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चूर्णपकरणम् ]
पञ्चमो भाग
५२५
(८७१२) क्षारादियोगः (२) छोटा करौंदा, बरनेकी छाल, चीतामूल और (वृ. नि. र.; वृ. मा. । उदरा. ; यो. र. । यकृद्रोगा.)
नागकेसर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । क्षारं वा बिडकृष्णाभ्यां पूतिकस्याम्बुमिश्रितम्।
इसे दूधके साथ पीनेसे अन्त्रशूल नष्ट होता है। यकृत्प्लीहमशान्त्यर्थं पिबेत प्रातर्यथाबलम् ॥ अथवा रातको लहसन, सोंठ, करञ्जमूल और जवाखार, बिड लवण और पीपल; इनके |
इन्द्रायण की जड़ का क्वाथ पीने से भी अन्त्रशूल
नष्ट हो जाता है। समान भाग मिश्रित चूर्णको करंज ( कण्टक करंज ) के रसमें मिलाकर प्रातःकाल सेवन करने से यकृत ___ (८७१४) क्षुद्रकरवन्दयोगः (२) और प्लीहारोगका नाश होता है।
(वै. म. र. पटल ७) (८७१३) क्षुद्रकरवन्दयोगः (१) ।
क्षुद्रकरवन्द (मर्द) मूलं पयसा पीतं प्रभात(वै. म. र. । पटल ९)
कालेषु । क्षुद्रकरवन्दवरुणानलसुवर्ण
निरुणदि मूत्रकृच्छू सन्तमसं भानुबिम्बमिव । दुग्धसहितं पिबति यो जयति शूलम्। प्रातःकाल क्षुद्रकरमर्द (छोटे करौंदे ) की अन्नजनितं, शुननागरकुबेरा
जड़को दूधके साथ पीसकर पीनेसे मूत्रकृच्छ्रका क्षीन्द्रलतिकागृतजलं च निशि पीतम् ॥ नाश होता है ।
इति क्षकारादिचूर्णभकरणम्
अथ क्षकारादिगुटिकाप्रकरणम् (८७१५) क्षारगुटिका (१) सपिप्पलीमूलविडङ्गसारं ( रसे. चि. म. । अ. ९; रसे. सा. सं; धन्व: मुस्ताजमोदामरदारुबिल्वम् ॥
च. द.; र. रा. सु. । शोथा.; ग. नि. । गुटिका. कलिङ्गकाश्चित्रकमूलपाठे __४; च. सं । चि. अ. १२ श्वयथु.)
सयष्टिकं चातिविषं पलांशम् । क्षारद्वयं स्याल्लवणानि चत्वा
सहिङ्गुकर्ष तु ससूक्ष्मचूर्ण र्ययोरजो व्योष फलत्रिके च ।
द्रोणं तथा मूलकशुण्ठकानाम् ॥
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