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तैलपकरणम् ]
पश्चमो भागः
माणमयुर नाम
:
(८५४१) हरिद्रादितैलम् (४) क्ल, लाङ्गली ( कलियारी ), पंवाड़, गुंजा, इन्द्रा( भा. प्र. । म. खं. २ मुखरोगा.: यो. र. . ! यन, और नीमके पत्ते समान भाग मिलित २० व. से. । मुखरोगा. ; दृ. नि. र. । मुस्वरोगा.) ।
तोले लेकर बारीक चूर्ण करके उसे आकके दूधकी
भावना दें। हरिद्रानिम्बपत्राणि मधुकं नीलमुत्पलम् ।
२ सेर तेलमें यह कल्क (और ८ सेर पानी) तैलमेभिर्विपक्तव्यं मुखपाकहरं परम् ॥
मिलाकर तैल सिद्ध करें। कल्क-हल्दी, नीमके पत्ते, मुलैठी और यह तैल कुष्ट, पामा ( खुजली ) और विचनीलोफर २॥२॥ तोले लेकर पानीके साथ बारीक चिंका को नष्ट करता है। पीस लें।
(८५४३) हरिद्रादितैलम् (६) क्वाथ-उपरोक्त द्रव्य ४०-४० तोला
(वै. म. र । पटल १२ ) लेकर १६ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर शेष
जानुप्रदेशजनितानिलनाशनायरहने पर छान लें। १ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और क्वाथ ।
तैलं निशामिशिमुरद्रुमदेवधूपैः ।
सिद्धं जले लिकुचजन्मनि शस्तमेतमिलाकर पकावें। पानी जल जाने पर तेलको छान लें।
च्छोफोग्रतोदसहिते रुधिरसुतौ च ॥ यह तेल मुखपाकको नष्ट करता है।
कल्फ-हल्दी, सौंफ, देवदारु और धूप
सरल ५-५ तोला लेकर कल्क बनावें । (८५४२) हरिद्रादितैलम् (५)
२ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और ८ सेर ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४२)
: लकुच ( बढ़ल )का रस मिलाकर पकायें। हरिद्रासमङ्गा सुराहं सचित्रं
यह तेल जानु की वायु, शोथ, उग्र पीड़ा विडङ्गानि कृष्णां विषालाबु कुष्ठम् । और रुधिरस्रावको नष्ट करता है। तथालाङ्गली चक्रमदं च गुञ्जा
(८५४४) हरिद्रादितैलम् (७) विशालातथारिष्टपत्राणि चैतत् ।।
(हरिद्रादयतैलम् ) विचूर्ण कृतं भावितं चार्कदुग्धे
( ग. नि. । क्षुद्ररोगा. १० ; वृ. मा. ; च. न तैलं विपाध्यं नरस्यातिशीघ्रम् । . द. । क्षुद्ररोगा. ५४ ; व. से.) हितं लेपेन कुष्ठपामाविचर्चि
हरिद्राद्वययष्टयाहकालीयककुचन्दनैः । निहन्ति तथेदं हरिद्रादितैलम् ॥ प्रपौण्डरीकमभिष्ठापद्मपद्मककुङ्कुमैः ॥
कल्क-हल्दी, मजीठ, देवदारु, चीतामूल, कपित्थतिन्दुकप्लक्षवटपत्रैः पयोन्वितैः । बायबिडंग, पीपल, अतीस, कड़वी तूंबीके बीज, लेपयेत्कल्कितैरेभिस्तैलं वाऽभ्यञ्जनं चरेत् ॥
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