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मिश्रप्रकरणम्
पञ्चमो भागः (७७२३) शीतजलपानयोगः (७७२६) शुण्ठीपुटपाका (वृ. मा.। मदात्यया.)
(व. से. । अतिसारा.) छर्दिमातिसारं च मदं पूगफलोद्भवम् ।
शुण्ठीमल्पधृतान्वितां परिवृतां गोधूमपिष्टैस्ततः।
| सद्यो गोमयवेष्टितान्तु विपचेन्मन्दाग्निनाचातुरः।। सद्यस्तच्छमयेत्पीतमातृप्तवारिशीतलम् ॥
| शीतीकृत्य सितासमां प्रतिदिनं भक्षेन्नरः पेट भर शीतल पानी पीनेसे छर्दि, मूर्छा,
पथ्यभुक् । अतिसार और सुपारीका नशा शीघ्र ही नष्ट
सर्वोपद्रवसंयुतानपि जयेद्दीर्घातिसारामयान्॥ हो जाता है।
___ सेठको थोड़ा घी लगा कर पानीमें भीगे (७७२४) शीताम्बुयोगः हुवे गेहूंके आटेमें लपेटकर गोला बनावें और (ग. नि. । अजीर्णा. ५)
उसके ऊपर गायके ताजे गोबरका १ अंगुल मोटा
लेप करके मन्दाग्निमें पकावें । जब गोलेका रंग अन्नं विदग्धं हि नरस्य शीघ्र
लाल हो जाय तो उसे निकालकर ठंडा करलें । शीताम्बुना वै परिपाकमेति ।
तदनन्तर सोंठको निकालकर पीस लें और उसमें तवस्य शैत्येन निहन्ति पित्त
समान भाग मिश्री मिलाकर रखें। माक्लेदिभावाच्च नयत्यधस्तात् ॥ इसे सेवन करने और पथ्यपूर्वक रहनेसे उपविदग्धाजीर्णमें ठण्डा पानी पीनेसे शीतलताके ! द्रवयुक्त पुराना अतिसार भी नष्ट हो जाता है। कारण पिस शान्त हो कर अन्न पच जाता है (७७२७) शुण्ठयादिपायसः और द्रवताके कारण वह पचा हुवा आहार नीचेको
(ग. नि. । वाता. १९; वृ. मा. । वातव्या.; उत्तर जाता है।
व. से. । वातव्या.) . (७७२५) शीतोदकादियोगः । शुण्ठीगन्धर्वबीजाभ्यां पिष्टाभ्यां पायसः कृतः। (ग. नि. । सा. रसा. १)
भक्षितस्तु कटीशूलं गृध्रसी इन्त्यसंशयम् ॥
___ सोंठ और अण्डीके तुष रहित बीजोंकी दूधमें शीतोदकं पयः क्षौद्रं सपिरित्येकशो द्विशः। खीर बनाकर खानेसे कटिशूल और गृध्रसीका विशः समस्तमथवा प्राक्पीतं स्थापयेद्वयः ॥ | अवश्य नाश हो जाता है।
प्रातःकाल ( उषःकालमें ) शीतल जल, दूध, । (७७२८) शुण्ठधादिपिण्डी शहद और घीमेंसे कोई एक पदार्थ, अथवा दो | (वं. से.; वृ. मा. । नेत्ररोगा.; र. र. । नेत्ररो.) या तीन, अथवा चारों पदार्थ पीनेसे आयु स्थिर | शुण्ठीनिम्बदलैः पिण्ड:मुखोष्णः स्वल्पसैन्धवैः होती है।
| धार्यश्चक्षुषि संक्षेपाच्छोफकण्डूव्यथापहः॥
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