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पञ्चमो भागः
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मलकर कपड़े से छान लें तथा उस छने हुवे पानीको मिट्टीकी नांद आदि में भर कर धूप में रख दें । इस पानी पर जो मलाई जमे उसे निकाल कर अन्य कांचादिके पात्रमें सुरक्षित खर्खे । इसी प्रकार ज्योंय मलाई जमती जाय उसे निकालते रहें और अन्तमें जो गाद रह जाय उसमें और पानी दें और इसी प्रकार उससे भी शिलाजीत निकाल लें ।
रसप्रकरणम् ]
( यो. र. ;
(७६०९) शिलाजतुशोधनम् यो. चि. म. । अ. ९ शा. सं. । सं. २ अ. ११ ) हेमाद्याः सूर्यसन्तापात् द्रवन्ति गिरिधातवः ॥ जत्वाभं मृदुमृत्स्नाभं तद्भवेच्च शिलाजतु । शिलाजतु समानीय ग्रीष्म तप्ता शिलाच्युतप ॥ गोदुग्धैखिफलकाचे द्रावैध मर्दयेत् । आतपे दिनमेकैकं तच्छुष्कं शुद्धतां व्रजेत् ॥
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मुख्य शिलाजतुशिलां सूक्ष्मखण्डप्रकल्पिताम् । निक्षिप्यात्युष्ण पानीयैर्यामैकं स्थापयेत्सुधीः ॥ मर्दयित्वा ततो नीरं गृह्णीयात्रगालितम् । स्थापयित्वा च मृत्पात्रे धारयेदातपे बुधः ॥ उपरिस्थं घनं यत्स्यात् तत्क्षिपेदन्यपात्रके । धारयेदातपे धीमानुपरिस्थं घनं नयेत् ॥ एवं पुनः पुनर्नोत्वाद्विमासाभ्यां शिलाजतु । aaratai at क्षिप्तं लिङ्गोपमं भवेत् ॥ निर्धूमं च ततः शुद्धं सर्वकर्मसु योजयेत् । अधःस्थितं च यच्छेषं तस्मिन्नीरं विनिक्षिपेत् विमर्थ धारयेद्धर्मे पूर्ववचैव तन्नयेत् ।
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स्वर्णादि धातुओं वाले पर्वतोंसे सूर्य संतापसे पिघलकर जो लाख या कोमल मिट्टीके समान द्रव पदार्थ निकलता है उसे शिलाजीत कहते हैं । इस प्रकार पत्थर से निकले हुवे शिलाजीतको १-१ दिन गोदुग्ध, त्रिफला काथ और भंगरेके रसमें घोट कर धूप में सुखा लेने से वह शुद्ध हो जाता है।
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X X शिलाजीतके उत्तम पत्थरको कूट कर अत्युष्ण पानी में डाल दें और एक पहर पश्चात् अच्छी तरह
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(७६१०) शिलाजत्वा दियोगत्रयम् ( ग. नि. । पाण्डु. ७ ) गोमूत्रेण पिबेत् कुम्भकामलायां शिलाजतु । मा माक्षिकातुं वा किटं वाऽथ हिरण्यनम् ॥
गोमूत्र के साथ शिलाजतु या स्वर्णमाक्षिक भस्म अथवा स्वर्णकिट्ट सेवन करने से १ मासमें कुम्भ कामला नष्ट हो जाती है ।
(७६११) शिलाजत्वादिलौहम् (र. रा. सु. । यक्ष्मा. ; वृ. नि. र. ) शिलाजतुयुतं लोहं वलं तु विधिमारितम् । पथ्याशी सेवते यस्तु यक्ष्माणं व्यपोहति ॥
विधिवत् निर्मित लोह भस्म और शिलाजीतएकत्र मिला कर सेवन करने और पथ्य. पूर्वक रहने से यक्ष्माका नाश होता है ।
(७६१२) शिलाजत्वादिवटी (भै. र. । प्रमेहा. )
शिलाजत्वभ्र हेमानि लौहगुग्गुलुङ्गणम् । केशराजस्य तोयेन मयेदिवसद्वयम् ॥ वलमानां वटीं कृत्वा शैवालसलिलेन च । प्रातः प्रातः प्रयुञ्जीत शुक्रमेहनिवृत्तये ॥
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