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रसप्रकरणम्]
पञ्चमो भागः
१५७
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बल्यं वृष्यमशेषदोपहरणं धातुमदं कासिनाम् । श्रीमृत्युञ्जयो रसः मेध्यं हृघरसायनं हरमुखाज्ज्ञात्वा मया भाषितम्।
मृत्युञ्जयरसः (२) देखिये। छोटी कटेली, बासा, शालपर्णी, बेलछाल, |
(७६७९) श्रीरसराजः अरलुछाल, पाढल, पृश्निपर्णी, भरंगी, अद्रक, चीतामूल, पीपलामूल, गोखर, चव्य, अपामार्ग
( भै. र. । ज्वरा.) और कौंचकी जड़; इनके १०-१० तोले स्वरस । भागैकं रसराजस्य भागश्च हेममाक्षिकात् । ( या काथ ) में ५ तोले अभ्रक भस्मको पृथक् भागव्यं शिलायाश्च गन्धकस्य त्रयो मताः । पृथक मर्दन करके सुरक्षित रक्खें ।
तालकाष्टादशभागः शुल्वं स्याद्भागपञ्चकम् । मात्रा-आधी रत्तो।
भल्लातकात् त्रयो भागाः सर्वमेकत्र चूर्णयेत् ॥ यह रस ५ प्रकारकी खांसी, स्वरभेद, उरः- वज्रीक्षीरप्लुतं कृत्वा दृढे मृण्मयभाजने । क्षत, हिचकी, ज्वर, श्वास, पीनस, प्रमेह, गुल्म, विधाय सुदृढां मुद्रां पचेद्यामचतुष्टयम् ॥ अरुचि, क्षय. राजयक्ष्मा, अम्लपित्त, दाह, मोह,
स्वाङ्गशीतं समुद्धत्य खल्लयेव सुदृढं पुनः सर्वदोषज शूल, कफ, कृमि, छर्दि, पाण्डु, हली
गुआद्वयमितश्चास्य पर्णखण्डेन दापयेत् । मक, गलरोग, विस्फोटक, कामला, अग्निमांद्य, ग्र
रसराजः प्रसिद्धोऽयं ज्वरमष्टविधं जयेत् ॥ हणी, यकृत् , प्लीहा, अर्श तथा आम और कफ जनित रोगोंको नष्ट करता है।
शुद्ध पारद १ भाग, स्वर्ण माक्षिक भस्म १
भाग, शुद्ध मनसिल २ भाग, शुद्ध गन्धक ३ भाग, यह बल्य, वृष्य, धातुवर्द्धक, मेध्य, हृद्य
शुद्ध हरताल १८ भाग, ताम्र भस्म ५ भाग और और रसायन है।
शुद्ध भिलावे ३ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी श्रीजयमङ्गलो रसः कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका प्र. सं. २१०३ जयमङ्गलो रसः (१) चूर्ण मिला कर सबको सेहुंड ( थूहर ) के दूधमें देखिये।
घोट कर दृढ मृत्पात्रमें भर दें और उसके मुखपर श्रीनृपतिवल्लभरसः
शराव ढककर सन्धि बन्द कर दें एवं उस पर
३-४ कपड़मिट्टी करके सुखा लें और चूल्हेपर (भै. र. । रसायना.)
चढ़ाकर ४ पहरकी अग्नि दें । तदनन्तर जब वह प्र. सं. ३६६४ नृपतिवल्लभरसः देखिये।
। स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषधको श्रीमन्मथरसः
निकालकर पीस लें। (रसं. सा. सं. । रसा. वाजी. )
इसमेंसे २ रत्ती रस पानमें रखकर खिलानेसै प्र. सं. ५५२० मन्मयानरसः देखिये। आठ प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं।
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