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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
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(७३३९) शुक्रस्तम्भकरीव टिका
(र. प्र. सु. अ. १३ ) श्रीवास मस्तकी नागकेशरं च लवङ्गकम् । कङ्को तुलसीबीजं खुरासान्यहिफेनकम् ॥ जावित्रीकाऽब्धिशोषं च करभागुरुकुङ्कुमम् । कङ्कोलकतुगाक्षीरी जातीफलसमांशकान् ॥ सर्वाण्येवं विचूर्याथ नालिकेरोदरे क्षिपेत् । दुग्धमध्ये विपाच्यैनं दिनान्येवं हि पञ्च च ॥ नालिकेर फलाग्राही पर्दयेन्मधुना सह । गुटिका कोलमात्रा हि भक्षणीया निशामुखे || वीर्यस्तम्भं करोत्युग्रं चतुर्यामावधिं तथा ॥
श्रीवेष्ट (चीरका गोंद), मस्तगी, नागकेसर, लौंग, कोल, तुलसी के बीज, खुरासानी अजवायन, अफीम, जावत्री, समन्दर सोख, गजपीपल, अगर, केसर, कंकोल, बंसलोचन और जायफल समान भाग कर चूर्ण बनावें और उसे एक नारियल के भीतर भर दें तथा नारियलके मुखको अच्छी तरह बन्द करके उसे ५ दिन तक दूधमें पकावें । तदनन्तर उसमें औषधको निकालकर थोड़ा सा शहद मिलाकर पीस लें और ५-५ माशेकी गोलियां बना लें |
इनमें से सायंकालको १ गोली खाकर रात्रिको स्त्री - समागम करने से ४ पहर तक वीर्यस्तम्भन होता है ।
(७३४०) शुण्ठयादिगुटी
( वृ. नि. र. | अरोचका. )
शुण्ठयेकभागा द्विगुणा च कृष्णा निशोत्रपथ्या त्रिगुणा तथा च ।
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साकभागामी च तीक्ष्णं चतुर्गुणं सैन्धवमम्लमर्थम् ॥ शाणैकमात्रा गुटिका निषेव्या निहन्ति मन्दानलजं प्रकोपम् ॥
[शकारादि
सोंठ १ भाग, पीपल २ भाग, निसोत ३ भाग, हर्र ३ भाग, आमला १|| भाग, काली मिर्च ४ भाग और सेंधा नमक ४ भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे नीबू के रस में घोटकर ५-५ माशेकी गोलियां बना लें |
इनके सेवनसे अग्निमांद्यका नाश होता है । ( अनुपान - उष्ण जल । व्यवहारिक मात्रा - २-३ माशे )
(७३४१) शुण्ठचादिगुटी.
( वृ. नि. र. । मूर्छा . ) शुण्ठीकणशताहानां साभयानां पले पलम् । गुडस्य षट् पलान्येषां गुटिका भ्रमनाशिनी ॥
सोंठ, पीपल, सोया और हर ५-५ तोले लेकर चूर्ण बनावें और उसे ३० तोले गुड़ में मिलाकर (६ - ६ माशेकी) गुटिका बना लें । इनके सेवन से मूर्च्छा नष्ट हो जाती है । शूलगजकेसरीगुटिका.
(वै. र. । शूला. )
रस प्रकरणमें देखिये |
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शूलवज्रिणी वटिका.
( र. च., र. रा. सु. । शूला. ) रस प्रकरण में देखिये.