. चि. म. । अ. ७; र. मं. ; भा. प्र.; यो. र., रसे. सा. सं.; वृ. यो त । त. ४१ ; शा. ध. ) माक्षिकस्य त्रयो भागा भागेकं सैन्धवस्य च । मातुलुङ्गवैर्वाऽथ जम्बीरस्य द्रवैः पचेत् ॥ चालयेल्लोहजे पात्रे यावत्या लोहितम् । भवेत्तस्तु संशुद्धं स्वर्णमाक्षिकमत्र तु ॥ ३ भाग स्वर्णमाक्षिके चूर्ण में १ भाग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि सेंधानमक का चूर्ण मिला कर लोहे की कढ़ाई में डाल कर तेज अग्नि पर पकायें और थोड़ा थोड़ा मातुलुंग या बिजौरेका रस डालते हुवे लोहे की करछी से चलाते रहें । जब लोह पात्र ( और स्वर्ण माक्षिक) खूब लाल हो जाय तो अनि बन्द कर दें । इस विधि से स्वर्णमाक्षिक शुद्ध हो जाती है। 1 ( बार बार पानी से धो कर सेवानमक निकाल देना चाहिये । ) (८३३९) स्वर्णमाक्षिकशोधनम् ( ४ ) (रसे. सा. सं.) स्वर्णमाक्षिकचूर्णन्तु वस्त्रे बद्ध्वा विपाचयेत् । कालमारिषशा लिक्वाथे दोलाविधानतः || तदधः पतितं शस्तमेवं शुध्यति माक्षिकम् || स्वर्ण- माक्षिक के बारीक चूर्णको कपड़ेकी पोटली में बांधकर दोलायन्त्र विधि कालमारिष (जल चौलाई) के क्वाथ में स्वेदित करें । जब सब चूर्ण कपड़े से छान कर क्वाथ में गिर जाय तो उसे इसी प्रकार पोटली में बांध कर शालिञ्चशाक के काथमें स्वेदित करें । जब सब चूर्ण कपडेसे छन कर काथमें गिर जाय तो उसे सुखा लें। इस प्रकार स्वर्ण माक्षिकशुद्ध हो जाती है। 1 (८३४०) स्वर्णमाक्षिकशोधनमारणम् (र. प्र. सु. अ. ५ ) मुत्रे तक्रे च कौलत्थे मर्दितं शुष्कमेव च । गन्धाश्मवीजपूराभ्यां पिष्टं तच्छ्रावसम्पुटे || पञ्चवाराहपुटकर्दग्धं मृतिमवाप्नुयात् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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