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अवलेहमकरणम् ]
(७९२७) स्वायम्भुवो गुग्गुलुः (२) (बृहद्) (ग. नि. 1 गुटिका. ४ ; र. र. । वातरक्ता. ) अलम्बुषा लोह चूर्णमनयां पले पले । पलत्रयं च ताप्युत्थाद्वाकुची पलपञ्चकम् ॥ शिलाजतु तयोस्तुल्यं पलानि दश गुग्गुलोः । सर्वाण्येकत्र सञ्चूर्ण्य गुटिकां कारयेद्बुधः ॥ शाणं कर्षार्धक वा ततः खादेत्प्रयत्नतः । वातरक्तं च कुष्ठानि श्वित्राणि विविधानि च ॥ भगन्दरान् क्षुद्ररोगानशसि ग्रहणीगदान । aftatioछुक्रदोषांश्च पाण्डुतामुदराणि च ।।
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तोले;
पञ्चमो भागः
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गोरखमुण्डीका चूर्ण और लोहभस्म १० -१० स्वर्णमाक्षिक भस्म १५ तोले, बाबचीका | होता है ।
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चूर्ण २५ तोले और शुद्ध शिलाजीत ४० ते एवं शुद्ध गगल ५० ताले ले कर सबको एकत्र मिला कर अच्छी तरह कूदें और सबके एकजीव हेने पर ५-५ माशेकी गोलियां बना लें ।
(७९२८) समङ्गाद्यवलेहः (बृ. यो. त. । १४४ त. ) समङ्गोत्पलमखिष्ठा तिरीटतिलचन्दनम् । छागीक्षीरेण सक्षौद्रं रक्तातीसारनाशनम् ॥
लज्जालुकी जड़, नीलोत्पल, मजीठ, लोध, तिल और सफेद चन्दन; इनका समान भाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र मिला लें। तथा उसे शहद में मिला कर अवलेह ( चटनी ) बना लें ।
मात्रा - ५ माशे, ७॥ माशे या १। तोला । ( व्यवहारिक मात्रा - ३ - ४ रत्ती । )
इति सकारादिगुग्गुलुप्रकरणम
इसे चाटकर ऊपरसे बकरीका दूध पीना चाहिये ।
इसके सेवन से रक्तातिसार नष्ट होता है । ( मात्रा
-६ माशे । )
इसके सेवन से वातरक्त, कुष्ट, श्वेत कुष्ट, भगन्दर, क्षुद्र रोग, अर्श, ग्रहणी रोग, बस्तिके रेग, शुक्रदोष, पाण्डु और उदर रोगोंका नाश
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अथ सकाराद्यवलेह प्रकरणम्
(७९२९) सप्तमोऽवलेहः
(ग. नि. । कुष्ठा. ३६ )
त्रिफलान्योपभल्लात तिलाज्यक्षौद्रशर्कराः । वृष्यः सप्तमो मेध्यः कुष्ठहा कामचारिणः ॥
त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, ओमला), त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ), शुद्ध भिलावा, और तिल; इनका चूर्ण तथा घी, शहद और खांड समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें ।
यह लेह वृष्य, मेध्य और कुष्टनाशक है । ( मात्रा
- ६ माशे । )
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