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अञ्जनप्रकरणम्
पञ्चमो भाग:
२९१
यस्तु वायुफिरङ्गातः सनरः सुखभाग्भवेत् । कर उस पर बबूलके कोयलोंकी अग्नि रखकर चतुर्दशदिनैरेव नात्र सन्देह ईरितः ।। रोगीको धूम्रपान करावें और फिर पानका बीड़ा
शुद्ध हिंगुल ६ माशे, सुहागा १० माशे और चबानेको दें। अकरकरे का चूर्ण १० माशे लेकर सबको अच्छी
पथ्य में घृतयुक्त जौकी रोटी दें। लवण न तरह खरल करें और फिर १० माशे मोमको पिघलाकर उसमें यह चूर्ण मिलाकर बेरकी गुठलीके
| खाने दें। समान गोलियां बना लें।
इसी प्रकार १४ दिन उपचार करनेसे फिरङ्ग प्रातःकाल इनमें से एक गोली चिलममें रख. ! रोग (आतशक) का अवश्य नाश हो जाता है।
इति सकारादिधूम्रप्रकरणम्
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अथ सकारायजनप्रकरणम् (८०८३) सज्ञाप्रबोधनरसा भाव्यं जम्बीरजैवैः सप्ताह तत्प्रयत्नतः ।
(र. स. क. । उल्ला. ५) सन्निपातं निहन्त्याशु अञ्जनेऽयं शिवः स्मृतः।। फिटकरी तुत्यनेपाल मरिच निम्बबीजकम् । जमालगोटेकी गिरी १० भाग और काली पुत्रजीवकमज्जा च निम्बुकेनार्कभाजने ॥ मिर्च तथा पीपलका चूर्ण एवं पारद १-१ भाग भाबना सप्त दातव्या गुटी गुआमिताञ्जनात् । लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें । जब सनिपातमपस्मारं विषं सर्पस्य नाशयेत् ॥ कजलके समान हो जाय तो उसे सात दिन
फिटकरी, नीलाथोथा, जमालगोटा, काली | जम्बीरी नीबूके रसमें खरल करके सुखा लें और मिर्च, नीमके बीज और पुत्रजीव ( पितोजिया ) अत्यन्त बारीक पीसकर सुरक्षित रक्खें । की मज्जा, समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला
इसे आंखमें लगाने से सन्निपात यर शीघ्र कर ताम्रपात्रमें डालकर नीबूके रसकी सात भावना
ही नष्ट हो जाता है। दें और १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें।
(र. प्र. सुधाकर में जमालगोटा ८ भाग है इसे ( पानीमें घिस कर ) अन्जन लगानेसे
तथा पोपलके स्थान में पीपलामूल है।) सन्निपात, अपस्मार और सर्पविष नष्ट होता है। (८०८४) सन्निपाताअनरसः
(८०८५) सर्पविषहराञ्जनम् (र. र. स. । उ. अ. १२ ; र. प्र. सु. । अ. ८) ( शा. सं. । ख. ३ अ. १३ ) निस्त्वनेपालकं बीजं दशनिष्क प्रचूर्णयेत् । जयपालभवां मज्जां भावयेन्निम्बुक द्रवैः । मरिच पिप्पली मूतं प्रतिनिष्क विमिश्रयेत् ॥ । एकविंशतिवेलं तत्ततो वति प्रकल्पयेत् ॥
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