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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ सकारादि (८०५५) सुवर्णपुष्प्यादिलेपः बराबर बराबर ले कर सबको एकत्र मिलाकर स्त्रीके ( शा. सं. । खं. ३ अ. ११)
दूधमें मिलाकर घोट लें।
सन्निपातमें इसका लेप करनेसे समस्त उपद्रव सुवर्णपुष्पी कासीसं विडङ्गानि मनःशिला। नष्ट हो जाते हैं। रोचना सैन्धवं चैव लेपनाच्छित्रनाशनम् ॥ (८०५७) सूतादिलेपः अमलतासके पत्ते, कसीस, बायबिडंग, मन
(यो. र. । कुष्ठा.) सिल, गोरोचन और सेंधानमक समान भाग ले कर | सतगन्धकयोः पिष्टा कज्जलिकां विधाय च । बारीक पीस लें।
म्रक्षणेन विमर्थाथ करित्वग्लेपने हितम् ॥ यह लेप लगानेसे स्वित्र कुष्ठ नष्ट होता है। (समान भाग ) पारे और गन्धककी अत्य (८०५६) सुवर्णादिलेपः
| महीन कज्जलीको मक्खन में मिलाकर लेप कर
| करित्वक् (गजचर्म) रोग नष्ट होता है। (र. चं. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.)
(८०५८) सूरणादिलेपः (१) सुवर्णमुक्तारजतप्रवालं
(बृ. नि. र. । प्रहण्य.) कस्तूरिकाकुङ्कमरोचनं च । सूरणं रजनी वहिटणं गुडमिश्रितम् । वराट-रुद्राक्ष-मधूक-बिल्वं पिष्ट्वारनालकैलेंपो हन्त्य सि महान्त्यपि ।। कुष्ठं च खजूरपुनर्नवे च ॥
___जिमीकन्द, हल्दी, चीतामूल, सुहागा औ द्राक्षा कणा नागरपुत्रजीवी
गुड़ समान भाग ले कर कांजीके साथ अत्यन्त सारङ्गशृङ्गं कतकस्य बीजम् ।
बारीक पीस कर लेप करनेसे प्रवृद्ध अर्शके मस्सेभी एरण्डमूलं शरशीर्षकं च
नष्ट हो जाते हैं। मयूरिका श्वेतपुनर्नवा च ॥ स्तन्येन पिष्ट्वा कुरु सन्निपाते
(८०५९) सूरणादिलेपः (२) लेपः सदा सर्वगदानिहन्ति ॥
(वै. म. र. । पटल १६) सेना, मोती, चांदी, प्रवाल, कस्तूरी, केसर, परिणतसूरणकन्दं सनागरं तोयसम्पिटम् । गोरोचन, कौड़ी, रुद्राक्ष, महुवेके फूल, बेलकी
मेदोग्रन्थिहरार्थ लिम्पेद्बहुशश्च सप्ताहम् ।। छाल, कूठ, खजूर, पुनर्नवा, द्राक्षा (मुनक्का), पीपल, पक जिमिकन्द और सांठ समान भाग ले सोंठ, पुत्रजीव, हरिणका सींग, निर्मलीके बीज, | कर दोनोंको पानीके साथ बारीक पीस कर बार अरण्डमूल, शर (सरकण्डेकी जड़), अगर, पाठा | बार लेप करनेसे १ सप्ताहमें मेदकी गांठ नष्ट हो और सफेद पुनर्नवा; इनका अत्यन्त बारीक चूर्ण | जाती है ।
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