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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ५१३ इसके सेवनसे अरुचि, अर्श, अग्निमांद्य, उन्माद, । बनावें और फिर उसमें अन्य औषधिर्या मिलाकर मेद, गण्डमाला, अर्बुद, अपची, गलगण्ड, प्रमेह; | | सबको जंबीरीके रसमें खरल करके सुखाकर रखें। तथा अण्डकोष, लिंग, आंख और कानोंके रोग एवं | यह रस ग्रहणी रोगको नष्ट करता है। अनेक प्रकारके क्षुद्र रोग नष्ट होते हैं। मात्रा-१॥ माशा | व्यवहा. मा. ३-४ (८६७५) हेमाभ्रकरससिन्दूरम् रत्ती ।) (यो. र. ; र. रा. सु. ; वृ. नि. र. । राजयक्ष्मा.) अनुपान-औषध खानेके पश्चात् धीमें अभ्रक रससिन्दूरमिश्रितं हेमभस्मना।। | काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर चाटना चाहिये । समभागं प्रवीत रसेनाऽऽकयोजितम् ॥ पथ्य-तक भात । क्षयं च क्षयपाण्डं च क्षयकासं च कुष्ठकम् । (८६७७) हंसपोग्लीरसः (२) जयेन्मण्डलपर्यन्तं पूर्वकर्मविपाककृत् ॥ (र. रा. सु. । ग्रहण्य.) अभ्रक भस्म, रससिन्दूर और स्वर्णभस्म समान | निष्कैकं मर्दितं मूतं द्विनिष्कं मृततीक्ष्णकम् । भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके रक्खें ।। शिखितुत्थं तीक्ष्णतुल्यं कर्षाई गन्धमौक्तिकम् ॥ विष निष्कं चेतत्सर्वं भृङ्गासुरसारसैः। इसे अदरकके रसके साथ सेवन करनेसे क्षय, अग्निपी हरिद्रा च लागलीकन्दजैवैः ॥ क्षयजनित पाण्डु, क्षयकी खांसी और पूर्व जन्मके मरिचैर्मधुना लेह्या माङ्गका हंसपोटलीम् । पार्कोसे उत्पन्न कुष्ठ नष्ट हो जाता है। हन्ति सङ्ग्रहणीं चैत्र अतिसारं च पाण्डुताम् ।। (मात्रा-१-२ रत्ती । ) दौर्बल्यं गुल्मश्वासं च कासं हिक्कामरोचकम् । (८६७६) हंसपोटलीरसः (१) क्षौद्रेण विजया निष्कं लेहयेदनुपानकम् ॥ शुद्ध पारद १ भाग, तीक्ष्णलोहभस्म २ भाग, ( रसें. चि. म. | अ. ८ ; रसें. सा. सं. । ग्रहणी.; तुत्थ भस्म २ भाग, शुद्ध गंधक १॥ भाग, मोती शा. ध. सं. । खं. २ अ. १२; र. चं. । ग्रहण्य.) भस्म १॥ भाग और शुद्ध वछनाग १ भाग लेकर दग्धान्कपर्दिकान् पिष्ट्वा त्र्युषणं टङ्कणं विषम्। प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें गन्धकं शुद्धसूतं च तुल्यं जम्बीरजेवैः ॥ अन्य औषधियां मिलाकर सबको अच्छी तरह खरल मर्दयेद्भक्षयेन्माषं मरिचाज्यं लिहेदनु । करके भंग, अदरक, तुलसी, अग्निपर्णी,* हल्दी, निहन्ति ग्रहणीरोग पथ्यं तक्रौदनं हितम् ॥ | और लांगली (कलियारी) की जड़ के रसमें (१-१ ___ कोडी भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, सुहागेकी | दिन) खरल करके सुखाकर सुरक्षित रक्खें । खौल, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गंधक, और शुद्ध पारद अनुभूत योगमाला द्वारा प्रकाशित वैद्यक समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली शब्द कोषमें अग्निपर्णीका अर्थ 'कौंच' किया है। ૬૫ For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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