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भारत-मेषज्य-रत्नाकर
[शकारादि मभिष्ठं चापि मधुना पिष्ट्वाऽपीचरसेन वा। । पठानी लोध और मजीठ; इनके समान भाग रुपिरस्यन्दशान्त्यर्थमेतदअनमिष्यते ॥ मिश्रित चूर्णको शहद या ईखके रसमें घोट
शालपर्णी, पाढल छाल, आमला, धायके कर आंखमें लगानेसे रक्तज नेत्राभिष्यन्द नष्ट फूल, लोध, अर्जुन, कटेलीके फूल, कन्दूरीकी जड़, ( होता है ।
इति शकाराधअनमकरणम्
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अथ शकारादिनस्यप्रकरणम्
(७५१३) शर्करादिनस्यम् (१) शंख प्रदेश (कनपटि)का शूल, कर्णशूल, नेत्रशूल, (वृ. मा. । हिक्का.)
आधासीसी और सूर्यके साथ साथ बढ़ने वाला शर्करा वरं च गैरिकं मूत्रभावितम् ।
शूल (सूर्यावर्त) नष्ट होता है। गुडाकं च दातव्यं हिक्कानं नावनत्रयम् ॥ (७५१५) शालिपर्यादिनस्यम् (१) खांड और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण
(व. से. । शिरो.) बनावें।
शालिपयंम्भसा पिष्टा नस्यपदविभेदजित् । (२) गेरुको गोमूत्रकी भावना देकर सुखा । चक्रमर्दकबीजैर्वा लेपः कानिकपेषितः॥
(३) गुड और अदरक (सोंठ) को पीसकर शालपर्णीको पानीमें पीसकर नस्य देनेसे बारीक चूर्ण कर लें।
अ‘वभेद (आधासीसी)का नाश होता है । ये तीनों नस्य हिचकीको नष्ट करती हैं।
पमाड़के बीजोंको कांजीमें पीसकर लेप करनेसे (७५१४) शर्करादिनस्यम् (२)
भी आधासीसीका नाश हो जाता है। (वृ. नि. र. | शिरो.; वृ. मा.) (७५१६) शिग्रुमूलाचं नस्यम् सशर्करं कुममाज्यभृष्टं
(ग. नि. । ज्वरा. १; हा. सं. । स्था. ३ अ. २) नस्यं विधेयं पवनामृगुत्थे । शोभाअनकमूलस्य रसं न मुरसान्वितम् । भ्रूशकर्णाक्षिशिरोर्धशूले
विसजितानां नस्यं स्याबोधनं चाशु रोगिदिनाभिवृद्धिप्रभवे च रोगे ॥
णाम् ॥ खांड और घीमें भुनी हुई केसर समान भाग सहजनेकी जड़का रस और तुलसीके पत्तोंका लेकर एकत्र खरल कर लें।
रस (या चूर्ण) एकत्र मिलाकर नस्य देनेसे सन्निइसकी नस्य लेनेसे वातज तथा रक्तज भ्रशूल, पातकी मूर्छा जाती रहती है।
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