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चूर्णभकरणम् ] . पश्चमो भागः (७८५०) सुरसादियोगः (२) | भार्गीतामलकी जीवा वृक्षाम्लश्चेति चूर्णितम् ।
(वै. म. र. । पट. ११) हिक्कावासविबन्धाःकासहत्पार्श्वशूलनुद ॥ तुषाम्भसा तालशिफां सशुण्ठी ___ तुलसीकी जड़, चोरपुष्पी, काकड़ासिंगी,
नाभी कवोष्णां प्रदिहेत् कृमिघ्राम् । | छोटी इलायची, पोखरमूल, कचूर, पीपल, दालप्रातः पिबेद्वा सुरसस्य मूलं
चीनी, बिड लवण, जवाखार, सोंठ, हींग, अमरसनागरं कोष्णजलेन वापि ॥ बेत, भरंगी, भुई आमला, जीवक और तिन्तडीक तालकी जड़ और सेठको कांजीमें पीस कर समान भाग ले कर चर्ण बनावें। मन्दोषण करके नाभिपर लेप करनेसे कृमि नष्ट होते | ___ इसके सेवनसे हिचकी, श्वास, विबन्ध, अर्श, हैं । अथवा तुलसीकी जड़ और सेठको मन्दोष्ण कास और पार्श्व-शूलका नाश होता है। जलमें पीस कर प्रातःकाल पीनेसे भी कृमि नष्ट (मात्रा-१॥-२ माशे । अनुपान शहद।) हो जाते हैं।
(७८५३) सुवर्गलादिचूर्णम् (७८५१) सुरसादियोगः (३)
(वृ. नि. र. । अतिसारा.) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ५) सुवर्चलं वचा हिङ्गु हैमज्योति विषा समम् । सुरसा सुरदारु मागधी
वातातीसारहृत्पोक्तं सकटुत्रयमम्भसा ।। बिडकम्पिल्लविडादन्तिनी।
संचल ( काला नमक ), बच, हींग, चिरात्रिता त्रिफला रसोनकं
यता, चीतामूल, अतीस, सेांठ, मिर्च और पोपल कृमिहद्वै सलिलेन सेवितम् ॥ | समान भाग ले कर चर्ण बनावें । तुलसीकी जड़, देवदारु, पीपल, बिड लवण,
इसे जलके साथ सेवन करनेसे वातातिसार कमीला, बायबिडंग, दन्तीमूल, निसोत, हरी, बहेड़ा, आमला और ल्हसन समान भाग ले कर
(मात्रा-१५-२ माशा ।) चूर्ण बनावें ।
(७८५४) सुवर्चलादियोगः (१) इसे पानीके साथ सेवन करनेसे कृमि रोग | (ग. नि. । शूला. २३ ; वृ. नि. र. । शूला.) नष्ट होता है।
सुवर्चलाजीरकमम्लवेतसं (मात्रा-१॥ माशा।)
समं त्रयं द्वयंशमरीचचूर्णकम् । (७८५२) सुरसाचं चूर्णम्
सुपक्वपूरस्य रसेन भावितं (ग. नि.। चूर्णा. ३)
__ जलेन पीतं खलु वातशूलहृत् ॥ सुरसा चोरकं शृङ्गी सूक्ष्मैला पुष्करं सठी।। काला नमक (संचल), जीरा और अम्लबेत पिप्पलीत्वबिडक्षारशुण्ठी हिज्बम्लवेतसम् ॥ १-१ भाग तथा काली मिर्चका चूर्ण २ भाग ले
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