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रसप्रकरणम् ]
पश्चमो भागः
४२३
(८३७६) स्वर्णशोधनम् (१) बल्मीक मृत्तिका ( बांबीकी मिट्टी ), घरका ( आ. वे. प्र. । अ. ११ ; वृ. यो. त.।।
धुंवां, गेरु, ईंटका चूर्ण और सेंधा नमक समान भाग त. ४१ ; यो. र.)
ले कर चूर्ण करें और उसे जम्बोरी नीबूके रस या
कांजीमें पीस कर स्वर्णपत्रों पर लेप कर दें। तदस्वर्णमुत्तमं वह्नौ विद्रुतं निक्षिपेत्रिशः।
नन्तर उन्हें शराव सम्पुट में बन्द करके एक बड़ी काञ्चनाररसे शुद्धं काञ्चनं जायते भृशम् ।।
अंगीठीमें निर्वातम्थान में २० उपलोंकी आग दें। स्वर्णको आगपर पिघला पिघला कर ३ बार
यदि स्वर्ण अधिक हो तो उपले भी अधिक लगाने कचनार के रसमें बुझाने से वह शुद्ध हो जाता है।
चाहिये । जब तक स्वर्ण का रंग उत्तम न हो जाए (८३७७) स्वर्णशोधनम् (२) तब तक अग्नि देनी चाहिये । इस प्रकार स्वर्ण भली ( आ. वे. प्र. । अ. ११)
भांति शुद्ध हो जाता है। वर्णमृत्तिकया लिप्त्वा मुनिशो ध्यापितं वसु। (८३७९) स्वर्ण शोधनम् (४) विशुध्यति वरं किञ्चिद्वर्णवृद्धिश्च जायते ॥ ( भा. प्र. । पू. खं. १) ___यया कुम्भकाराः भाण्डानि रयित्वा
पत्तलीकृतपत्राणि हेभ्नो वह्नौ प्रतापयेत् । पाचयन्ति सा वर्णमृत्तिकेत्युच्यते, "कावीस"
निषिश्चेत्तप्ततप्तानि तैले तक्रे च काधिके । इति भाषा।
गोमूत्रे च कुलत्थानां कषाये तु त्रिधा त्रिधा । जिस मिट्टी से कुम्हार बर्तन रंग कर पकाते
एवं हेम्नः परेषाञ्च धातूनां शोधनं भवेत् ॥* हैं उसको ( पानीमें पीस कर ) स्वर्ण पत्तों पर लेप करें और उन्हें आगमें रख कर ध्मावें । इसी प्रकार
___ स्वर्णके पत्रों को आगमें तपा तपा कर ३--३ ७ बार लेप करके ध्भाने से स्वर्ण शुद्ध हो जाता है
बार तेल, तक, कांजी, गोमूत्र और कुलथीके काथमें तथा उसका रंग भी कुछ उत्तम हो जाता है ।
| बुझाने से वह शुद्ध हो जाता है।
अन्य धातु भी इसी प्रकार शुद्ध होती हैं ।* (८३७८) स्वर्णशोधनम् (३) ( आ. वे. प्र. । अ. ११ ; र. चं.)
. * यद्यपि भाव प्रकाश ने स्वर्णकी शुद्धि भी अन्य वल्मीकमृत्तिका धूमं गैरिकं चेष्टिका पटु ।। धातुओं के अनुसार तैल तक्रादिमें लिखी है परन्तु इत्येता मृत्तिकाः पञ्च जम्बीरैरारनालकैः ।। आयुर्वेद प्रकाश कारका कथन है कि स्वर्णको तैल पिष्ट्वा कण्टकवेध्यानि स्वर्णपत्राणि लेपयेत् । | तकादि में शुद्ध करनेको आवश्यकता नहीं है। पुटेत्पृथुहसन्त्यां तु निर्वाते विंशदुत्पलैः ॥ इयमेव सुवर्णस्य शुद्धिर्नान्या हि विद्यते । अधिकैर्वाऽधिके हेम्नि यावद्वर्णो विवर्धते । । तैले तक्रादिके या तु रूप्यादीनामुदाहृता ।। इत्येवं पुटनैर्युक्त्या सम्यक शुध्यति काञ्चनम् ॥ ।
( आ. वे. प्र. । अ. ११)
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