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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम् ] पञ्चमो भागः ५०७ बड़ी बड़ी पीली कौड़ियों में भरदें और फिर समस्त मृदुना वह्निना चैव स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत । औषधसे अष्टमांश सुहागा तथा सुहागेसे आधाशुद्ध बलिमेव च सम्यग्वै षड्गुणं जारयेत्सुधी ॥ विष लेकर दोनोंको सेहुंड (थूहर) के दूधमें घोटकर | हेमगर्भरसो नाम त्रिषु लोकेषु विस्रुतः । उससे उन कौड़ियों का मुख बन्द कर दें। तथा | कासश्वासेषु सर्वेषु शूलेषु च हितस्तथा ॥ उन्हें चूना पुते हुवे मृत्पात्रमें रखकर उस पर ढकना तत्तद्रोगानुपानेन सर्वान् रोगाधयेत्परम् ॥ ढक कर सन्धि बन्द करदें एवं उस पात्र पर ३-४ शुद्ध पारद ४ भाग, शुद्ध सोनेके वरक (या कपड़मिट्टी करके मुखोकर १ हाथ लम्बे चौड़े और | स्वर्णभस्म ) २ भाग तथा ताम्र भस्म, मोती भस्म उतने ही गहरे गढ़े में रखकर गजपुटकी अग्नि दें। और प्रवाल भस्म १-१ भाग एवं गंधक सबके जब वह स्वांगशीतल हो जाय तो रसको निकाल बराबर ( ९ भाग ) लेकर प्रथम पारे गंधक और कर पीस लें। स्वर्णको एकत्र मिलाकर खरल करें और फिर उसमें इसे लोकनाथ रसके समान सेवन कराना | अन्य ओषधियां मिलाकर घोटकर एकजीव कर लें। और मृगाङ्क रसके समान पथ्यादिकी व्यवस्था करनी । तदनन्तर उसे ( अदरक के रस में ) खरल करके चाहिये । सबका एक गोला बनावें और उसे शराव सम्पुट में ३ दिन तक लवणका त्याग करना चाहिये। बन्द करक मन्दाग्निस भूधरयन्त्रम पकाव आर फिर यदि वमन होने लगे तो गिलोयका क्वाथ ( जब समझें कि गंधक जीर्ण हो गया तब )उसके शहद मिलाकर पिलावें । यदि कफ का प्रकोप हो स्वांगशीतल होने पर रसको निकाल कर उसमें तो गुड़ और अदरक खिलावें । दस्त आने लगे तो पुनः उसके बराबर गंधक मिलाकर पहिलेकी तरह सेकी हुई भांग दही में मिलाकर सेवन करावें। | भूधरयन्त्र में पकावें। इसी प्रकार षड्गुण गंधक इस रसके सेवनसे कास, क्षय, स्वास, ग्रहणी जारण करें और अन्त में खरल करके सुरक्षित रखें। रोग, अरुचि, कफ और वायुका नाश होता तथा इसके सेवनसे कास, श्वास, शूल और रोगोअग्निकी वृद्धि होती है। | चित अनुपानके साथ देने से अन्य अनेक रोग नष्ट (८६६३) हेमगर्भरसः (१) होते हैं । यह एक अत्यन्त प्रसिद्ध रस है । ( वृ. नि. र. । कासा.) (८६६४) हेमगर्भरसः (२) रसस्य भागाश्चत्वारस्तदर्ध कनकस्य च । (यो. र. । कासा.) तदर्ध ताम्रकं चैव मौक्तिकं विद्रुमं समम् ॥ रसं च गन्धकं चैव समं खल्वे विमर्दयेत् । तत्समानेन बलिना सर्व खल्वे विमर्दयेत् । कजल्यां च तथा स्वर्ण संशुद्धं च विनिक्षिपेत।। कृत्वा तु गोलकं पश्चात्पचेद्भूधरयन्त्रके ॥ सुसूक्ष्मे सुदृढे वस्त्रे बद्ध्वा पोटलिका दृढाम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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