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भारत-भैषज्यमलाकरः
[शकारादि . (७७०५) श्वेतकुष्ठारिरसः बाबचीके छिलके रहित बीस पल (१००
(र. सं. क. ।उल्ला. १: र. का. घे.। कुष्ठा.) | तोले ) बीजोंको गोमूत्रमें भिगो दें और २१ दिन निस्तुपीकृत्य बाकुच्या बीजानां पलविंशतिम । पश्चात् उनमें १०-१० तोले लोह भस्म तथा गोजलस्यं त्रिसप्ताह लोहं पथ्या पलद्वयम् ॥
हर का चूर्ण मिला कर पुनः गोमूत्र डालें और गृहीत्वा गोजले शोष्यं सूर्यतापेऽति निष्ठुर।
उसे कड़ी धूपमें सुखा लें। (गोमूत्र प्रतिदिन काकोदुम्बरिकाद्रोणत्वां क्वाथे त्रिसप्तकम् ॥
नवीन लेना चाहिये और इतना ही डालना चाहिये भावयेत्तस्य चूर्णस्य गन्धसूतं समं कृतम्। ।
कि जितना एक दिनमें सूख जाए।) अम्लेन कज्जलीं कृत्वा सर्वमेकत्र कारयेत् ॥
तदनन्तर १६ सेर कठूमरको छालके काथकी शिगुमूलरसेनापि नागवल्लीदलेन च ।
उसे २१ दिन तक भावना दें। (प्रति दिन तीन भावनां त्रिदिनं दत्त्वा कर्षाधीशां गुटौं कुरु ॥
| पावके लगभग छालको कूट कर ६ सेर पानीमें एकैकां भक्षयेत्मातः श्वेतकुष्ठोपशान्तये ।।
पकावें और १॥ सेर पानी रहने पर छान कर वह चित्रकाशित्वचाचूर्ण रात्रौ गोदुग्धके वरम् ।। |
पानी उक्त औषधमें डालकर रख दें । इसी प्रकार क्षिपेइषि विलोडयाय ग्राहयेत्तक्रमुत्तमम् ।।
२१ दिन तक नित्य नवीन क्वाथ बनाकर डालते तत्ताडवं चैक मध्येऽष्टवल्लगन्धकम् ॥
| रहें । ) और फिर सुखाकर चूर्ण कर लें । पक्षिप्य गुटिकां पश्चात मपिवेदद्वित्रिसंख्यकाम। तत्पश्चात् उक्त चूर्णके बराबर शुद्ध पारद नवनीतेन चाभ्यङ्ग कार्यः स्पेयमातपे॥
| और गन्धक ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और सर्वश्वित्रे प्रजायन्ते स्फोटकाश्चामिदग्धवत । | इसे १ दिन नीबूके रस या किसी अन्य अम्ल प्रथमे सप्तके, पाको जायतेऽय द्वितीयके ॥
द्रवमें सरल करके उक्त चूर्णमें मिला दें । इसके रोहणं च तृतीये हि कुर्वन्ति च न संशयः । पश्चात् उसे सहजनेकी जड़की छाल और पानके निम्नुकस्य रसोपेतं कुडमालेपनं हितम् ॥
रसकी ३-३ भावना दे कर आधा आधा कर्षकी सतका गुटिका वापि रसस्यालेपने हिता।
गोलियां बना लें। विषाणां रोहण रम्यं वर्णदं जायते भृशम् ॥ सेवन विधि-रात्रिके समय गोदुग्धमें त्रिवेलं. तक्रभक्तं च पूर्व देयं च सप्तके। चीतामूलकी छाल का चूर्ण मिला कर उसका दही मष्ठा अपि सक्षाश्च देया जाते द्विसप्तके ॥ | जमा दें और प्रातः काल उसे मथकर तक बनावें। तृतीते सप्तके देया मकुष्ठात्रिफलाघृतम् । ४० तोले इस तक्रमें ३ माशे शुद्ध गन्धक और घृतमल्पं प्रदातव्यं श्वित्रकुष्ठी वरो भवेत् ॥ २ या ३ उपरोक्त वटी मिला कर रोगीको पिला चम्पकाम परं देह कान्तियुक्तं च नीरुजम् । दें। ( मात्रा बहुत अधिक है, चिकित्सकको माप्नुयायीयुतः सम्यक्ष्मनुजो भूमिमण्डले॥ रोगीका बलाबल देख कर मात्राका निर्णय करना रसराणमभाषेण सत्यं सत्यं च नान्यथा ॥ । चाहिये ।)
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