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कषायमकरणम् ]
बला च काकमाची च तथा च विषमुष्टिका । कफक्रिमिहरः ख्यातः सुरसादिरयं गणः ॥ अत्रे विपक्वं च तैलमभ्यञ्जने हितम् ||
तुलसी, सफेद तुलसी, पाठा, भरंगी, फणिज्जक [ छोटे पत्तेवाली तुलसी ], लाल कमल, रोहिष तृण, राई, सफेद तुलसी, कायफल, मरुवा, कसौंदी, शल्लकी, बायबिडंग, संभालु, कनेर, गूलर, स्वरैटी, मकोय और बकायनकी छाल । इनका क्वाथ कफ और कृमिको नष्ट करता है ।
पञ्चमो भागा
ओषधियां कल्क और आठों मूत्रोंके साथ तैल पका कर उसकी मालिश करना बच्चोंके लिये हितकारी है ।
(७८११) सूतिकादशमूलम् (भैर. । स्त्री. )
(७८१०) सुषव्यादिस्वरसः ( वृ. मा. । मसूरिका. ; भा. प्र. म. खं. २ | मसूरिका. ) सुषत्रीपत्र निर्यासं हरिद्राचूर्णसंयुतम् । रोमान्ती ज्वर विस्फोटमसूरीशान्तये पिवेत् ॥
करेली के पत्तोंके रसमें हल्दीका चूर्ण मिला कर सेवन करनेसे ज्वर, विस्फोटक और मसूरिका शान्त होती है।
शालपर्णी पृश्निपर्णी बृहतीद्वयगोक्षुरम् । दासी प्रसारणी विश्वा गुडूची मुस्तकं तथा ॥ निहन्ति सूतिकारोगं ज्वरं दाहसमन्वितम् ॥
शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, झिण्टीमूल, प्रसारणी, सांठ, गिलोय और नागरमोथा इनका क्वाथ ज्वर और दाहयुक्त सूतिका रोगको नष्ट करता है ।
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(७८१२) सुरणपुटपाकः
( शा. सं. । म. खं. अ. १ ) सौरणं कन्दमादाय पुटपाकेन पाचयेत् । सतैललवणस्तस्य रसश्चार्थी विकारनुत् ॥
सूरणकन्द ( जिमिकन्द ) को पुटपाक विधिसे पका कर ( उस पर आधा अंगुल मोटा और जब वह लाल हो जाय तो उसे निकाल कर मिट्टीका लेप करके सुखा कर अंगारोंमें पकावें उसके ऊपर की मिट्टी छुड़ा कर ) कूटकर उसका रस निकालें ।
इसमें तेल और लवण ( सेंधा नमक ) मिला कर पीनेसे अर्शका नाश होता है ।
(७८१३) सौभाञ्जनकषायः
( हृ. मा. । विद्रध्य.; वृं. नि. र. । विद्रध्य.) सौभाञ्जनक निर्यूहो सैन्धवसंयुतः । अचिराद्विद्रधिं हन्ति प्रातः प्रातर्निषेवितः ॥
सजनेकी छाल के क्वाथमें होंग और सेंधानमक मिला कर प्रातः काल सेवन करने से विद्रधि शीघ्रही नष्ट हो जाती है ।
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(७८१४) सौभाञ्जनस्वरसयोगः ( वृ. मा. । कर्ण. ) सौभाञ्जनस्य निर्यासस्तिलतैलेन संयुतः । व्यक्तोष्णः पूरण: कर्णे कर्णशुलोपशान्तये ॥
सहजनेके ( पत्तों या छालके ) स्वरसमें तिलका तेल मिला कर उष्ण करके कानमें डालनेसे कर्णशूल नष्ट होता है ।