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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] पञ्चमो भागः ४२७ (८३९१) सहदेवीमूलयोगः तदर्द्ध पारदं शुद्धं कज्जलीकृत्य निक्षिपेत् । (व. से. । ज्वरा.) श्वेतशाल्मली तोयेन सप्तधा भावयेत्पुनः ॥ सहदेवाया मूलं विधिना कण्ठनिबद्धमपहरति । माहिषेण च दुग्धेन तच्चूर्ण भावयेत् पुनः। एकद्वित्रिचतुर्मिदिवसै भूतज्वरं पुंसाम् ॥ शुष्कं तच्चूर्णयेद् यत्नाल्लेहयेन्मधुसर्पिपा ॥ सहदेवीकी जड़को विधिपूर्वक कण्ठमें बांधनेसे अनेनाशीति वर्षोऽपि शतधा रमते स्त्रियाः । १,२,३ या ४ दिनमें भूत-वर नष्ट हो जाता है। ऊध्वलिङ्गः सदा तिष्ठेत् कामदेव इव स्वयम् ।। (८३९२) सहदेवीमूलिकाबन्धनम् । ज्वरादिरोगनिर्मुक्तः संसारसुखमश्नुते । माषमेकन्तु कर्तव्यं, दुग्यमात्रानुपानकम् ॥ (वृ. मा. । ज्वरा.) विदारीकन्द, तालमूली (मूसली), आमला, नखेनोत्पाटिताः सहदेवीमूला कर्णबन्धनात् । और पुनर्नवाकी जड़ २-२ भाग, शुद्ध गंधक १ ज्वरं चातुर्थिकं हन्ति भानुवारे न संशयः ॥ भाग और शुद्ध पारद आधा भाग ले कर प्रथम पारे रविवारके दिन सहदेवीकी जड़ नाखूनसे गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य निकालकर कानमें बांधनेसे चातुर्थिक वर अवश्य औषधांका चूर्ण मिलाकर सबको सफेद संभलको नष्ट हो जाता है। जड़के रसकी सात भावना दें और फिर मैंसके दूधमें (८३९३) सामुद्रादिवर्तिः खरल करके सुखा लें। (वृ. यो. त. । त. ९८ ; व. से. । गुल्मा. ; इसे शहद और धीके साथ सेवन करनेसे ८० यो. र. । गुल्मा.) वर्षको वृद्ध पुरुप भी १०० स्त्रियांसे रमण करनेमें वातव) निरोधेषु सामुद्राईकसर्षपैः । समर्थ हो जाता है। कृत्वा पायौ विधातव्या वर्तयो मरिचान्वितैः ॥ इसे सेवन करने वाले का लिङ्ग कभी शिथिल यदि मल और अपान वायु रुक गया हो तो नहीं होता और वह ज्वरादि रोगांसे मुक्त होकर समुद्र लवण, अदरक, सरसे और काली मिर्च | संसार सुखका उपभोग करता है। समान भाग ले कर चूर्ण बना कर ( उसे पानीमें इसे १ मास तक सेवन करना चाहिये । पकाकर कपड़ेकी पट्टी पर लेप करके ) बत्तियां अनुपान-दूध । बनावें और १-१ बत्ती मलमार्गमें रक्खें । ( मात्रा-१ माशा।) (८३९५) सिद्धार्थागुद्वर्तनम् (८३९४) सिद्धशाल्मलोकल्पः ( यो. र. ; ग. नि. । शीतपित्ता. २ ; रसे. ( भै. र. । वाजीकरणा.) चि. म. । अ. ९ ; वृ. नि. र. शीतपित्ता; भूकूष्माण्डं तालमूली धात्री चैव पुनर्नवा । वृ यो. त । त. १२१ ) । समभागं समाहत्य भागाई गन्धकं तथा ।। सिद्धार्थरजनीकुष्ठपपुन्नाटतिलैः सह । For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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