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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ सकारादि
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(८७४७) क्षारवटी
सेर गोमूत्रमें पकावें और जब वह गाढ़ा हो जाय ( र. र. स. । उ. अ. १८)
तो उसमें २ सेर गोदुग्ध मिलाकर पुनः पकावें ।
जब गाढ़ा हो जाय तो उतारकर ठंडा करके सुरअमृतं मेघभस्माथ शङ्ख चिश्चा सुभास्करम् । क्षित रखें। क्रमाद्विगुणितं कृत्वा तत्तुल्यं च कटुत्रयम् ॥ इसके सेवनसे पक्ति शूल नष्ट होता है। तुलसीभृङ्गराजोत्थमातुलुङ्गाकद्रवैः ।
(मात्रा-१ माशा।) भावितं बहुशश्चूर्ण रजो वा गुटिकापि वा ।। गुलामात्रं तु सेवेत गुल्मशूलान्विनाशयेत् ।।
क्षीरसारो रसः (क्षीरसागररसः ) मन्दाग्निं ग्रहणीमर्शो रक्तगलममरोचकम् ॥ (र. रा. सु. । ज्वरा. , रोचका. ; र. का. धे.। एषा क्षारवटी नाना कृशदेहेषु युज्यते ॥
दाहा. ; र. चं. । ज्वरा.)
प्र. सं. १४९४ "गगनादि वटी" देखिये। शुद्ध वछनाग १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग,
(८७४९) क्षुद्धोधकरसः (१) शंख भस्म ४ भाग, इमलीका क्षार ८ भाग और
( र. रा. सु. । अजीर्णा. ; वै. र. । अग्निमांद्या.) ताम्र भस्म १६ भाग तथा त्रिकुटा ( सेठ, मिर्च, पीपलका समान भाग मिलित चूर्ण) १६ भाग |
व्योषसिन्धुबलिभिरेकवित्रिलवैः स्मृतः । लेकर सबको एकत्र मिलाकर तुलसी, भंगरा,
निम्बाम्बुमर्दितो गाढं नाम्ना क्षुद्रोधको रसः ।। बिजौरा नीबू और अदरक; इनके स्वरसकी पृथक् ।
त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) १ भाग, पृथक् कई कई भावनाएं देकर या तो १-१ रत्ती : सेंधानमक २ भाग और शुद्ध गंधक ३ भाग लेकर की गोलियां बना लें या सुखाकर चूर्ण कर लें। । सबको एकत्र मिलाकर नीबूके रसमें खरल करके
मुखाकर रक्खें । इसके सेवनसे गुल्म, शूल अग्निमांद्य, ग्रहणी,
इसके सेवनसे क्षुधावृद्धि होती है। अर्श, रक्तगुल्म और अरुचिका नाश होता है।
(मात्रा-२ रत्ती।) यह रस कृश पुरुषोंके लिये विशेष उपयोगी है।
क्षुद्धोधकरसः (२) (८७४८) क्षीरमण्डूरम्
( र. रा. सु. । अजीर्णा.) ( भै. र. । शूला. ; यो. त. । न. ४४; च. द.;
प्र. सं. २७८ अजीर्णकण्टकरस देखिये । __ वृ. मा. ; व. से. । शूला.)
उसकी हिन्दी टीकामें भावना द्रव्योंमें कमलौहकिट्टपलान्यष्टौ गोमुत्रा ढके पचेत् । लका नाम छूट गया है अर्थात् मुलैठी की भावना क्षीरप्रस्थेन तत्सिद्धं पक्तिशूलहरं परम् ॥ के पश्चात् १ दिन कमलके रसमें भी घोटना
४० तोले लोहकिट (मंडूर)की भस्मको ४ चाहिये ।
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