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मिश्रमकरणम् ]
(८७५९) क्षारपिप्पलीयोग:
( यो. र. । यकृद्रोगा. ; बृ. नि. र. । उदरा. ) पलाशक्षा रतोयेन पिप्पली परिभाविता । गुल्मलीहार्तिशमनी हिदीप्तिकरी मता ॥
लौंडी पीपरों को पलाश (ढाक) के क्षार की भावना देकर रक्खे |
(८७६०) क्षारवर्ग:
( रसे. सा. सं . )
ये पीपर गुल्म और प्लीहा का नाश तथा अग्नि वृद्धि करती हैं ।
स्वर्जिकाटङ्कणञ्चैव यवक्षार उदाहृतः ॥
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पञ्चमो भागः
सज्जीखार, सुहागा और जवाखार के समूहको
क्षारवर्ग कहते हैं ।
(८७६१) क्षारसूत्रम् (१)
( वृ. यो त । त ६९ वृ. मा. व. च. द. । अर्शी. ५ )
से.
भावितं रजनीचूर्ण स्नुही क्षीरैः पुनः पुनः । बन्धनात्सुदृढं सूत्रं छिनन्यर्शोभगन्दरम् ||
(८७६३) क्षारागदः
( सुश्रुत सं. । कल्प अ. ७ ) धवाश्वकर्णेति निशपलाश पिचुमर्दपाटलिपारिभद्रकाम्रो दुम्बरकरहाटकार्जुन ककुभ सर्जकपीत श्लेष्माकाङ्कोठामलकप्रग्रह कुटजशमीकपित्थाश्मन्त कार्क चिरबिल्व महावृक्षारुष्करारलुमधु शिशाकगोजी सूर्यातिल्ब के क्षुरगोपघोण्टारिमेदानां भस्मान्याहृत्य गवां मूत्रेण क्षारकल्पेन परिस्राव्य विपचेद्दद्याच्चात्र पिष्पलीमूलतण्डुलीयकवराङ्गचोच क्रमनिष्ठाकर जिकाहस्तिपिप्पलीमरिचोत्पलसारिवाविडङ्गगृह
यह डोरा बांधने से अर्शके मस्सोका तथा धूमानन्तासोमसरलावाढीकगुहाकोशाम्र श्वेत
भगन्दरका नाश होता है ।
सर्षपवरुणलवणप्लक्षनिचुलकवर्द्धमानवज्जुल
;
हल्दीके चूर्णको सेहुंड (थूहर) के दूधकी अनेक भावनाएं देकर उसे डोरे पर लपेटकर
सुखा लें ।
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(८७६२) क्षारसूत्रम् (२)
( व. से. । अर्शो.)
स्नुहीकाण्डगते क्षीरे भल्लातकसमन्विते । ज्योतिष्म त्रिफलादन्ती कोशातक्यऽग्निसैन्धवैः ॥ चूर्णैरेतैः समधृतैः बन्धयेत्सूत्रकं दृढम् । मूत्रं तत्पातयेदर्श: छिन्नमूल इव द्रुमः ॥
भिलावा, मालकंगनी, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, कड़वी तोरीके बीन, चीता और सेंधा नमक समान भाग लेकर १र्ण बनायें और उसे स्नुही (सेंड) के दूध में घोटकर उसमें सूतके डोरे को भिगोकर सुखा लें |
इस डोरेको घी लगाकर अर्शके मस्सों पर बांध देनेसे मस्से गिर जाते हैं ।
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