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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[शकारादि शिलाजीत, अभ्रक भस्म, स्वर्ण भस्म, लोह (७६१४) शिलादिपानकम् भस्म, शुद्ध गूगल और सुहागेको खील समान भाग
(वृ. नि. र. । विषा.) ले कर दो दिन भंगरेके रसमें खरल करें और शिलातालककुष्ठानि पिडा निर्गुण्डिजद्रवैः । ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें।
पानं मूषकदष्टानां दत्वा तीव्रविषं हरेत् ॥ इनमेंसे १-१ गोली प्रातः काल शैवालके मनसिल, हरताल और कूठ समान भाग ले रसके साथ सेवन करनेसे शुक्रमेहका नाश होता है। | कर संभालुके रसमें पीस कर पीनेसे चूहेका तीब्र
विष भी नष्ट हो जाता है। (७६१३) शिलातालो रसः _(श्वासकासारिरसः)
(७६१५) शिलाचवलेहः (१)
(वृ. नि. र. । श्वासा.) ( र. रा. सु. । कासा. ; र. सं. क. । उ. ४ )
शिला व्योषभयाहिङ्गमणिमन्थविडङ्गकैः । त्रिकण्टकरसैर्भाव्यं तालमेकं चतुशिला।
लेहः साज्यमधुः कासहिकाश्वासेषु शस्यते ॥ दिनं वासारसैः पिष्ट्वा वालुकायन्त्रपाचितम् ॥ शुद्ध मनसिल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, हींग, द्वियामान्ते समुद्धत्य तत्तुल्यं कटुकत्रयम् । सेंधा नमक और बायबिडंग समान भाग ले कर निर्गुण्डीमूलचूर्णश्च व्योषतुल्यं विमिश्रयेत् ॥ चूर्ण बनावें ।। शिलातालोरसोनाम्नामाषेकं श्वासकासजित्॥ इसे घी और शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे
१ भाग शुद्ध हरताल और ४ भाग शुद्ध कास, हिक्का और श्वासका नाश होता है । मनसिलको एकत्र मिला कर गोखरु ( पाठान्तरके (मात्रा-१ माशा ।) अनुसार त्रिकुटा) तथा बासाके रसमें १-१ दिन | (७६१६) शिलाधवलेहः (२) घोट कर गोला बनावें और उसे शरावसम्पुटमें
(वृ. नि. र । श्वासा.) बन्द करके २ पहर .बालुका यन्त्रमें पकावें। शिलाहि विडङ्गं च मरिचं कुष्ठसैन्धवम । ( अथवा आतशी शीशीमें डाल कर बालुका यन्त्रमें | मध्वाज्यां लिहेत्कर्ष श्वासकासकफापहम् ॥ पकावें । ) तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर शुद्ध मनसिल, हींग, बायबिडंग, काली मिर्च, औषधको निकालकर उसमें उसके बराबर त्रिकुटेका | कूठ और सेंधा नमक समान भाग ले कर चूर्ण चूर्ण और उतना ही संभालुकी जड़का चूर्ण मिला
| बनावें। कर खरल करें।
. इसे शहद और घीमें मिला कर सेवन करनेसे
श्वास, कास और कफका नाश होता है। इसके सेवनसे श्वास कासका नाश होता है।
मात्रा--११ तोला. मात्रा-१ माशा।
(व्यवहारिक मात्रा-१ माशा १)
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