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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भारत-भैषज्य- रत्नाकरः ३१६ (८१५३) समीरगजकेसरीरसः ( र. रा. सु. ; वै. र. ; वृ. नि. र. । वातन्या. ) नवाहिनं कुचिलं नवानि मरिचानि च । समभागानि सर्वाणि रक्तिकाप्रमितानि च ॥ देयानि प्रातरेतानि पुनस्ताम्बूलचर्वणम् । कुब्जे च खञ्जवाते च सर्वजे गृध्रसी गदे || अपवाह प्रयोक्तव्यः शोषे कम्पेऽपतानके । विसूच्यामरुचौ देयोऽपस्मारे च विशेषतः ॥ नवीन अफीम, शुद्ध नवीन कुचलेका चूर्ण, और काली मिर्चका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें । इनमें नित्य प्रति प्रातःकाल १ गोली खा कर बादको पान खाना चाहिये । इनके सेवन से कुब्जता ( कुबड़ापन ), खञ्जवात, सर्वद्रोपज गृध्रसी, अपबाहुक, शोष, कम्प, अपतानक, विसूचिका, अरुचि और विशेषतः अपस्मार का नाश होता है । (८१५४) समीर पन्नगरस: (१) ( र. चं. । वातरो. ) पारदं गन्धकं मल्लं हरितालं तथैव च । एतच्चतुष्टयं सर्व तुलसीरसमर्दितम् ॥ कृत्वावयेद् गोलकन्तु तत् । शरावयुगुले क्षिप्त्वा वोलुकायन्त्रगं पचेत् ॥ दीपिका मितं वदित्वा यामचतुष्टयम् । स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य नाम्नाऽसौ वातपन्नगः ॥ सन्निपाते तथोन्मादे सन्धिबन्धे कफामये । नागवल्ल्या दलेनैव भक्षयेद् गुञ्जिकाद्वयम् || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ सकारादि शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध संखिया और शुद्ध हरताल समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके कज्जली बनायें और उसे तुलसीके रसमें खरल करके सबका एक गोला बना लें तथा उसे सफेद अभ्रकके पत्रों में लपेट कर शरावसम्पुट में बन्द करें और उस पर ३-४ कपर मिट्टी करके सुखा लें । तदनन्तर उसे बालुका यन्त्रमें रख कर अत्यन्त मृदु अग्नि पर ४ पहर पाक करें औषधको निकाल कर खरल करके सुरक्षित तत्पश्चात् यन्त्रके स्वांगशीतल होने पर उसमें से रक्खें । मात्रा - २ रत्ती । पानमें रखकर खिलावें । 1 यह रस सन्निपात, उन्माद, सन्धियोंके जकड़ जाने और कफ रोगोंको नष्ट करता है । (८१५५) समीरपन्नगरस: (२) ( वृ. नि. र. ; यो. र. र. चं.; र. रा. सु. ; वै. र. । वातव्या . ) अभ्रगन्धविषयो पर सटङ्कान्समांशकान् । भावयेत्सप्तधा भृङ्गरसेन स्यात्समीरहा । आर्द्रद्रवेण वल्लो वा खण्डव्योषेण योजितः । महावाताञ्जयत्याशु नासाध्मातः सुसज्ञकृत् ॥ अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, सोंठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध पारद और सुहागेकी खील समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर सबको भंगरे रकी सात भावना दें और सुखा कर सुरक्षित रक्खें । For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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