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उपासकाध्ययन
निर्देशक श्री टी०एन० रामचन्द्रन जैन तीर्थकरकी मूर्ति बतलाते हैं। इससे स्पष्ट है कि जैनधर्मके साथ उसकी मूर्तिपूजा भी बहुत प्राचीन है।
वैदिक कालमें वैदिकोंके द्वारा अग्नि, सूर्य, वरुण आदि देवताओंकी पूजा अग्निमें घी, अन्न वगैरहकी आहुति देकर भावात्मक रूपमें की जाती थी। इससे यह स्पष्ट है कि वैदिक ऋषि मूर्तिपूजक नहीं थे । सम्भवतया जब अहिंसा सिद्धान्त तथा उपनिषदोंके परब्रह्मके विचारोंके कारण वैदिक यज्ञोंका लोप हो चला तो वैदिक ऋषियोंने भी इस देशके प्राचीन निवासियोंमें प्रचलित मूर्तिपूजाको अपना लिया और मध्यकालमें उसका व्यापक प्रचार हो गया । वराहमिहिर (पांचवीं शताब्दो) ने अपनी बृहत्संहिता (६०-१९)में विभिन्न देवताओंको पूजनेवाले विभिन्न समुदायोंका उल्लेख किया है। तथा अठावनवें अध्यायमें राम, विष्णु, बलदेव, एकानंशा (?), ब्रह्मा, स्कन्द, शिव, गिरिजा, बुद्ध, जिन, सूर्य, माता, यम, वरुण और कुबेरको मूर्तियोंका वर्णन किया है । इससे स्पष्ट है कि उस कालमें इन देवी-देवताओंकी पूजा की जाती थी।
सातवीं शताब्दीके जैनाचार्य रविषेणने पद्मचरित्रमें लिखा है,
"जो जिन भगवान्की आकृति के अनुरूप जिनबिम्ब बनवाता है तथा जिन भगवान्को पूजा और स्तुति करता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।"
इसी तरह उक्त शताब्दीमें रचे गये अध्यात्म ग्रन्थ परमात्मप्रकाशमें लिखा है,
"तूने न तो मुनिवरोंको दान ही दिया, न जिन भगवान्की पूजा ही को और न पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया, तब तुझे मोक्षका लाभ कैसे होगा।"
सातवीं शताब्दीमें रचित वरांगचरित ( सर्ग २२ )में जटासिंहनन्दीने जिनपूजाके माहात्म्यके साथसाथ जिनबिम्ब और जिनालयनिर्माणका बहुत महत्व बतलाया है तथा जैनपूजा-महोत्सवका सुन्दर चित्रण किया है। उनके लेखसे पता चलता है कि उस समय मन्दिरोंको दीवारोंपर पौराणिक उपाख्यान चित्रित किये जाते थे और राज्योंको ओरसे पूजाके निमित्त ग्राम वगैरह मन्दिरोंको दानमें दिये जाते थे। . जब भारतपर मुसलमानोंके आक्रमण होने लगे और मन्दिर तथा मूर्तियां तोड़ी जाने लगी तो उसकी प्रतिक्रियाके रूपमें भारतमें मन्दिरों और मूर्तियोंके निर्माणपर पहले से भी अधिक जोर दिया जाने लगा।
__ आचार्य अमितगतिने अपने सुभाषितरत्नसन्दोहमें लिखा है कि जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान्को अंगुष्ठप्रमाण प्रतिमा बनवाता है वह भी अविनाशी लक्ष्मीको प्राप्त करता है। आचार्य पद्मनन्दि उनसे भी आगे बढ़
१. अनेकान्त वर्ष १४, कि० ६ में 'हड़प्पा और जैनधर्म' शीर्षक लेख । २. "विष्णोर्भागवतान्मगांश्च सवितुः शम्भोः समस्मद्विजान् , मातृणामपि मातृमण्डलविदो विप्रान् विदुर्ब्रह्मणः । शाक्यान् सर्वहितस्य शान्तमनसो नग्नान् जिनानां विदुयें यं देवमुपाश्रिताः स्वविधिना
तैस्तस्य कार्या क्रिया ॥"-वृहत्संहिता ६०-१९ । ३. "जिनविम्बं जिनाकारं जिनपूजां जिनस्तुतिम् । . यः करोति जनस्तस्य न किञ्चिद् दुर्लभं भवेत् ॥” २१३॥ पर्व १४॥ ४. “दाण ण दिण्णउ मुणिवरहँ ण वि पुजिउ जिणणाहु ।
पंच ण वंदिय परमगुरु किमु होसइ सिवलाहु ॥"१६८॥ ५. "अष्टोत्तरग्रामशतं वरिष्ठं दासांश्च दासीभृतकान् गवादीन् ।
संगीतकं सान्ततिकं प्रमोदं समर्पयामास जिनालयाय ॥"-वरांगचरित २३१९१॥ ६. "येनाङ्गष्ट प्रमाणार्चा जैनेन्द्री क्रियतेऽगिना।
तस्याप्यनश्वरी लक्ष्मीन दूर जातु जायते ॥"-सु० सं० श्लो० ८७६ ।