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रसप्रकरणम् ]
पश्चमो भागः
३६३
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(८२३८) सुधानिधिरसः (३) भस्म सबसे दो गुनी ( १० भाग ) ले कर सबको ( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. मु. ; धन्व. ।
एकत्र मिलाकर गोमूत्र, भंगरेके रस, पुनर्नवामूलके मूर्छा.)
रस, काले भंगरेके रस, संभालके रस और मण्डूक
पीके रसकी पृथक् पृथक् १४-१४ भावना दे कर कणामधुयुतं सूतं मूर्छायामनुशीलयेत् ।।
| २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। शीतसेकावगाहादि सर्व वा शीतलं भजेत् ॥ सुधानिधिरसो नाम मदमूर्छाविनाशनः ।।
अनुपान-तक या भंगरेका रस । पारदभस्म ( या रससिन्दूर ) को पीपलके इसके सेवन कालमें तकके साथ भात खाना चूर्ण और शहदके साथ सेवन करनेसे मूर्छाका | | और प्यासमें पानीके स्थानमें तक पीना चाहिये । नाश होता है।
लवणसे परहेज़ करना चाहिये । मूर्छा और मद रोगमें शरीर पर शीतल जल | इसके सेवन से कामला, ज्वर, शोथ, प्रहणीकी धार डालना, शीतल जलमें घुसकर स्नान करना विकार और पाण्डु का नाश होता तथा अग्नि आदि शीतल उपचार करने चाहिये । दीत होती है। ( पारदभस्म १ रत्ती, पीपलका चूर्ण १ माशा, |
(८२४०) सुधानिधिरसः (५) शहद १ तोला।)
(यो. र. ; र. का. धे. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. (८२३९) सुधानिधिरसः (४)
मु. ; धन्व. , र. चं. ; वृ. नि. र. । रक्त(भै. र. । शोथा. )
पित्ता. ; र. चि. म. | स्त. ११ ; रसे. धान्यकं बालकं मुस्तं विश्व सिन्धुं समांशकम् ।
चि. म. । अ. ९) मण्डूरं द्विगुणं दत्त्वा भावयेत्तु चतुर्दश ॥
गन्धं मूतं माक्षिकं लोहचूर्ण गोमूत्र केशराजश्च शोथनी भृङ्गराजकः। निर्गुण्डी भेकपर्णी च रसैरेषां विभाव्य च ॥
____ सर्व घृष्टं त्रैफलेनोदकेन ।
लौहे पात्रे गोपयःस्थं च कृत्वा x द्विगुमश्च प्रयुञ्जीत तक्रेण सह बुद्धिमान् ।
रात्रौ दद्याद्रक्तपित्तप्रशान्त्यै ॥ केशराजरसैर्वापि भोजनं लवणं विना ।।। तक्रेण भोजयेदन्नं पाने तक्रश्च दापयेत् । x“ लौहे पात्रे गोमयैः पाचयित्वा " कामलाज्वरशोथनो वहिसन्दीपनः परः॥ इति पाठभेदः । ग्रहणोपाण्डुरोगनः सर्वव्याधिविनाशनः ॥ (नोट-इस प्रयोगके उपादान प्र. सं.८२३६
धनिया, सुगन्धवाला, नागरमोथा, सांठ और के समान हैं परन्तु निर्माणविधि और सेवन विधिमें सेंधा नमक-इनका चूर्ण १-१ भाग एवं मण्डूर | बहुत अन्तर है इसीसे पृथक् लिखा गया है।)
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