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- भैषज्य रत्नाकरः
भारत-
रस सिन्दूर, शुद्ध हरताल, और शुद्ध मंसिल समान भाग ले कर सबको चिरचिटे (अपामार्ग ) के काथमें घोट कर गोला बनावें और उसे ताम्रके सम्पुट में बन्द करके बालुकायन्त्रमें पकायें ।
मात्रा - १ माषा ( व्य. मा. २ रत्ती । )
इसे काली मिर्चके चूर्ण के साथ खा कर १ चुल्लू उष्ण जल पीना चाहिये ।
इसके सेवन से शीतज्वर नष्ट होता है । (७६३५) शीतभञ्जीरसः (७)
( भा. प्र. म. खं. २ । ज्वरा. ) तालकं शुक्तिका चूर्ण तुल्यं तत्रोभयोरपि । नवमांशञ्च तुत्थं स्यान्मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः ॥ तत्तु संशुष्कमुपर्वन्यैर्गजपुटे पचेत् । शीतं तच्चूर्णयेदर्द्धगुआमात्रं सितायुतम् ॥ प्रभाते भक्षयेत्तेन याति शीतज्वरः क्षयम् । वान्तिर्भवति कस्यापि कस्यचिन्न भवत्यपि ॥
शुद्ध हरताल और सीपका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध तूतिया दोनोंका नवमांश लेकर तीनों को घृतकुमारीके रस में खरल करके गोला बनावें और उसे सुखाकर शरावसम्पटमें बन्द करके गजपुटमें पकायें |
मात्रा - आधी रती ।
इसे प्रातःकाल मिसरीके साथ खानेसे शीतज्वर नष्ट होता है ।
इसे खाने के पश्चात् किसीको वमन हो जाती हैं और किसीको नहीं होती ।
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[ शकारादि
(७६३६) शीतभञ्जीरस: (८)
( र. म. 1 अ. ६; भै. र. । ज्वरा. ; धन्व. ; र. का. . । ज्वरा. ; वै. कल्प. । स्क. २; वृ. यो त । त. ५९ रसे. चिं. ; म. । अ. ९ )
रसं हिङ्गुलगन्धञ्च जैपालं समं समम् । दन्तक्वाथेन सम्मर्थ रसो ज्वरहरः परः ॥ आर्द्रकस्वर सेनाथ दापयेद्रक्तिकामितम् । नवज्वरं महाघोरं नाशयेद्याममात्रतः ॥ शीततोयं पिबेच्चानु इक्षुमुद्गरसो हितः । शीतभी रसो नाम्ना सर्वज्वरकुलान्तकृत् ॥
शुद्ध पारद, हिंगुल, गन्धक और जमालगोटा समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनायें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर सबको दन्तीमूलके काथमें खरल करें ।
मात्रा - १ रती |
इसे अदरक के रसके साथ देने से महा घोर नवीन वर १ पहर में नष्ट हो जाता है ।
अनुपान - शीतल जल या ईखका रस अथवा मूंगका यूप ।
शीतभञ्जीरस: (९)
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( रसे. चि. म. । अ. ९; भै. र. र. रा. सु. ; र. का. धे. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. । ज्वरा. ; र. र. स. । उ. अ. १२ ; र. मं. ६ ; र. स. क. । उ. ४ ; भा. म. खं. २ । ज्वरा. )
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